SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 140
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [सिद्धहेम०] (132) अभिधानराजेन्द्रपरिशिष्टम्। [अ०८पा०४] 'कुमारी एह' वा, 'एहु ठाणु' 'एहो नरु' स्मृतम्। एह कुमारी एहो नरु एहु मणोरह-ठाणु / एहउँ वढ चिन्तन्ताहं पच्छइ होइ विहाणुं ||1|| एषा कुमारी एष (अहं) नरः एतन्मनोरथस्थानम्। एतत् मूर्खाणां चिन्तमानानां पश्चाद् भवति विभातम्॥१।। (यह कुमारी है। यह मैं पुरुष हूँ। यह हमारे मनोरथों का महल है। केवल मूर्ख ही ऐसा विचार दीर्घकाल तक करते ही रहते हैं, तब तक तो रात बीत जाती है, और प्रभात हो चुका होता है। 362.1) एइर्जस्-शसोः // 363 / / एतदो जस्-शसोर् 'एइः,' एइ चिट्ठन्तिपेच्छ वा। अदस ओइ // 364|| अदसो जस्-शसोर् 'ओइ, ओइ चिट्ठन्ति पेच्छ वा।। जइ पुच्छह घर वड्डाइं तो वड्डा घर ओइ। विहलिअ-जण-अब्भुद्धरणु कन्तु कुडीरइ जोइ||१|| यदि पृच्छथ महान्ति गृहाणि तद् महान्ति गृहाणि अमूनि। विह्न लितजनेभ्युद्धरणं कान्तं कुटीरके तत्र पश्य!।१।। (यदि किसी बड़े घर के बारे में पूछना है तो वे देखो सामने बड़े घर हैं / परन्तु यदि दुःखी लोगों के उद्धार करनेवाले के विषय में पूछना है, तो देखो मेरा प्रियतम झोपड़ी में वो रहा / 364.1) इदम आयः // 365|| आयः स्याद्, इदमः स्यादौ, आयहो आयइं यथा। आयईं लोअहों लोअणइँ जाई सरई न भन्ति। अप्पिएँ दिट्ठइ मउलिअहिं पिऍ दिट्ठइ विहसन्ति / / 1 / / यदि पृच्छथलोकस्य लोचनानि जाति स्मरन्ति न भ्रान्तिः। अप्रिये दृष्ट मुकुलन्ति प्रिये दृष्ट विकसन्ति।।१।। (लोगों के इन नयनों (नयति पूर्विणिजन्मिनि) को पूर्व जन्म का स्मरण होता है, इसमें दो मत नहीं कोई शंका नहीं। इसीलिए ये अप्रिय वस्तु देखकर तुरंत संकुचित होते हैं और प्रिय वस्तु देखकर प्रफुल्लित होते हैं / 365.1) सोसउ म सोसउ चिअ उअही वडवानलस्स किं तेण। जं जलइ जले जलणो आएण वि किं न पञ्जत्तं // 2 // शुष्यतु मा शुष्यतु एव (-या) उदधिः वडवानलस्य किं तेन। यद् ज्वलति जले ज्वलनः एतेनापि किं न पर्याप्तम् // 2 // (समुद्र सूखे या न सूखे, इससे बड़वानल के सम्मान में क्या फर्क पड़ता है। अग्नि जल में जलता है। यही पराक्रम उसके लिए पर्याप्त है। 365.2) आयहोदड्ड-कलेवरहो जं वाहिउ तं सारु / जइ उट्ठभइ तो कुहइ अह डज्झई तो छारु // 3 // अस्य दग्धकलेवरस्य यद् वाहितं (-लब्धं) तत्सारम्। यदि आच्छाद्यते तत्कुथ्यति यदि दह्यते तत्क्षारः // 3 // (इस दग्ध-जलते हुए शरीर से जो कुछ भी उपलब्ध होता है, वही उत्तम है। यदि इसे ढंका जाये तो यह सड़ता है, और यदि इसे जलाया जाये तो इसकी राख ही हाथ लगती है / 365.3) सर्वस्य साहो वा // 366|| सर्वशब्दस्य साहो वा, सिद्ध 'साहु वि सव्यु वि'। साहु वि लोउ तडप्फडइ वड्डत्तणहों तणेण। वड्डप्पणु परि पाविअइ हत्थिं मोक्कलडेण ||1 // सर्वोऽपिलोकः प्रस्पन्दते (तडप्फडइ) महत्त्वस्य कृते / महत्त्वं पुनः प्राप्यते हस्तेन मुक्तेन // 1 // (इस नश्वर संसार में बड़प्पन पाने के लिए सब लोग तड़फड़ाते हैं। परन्तु बड़प्पन तो मुक्त मन से, मुक्त हस्त से दान देने पर ही प्राप्त होता है। 366.1) किमः काई-कवणौ वा // 367 / / वा किमः 'कवणो काई, काई दूरे न देक्खइ। 'भण कजें कवणेण, पक्षे 'गजहि किं खल'। जइ न सु आवइ दुइ घरु काइँ अहो मुहुँ तुज्झु / वयणु जु खण्डइ तउ सहिए सो पिउ होइन मज्झु / / 1 / / यदि न स आयाति दूति गृहं कि अधो मुखं तव। वचनं यः खण्डयति तव सखिके स प्रिय भवतिन मम॥१॥ (हे दूति, यदि वह प्रियतम तेरे कहने पर भी घर न आता है, तो तू नीचा मुंह किये हुए क्यों है? हे सखि, जो तेरा वचन नहीं मानता है, वह मुझे भी प्रिय नहीं है। इसलिए कि तू उसे प्रिय है और इसी कारण अधर और गाल पर पड़े निशान छुपाने लिए तू नीचा मुँह किये हुए है। 367.1) सुपुरिस कङ्गु हे अणुहरहिं भण कब्जें कवणेण / जिवँ जिवँ वडुत्तणु लहहिं तिव तिवँ नवहि सिरेण // 2 // सत्पुरुषाः कङ्गोः अनुसरन्ति भण कार्येण केन / यथा यथा महत्त्वं लभन्ते तथा तथा नमन्ति शिरसा // 2 // (बताइए कि किस कारण से सत्पुरुषजन कंगु नामक अन्न के पौधे का अनुकरण करते हैं ? इसलिए कि जैसे जैसे कंगु का भारबड़प्पन बढ़ता जाता है, वैसे वैसे उसका सिर नीचे की ओर झुकने लगता है। नम्र बनता जाता है। 367.2) जइ ससणेही तो मुइअ अह जीवइ निन्नेह / बिहि वि पयारे"हि गइअ घण किं गजहि खल मेह // 3 // यदि सोहा तन्मृता अथ जीवति निःरोहा। द्वाभ्यामपि प्रकाराम्भां गतिका(गता) धन्या, किं गर्जसि खल मेघ // 3 // (यदि प्रियतमा का मुझ पर स्नेह है, तब तो वह मर गई होगी। और यदि वह जीवित है तो उसका मुझ पर प्रेम नहीं है, दोनों ही तरह से प्रिया मेरे, लिए नष्ट हो गई है। इसलिए हे दुष्ट मेघ, तू व्यर्थ ही क्यों गरज रहा है? 367.3) युष्मदः सौ तुहुं // 368|| युष्मदः सौ 'तुहं' इत्यादेशः स्यात्,त्वं 'तुहं ततः। भमर म रुणझुणि रण्णडइ सा दिसि जोइ म रोइ। सा मालइ देसन्तरिअ जसु तुहुँ मरहि विओइ||१|| भ्रमर मा रुणझुणशब्दं कुरु तां दिशं विलोकय मा रुदिहि। सा मालती देशान्तरिता यस्याः त्वं म्रियसे वियोगे॥१॥
SR No.016143
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayrajendrasuri
PublisherRajendrasuri Shatabdi Shodh Samsthan
Publication Year2014
Total Pages1078
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy