________________ अणुग्मडवेस 392 - अभिवानराजेन्द्रः - भाग 1 अणुभव अ०इगरुयविहवभारो, सिट्टी तत्थासि रइसारो / / 1 / / सारयससिनिम्मलसीलबंधुला बंधुला पिया तस्स। ताणं धूया रूया-इगुणजुया बंधुमइ नाम / / 2 / / सा पुण कंचणचूडय-मंडियबाहा अलंकियसरीरा। पगईए उन्भडवेसपरिगया चिट्ठइ सया वि॥३।। अन्नदिणे सा पिउणा, भणिया वयणेहिँ पणयपवणेहि। एवं उब्भडवेसो, वच्छे! पच्छो न सच्छाण // 4 // यदुक्तम्"कुलदेसाण विरुद्धो, वेसो रन्नो वि कुणइ नहु सोहं। वणियाण विसेसेणं, विसेसओ ताण इत्थीणं / / 5 / / अइरोसो अइतोसो, अइहासो दुजणेहिँ संवासो। अइउन्भडो य वेसो,पंच वि गरुयं पिलहुयंति" ||6|| इचाइजुत्तिजुत्तं, वुत्ता वि न मन्नए इमा किंपि / चिट्ठइ तहेव निचं, पिउपायपसायदुल्ललिया !|7|| भरुयच्छवासिणा विमलसिट्टिपुत्तेण बंधुदत्तेण। सा गंतु तामलित्तिं, महाविभूईई परिणीया |8|| मुत्तूण जणयभवणे, बंधुमई बंधुपरियणसमेओ। जलहिम्मि बंधुदत्तो, संचलिओ जाणवत्तेण / / 6 / / जा किं चि भूमिभागं, गच्छइ ता असुहकम्मउदएणं। पडिकूलपवणलहरी-पणुल्लियं जलहिमज्झम्मि // 10 // सत्थं व विणयहीणे, वियलियसीले विसुद्धदाणंव। तं पवहणं विणटुं, धणधण्णहिरणपडिपुण्णं / / 11 / / सो कहकहमविफलहेण दुत्तरं उत्तरितु नीरनिहिं। जा पिच्छइ दिसिचक्कं, ता तं निच्छेइ ससुरपुरं।।१२॥ तो अप्पं जाणावइ, केण वि पुरिसेण निययससुरस्स। तं सुणिय हा ! किमेयं ति, जंपिरो उढिओ सो वि॥१३॥ अइउमडवेसविसेसरयणलंकारसारभूसाए। बंधुमईए सहिओ,जा से पासे समल्लिपइ ||14|| वररयणकणयचूडयविभूसियंताव रुइरकरजुयलं। बंधुमईए छिन्नं, केण विजूयारचोरेण / / 15 / / तत्तो सो आरक्खियभीओ नासित्तु झत्ति संपत्तो। पहपरिसमवससुत्तस्सबंधुदत्तस्सपासम्मि।।१६।। तेणं च धुत्तयाए, चिंतिय मिणमेव पत्तकालं मे। इय मुत्तु तस्स पासे, करजुयलं तक्करो नट्ठो // 17 // पच्छा गयतलवरतुमुलसवणबुद्धो सलुद्दओ एसो! चोरु त्ति काउ तेहिं, सूलाए झत्ति पक्खित्तो / / 18|| अह रइसारो सिट्ठी, नियपुत्तिए निइत्तु तमवत्थं। बहु झुरिऊण पत्तो, जा जामाउयसमीवं पि|१६|| ता तं सूलाभिन्नं, सहसा पिच्छित्ति बहुंच पलवित्ता। अंसुभरपुन्ननयणो, दुहियो से कुणइ मयकिचं / / 20 / / इत्तोय सुजसनामा, चउनाणी तत्थ आगओ तं च। नमिउं पत्तो सिट्ठी, गुरू वि इय कहइ से धम्मं // 21 // भो भविया ! उन्भडवेसवज्जणं कुणह चयह परुसगिह। चिंतह भवस्स रूवं, जेण न पावेह दुक्खाई॥२२॥ तो सोउं संविग्गो, सिट्टीपणमित्तुं पुच्छए भयवं!। मह जामाउयदुहियाहि किं कथं दुक्यं पुबि ? ||23|| भणइ गुरू अभिरामे, सलिग्गामं पिइत्थिया एगा। आसि अडविव्व बहुमय-बालसुया दुग्गया विहवा // 24 // सा उयरकंदरापूरणत्थमीसरगिहेसु निचंपि। कम्मं करेइ पुत्तो, उ चारए बच्छरूवाइं॥२५।। साठविय भोयणं सिक्कगम्मि पुतट्ठमन्नथ पत्ता। कस्सइ गेहे कम्मत्थमागओ तम्मि जामाऊ॥२६|| सा तस्स तप्पणण्हाणमाइकम्मसु निउत्तया पढमं। पच्छा खंडणपीसणरंधणदलणाइ कारविया।॥२७॥ जाया महई वेला, तेण गिहत्थेण वाउलत्तणओ। नहु सा जिमाविया तो, भुक्खियतिसिया गया सगिह / / 28|| तंदठुसुएण छुहाइएण भणिया सनिठुरं एसा। किं तत्थ तमं खिसासुलाएजंन बह पत्ता // 26 // तीइ वि अणत्थभरियाइ जंपियं किं करा तुहं छिन्ना / जं सिक्कगाउ गहिऊण भोयण नेव भुत्तोसि // 30 // इय फरुसवयणजणियं, कम्मं दोहिँ दि निकाइयं तेहिं। अइनिविडजडिमभावेण नेव आलोइयं तं च // 31 / / तेसिंदाणरयाणं, संजमरहियाण मज्झिमगुणाणं / किंचि सुहभावणाए, वटुंताणं गलियमाउं॥३२॥ तो सो बालो जाओ, जामाऊ तुज्झ बंधुदत्त ति। सा पुण दुग्गयनारी, बंधुमई तुह सुया जाया।।३३।। भवियव्वया निओगा, विचित्तयाए य कम्मपगईए। माया जाया जाया, पुत्तो भत्ता य संजाओ॥३४|| तक्कम्मविवागणं, बंधुमई पाविया करच्छेयं / पत्तो य बंधुदत्तो, सूलापक्खिवणवसणमिणं // 35 // इय सोउं रइसारो, सिट्ठी संभयगरुयसंवेओ। गिव्हिय गुरूण पासे, दिक्खं सुहभायणं जाओ।।३६।। इत्युद्भट वेषमतिश्रयन्त्याः , श्रुत्वा विपाक खलु बन्धुमत्याः। भव्या जना निर्मलशीलभाजस्तद्धत्त देशाद्यविरुद्धमेनम्॥३७|| ध०र०। अणुब्भामग-पुं०(अनुभ्रामक) मौलग्रामे भिक्षापरिमाणशीले, बृ० 1 उ०। अणुभव-पुं०(अनुभव) अनु-भू-अप् / स्मृतिभिन्ने ज्ञाने, विषयाऽनुरूपभवनाच बुद्धिवृत्तेरनुभवत्वम् / अनुभवश्चप्रत्यक्षानुमानोपमानशाब्दभेदेन चतुर्विध इति नैयायिकादयः / वेदान्तिनो मीमांसकाश्च अर्थापत्त्युपलब्धिरूपमधिकं भेदद्वयमुररीचकुः। वैशेषिकाः सौगताश्च प्रत्यक्षानुमानरूपमेवानुभवद्वयं स्वीचा :, अन्येषां सर्वेषामनयोरन्तर्भावात् / सांख्यादयः प्रत्यक्षानुमानशाब्दा एवेति भेदत्रयीमङ्गीचकुः / चार्वाकाः प्रत्यक्षमात्रमिति भेदः। वाचल। स्वसंवेदने, पञ्चा०५ विव० श्रा०। आव० प्रश्न०० अनुभवलक्षणंच योगदृष्टिसमुचयानुसारेण लिख्यतेयथार्थवस्तुस्वरू पोपलब्धिपरभावारमणस्वरूपरमणतदास्वादनैकत्वमनुभवः। तदष्टकम् - संध्येव दिनरात्रिभ्यां, केवलश्रुतयोः पृथक् / बुधैरनुभवो दृष्टः, केवलाऽकरुिणोदयः॥१॥ व्यापारः सर्वशास्त्राणां, दिक्प्रदर्शनमेव हि। पारं तु प्रापयत्येकोऽनुभवो भववारिधेः ||2|| अतीन्द्रियं परं ब्रह्म, विशुद्धाऽनुभवं विना। शास्त्रयुक्तिशतेनापि, न गम्यं यद् बुधा जगुः / / 3 / / ज्ञायेरन हेतुवादेन, पदार्था यद्यतीन्द्रियाः।