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________________ अक्खुण्ण 150 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अक्खुद्द अक्खुण्ण-त्रि०(अक्षुण्ण) न० त० / अमर्दिते, नि० चू० 10 उ०। "अक्खुण्णेसु पहेसुपुढवी उदगंमि होइ पुहओ वि" / बृ०१ उ०। अक्खुद्द-पुं०(अक्षुद्र) न० त०।अनुत्तानमतौ, ध०१अधि० ध०र०। अकृपणे, कृपणो ह्यौचित्येन द्रव्यव्ययकरणाशक्तत्वान्न तत्साधनाय शासनप्रभावनाय चालमिति तद्भिन्नस्य प्रथम-श्रावकगुणवत्त्वम्। पंचा० 7 विव० / अक्रूरे, क्रूरेण हि परोप-तापितत्याज्जनद्वेषेण कृतं तदायतनं तन्मत्सरेण जनद्वेष्यं स्यादिति (तद्भिन्नस्य प्रथमश्रावकगुणवत्त्वम्)। पंचा०२ विव०॥ तेन निष्पादितं सर्वानन्ददायितया हितं भवति। दर्श०। अस्य विस्तरेण प्रतिपादनम्खुद्दो ति अगंभीरो, उत्ताणमईन साहए धम्म। सपरोवयारसत्तो, अक्खुद्दो तेण इह जुम्गो ||8|| यद्यपि क्षुद्रशब्दस्तुच्छङ्करदरिद्रलघुप्रभृतिष्वर्थेषु वर्तते तथापीह क्षुद्र इत्यगम्भीर उच्यते, तुच्छ इति कृत्या स पुनरुत्तानमति-रनिपुणधिषण इति हेतोर्न साधयति नाराधयति धर्म, भीमवत्, तस्य सूक्ष्ममतिसाध्यत्वात् / उक्तं च-"सूक्ष्मबुद्ध्या स विज्ञेयो, धर्मो धर्मार्थिभिनरैः / अन्यथा धर्मबुद्ध्यैव, तद्विघातः प्रसज्यते / / 1 / / गृहीत्वा ग्लानभैषज्य-प्रदानाभिग्रहं यथा / तदप्राप्तौ तदन्तेऽस्य, शोकं समुपगच्छतः // 2 // गृहीतोऽभिग्रहश्रेष्ठो, ग्लानो जातो न च क्वचित् / अहो ! मेऽधन्यता कष्ट, न सिद्धमभिवाच्छितम्॥३।। एवमेतत्समादानं, ग्लानभावाभिसन्धिमत् / साधूनां तत्त्वतो यत्तद् दुष्टं ज्ञेयं महात्मभिः" || इति, एतद्विपरीतः पुनः स्वपरोप-कारकरणे शक्तः समर्थो भवतीति शेषः / अक्षुद्रः सूक्ष्मदर्शी सुपर्यालोचितकारी तेन कारणेनेहधर्मग्रहणे योग्योऽधिकारीस्यात्, सोमवत्। तयोः कथा चैवम् - नरगणकलियं सुजइच्छंदं पिवकणयकूडपुरमत्थि। तत्थासि वासवो वासउ व्व विबुहप्पिओ राया।।१।। कमला य कमलसेणा, सुलोयणा नाम तिन्नि तरुणीओ। भूमीवइदुहिआओ, दुस्सहपियविरहदुहियाओ // 2 // अन्नायसरूवाओ, अन्नुन्नं पिहु तर्हि रुयंतीओ। समदुहदुहिय त्ति ठिया, एगत्थ गमंति दिवसाई॥३॥ तत्थेगो सुगुणेहि, अवामणो वामणो उ रूवेण। सम्मं निययकलाहिं, रंजइ निवपभिइसयलपुरं // 4 // कइया चि निवेणुत्तो, सो जह इह विरहदुहियतरूणीओ। जइ रंजिहिही नूणं, तो तुह नज्जइ कलुक्करिसो॥५॥ थोवमिणं ति स भणिरो, रन्नोऽणुनाइ बहुवयंसजुओ। पत्तो ताणं भवणे, कहेइ विविहे कहालावे / / 6 / / एगेणवयंसेणं, वुत्तं किमिमाहि मित्त! वत्ताहिं। किंपिसुइसुहयचरियं, कहसुतओकहइ इयरो वि॥७॥ महिमहिलाभालत्थल-तिलयं व पुरं इहत्थि तिलयपुरं। तत्थ य पूरियमग्गण-मणोरहो मणिरहो राया |8|| सुइसुरहिसीलजियविम-लमालई मालइ त्ति से दइया। पुत्तोय भुवणअक्कमणविक्कमो विक्कमो नाम / नियमंदिरसंनिहिए, गिहम्मिकम्मि विकया वि संजाए। सोसुणइसवणसुहयं, केण विएवं पढिज्जत।।१०|| नियपुन्नपमाणं गुणवियड्डिमा सुजणदुञ्जणविसेसो। नजइ नेगत्थठिए-हिं तेण निउणा नियंति महिं।।११।। तं मुणिय सुणियमवगणियपरियणं देसदसणसतहो। कुमरोरयणीइ पुराउनिग्गओखग्गवग्गकरो।।१२।। सो वचंतो संतो, अग्गे मग्गे निएइ कंपि नरं। निठुरपहारविहुरं, पिवासियं महियले पडियं // 13 // तो सरवराउ सलिलं, गहित्तु उप्पन्नपुन्नकारुनो। तं पाइत्ता पवण-प्पयाणओ कुणइ पउणतणुं // 14 // पुच्छइ य भो महायस ! कोऽसि तुमं किं इमा अवत्था ते? सो भणइ सुयणसिररयण ! सुणसु सिद्ध त्ति हं जोई।।१५।। विजाबलिएण विप-क्खजोइणा छलपहारिणा अहयं / एयमवत्थं नीओ, तए पुणो पगुणिओ सगुणो॥१६॥ तो सो तोसेणं गुरुडमंतमप्पित्तु नरवरसुयस्स। सवाणं संपत्तो, कुमरो पुण इत्थ नयरम्मि||१७|| निसि मयणगिहे वुत्थो, चिट्ठइजासुठु जग्गिरो कुमरो। तातत्थेगा तरुणी,समागया पूइउंमयणं॥१८|| बहिनीहरिउंजपइ, अम्मोवणदेवयासुणहसम्म। इहवासवनरवइणों , सुहिया कमलत्तिहंदुहिया।।१९।। मणिरहसुयस्स विक्कम-कुमरस्सुज्जलगुणाणुराएण। दिन्ना पिउणा सो पुण,इण्हिं न नजइ कहिं पि गओ // 20 // जह मह इह न उजाओ, सो भत्ता तो परत्थ विहविज्जा। इयपभणिअउल्लंबइ,वडविडविणिजावसाअप्पं॥२१॥ मा कुणसु साहसं इय, भणिरो छुरियाइ छिंदिउंपासं। कमलं कमलसुकोमल-वयणेहिं संठवइ कुमरो॥२२॥ इत्तो तस्सुद्धिकए, भडचडगरपरिवुडो तहिं पत्तो। वासवनिवो वि कुमरंदलु हट्ठो भणइ एवं // 23 // तिलयपुरे अम्मेहिं, गएहि मणिरहसमित्तमिलणत्य। तं बालत्ते दिट्ठो, दक्खिन्नसुपुन्नवर ! कुमर ! / / 24 / / निचऽणुरत्ता एसा, पइ कमला कमलिणि व्व दिणनाहे। तुह दाहिणकरमेलणवसा सुहं लहउ मह दुहिया।।२५।। इय महुरगहिरभणिई-पत्थिओवासवेण नरवइणा। विक्कमकुमरो कमलं, परिणेइ तिविक्कमुव्व तओ॥२६|| गोसे तोसेणपुरे, पवेसिओ निवइणा सभञ्जो सो। तीइ समं कीलंतो, चिट्ठइ निवदिन्नपासाए // 27 // तो किं अग्गे कमला-इ जंपिए भणिय रायसे वाए। समओ त्ति गओ खुजो, बीयदिणे कहइ पुण एवं // 28 // कइया वि सुणिय रयणीइ, कलुणसदं रुयंतरमणीए। तस्सद्दऽणुसारेण य, स गओ कुमरो मसाणम्मि // 26 // दिवा बाहजलाविल-विलोललोयणजुया तहिं जुवई / तीए पुरओ जोई, तह कुंडं जलिरजलणजुयं // 30 // होउं लयंतरे पउरपउरिसो जाव चिट्ठए कुमरो। विसमसरपसरविहुरो, तो जोई भणइ तं बालं // 31 // पसिय च्छिय सियसयवत्त-पत्तनयणे ममं करिय दइयं। चूलामणि व्य तं होसु सयलरमणीयरमणीणं // 32 // सारुयमाणीपभणइ, किं अप्पमणत्थयं कयत्थेसि। जइ सि हरी मयणो या, तहा वि तुमए न मे कजं // 33 // अहरुट्ठो सो जोई, बला विजा गिहिही करेण तयं। ता पुक्करियं तीए, हहा ! अणाहा इमा पुहवी // 34 // जंसिरिपुरपहुजयसेणनिवइदुहिया अहं कमलसेणा। दिण्णा पिउणा मणिरह-निवसुयविक्कमकुमारस्स // 35 / / संपइ विजाबलिओ, अहह ! अखत्तं करेइ को वि इमो। इय निसुणिय पयडियकोवविन्भमो भणइ कुमरो तं // 36|| पुरिसो हवेसुसत्थं, करेसुसमरेसुदेवयं इट्ठ। परमहिलमहिलसंतो, रे रे पाविट्ठ ! नट्ठो सि॥३७॥
SR No.016143
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayrajendrasuri
PublisherRajendrasuri Shatabdi Shodh Samsthan
Publication Year2014
Total Pages1078
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size
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