________________ (140) [सिद्धहेम०] अभिधानराजेन्द्रपरिशिष्टम्। [अ०८पा०४] किमपि मनाक् मम प्रियस्य शशी अनुहरति नान्यः / / 6 / / जाउ म जन्तउ पल्लवह देक्खउँ कइ पय देइ / (वैभव नष्ट होने पर भी चंद्र का बांकापन नहीं गया व जन सामान्य हिअइ तिरिच्छी हउँ जि पर पिउ डम्बरई करेइ / / 1 / / में जैसा का वैसा है। अरे मेरे प्रियतम का थोड़ा सा अनुकरण मात्र यातु मा यान्तं पल्लवत, द्रक्ष्यामि कति पदानि ददाति / है, व अन्यथा वह कुछ भी नहीं है। 418.6) हृदये तिरश्चीना अहमेव परं प्रियः आडम्बराणि करोति // 1 // किलाथवा-दिवा-सह-नहेः किराहवइ दिवे (जानेवाले को जाने दो, वापस लौटकर न बुलाओ। मैं भी देखती सहुं नाहिं // 416 // हूँ कि कितने डग भरता है। उसके हृदय में मैं टेढ़ी बैठी हूँ। मैं जानती किल किर, अथवा अहवइ, दिवा दिवे, नहि नाहिं। हूँ मेरा प्रियतम मात्र आडंबर कर रहा है / 420.1) सह सहुम्, इत्यभिधीयते, प्रायो, नैव सदा हि। हरि नच्चाविउ पङ्गणइ विम्हइ पाडिउ लोउ। किर खाइ न पिअइ न विद्दवइ धम्मि न वेच्चइ रूअडउ। एम्वहिं राह-पओहरहं जं भावइ तं होउ ||2|| इह किवणु न जाणइ जह जमहो खणेण पहुच्चइ दूअडउ॥१॥ हरिः नर्तितः प्राङ्गणे विस्यमे पातितः लोकः। किल न खादति न पिबति न विद्रवति धर्म न व्ययति रूपकम्। इदानीं राधापयोधरयोः यत् (प्रति) भाति तद् भवतु // 2 // इह कृपणो न जानन्ति यथा यमस्य क्षणेन प्रभवति दूतः / / 1 / / (कृष्ण को प्रागंण में खूब नचाया। उसने भी लोगों को खूब आश्चर्य (यह हकीकत है कि कंजूस मनुष्य न खाता है, न पीता है और किसी में डाल दिया। अब बेचारी राधा के स्तनों का जो होना हो वह हो। दुःखी को देखकर कुछ देने के लिए पिघलता है, इतना ही नहीं धर्म 420.2) हेतु एक रूपया भी खर्च नहीं करता। कंजूस यह भी नहीं जानता कि साव-सलोणी गोरडी नवखी क वि विस-गण्ठि / यमदूत सब छुड़वाकर क्षण मात्र में (उसे ले उड़ेगा) लेने के लिए पहुंच भडु पच्चलिओ सो मरइ जासु न लग्गइ कण्ठि // 3 // जाएगा। 416.1) सर्वसलावण्या गौरी नवा कापि विषग्रन्थिः। जाइज्जइ तहिं देसडइ लब्भइ पियहो” पमाणु / भटः प्रत्युत स मियते यस्य न लगति कण्ठे / / 3 / / जइ आवइ तो आणिअइ अहवा तं जि निवाणु // 2 // (सर्व अड्ग गौरी वह कोई अद्भूत नई विष-ग्रन्थि है। इसीलिए कि यायते (गम्यते) तस्मिन् देशे लभ्यते प्रियस्य प्रमाणम्। जो भी उसे गले नहीं लगता है, वह भी अवश्य मरता है। पीड़ित होता यदि आगच्छति तदा आनीयते अथवा तत्रैव निर्वाणम् // 2 // है। बचता नहीं। 420.3) (उस देश जाएँ , जहाँ प्रियतम मिले। यदि वह आएगा तो ले आएँगे।। विषण्णोक्त-वमनो वुन्न-वुत्त-विचं // 4211 // नहीं आया तो वहीं मरण के शरण होंगे। 416.2) उक्तं वुत्तं, वर्त्म विचं, विषण्णं वुन्नम् उच्यते / (सहस्य सहुं)"जउपवसन्तें सहुंन गयअन मुअविओएतस्सु। मई वुत्तउं तुहुँ धुरु धरहि कसरहिं विगुत्ताई। लज्जिज्जइ संदेसडा, दिन्तेहिं सुहय-जणस्सु // 3 // पइँ विणु धवल न चडइ भरु एम्बइ वुन्नउ काई ||1|| यत् प्रवसता सह न गता न मृता वियोगेन तस्य। मया उक्तं, त्वं धुरं धर, गलिवृषभैः (कसर) विनाटिताः। लज्ज्यते संदेशान् ददतीभिः सुभगजनस्य // 3 // त्वया विना धवल नारोहति भरः, इदानीं विषण्णः किम् // 11 // (प्रवासित पति के साथ मैं न गई और उसके जाने के बाद वियोग (हे धवल गुणियल उत्तम बैल, भाई तू धूरा को धारण कर / दूसरे में मरी भी नहीं। इसीलिए प्रियतम को संदेश भेजने में लज्जा आती मट्ठर, अधम बैलने हमें बहुत पीड़ित किया है। तेरे बिना यह बोझ है। 416.3) वहन न होगा। अब तू क्यों दुःखी है ? 421.1) एत्तहे मेह पिअन्ति जलु एत्तहे वडवानल आवट्टइ / शीघ्रादीनां वहिल्लादयः // 422 // पेक्खु गहीरिम सायरहो एक वि कणिअनाहिं ओहट्ठइ ||4|| शीघ्रादेस्तु वहिल्लादिरादेशोऽत्र निगद्यते / इतः मेघाः पिबन्तिः जलं इतः वडवानलः आवर्तते / शीघ्रं 'वहिल्ल' इत्युक्तं, झकटो घड्वलः स्मृतः। प्रेक्षस्व गभीरिमाणं सागरस्य एकापि कणिका न हि अपभ्रश्यते।।४|| एक्कु कइअह वि न आवही अन्नु बहिल्लउ जाहि / (ग्रीष्म की उष्णता से मेघ सागर से पानी पीते हैं, सागर में म. मित्तडा प्रमाणिअउ पइँ जेहउ खलु नाहिं // 11 // उधरबड़वानल उमड़-उमड़कर उफन रहा है। फिर भी सागर की एकं कदापि नागच्छसि अन्यत् शीघ्रं यासि। गहनगंभीरता देखने लायक है, उसकी एक बूंद भी कम न हुई। मया मित्र प्रमाणितः त्वया यादृशः (त्वं यथा) खलः न हि।।१।। 416.4)) (हे मेरे साथी, एक तो तू आता ही नहीं, आये भी तो तू जल्दी चला पश्चादेवमेवैदानी-प्रत्युतेतसः पच्छइ एम्वइ जि एम्वहिं जाता है। हे मित्र, तेरे जैसा कोई दुष्ट नहीं है। 422.1) एचलिउ एतहे॥४२॥ जि सुपुरिस ति घङ्घलई जिउँ नइति क्लणाई। पश्चात् पच्छइ, एव जि, इत एत्तहे, एवमेव एम्बइ च। जि डोगर तिर्दै कोट्टरइंहिआ विसूरहि काइं // 2 // भवतीदानीम् एम्वहिं, तथा प्रत्युतेति पञ्चलिउ / यथा सुपुरुषास्तथा झगटका यथा नद्यस्तथा वलनानि /