________________ 15 अर्हम् ग्रन्थकर्ता का संक्षिप्त जीवन परिचय / रागद्वेषप्रदाकुद्वयदलनकृते वैनतेयत्वमाप्तः, सूरीणामग्रगण्यो गुणगणमहितो मोहनीयस्वरूपः / यः "श्रीराजेन्द्रसूरि'' जगति गुरुवरःसाधुवर्गे वरिष्ठः, तस्य स्मर्तुं चरित्रं कियदपि यतते 'श्रीयतीन्द्रो' मुनीद्रः / / 1 / / आज हम उन महानुभाव करुणामूर्ति उपशम (शान्त) रसस्वरूप वर्तमान सकलजैनागमपारदर्शी श्रीसौधर्मबृहत्तपागच्छीय प्रवर जैनाचार्य भट्टारक श्रीश्री 1008 श्रीमद्-विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज का अत्यन्त प्रभावशाली संक्षिप्त जीवन-परिचय देंगे, जो कि इस भारत भूमि में अनेक विद्वज्जनों के पूज्य परोपकारपरायण महाप्रभावक आचार्य हो गये हैं। पूर्वोक्त महात्मा का जन्म श्री विक्रम संवत् 1883 पौषशुक्ल 7 गुरुवार मुताबिक सन् 1826 ईस्वी दिसम्बर 3 तारीख के दिन 'अछनेरा' रेल्वे स्टेशन से 17 मील और 'आगरे के किले से 34 मील पश्चिम राजपूताना में एक प्रसिद्ध देशी राज्य की राजधानी शहर 'भरतपुर' में पारखगोत्रावतंस ओश(वाल) वंशीय श्रेष्ठिवर्य श्रीऋषभदास जी' की सुशीला पत्नी 'श्रीकेसरी बाई' सौभाग्यवती की कुक्षि (कूँख) से हुआ था। आपका नाम रत्नों की तरह देदीप्यमान होने से जातीय जीमनवार पूर्वक 'रत्नराज' रखा गया था। आपके जन्मोत्सव में भगवद्भक्ति, पूजा, प्रभावना, दान आदि सत्कार्य विशेष रूप से कराये गये थे, यहाँ तक कि नगर की सजावट करने में भी कुछ कमी नहीं रखी गई थी। आपकी बाल्यावस्था भी इतनी प्रभावसंपन्न थी कि जिसने आपके माता पिता आदि परिवार के क्या? अपरिचित सज्जनों के भी चित्तों में आनन्द सागर का उल्लास कर दिया, अर्थात सबके लिये आनन्दोत्पादक और अतिसुखप्रद थी। आपने अपने बाल्यावस्था ही में सुरम्य वैनयिक गुणों से माता पिता और कलाचार्यों को रञ्जित कर करीब दस बारह वर्ष की अवस्था में ही सांसारिक सब शिक्षाएँ संपन्न करली थीं। आपके ज्येष्ठ भ्राता 'माणिकचन्दजी' और छोटी बहन 'प्रेमाबाई' थी। पूज्य लोगों की आज्ञा पालन करना और माता-पिता आदि पूज्यों को प्रणाम करना और प्रातःकाल उठकर उनके चरण कमलों को पूजकर उनसे शुभाशीर्वाद प्राप्त करना, यह तो आपका परमावश्यकीय नित्य कर्त्तव्य कर्म था। आपकी रमणीय चित्तवृत्ति निरन्तर स्वाभाविक वैराग्य की ओर ही आकर्षित रहा करती थी, इसीसे आप विषयवासनाओं से रहित होकर परमार्थ सिद्ध करने में और उच्चतम शिक्षाओं को प्राप्त करने में उत्साही रहते थे। सबके साथ मित्रभाव से वर्तना, पूज्यों पर पूज्य बुद्धि रखना, गुणवानों के गुणों को देख कर प्रसन्न होना, सत्समागम की अभिलाषा रखना कलह से डरना, हास्य कुतूहलों से उदासीन रहना, ओर दुर्व्यसनी लोगों की संगति से बचकर चलना, यह आपकी स्वाभाविक चित्तवृत्ति थी।