Book Title: Aadikal ka Hindi Jain Sahitya
Author(s): Harishankar Sharma
Publisher: Harishankar Sharma
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE FREE INDOLOGICAL COLLECTION WWW.SANSKRITDOCUMENTS.ORG/TFIC FAIR USE DECLARATION This book is sourced from another online repository and provided to you at this site under the TFIC collection. It is provided under commonly held Fair Use guidelines for individual educational or research use. We believe that the book is in the public domain and public dissemination was the intent of the original repository. We applaud and support their work wholeheartedly and only provide this version of this book at this site to make it available to even more readers. We believe that cataloging plays a big part in finding valuable books and try to facilitate that, through our TFIC group efforts. In some cases, the original sources are no longer online or are very hard to access, or marked up in or provided in Indian languages, rather than the more widely used English language. 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Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिकाल का हिन्दी जैन साहित्य [ सन् ६५० - १४५० ई० ] हरिशंकर शर्मा 'हरीश' Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिकाल का हिन्दी जैन साहित्य [ सन् ६५०--१४५० ई. ] हरिशंकर शर्मा 'हरीश • रिसर्च स्कालर, हिन्दी विभाग इलाहाबाद यूनिवर्सिटी, । शोध निर्देशक: डॉ. माताप्रसाद गुप्त एम० ए०, डी० लिट०, रीडर, हिन्दी विभाग इलाहाबाद यूनिवर्सिटी । Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | आभार | इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के हिन्दी विभाग में स्नातकोत्तर शिक्षा ग्रहण करते हुए हिन्दी साहित्य का इतिहास कई बार पढ़ना पड़ा। इस अध्ययन में आदिकाल के संबंध में कई बार निराशा इस लिए हुई कि हिन्द साहित्य के आदिकाल अथवा शुक्लजी के शब्दों में वीरगाथा काल के साथ न्याय नहीं किया गया। अतः यह धारणा दृढ होती गई कि जिस वीरगा काल के पूर्व अपभ्रंश साहित्य की सम्पन्नता विविध काव्य रूपों और परम्प के रूप में इतनी अधिक सक्षम रही हो, उसी साहित्य का परवर्तीकाल इतना अधिक दरिद्र नहीं हो सकता। यह निराशा इसलिए और भी हुई कि क्ल द्वारा जिन बारह वीरगाथा कालीन रचनाओं का उल्लेख किया गया था उनको विभिन्न विद्वानों ने प्रामाणिक सिद्ध कर दिया। बहुत सम्भव है कि स्वयं शुक्ल जी को भी इनकी प्रामाणिकता में सन्देह रहा हो, परन्तु की तत्कालीन परिस्थितियों में इस संदिग्ध सामग्री का आकलन करने के अ और कोई मार्ग भी नहीं था। शुक्लजी ने अपनी विवशता को स्वतः इन मैं प्रकट किया है-" इसी संदिग्ध सामग्री को लेकर जो थोड़ा बहुत विचार होता है उसी पर हमें सन्तोष करना पड़ता है। इधर वीरगाथा से इतर सामग्री के साथ शुक्लजी का समझौता न मका और उन्होंने बहुत सी सामग्री को धर्म निरुपण करने वाली और साम्प्रदायिक कहकर हटा दिया, एवं उनकी प्रवृत्तियों पर विचार नहीं वि उनके शब्दों में सिद्धों, नाथ, क्या जैन कवियों की उपेक्षा स्पष्ट व्यक्त है क्योंकि लगा कि उनकी रचनाओं का जीवन की स्वाभाविक सरणियों, अनुभूतियों और दवाओं से कोई सम्बन्ध नहीं है, वे साम्प्रदायिक शिक्षा मात्र है, मतः उदूध साहित्य की कोटि में नहीं आ सकती। उन रचनाओं Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की परम्परा को हम काव्य या साहित्य की कोई धारा नहीं कह सकते डा० पृथ्वीनाथ कमल कुलश्रेष्ठ ने अपने शोध प्रबन्ध "हिन्दी प्रेमाख काव्य में आदिकाल को अन्धकार काल लिखा। इधर शुक्लजी द्वारा उलि अन्थों में से लगभग सभी अप्रामाणिक और उस काल से परे के सिद्ध हो चुके थे। डा० रामकुमार वर्मा ने अपने इतिहास में लिखा है कि-"आज तक सामग्री के सहारे राम्रों को प्रमाणिक ग्रन्थ कहना इतिहास और साहित्य आदर्शों की उपेक्षा करनी है- इन्हीं संकल्पों विकल्पों से मन में आदिका की अप्राप्य सामग्री की शोध करने की प्रेरणा निरन्तर गहरी होती गई अ यह अभाव प्राणी में एक टीबी प्यास बनकर समा गया। महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने अपप्रेस के साहित्य को पुरानी नाम दिया इससे साहस में वृद्धि हुई और अन्त में डा० हजारी प्रसाद दि के प्रन्थ "हिन्दी साहित्य का आदिकाल में उल्लिसित इन विचारों नेसम प्रमों का निराकरण कर ही दियार्थी उपदेश विषयक उन रचनाओं को जिनमें केवल सूखा धर्मोपदेश मात्र लिखा गया है, साहित्यिक विवेचना के योग्य न सपना उचित ही है, परन्तु यहां जिस सामग्री की बची की गई है, उनमें कई रचनाएं ऐसी है जो धार्मिक तो है परन्तु उनमें साहित्यिक सरसता बनाये रखने का पूरा प्रयास है। धर्म वही कवि को केवल प्रेरणा दे रहा है जिस साहित्य में केवल धार्मिक उपदेश हो उससे वह साहित्य निश्चित रूप से है जिसमें धर्म पावना प्रेरक शक्ति के रूप में काम कर रही हो और साथ ई ट्रो हमारी सामान्य मनुष्यता को आन्दोलित, गति और प्रभावित कर हो । इस दृष्टि से अप की कई रचना, जो मूलत: जैन धर्म पावना से प्रे होकर लिही गई है, निस्सदैह उत्तम काव्य है। --- इधर जैन अपत्र वि काव्यों की जो विपुल सामग्री उपलब्ध हुई है वह सिर्फ धार्मिक सम्प्रदाय मुहर लगने मात्र से अलग कर दी जाने योग्य नहीं है। स्वयंपू, तुर्मुख पुष्प Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और धनपाल जैसे कवि वल जैन होने के कारण ही काव्य क्षेत्र से बाहर नहीं चले गते। धार्मिक साहित्य होने मात्र से कोई रचना साहित्यिक कोटि से अलग नहीं की जा सकती।-- सम्मान के साहित्य की प्रधान प्रेरणा धर्म साधना ही रही है। जो पी पुस्तो भाग संयोग और सौभागय मे बची रह गई है, उनके सुरक्षित राने का कारण प्रधान सपने धर्म युधि ही रही है। इस प्रकार मेरे विचार से सभी धार्मिक पुस्तकों को साहित्य के इतिहास में त्याग्य ही नहीं मानना गहिए. (हिन्दी साहित्य का आदिकाल ...। इन्हीं दिनों साहित्य के प्रसिद्ध विद्वान श्री अगरन्द नाटा और डा• पीरालाल जैन के वीरगाागल की कृतियों तथा प्राचीन साहित्य सम्धी अध्ययन करने का सौपाण्य मिला। इन्होने आदिकाल की जैनधारा पर शेष करने की मोर और भी अधिक प्रेरित क्यिा। नई आश, नई उमंग, इतिहासकारों के पन्धों के बारा उत्पन्न प्रतिमिया की पूर्ति और अनेक रमनाओं की उपलविपकी भागने मादिकाल का हिन्दी न साहित्य विषय पर काम करने के लिए बाध्य किया। अधेय गुम्बर डा. धीरेन्द्र वर्मा ने भादरनीय डा. मावा प्रमाद गुप्त निन में मुफे यह काम गपा और दोनों बादेशों को कार्य प्रस्तुत करने का प्रोत्साहन जैन साहित्य और राजस्थान प्रषिद्ध शेष बिड़वान श्री कारणम्य नाटा इशारा मिला। पूर्व मनोगोम कार्य में जुट गया। क कठिनाइयों, पारिवारिक तनों एवं धार्षिक विभीकियों के बीच इस घ्यर का प्रारम्भ नवम्बर सन् १९५९ मे हमा। विषय की सामग्री के पनीर का भबसे का प्रग्म सापने वाया। इसलिvिa Pों की प्राप्ति, सारी की दोष तथा प्रतियों के व्ययन के महत्वपूर्ण प्र किटोव म. माग प्रसाद गुप्त सदैव प्रेरणा-मूलक मार और निम्न देते है। सपा विविध सम्प्रदागे पीर बीकानेर, देलवाड़ा, बापीर, पाटन, मागवावाद, कोदा, दिल्ली, अमेर, जयपुर, मेरठ, की आदि विभिन्न नकारों की तितियों की प्राप्ति और Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उनका विश्लेषण कठिन ही नहीं बात हर दुस्साध्य भी था। इधर आदिकाल का ५. वर्गा का इतना विशाल परिसर और उसका समापन सपी कार्य एक से एक बढ़कर कठिन र मट साध्य थे। परन्तु इन विषयों में प्रधेय आरम् नाष्टा व्या. नमुखवास,गावठी की साधारण सहायता से ही बार या प्रकरण प्रक्र उप विद्वानों के हाथ में पहुंच सका है। नास्टागी ने मुझे लिपियों का अम्बान कराया, विभिन्न पंडारों प्रतिया मंगवाई,प्रतियों की फोटो कापिया, नवाई, कई प्रतिलिपिया करवाई, अपने समीप रक्षा,और इस कार्य की पूर्णाहुति कराई है। जयपुर और भामेर के समस्त सारों की रचनाओं से मुलभ करने की आवस्था पं. नमुबदास गावती ने की। प्रत्येव नाटाली एवं पंडित जी का मारीवाद न होता तो या कार्य इतना हो पाना असंभव था। पर्व दोनों विद्वानों का चिर रिती । प्रस्तुत प्रबन्ध में लगा ग्वाधिक प्रमाशिव बनानों की - लिखित प्रतियों का उपयोग किया गया है। ५० वर्षों के इस काल उपल 10 से अधिक रनामों का समाहारकरना मेरे लिए इस लोटे से प्रस्व में पिीपी प्रकार अन्य नहीं था उनमें से प्रन्थों का ही आधार प्रान क्यिा गमा रमानों की विस्तृत नामाकी परिशिष्ट में दे दी गई। इन स, रिता तथा प्रारियां भी । कृतियां इवने अधिक काम्या प्रवान सी, कि इनमें से प्रत्येक सब म पर स्वयम एक एक होष प्रबन्ध विा गा सकता है।नेक रमाई गुजराती लिपि में प्रकाशित। परन्तु वास्थव पुरानी हिन्दी की गुजरात और राजस्थान के अनेक जैन महारों के उपाय न रमानों को साम्प्रदामिकता और प्रादेशिक भावना से मुक्त करना पीपा की सादी दोनों प्रदेशों की पापाय पकमवा स्पष्ट हो। पुनावाद मिलते है इसलिए परिस्थितियों की या कालिमानी भजन प्रकारलती गई। पुरानी दीम (PR ) प्राचीन रावस्थानी बाली गुजराती वीण बस सट करने की और यी प्रथा Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजमानी विद्वानों की कृतियों में पर्याप्त सहा ता मिली है। इन ऋतियों में गुजराती भास नो संक्षिप्त इतिहास, गुजराती भाषा नी उकास्ति, पापा कवियो, नसाहिला ना स्वमो, ऐतिहासिक जैम काव्य संचव, ऐतिहासिक जैन गव्य संग्रह, जैन गुर्जर ककियो भाग १, २, . प्र है। पत्र में उनके लेखका और मम्पादको प्रति अपना विनम्न प्रापार मत करता है। साल की बडोदा, पाटण, कलारता, मेरठ, वहीत, दिल्ली, जापुर, सलमेर, बीकानेर और पंजाब के जैन अन महारों से भी पु हस्तलिक्षित प्रतियां अथवा उनकी प्रतिलिपियाँ प्राप्त हुई है उसके लिय उनके अबस्थापकों का दिय से भगवाद करता है। इनकी पा के निा इतने विशाल साहित्य का आकलन बिलकुल असम्भव था।इन डारों की सूची परिशिष्ट दे दी गई है। प्रतियों के चित्रों की सारी व्यवस्था अपना न प्रधालय, बीकानेर संचालक श्री अगरवन्द नाटा,यपुर तथा मामेर पम्हारो रक्षक श्री न सुभदास न्यायती एवं व्यवस्थापक श्री माय कासलीवाल ने की। दसवीं तापी के शिलाले इस्टाम्पेन डा. मोबीन * का T• हरिकतम पायाभी मौक्य से प्राप्त गगा। इसके लिए। पुनः इन विबाम पनों का मापारी है। आइयेय डा० मा प्रसाद गुप्त विक्य को प्रकट करने के लिए एक हानिक दृष्टि प्रदान की है, वही इस ग्रन्थ में रो। म निर्दन स्था नात्वीयता लिए न्यवाद सिर्फ औपचारिकता पात्र होगी क्योंकि ही मेरी प्रेरणा के असाधारण स्त्रोत से। सोधमिलोगों ने बार्षिक सहायता करके मेरे अवध पथ को प्रास मिाथ नगे हार्दिक न्यबाद है। हो और मध्यम के समय में प्रोत्साहन और प्रेरणा देने वाले विद्वानों ने प्रदान गुमर डा. धीरेन्द्रवी, . पारी प्रशाद दिवेदी ग. रामकुमार वर्मा, सभी निति विसाजी, अवधयाकीमती) ला मी Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुषी ना, एम०५०, प्र कीय सम्बन्धी होंगे। करने, पूरिया गार करने का विवरणों की तुलना करने की माता भी उनमा मातारी भी मार देने स्वाब देना बानियोग प्रकको टाप रस प्रस्तुत भाया भी ना प्रिपाठी ने मन की टा, बायरन पूष्ठ मी स्पा मध मिलिए उनका परम मापारी है। इसके बाद दो व प्रसनु प्रकन मिना पी मीचीन होगा। प्रबको तीन भागो विर कि यम पाम विषय प्रवेश, हिन्दी साहित्य प्रादिकाल युग समाप, प्रमुख मिण या उनमा प्रभार र प्रतिपान, अपना साहित्य या हिन्दी माका नायक पर ममा निमें दी। माविलीन मानिमिरी गई। शिवीर भाग मादिकाल दी जैन साहित्य का अध्ययन विधिनाया नय विवार भिमा गया । म ती उमी विभिन्न परंपराओं पिक विमा विद्याप उन गाने गाती रमानों का पावर हा सम्बन्धी वाम प्रस्तुत किया ग या अथवा तीन माम मौलिक पप्यागों का प्रपन माधिकालीन हिन्दी साहित्यमा परम्परा और बा siratमाविकालीन हिन्दी शामिव और उमा म्यान पारस अध्यागी दुन्टिोमीर विनोमालियाकीमल किया गया और स्पष्टीकरण लिप स्थान स्थान पर पारन दिए गए है। इनमें नेक रमा मदया. बागिपरला, नाग, दृष्टियों से भी योगी निय गरपाबीन परिशिष्ट दिए गए। लि प्रथम परिशिष्ट प्रायोरों था उसकी सिपि सम्पनी पार जिनोमानविन पिप गीत - डारो प्रायमों M Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्र दिए गए हैं। इन त्रिों से नियों की लिसावट व्या हिपि सम्बन्धी वोड-मरोक, भारों की बनावट, मागाई गादि बातों का स्पष्टीकरण हो पाता है। इन प्रतियों पर भी साथ ही सा दिया गया है। दूसरे और बीसरे परिचितों में तत्कालीन प्र तिvिa प्रकाशित प्रति जैन और प्रतियों की सूरी या संदर्भ पन्बों की नामावली या देले विभिन्न कारों की सूची दी गई है। माज जबकि । अन्ध समाप्त प्रायः है, यह जानकर अत्यन्त हो रहा है कि बाबी दुवारा की गई सा-प्रदायिक, कोरी पार्मिक और उपदेश प्रधान रमायो मी हिन्दी साहित्य की अनेक ऐसी कृतिया उपता जिनका प्यार कर बादिकाल की सम्पन्नता पर दोष होगा है। प्रस्तुत प्र मादिकाल न्दिी साहित्य के सम्बन्धी एक से मभाव की पूर्ति होगी, ऐसी आश है। रिन मी परीक्षा) - - सा, गन प. निर२५जन १५ - - Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम भाग 1 विषय सूची अध्या -. विषय प्रवेश: हिदी साहित्य के आकिाल का अध्ययन, संक्रान्तिकाल, रचनामों की प्राप्ति में बाधाएं, नवोपलव्ध रचनाओं पर विवार- आदिकाल की सम्पन्नता, लोकभाषाओं का माविकात से सम्बन्ध-विवेम्म कुग का नामकरण (4) वीणापागल: शुक्ल जी का आधार- था अपभ्रंश और देशी भाषा में प्राप्त शुक्ल जी द्वारा की गई वीणावात्मक रचनामों की प्रामाणिकता और अप्रामाणिकता पर विवार- इन रचनामों की अप्रामापिकता-अक्ल जी की कुछ असमातियांधर्मनिम्पण करने वाली मामग्री के प्रति उल्क जी की उपेक्षा-उनके इतिहास का पात्व- निर्गः (मा) बारकाल:- ग. वी के चारमकात की कुछ असंगतिया और उन पर विगार- निम्वर्ग (इ) पिय गासकाल मौर उस पर विचार- निष्कर्ष (आविकात:- विचार और विवेन-माविकाल पर ग. विवेदी जी महत्वपूर्ण विगार बालोकों का मा भिन्म-निर्व (० तर अपशकाल, बाविषीव कास वा प्रारम्भिक काल- इसकी मालानों पर विगार, माविकात की सीमाएं:, हिन्दी से तात्पर्य दिी की नीपार्ष- भौगोलिक क्या ऐतिहासक अपच भाषा का वर्तमान पापायों ग्वाल्वियोग, विभिन्न विद्वानों के वर्गीकरम; स्थिी की उत्पत्तिा उसकी सीमाओं का प्रारम्भ यी वादीमादिकाल सम्मका सम्बन्धी अब तक कार्यमा पनि परिचय और विवेचन-प्राचीन पूर्वर Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्य संग्रह- जैन गुर्जर कवियो भाग १, २, ३, आपा कवियो- प्राचीन गुजराती गद्ग प्रदर्भ- कवि वरित भाग १-२: गुजराती साहित्य ना स्वरूपों गुजराती भाषा नी उत्तरान्ति- गुर्जर रासावली. प्राधावली, ऐतिहासिक चैन काव्य ग्रह- ऐतिहासिक बैन काय संचय- जैन साहित्य और इतिहासहिन्दी नैन साहित्य का इतिहास- पुरानी हिन्दी- हिदी काव्यधारा हिन्दी साहित्य का इतिहास मा F. इतिहास सम्बन्धी प्रन्य हिन्द साहित्य का आदिकाल- राजधानी भाका, पुरानी राजस्थानी, राजमानी पापा और साहित्य, प्रशमित संग्रह- प्राचीन काय संप्रह- अपांश माहित्य- प्राकृत शपभ्रंश मादित्य और उसका हिन्दी साहित्य पर प्रभावहिन्दी छैन साहित्य का संक्षिप्त इतिहास- हिन्दी जैन साहित्य परिशीलन भाग .. २ हिन्दी के विकास में अपभ्रंश का योग- सूर पूर्व अब भाषा और रसका सा तिस्य भी प्रोटेलणकर,श्री भगरचन्द नाहटा था डाहीरालाल जैन के स्फुट लेमा प्रस्तुत प्रबन्ध का अध्ययन और उसकी मौलिक्ता पिछले अध्ययन से उसकी विशिष्ट ता. गुरानी हिन्दी की रस्नाप-पुरानी हिन्दी का अर्थ- पुराने प्रमों का निराकरम-विविध काव्यरूप-प्रामाणिक इस्खलिमित प्रतिया-नई स्थापना वैज्ञानिक वर्गीकरण वल जैन कृरिया. कोरापार्षिक एवं उपवे प्रशान साहित्य ही नहीं-ौन कृतियां-कथा परंपराष- देशी बलोक साहित्य का अध्ययन प्राचीनतम गव्य रचनाएं अपांच साहित्य का हिन्दी विकास में मोग-आदिकालीन हिन्दी जैन साहित्य की प्रमुख एवं गौष काव्य परंपराएं-युगीन परिस्थितियां मार जैन सिद्धान्तों का परिचय-विविध दृष्टिको भूत्वाका-प्रलोक जताब्दी के प्रत्येक वरण की प्रतिनिधि- साहित्यिक और लोक भाषा काव्य-रचनाओं की ऐतिहासिकता. रसरामशा- राज्यापित रहित जनता का साहित्य प्रस्तुत गन्ध की समान और साहित्य को न माहित्यिक आलोचना- पाबा का अध्ययन- कृतियों का पाठ सम्मान। ( १-५५ । Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय - 3 हिन्दी साहित्य के अदिकाल का युग और समाज: चौहान युग और साहित्य- साहित्य और समाज-युगीन परिस्थितियांराजनैतिक धार्मिक- सांस्कृतिक तथा साहित्य परिस्थितियां- राजनैतिक परिस्थितियं राजवंश युग- और इस्लाम युग; राजवंश युग- पौसरी यंत्रवर्धनवंश- बायुध वंश- राष्ट्रकूट वंश- पालवंशः नये वंश- गाइडवार कलचुरी वंश चन्देल वंश परमार यंत्र गुजरात के सोलंकी निष्कर्ष: इस्लाम युग- तुर्कों के आक्रमण और राजपूत वंत्र मध्यदेश और तुर्की के सं० १५०० तक आक्रमण, राजस्थान का आक्रमण का सामान राजनैतिक संक्रान्तिक मध्यदेव राजस्थान गुजरात आदि की स्थितिधार्मिक परिस्थितियां- बौध धर्म, जैनधर्म, ब्राहमण धर्म, इस्लाम धर्म, बौद्ध धर्म- चार आर्य सत्य -बारह प्रकार के प्रतीत्य- समुत्पाद हीनयान महायान शाखाओं का रूप- बौद्ध धर्म का पराभव काल- जैन धर्म- उसके प्रमुख तीर्थंकर महावीर से जैन धर्म का प्रभाव- जैनियों की साहित्यिक सेवा - - राजपूत वंश वैयद लोदी मंत्र ); - वैश्य भाषा का प्रयोग- दार्शनिक सिद्धान्तों का प्रयोग- महाकाव्य- संत काव्य कोश काव्य- कथा काव्य ब्राह्मण धर्म- राजाओं द्वारा प्राय - का मदोलन चैव सम्प्रदाय- ब्राह्मण धर्म के मूल तत्व- ब्राहृमण धर्म का हिन्दू धर्म- परवर्ती विभिन्न सम्प्रदाय-इस्लाम धर्म और उसका प्रभाव- सामाजिक BET आर्थिक परिस्थिति जाति व्यवस्था- सात- दास दासी- विवाह आभूषण- ज्ञान-पान- धनिक जुबा तथा वैश्या प्रथा- युद्ध- जनसाधारणआर्थिक स्थिति व्यापार मंदिरों में धन का संग्रह- प्रभाव- सांस्कृतिक - चित्रकला-संगीत - संस्कृति का सामाजिक स्वरूप- साहित्यिक परिस्थितियां परम्पराय साहित्य- अपन साहित्य-साथ साहित्यइवर साहित्य- नि ( पृ० | ५१÷६६ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म के प्रमुख सिद्धान्त क्या उनका प्रचार और प्रतिपाल: ___जैन धर्म का उद्भव और विकास- आरम्भकाल- जैनधर्म को राज्याश्रय बिहार में जैन धर्म- उड़ीसा में जैन धर्म- बंगाल में जैन धर्म- राजस्थान में। जैन धर्म- गुजरात में जैनधर्म- दक्षिण भारत में जैन धर्म- और दविष के वंशे का जैन धर्म की प्रगति में योग- साहित्य प्रगति निम्बई- श्वेताम्बर- दिगम्बर. यापनीय सम्प्रदाय- अस्तित्व - यापनीय सम्प्रदाय की उपासना और उसका स्वरूप- याफ्नीय सम्प्रदाय का साहित्य- आदि कालीन हिन्दी जैन कृतियों में प्रयुक्त जैन धर्म के विविध दानिक सिद्धान्त और उनका परिचय- संसारनौवत्व - आठ कर्म - सम्यक ज्ञान - सम्यक् चरित्र और सम्यक्त्व- बारह व्र सरकत्व • आध्यात्मिक भावना -पटकर्म . नियतिवाद वाय- अनेकान्ड अथवा। स्यादवाद - विशिष्ट तत्व - अहिंसा - इति - जैन धर्म और अध धर्म के दर्शन का साम्य असाय. कुछ प्रमुख जैन कृतियों द्वारा प्रणीत धार्मिक एवं दानिक सिद्धान्त- प्रमुख कृतियां- जिनदत्त पूरि स्तुति-भरनेश्वर बाहुबली राम- बन्नबालाराम नेमिनाथ चतुम्पादिका- पेथड़ तथा समराराम नेमिनाथ क्या कभन्न कागु- माणदो- प्रयुम्न चरित- त्रिभुवन दीपक प्रबन्धजिनोमा मरि विवाहो- अर्कन पेठ शील प्रबन्ध- गव मुखमाल राम-चिहंगति चौपई- विक्ष्याक्लिास पवाको और पंच पान्डव चरित मस- इनरवनाओं की प्रापबारा धर्म- निर्व- you- १३७ ) अपार का बैन साहित्य : अपांच साहित्य की सम्पन्नता; अपमंत्र साहित्यका वर्गीकरण- प्रारम्भिक काल (५०. ई०.८... + स्वर्णकाल (सन् ८०० ६.१०. ई.क) प्रारम्भिक काल- आप सब का सि-विकिय विमानों के अपांच Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्बन्धी विभिन्न मतों का उल्लेख प्रारम्भिक काल के साहित्य का महत्व अंशिकः स्वर्णकालः विवेचन : काव्यग्रन्थों का वर्गीकरण प्रबन्धः मुक्तक: प्रबन्ध- पुराण, महापुराण चरिउ काव्य, रुपक काव्य, कथात्मक ग्रन्थ संधिकाव्य- रास आदि मुक्तककाव्य- गीव-स्तोत्र-स्तवन- पद तथा उपदेश प्रधान स्फुट रचनाएं इन रचनाओं की प्रमुख विशेषताएं और उन पर विवेचन (१) रचनाओं की ऐतिहासिकता और उसका परिचय- संस्कृत से 3 उसका तुलनात्मक अन्ययन (२) प्रबंधात्मकता क्रमिक विकास तथा तुलनात्मक विवेचनः घटना विन्यास वर्णनक्रम, कथा काव्य रूप, वैविध्य, कौतूहल तथा प्रवाह के रूप में अपभ्रंश काव्यों पर विचार विविध रचनाये; कला पक्ष भवि पक्ष और उसके विशिष्ठ तत्वः काव्यरूपः लौकिक प्रबन्ध तथा उपदेश प्रधान रखना- आध्यात्मिक तथा स्तोत्रस्तवन सम्बन्धी रचनाएं: बौद्ध सिद्धों की अपप्रेरनाएं इन कृतियों में धर्म प्राणधारा के रूप में विद्यमान होना- प्रबन्ध काव्यों को विल्प जयविधि तत्व और उनका परिचयः रसविधान निष्कर्ष-1 ( पृ० १२८ - १३६ अध्याय - ५ हिन्दी के वादिकाल का जैनैतर (लौकिक) साहित्य) लौकिक काव्य:- धार्मिक दृष्टिकोण से रहित: व्रत्कालीन प्राप्त जैनेवर साहित्य का वर्गीकरण (१) (२) तर (लौकिक) गद्य स्वार्थ (1) लौकिक काव्य और उनका विश्लेषण (१) शिलालेड (२) साउली (३) रमल द (४) का प्रबन्धः काव्यात्मक विश्लेषण (५) वसंत विलास फागु और उसका परिचय (६) सवयवत्व चरित: एक परिचय (७) हरिद बुराम (८) रुक्मणी गंमतः एक अध्ययन (९) ढोला मारु रा दोहा(१०) अचलदास बीजी री वचनिका : एक विश्लेषण (क्रमश:) Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) जैनेतर(लौकिक) गइरा रचना:पृष्ठ भूमिः हिन्दी साहित्य के गट्य की परंपरा, संस्कृत प्राकृत • पाली क्या अपज की हिन्दी कृतिगों में हिन्दी गद्य के उदभव के अंकुर, बुवलयमाला. पुरानी कोसली का ग्रन्थ उक्ति व्यक्ति प्रकरण और उसके उद्घरपः ११वीं ताब्दी के रावल समर सिंह और महाराज पृथ्वी सिंहके दो प्रसिद्ध दानपत्र और उनका गद्म; गोरखनाथ के गया- दृष्योग के प्रन्थ में गद्यअन्य कृतियां और उनका हिन्दी गद्य की परंपरा के विकास में गोगअनेतर गय कृतिया ...ीं उताब्दी से १५वीं शताब्दी तक उपलब्ध, अजैन कृतियों का गद्य परंपरा को पुष्ट करने में महत्वपूर्ण योगदानपालवी पावा का शिलालेख और उसका विश्लेषण: मैथिली का वर्ष रत्नाकर और उसके गद्ध अवतरम पमनानकृत राजस्थानी महाकाव्य कान्हड़ दे प्रबन्ध और उसका गट्य : एक विवेचन : अचल दासीची री बच निकाअचल दाप नीचीरीबाग- इन कृतियों का विस्तव विश्लेषण- निष्कर्ष । (पृ.१४० - २१७ ॥ - दिवतीय भाग बध्याय आदिकासमन्दिी जैन साहित्य(१) म काव्य-परम्पराएं। "न्यन्यायमान माझिालीनहिन्दी केन साहित्य के स्वम का वैविध्य. उसके स्वरूप के लिान के प्राचार- प्रमुख परंपरा-1) प्रमुख काव्य परंपरा) गौषकाव्य परंपरा (३) बन गय परंपराएं (४) मद्य काव्य परम्परा (१) प्रमुख गाय परम्पराए:- प्राप्त काव्यों में एका काव्यों की प्रक्षिा परित काव्यों का विकास काव्य, मारिकाप न कृतियों का वीर द प्रधान या नियमान काबरमके अध्ययन के आधार; Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७ (अ) रास (ब) फागु (स) चतुष्पदी (द) चर्चरी (क) प्रबन्ध (ब) चरित (ग) विवाहलो (घ) सन्धि (क) पवाड़ी (च) कक्क मातृका (२) गौषकाव्य परम्पराएं - गौणकाव्य परम्परा -प्रबन्धात्मकता, घटना कौतूहल तथा वस्तुशिल्पइनमें प्रधान काव्यरूप है- दोहा छंद, छप्पय, रेहुआ, गाथा: विषयप्रधान काव्य स्प- महात्म्य, घोर, पट्टाही बारहमासा, तलहरा सम्बोध, संवाद आदि; (३) स्तवन काव्य परंपराएँः स्तवन काव्य रूपों में प्रमुख रूप है-उत्साह, गीत, स्तोत्र, स्तवन, बोलिका, स्तुति वीनंती, कलश, नमस्कार, प्रशस्ति, सफाय आदि (५) गद्य परंपराएं जैनगइय परम्परा उसके विविध स्प विभाजन कालक्रम से कृतियों का वर्गीकरण तथा विश्लेषण- निष्कर्ष: (१) प्रमुख काव्य परम्पराएं- (अ) राम काव्यासों का अध्ययन- राख परम्परा की प्राचीनता- भरत के नाट्य शास्त्र में राब+ मास के नाटक- सरस्वती कंसमरण- पुराणों में राम बाणभट्ट काम सूत्र अभिनवगुप्त श्रीमद्भागव वागभट्ट के अनुसार रास का शिल्प-निकर्म - अश्लील राक्षक पदानि और उस पर विचार- संस्कृत काल के पश्चातू रास- राजस्थान में राल का रूप संस्कृत कालों के रास- रिपुदारण राम की प्राचीनता - अपभ्रंश के राम कालान्तर में राम क्रीड़ा- राम के विविध तत्व- १०वी १२वीं ताब्दी तक राम की स्थिति-हेन्द्र की रास सम्बन्धी मान्यताएं- मम उद्धत और निवास मोर- रासक का अन्तर :- ११वीं शताब्दी तक नृत्य गान और अभिनय की राम की विषय वस्तु थी १वीं शताब्दी में रास विषयक वस्तु में परिवर्तनचरी गीतियों का समावेश- कथा तत्वका समावेश- चरित संकीर्तन का समा रासा बंध वीं से शादी करा साहित्य के किल् उसकी प्रमुख प्रवृत्तियों और विशेषताओं एवं उसके विकास की कड़ियों का विभिन्न दृष्टियों से अध्ययन-संगीत व नृत्यकला के रूप में-छन्दों की दृष्टि से - विषय की दृष्टि से साहित्यिक क्यों की दृष्टि से तथा वर्ग की दृष्टि - इन विभिन्न दृष्टियों से राम का विषम निष्क Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रास की शिल्प योजना- वर्तमान काल में राम की स्थिति-विभिन्न प्रादेशिक नृत्यों में रास- रासक के तत्व- राजस्थान ब्रज और गुजरात में विविध नृत्यों में राम के वास्तविक तत्व राखों के परवर्ती अर्थ- निष्कर्ष व 9वीं शताब्दी के राम्र- भरतेश्वर बाहुबली रास और उसका अध्ययनकृति के नाम समय आदि सम्बन्धी पूर्ववर्ती विवानों के विचार+ कथा कट्टि और भरतेश्वर बाहुबली पर विरचित साहित्य कथा भाग- नाटकीय संलाप- विविध वर्णन- अनूठी उक्तियां- भाषा विचार- रस व्यंजना- अलंकार उनके विविध उद्धरण- मंद योजना- त्रिभिन्न प्रयुक्त छन्द -चंदनबाला राम और उसका अध्ययन जीवदना रास- कथा की कारुण्यता- स्थूलभद्र रास और उसका परिचय, रेवन्तगिरि रास- नेमिनाथ रास- १४वीं १५वीं शताब्दी के रास- गयसुकुमाल रास, कच्छूली राम- समरारास- मयणरेद्वारास श्री जिनपदमभूरि पट्टाभिषेक रास कुमार पाल रास-पं पान्डव बरित राहुगौतम राम कलिकाल रास- सोलहकारण रास- इन राम्रों का विस्तत साहित्यिक विश्लेषण निष्कर्ष- (ब) फागकाव्यः फागु काव्यों का विश्लेषणमानव की उल्लाप्रधान अनुभूतियों का प्रत्येक रितु से सम्बन्ध- फागु काव्य परम्परा और उसका भव्ययन संस्कृत काव्यों वैकाग, रत्नावली नाटक में फागु-विद्वानों द्वारा कागु की विभिन्न परिभावार्थ- विविध आदिकालीन फागुओं के उदाहरण- फागु काव्यों की सामान्य प्रवृत्तियां का काव्यों का भानिक स्वरूप और डफ के गीतों में उसके तत्व फागु काव्यों की विशिष्ट ली प्रासात्मक कुछ मान्यताएं और उनपर विचार- का बंध वनाओं कामविष्य पर्व निष्कर्क- वीं शताब्दी के फागों का साहित्यिक मूल्यांकनदूरि काय- नैकिन फागु स्थूलभद्र फागु- नेमिनाथ फागु- निष्कर्ष१५वीं शताब्दी के काम और उनका विश्लेषण- मेमिनाथ कागु-नेमिनाथ का (प्रथम, दिवसीय ) - रावण पार्श्वनाथ फागु-जम्बूस्वामी का जीरापाली पार्श्व नाथ- gosteen trच पान्डव कागु-परदेश्वर वर्ती काम-वसंत फायु Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९ नेमिनाथ फागु - देवरत्न सूरि फाग-रंगसागर नेमि फाग-नारी निरास फागुसुरंगाधिप नेमिफाग- निष्कर्ष- (ख) चर पई संज्ञक रचनाएं और उनका अनुशीलन- नेमिनाथ चउपइ- नेमिनाथ वृत्त पर उपलब्ध ग्रन्थ- थ का रचनाकाल कथा - उपs संज्ञक रचनाओं की परम्परा- पूर्व प्रचलित मतों पर विचारनेमिनाथ चतुष्पदिका एक बारहमासा काव्य-नारहमासा और उसकी परंपरा पर विचार- रचना का साहित्यिक विश्लेषण- सुभद्रासती चतुष्पदिका मातृका चउपई- सम्यकत्व माइ चउपड़- मंगल कलस बउपर- जिनदत्त चउपई प्रतिपरिचय काल निर्धारण कवि परिचय- कथा प्रधान कृति- कथा-प्रबन्ध काव्य के लक्षण और परीक्षण- विविध वर्णन नखशिख - प्रकृति वर्मन कवि की बहुशस्ताछंद- रस- भाषा- निष्कर्ष पद्मावती चौधई-ज्ञान पंचमी बौपई-चिरंगति चौपाईनिष्कर्ष - (4) बरी- काव्यः परम्परा उद्भव और विकास, चर्जरी संशक रचनाओं की परम्परा परिचय-संस्कृत प्राकृत औरमपत्र में वर्वरी के अर्थवरी के प्राचीनता चार उल्लेख- वर्चरी सम्बन्धी सहायक ग्रन्थों में उपलध प्रमाण- अपप्रेश काव्यत्रयी, कुवलयमाला था तथा विभिन्न कोश अन्थों में चर्चरी के अर्थ विविध अर्थ वर्चरी एक छन्द विशेष- संदेश रासक, ढोला मारू रा दोहा, संदेश रासक- स्वयं छन्- कुमारपाल प्रतिबोध- हिन्दी भाषा कोव पुरानी, हिन्दी- कबीर जायसी तुलसी आदि में करी के रूपपुरातन प्रबन्ध संग्रह और वस्तुपाल प्रबन्ध में प्रयुक्त बर्जरी संसारं चर्चरी केविन अर्थ वर्जरी के शिल्प सम्बन्धी आवश्यक निर्देश लोकप्रिय गानउल्लास प्रधानलोक गीत राजस्थान में चर्जरी का स्वरूप+ चांचर, वर्चेर का उल्लेख निष्कर्ष कारी संरचनाएं और उनुका परिचय- सोलणकृत वर्चरीबारी-साहित्यिक परिचय निष्कर्ष-- (क) प्रबन्ध संशक काव्य प्रबन्ध कायों की परम्परा-मुक्तक और प्रबन्ध रूप में-प्रबन्ध काव्यों के प्रमुख प्रबन्ध काव्य त्रिपूजन दीपक प्रबन्ध और मरतेश्वर बाहुनी प्रबन्धप्रवर्धन सेठ ही प्रबन्ध और उसका परिचक- त्रिभुवनदीच प्रयन्ध और क काव्यों की परम्परा काव्यों के व्यापक विश्लेषण Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (स) हरित काव्य, वरित संज्ञक रचनाओं का विश्लपण-वरित अन्थों की परम्परा- क्या चरित काव्य व्य है। चरित मूलक काव्यों का विशिष्ट शिल्प क्या है। बरित काव्यों के गुप- प्रमुख चरित संशक ग्रन्थ औरउनका साहित्यिक विश्लेषण- जम्बू स्वामी चरित अन्तर्कथाएं- प्रद्युम्न चरित- प्रति कवि एवं रचनाकाल परिचय- काव्य परीक्षण- क्यासार. भार पक्ष और क्ला पर रस छंद मकार विविध वर्णन अति प्राकृतिक वर्णन- था परम्पराएं और अवान्तर घटनाएं -निष्कर्ष मिश्वर परिव- विराट पर्व- आदिनाथ पुराण - निष्कर्ष(ग) विवाइलो काम्या परम्परा और विश्लेषण- परम्परा. ऐतिहासिक विवाइले- रुपक काव्य-प्रमुख कृतिया-जिनेश्वर सूरि विवाहलो-जिनोदय मूरि विवाहला- नेमिनाथ विवाहला-मिनबन्दसूरि विवाहला-सुपति साधु पूरि वीवाहल (1) पवाहो काव्या विश्लेषय-रचयिता लोक आख्यानक गीतचरित काव्य- विद्याविलास पगाड़ी और उसका साहित्यिक मूल्बान ( संधिकाम, परम्परा और विश्लेषण- संधिकाठम-परम्परा-अपर संधि- वर्भब विषय अन्तरंग सन्धि-सपस निध-उपदेश सन्धि पावना सन्धिकेवी गौतम सन्धि- विश्लेषण और निम्कर्ष- (च) करमाका काव्य पातुका: मानी मक्क भातका का शिल्प- परम्परा तक रसारमातृका प्रथमावर दोहाः सम्यकत्वमाइ कापड, माका सपा-बेगमाकासालिम सक - दूहा माका- कावधि उपइ-अटापद तीर्थ बानी. निका-10217-७२६, माविकालीन हिन्दी कैन साहित्य(२) गोषकाव्य परम्पराएं मौष गव्य स्म:- र प्रधान तथा बिय प्रधान- Ocान-दोपाका- दोग बारमरीदोग- पाया कहा Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बरवरगुरु गुण हाप्यय- मंद- श्री गौतम स्वामी दयन्द-(प्रथम दिवतीय)-अंबिका द- श्री स्थूलिमद्र मुनि छंदासि- सत्कवस्तु-जम्बूस्वामी सत्कवस्तुदिवप विका-क्षेत्रपाल दिवप विका-गाथा-मंगल-गा T- आरात्रिक गाथा. कम्मभूमि गाथा- रेलमा- जिनचन्द परि रेटा- श्री गलिमा रेलमागरावली रेआ- चाहायप- मिनप्रबोध सूरि मंद्रायणा- श्री जिनेश्वर रिक चन्द्रायणा- अष्टक-जिनभद्रसूरि अटक (ब) विषय प्रधान- बैत्य परिपाठीभी हुंजय परिवाडी- श्री बैत्य परिपाठी-श्री नगर कौट तीर्थ बैत्य परिपाठी- बारहमासा- नेमिनाथ चतुम्पदिका-नेमिना बारहमासा रासो. धूलिभद्र बारहमासा-नेमिनाथ काग बारहमासा- पट्टाबली-बरतरगच्छ पटाकळी गुणवर्णन- जिनवल्लभसूरि गुण वन-संवाब-कृपणनारी संवाद- कुलक; उत्तम पुस कुलक- अनाथी कुलक- मात्स्यनवकार महास्य- भोर, परतेश्वर बाहुजली घोर- तलहरा- अम्बिकादेवी पूर्वभव वर्षन- तलबरा- बोध-नरनारी सम्बोध- दो अन्य विषय प्रधान कृरिया-आपदो-(आध्यत्मिक रमा) ज्या मृगापुसकम् (उपदेश प्रधान)। (पृ.७३७-८३०)। आदिकालीन हिन्दी जैन साहित्य(३) स्तवन काब्य परम्परा संस्था मन्तक काव्य का स्वम:- सन सनक काव्यों की परम्परा-स्तवन गव्यः मुक्तक काव्यः -प्राक्त अपश- पुक्क मीब मुक्तक गीति का शिल्प- उमिकामक्या स्तोत्र स्तबम गाहित्य मी स्वो स्तवन में गीति काव्यों का वैशिष्टक प्राचीन बोत्र संग्रह- वेद महाभारत और पागवत पुराण में गीत स्वोरप्राय माकानों पर स्वोत्र सक्न- उत्तर अपस काल में मौत सोत्र स्वचन- हिन्दी साडिव और मुक्का बाहिर गीत स्वोत्र और सन के प्रमुख प्रकार- बास मी-योग-स्तन-कला-बोरिका-शुषि-मीनदी. सम्मानमस्कार-प्रति-कोसिशामिल और धार्मिक पुस्तक-उत्साह Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ सत्यपुरीय महावीर उत्साह- रचना स्थान- प्राप्ति स्थान- कथा भागकृति का ऐतिहासिक महत्व- साहित्यिक मूल्य वस्तु विवेचन- सत्यपुरीय महावीर उत्साह की भाषा- कुल उदाहरण- राजस्थानी- तत्सम रूपों को उदाहरण- देशी भाषाओं- साहित्य का महत्व- प्राचीन राजस्थानी जूनी गुजराती- अथवा पुरानी हिन्दी की महत्व-गीत जिनपति सूरि धवल गीत(हरयम) - भत्तर- मधुविंदु गीतपद- स्थूलिभद्र गीतम् - श्रीवयर स्वामी गीतम् - स्तोत्र - चउनी सजिन स्तोत्र नेमिनाथ पाव पूजा स्तोत्र-पंच कार नमस्कार तीर्थ-स्तवन- चतुर्विंशतिजिम स्तवन स्तंभने पार्श्वनाथ स्तवन (प्रथम, द्वितीय)- श्री सीमंधर स्वामी स्तवन- कलश- श्री चन्द्रप्रभ स्वामि कलश- शान्तिनाथ क्लव- आदिनाथ क्लव- महावीरकला- बोलिका वासुपूज्य बोली-आदि नाथ बोलिका-जिन प्रबोध सूरि बोलिका - श्री जय आदिनाथ बोली- नेमिनाथ बोली स्तुति- मेमिनाथ स्तुति- विरहमान स्तुति- विनंतीमहावीर वीनंती- श्री वीतराग विनंती- श्री गिरनार मन्डन बीनती इनका काव्यात्मक महत्व-निकर्म - (०२३१-२८७ १ १ अध्याय-९ कालीन हिन्दी जैन साहित्य (४) गढ़न परम्परार्थः विषय प्रवेश- मक साहित्य की प्राचीनतम रचनाओं का प्रेम अदिकाल को काल के विभिन्न स्त्रोत, विनाथ जैन- जैन मदृय परंपरा - १४वीं are की जिन प्रथरि कुर्त रचना में देशी भाषा में बार नाविकाओं के संवाद- गूजरी, मालवी एवं पूर्वी नाविकाओं के संवादों के उद्धरण पूर्वीभाषा के साथ सब कालाध्य तथा उसकी प्राचीनता जैन रचनाओं का कालक्रम-वर्गीकरण १- मारम्भिक काल ( सबै १०००-१४००) (अ) प्रारम्भिक रचनाये (ब) परवर्ती रचनाएं (२) विकास काल (सं० १४००० १५००), (१) मम (१) गद्यकाव्य, प्रारम्भिक काल त्या उसकी रचना-आराधना बाल लिए, विचार Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३ नवकाव्यान सब तीर्थ नमस्कार स्तवन अतिचार-आदि प्रारम्भिक रचनाएं, परवर्ती रचनाएं- धनपाल कथा तत्थविवार प्रकरण आदि प्रारम्भिक काल तथा उसकी रचनाओं का वर्गीकरण (अ) धार्मिक कृतियां (1) उपासना पद्धति जन्य (२) धार्मिक सिद्धान्त मूलका (ब) साहित्यिक (अ) कथात्मक स्वनाएं, धार्मिक कृतियां - उपासना पद्मतिजन्य शिल्प-गद्य के कुछ उद्धरण-पावा शैलीअतिचार (प्रथम) अतिचार (द्वितीय) तत्वविचार प्रकरण- आराधना और अतिचार तथा उनके गढ़ के उद्धरण- ३ व विचार प्रकरण और उसका अध्ययन (ब) साहित्य गद्य-धनपाल कथा तथा उसका विश्लेषण (२) विकास कालरचनाएं- बालावबोध संज्ञक विभिन्न १७ रचनाएं, श्रावक वृहदतिचार- पृथ्वीचंद वागिवलास तथा इनरचनाओं का परिचय बालवबोध शैली का परिचय- अनुवाद और टीकाओं के दो उप- टबूजा एवं बालावबोध कथा प्रधान वैली-कथाओं के प्रकार मौलिक कथाएं- परम्परागत कथाएं- लोक कथाएं-उपदेशात्मक कथाएंधार्मिक कथाएं विविध विषयक कथा- विकास काल की इन रचनाओं का वर्गीकरण (9) व्याकरणमूलक- मुग्धावबोध औक्लिक, औक्तिक, उक्तिसंग्रह तथा विवेचन (२) क्याप्रधान गद्यसाहित्य विविध विषयक कथाएं और उसका उधरण (३) धर्म सम्बन्धी गवसाहित्य, बहावश्यक बालवबोध, ग्रन्थ का किल्प बालबोध संशक ८ रचनाएं और उनके उद्धरण- बालवबीच रंजक उपलबुध अन्य रचनाएं, तथा विभिन्न लेखक (४) ऐतिहासिक मन साहित्य- गुर्वावली तथा उसका गढ़ब (५) गद्य काव्य का प्रेरक एवं उमानक गड्य साहित्यमय काव्य की परम्परा का उद्भव और विकास - राजस्थानी का गद्य- उसके दो स्म दयावे और बदनिका बनावेद युद्ध मैथ-शद बंध, वचनका पदबंधमदद बंध-गद्यकाव्य मंत्र कृतियां पृथ्वीय चरित पर्वउसका अध्ययन, बोका चिकार और उसका परिचय (1) विविध विषयक गदून वाडित्य-गपिसार nute विशति का मालवबोध तथा उनके उद्धरण जैन मद्बपरंपरा की देन निष्कर्ष(707~2-£80) Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ - ततीय पाण अध्याय... आदिकालीन हिन्दी जैन साहित्य की क्या परंपराएं और क्या उडिया: (4) था परम्पराएं जैन रचनाओं के निमाण में परम्परा को पुष्ट करने वाली परिपाडियों इन परंपरामों को प्राणान्वित करने के कारण- परम्परा शब्द का यही अर्थ- अनेक जैम कथा काव्य-उदय कथा तबका विकास- परम्पराम-परंपरा का सम्बन्ध कृति की कथात्मकता से -पटना में वैविध्य और मौलिकता के काख परंपराओं का निमान- जैन क्या काव्यों के नायक- महान-तीर्थकर और बलाका पुरुष क्या परम्परागों का शिल्प- वैविध्य बल मौलिकता राधा जीवट का समावेश- स्था की रचना में सम्भवतः मौलिकता- एक ही क्या को विभिन्न मोमें रखने के कारण वर्णन क्रम वस्तुयोजन और बा शिप में विविष्य के कारण परंपराओं का जन्म. इन या परंपराओं का अध्ययन कविकर और भावाय क्यों । एक ही महापुरुष पर विभिन्न नामों वाली लिया. विभिन्न विषयों पर विभिन्न मोलिली जामे बाली रचनाएं- विभिन्न कनिमों का एक ही घटना पर विभिन्न प्रतियामौलिमा- स्था परम्पराओं के मूल में-मौलिक अथा अकि बध परंपरा-बाबावरल और जम समाज का क्या परंपराग - निमा- उपलब्ध प्रमुख स्थाएं और घटना -अति प्रधान और घटना प्रधान - चरित प्रधान नेपिनाथ स्वामी, थलिमाघटना प्रधान रबमानों को मार- बिनबस पडेगा-प्रसम्म चरित-सत्यपुरीय गया- बालाराम- मुद्रावडी बाई- मापुसक्यू- इन कृतियों के पारस्परिक बन र विभिन्न सम्म सो परस्पर अन्तर राम और का था परम्परा मार- प्रबन्ध और परिव में परंपराओं काम और war. विविध वर्षनी और सहारनी इबारा परंपराओं का नया विविध रस्मार. परव काल में इन रमाओं का विकास-14) गबनीमा काम भरनों का TET पीयों की पल- wr start Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्गीकरण-काव्य सढ़िया- क्या दिया अनुवतिबद्ध परंपरा-काल्पनिक कड़ियांविविध सदिया- काव्य दिया- अंगलाबरक- सरस्वती वंदन- जिनवंदन- कवि अन्य परिचय- प्रारम्भ में सल निदा पाए पुलों की प्रशंसा- अन्त में कवि पदो की नाम की प- इन अभिप्रायों का प्रयोग- काव्य कड़ियों का उपयोगिता. कामा सदियों की परंपरा- काव्य रुड़ियों का परीक्षण काव्य कड़ियो- रूपविधान सम्बन्धी. विविध वर्णन सम्बन्धी सामाजिक परंपराओं सम्बन्धी अविप्राकृतिक सत्वों से युक्तइन इड़ियों का विश्लेषण-अनुभुतिबद्धक्या दिया- काल्पनिक- विविध कड़िया- हिन्दी जैन साहित्य में उपलबध उक्त सभी सदियों का विश्लेषण- निष्कर्ष-1(पृ. ६३-६६२) अध्याय-" आविकालीन हिन्दी जैन साहित्य में प्रयुक्त छद TorpiTTTFVFF TIVITTYVO V W बन रनामों में से प्रकार के मार-मात्रिक और वार्षिक हार -बाल और वर्ण का महत्व मात्रिक और बाल वृत्तों में संगीत का समाव-वर्ष grत और प्रयुक्त मपरगण-अपर प्रन्यो इन दो का विश्लेषन -माणिालीन हिन्दी जैन रचनाओं में प्रयुक्त विपिन च औरउनका वर्गीकरण-प्रक्स - (५ ) इनका वर्गीकरण-मात्रिक- वर्णिक क्या देखी-वती (कुछ १५)-देशी द-देवी छन्दों का शिल्प-सालवत तथा संगीत-विविध रागों-स्थानमें विविध जातो का उपयोग-देवीदों की परम्परा का उद्भव और विकासविविध देशी डालें और उनका छन्दों में प्रयोग-परतेश्वर बाहुबली रासइविधरा-वीराम, पेय तथा की रास- समरा रास- पंच पाय भरित बार इनमें प्रयुक्त रास का रासक पद बस्तु-कोटक मा घटक-सरस्वती पा-वोडा-चौपाई बोरग-परणाकुल-देखी बंध-विभिन्न म्यपियों में प्रयुक्त-रोबासलादी -बमा -विधीगड Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ मिभंगी- त्रिपदी-सोरठा तथा सोरट्का-हरिगीतिका-पादाकुल-फागु वार्षिक वृत्त और उनका वर्णन-दुतविलवित-मालिनी-उपजाति- बसंततिलकारथोधता- नाराच-अधनाराच- रागों में पुष्ट देशी छन्द तथा उनका विकास करने वाली महत्वपूर्ण कृतिया-देवी न्दों का स्वरूप त्रिभुवन - दीपक प्रबन्ध-भाट्ट- दुपद-आन्दोल- पासा-अडइया-विद्या विलास पवाड़ो में प्रयुक्त विविध देशी इंद-विभिन्न रागै- राम संभूर, रामगिरिवीवाहला-मीमपलासी-हिव विधामगड डाल राग देशक-सरतरगच्छ पट्टावली-प्रथम श्री धवल राग- राज बल्लभ सबैया की देशी-राग यात्रीविभिन्न रागों में प्रयुक्त संगीत प्रधान देशी छन्द औरउनका पविष्य- रोध की पर्याप्त अपेक्षा इन दो का परवर्ती कालों पर प्रभाव- ये प्रभाव दो मों में. काव्य पद्धतियों तथा छन्द पद्धति में-काव्य पद्धतियोमि- दोहा पद्धति- दोहा बौपाई पद्धति- हाप्यय पद्धति- पद बोरगीवि पधतिया. तथा हद पद्धति में वर्णिक और मात्रिक दोनों प्रकार के इन्दो वारा पश्तिकाल-रीतिकाल- तथा अधुनिक कालों पर-इन छन्दों की देरी लोक परंपराएं और उनका परवर्ती कालों में प्राण-निवर्ष- ( ० ६७० - १०२०) प्रभाव उपहार माविकालीन हिन्दी जैन साहित्य परिशीलन- उसके प्रमुख तथ्य(.) जैन कृत्रियों के अध्ययन की अपेक्षा-प्रभुन गई पुजराती और राजस्थानी विद्वानों वारा-दिी के विद्वानों की इस बार अपेवा-इतिहासकारों के लिए आवश्यक मामी-अब प्रध से इस भोर पूर्ति का प्रयास- (२) मा और समाजतत्कालीन स्थितियों का काव्य रचना में योग- समाज ने निर्माण में बीमा (1) जैनधर्म के प्रमुख सिद्धान्त, इन विधान्तों का साहित्य प्रस्न में योग, मरस क्यामों एवं बाल दिवों का आधार-रमानो मानिक तत्वों Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ का विश्लेषण क्याओं के द्वारा:(४) अपज का जैन साहित्य- उसकी प्रमुख विशेषताएं तथा उसका अध्ययन (५) आदिकालीन हिन्दी जैनेतर लौकिक साहित्य, भाव एवं कलापर, साउली कान्हड़ दे प्रबन्ध-बसंत विलास फागु- गोला मारु रा दोहा, रणमल्ल छद, सदयवत्स-रुक्मणीमंगल-आदिः, (1) काव्यपरंपराएं. प्रमुख गौम, स्तवन और गद्य परंपरा तथा इनके अन्तर्गत आने के काव्य रूपों में वैविध्य और विशालता (७) स्था परंपराएं और क्या हिया उनका वैविध्य और विश्लेषण (0) आदिकालीन हिन्दी जैन साहित्य में प्रशुक्त पद-तालवत्त और मात्रावृत्त-संगीत में इन कृतियों का भोग देशी छन्दों का विकास और इन कृतियों द्वारा देशी दो के क्षेत्र में मौलिक अनुदान (९) बोध की नई दिशाएं- पुरानी हिन्दी का उदभव और विकास। आदिकालीन हिन्दी रचनाओं की भाग-आदिकाल के रास, कागु, प्रबन्ध, चरित मुक्तक काव्य श्रृंगार तथा संड शो का वैज्ञानिक सम्पावन, मध्यकालीन हिदी जैन साहित्य की सम्यक शोध की अपेक्षा ( हिन्दी साहित्य को इन कृतियों की देव- हिन्दी साहित्य के विविध कालों और उसकी काव्य कृतियों या काव्य मो पर प्रभाव; भाव और कला पद की सबलता: हिन्दी साहित्य को इन कृतियों की देन- विभिन्न अंडारों शोध की अपेक्षा (१०१०२१- १०२९ । - परिशिष्ट-.: आदिकालीन हिन्दी जैन साहित्य में प्रयुक्त अक्षर, बैंक एवं प्रवियों के चित्र ज्या परिका . .१-१७ ) २ परिशिष्ट- १ : बाविकालीन हिन्दी जैन (प्रकाशित तथा अप्रकाशित) इसलिखित रचनाओं की सूची - (पृ.१५-१६ , 1- परिशिष्ट-: सन्दर्भ अन्य बी.च्या मंडारों की सूची. ( ७-५७)। Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ത്. ഈ രമാലക കകകകകകൾക്ക കൾക്കകം ക Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-प्रवेश हिन्दी साहित्य का बादिकाल स्वयं अपने में एक महत्वपूर्ण विषय रहा है। बाविकाला विवेचन करते समय सम्यक् शोध के अभाव में विद्वानों में इसकी उपलब्ध रममाओं की स्थिति को सदैव ही पदे की इष्टि से देखा है। हिदी चाहित्य के प्रति निबान इतिहासकार स्वर्गीय आचार्य रामचन्द्र पाल ने इस काल का वीरगाथाकाल नामकरण करके उपलब्ध कृतियों को स्थान दिया, पर पुरत पी के सामने सामग्री की उपलब्धि का अभाव, मगो बड़ा कारण रहा। यही नहीं इस काल में मध्यदेश के विभिन्न प्रदेशों में कोई भी प्राचीनतम रचना नहीं मिली, जिसके आधार पर स्थित थोड़ी मुलगी : सामग्री का प्रभाव, बोध की उपेक्षा या अन्य अन्तरंग बहिरंग प्रमानों की अनुपहिति के कारण माविकास का मान पटकाकी होबा गया। विद्वानों की इन कठिनाइयों कारव नागरी इस ओर विविध नहीं हो सकी। विभिन्न प्रस्चियों कारण इस का माल भी मिलि हरा पालन कोरंगी नाम काही प्रतिनिधित्व नही कर सास बहकाल स्वबोधापातों का काकी बना स यों और गति न होने से इस काम की अनेक महत्वपूर्ण लिया मित्राव हो गई। फिर भी इस बात का सम्यक्ष होने पर इसमें अनेकानेक व रत्न समारो को ऐसी विद्वानों की धारणा का धीरे धीरे पोय होता और का विकि यह धारणा परवीं बोगोंक ही प्रमाणित समयोपानी आधार पर हिन्दी साहित्य पादिकाल पर अपने विचार किया नासा । मिन्दी गरिय प्रारम्भिक कालको प्राविका मा यिा कश है। Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह काल ऐसा संगतिकाल है कि जिसमें एक ओर मैस्कृत के प्रतिभाशाली विद्वान' हुए, दूसरी ओर अपच के महान साहित्यकार हुए, तथा एक ओर बौद्ध सिद्ध, जैन, मत और अन्य धर्म प्रवर्तक कवि उत्पन्न हुए। इन कवियों ने प्रगति और परम्परा का महल समन्बय उपस्थित किशा, संस्कृत में परम्पराजन्य अलंकृत पद्धतियों पर काव्य रखना की ज्या प्रा और अपने कृतिकारों ने तत्कालीम प्रालित देव पाषाओं अर्थात जमपदीय विभाषाओं में काव्य प्रभमन विशा। अत: धर्म, संस्कृति, साहित्य, दर्शन और समाज आदि लगभग सभी क्षेत्रों में इस काल में क्रान्ति हुई। यही नहीं उत्तर भारत की लगभग सभी वर्तमान भाषाओं के उदभव, विकास और प्रगति का इतिहास इस काल में सम्बन्धित है। उत्तर अपच, प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी, जूनी, गुजराती, प्राचीन ब्रज, आदि भाषानों के प्राचीन साहित्य की भी सम्पन्नता का सीधा सम्बन्ध इस आदिकाल से ही है। इन सभी दृष्टियों से आदिकाल का विश्लेषण परमावश्यक कोर भाषाओं का मादिकाल से सम्बन्ध भाविक यो एक महत्वपूर्ण घटना हुई वा तर भारत की वर्तमान लोक भाषामों की उत्पत्ति। अपर का स्वर्णकाल वीं से 10वीं पवाबी करता। भवच गायब हो जाने के बाद बोलचाल की भनेक विषाफाओं ने जन्म पागा। अपार जैसी मा की अनेक दाने ई. जिनका का मूला परिवार भाव विभिन्न प्रादेशिक भागों में हमारे सामने है। वो अब काव्य-रचना हो वी वादी तक होती रही परन्तु वीं वादी ही लोक भाकार रख मिन्न होने कमी पापा के इस सपरिवलको ग स्पटमा वकालीन उपलध कृतियों देवा 4 wer । इसी मा उत्तर अपक, कोक भाषा, देशी गोली, जन भाषा, प्राप्य मिलावार्ष, प्राय मास, भट बादि नामों से पुकारी गई और अत्याधुनिक का गुलेरी बीया रानी के विवादों में इसका नामकरण पुरानी हिन्दी पीक विमो बहशों में भी और उपयुक्त। अकोलारिक पास भई और कोक भावानों ने उसका स्थान प्रान या निश्चित मागे पनि समानों Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की विविध उपलब्धिओं के आधार पर यह कहा जा सकता है कि अपशके उत्तरकाल में लोक भाषाओं और विभिन्न देशीय बोलियों में साहित्य सृजन बड़ी क्षेत्री होमा प्रारम्भ हो गया था। लोक भाषाएं साहित्य के क्षेत्र में इतनी शीघ्र क्यों प्रतिष्ठित Tई, उनमें स्ती सरसता और शक्ति इसनी बीघ्र क्यों आ गई उनका साहित्य इतना अधिक लोकप्रिय क्यों मा, उत्तर अपस में हिन्दी तथा अन्य लोक भाषाओं के विकास का प्राचीन स्वरूप में विद्यमान रहा आदि प्रश्न विचारणीय है। विवेच्य युग का नामकरण (अ)- बीरगाथा का आर्य राबन्द्र शुक्ल ने इस काल को कीरगाथा का रखा है तथा इसकी अवधि 1.५ से. तक रक्सी है। अक्ल जी को जिस काल में किन्हीं विशेष प्रवित्ति-मूलक बनामों का प्राइ मिला उसे एक प्रकारे में स्वीकार कर लिया था उसका नामकरण भी रचनाओं की उक्त विशेष प्रवृत्ति के अनुसारी किया। उन्होकि भयो । वि सिी काल में मार म की रचना १०, और . कम से मिलती है विटंग की पुस्तके प्राव उनकी प्रवरना कही जायगी यड्यपि म पुस्तके मिलकर संख्या में है।" दूसरा बापार बों को प्रशिक्षित है। विकास के पीर जिसमाप प्रवृत्ति प्रति यस प्रकार प्रब उसका बाव माने बाग किरो और अनेक प्रकार के निध और साधारण कोटि के भर उबर पर । बार में प्रशिक्षित मी किसी गडकी लोक प्रवृत्ति का परिषदेती है। समाचारों पर बीमा विपापन कर इस कार का नामकरण पौरमाथागत यिा। ..देसिए हिन्दी साहित्य इतिहास भावार्य राम , माया Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिकाल का यह नाम शुक्ल जी ने इसलिए रक्सा है कि इस में ऐसे वीर गाधात्मक ग्रंथों की प्रचुरता मिलती है जो स समय जनता में पर्याप्त रूप से प्रचलित रहे होंगे। उनके अनुसार वीरगाथा काल के प्रसिद्ध ग्रंथों का वर्गीकरण प्रमुखतः दो श्रेणियों में किया जा सकता है.. १- अपश पापाः इस भाषा में लिये प्रमुख ग्रन्थ है: (1) विजयपाल रासो ( मल्लसिंह कृत ० १५५) (हम्मीर रासो (रंग धर कृ . १५७) (8) कीर्तिलता और (कीर्तिपताका (विद्यापति कृत सं० १४०४) २. देशी भाषा: देवी भाषा में आने वाले मध : (५) मान राणे (लपति विजय कृत संont-१०५) (6) बीमादेव रामों (मरपति ना . ) प्रश्वीराज रासो (कदवरदाई - ११५११४) यमन्त्र प्रकार (भट्ट दार . १९१५) (१) बमका वन्द्रिका (माकर कवि १४०) (.) परमाल राणे (मागका मूल मानिक ) ( खरों की पहेलिया (10) Myड (श्रीधर Far ) () विमापति की पवावी ( उपस अन्धोखरों की पोझिया और निड्यापति की पदावली को छोड़कर शेष सभी प्रबों को उन्होंने वीरगावात्मक माना है। बिद्वान बीमलदेव राों को वीर मापारमा मन्त्री स्थान कर गारिक बनाने है। किन्तु स जी में बीरमाथात्मक प्रकृति की प्रदरता और प्रभामा गरब की बीरगाथा का मा है। किन्तु इन रचनाओं का भी वियानोनिनिषिय, डा. सारी प्रसाद द्विवेदी Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ STO हीरालाल जैन, श्री भगरचन्द माहटा, श्री मोतीलाल मेनारिया, तथा स्वामी नरोत्तमदास आदि ने अध्ययन कर कहा है कि इस काल का वीरधाथाकाल नामकरण एकदम निरर्थक प्रतीत होता है। अपने इस निरर्थक नामकरण का अंत्रिक आभास बहुत सम्भव है कि उस समय शुक्ल जी को भी हो गया हो। इस नामकरण के में एक विचारणीय बात यह है कि शुक्ल जी मैं इन वीरवाथात्मक रचनाओं में सर्व प्रथम इमान राम्रो को माना है तथा इसका रचनाकाल सं० १९८० से १२०५ तक माना है, जब यह इस काल का सर्व प्रथम ग्रन्थ है तब इस काल का प्रारम्भ हुमान राम्रों से ही मानना चाहिए। क्ल जी ने वीरगाथा काल का प्रारम्भ सं० २०५० से माना है, अतः १५० वर्ष इस काल की होड़ में घसीट कर लाये जाते हैं वे निरर्थक ही कहे जायेंगे। परन्तु इसके सम्बन्ध में कहकर तो किया जा सकता है कि ब्रिविष्ट प्रवृत्तियों की रचनाओं के ममान में किसी काल को विशिष्ट काल मान लेना ठीक नहीं है अतः सम्भवः शुक्ल जी ने सं० २०५० से लेकर इमान राम्रों तक की रचना के समय को कोई अन्य नाम न देकर उसे वीरगाथा काल के ही अंत कर दिया है। इसी प्रकार का एक प्रश्न विद्यापति के लिए भी विचार है कि उसका रमाकाल = १४६० के लगभग माना गया है और इधर उक्त जी इस काल की समाप्ति सं० १३०५ वि० तक ही कर देते है पैसी स्थिति में विद्यापति को वीरगाथा कालीन afa मानना क्या उचित है? परन्तु सम्भवतः इक् जी की वह मान्यता रही होगी कि विद्यापति मामा के अन्तिम कवि थे। और जी अप की परम्परा की समाप्ति वीरगाथा काल में ही कर देना वाढते रहे होगें। इसके अतिरिक्त यह भी कहा जा सकता है कि हिन्दी साहित्य में भक्ति और शृंगार की चारा के प्रवर्तक हो गए हैं कि ती मीति विकास भक्ति काल और रीतिकाल में हुआ अतः यह भी सम्भव है कि जी ने हिन्दी साहित्य की भक्तिमूलक या गार जन्य चारार्थों का मूल स्त्रोत वीरगाथा काल में विज्ञाने के लिए ही विद्यापति को arenter orata मान लिया हो। जो भी हो, स्थिति इस सम्बन्ध में बहुत स्पष्ट नहीं प्रतीत होती । Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जहां तक शुक्ल जी द्वारा उल्लिखित इन रचनाओं की प्रमाणिकता और प्रवृत्ति का प्रश्न है, विद्वानों ने अध्ययन द्वारा यह सिद्ध कर दिया है इनमें से अधिक प्रमाणिक और मानी हुई प्रवृत्तियों के प्रतिकूल है।' बीसलदेव रासों आद्योपान्त श्रृंगारिक काव्य है इसके श्रृंगारिक वर्णनों में कवि का मन म रमा है। इसकी प्रवृत्aिnt वीरगाथा की नहीं है तथा इसका रचना काल संदिग्ध है। हम्मीर राम्रो में हम्मीर शब्द आपत्ति व सहजनक है क्योंकि वह एक ही राजा के लिए प्रयुक्त न होकर अनेक राजाओं के लिए हुआ है। जयप्रकाश नोटिस मात्र में प्राप्य है। स्वयं क्ल जी ने भी इसका केवल नाम की छूना था। अतः यह कहना कठिन है कि वह हिन्दी में रवी भी गई होगी। यह भी सम्भव है कि इसकी रचना अपड में हुई हों क्योंकि उस युग में माह की सामान्य भाषा अपभ्रंथ ही थी। हो रमम छन्द में अवश्य ही वीरगाथात्मक प्रवृत्तियों है परन्तु इसका और विद्यापति का रचनाकाल तो स्वयं शुक्ल जी ने ही वीरगाथाकाल की समाप्ति के क्रमशः ७९ और ८५ वर्ष बाद का स्वीकार किया है अतः इस दृष्टि से तो ये रचनाएं वीरगाथा काल की है ही नहीं। इमान राम्रों और बीसलदेव रासों के रचनाकाल के सम्बन्ध में श्री मोतीलाल मेमरिया ने पुष्ट प्रमाण प्रस्तुत किए है जिनके आधार पर में रचनाएं क्रमशः १८वीं और १५वीं शताब्दी की सिद्ध हो चुकी है। में तम विद्वानों द्वारा प्रायः सर्वमान्य • वह इन पर अधिक विस्तार में विचार नहीं किया है। इस प्रकार क्स जी द्वारा ९ रचनाओं का उल्लेख तो प्रामाणिक नहीं ठहरता। अब रही बात पृथ्वीराज रावी की। विवान इसे तत्कालीन प्रामाणिक रचना मानने को ही तैयार नहीं है। स्वयं जी ने इसे बाली ठहराया है। डा० राम कुमार वर्मा का कहा है कि १(अ) देखिए- राजस्थानी वर्ष ३ अंक ३ में भी अगरबन्द नाहटा का बीसलदेव रासो या पृथ्वी रा (ग) नागरी प्रवारिची पत्रिका वर्ष ४४ अंक ४ में श्री अमरचन्द नाइटा का देव माणरासी । Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७ "आज तक की सामग्री के बहारे रासो को प्रामाणिक ग्रन्थ कहना इतिहास और साहित्य के बाद की उपेक्षा करना है। डा० हजारी प्रसाद द्विवेदी बन्द को हिन्दी का आदि कवि मानने की जपेक्षा उत्तरकालीन अप का कवि कहना अधिक युक्ति संगत समझते है। यदि हम और सूक्ष्म दृष्टि से इसके अन्तराल में प्रविष्ठ हों तो हम देखेंगे कि राखों की मूल प्रवृति भी वीरता मूलक न होकर श्रृंगार मूलक है। ही प्रेम और वीरता का सफल इसमें है पर श्रंगार भावना के क्रोड़ में वीर भावना पोषित होती है अर्थात् • वीरता नहीं है। वीर भावना गाँव है। युद्ध में भी परन्तु इतना होने पर भी अब पृथ्वीराज राम्रो प्रामाणिक सिद्ध हो चुका है। राम्रो को प्रमाणिक मानने वाले विद्वान मुनिजिन विजय जी, श्री अगरबन्द नाहटा, STO वर वर्मा, डा० हजारी प्रसाद द्विवेदी और डा० माता प्रसाद गुप्त है। श्री दशरथ वर्मा और निजिनविजय जी उसे मूलतः विरचित मानते है। STe दसके कुछ मेशों का अय में स्वामी कर चुके है। इसके अतिरिक्त पुरातन प्रबन्ध संग्रह में उपलब्ध राम्रो के चार छन्द में इसे मूलतः अपभ्रंव में रचित सिद्द करते हैं। श्री अगरचन्द माष्टा और डा० माया प्रसाद गुप्त ने अपने राम्रो सम्बन्धी लेखों से पृथ्वीराज राम्रों की उसकी स्थिति को पर्याप्त का दिया है तथा अब उसकी प्रामाtिear अधिकही जाती है। पर इस प्रामाणिकता की अधिक सार्थकता की भी होगी, जब इसका अधिक में विरचित माना जाय । अन्यथा उसका वर्तमान रूप तो सोवनी बढादी से पूर्व का नहीं कहा। जो भी हो, ST० माता प्रसाद ने राहों के माठ का वैज्ञानिक सम्पादन कर दिया है और विses वर्ग के इसका मूल पाठ जाने पर रासों की प्राथामिकता पर म्य रूप से विवाद किया जा सकेगा। इसी प्रकार अमीर इसरो की पहेलिया भी मूल रूप में उपलब्ध नहीं होती | ae aerefer बीरगाथा काल की सभी रचनाएं या तो परवर्ती में रचित सिद्ध हो गई है अथवा मूलतः जयमंत्र में रचित मानी जाती है। इस प्रकार १- डा० रामकुमार गर्ग का इतिहास | Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ इस प्रकार दोनों ही स्थितियों में हमें उन्हें वीरगाथा काल की रचनाएं कहने में पूर्ण सन्देह होता है। ऐसा लगता है कि आचार्य रामचन्द्र शुक्ल को इस स्थिति का थोड़ा सा अनुमान हो गया था क्योंकि उन्होंने जानी विवशता निम्नांकित शब्दों में प्रकट की है।" इसी सद्विग्य सामग्री को लेकर जो थोड़ा बहुत विचार हो सकता है उसी पर डी सन्तोष करना पड़ता है। डा० हजारी प्रसाद द्विवेदी ने मी वीरगाथा नाम का विरोध करते हुए लिखा है "यह स्पष्ट है कि जिन ग्रन्थों के आधार पर इस काल का नाम वीरगाथा काल रखा गया है उनमें से कुछ नोटिस मात्र से बहुत अधिक महत्वपूर्ण नहीं और कुछ या तो पीछे की रचनाएं है या पहले की रचनाओं के विकृत रूप है। इन पुस्तकों को नवीन मान लिया गया है।" शुक्ल जी की एक दूसरी बड़ी प्रीति यह है कि वे अपभ्रंश और हिन्दी की एक ही समझते हैं। उनके अनुसार अपसंद सा प्राकृताभारा हिन्दी के पड़यों का सबसे पुराना क्य तात्रिक और योगमार्गी बौद्धों की साम्प्रदायिक रचनाओं के भीतर विक्रम की सातवीं शताब्दी के अन्तिम चरण में मिलता है किन्तु मुंज और भोज के समय (सं० २०५० के लगभग) से तो ऐसी अवनं या पुरानी हिन्दी का पूरा प्रचार बुध साहित्य या काव्य रचनावों में भी पाया जाता है। अतः शुक्ल जी के अनुसार हिन्दी साहित्य का आदिकाल सं० २०५० से लेकर से० १३०५ तक अर्थात् महाराजा भोज के समय से लेकर हम्मीरदेव के समय के कुछ पीछे तक माना जासकता है। शुक्ल जी की स्वयं वीर पुम्पयन्स जैसे जैन कवियों की साहित्यिक रचनाओं का पता नहीं था और यदि रहा भी होगा तो इन्हें साहित्यिक नहीं मानते थे। अन्यथा मे हिन्दी साहित्य का प्रारम्भ सातवीं शताब्दी से ही स्वीकार कर लेते पर उनके विवेषण में एक दूसरी यह मिलती है कि वे इस एक अध्याय में अप और हिन्दी को एक मानते है और बागे दो अध्यायों में अपभ्रंथ और देश पाका की रचनाओं का परिचय अम अलग पत्र काल और वीरगाथा काल शीर्षक के अन्तर्गत हिन्दी वाल्व का इतिहास राम चन्द्र क् Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *देते है। साथ ही अपवंश की निश्चित सीमाएं क्या है इसका निधारण भी उन्होंने नहीं किया किन्छ ० ८. से १४० तक की रचनाओं का इसमें परिचय देते है। इसका अर्थ या हुआ कि अपज काल और वीरगाथा काल दोनों साथ साथ एक ही समय में चलते है। वस्तुतः इन असंगतियों का कोई भी समाधान नहीं मिलता। इधर पुक्ल जी ने इस काल की बहुत सी सामग्री को धर्म-निरुपण वाली माम्प्रदायिक सामग्री कहकर हटा दिया पर्व उनकी प्रवृत्ति पर ध्यान ही नहीं दिया है। गिद्ध और नाथ साहित्य की अपेक्षा ही निर्गुष कवियों के प्रति उनकी एकागी धारमानों का कारण बनी। जिस कबीर को उन्होंने निर्गुण परम्परा का प्रवर्तक कवि माना है, वह वस्तुतः उस परंपरा का बीच का कवि है रहस्यवाद के विकास की मूल भावना में सिद्ध नाथों की बाणियों में मिलती है। जैन कवियों की विशाल पाहित्यिक सामग्री उत्तम प्रबंध कायों, पदयात्मा कथानों,सन्धियों आदि को स्वयंभू, धनपाल, पुष्पवात जैसे महाकवियों की रनामों को धार्मिक बनाकर उन्होंने साहित्यिक क्षेत्र के पृथक कर किया है। इस तरह यदि जैन साहित्य व इतर साहित्य को तत्कालीन पात्रदायिकता का साहित्य का कर मिक्स कर दिया गया है, तो फिर पूर के पुष्टिमार्ग पर बलसी मानब का स्थान भी दिएप हो गावगा। अत: यह कहा जा सकता है कि बीरगाथा का नाम मत उपयुक्त नहीं है। वास्तव में क्रूजी उस समय इस वा नहीं की मार कर सकते, उन्हें सामग्री की प्राण नीधी। विशेष रूप से रामस्थान लगपन भी मार दबा सही नापार मा ल जी के लिए अन्य नहीं था। हिन्दी म गर की भूमिका में उन्होंने विश कि उनके सy frदी मानिकीमा बाबी बों की विश बराविधी- वस्तुतः प्रवृत्तियों बाग्री मापार र बन्दोंने इसका एक बधि डावा हा कर दिया. जो स्वय मीक (mil shit) है। स्वयं भागार्य शुक्ल ने उनसे पूर्व प्रकाशित प्राप्त हों में वित्त मा है परन्तु जो भी गे, यह निमाणिक बी पी सहिम उसमें बाल प्रापधाराका चार म दिया। उन्हल्दी नदार की मिका ( विकी ममम समस्त प्राचीन सिगाव या पथ को Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रशस्त किया है। (आ)- चारण कालः आचार्य शुक्ल ने जिसे वीरगाथा काल कहा है ठीक उसी काल को ७० रामकुमार वर्मा ने चारण काल की संज्ञा दी है। ० ७५० से ० १००० तक के काल को डा वा ने संधिकाल कहा है तथा आगे के काल को चारण काल । उनके मतानुसार इस काल के साहित्य की रचना अधिकतर चारणों द्वारा हुई, यद्यपि वर्मा जी ने अपने ग्रंथ की रचना शुक्ल जी के इतिहास के ठीक १० वर्ष बाद की थी और इस १० वर्ष के काल में पर्याप्त मई शोध हो चुकी थी और यह बहुत स्पष्ट है कि वर्मा जी ने अनेक नए तथ्यों और नई उपलब्धियों का समाहार अपने प्रबन्ध में किया भी है। उन्होंने हिन्दी और अपभ्रंश साहित्यों का अलग अलग विश्लेषण किया। डा० वर्मा ने के जैन कवियों की रचना को भी साहित्य में स्थान दिया। अतः जहां तक संधिकाल का प्रश्न है उनकी दृष्टि अप के कवियों का मूल्यांकन करने में अधिक प्रशस्त रही है। इस दृष्टि से डा० राम कुमार वर्मा पहले विद्वान है, जिन्होंने अपच के कवियों को सम्मान दिया। परन्तु जहा तक उनके चारण काल (सं० १०००-१३५०) काप्रश्न है इसके प्रतिपावन में कुछ गतियां मिलती है, वे इस प्रकार है: उन्होंने चारण काल की सीमा ४० १००० से १३५० तक मानी है, परन्तु इस काल के समाने वाली अनेक रचनाओं का समय उन्होंने इस प्रकार दिया है। एंड या पुरुय माविमायकाल (सं० ७०) 3 भुवा (सं० १००० १ (t) (२) (#) १० 3 (४) मोहनलाल विज-इस प्रकार मोहनलाल का ना चाहिए- मत: tere or at समय केक के बाद ही १८वीं शताब्दी है। बीसलदेव रासो: भरपति नान्ह--जो हो, १०७१ इतिहास के अधिक समीप है। यदि रातों की एक प्रति हमें यही सं० देती है और इतिहास देव के समय को भी लगभग यही मानता है तो हमें देव की रचना २०७३ मानने में कोई जाति नहीं होनी चाहिए १- हिन्दी साहित्य का मालोचनात्मक इतिहास: डा० राम कुमार वर्मा- ३० १४४ २० नही ५० १४५ ३. वही पू० ४- वही ० १४७ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५) पथवीराज रासो- इस समय रासोको प्रामाणिक प्रन्ध सिद्ध करने की सामग्री बहुत कम मा आज तक की सामग्री के सहारे रासो का प्रामाणिक प्रथ कहना इतिहास और साहित्य के आदौ की उपेक्षा करना है। (1) पट केदार- जयन्द्र प्रकाश का परिमाण भी अज्ञात है क्योकि वह अभी तक भप्राच्य उसका केवल निर्देश मात्र राठोडारी ख्यातनामक संग्रह प्रन्थ में मिलता है, जिसका लेखक सिंघायन दयालदास नामक कोई बास थामत: भट्ट केवारत जयचंद प्रकाश हिन्दी साहित्य के केवल स्मरण कर लेने की वस्तु है। () मधुकर - जयमयंक- पंस बन्द्रिका - यह मन्ध भी प्राप्त है।' (४) वीर रामायण- ० ५ विक्रम। (१) आह - इसका पाठ अत्यन्त विकृत हो गया है।" (१०) हम्मीर रामो - इस ग्रन्च की एक भी वास्तविक प्रति प्राप्त नहीं है।' (1) विजयपाल रासो- इसकी भाषा अपच शुक्त है। (१२) हम्मीर महाकाव्य- विन सं० १४० के आस पास (a) जैसी रानै पाबूजी रा ० १५९१ के बीच में।' (१४) अचलदास बीती री बानिका - ११५८ (५) सिरन क्मिणी री बेल . . (A) पर सिणगार.. . (0) बनिका राठौर रतन सिंहजी री-०७५" (१८) बोडी नाची री कविता- MIR (११) नीता मारवली सपही -. " (१०) महाराव मांगनी रो - erry (1) धरान मारण गोपीनाथ रोकीयो-2 014 () महाराव नतिजी री कविता..१५" SHELP -बी. बाहित्य का पाठोरमाय मान, ग. रामकुमार वर्मा, पृ. m ११-बही। १२- वही। १-बही। - वही पू. १८ १४.बही। -बही . १०८, 01 ...वही . १८. वही ग्रन्थ बहीन्छ। ... वही . . Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उक्त नामावली में गदि ग्रन्थों का परीक्षण किया जाय तो केवल वीसलदेव रामो को होड़कर और कोई भी रचना वारण काल कीसीमा में नहीं आ पाती। और इसे वे वास्तविक रूप में स्वीकार करते हैं। इार डा. मोतीलाल मेनारिया ने पीसलदेव रासो का रचनाकाल १५४५-६. के आसपास सिद्ध कर दिया है।' ऐसी स्थिति में ऐसा लगने लगता है कि बाल काल का अस्तित्व ही विगूध है। स्वयं बमी जी के इतिहास के नवीनतम संस्कल में इस बार का उल्लेख की नहीं है कि इस काल में कोई प्रमाषिक वारण कृति लिखी गई हो। इसके अतिरिक्त उन्होंने नगरवकाल में १५वीं साब्दी की कलियों तक को स्थान दिया है जबकि शुक्ल जी के अनुसार बादि काल की सीमाएं ० १ तक ही समान हो जाती है अतः वी पी ने इसनी गामे की वादियों में मिलने वाली जिन रचनाओं का उता अपने इतिहास अन्ध में किया है तो धारण काव्य के वर्गत आने वाली कृतियों की परम्परा में नहीं लिया जा सकता है। उनका बादिकाल कीसी माबों में समापन करना कभी संभव नहीं है। (1) सिद्ध-बान- गतः महा पंडित राहुल कृत्यायन में बादिकाल का नामकरण विध-सामान्स-युग किया है। उन्होंने अपशको पुरानी हिन्दी मानो प अपशगग बमी काव्य नों को मिति नरिया और इस काम की टीमा मह .. १.... मामी है। अगर को पुरानी दिी मानो हुए राहुली जिसने 1 कि..भाने पुन रक्या होगा कि इस भाषा मे अपांच गयद इसे भाप माने लगे होने कि कब हो या हिन्दी र म मात्र शेगी। लेकिन TTA पर न जाए, इका सरा नाम ही मामा भी है। इसीलिए कहते है कि इसमें संस्कृत जयोट मही, मास्ट, होट 1, safar संस्कृत पंडितों को पाटि ब रेमोमानि मदों का रूप बदलने बकते मया कप तेला - १. राजस्थानी भाषा और साहित्य: डा. मोतीलाल मेनारिया, १५॥ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपप्रष्ट होना-भय नहीं, पूषन है।' अपज को पुरानी हिन्दी मान देने से अन्यप्रान्तीय भाषाओं के अधिकारों का हनन मेता है। राहुल जी का यह धन एव दृष्टव्य है कि अब म पुराने कवियों की भाषा को हिन्दी कहते है तो इस पर मराठी, हिया, बंगला, मासमी, गोरखा, गुजराती, पंजाबी, गुजराती भाप पापियों को आपत्ति हो सकती है, क्योंकि वे भी हिन्दीवह अपना अधिकार रख सकती है। वस्तुतः यह सिद्ध सामन्त युगीन कवियों की रचनाएं उपर्यंत भारी भाषाओं की सम्मिलित मिपि ।' वास्तव में राहुलजी के इस कथन में जो सबसे बड़ी असंगति लगयी है वह यह कि वे पक ओर तो अपज को भी अन्य भाषाओं की सम्मिलित सम्पत्ति बतलाने 1, और दूसरी ओर उसी अपांच पर शिदी का एलान एअधिपत्य स्वीकार कर उसे पुरानी दिी कर डाली है। -राहुल बी का हिन्दी प्रेम सराहनीय है रिमी हमें बही दूसरी भाषाओं के अधिकारों को ध्यान में रखते हुए जिदी के साहित्य मार को अमुचित स में बनाने का कोष बरन ही करना पड़ेगा या अपश को अपशकहना ही ज्यादा माय मर होगा। ()- आदिकाल ग. वारी प्रसाद शिववेदी में इस का मामल बाविकास किया है। वस्तुतः आदिल नामक स्थिति मत कुम भाती है। क्योंकि इसमें प्रारंग से मिलने वाली लगभग सभी सामग्री का मरमा समाहार या समावेश हो सकता है। प्राचार्य दिवेदीदी चाहियो आदिकाल पाने वाली प्राण सामग्री का विश्लेषण कर या माध्य सामग्री की बोर कस करके भादिकात गरा विशाल बिया है। बालोकों ने दियवेवी की मादिका मतियां देखी है। बालोकों का कहना कि माविका पुकारने 0 n eat पूरी बी। ARE UPA को - दिी का पारा राक गहरयासन हिन्दी कामगार परम्परामारामारी : Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की इसकी सम असंगतियां दरक मेतीं। इस काल पर आधारित सामग्री को ही दिववेदी जी इस काल की नहीं बतलाते और अपने तर्क की पुष्टि के लिए शुक्ल जी का यह उद्धरण देते है कि : "दूसरी बात इस आदिकाल के सम्बन्ध में ध्यान देने की यह है कि इस काल की जो साहित्यिक सामग्री प्राप्त है उसमें कुछ तो असंदिग्ध है और कुछ संदिग्ध । असे दिाध सामग्री जो कुछ प्राप्त है उसकी भाषा अपार या प्राणवाभास हिन्दी है।" इस तरह आचार्य दिववेदी का अपग को पुरानी हिन्दी कहने का विचार पूर्ण भाषा-शास्त्रीय तथा वैज्ञानिक नहीं बचता। अपशको हिन्दी मानने का विरोध वे करते है कि- • अपच को पुरानी हिन्दी क्सने का विचार मा स्त्रीय और वैज्ञानिक नहीं है। भाषा शास्त्र के अर्थ में जिसे हम हिन्दी कहते है वह इस साहित्यिक अब सीधे विकषित नहीं हुई है। बप को अब कोई भी पुरानी हिन्दी नहीं कहता।' दूसरी ओर भावार्य द्विवेदी जैन इनियों एवं सिधों के अपांच साहित्य के मआधार पर हिन्दी के मादिकाल का भय निर्माण करना चाहते है और वे इस बात की सामग्री को दो वर्गों विभाजित करते है। १. एक बा, यो साहित्यिक अप में लिक्षित है। १- इसरी बा, यो लोक भाषा या मरो मामे की हुई भाग पर दुसरे वर्ग की रमानों मूल रूप मा परिवति और वियो गर है। इन मधि ग्रन्थ का । इस प्रकार दो रास्ते सामने बात.. (0 गांव को प्राचीन हिन्दी मानकर मार रममावों बाधार परमाविकात मावि मनाए । (" बाबा मालिक हो या साहित्यिक से दी पिम्म घोषित करने की रमाप्रापार पर हिन्दी भाविकास को बनाए रखने ग विवार । म पाली राज स्वीकार हो गयी 'स्वीकार करखा मा बो भी सादी १० वी वाइवीाि गया है। राधी Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी इस तथ्य का समर्थन करते हैं। १ १५ परन्तु स्वयं विवेदजी ने अपने उक्त विचारों का परिहार अपने नए प्रवचन में कर दिया है। अतः इस तथ्य में अब अधिक असंगति की गुंजा स नहीं रह जाती। फिर भी डा० हजारी प्रसाद द्विववेदी जी ने आदिकाल नामकरण से अपभ्रंश और हिन्दी के प्राचीनतम साहित्य की संभाव्य स्थिति का समावेश किया है और प्रारम्भिक साहित्य को आदिकाल में स्थानदेकर उसकी गुत्थियों को बहुत कुछ सुलभा दिया है। उन्होंने इसका नाम आदिकाल के अलावा भक्ति युग तक मध्यकाल भी दिया है। जिसमें वे से० १३०० से ० १७०० तक के साहित्य का समाहार कर लेते हैं। वास्तव में आदिकाल की सामग्री मरक्षित क्यों रह गई उसकी कहानी बतलाते हुए डा० हजारीप्रसाद जी बिवेदी ने विस्तार से लिखा है कि चौदहवीं शताब्दी से पूर्व जितनी भीप्रामाणिक रचनाएं मिलती है, वे सब साहितिक अपभ्रंश की है। लोक भाषा या हिन्दी भाषी प्रदेश में इस युग की एक भी रचना क्यों नहीं उपलब्ध होती? इसके उत्तर में द्विवेदी जी ने किला है कि "प्राकृत प्रसंग यह है कि गाडबार राजा कुरु में अपने को इस प्रदेश की जनता से भिन्न और विशिष्ट बने रहने की प्रवृत्ति के कारण देवी माया और उसके साहित्य को नहीं दे सके और यही कारण है कि जहां तक उनका राज्यया वही तक कोई देशी भाषा का साहित्य सुरक्षित नहीं रह सका ।-- दामोदर भट्ट के उक्ति व्यक्ति प्रकरण की वर्षा प्रथम व्याख्यान में की जा चुकी है। ये प्रविव माहवार राजा गोविन्द के बा पंडित थे। ऐसा अनुमान किया गया है कियह पुस्तक राजकुमारों को काशी- काम्यकुज की भाषा सिखाने के उद्देश्य से किसी गई थी। यही से इस वंड में देवी भाषा की जर ने की प्रवृत्ति आई थी। आदिकालीन हिन्दी साहित्य के अरवित रह जाये की यही कहानी है। परन्तु डा० हजारी प्रसाद जी ने गोविन्द्र को देशी भाषाओं का दाता बताया है क्योंकि इसके सभी पंडित दामोदर भट्ट ने राजकुमारों को देवी १- हिन्दी काव्य है मार परम्परा और महाकवि बिहारीः डा० ि (a) परिविष्ट, प्रथम । १- देवि-हिन्दी शायार्यमिवेदी वितीय प्रथम । Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा सिमानेके लिए उक्ति व्यक्ति प्रकरण की रचना की। गोविन्दन्द्रका शासन काल सन् १९१४-११५४ ६. था। : गहड़वार नरेशे की देशी भाषामों के प्रति उपेक्षा मेवत १०१. ई. मे ११५४. तक अर्थात् ४ वर्ष तक क रही। पर यह आश्चर्यकारी घटना लाती है कि उपेक्षा के कारण दसवीं से १४वीं वादियों तक सारा साहित्य नष्ट हो गया। फिर यह भी तो सम्भव है कि शासक वर्ग ने की नये साहित्य सृजम के प्रति उपेक्षा की हो, परन्तु रचे गए साहित्य का में नष्ट हो जामा अस्वाभाविक सा प्रतीत होता है। दिववेदी जी की यह धारणा भी सम्भवतः पाच शोध की अपेक्षा रखती है कि इन गार बताविकों में मध्यदेश में रचित कुछ भी साहित्य नहीं मिला। उक्ति व्यक्ति प्रकरण प्राकृत पैगलन में आये हुए छन्दों की रचना का तो स्वां दिववेदी, ने ही उल्ला दिया है। इसके अतिरिक्त और भी कवि इस युग में । पर उनकी भाषा देशी न होकर अपज की है। इसके कारण भी स्पष्ट है । उस समय देशी या हिन्दी का विकास ही नहीं हुना था . उसमें साहित्य रचना का प्रश्न ही नहीं उठता। उस युग की लोक भाषा का प्रमाण उक्ति व्यक्ति प्रकरण है। जिसकी भाषा अपच है। 6T• विवेदी ने यह स्वीकार किया है कि- वस्तुतः १४वीं बताब्दी के पहले मी पापा का प हिन्दी भाषी प्रदेशों में क्या और कैसा था, इसका निर्णय करने योग्य माहित्यमान उपाय नहीं हो रहा है। अधिक प्रामाणिक प्राचीन इस्लामिति प्रय और विकाता माविही उस भाषा परिचय मिल कता है। माय इसका ऐसा साहित्य उपलब्ध नहीं है बो का शिलालेख और न ( उति व्यक्ति प्रकरम) मिल जाते है। बताते है कि यार मय की और बोसमात की भाषा में बत्न मदों ग प्रबार बढ़ने कमा पा पर इस में ही प्राधान्य था।' माटोको भान है कि दसवीं बाबी से बौदावीं पताब्दी तक रचित्र भांश की शाकि प्रामाविमा, विभिन्न मपक शिला और हिन्दी की कमी प्रामाणिक रचना भाव बही सिद्ध करता है कि जिस हिन्दी का -हिन्दी गाय मागित- बाबा मारी प्रसाद दिवेदी, हिमतीय प्रबन। Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आतिकाल कहने का लोग कर रहे हैं वह वन्ततः अपभ्रंश का प्रौढकाल है।आचार्य हजारी प्रसाद जी हिन्दी की जिन अज्ञात नामारचनाओं के बोजने की चिन्ता में उलो हुए है वस्तुतः ये कमी निर्मित हुई ही नहीं। परन्तु वास्तव में दिववेदी जी ने उपलब्ध साहित्यका जितना विश्लेषण क्यिा है वह बहुत वैज्ञानिक और पर्याप्त सुलभा हुआ है। मालोकों की इन प्रातियों का निराकरण प्रस्तुत ग्रन्थ की उपलब्धिओं और कार्य दिववेदी जी केन्दिी साहित्य मन्न्ध के नवीनतम संस्करण में प्रकाशित उनके मुलझे हुए विचारों से हो जाता है। (3)- उत्तर अपज काल, आविर्भाव काल अथवा प्रारंभिक काल वस्तुत: उक्त समी तकों का अध्ययन करने पर इस निष्कर्ष पर पहुंचते है कि उक्त मामों में मादिकाल का सवागीण स्वच्य प्रस्तुत करने वाला और अपर तथा देशी पाबानों के सभी साहित्य का समापन करने वाला कोई नाम नहींप्राप्त होता। वास्तव में आचार्य पुल जी के अनुसार मम्मों की संख्या और उनकी मुख्यप्रवृत्तियों को ही भार मान कर नामकरण मिया गाय, तो आदिकाल की उपलमथ नवीन सामग्री के आधार पर यह कहनाई हो सकती है। ___ हा प्रयों की सख्या का प्रण दिी जैन साहित्य की रचनाएं मैकड़ों की संख्या में उपलब्ध होती और प्रवृतियां और ग्रन्धों की प्रविधियों को देखकर मासिाल का मामारक बना बहुत ही सब है। आज वाचार्य राम चन्द्र इक्ल होते हो नादिकाल का नामकरण यावित जैन-काल या जैन-अम कर सकते थे, परम्तु इसनी विशाल यादी जैन रचना प्राप्त होने पर भी सिधों, माओं, जेनेवर कवियों एवं क्रय, अवधी बा मावी की रसनानों का सम्यक धूल्यांकन होना परमावण्या दृष्टि से जैन युग आदि जैन काल माम मादानिकी होगपरन्तु क्योंकि अधिकार बनाएं देही भाषा की ही मिलती है और दीपावागी रा नाम उस्तर पर है : आविकासका मामसरन उत्तर-अप-TE कर सकते है। क्योंकि इसमें अभय उत्तरवर्ती स्वम का प्रतिनिधित्व करने वाली सियों, मानों अवधी, अब, मैथिली की, प्राचीन राजस्थानी गीर पूनी बराबी मिशी मी मानों T Twr लाख Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किया जासकता है। नामकरण की कठिनाई को और अधिक सरलता देने के लिए आदिकाल का नामकरण- आविर्भाव काल- अथवा प्रारम्भिक काल - मी क्यिा जा सकता है। परन्तु - आविर्भाव काल- और प्रारम्भिक काल आदिति के ही पर्याय को जायेंगे। अतः उसमें आविषाव काल और प्रारम्भिक काल आदि नामों का सरलता से बाहर किया जा सकता है। आदिकाल की सीमाएं: उत्तर अपर की रचनामों की उपलब्धियों के आधार पर आदिकाल की सीमानों का निधारण किया जा सकता है। अप्रभंश अपना निर्मोक १०वीं शताब्दी से ही बदलना प्रारम्भ कर देती है उसमें देशी भाषामों को गतिशील बनाने के तत्व परिलक्षित होते है। साथ ही देशी भाषानों की लोकप्रियता औरउसमें साहित्य की वर्जना रीता से प्रारम्भ होने लगती है। इस प्रकार के उत्तर काल में माने वाली देवी माकानी की सबसे प्राचीन रचनाओं का वीं ताब्दी सही मिलना प्रारम्प हो जाता है। इसी प्रकार वस्तुतः विवध भक्ति कालीन रचनाएं उपलब्ध होती है वहीं से भक्तिकात का प्रारम्भ माना जा सकता है। कबीर के समय के सम्बन्ध में दो स्थिति अभी भी बिगत पानी पानी परन्तु उनके शिष्य धर्मदास का समय वो ०१५५७ मिश्विन और क्योंकि मीर धर्मदास और पीर से ही पति पदोलन का प्रारम्भ मामा नाग । धर्मदास वर्ष पूर्व से ही परिखकाल कीमतियों का प्रारम्भ माना जा सका है। शक में भी कमीर को ही परिमाल का प्रारम्भिक कवि मा मामा है वास्तव में आदिकाल की सीमानों को भक्तिकाल से जोड़ने वाले प्रमुख कवि वीर दी प्रस्तुत प्रबंध में माविकाल की बीमा..... .. मानी गई है। यो सामान्यता पक्ति की प्रवृतियों का पोरने वाली कृतियों के बीज बो उत्तर अपार की इन रनामों की मिला क्यों कि वैनियों और सिइयो मादिगम्य अधिकार बाध्यात्म भावना और भनिय प्रबो मन्त्रिक पारी उन ऋषियों को पतिका में मिलने वाली माया विकास Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महीं कहा जा सकता। आदिकाल में मिलने वाले धारण काव्यों और वीर पूरा भूलक गीतों के सम्बन्ध में विश्वानों द्वारा पर्याप्त प्रकाश डाला जा चुकाहै। अतः उनके सम्बन्ध में किसी भी संचय को स्थान देना रोक नहीं है। इसके अतिरिक्त उत्तर अपश से उद्भूत उन सभी देवी पापाओं की रचना का विश्लेषण इस काल के *तर्गत किया गया है जिनके प्रवृत्तिमूलक तत्व मान है और जो आदिकालीन प्रवृत्तियों का प्रतिनिधित्व करती है। अत: आदिकाल में पटाक्षेप की सूचक और भक्तिकाल के प्रारम्भ की प्रतीक विभाजन रेखा ५वीं शताब्दी के उत्तराईव से ही सरलता से गींनी जा सकती है। साथ ही क्यों कि वीं शताब्दी से पुरानी हिन्दी के मों को प्रस्तुत करने वाली किसी भी प्रदेश की देश भाषा पलिसी अश्यावधि कोई कानात्मक तथा कलात्मक रचना नहीं उपलब्ध हुई है, अतः देशी भाषा के सम्पन्न भविष्य को सूचित करने वाली उत्तर अपात्र या पुरानी हिन्दी का प्रारंभ 1वीं शतादी से माना जा सकता है। हिन्दी से तात्पर्य : वर्तमान भारतीय आर्य भाषामों में हिन्दी सबसे प्रमुख भाषा है। सामान्यत: हिदीवात्पर्य मध्यदेश की पाया है। मध्य क्ष वास्तव में अनेक छोटे छोटे मन पदों में विभक्त र म मन पदों का व्यक्तित्व हिन्दी की प्रधान कोलियों के म देशा जामा हिन्दी को बमको लिए मध्य देव न बन • पयों को समझना भी भाव है दी भाग भूल गगन पर गदि बिचार दिया गाय को की गोली की इसका प्रतिनिकिकर दी है परन्तु ऐसा करना हिन्दी लिया है। वासराव दी अनेक प्रादेशिक एवं देशी विभाषाओं बा बोलियोटा यो दिी की अनेक बोलिया प्रचलित श्री रमका अध्यन भाया है। इस मोतियों के अतिरिक्ष में प्राचीन विशेषताएं जीवन के प्रत्येक देश में देशी वा सन्नी है। मध्य देश के जिन प्रदेशों का समोदी की अनेक गोलियों का उपयोग होगाथा धान जनपद.. Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. पंचाल ३- शूरसेन ४- कोसल ५- काशी ६- विदेह ७- मगध ८- अंग ९- दक्षिण कोसल १०. वत्स ११- वैदि १२- अवंती १३- मत्स्य २० (कन्नौज) (आज) (अवधी) (भोजपुरी) (मैथिली) (मगही) (एल्सी सगड़ी) (बोली) (जुबेली) (मालवी) (जयपुरी) बहुत सम्भव है कि कुछ प्राचीन जनपद और हों परन्तु उनका उल्लेख ही न मिलता हो साथ ही इन प्राचीन जनपदों में कुछ नाम संविथ भी हों। जब इन जनपदों में हिन्दी के रूप में जो साहित्यिक भाषा मिलती है वह बड़ी बोली है। क्षेत्र सब जनपदीय विमाकार्य अन हिन्दी की सहायक बोलियां जान रह गई है। बोली के पीछे कुछ सांस्कृतिक और ऐतिहासिक कारण उसका इतिहास बनाते चलते है। जी तक हिन्दी का प्रश्न है वह फारसी द क्योंकि संस्कृत में - ध्वनि कारवी में हो जाती है। इसी तरह हिन्द, हिन्दी, और हिन्दू तीनों व विदेशियों की देन है प्राचीन समय में हिन्दी से तत्पर्य मध्यदेश की इन्हीं arette feerera है है किया जाता था, पर कालान्तर में बड़ी बोली ही हिन्दी का किस्म बन गई है। की सीमाएं ****** हिन्दी माया का प्रयोग यो दो भारतीय भाव पापा की किसी Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा के लिए किया जासकता है परन्तु जहा तक हिन्दी की भौगोलिक सीमाओं का प्रश्न है, आजकल यह भाषा प्रमुखतः मध्यदेश में ही अधिकतर प्रयुक्त होती है। मोटे रुप में न्दिी की भौगोलिक सीमाएं इस प्रकार है. उत्तर में विमला नेपाल और पहाड़ी प्रवेश, दक्षित में रायपुर, पूर्व में भागलपुर और पश्चिम में जैसलमेर को लिया जाता है। इस पूरे भू भाग में प्रमुख भाषा हिन्दी ही है। इन विपिन्न प्रदेशों में अनेक विभाषाएं भी है। ये विभाकर हिन्दी की उपभामापं है। हिन्दी भाषी करोड़ों की म संख्या में है। वास्तव में हिन्दी का परिसर बड़ा विशाल है इसके पास भनेक बोलियां और हिन्दी की उपभाषाएं जिनसे इसके साहित्य ने पर्याप्त सम्पन्नता प्राप्त की है। हिन्दी शब्द का प्रयोग जनतामें इसी भाषा के अर्थ में किया जाता है। किन्तु साथ ही इस पूमि माग की - ग्रामीण बोलियों- जैसे भाखाड़ी ब्रज, छत्तीसगढ़ी, मैथिली आदि को तथा प्राचीन हिंगला दबी, ब्रज, अवधी तथा मैथिली आदि साहित्यिक पायाओं को भी हिन्दी माका केही अन्तर्गत माना जाता है। डा. धीरेन्द्र वर्मा ने हिन्दी भाषा की इन मौगोलिक सीमाओं और हिन्दी की उपालियों का अत्यन्त वैज्ञानिक परिचय दिया है। उनोंने हिन्दी की प्रामीण गोलिया, उई हिन्दुस्तानी तथा अन्य विभागानों बड़ी बोली, बागा, ब्रजभाषा, कन्नौजी, दिली, अवधी, बती, छत्तीसगढ़, भोजपुरी, पिती मगही राजस्थानी, मारवाड़ी वपुरी, मेवाती, मालवी पहाड़ी विभाषामोग हिन्दी मे शनिष्ट सम्पर्क किया। वस्तुतः इन बर्वमान भाषाओं की उत्पत्ति के मूल में अपज माना है। ग. धीरेन्द्र वर्मा ने औरसेनी ब ल्दिी , राजस्थानी, गुजराती बीर पहाड़ी पापा का सच बताया है। इनमें से गुजराती राजस्थानी तथा पहाड़ी भाषाओं का पन्य विषया औरनी नागर अपच कम। किारी, बंगला, माधानी, और रमिया का सम्बन्ध मागथ अपच है। पूर्वी हिन्दी का अधमागधी अपका पराग का पारामी अपने सम्बन्ध है। अब बसमान पश्चिमोत्तरी पाषाओं का पू रा गया। भारत के इस विमाम रिमा गई माहिरिकामहीं मिला निधी शिम यारो को अमर का बारा Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ अबश्य है। लहंदा के लिए एक कैकय अपाश की कल्पना की जा सकती है। यह प्राच अपव से मिलती जुलती रही होगी। पंजाबी का सम्बन्ध भी कैकय अपश से ही माना जाता है किन्तु बाद का इस पर औरसेनी का प्रभाव बहुत पड़ा है। पहाड़ी भाषाओं के लिए बस अपक्ष की कल्पना की गई है। किन्तु बाब को ये राजस्थानी से बहुत प्रभावित हो गई। इस प्रकार इन उपविभाषाओं और अमाज के उत्तरकालीन स्वख्यों से हिन्दी की प्रवीन और अवाचीन सीमाएं निर्धारित की जाती है। जहां तक मध्यदेश की सीमाओं का प्रश्न है, दूसरे स में वे हिन्दी की ही सीमाएं है। भाषा सत्य की दृष्टि से डा. प्रियर्सन और सुनी तिमार बटी ने भी आधुनिक आर्य भाषाओं के वर्गीकरण प्रस्तुत किए है। डा. प्रियसन ने पूर्वी हिन्दी और पश्चिमी हिन्दी के वर्गत हिन्दी का विभाजन किया है और पंजारी गुजराती,नीली,मानदेशी, राजस्थानी और पश्चिमी हिन्दी को एक वर्ग में रखा है। इसी बरा बटी महोदय ने भी गुजराती को प्रवीमा अन्तर्गत, और मध्यदेशीय के अन्तर्गत राजस्थानी, परिवमी हिन्दी, पूर्वी हिन्दी, विद्यारी और पहाड़ी पापों को स्थान दिया है। वस्तुतः प्रादेशिक विपाकाओं और हिन्दी की बोलियों को परे रखकर हिन्दी भाषा की बीमाएं निधारित की गायें, भी हिन्दी साहित्यिक इन्टि अधिक मगध हो सकती है। हावीरेन्द्र वर्मा ने मध्यदेश की सीमानों में बनी गुजराती को नहीं लिया है परन्तु गुजराब पर राजस्थान का अंग रहा और ली बाबी पूर्व गुजरात और राजस्थान में कही भाषा मोती बापी सी। माय की भाभी राजस्थान और गुजरात में कोको बन्द एक ही प्रकार है। अब इस इन्टि हिन्दी की बीमा निर्धारित की गाय को दी साहित्य के आदिकाल का शासिनि पाना मागेचा बना हिन्दी भाषा की सीमाएं निधारित करने लिए अध्यक्ष प्राचीन जनपदों की विभाषाओं का समावेश विहिबीबा तिकी गाय Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३ तो उत्तर अपने काल सं० १००० से ही हिन्दी का उदूभव स्वीकार करना होगा साथ ही संक्रातिकाल की रचनाएं भी हिन्दी के अन्तर्गत ही की जाएगी। सं० १००० से पूर्व की ठोस कोई साहित्यिक कृति उपलब्ध नहीं होती । वस्तुतः हिन्दी की ऐतिहासिक परम्पराएं निर्धारित करने के लिए हिन्दी की प्रादेशिक भाषाओं का मूल्याकन परम आवश्यक प्रतीत होता है। पुरानी हिन्दी की इन विभाषाओं में हिन्दी के प्रमुख रूप से सम्पन्न बनाने वाली विभाषाओं में प्रमुख है- प्राचीन राजस्थानी, जूनी गुजराती, बड़ी बोली मालवी, ब्रज और अवधी । ये सब विभाषाएं अपन से ही उद्भूत हुई है पर BT० धीरेन्द्र वर्मा का कहना है-" शौरसेनी आदि अन्य पक्षों तथा प्राकृतों के सम्बन्ध में भी मेरी यही कल्पना है बौरसेनी प्राकृत तथा अप से आधुनिक पंजाबी, राजस्थानी, गुजराती तथा पश्चिमी हिन्दी निकली हो, यह समझ में नहीं माया चौरसेनी प्राकृत तथा अपभ्रंश रसेन प्रदेश अर्थात् आजकल के ज प्रदेश की उस समय बोलियों के आधार पर बनी हुई साहित्यिक भाषा रही होंगी। साथ ही उस काल में अन्य प्रदेशों में भी आजकल की भाषाओं तथा बोलियों के पूर्व रूप प्रचलित रहे होंगे। जिनका प्रयोग साहित्य में न होने के कारण उनके अवशेष भन हमें नहीं मिल सकते। आजकल भी ठीक ऐसी ही परिस्थिति | आज बीसवीं सदी ईसवी में भागलपुर तक समस्त गंगा की घाटी में केवल एक साहित्यिक भाषा हिंदी है जिसका मूलाधार मेरठ बिजनौर प्रदेश की बड़ी बोली है किंतु साथ ही मारवाड़ी, ब्रज भाषा अवधी, भोजपुरी बुन्देली मादि अनेक बोलियां अपने अपने प्रदेश में मौजूद है। साहित्य में प्रयोग न होने के कारण बीसवीं सदी की इम अनेक बोलियों के नमूने भविष्य में नहीं मिल सकें। केवल बड़ी बोली हिन्दी के नमूने ही जीवित रह सकेंगे। किन्तु इस कारण पांच सौ वर्ष बाद यह कामा कही उपयुक्त होगा कि क्या बादी में गंगा की घाटी में पाई जाने बाली उमर मोठियां वही मोती हिन्दी से निकली है। उस समय उत्तर भारत की समस्त मकानों में बड़ी बोली हिन्दी गंगा की घाटी की के निकट रही होगी, किन्तु यह तो दूसरी बात हुई। ' mega: इससे स्पष्ट होता है कि दिल्ली की भी सेनिक्ली सिरहिन्दीका का भाग)पाद-टिप्पणी न का Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ है। अतः हिन्दी की देरी पाकाओं में प्राचीन राजस्थानी, जूनी गुजराती, मालवी तथा ब्रज, अवधी आदि को स्थान दिया है और इसका ऐतिहासिक दृष्टि मे महत्व स्पष्ट है कि अपग ग्यों ही साहित्यिक बंधनों में कस गई, पुरानी हिन्दी इन विभिन्न देशी भाषाओं के रूप में उझुक हुई। इस दृष्टि से सं० १००० से ही हिन्दी काप्रारम्भ मानना चाहिए। यो विभिन्न विद्वान हिन्दी के उदभव के सम्बन्ध में वीं वीं शताब्दी ही बतलाते है। परन्तु इन कृतियों और देशी भाषा की इन रचनाओं के आधार पर यह सरलता से कहा जा सकता है।कि हिन्दी की उत्पत्ति 1- (अ) सुनीति कुमार चटर्जी- यह मालूम नहीं पड़ता कि यह हिन्दी ठीक ठीक कौन सी बोलीधी पर बाब सम्भबकि यह ब्रजभाषा या पश्चकालीन हिन्दुस्तानी के सदश्य में होकर बारहवीं सदी में प्रचलित सर्वसाधारणकी बाहित्यिक अपरही रही हो, क्योंकि वीं वीं सदी ईसवीं तक हमें हिन्दी या न्दुिस्तानी के दर्षन नहीं होते। भारतीय आर्यपाषा और हिन्दी-प्रथम संस्करण, पृ.१०TY. १७८-१001 (क) श्री राहुल 'साल्यान- हम अब पुराने कवियों की भाषा को हिन्दी कहो है, तो इस पर मराठी, उड़िया,मंगला, आगामी गोरखा, पंजाबी, गुजराती, भाषा विभाषियों को आपत्ति हो सकती है। उनमें भी उसे अपना कहने का उतना ही अधिकार है जितना हिन्दी भाषा भाषियों को। बस्तर में सारी आधनिक भाषाएं बारहवीं तेरहवीं शादी में अपना अलग होती बीस पड़ी। हिन्दी काव्य पारा. - (किताब महल) । (8) ना.जारी प्रसाद दिववेदी-हेमचन्द्राचार्य नेवी प्रकार की अपयशपायानों की बाकी है.दुसरी बेबी की भाषाको हेमचन्द्र नेमाम्ब कहा है।वस्ततः बड़ी पाका मार्ग बनकर बामिक देशी भाषायों के रूप में विनिती हिन्दी साहित्य .. (ब) श्रीरमा हरी-पुरानी अपना और प्रा मित्री और पिकी रानी हिन्दी साविककी मावों में बारम्बी अपनों की प्रधानबासी और फिर बा पुरानी हिन्दी में परिमित कोही पुरानी दी, मा eart, totr... ..। (1) ET. उदय नाराबविवारी-इस प्रकार चन्द्रहवीं बटी बक भारतीय आर्य भाषा आधुनिक काळ पदार्पण कर की पी और बाबा हेमचन्द्र के पश्चात रहवीं तो प्रारम्भबानिक भारतीय मार्य भाषाओं के अध्यक्ष्य के सपीसीपूर्वमकाकाल कान्तिकाल था, जिसमें भारतीय आर्व पापापीरे रेवकी स्थिति को छोड़कर आधुनिक काल की विमानसोही बाही थी। पीपा का रहसव और विकास-भारती महार,इलाहाबाद-१९५६ () डाः राप मार वर्मा- अपच के जड़ हो जाने की अवस्था का ठीक समय नितिनही किया जासका अनुमानतः यह समय .....मारका है। अनेक स्थानोबोके जाने वाले पांच अनेक प्रकार की पापायों में परिवार होमप्रागदार बाबड़ निधीबागका बाबासागरबा औरती अपारदी बरामी.राजस्थानी और बाबीको विका . मागी रोगका. मिहारी.बाताबी.और मानी पूवी दोबाराती बिमा। Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५ निश्चित रूप से सं० १००० के लगभग हुई इस वक्ष्य की पुष्टि में डा० धीरेन्द्र वर्मा का यह मत यही दूधख किया जा सकता है। "किसी भाषा के साहित्य में व्यवड़त होने के योग्य बनने में कुछ समय लगता है। इस बात को ध्यान में रखते हुए ह कहना अनुचित न होगा कि मध्यकालीन भारतीय आर्य-मावाओं के अन्तिम रूप अप से तृतीय काल की आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं का आविर्भाव दसवीं शताब्दी ईसवी के लगभग हुआ होगा। भारत की राजनीतिक उथल पुथल में इसी समय एक स्मरणीय घटना हुई थी । १००० ई० के लगभग ही महमूद गजनवी ने भारत पर प्रथम आक्रमण किया था। इन आधुनिक भारतीय भाषाओं में हमारी हिन्दी भाषा भी सम्मिलित है, अतः उसका जन्मकाल भी दसवीं शताब्दी ईसवी के लगभग मानना होगा" । अतः यह स्पष्ट हो जाता है कि ऐतिहासिक दृष्टि से हिन्दी भाषा की सीमाएं ११वीं शताब्दी से ही प्रारम्भ हो जाती है। यो अर्थमंत्र के उत्तर स्वरूप में शौरसेनी अपभ्रंत्र तथा नागर अयमेव के पुरानी हिन्दी के अन्तर्गत आने वाली देवी ferrera विशेष रूप से प्राचीन राजस्थानी, ब्रज, अवधी और जूनी गुजराती आदि को जन्म देने में बड़ा योग दिया है। अत: ऐतिहासिक दृष्टि से इन देवी मावाओं को पुरानी हिन्दी में स्थान देना समीचीन होगा। दूसरे शब्दों में यह स्पष्ट कहा जा सकता है कि पुरानी हिन्दी की इन वादिकालीन रचनाओं में प्राचीन राजस्थानी पूनी गुजराती, ब्रज मालवी आदि विभाषाओं की रचनाओं का विश्लेन किया जाना चाहिए और इस विकास की सभी रक्तावों को हिन्दी र्गत किया जाना अत्यनिवार्य है के हमारा उदेश्य यह केवल हिन्दी के विकास से हैव से किस प्रकार हिन्दी का सूत्रपात हुआ, यही हमें देखना है। मेद से तो नागर या शौरसेनी अ बने मकानों में रिट हुई किन्तु काव्य अथवा रीति वेद से वह दो गायों में विभाजित हुई पहली का नाम डिंगल है और दूसरी का पिगंल । डिंगल राजस्थान की साहित्यिक भावा का नाम पड़ा, और पिंगल प्रदेश की सारिक माया का नाम। वहीं से हमारी हिन्दी की उत्पत्ति होती है।हिन्दी का आलोचनात्मक इतिहास- २०४३-४४। १- हिन्दी भाषा का इतिहास- डा० धीरेन्द्र वर्मा पृ० ११ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जो भी हो, अपव और हिन्दी की इन जनपदीय रचनाओं के बीच विभाजन रेला प्राचीन राजस्थानी, जूनी गुजराती मा ब्रज की आदिकाल की जैन अजैन कृतियों दुवारा सरलता से सींची जा सकती है। अतः प्रस्तुत प्रबन्ध में इन्हीं रचनाओं को आधार मानकर हिन्दी के उदभव सूचक साहित्य पर प्रकाश डाला गया है। । आदिकाल सम्बन्धी अब तक हुए कार्य का संक्षिप्त परिचय ।। - आदिकाल पर अनेक विद्वानों ने प्रकाश डाला है। इस विद्वानों इवारा लिसी आदिकाल सम्बन्धी जितनी भी सामग्री इस समय उपलब्ध है उसे सर्वथा पूर्ण नहीं कहा जा सकता क्यों कि शोध विज्ञान के सिद्धान्तों की तरह स्थिर नहीं होती उसके मायाम बदलते रहते है। फिर भी भयावधि, आदिकाल सम्बन्धी जो भी प्रकाशित सहायक प्रस्थ मिलते है इनका विश्लेषणात्मक परिचय दिया जा सकता है। इनमें से कुछ प्रन्यो आदिकाल सम्बन्धी हिन्दी जैन काव्यों के पास प्रकाशित किए गए। और कु बालोचनात्मक विचारों में परिपूर्ण है। इनके द्वारा आदिकाल की ही स्थिति का कितना मूल्यांकन हो सकता है वह कहना तो कठिन है परन्तु इनमें कुछ मसंगतियों और प्रभावों को एप भी अन्य प्राधिकार सम्बन्धी महत्वपूर्ण सामग्री हामी अवश्य को पायगे। इनमें से प्र ग्रन्थों का परिचय इस प्रकार :(१) प्राचीन गुर्जर काम्ब संग्रह यहरचना पुरानी हिन्दी की है। इसको स्वर्गीय सीधी लाल ने सम्यादित कर प्रकाशित किया था। बपि श्री लाल ने इसमें सम्पादित और संकलित पाठों को गुजराती का मा परन्तु बास्त बमा पुरानी हिन्दी या प्राचीन राजस्थानी बा बूमी गुणरावी की है। म न को कवि ने पक्ष्य संग्रह, गद्य संग्रह या बस पल्टिो रिमादिकाल की प्रमुख प्रमुख १५ पदय रचनामों • गहब रखमानी था रबमानों पर प्रकार ढाता है जिनमें शिलालेखपी सम्मिलित है। बना पाय मात्वपूर्ण है। इनमें से अधिकार रखमाओं का विस्तृत - .. प्राचीन पुर्जर काय हा गाना मोरिण्टा . . १९. Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७ साहित्यिक विवेचन प्रस्तुत ग्रन्थ में किया गया है। विवेचन:- इसना होते हुए भी प्रस्तुत रचना के पाठ वैज्ञानिक रूप से सम्पादित नहीं हो सके । असः कई स्थानों में अर्थ समझना कष्ट साध्य हो जाता है। अतः इसका वैज्ञानिक संस्करण और पाठ सम्पादन होना परम आवश्यक है। यौं रचना पर्याप्त महत्व की है। ऐतिहासिक दृष्टि से भी इसका अपना योगदान स्पष्ट है। (२) जैन गुर्जर कवियों भाग १,२,३: प्रस्तुत पुस्तक के प्रस्तोता है, श्री मोहनलाल वलीचन्द देसाई देसाई जी ने इसको तीन भागों में प्रकाशित किया है। तीसरे भाग के दो सन्हों में विभक्त कर दिया है। इस तरह देसाईजी ने इस ग्रन्थ को बार जिल्दों में प्रकाशित किया है। समूह रूप में ये रचनाएं सम्बत ११०० से उन्नीसवीं शताब्दी तक की विभिन्न जैन अजैन थन्डारों में मिलने वाली रचनाओं की वैज्ञानिक नामावली है जिसमें आदिकाल से १९वीं शताब्दी तक की इस्तलिखित रचनाओं का सुन्दर संकलन है। गुजरात और राजस्थान के लगभग समस्त भडारों की कृतियों का सहज संक्षिप्त संकलन प्रस्तुत कर देसाई जी ने शोध के क्षेत्र में बड़ी सहायता की है। देसाई जी ने प्रत्येककृति का प्राप्ति स्थान समय विवरण मादि वैज्ञानिक ढंग से देकर उसके पास के आदि अन्य कर स्थिति को और अधिक सुलफा दिया है। हिन्दी जैन साहित्य मैं मे के किसी मीकाल की प्राचीन जैन हस्तवित प्रतियों की शोध करते समय इन तीनों बंडों की उपेक्षा करना एकदम असम्भव है। प्रस्तुत कृति के तीनों सन्हों में देसाई जी ने समसामायिक प्रतियों का परिवद्र्धनकर रचनाओं को और अधिक सारपूर्ण जमा दिया है। वस्तुतः ये तीनों स देसाई जी के जीवन की साधना के तीन महत्वपूर्ण सोपान है। यह तीन जैन स्वेताम्बर का बाम्बे से प्रकाशित हुए हैं। ३- आपना कवियों: गुजराती भाषा में किसी इईवह कृषि आदिकालीन जैन अजैम रचनाओं का antareas after देती है। इसके कैशवराम काशीराम वाल्मी, रचना ara aftक्यूलर डोसावटी अहमदाबाद से प्रकाशित हुई है। शास्त्री ने नरसिंग के पहले के प्राचीन मरा के साहित्य गौर्जर के प्राचीन वाडीवान, सावार्य द्रवात्विक अप, रासयुग Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ १४वीं १५वीं शताब्दी का गद्य और गद्यकार तथा विभिन्न परिशिष्टों के अन्तर्गत प्रन्थ का समापन किया है। विवेचन : (१) वास्त्री जी ने जैन जैनेशर, प्रसिद्ध लगभग सभी रचनाओं पर विवरणात्मक or प्रकाश डाला है। तथा आदिकालीन लगभग इन सभी कृतियों को जूनी, गुजराती का सिद्ध किया है, जो असंगत है। यह कृति किसी भी शोध स्नातक के लिए निर्देशन तो कर सकती है परन्तु इससे उसे इन कृतियों को विशुद्ध गुजराती मानने का प्रम भी हो सकता है। (१) वास्त्री जी ने भंडारों में प्राप्त तत्कालीन प्रमुख कृतियों के प्रमुख उद्धरण दे देकर उसके पाठ की सम्पन्नता की ओर इंगित मात्र तो अवश्य किया है परन्तु वह अपूर्ण है। उन्होंने रचनाओं की ऐतिहासिकता सिद्ध करने का प्रयास अधिक किया है। ही कुछ आलोचनाएं अवश्य वैज्ञानिक कही जासकती है। इन कृतियों का साहित्यिक विश्लेषण और साहित्यिक विशिष्टताओं पर शास्त्री जी ने प्रकाश बिल्कुल नहीं डाला है। अतः कृति विवरणात्मक अधिक हो गई है। कृति के परिशिष्ट उपयोगी 1 (1) शास्त्री जी ने पूरी कृति में जूनी मराठी मावा की स्वतंत्र सत्या स्थापित करने का प्रयास किया है और गौर्जर अप की महत्ता पर प्रकाश डाला है। के०का शास्त्रीने १९४२ ही विक्रम ० १५वीं तक के प्रमुख कवियों पर प्रकार डाला है। (४) जहा तक भाषा का प्रश्न है, डेमचन्द्र की पत्र के सम्बन्ध में विद्वानों में बड़ा गरायेद है। डा० प्रियर्सन के ग ने हेमचन्द्र के मत को नागर अपने बताया, डा० मोढारकर अप का क्रम ही off शताब्दी में ब्रज भाषा प्रदेश में हुआ मानते है। डा० ०पी०डीनेन्द्र की अप को शौरसेनी अपभ्रंश माना है R 1- George Grierson on the Modern Indo Aryan Vernaculars P63 २० देखि माया कामिक प्रवचन द्वारा की नि० २०१ २- पुरानी राजस्थानी- अनुवक डा मानवरहि ०५६- नागरी प्रचारिणी सभा - काशी Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2 ३०एम० मुशी का मत है कि: "एक नमाना गजब औरस्नी अपशगत में भी प्रशलित 2ी डा० मुनी तिमार वटी हेमचन्द्र दोनों को पश्नमी अपभ्रंश की रचनाएँमानते हैं उनका मन है " "गुजरात के जैन भावार्य हेमन्द्र(०.००८-०७२; इनारा प्रति व्याकर' में रदाहृत पश्चिमी अपभ्रंश के प्रचलित साहित्य के कुछ उदाहरणों से हमें इस बात का पता चलता है कि उस लाली भाषा हिन्दी के स्तिने निकट की अपने प्रन्हा राजस्थानी भाषा में वे शौरसेनी अपभ्रंश को उस काल की नन प्रचलित भाषा जतलाते है। (५) हेचमन्द्र की भाषा को एक वर्ग के विद्वान शौरसेनी कहते हैं और दूसरी और तुराती विद्वान इरे गौरीर अपभ्रश्न मानते हैं।इसमत के प्रणेता भी २०१० धडौं, जिन्होंने इस विकल्प लो जन्म देकर पुष्ट यिा है। आन्त्रीही ने भी अपने इ. आपणा वियोनन्ध मेंहेश्चन्द्र के नाम के अपभ्रंश को जुन गोर अपभ्रंश शिद्य करने का प्रयल प्रयास किया है। आप-T कवियों के उपोद्घात् के प्रारम्भ में उनका यह संपल्प कितनी बड़ी चुनौती लिए है कि वे इस पुस्तक में हेम बन्द्र के अपभ्रंश को गौर अपभ्रंश लिदा करके रहेगें। .- गुसरात एन्ड इट्स लिटरेचर- के०एम० मुन्शी, पृ० २०-२० । २-भारतीय आर्यभाषा और हिन्दी डा० सुनीतिकुमार चटजी-पृ०१७८-७९ ३- रानभानी भाषा- डा. बटरी पृ० ६३ ४- आपणा कवियो खंड १ नर सिंह युग नी पहेला,पोद्घातपृ० ३७-४० द्वारा श्री के०का० शास्त्र:प्रकाशक गु०व०स०अहमदाबाद,०९४२॥ ५ (अ) आम आपणी सामे अनेक भाषा वेदो मा एक आपणा देश नौ भाषा भेद आवी रहे है जै गौर अपभ्रंश है ये बात चालग्रन्थ में बताववानो मारी प्रयत्न है। (ब) आचार्य हेमचन्द्रनौ अपभ्रंश एमा साहित्यिकीय (स्टैन्डर्ड) अपवंश कती जे काई । विशेष तो आदेशनु है। (स) एटले आचार्य हेमचन्द्र ना अपभ्रंश नै तैनै प्रान्तीय लाक्षणिकता ए गोर्जर अपभ्रंश कहैवा मा बात जनातो नथी ।ब्रज भाषा नो सम्बन्ध आपण ने बधू निकट होवामा आभीर अनै गर्नर प्रजा नो फैलावो कारण भूत एम मनै लाग है, जैनो सम्बन्ध टक्क पंजाब साथै जनो ब्रज भाषा शूरसैन माशर प्रदेश ने भाषा हाई जैने शारसेन अपभ्रंश कोई हतो तैमाथी ऊतरी आवेली स्वीकारवामां आवी है। वस्तु स्थिति ए मध्यदेश शरसेन जैम एक काले संस्कृत भाषाना साम्राज्य मा हतो.तेम पदी पालीना साम्राज्य मा आवयो, जे पदी थी शौरसेनी महाराष्दी द्वारा अपभ्रंश ना साम्राज्य मा आंव्यो,आ अपभ्रंश नं नाम पावं होय तो शौसेन तेमज महाराष्ट्र एम बने आपी सकायानागर अपभ्रश एने कहैवो होय तो केवी रीते कहैवो ए कहैतु मुश्कल छ।मार्कन्डे सिवाय आपणी . पासे बीजो कोई पुरावा स्पेन भी।बेशक सौरसेनी ना बंधा संस्कारौ मार्कन्डे ना नागर अपभ्रंश मा तो महाराष्ट्रीना बधा संस्कारौ दिगम्बरोना महापुराण वगैरे काव्योनी भाषामी छे---- ब्रजभाषा जेमा श्री उतरी आवीएने कोईपण नाम आपवं होय तो मने ऐमा लागे के------------ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसी प्रकार वे ब्रज भाषा की उत्पत्ति भी आमीरी अपश से मानते हैं ऐसा प्राचीन व्याकरणों का मत है। साथ ही हेमचन्द्र की अपश को औरसेनी कहने वालों पर शास्त्रीजी ने बड़ा रोष प्रकट किया है। डा. शिव प्रसाद सिंह ने शास्त्री जी के ती पर विस्तार से विचार करते हुए उनो स्वोव्याघात दोष से पीड़ित कहा है।' जो बहुत अंश तक भंगत भी है। इस प्रकार रचना में भामा बन्य और तत्वान्वेषण तथा त्यास्थान आदि बातों की दृष्टि से संगीतियां अवश्य है। परन्तु फिर भी जूनी गुजराती अथवा प्राचीन राजस्थानी की 1वीं पन्द्रावी ताब्दी की रचनाओं का प्रारम्भिक अध्ययन करने में यह पुस्तक बड़ी उपयोगी है। (४) प्राचीन गुजराती गद्य संदर्भ: श्री मुनि जिन विजय जी इवारा सम्पावित यहाद आदिकाल के हिन्दी जैन गद्य साहित्य के क्षेत्र में अत्यन्त मौलिक व्यों का प्रकाशन करती है। रमा मा मत मात्वपूर्ण है तथा जेटी छोटी कहानियों और क्यानों के प्राचीन उइधरनों के इवारा विद्वान सम्पादक ने हिन्दी साहित्य के प्राचीन गड्य साहित्य की सम्पन्नता का परिचय दिया है। भूमि जी की याति प्राचीनतम साहित्य लिए मीलसम्म का कार्य करती है। (५) विपरित (पाग -10 गुजरात विद्या समा अहमदाबाद से सम्बा प्रकाशित यह सिरवीं वीं पादी प्रमुख प्रमुख देवी भाग अजैन गुजराती कवियों का सामान्या: मा परिचय देती है। इसके पश्री शास्त्री रमाकार में इसके दोनों भागों का कलम की रक्षा है की को बड़ी उपयोगिता यह - पापीर मा नान माप जोर-पोकोकासिक पेदमा मध्यदेश मौ बापीर असावी बाबी या पापा। उतरी मावी जैम गुर्जर प्रदेशनी मौरिहती माथी पुनराठी बरी बाबी। देष- भाषा कवियों- उपदिपाव..८, श्री के०काशास्त्री। १- पुरवाया और बाल्मि-ग. शिव प्रसाद सिंह अध्याका हिन्दी बार TET बारामती, १४ा Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कि इसके द्वारा तत्कालीन जैन कवियों के पाठ के साथ इन आदिकालीन अजैन के वियों - असाइत, अबूईरहमान, बमन्स विलासकार श्रीधरण्यास, भीम, नरसी मेहता, आदि कवियों की रचनाओं का सा तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया जा सके। शास्त्री जी ने इस रूम में गुजराती भाषा की सम्पन्नता दिखाने का प्रयास नहीं क्यिा है परन्तु विवेचन साहित्यिक सरसता की कमी, उधरणों कीअधिकता तथा तुलनात्मक अध्ययन कीमियाँ विशेष स हटव्य है। वस्तुत: इस रचना से हिन्दी साथ गुजराती का सम्बन्ध तथा तादात्म्य स्पष्ट किया जा सकता है और दोनों पापाजों का तुलनात्मक अध्ययन अत्यन्त आवश्यक है। यों नेवर कवियों मात्र पर प्रकाश डालने के कारण है अपने इष्टिकोण में एकागी रह गया है। और विस्तार में लिखने का लोभ संवरण नहीं कर सका। (1) गुजराती साहित्य ना स्वामी: यह पुस्तक मध्यकाल त्या वर्तमान गुजराती साहित्य के स्वमों का विस्तार में परिचय देती है। पुस्तकभी सक पल्य-विभाग ही प्रकाशित हुआ है। गद्य विभाग अभी प्रकाशित होना बाकी है।यह पुस्तक सन् १९५४ में प्रकाश्तिाई। इस पुस्तक के प्रकाशक - मावा गुडियो, महोबा। इसके लेखक प्रोफेसर- मैजुलाल र मजमूदार। रना को कवि में दो दो मैं वं व्या वर्गa ulyो सम्पन्न किया है। प्रथम बन्ड मध्यकालीन काम भयोग पुन्दर परिषय है। इनमें प्रमुख प्रमुख पुस्सा, भाषिक बाना, समस्या प्रदेशिका, राब रामी, प्रबन्ध, सन्द, पवाड़ो, साग, मास्यान,लोक वाडी, क पि , मारहमासी, सन्येक माम्य, भड्डी बाय, विवालि , काव्य, मी काम्ब, करको हित विा अयन मन्तवानी बा रामा-मामाविका परम्परागत शेषपूर्ण मानिक परिचय दिया गया है। विदीय में प्राचीन पदव स्वरूपों उदारमार्थ महाकाय, डम्ब ब्धि , गळ, का प्रस्ति, देश भक्ति काम, मामा प्रथा पूर्ति काव्य माँ का पुन्दर विवेचन क्यिा है। रमा गुजराती हैपीर अपने बामपूर्ण है। प्रोवर भरम्बार रक्षा को पाशामिक बनाये का प्रवास या लिपीरातील मान्यों का समावेश इस Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ कृति में नहीं हो सका। साथ ही काव्य रूपों के स्वरूप का विस्तृत परिचय नहीं दिया जा सका । लेखक ने जो प्रवेशक नाम से जो प्रस्तावना लिखी है वह पात महत्वपूर्ण और वैज्ञानिक है। अद्यावधि उपलव्ध आदिकालीन तथा मध्यकालीन काव्य कपों का चित्रण करने वाली रचनाओं में यह कृति पर्याप्त महत्वपूर्ण है हिन्दी के विद्रवान इस कृति के अध्ययन में गुजराती लिपि और भाषा में लिखी जाने के कारण ही असमर्थ रहे । यौं कृति पर्याप्त सारपूर्ण है। (७) गुजराती भाषा की उत्क्रातिः वीं शताब्दी से १८वीं शताब्दी तक की रचनाओं के उद्धरणों द्वारा गुजराती भाषा के उद्भव और विकास पर प्रकाश डालने वाली यह एक प्रमुख कृति जिसकी लिपि हिन्दी है तथा मावा गुजराती। इसमें बैचरदास जीवराज दोशी के अनेक व्याख्यानों का संग्रह है। बम्बई यूनिवर्सिटी द्वारा सन् १९४३ में यह कृति प्रकाशित हुई। व्याख्याता देवीजी ने सिर्फ भाषा वैज्ञानिक रूप में ही इन कृतियों का परीक्षण किया है। लेकका प्रास्ताविक या आमुख पर्याप्त सारपूर्ण है। देशी Heerat aur ani सम्बन्धी लगभग सभी उपलब्ध तथ्यों का प्रामाणिक स्वरूप प्रस्तुत किया है। रचना प्रामाणिक और गौर्जर भय के विकास पर प्रकाश डालती है। गुजराती भाषा की विभिन्न कालों में जो स्थिति हुईउसके इतिहास कोसने के लिए यह कृति प है। (८) गुर्जर राखावली: मावा वोरिएन्टल सीरीज़ से जी०ए०भट्ट ने इसे सम्पादित कर प्रकाशित किया है। सम्पादकों में मीरा बाई तथा एम०सी० मौदी का नाम उल्लेनी है। वह कृति मोरिस्ट इन्स्टीट्यूट वहीदा से १९५६ में प्रकाशित हुई है। इस कृति में सम्पादकों ने आदिकालीन रचनाओं को प्रकाशित किया है, जिनमें fe पाडव र विराट पर्व, नैमिनाथ फाट, अर्बुदाच बीनती बिडंगति eus, arr विमा विकास भवाड़ी है। ये रचनाएं अत्यन्त महत्वपूर्ण प्रति या ● प्राचीन राजधानी की है। रचनाओं में लगभग इनके द्वारा १५ वादी की ही है। बाद में पुरानी हिन्दी की स्थिति का अध्ययन हो Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३ सकता है। विद्ववान सम्पादकों ने इस कृति के प्रारम्भ में प्रस्तावना देकर रचनाओं के समय स्थान और प्रति परिचय आदि दिए है। साथ ही अन्त में परिशिष्ट तथा विभिन्न टिप्पणियों द्वद्वारा रचनाओं को समझाकर अधिक कठिन होने से बचा लिया । रचनाओं के पीछे दिया हुआ संविप्त शब्द कोष भी अत्यन्त महत्वपूर्ण है। वस्तुत: इसी प्रकार अन्य रचनाओं का सम्पादन होना मी अत्यावश्यक है। वस्तुतः यह प्रयास अपने में पूर्व तथा एक काल की कुछ प्रमुख रचनाओं का चयन है। ऐसी की रचनाएं आदिकाल की सम्पन्नता पर प्रकाश डाल सकती है। (९) प्रबंधावली: प्रस्तुत रचना श्री पूर्णचन्द्र माह के लिये हुए लेखों का संग्रह है। ये लेख स्वर्गीय श्री पूर्ण नाहर के सुपुत्र श्री विजयसिंह नाहर ने सन् १९३७ में ४८, इन्डियन मिस्ट स्ट्रीट, कलकत्ता प्रकाशित किए। रचना के निबन्ध ४ मार्गोसाहित्यिक, धार्मिक, सामाजिक तथा विविध में विभक्त है। इनमें साहित्यिक निबन्धों में प्राचीन जैन हिन्दी साहित्य, त्रैमासिक शिलालेख, राजगृह के दो हिन्दी ले तथा धार्मिक उदारता लेख महत्वपूर्ण है। श्री नाहर जी ने उनके संग्रह की १६वा की कुछ अप्रकाशित रचनाओं की ओर संकेत भी किया है। aurant में creeजी ने पुरानी हिन्दी की वी शताब्दी की एक वृक्ष नवकार desवीं की पार- जम्मू स्वामी रासा, रेवंदगिरि राजा नेमिनाथ चपाई, तथा उनue माला कहानय सम्यव चौदहवीं की रचनाएं चन्द्रव की ११, बोलहवीं की २३ वी की ५३, वथा १८वीं बतादी की ४३ रचनावों का उल्लेख किया है। हिन्दी जैन साहित्य की रचनाओं का स्मरण दिलाने के लिए इस रचना का महत्व अनुभव किया जा सकता है। A (१०) ऐतिहासिक जैम काव्य संग्रहः · श्री अगर माल्टा में सं० १९९४ में सम्पादन कर, शंकरदान भैराज मास्टर नं० ५०६, भारमेनियम स्ट्रीट के प्रकाशित की है। प्रस्तुत किय ये विशेष उपयोगी है। एक तो ऐतिहासिक और द्वारा बाचा वाय। कतिपय eter कायों के बहिरिन्द्र प्रासी काव्यदृष्टि से संग्रहीत किय Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। अद्यावत प्रकाशित संग्रहों से भाषा साहित्य की दृष्टि से मंगृहीत किए है। अद्यावधि प्रकाशित संग्रहों से पाषा साहित्य की दृष्टि से यह संग्रह सर्वाधिक उपयोगी है। क्योंकि इसमें १२वीं सताब्दी से लेकर बीसवीं शताब्दी तक लगभग ८०० वर्षों के प्रत्येक शताब्दी के थोड़े बहुत काम अवश्य संग्रहीत है। जिसे भाषा विज्ञान के अभ्यासियों को सताइदीवार भाषाओं के अतिरिक्त कई प्रान्तीय भाषाओं का भी अब काम हो सकता है। कतिपय काम हिन्दी कई राजस्थानी और कुछ गुजराती प्रकृति के है। अपयश भाषा के लिए तो यह समा विशेष महत्व का है ही किन्तु ममूने के तौर पर कुछ संस्कृत और प्रा के काव्य मी दे दिए गए हैं। कास्य की दृष्टि से जिनावर मूरि मिनोदय सरि जिनकपरल मूरि, जिनपति मूरि, जिनरागमूरि, विजयसिंह-पूरि, आदि के राम विवादले नही सुन्दर और आलंकारिक भाषा में है जिनको पढ़ने के प्राचीन गव्यों से मजन सौष्टव, सुन्दर मद विन्यास व्या वती उपवाओं का अनुभव होता है। इस प्रकार यह गव्य आदिकालीन अनेक पाठों का संग्रह है। प्रारम्भ में डा. हीरालाल जैनकी भूमिका अत्यन्त महत्वपूर्ण है। वस्तुत: मादिकालीन जैन रमाओं ऐतिहासिक ग्रह करके नाटा मेमो ने साहित्य की महत्वपूर्ण सेवा की है। ( विधिक जैन काव्य संचयः पनि जिन किस मी इवारा सम्पादित या कृति १९५६ में प्रकाशि कृति में भी विद्वान सम्पादक ने क हिन्दी पतिहासिक हिन्दी जैन रमानों का संकलन क्या याद किया गया है। रमा देशी भाषा काव्यों के पागे पर विस्तार विवेचन किया गया है। रचना का भूमिका माग अत्यन्त महत्वपूर्ण है जिसमें रमानों के महत्व और उनकी प्रशियों पर मारा गया है। माग काव्यों के संकलन की दष्ट प्रकार का बना विलाप है।तिक सम्पादन एवं सृजन पर्याप्त मात्वपूर्ण पर्वमा की दृष्टि से भी कृति महत्वपूर्ण है। ( Vव और शE श्री नाथूराम प्रेमी ने सति अपन म कमिन्दीरत्नाकर (प्रास्ट) शिक्टेिड बम्बई से प्रकाशित किया। समा गमात्वपूर्ण परिक लिया है। पूरी पीवी पूर्व मा किया है। Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ये समस्त लेख विभिन्न पत्रिकाओं में प्रकात्रित हो चुके है। आदिकाल से सीधा सम्बन्ध रखने वाले विषयों पर यद्यपि इस ग्रन्ध में कोई निबन्ध नहीं है फिर भी भाविकाल से सम्बन्धित अनेकों उलझी प्रथियों को सुलमाया है। संस्कृत, प्राकृत, अपच भाषाओं के विविध जैन ग्रन्थों और उनके रचयिताओं का परिव्य और इतिहास प्रेमीजी ने को ही जोधपूर्ण दृष्टिकोण से उपस्थित किया है। इस रचना काजैन साहित्यपर शेष प्रारम्भ करने से पूर्व अध्ययन करना अत्यनिवार्य है। (1) हिन्दी जैन साहित्य का इतिहासः जैन हितैकी के सम्पादक श्री पं० माथूराम प्रेमी ने इस छोटी सी कति को सन् १९१७ में प्रस्तुत किया। वास्तव में यह रचना सप्तम हिन्दी साहित्यमम्मेलन जबलपुर के लिए लिया गया एक निबन्ध है, जिसको लेखक ने जैन ग्रन्धरत्नाकर बम्बई से लोटी सी पुस्तिका कम में प्रकाशित किया है। प्रेमी जी ने प्रस्तुत कृति में। जैन साहित्यका महत्व, जैन साहित्य के अप्रकट रहने के कास, उपलबध जैन साहित्य के विस्य पर विचार,सामायिक साहित्य, जैनों द्वारा हिन्दी कीउन्नति की बेटा, जैन ग्रन्थ प्रकाशन संस्थाए, दिी का इतिहास हिन्दी का प्रारम्भ तथा वी से कर ली शादी के हिन्दी जैन लेखकों की रचनामों पर प्रकार STOT है। क्या उनके एक एक उदधरन कार जैन साहित्य कीप्राचीनता को मिष किया है। रमना गेटी पर मारपूर्ण है। ना दिी के साहित्य के महत्व की और मित करने वाली विरोध स्नातकों को विा निर्देश हो सके। (१४)- पुरानी हिन्दी अब कृषि श्री पर बनी गुती बी का नागरीप्रसारिणी पत्रिका भाग १ में पा सक विस्तृत निबन्ध है। मायाकृति२००५ में पुस्तक रुप प्रकाशित हुई। मुनरी व प्रामाणिक पौध तथा अत्यन्त महत्वपूर्ण है। उत्तर भयको पूरामी हिन्दी काने का सर्व प्रथम पास गुलेरी जीने किया। उन्होनि प्रस्तुत हि अपार रानी हिन्दी का का निर्णय, अपर की मान्यता, इरानी हिन्दी मामकरण का काम, और पुरानी हिन्दी की रस्नानों पर बाबा मिवावा लायकी पुरानी बिपि Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तर अपके ग्रन्थों के उद्धरण प्रस्तुत किए हैं। साथ ही हेमचन्द्र, पाणिनी, कुमारपाल चरित, देशी नाम माला आदि अनेक ग्रन्थों पर प्रकाश डाला है। गुलेरी जी का यह कार्य रोष की दृष्टि से एक भील स्तम्भ है। पुरानी हिन्दी नाम देकर गुलेरी जी ने पुरानी बंगला पुरानी गुजराती, पुरानी राजस्थानी पुरानी मराठी आदि प्रयोगों का प्रम दूर कर दिया है। देशी भाषामों के इतिहास का अध्यक् परिचय कराने में पुरानी हिन्दी ने अपूर्ण योग दिया क्या आदिकाल के इस महत्वपूर्ण प्रश्न को पुलमा कर, तमसान्न मार्ग को प्रकाश देकर प्रशस्त किया है। रखना अपने में साग पूर्ण क्या उस्कृष्ट है। हो सकता है कि लोग गुलेरी जी के विचारों में सहमत न हों, परन्तु यह तो दूसरी बात हुई। वास्तव में यह निना है कि पुरानीहिन्दी गुलैरी जीकी आई शौध है। (१५- हिन्दी काव्य धारा: महापन्दित राहुल सांकृत्यायन के सन १९४५ में किसान महल इलाहाबाद में प्रकावित की है। सालची का यह अन्ध गुलेरी जी की पुरानी हिन्दी की मावि अमाधारण है। विद्वान सम्पादक ने पुस्तक में प्रारम्भ में ५० पृष्ठों की विस्तृत अवतरणिका लिटी है तथा अनेक सभी बातों का परिकार धा निराकरण किया है। अपच भाषा को पुरानी हिन्दी रामी ने की का है और इस दृष्टि में ये मुरी की पी एकदम आगे बढ़ गये है। अपशको राहुलजी ने हिन्दी मगर से * केवल हिन्दी की ही निधि बाग है बल्कि उसे बंगला, गुजराती, मराठी, सिधी, उडिया, जानीरावधानी, माडी, चिली, पौवपुरी आदि भाषाओं की सम्मिलित निधि बनालाई है। हिन्दी काव्य धारा में कवि ने देशी भाषाओं लि काव्यों की भूमि का बबन भूमिका में प्रस्तुत क्यिा है। जिससे रबमा के मूल तत्वों का अनुसरून स्पष्ट हो पाक जी ने आठमी शताइदी से पी विधामन्य गुग के मन भाषा कवियों को लिया है। अफश को हिन्दी बतलाते अब उन्होल स्वयंपू को दी का प्रथम कवि सिप स्थिा है। सबसे प्रथम पूर्व मार्य इन कृतियों के पाउने सम्बन्ध में रानी में प्रसया का यह कि और भीर म्होंने उमर अक के भी अम्ब पुस्म कमियों का पाल दिया और दूसरी और उनकी हिन्दी शाया मगदी अनिष्ट पाय Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७ स्पष्ट हो सके। प्रथ के पीछे ४ परिशिष्टों में सहायक ग्रन्थ, कवियों का काल क्रम और उनकी रचनाए, देहाती और तद्भव शब्द तथा समसामयिक राजवंशों की विस्तृत नामावली जोड़ दी है। जिससे कृति के अन्तरंग बहिरंग तत्वों की पुष्टि हो सके। रचनाकार ने इसमें आठवीं शताब्दी सेही सिद्ध अजैन, जैन, बौद्ध आदि सभी कवियों को लिया है तथा उनके काव्यों के उद्धरणों को विविध शीर्षकों में मटकर पद्यात्रों में वैज्ञानिक निष्कर्थी का समावेश कर दिया है। विवेचन :- परन्तु एक सबसे बड़ी असंगति हिन्दी काव्य धारा की दिखाई पड़ती है और वह यह है कि राहुलजी ने विज्ञध अप के कवियों को भी हिन्दी का कहकर उनको हिन्दी में स्थान दिन है। उदाहरणार्थ स्वयंपू, हेमचन्द्राचार्य, अनुदुर्रहमान, सरमा, शवरपा, पुष्पवंय, योगीन्दु मकबर, कनकानर पुनि हरिहर लक्षण, अज्जल मादि। वास्तव में ये कवि दूध अपप्रेर के हैं तथा इनको हिन्दी में स्थान देना कठिन और असम्भव दोनों है। आज जबकि अपभ्रंश, उत्तर अमत्र और पुरानी हिन्दी के बद रूप तथा ध्वनियों का समग्र अध्ययन प्रस्तुत कियाजा रहा है, राहुलजी की प्रस्तुत कृति को देखकर अप की इन कृतियों का मूल्यांकन हिन्दी कहकर fee जाने का विचार संगत और युक्ति युक्त नहीं कहा जा सकता। क्योंकि देशी seerat की इतनी अधिक कृतियां मिल जाती है विपद और उनके बीच में विभाजन रेखा सरलता से बींची जा सकती है। यह बात दूसरी है कि अप की इन कृतियों में हिन्दी मात्रा को देने के प्रभूत तत्वों का समावेश है। राहुलजी के कथन में दूसरी संगति यह कि एक ओर होने को हिन्दी कहते हैं और दूसरी ओर उसे लगभग सभी प्रादेशिक भाषाओं की सम्मिलित निधि बतलाते है। स्वयं आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी का भी स्थान है कि अब को पुरानी हिन्दी कहने का विचार माया वास्त्रीय और वैज्ञानिक नहीं है। अतः राहुलजी ने एक ओर तो अप कोसी गाeाओं का सम्मिलित निधि मानते है परन्तु दूसरी ओर उम्र पर हिन्दी का ऐसा एका चिमत्व स्वीकार करते हैं किसे पुरानी हिन्दी का है, वो है। जन्म वास्तव मैराकी का यह हिन्दी प्रेम रानी है फिर भी हमें यहा Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरी भाषाओं के अधिकारों को ध्यान मेरसते हुए हिन्दी को हिन्दी तथा अपभ्रंश को अपभ्रंशकहनाही ज्यादा न्यायसंगत होगा। (१६) हिन्दी साहित्य का इतिहासः (0) आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने हिन्दी द सागर की भूमिका के रूप में मन् १९२९ में हिन्दी साहित्य का क्रमबद्ध इतिहास प्रस्तुत किया। वास्तव में मिनबंधु विनोद की भाति यह रववृत्त संग्रह नहीं था। पहली बार पुल जी हिन्दी साहित्य के इहिास को विभिन्न माह कारों से मुक्त किया तथा हिववेदी जी के शब्दों में इसमें मानव के जीवन्त विचारों का स्पन्दन पहली बार सुनाई पड़ा। विवेचनः आदिकाल की दृष्टि से यह कृति अस्त उपादेय वो अबर है परन्तु सामग्री अभाव के काल उक्ल जी ने अपज काल और देशी भाषा नामकरण करके कई अप्रामापिक रचनामों को स्थान दे दिया है। वास्तव में सामग्री के अभाव में शुक्ल जी को एतदर्थ दोषी ठाराना समीचीन नहीं होगा। शुक्ल जी ने तत्कालीन उपलब्ध लगभग समस्त साहित्य का दर विजन प्रस्तुत किया है। यद्यपि बादिकाल की सामग्री, मामकरण क्या सम के प्रश्न उसमें पीप्रश्न ही बने हुए है। जिन पर इसी अध्याय के प्रारम्भिक पृष्ठों में विचार कियाणा चुका है। ( हिन्दी साहित्य के इतियों के कप में आदिकाल के सम्बन्ध में सामग्री प्रस्तुत करने वाले प्रबो में शिवसिंह भरोष, मि बिनोद, गार्च मियन का मार्डन वाक्यूलर लिटरेचर माफ मार्दन न्दुिस्थान प्रथा डा. राम कुमार वर्मा का हिन्दी साहित्य का मालोचनात्मक इतिहास या भाषा हिवदेवी बी का हिन्दी साहित्यि एवं हिन्दी साहित्य की भूमिका बाविन्य प्रमुख है। इन ग्रन्थों की संगति मावि स आदिका मामला सामग्री आदि पर चर्चा करते पुमन विचार विर्य किया था । (0/- हिन्दी साहित्यका बादिला ािर राप भाषा परिषद पटना मे सन् १९५९ मावार्य डा. मारी प्रसाद डिववेदी मे + प्रवचनों को इस ग्रन्थ प्रकाशित किया कि भावार्य शिववेदी का बााित पर बवावर उपाय मम सभी ग्रन्थों Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में उत्कृष्ट त्या मुला हुआ है, जिसमें इन्होने आदिकाल सम्बन्धी प्राप्य प्रायः लगभग सभी निधान कलंक सामग्री का प्रभूत उपयोग क्यिा है। दिववेदी जी का यह प्रन्ध १०वीं से १४वीं शताब्दी के साहित्य का हानिक विश्लषम है। इनमें पात्रों प्रवचन हिन्दी साहित्य में पाच नये अध्यायों का गणेश करते है। उनका इस काल में प्राप्त विविध सामग्री का परीक्षण प्रवृतियों का निर्धारण, मये नागों का प्रवस्तीकरण और उनका हिन्दी साहित्य सम्बन्ध स्थापित कला दिववेदीती के विदाथ रोध सम्बन्धी दृष्टिकोण का परिचायक है। यही नहीं, काव्यात्मक दृष्टि के मार्ग प्रशस्त करने के लिए उन्होंने विभिन्न प्रवचनों मशः रासो का महत्व, कृतियों का वस्तु सौन्दर्य, बाल्यान, कहानी, सवदी, काग, वसन्त, दोहा आदि के साथ साथ क्या कलियों का विस्तार में आलेखन कर आदिकाल की प्रापधारा को विशेष गति और वागी प्रबाग की है। इस प्रकार इतिहास से पृष्टभूमि लेकर दिववेदी जी मे आदिकालीन काव्य स्मों का पहिली बार वैज्ञानिक ढंग से परिचय किता है। विवेचनः हिववेदी जी का न्ध और प्रयास असाधारण है परन्तु नामकल सामग्री या समय निर्धारण के समय में आतोकों में कुछ म द अवश्य है। साथ ही जिन काव्य मो म दिववेदी जी ने परिकय सिा है उस उनके विकास की दिशश की और त मात्र ही हो पाया। विस्तार विश्लेषा नहीं हो सका। दिदी आदिकाल के इस भोज कार्य की पक शारा विशेष साहित्य विस्तृत विश्लेषण करने के कार्यको लेखक प्रस्तुत प्रकटपूरा करने का प्रयास किया है। राजस्थानी भाषा,पुरानी राजस्थानी, राजस्थानी भाषा और साहित्य: (1) राजस्थानी भाषा रावस्थाम विश्व विद्यापीठ प्राचीन साहित्य शेष संस्थान उदयपुर वर्गत पाकवि गळा, वासन दिप प उनके तीन पाय राजस्थानी भाषा मान सन् १९ पुस्तक में प्रकाश नीमार बटनी । राजस्थानी की पिया, राषस्थानी विहार, कि , मामाविबादि अध्यायों HAPTE Tो पाया कि डा. बटी Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ने १५वीं शताब्दी के पूर्व राजस्थानी और गुजराती दोनों भाषाओं की एकता सिदध की है। इससे राजस्थानी का हिन्दी के विकास और उद्भव में कितना योग है, यह स्पष्ट हो जाता है। प्रस्तुत रचना- से आदिकालीन हिन्दी रचनाओं की भाषा को समझने में योग मिलेगा। डा. बटी ने राजस्थानी भाषा की भाषा वैज्ञानिक विशेषताओं पर प्रकाश डालकर उसके स्वस्म का सही विश्लेषण किया है। (१९) पुरानी राजस्थानी डा. एल पी. टेस्सीटोरी की इटालियन रग्ना के अंग्रेजी अनुवाद का यह अनुवाद ST. नामवर सिंह ने पुरानी राजस्थानी के नाम प्रस्तुत किया है। 670 टेस्सीटोरी के मन्च सेभी प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी और उनी गुजराती की एकता स्पष्ट होती है। रचना नागरी प्रचारिणी सी से प्रकाशित हुई है। रमा राजस्थानी भाषा की मावि ही पुरानी हिन्दी की रचनाओं को समझने में योग देती है तथा औरसेनी अपयश और राजस्थानी तथा अब आदि का पारस्परिक सम्बन्ध स्पष्ट होता है। हेमचन्द्र के दोहों की भाषा डा. टेस्सीटोरी मे गैरसैनी अपक्ष कहा है, जो विवाास्त तो है पर उत्तर अमश का राजस्थानी से सम्बन्ध समझने के लिए पान पुत्व पूर्ण है। (२०) राजस्थानी पारा और गाहित्य हिन्दी साहिला सम्मेलन प्रयाग 2. २००८ में यह रचना प्रकाशित हुई। डा. पोडीलाल मेनारिया की यह ति राजस्थानी भाषा और मालिका प्राचीनतम इतिहास है। डा. मैना रिया मे मोटे परिमल, मारवाड़ी, मेवानी, गरी, बागड़ी मास्त्री, माविका परिका दोष प्रारम्भिक काल, पूर्व मध्यकाल, उत्तर मध्यका गहित्य माधुनिक काल, पर और प्राचीन और भाचीन गट आदि घर प्रकार है। रचना . मेवारिया ने रचनाकारों का सामान्य परिचय विवाहा मारिया ने कमाविबाहीम जैन कवियों का उल्लेख कर नई सोच प्रस्तुत की। बीसलदेव राम, आदि कृतियों का निधारम आदि ष्टिकोप क्यिा ।। पिन रमा मात्वपूर्ण पापी बालिकाठीय मन नपान प Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१ रचनाओं का समाहार इस ग्रन्थ में नहीं हो पाया है। साथ ही अर्वाचीन पद्म और रचनाओं की प्राचीनतम एवं अद्यतन सूचनाएं देने में GT. मैनादिया असमर्थ रहे है। डिंगल के सम्बन्ध में कोई निश्चित मत मेनारिया ने प्रस्तुत नहीं किया। इसके अतिरिक्त आविकालीन आहित्य की कुछ ही कृतियों की ओर इंगित मात्र करके दिया है फिर भी राजस्थानी भाषा और हिन्दी भाषा के सम्बन्धों का अध्ययन करने के लिए रचना उपयोगी है। राजस्थानी भाषा और साहित्य राजस्थानी पाषा के इतिहास का सर्वप्रथम उपादेय ग्रन्थ है। (२१) प्रशस्ति संग्रह: सन् १९५० में श्री कस्तूरचंद कासलीवाल एम०२०, शास्त्री के सम्पादकत्व में मानेर शास्त्र भंडार से जयपुर से एक प्रशस्ति संग्रह प्रकाशित हुआ है। प्रस्तुत कृति में ५० जप ग्रन्थों की मस्तियां संग्रहीत है। इनमें स्वयंभू पुष्पदस्थ, ननन्दि वीर, अमरकी र्ति यशःकीर्ति धनपाल, रवू मादि की यह प्रशस्तियां प्रमुख है। हम प्रवस्तियों के अध् यम को वादिकालीन रचनाओं की पृष्ठभूमि के अध्यन के लिए व्यवहृत किया जा सकता है। (१२) प्राचीन काम संग्रह: डा० भोगीलाल वाडेवरा में महाराजा सयाजी राव विश्वविद्यालय, बडौदा श्री सोमाभाई चारे के सहयोग से इस संग्रहको सन् १९५५ में प्रकाशित किए है। रचना में विक्रम की १८ बादी तक की कायु रचनाओं का संकलन एवं सम्पादन किया गया है। रचना नाविकालीन फातु रचनाओं का पाप्त बैज्ञानिक मा प्रस्तुत करती है। डा० पांडेसरा ने इस रचना में ३८ का काव्यों का समावेश किया है। साथ ही प्रति परिचय, बम्याच तथा अन्त में एक कोच देकरमति को सर्व ग्राम और सर्व इन बना दिया है। रचना after, बीकानेर आदि स्थानों में उपलध का देती है। व वाद तक पाटन जैसलमेर, काव्यों के अध्ययम में बड़ा योग विवेचनः डाबरा ने इन्हें प्राचीन गुजराती की रचनाएँ का है परन्तु वास्तव मैं ये काम प्राचीन राजस्थानी या मी गुजराती के है। इन कामों में से कुछ का Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ विश्लेषण प्रस्तुत ग्रन्थ के फागु नक रचनामों के अध्याय में किया गया है। (२३)- अपप्रे साहित्य: डा. हरिवंश कौर ने प्रस्तुत शोध प्रबंध को भारतीय साहित्य मन्दिर फबारा दिल्ली से सन् १९५६ में प्रकाशित किया है। प्रस्तुत कति में STO कौर ने अपमंत्र भाषा का विकास, अपश और हिन्दी भाषा, तथा अपश साहित्य की पृष्ठभूमि, अपश साहिल का हिन्दी पर प्रभाव आदिकालीम हिन्दी जैन साहित्य के सम्बन्ध में अवश्य ही सहायता मिलती है। रचना अपभ्रंश साहित्य पर प्रकार डालती विवेना. १) प्रस्तुत ग्रन्ध में डा. कौए वारा कूतियों सम्बन्धी वर्गीकरण ठीक नहीं हो सका है। वास्तव में विषय की दृष्टि से इन रचनाओं का वर्गीकरण नहीं होकर यदि काव्य रूपों की दृष्टि से होता तो अधिक संगत हो सकता। (२)सरी असंगति यह है कि डा. कौड़ मे डारों की अधिक रोष या सभ्य बोध नहीं होने से कई पुरानी हिन्दी की कृतियों को शुद्ध अपच की कहकर स्थान दिया है, जो समीचीन नहीं है वि डा. कोड़ इनकी भाषा को ठीक से अध्यन करते हो बाब सम्भव है अनेक प्राचीन साजस्थानी की कृतियों को अपनी नहीं लिखते। (१४)- प्राकृत अपश-साहित्य और उसका जिदी साहित्य पर प्रभाव प्रस्तुत डा. रामसिंह डोमर का शोष प्रबन्ध है। तोमर जी की कृति अपने में पूर्व या आदिकाल पर गेध करने वाले स्नासको हिप परम उपयोगी तथा पृष्ठभूमि के लिए पामा महत्वपूर्ण है। मोमाजी ने अपनी शेष हिन्दी के प्रतीक काल की कामयारा और पुण्य प्रहरियों पर प्राकृत अषय की काम्य पारामों, गुरु प्रवृत्तियों या वैशिष्ट्य पादों का प्रभाव बसलाकर गिदी साहित्य के विविध माँ का शालिक अध्ययन प्रस्तुत किया है। प्रस्तुत प्रबन्ध अपने में पूर्व का वाम शामिलो प्राय भी धक का प्रगति गोने पर इस रचना mमामला उठा की। Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२५) हिन्दी जैन साहित्य का संक्षिप्त इतिहासः मारतीय हान पीठ काली सन् १९७ श्री कामता प्रसाद जैन ने इसे प्रकाशित किया है। श्री कामता प्रसाद जैन:बीर- और जैन-सिद्धान्त पारकर के सम्पादक के रुप में हिन्दी जैन साहित्य की सेवा करते रहे है। प्रस्तुत कृति में हिन्दी के बादिकाल से लेकर मध्यकाल की रमाओं का सामान्य परिचय दिया है। साथ ही हिन्दी की उत्पत्ति का भूल जैन साहित्और उसका काल विभाग, आदिकाल का साहित्य और गहब पाषा आधि अगायों के अन्तर्गत हिन्दी जैम साहित्य पर प्रकार डाला है। डा. वासुदेव बरण प्रवाल ने कति का प्रावधान लिया है। जो पर्याप्त मारपूर्ण है।-हिन्दी जैन साहित्य का इतिहास- पाली कृति है, जिसने प्रेमी जी के निबन्धों की पाति विद्वानों का ध्यान आकर्षित किया तथा महली बार श्री कामता प्रसाद जी ने निश्चित रूप रेखा इवारा इस रचना का प्रकाशन किया। विवेचन:- इतमा होने पर भी कृति में कई संगतियां आ गई है। श्री अमरबन्द माटा ने इस सम्बन्ध में कई प्रमों का निराकरण किया है। श्री कामता प्रसाद जी ने मांग की ही रचनाओं को पुरानी हिन्दी की रचनाएं मानी । तथा वे भी मी मादी से पूर्व की कोई पुरानी दिी की रचना प्रस्तुत नहीं कर सके। परन्तु इस रचना से ना अवश्य मा कि विद्वानों का ध्यान हिन्दी जैन साहित्य की मोर गया। रचना आधुनिक काल (वीं वादी) के कतिपय कवियों का भी लेखक ने परिव दिया है। सामान्य रमा उपयोगी है। (२) हिन्दी जैन शाहित्यपरिशीलन- भाग १.१४ अस्य प्रथम और हिवतीय दो पालो लिा गया है। यह भी भारतीय भाषीक कारी मिली में प्रकाशित wिया है। प्रथम भाग में निधी र प्रकायों और भागयों, देशी भाषा के जैन प्रबन्ध काय, पीय परवर्ती काव्यों पर पुरान गन्ध माहित्यमा पार यी हिन्दी म गीति काय, यक, काम शाहित्यमा मात्मन्या काव्य पर विचार ािा दुसरा मानिक कान्य धारा, मानों, मत गनि कि विकास, उपन्यास, था और निमाया गयास्मीपर पर्याप्त श्रम Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ के साथ विचार किया है। ति श्री कामता प्रसाद जैन के संक्षिप्त इतिहास की माति महत्वपूर्ण है तथा मवीन सामग्री पर भी विद्वानों के सामने संक्षिप्त और सरस रूप में प्रकार डालती है। शास्त्री जी ने दोनों डों में नवीन अध्यायों नए माराव्य स्पष्ट किए है और हिन्दी म साहित्य की ओर विद्वानों की विशेष रुचि काहवान किया है। विवेवन:- परन्तु इसमें अमेटियां रह गई है जिसपर अगरबन्द नाहटा विस्तार में विचार कर चुके है। बाध की स्त्री जी ने जो देशी भाषा प्रबन्ध काव्य, हिन्दी जैन प्रबन्ध काव्य, अपांच के बाद की पुरानी हिन्दी के जैन प्रबन्ध काव्य तथा हिन्दी जैन महाकाव्य शीर्षकों के वर्ग को विचार किया है अपने में अपर्याप्त है। साथ ही ये सब नाम एक ही प्रकार के कामों के पर्यायवाची पी है तथा ये आकिात सम्बन्धी मौलिक सामग्री का समावेश भी अधिक नहीं कर सके। अतः मध्यकाल और माधुनिक काल की इष्टि से ये दोनों विशेष उपयोगी हो बबई । परन्तु माविकास के सम्बन्ध में गए मातब्य और ध्यास्यान करने में रखना सामान्य ही है। (१७) हिन्दी के विकास में अपज का योगः श्री नामवर सिंह (अब डाक्टर) की यह पुस्तक साहित्य काम तिमिटेड, इलाहाबाद १९५५ प्रकाशित हुई। डा. नामवर सिंह ने प्रस्तुत ग्रन्थ को दो मन्त्री विक्त दिया है। प्रथम बन्ड में अपवमापा का उलव और विकास, परवीं अपच और उसमें हिन्दी बीग, बप हिन्दी का उद्धा और विकास अध्यायों पर विचार क्विा या शिवतीय व साहित्य या हिन्दी का अपांव पसाहित्यिक सम्म स्पष्ट किया। बना पर्याप्त म की वा डा. राम सिंह तोमर के बोध प्रबन्ध की नाति निदी विकास का बोम निधारण करने में उपयोगी है, साथ ही माहितीन दी ग साविकी पृष्ठभूमि के भययन, बपौत्र के परिनिम्म्यि पूर्वी और उत्तरी भाषा वानिक और सात्विक विमा नामवर सिंह ने बीमार संजोगा। इसके अतिमिलिमी बार असार अपांच स्वयों ममात्र परिविष्ट र दोहा Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५ संग्रह भी दिया है। विवेचन :- फिर भी कृति में कई पुरानी हिन्दी की रचनाओं को मंत्र की कहकर उनका विश्लेषण कियागया है। जिस पर प्रस्तुतप्रबन्ध में आगे विचार किया गया है। फिर भी डा० नामवर सिंह की यह कृति एक स्वतंत्र विचार धारा को पुष्ट करने वाली महत्वपूर्ण रचना है जिसमें अपत्र भाषा और साहित्य को सपने में विशेष estaar मिलती है। (१८) सूर पूर्व ब्रज भाषा और उसका साहित्य आदिकाल के सम्बन्ध में अभी शाल ही में यह शोध प्रबन्ध डा० शिवप्रताद सिंह ने प्रकाशित किया है। यह कृति हिन्दी प्रचार पुस्तकालय वाराणसी से अक्टूबर, १९५८ में प्रकाशित हुई है। डा० हजारीप्रसाद द्विवेदी के निर्देशन में हुए इस शोध कार्यने भाविका के जैनेतर ग्रन्थों का मूल्यांकन प्रस्तुत किया है। पूरा प्रबन्ध १९ अध्यायों में विभक्त है। सूर पूर्व ब्रजभाषा में उपलब्ध साहित्य के भाषा वैज्ञानिक तथा साहित्यिक दोनों पक्षों पर लेखक ने पर्याप्त शानिक रूप में विचार किया है तथा संक्रांतिकालीन ब्रज भाषा, अ भाषा का रिक्थ ब्रजभाषा का उद्गम, ब्रजभाषा का निर्माण- भौतिक परिनिष्ठित तक तथा हिन्दीवर प्रान्तों के कवियों आदि का परिचय प्रयास शोधपूर्ण एवं वैज्ञानिक है। निस्संदेह डा० शिव प्रसाद सिंह का यह कार्य पूर्ण मनोयोग से सम्पन्न हुआ है। विवेचनः परन्तु फिर भी रक्षा में कुछ प्रश्न अभी विचार विमर्ष की अपेक्षा रखते है। वास्तव में लेवक पर वीरसैनी अप इतनी अधिक छा गई है कि उसे इत्कालीन देवी भाषाओं से उसके सम्बन्ध का और उसमें प्राप्त तत्कालीन साहित्य का बहुत कम स्मरण रहा है। डा० सिंह अपने में है कि - "हम गुलेरी जी की तरह बाद की अप की पुरानी हिन्दी में भी कहें तो भी इतना तो मानना ही पड़ेगा कि पुरानी हिन्दी या व भाषा के स्वरूप में सहायक भाविक तत्वों के अन्वेषण के लिए सही बाद की ही महत्वपूर्ण है। इस बाद की अपने में भी सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण कृतियों में होती है जोनी के निजी क्षेत्र में किसी गई हो। अभयवह इस तरह की और इस काल की कोईप्रामाधिक कृति से देश में Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ लिखी गई हो प्राप्त नहीं होती। मुसलमानों के निरन्तर आक्रमण से ध्वस्त मध्यदेश में हस्तलेखों की सुरक्षा का कोई प्रयत्न नहीं हुआ। महादेव की अपभ्रंश भाषा सारे भारत की पाका बनी, किन्तु मध्यदेश में क्या लिखा गया इसका कुछ भी पता नहीं चलता। (१) डा० सिंह के इन 'वचारों में पर्याप्त असंगति है। वास्तव में ST० लिंक शौरसेनी अपभ्रंश का सबसे ज्यादा नैकटु ब्रज भाषा का ही समझते हैं। यो नागर तथा रसैनी अपभ्रंश से हिन्दी, गुजराती, राजस्थानी व्रज पंजाबी, आदि की उत्पत्ति की बात पर भी उन्होंने विचार किया होता तो उन्हें मदेश में मिलने वाली सूर पूर्व जैन अजैन सैकड़ों कृति पलब्ध होती । परन्तु इस दृष्टिकोण में CTO सिंह संकुचित रह गए हैं। अतः आदिकालीन लौकिक और धार्मिक दोनों प्रकार की रचनाओं STO सिंह स्वयं वंचित रह गए हैं। (२) इसके अतिरिक्त ऐसा भी लगता है कि उन्होंने मध्यदेश की सीमाओं मैं माचीन राजस्थानी के जनपद का स्थान नहीं दिया है जो एक बहुत विशाल हिन्दी भाषी प्रदेश है। राजस्थानी को मध्यदेश से बाहर निकालना हिन्दी कीनींद को हिलाना होगा | अतः डा० सिंह यदि राजस्थान के प्राचीन भंडारों की शोध करते अथवा जूनी गुजराती की आदिकालीन सं० १००० से १५०० तक की कृतियों का परीक्षण करते तो उन्हें अभाग्यवश इस तरह की वीर इस काल की कोई प्रामामिक कृति जो मध्यदेव में लिखी गई हो, प्राप्त नहींहोती- ऐसा नहीं लिखना पड़ता। क्योंकि गुजरात और राजस्थान के अनेक राजकीय (अन) और जैन पंडारों में हजारों की संख्या में सूर पूर्व का साहित्य मिल सकता था। यह बात दूसरी है कि वह जब भाषा का न हो परन्तु ret की सोच होने पर सम्भव है कि उन्हें माया की इन कृतियों से भी प्राचीन मौर कोई कृति मिल सकती और उनसे मध्यदेश के स्थित भंडारों के Sarfe की प्राचीनता का अनुमान हो सकता। १- दूर पूर्व ब्रज भाषा और उसका साहित्य: ० ४१, डा० शिवप्रसाद सिंह, हिन्दी प्रचार पुस्तकालय, बारावती- १९५८। Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७ (३) ST० शिव प्रसाद सिंह के शोध ग्रन्थ में एक अन्य असंगति यह भी परिलक्षित होती है कि संक्रातिकालीन ब्रज भाषा अध्याय के अन्तर्गत जिन रचनाओं का परिव दिया है, उदाहरणार्थ जिन पद सुरि का स्थूभित्र फागु, विनय बंद सूरि की नेमिनाथ चपई आदि, वास्तव में ये रचनाएं व्रज भाषा की एक दम नहीं है। ये दोनों रचनाएं संक्रातिकालीन तो अवश्य ही है परन्तु प्राचीन राजस्थानी या जुनी गुजराती की है। इस प्रकार इन कुछ असंगतियों को ठीक किया जा सकता है। इन प्रयों का निराकरण लेखक ने प्रस्तुत ग्रन्थ में करने का प्रयास किया है। जो भी हो, मयावधि मादिकाल पर प्राप्त ग्रन्थों में डा० शिव प्रसाद सिंह की यहकृति एक मौलिक में पक्ष और श्रम सापेक्ष वैज्ञानिक बोध है जो आदिकाल के नये वथुथों का मार्ग दर्शन करती है। अन्य सामग्री: इन कृतियों के साथ साथ और भी कई लेख तथा छोटी छोटी कृतियों प्रकावित रूप में प्राप्त है। इन कृतियों के अतिरिक्त भी आदिकाल के सम्बन्ध में कुछ शोधपूर्ण फुटकर निबन्ध विभिन्न विद्वानों द्वारा लिये गए है। इस सामग्री में प्रमुख है: (२९) श्री आर नाहटा के लेव श्री अगरकद नाहटा ने भाविका की सामग्री, आदिकाल की विभिन्न कृतियां प्राप्त सामग्री का परिचय तथा वीरमाथा काल की कृतियों की सार्थकता • सार्थकता, प्रवीराज रासो की प्रामानिकता तथा वीरगाथा काल का माया क साहित्य, प्राचीन राजस्थानी साहित्य और उसकी कृतियां, दाब, का, प्रबन्ध-चरित, गीत, स्त्रोत, वन, तलहरा, सत्यवस्तु, विवाहले मंगल, आदि के लेवों के विकास को समझने में असाधारण बहायता मिलती है। इन लेखों में नाहटाजी मै प्राचीन रामस्वामी वीर मी मुजराती की कृतियों का निष्पक्षता से मूल्यांकन कर हिन्दी की सम्पन्नता में की इंद्रिय की है। १. उदाहरणार्थ- भरतेश्वर बाइबली रास, त्रिभुवन प्राचीन कुर्जर काव्य, गुजराती भावानों देवि का दे। दीपक प्रध, नरनारी संबोध, इतिहास बाद क्या प्रोब्वेलणकर Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ (३०)_ST० हीरालाल जैम के लेख: ' बिहार यूनिवर्सिटी के प्राकृत जैनलाजी इन्स्टीट्यूट के अध्यक्ष डा० हीरालाल जैन ने जैन साहित्य की प्राचीनता और आदिकालीन पुरानी हिन्दी और अपभ्रंश के साहित्य पर कई लेख लिखे है। ST० जैन के इन विबन्धों से आविकाल के साहित्य की पृष्ठभूमि को सपने में सहायता मिलती है। साथ हीडा० हीरालाल जैम में कारंजा भंडार के २०-२५ अप ग्रन्थों का जो मनोयोग से सम्पादन किया है उसमे विद्वानों को प्राचीन हिन्दी जैन साहित्य कीशोध की प्रेरणा दी है। डा० जैन की यह साधना अपभ्रंथ और प्राचीन हिन्दी जैन साहित्य की महत्ता को समझने के लिए निधान कलश है। साथ ही उसमें परवर्ती साहित्य को सपने और जैन भंडारों में अनेक कृतियाँ उपलब्ध होने की संभावना और अधिक तीव्र हो जाती है। | प्रस्तुत प्रबन्ध का अध्ययन और उसकी मौलिकता पिछले अध्ययन से उसकी विशिष्टता: उक्च कृतियों के कार्य विवरण को दृष्टि में रखते हुए प्रस्तुत प्रबन्ध को देवा जाय तो अनेक रूपों में उसकी मौलिकता स्पष्ट हो जाती है। (१) पुरानी हिन्दी की रचनाएं अद्यावधि जिसने विद्वानों ने भाविकाल के अप और उत्तर अप के जिवनी रचनाओं का परिचय दिया है उनमें पुरानी हिन्दी की रचनाओं का बहुधा अभाव ही रहा है। भयः प्रस्तुत प्रबन्ध में अनेकों पुरानी हिन्दी कृतियों का विश्लेषण इस कमी को दूर करेगा। (१) परानी हिन्दी का अर्थ बहुधा हिन्दी की सीमामों में विमानों ने पुरानी राजस्थानी, बूमी, गुजराती, मालवी और जब को मम भावार्थ मानकर अलग अलग रूप में उनके afare की पची की है। प्रत प्रबन्ध में इन सभी विपाकानों में प्राप्य १-कुलाई, १९५४ मा १४० १०२ पाहित्य में हिन्दी की जड़ ) । Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९ रचनाओं को पुरानी हिन्दी की सम्पत्ति समय कर हिन्दी साहित्य की सम्पन्नता स्पष्ट करने का प्रयास किया है। (३) पुराने प्रमों का निराकरण: प्राचीन राजस्थानी और चूनी गुजराती को अलग अलग भाषाएं कहकर उनकी अनेक कृतियों को हिन्दी की श्रीमानों से बाहर निकाल दिया गया था साथ ही गुजराती लिपि में रप जाने के कारण उनी हिन्दी कह सकना समीचीन नहीं समझे जाने की जो प्राति अब तक प्रबलित रही है, उस धारणा कालेस ने निराकरण किया है तथा अनेक गुजराती लिपि और भाषा में प्रकाशित प्राचीन राजस्थानी की कृतियों को हिन्दी में स्थान दिया है। यद्यपि १५वीं सताब्दी से पूर्व प्राचीन राजस्थानी सया जूनी गुजराती एक ही मागधी इस तथ्य को अनेक विद्धवानों ने अपने अन्धों वारा सिद्ध कर दिया है। ० विविध बाध्य सः मादिकाल के हिन्दी जैन साहित्य में जो विविध काम कम उपलब्ध होते है उन सबकी परम्परामों का विस्तृत परिचय प्रस्तुत प्रबन्ध में दिया गया है। जिससे उमके उद्यमय और विकास की कहानी स्पष्ट हो सके। (५) प्रामाणिक हस्तलिखित प्रतियt: प्राचीन हस्सनिति एवं प्रामाणि कृतियां क्या उनकी प्रतिलिपियों पर ही इसमें प्रकाश डाला गया है पर्याप्त पौलिक सामग्री पर्व भवीन पान्ड शिपियों का उपयोग पलायो अध्ययन की शिविरमा मिस करता है। (0) नई स्थापना देसी भागावों उपवन मापारी की सीमाएं, भाविकास का नामकरण, गामडी और सीमानों पर प्रकार गलने का पहला मौलिक प्रयास हीदी की पानी प्राचीन राजस्थानी, जूनी गुजराती, अग, माली, माविपीयों का समावेश र माविकास की सीमा निर्धारण *•.... . या गया है। जिससे उतार पांच से परि पूर्वक म समीयों का माहार हो । Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० (७) वैज्ञानिक वर्गीकरण ___प्रस्तुत प्रबन्ध में रचनाओं के वर्गीकरण का आधार प्रमुख रूप से काव्य रूपों को दिया गया है। छन्दों और विषयों की इष्टि से इन काव्य रूपों का अध्ययन प्रस्तुत किया गया है ताकि वर्गीकरण में कानिकता तथा इष्टिकोण में मौलिकता आ सके। ( केवल जैन कति प्रस्तुत गन्ध में केवल मात्र उन्हीं प्राचीन प्रकाशित अप्रकाप्ति कृतियों को स्थान दिया गया है, जो जैन कृतिया । अतः अजैन कृतियों का विस्तार में परिचय इस प्रबन्ध की सीमाओं से परे और विषयांवर समझ कर उनका शोधपूर्ण विवेचन प्रस्तुत नहीं यिा गया। अतः इतने विशाल जैन साहित्य का समाहार करने वाला ह पहला मौलिक पन्ध है। (१) कोरा धार्मिक एवं उपदेश प्रधान साहिता ही नहीं: ____ अद्यावधि आचार्य राम चन्द्र शुक्ल के अनुसार जैन साहित्य की साम्प्रदायिक धार्मिक और उपदेश प्रधान कार उपेक्षा की जाती रही है। जैन कवियों के प्रति उनकी इस सी धारणा का निराकरण प्रस्तुत प्रबन्ध में किया गया है। इस रचनामों का अनुशीलन ।रने पर या स्पष्ट ज्ञात हो सकेगा कि यह साहित्य कितमा विविध पुरी और सरस है तथा धार्मिक साहित्य और साम्प्रदायिक कहकर इसको बाहित्य की सीमाओं से मना नहीं किया जा सकता। (1) अजैन लिया। बत्कालीन उपलमय जैन पड्व या बहा रबमानों के अंश मादिकालीन जैन अजैन रचनाओं के नात्मक अध्ययन के लिए दिए गए हैं जिनसे मौन रकनाजों की घोष की और बिइवानों ग ध्यान पा सके। (1) था परम्पराः मिदी बन पाय प्रा विविध क्यानों की परम्पराओं (oples ) पर एक पिच विवेचन प्रस्तुत ग्रन्थ में किया गया है। क्या परम्परामों और या कड़ियों का स्वन में मील होगा। Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२) देवी छन्दः देशीदों के इतिहास एवं परम्परा का प्रारम्भ करने वाले विविध छन्दों पर प्रकाश डालकर संगीत अ"र छन्द के सम्बन्ध में इन आदिकालीन रचनाओं का योग प्रस्तुत प्रबन्ध में स्पष्ट हो जाता है। (aलोक साहित्य का अध्ययन: इन्हीं रचनाओं में अनेक कृतिय लोक कवियों की है जिनके वागवेदाध एवं प्रवाह के साथ साथ मधुरता तथा प्रासादिकता का अनुमान इन लोक. परम्परान्य कलियों से सम्भव हो सकेगा। (१४) प्राचीनतम गदय रचनाएं: प्राचीनतम पझ्य रचनाएं ही नहीं, भादिकालीन हिन्दी गद्य रचनामों का समानेड भी इसमें किया गया है। ताकि हिन्दी गद्य और उदभव के विकास में प्राचीन राजस्थानी, मालवी, जूनी गुजराती आदि का समन्वय स्पष्ट हो सके। गद्य की रचनामों का वर्गी करण तथा प्राचीन प्रतियों का अध्ययन भाविकालीन गद्य की सम्पन्नता पर प्रकार डालता है। (१५) अपच साहित्य का दिी के विकास में योगः मपाश की प्राचीन रबमाए, उनका हिन्दी के निर्माण में योग, उत्तर अपांश की पुरामी मिदी की रवमानों के उदारण, मादिकात की इन काव्य धारागों का परवर्ती गल में विकास, कास्य प,उमकी परम्परा आदि का अध्ययन मादिकालीन रबनानों की भूमि का अध्ययन करने में योग देखा है। अवक की लगभग उपाय मी तियों मूल तत्वों को लेखक ने समझाने का प्रयास किया है। (११) आदिकालीन हिन्दी जैन साहित्य की प्रमुख एवं गौव काव्य परम्पराएं: न्य और राग की दृष्टि सेवा काव्य मोरे अतिरिका विशिष्ट काय मी पर स्वयं कम से प्रकार गला गया है साथ ही विविध गीति यो का मौष काय परम्परा बर्गत अध्ययन इस ग्रन्थ में प्रस्तुम दिया गया () गीय परिस्थितियां और जैन सिधान्यों का परिणा अन वाय पावल्यमसन ले लिय सत्कालीन Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ युगीन परिस्थितियां और जैन धर्म के सिद्धान्तों का सामान्य परिचय देकर कृतियों के प्रयुक्त दार्शनिक सिद्धान्तों का परिचय भी दिया है। (१८) विविध दृष्टियों से मूल्यांकन : प्रस्तुत ग्रन्थ में रचनाओं की समयसाहित्य आलोचना करते समय प्रबन्ध, भाषा संस्कृति, धर्म तथा काव्य रूप एवं शैलियों सम्बन्धी तत्वों का भी मूल्यांकन किया गया है जो जैन साहित्य के स्वरूप, वैविध्य और लक्ष्य पर प्रकाश डालता है जिससे धर्म नैतिकता तथा चरित्र सम्बन्धी महत्वपूर्ण तथ्यों का स्पष्टीकरण हो जाता है। (१९) प्रत्येक शताब्दी के प्रत्येक चरण की प्रतिनिधिः ये रचनाएं प्रत्येक शताब्दी के प्रत्येक चरण का प्रतिनिधित्व करती हैं तथा इनकी हस्तलिखित प्रतियां प्रामाणिक रूप में सुरक्षित मिल जाती है। अतः डर शताब्दी की इतनी अधिक रचनाएं एक साथ मिलने से इनकी प्रामाणिकता में कोई संदेह नहीं रह जाता। (२०) साहित्यिक और लोक भाषा काव्यः प्रस्तुत ग्रन्थ में जिन कृषिों का विवेचन है ये साहित्यिक हो है ही, साथ डी लोक भाषा मूलक पी। क्योंकि जैन कवि घर-घर, नगर नगर, प्राम-ग्राम अपनी raनाओं का लोक आस्थानों द्वारा प्रचार किया करते थे। अतः प्रस्तुत ग्रंथ में दोनों प्रकार की रचनाओं का विश्लेषण किया गया है। (२१) रचनाओं की ऐतिहासिकता age ग्रन्थ में अनेक कृतियां विशुद्ध ऐतिहासिक है जिनसे ऐतिहासिक स्थानों, gat यात्रार्थी संघ तत्कालीन राजा वास्कृतिक पर्वो पतिहासिक घटनाओं , आदि का परिचय मिलता है। ये रचनाएं विश्वसनीय है तथा इनसे तत्कालीन राजाओं का जैन जैन कवियों से सम्बन्ध होने के प्रभाव भी प्रस्तुत प्रबन्ध में दिए गए है। (२२) रसराज प्रस्तुत प्रथ में विवेच्य कृतियों की एक बड़ी मौलिकता यह भी है कि इसमें मराज श्रृंगार को न मानकर वान् को माना गया है। प्रत्येक कृति में धन की प्रधानता है। अनेक स्थानों पर इंगार चरम पर पहुंच जाता है तो भी में जाकर वह निर्वेद की क्रोड़ में पूर्ति है। Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (1) राज्याशित रहितः जनता का साहित्य: इस प्रबन्ध में लेखक ने जिन रचनामों का अध्ययन प्रस्तुत किया है ये राज्याश्रय से परे जनता के आचल और मन्तराल में हुबकर लिखा गया स्वाभाविक साहित्य है अतः इस इष्टि से इस ग्रन्ध की मौलिकता में वैशिष्ट्य परिलक्षित होता है। (२४) प्रस्तुत ग्रन्ध की समाज और साहित्य को देन: आदिकाल का हिन्दी जैन साहित्य अन्ध में उन प्रसिद्ध अप्रसिद्ध कृतियों का विवेचन है जिनका मानवता के निर्माण में गहरा हाथ है। मानव जीवन के स्तर का सहभावनामों की ओर उन्नयन (serimadan र अहिंसा शान्ति आदि के संदेश द्वारा मानव की नैतिक निष्ठावो की जाति और विजयिनी मानवता की विश्व संवेदना इन कृतियों में है अत: प्रस्तुत प्रबन्ध का महत्व एवं समाज और साहित्य को गोग दान और अधिक बढ़ जाता है। (२५) साहित्यिक आलोचना: प्राप्त सामग्री तथा तथ्याख्यान और तथ्य निरूपण (मत्य) को एक तरफ रखने के बाद लेखक ने कृतियों की साहित्यिक आलोचना प्रस्तुत की है। जिससे शक्षियों के भाव प और कला की सुषमा का अध्ययन हो सके। निरपेक्ष दृष्टि के इन रचनामों का अध्ययन से यह बात हो जाता है कि इनमें से अनेक कृतिया इध साहित्यिक कल्य की दृष्टि से लिपी गई। इन्हीं वरमों के बाधार पर यह कहा जा सकता है कि प्रस्तुत प्रबन्ध अपने बाप में मीकि त्या अनेक प्रमों का निराकरण करने वाला है ही वह आदिकाल के अध्ययन सम्बन्धित एक बाब प्रभाव की पूर्ण करने का प्रयास करता है। प्रस्तुत प्रकाश लेखक ने पापा का अध्ययन नहीं किया है। क्योंकि यहलेखक के लिए विनावर विश्व था। मामा विज्ञान के लिए येतिया पर्याप्त बोध गै अपेक्षा सही है। विविध काम मो का अध्ययन करते समय अमात्य पूर्व कृतियों के पदों का विकर उनका वर्गी, परिका, मावि का सामान्य वन कर दिया है। पापि यह नियम रखामी बाबीं पाला गया है। Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ भाषा की दृष्टि से इस रचनाओं की ध्वनि, शब्द, रूप और वाक्य विन्यास आदि का शोध पूर्ण विश्लेषण होना अत्यावश्यक है। इन कृतियों की भाषा का अध्ययन इसलिए भी अत्यावश्यक हो जाता है कि प्राचीन राजस्थानी जूनी गुजराती, प्राचीन ब्रज, मालवी, आदि विभाषाओं में अपs के ara कितने हैं, डोरसैनी और नागर अप से देवी पाकाओं में पारस्परिक सम्बन्ध क्या है, तथा उत्तर अपभ्रंश ने हिन्दी का स्थानकितनी तरह से प्राप्त किया है आदि सभी महत्वपूर्ण प्रश्न इन कृतियों के शब्द, रूप, ध्वनियों आदि के वैज्ञानिक अध्ययन होने पर ही डल हो सकेंगे। अतः प्रस्तुत प्रबन्ध में भाषा के प स्वतंत्र शोध का विषय समझ कर अनुसंघित्सु स्नातकों के लिए को भाषा विज्ञान के छोड़ दिया गया है। । कृतियों का पाठ सम्पादन इन रचनाओं का पाठ सम्पादन हिन्दी साहित्य के लिए बहुत बड़ी समस्या बना हुआ है। परम सौभाग्य की बात है कि हमारे देश के विभिन्न विश्व विद्यालयों ने पाठ विज्ञान को शोध का विषय बनाना स्वीकार कर लिया है। अतः अब बहुत सम्भव है कि पाठ सम्पादन पर इन कृतियों के लिए कार्य हो सके।राजस्थान ही नहीं, गुजरात, मालवा, इन्टेल, दिल्ली आदि प्रदेशों के जैन अजैन भन्डारों में विशाल संख्या में प्रतियां परी पड़ी है और जब तक उनके सम्यक वैज्ञानिक सम्पादन होकर पाठ प्रकाशित नहीं हो जाय तब तक इन कृतियों के विषय के सम्बन्ध में कुछ भी कह समाजसम्भव नहीं, तो कठिन अवश्य है। जैनियों के माहों में मयावधि यह परम्परा प्रचलित रूप में मिलती है कि उनकी प्रतियों का इन प्रचार हो । मतः यह astryक धनी जैन आज भी प्रतिलिपिकारों को आजीविका प्रदान करते हैं और प्रतियों की प्रतिलिपि करवाते है। साथ ही एक ही बाबा की अनेक प्रतिमां राजस्थान, गुजरात के विभिन्न भंडारों में मिलती है जिसपर विभिन्न कलम से प्रतिलिपि होने के कारण अनेक प्रकार के प्रादेशिक प्रभाव ब्रूम पड़े है। बवः इन प्रभावों और प्रदेषों से मूल पाठ की रखा करना परम आवश्यक प्रतीत होता है। बस्तुतः पाठ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५ मिश्रण, पाठों के मिलान लिपिकारों की त्रुटियां, प्रतियों का वंश निर्धारण, पुनर्निमाण तथा पाठ सुधार आदि पाठ विज्ञान के विभिन्न सिद्धान्तों का प्रयोग करने पर ही इन कृतियों के मूल अथवा सम्भाव्य पाठ तक पहुंचा जा सकता है। आदिकालीन हिन्दी जैन कृतियों में कई कृतियां प्रकाशित है उदाहरणार्थ- प्राचीन गुर्जर काव्य संग्रह परतेश्वर बाहुबली रास, त्रिभुवन दीपक प्रबन्ध, प्राचीन फागु संग्रह, • नर नारी संबोध, गुर्जर रासावली, प्राचीन गुर्जर काव्य, ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह, ऐतिहासिक जैन काव्य संचय आदि। परन्तु इनमें कुछ कृतियों को छोड़कर अधिकांश पाठों के सम्पादन अवैज्ञानिक है। अतः पाठ विज्ञान के विद्वानों का ध्यान लेखक अत्यन्त विनम्रता से इस ओर आकर्षित करता है। इन कृतियों की भाषा का अध्ययन भी भी सम्भव हो सकता है जब इन कृतियों का सम्यक पाठ सम्पादन हो तथा इनकी प्रामाणिकता सन्दिग्ध न हो । यो प्रामाणिकता तो असंदिग्ध है ही क्योंकि एक ही मूल प्रति की अनेक प्रतिलिपियां विभिन्न भंडारों अथवा शाखाओं से मिलती है। साथ ही अनेक कृतियां ऐसी भी मिलती है जिनकी पुष्पिकाओं में प्रतितिधिकार का नाम, समय, रचना काल, स्थान सही रूप में मिल जाता है। अतः इन रचनाओं की प्रामाणिकता पर प्रश्न चिन्ह नहीं लग सकता। साथ ही यह भी सम्भव है कि अनेक रचनाओं की परम्परा अनुश्रुतिबदूश होने से इनमें अनेक प्रसिद्ध अंड और भूलें हो। अतः इस और पाठ विज्ञान की दोष की प्रत्येक गुंजाइस है। Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ATTI Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी साहित्य के आदिकाल काग और समान आदिकालीन हिन्दी जैन साहित्य का सम्यक अध्ययन करने के लिए तत्कालीन गुगीन परिस्थितियों में परिचित होना बहुत आवश्यक है। साहित्य युग का प्रतिनिधि होता है। उसके चतुर्दिक समाज में होने वाले छोटे बड़े लगभग सपी इलचलों का उसमें समावेश होता है। अतः युग में होने वाली राजनैतिक, सामाजिक, धार्षिक, आर्थिक, सास्कृतिक साहित्यिक आदि सभी घटनाओं का प्रभाव साहित्य पर पड़ता है। अत: साहित्य में समान तथा इतिहास की प्रत्येक हलबल का प्रभाव चित रहता है। वास्तव में युगीन परिस्थितिया किसी साहित्य को समझने में भूल तत्वों का कार्य करती है। विस प्रकार किसी कवि के काव्य का सम्यक् अनुशीलन करने के लिय उसकी .गीन परिस्थितियों वैयक्तिक जीवन तथा दर्शन अर्थात मूल तत्वों का अध्ययन अत्यावश्यक है डीक इसी प्रकार उत्तर अपांच या पुरानी हिन्दी की इन कवियों को समझने के लिय उसके मूल में तत्कालीन ग बत्व का अध्ययन करना होगा। युगीन परिस्थितिया मुगीन परिस्थितियों में गत निम्माधिपातों पर विगर किया जाता है. (a) रामैतिक परिस्थितिमा, (a) शकिपरिस्थिलिया . ( कि परिस्थितियां (a) हरिया परिस्थितिया Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७ (अ)- राजनैतिक परिस्थिति: श्रादिकाल की भूमि जिन राजनैतिक परिस्थितियों के आवल में पोषित हुई है उनकी संझाति असाधारण वैविध्य से परिपूर्ण है। १००० से लेकर संवत् १५०० ई. तक हमारे देश में राजनीति ने अनेक करवटे बदली है। राज्य के लिए होने वाली ये अनेक प्रान्तियां इतनी अधिक प्रसिद्ध है कि एक ओर उत्थान की दृष्टि स काल को स्वर्ण काल कहा जाता है तो दूसरी और इसे स्वतोव्यापातों का काल। वास्तव में भी उतावी कर रखी ग्वादी क इस मुग को राजवंशीय युग कहा जा सकता है। मध्य देश में ही नहीं मार लगभग सभी प्रदेशों में जिन राजनीति के हमें दर्शन होते है उसमें जितने भी उथल पुथल गुपये सब आदिकालीनदी नलियों में पृष्ठभूमि की निधि को जा सकते है। ये राजा लोग इतने अधिक शक्तिशाली थे कि प्रत्येक रागा स्वयं को ईश्वर का अवतार मानता था परन्तु सको बड़े दुर्भाग्य की बात इन राय थी किये परस्पर विद्रोह विरोध और यी क्या मदतोषवा बीभूत थे। मस: इन महत्वपूर्ण राजनैतिक परिस्थितियों की राय रखना किस प्रकार हो रही थी यही की महत्वपूर्ण घटना है। वास्तव इन राजनैतिक परिस्थितियों का अध्ययन निम्नानिको ने माना : (क) राम राम गजमीन विभिन्न राज्यों जो स्थितियों थी उगाने साहित्य मावि किया है। इन रानैतिक प्रादेशिक परिस्थितियों का विभिन्न प्रदेश और बालों के उत्थान पन ग पन्या रिता विभिन्न राज्यों ने बाइन बौदोनों ग प्रभाव मिलामि मा th. Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ (३) (क) राजर्वत्र राग : · इस युग का प्रारम्भ यद्यपि छठी शताब्दी से होता है, इसी शताब्दी को लेकर १२०० ई० तक देश में अनेक लव प्रारम्भ हुई घटनाओं की इस थलपुथल मे अनेक साहित्य प्रेमी विद्वानों को भी जन्म दिया है। विभिन्न प्रदेशों में उस समय जिन प्रसिद्ध वंशों का राज्य था उनके पारस्परिक युद्धों और उससे उत्पन्न विभिन्न स्थितियों का परिचय विभिन्न राजपूत राज्यों के रूप में विसरा पड़ा है। इन वंशों में मौसरी वंश, प्रतिहार वंश, गुर्जर, परमार, पाल, चालुक्य, चौहान, गाडहबार, और सौलंकी अत्यन्त प्रसिद्ध है । मौसरी यंत्र १ मध्य देश में उस समय अनेक प्रसिद्ध जनपद इन जनपदों में कुछ, पंचाल, सूरसेन, कौशल, काही विदेश, अंग, दक्षिण कोसल, वत्स, बेदि, अवंति तथा मत्स्य प्रमुख है। इन प्रदेशों में विभिन्न विभिन्न प्रकार की अनेक बोलियाँ हैं। जिनमें प्रमुख प्रमुख है-बड़ी बोली, क्रम, अवधी, भोजपुरी, मैथिली, मगही, ranड़ी बोली, बुन्देली, मालवी और जयपुरी। इन राज्यों में मध्य देव मौरियों का राज्य था। साथ ही पंजाब, गुजरात प्रदेशों में गुरुवर बावि प्रमुख थी। गौवरी बंद बालों ने कमीज को खूब उमर उठाया। गुप्त साम्राज्य के पश्चात प्रमाकर वचन का लड़का हर्ष महूदी पर बैठा। वर्ष मे मालव देव के गुटों और ममय के शासकों को बार बार डराया। मालन, जयन्ति उसमे state forवाद में के राजा को हराकर सम्पूर्ण राजस्थान को अधीन कर लिया है। हर्षाली राजा का परिचय प्रविवृद्ध यात्री वेदी में मिलता है। अपने कई दूसों को मेवा तथा अपने देश की कीर्ति का प्रकार फैलाया । साहित्य का विकास, पृ० १५, डा० हमारी प्रसाद द्विवेदी । Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन 4 हर्षवर्दध के पश्चात् वर्मन ( ७२७-०५२) का प्रसिद्ध राजा यशोवर्मन हुआ। स्वयं शोवर्मन को काश्मीर से हार माननी पड़ी। आठवीं शताब्दी पी वी के समान अत्यन्त हलवल प्रधान है। यो इसी समय ही हमारे देश पर अरबों ने सिन्ध पर विका प्राप्त की थी। बाठवीं शताब्दी के मध्य तक इन अरयों के अनेक आक्रमण हुए। वर्णन के यशोवर्मन के दरबार में उत्तर रामवरित बैंस नाटककार तथा प्राकृत कवि वाक्यपति जैसे विद्वान आय : वर्ष के समृद्धिशाली राज्य की राज्धानी कन्नौज को ७८० मायुध के शासकों ने हाथ में लिया। हर्षवर्धन के सामाग्य के जो टक्के गुप उनमें निहार बंगाल के पाल, गुजरात और मालवा के प्रतिहार प्रमुख थे इन दोनों की आमनीन पर लगी धीं।' इधर दक्षिण के राकूट भी कन्नौर को 'लना चाहते थे। आयुर्व के रामा इन्द्रायुध और चायच होनों निर्मल थे। वस्तुतः प्रविकार बत् राब (सन ) और मोडेश्वर धर्म पाल ने माधव कनीय भगीरथ प्रबत्म लिय। पर वर दक्षिण रामर राणा व (ne-m ने की बात पर पानी फेर दिया। रामलूट म माना की प्रथा मिनी की गाय, क्योकि उन्ही की मासे अवसाहित्य महापि स्वयंम् कि बाबराब स्वयं अ y किसान कई अन्य रचे है। इससे पा रास्ट और प्रतिहारों के प्रकर मन की बाग बनी सी थी। मन में तीनों जन नायक एतदर्थ नये हए। मयाब नगरी को रावामी शेड़ना नहीं चाहती थी। ..दीपारिवका आदिकाल से, हा सारी प्रसाद होती। देशिवमारा राजस्थान. ४ासी विद्याप्रकार हिन्दी पवन प्रवास, १ . Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० महासि राहुल सांकृत्यायन ने लिया है कि "कन्नौज नगरी देसी स्वयंवर कन्या थी जिसे राकूट प्रतिहार और पाल टीनों व्याहता चाहते थे। लेकिन स्वयंवर कन्या सौत बन कर नहीं रहना चाहती थी । अब तीनों उम्मीदवारों को फैसला करना था कि कौन अपना देश छोड़ कान्यकुज जाने को तैयार है। प्रतिकार नागभट्ट ने फैसला किया वह कन्नौज का स्वामी जन गया बाकी दोनों मुंह ताकते रह गए। नागभट्ट मंदीर (जोधपुर) तथा उज्जैन का शासक था । उज्जैन और कन्नौज के दो केन्द्र हाथ आ जाने प्रतिहारों की शक्ति दिवगुण हो गई। मिहिर भोज प्रतिहारों में प्रसिध वासक (सन् ८३६-८५) हुए है। मिहिर भोज का आतंक सारे मध्य के पर था। मिहिर भोज ने पाल और राष्ट्रकूटों से अनेक युद्ध किए। अरबी लोग उनसे घबराते थे। प्रतिहार नागभट्ट उनसे करीब करीब महमुद के हमले तक कन्नौज उत्तरीभारत और हारे भारत के लिए जबरदस्त ढाल बना रहा। " बन गए। (4) राष्ट मिहिर भोज के बाद महेन्द्र पाल प्रथम (सन् ८८४-९१०) ने साहित्य सेवा में बड़ा योग दिया। प्रसिद्ध महाकवि तथा लेखक सस्वर उन्हीं के दरबार में थे। महाकवि राजसेवर में काव्यमीमांसा, कर्पूरमंजरी, बाल भारत, बाल रामायण आदि ग्रन्थों की रचना की है। ब्यू९४८ में प्रतिहारों अंतिम राजा देवाल हुए हैं, फिर तो प्रतिहारों में कोई यह नहीं रहा और उत्तरी भारत भावा मध्य देव ने स्वयों में बट गए तथा अनेक नये राजवंश भी " इस मंत्र की करता पुलकेशी के वाक्य यंत्र की समाप्ति करने पर सम् ७५० ई० में हुई। २०० वर्षों तक राम्दस्ट राजा बड़े शक्तिशाली बरे रहे। श्री राहुल स्वावन। देश ० १५२, डा० धीरेन्द्र वर्गी | १- हन्दी काव्य वारा: १० १० हिन्दी काव्यधारा: राहुल Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१ (६) कृतक और कभी कभी कानी तकनका विशाल राज्यला हुआ था और सुदूर दक्षिण रामेश्वर ही नहीं, कभी कभी तो सिंहल पी उनकी आज्ञा को मानता था । कितनी ही बार उनके चोड़ों की टाप ना और गंगा के इवावे (अंतर्वेद) में प्रतिध्वनित हुई थी । कितनी बार उनके सैनिक युक्त प्रान्त के दुर्गा में मालिक बनकर बैठते थे। १ पालवंश: इस वंश में गोपाल और धर्मपाल प्रमुख शासक थे। गोर्डेश्वर नागभट्ट को हमारे साहित्य को ८४ सिद्धों को देने का है। अनेक कवि इनके यहां आश्रय पाते रहे। अतः पालवंश के राजाओं को अपभ्रंश के स्वयं और पुष्पदंत जैसे कवि उत्पन्न करने तथा उन्हें आश्रय देने का यह प्राप्त है। नये वंश: गाइडवार प्रतिहारों के पश्चात् बने गए राजवंशों में अजमेर के चौहान, बुंदेल खंड के चन्देल, त्रिपुरी के क्लचुरी तथा मालवा के परमार प्रमुख थे। कन्नौज में प्रतिहारों का शासन बना था। इस वंश में राज्यपाल- अनंगपाल तथा अंतिम शासक यशपाल हुए। राज्यपाल के समय सुस्तान मुकुक्तीन ने तथा अनंगपाल के समय महमूद गढ़वीं के आम हुए तिने प्रतिहार शासक (सन् १०३६) बिन्होंने १०३६ तक राज्य किया। पाव कमी का कुछ वैभवशाली केन्द्र प्रतिवारों के बाद गाहड़वारों के हाथ लगा। गाइबारों में इन्द्रदेव, गोविन्द चन्द्र के पश्चात उनके पुत्र महाराज १- हिन्दी सम्म पारा रा सीकृत्यायन पू० २५ । Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ () विजयचंद सन् १९५४ में राजा हुए। गाबर के अन्तिम शासक अबंद । गंगा की घाटी में इनके राज्य का विस्तार तक भी गया तर्क था एक प्रकार से यह वर्तमान उत्तर प्रदेश और बिहार का सम्मिलित राज्य था। इन्हीं के समय गौरी ने मध्यप्रदेश पर आश्मन क्या। पृथ्वीराज को हराने के बाद गोरी ने जयनन्द की सेनामों में पहली बार फुटपेड़ की। मन् १९९९ में इटावा की भेड़ में जयचन्द मारे गए और पहली बार हमारे देश का राज्य स्थायी रूप में मुल्तान शासकों के हाथ में, जो विधर्मी और विभिन्न संस्कृति को मानने वाले थे, सीम। जयचंद बाहित्योभी शक थे। उनके दरबार में श्री हर्ष रहते थे, बिन्डोति नै रिस असे बाल कास्यों की सर्वना की। इस प्रकार बैभव की नगरी मीर ने सताब्दियों तक शासकों को आकर्षित किया । कभी भी इन मध्यदेश की इकाईयt अलग हो जाती थी। मध्यदेश के दक्षिणी भाग में जिम, चौडान कसरी, मन्टेल और परमारों पर पहले आशिक प्रकाश डाला पौहान - बारी (सांगर और मेर) AAT। मेर बसाने बाले भयराबाजी साबी बागा इसी बीसलदेव विद्याराज - विलीनीयको गाड़वार रामा विहीना। बीमदेव गल प्रेमी सी बाहित्य रचना करते थे।यही - विजय(प ..., डा. वीरेन्द्र मा प्रकाश मिशारी राम्याण परिषद, पटमा। ( O ran बाहिडिवीर व्यास्थान, 10-10, "MAारी विदी। Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३ नहीं साहित्य प्रेमी होने के साथ साथ वे विद्याप्रेमी तथा विद्यानुरोगी भी थे। अजमेर का ढाई दिन का झोपा इन्हीं के द्वारा स्थापित एक विदयापीठ था। स्वयं बीसलदेव ने हरकेलि नाटक लिखा है जिसके कुछ भाग पत्थर पर सुदे अजमेर की एक मस्जिद में मिले है। हिन्दी के प्राचीन काव्य नरपति नालब कृत बीसलदेव रासों में इन्हीं बीसलदेव का वर्णन है। महाकवि सोमदेव के ललित विग्रह राज के कुछ भाग भी इसी तरह मिले है। अजमेर दिल्ली पर दूसरे प्रसिद्ध शासक (११७१-१२) पृथ्वीराज हुए इन्होंने कन्नौज के जयचन्द की पुत्री संयोगिता का अपहरण कि । गोरी को इन्होंने कई बार हराया तथा महोने के चन्देल शासक परमाल पर आक्रमण करके इन्होंने कई किले जीते। ये सन् १९९२ में जयचन्द की सहायता लेकर फिर लड़ने आये और देश की कूटनीति और फूट के कारण अन्य में हारे तथा मारे गए । कहते हैं कि पृथ्वीराज रासों के लेखक महाकवि बन्द इन्हीं के दरबार में रहते थे। इनकी मृत्यु के पश्चात दिल्ली अजमेर का शासन विदेशी आक्रमणकारियों (मुसलमानों) के हाथ में चला गया। कलडरी मंत्र: जबलपुर के कोक्स का यह राज्य कलचुरी वंश का था । महाराज य (१०११-१०४१) अत्यन्त पराक्रमी है। इनका दाष्य प्रयाग, काशी, उत्कल पर्व कम तक था। अन्त में ये मोज परमार से हर गए। मंगुली और राजा भोज की कहावत प्रसिद्ध है। इनके बाद यह बंधवा हो गया। इसके दिले बड़े प्रसिद्ध थे। प्रसिद्ध शासक जेजा के कारण ही इसे जेजाक मुक्ति कहते है। उदक में बजुराहों के प्रसिद्ध मंदिर को ब के महाराज यशोवर्मन ने बनाया। धग और पैड के बाद अन्तिम चंदेल राजा परमाल Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ (९) थे । (११६५-१२०३ ) । इन्हें पृथ्वीराज ने हराया। परमाद्रि देव ने कुतुबुद्दीन एवक से भारी शुद्ध किया। पर अन्त में वे हारे। चंदेल के प्रसिद्ध स्थानों में प्रसिद्ध कलात्मक स्थान जैव मन्दिर तथा बजुराहों और कालिंजर के दुर्गों को नहीं भुलाया जा सकता। परमार वंशः अन्तिम वं मालवा के परमारों का था । पहले परमार शासक उपेन्द्र प्रतिहारों के आधीन थे। उनके निर्बल पड़ते ही (सन् १५०) में मालवा के परमार राजा स्वतंत्र हो गए। प्रसिद्ध साहित्य प्रेमी महाराज मुंज (९७४-९९८) इसी वंश में हुए मुंज ने हमारे देश को बड़े बड़े विवान साहित्यकार प्रदान किए। इनके दरबार में नाट्यशास्त्र व दशरूपक के प्रसिद्ध लेखक धनंजय तथा दशरूपा व लोक लेखनी के धनिक थे। गट्ठ हलायुध जैसे प्रसिद्ध व्यक्तित्व इन्हीं के दरबार की उपज है। मुंज की इस रही सही कमी को इसी वंश में होने वाले महाराज पोज ने पूरी कर दी। इनके राज्य में परमार वंश की प्रगति चरम पर पहुंची। मोज साधारण विक्रानुरागी और संस्कृत प्रेमी थे। मोज के भाई उदयादित्य का बनाया हुआ उदयेश्वर का मंदिर उदयपुर के पास बड़ा है। मोज ने अनेक संस्कृत में रचनाएँ लिखी है। मुंज और भोज दोनों बाबा भतीजे संस्कृत प्राकृत के साथ देवी मामा के प्रेमी है। एक भोजवाला नामक प्रसिद्ध विद्यापीठ मी मोज ने बनाया जिसको बाद में मानों ने मस्जिद बना लिया। किर (१३०५ ) पर काउद्दीन बिल्ली का शासन हो गया। गुजरात के सोलंकी राजा दोन वेदि के क्लरि राजा कर्म ने तुर्कों से कई राज्य वाि लेकर उत्तरी राजस्थान के रास्ते विन्ध तक धावे कर उनसे लोहा लिया। नवन्ति के अतिरिक्त दहपुर (नववीर) और मेवाड़ का अधिकार भी परमारों Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के अधीन था। बाग (डंगरपुर बासवाड़ा) पर :नकी दूसरी शाखा सामन्त के रूप में राज्य करती थी। स्था समत पश्चिमी राजाधान और दक्षिणी पूर्वी सिन्ध में लोटे छोटे अनेक परमार सामन्त १५वीं शताब्दी तक रहे। उत्तरी राजस्थान में भरी का चौहान राज्य भी महमूद के बाद बहुत अधिक प्रमुखता में पाया और हवीं शताब्दी के उत्तराईध में अवाहिन पाटण का चौलस्य (बोलकी) राग्य भी फिर से संभल बैठा। वा के भीम कोलंकी ने वर्ष की सहायता से भोज पर चढ़ाई की। भीम गोलंकी के उत्तराधिकारी सिद्धराज जयसिंह हुए और कुमारपाल के समय गुजरात का सोलंकी राज्य बहुत कब गया। जयसिंह ने दापुर, चित्तौड़ मेवाड़ का पूर्वी प्रदेश पलिंग बी, और उदयपुर तक प्रदेव जीते। बेडन के पूर्वी तट पर दूर तक हर इसके द्योतक है। मेवाड़ जिल पुनों बाप रावल बात प्रसिद्ध है जिन्होंने भरव माम्मन के समय दाहिर की बड़ी सहायता की। अवन्ति विजय के बाद मेवाड़ डिल पुन गुजराबवालों के सामन्तो गए। मेवाड़ पश्चिम में आ परमार राज्य तथा गलौर माटो रोहान बारम्भ से ही गुजरात मोरपियोंीिन थे।मार पाल के समय भाटी मज्जल या सल, विने (१५) बनेर नगर की स्थापना की, मी पाझयो गाना लिया गया। उ सनेर बीर पनि पूर्वमा कानुषा उतारी और मध्य राजस्थान बीरे पीरबाबरी पाचौहान राज्यों विलीन हो गया। ती पूर्वर पाहायो (-१), अपच के अनेक कवियों को म बिबा दिमा बहाय तथा गुर्जर क्षेत्र में रवित हुई । बिवानों ने इसके दरवार को बैन का है। बी ... कधीरे धीरे हो गया। Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ (११) प्रेम वार्यावर्त में भी इसी प्रकार के छोटे छोटे अनेक राज्य की स्थापना हुई। उदाहरणार्थ उत्तरापथ में काबुल तथा पंजाब का प्रसिद्ध राजवंश पूर्व में कामरुप के वंश बंगाल में पाल तथा सेन और कलिंग उड़ीसा के राजवंश, कश्मीर में ककेटिक तथा उत्पल बैंक, दक्षिण में बदमी के वाक्य देवगिरि के यादव aT AT के काकतीय आदि। इन राज्यों में भी परस्पर मेल नहींथा, पर saet freकृतिक स्थिति में अधिक अन्तर नहीं है। इनमें कभी कभी विवाह और गुद्दों से भी सम्पर्क मिल जाता है इस प्रकार इन विभिन्न वंशों की उक्त स्थिति को देखते हुए राजवंश काल की राजनैतिक स्थिति बहुत संतोषजनक प्रतीत नहीं होती। मध्यदेश में परस्पर युद्ध होते रहे। पारस्परिक स्पर्थी बिवाह, आदि युद्ध के कारण थे। साम्राज्यलिप्सा से विभिन्न क्रांतियां हुई। नींव कमजोर होती गई। इन परिस्थितियों के होने पर भी यह स्पष्ट है कि इन राजाओं ने संस्कृत, प्राकृत और पत्र के महाकवि तथा लेखक पैदा किः । स्वयंम् पुस्पदन्त, fageafa बादि अनेक इनके प्रति ही है। परन्तु इन होने वाले युद्धों की क्रोड़ में एक ऐसी भयंकर विदेशी बाग फैली जिसने कला संस्कृति तथा साहित्य के अनेक मोठों को जलाकर डाक कर दिया। बाद में राजबंध मिलकर रह सकते तो इस्लाम और शासन को कभी साथ नहीं मिला होता और आय हमारे अनेक स्थान बन्दिर पुस्तकालय और ग्रन्थ मंडार नहीं हो। यह विदेशी बाग इस्कान थी जिसका परिचयति है। (२) इस्कान 7 (०१९-२८००)२ इस युग की स्थापना यादी ही मानी जाती है इसमें इस्लाम ने किय पर अधिकार किए। १०वीं और ११वीं बाद में इस्तान की इक्त नहीं और काबुल ही नहीं लाहौर भी हिन्दू के हाथ से गया। इस्लाम म माया के इतिहास में एक काशिकारी पढ़ना है। क Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७ १- हिन्दी काव्य धारा, १० हिन्दी काव्य चारा, (१२) freeथान का यह कथन अवरशः सत्य है कि मुस्लिम राज्य की स्थापना भारत के लिए एक बहुत भारी घटना थी। अभी तक जितने भी विदेशी आक्रमणकारी भारत में आ में, वह भारतीय संस्कृति को स्वीकार कर ही उसमें अपनी और से कुछ करके भी हजारों जात पातों में बिसरे भारतीय जन समूह में मिलते गए। लेकिन जब जिस संस्कृति और धर्म से वास्ता पड़ा वह काफी सबल था । उसे हजम करने की ताकत ब्राह्मणों के जीर्णी ढांचे में नहीं थी ।--संदेश रासक के रचयिता कवि अबूल रहमान (१०१० ई० का जुलाहा वंश दसवीं सदी के अन्य से पहले ही समान हो चुका था । इस्लाम जब भारत के दूसरे देशों में फैला तो वहा पर भी हम प्रमुख शिल्पी जातियों को बड़ी इवी से इस्लाम धर्म स्वीकार करते देखते हैं।" " इस तरह इस्लाम का क्षेत्र बढ़ता गया । १०१४ ई० में महमूद गजनवी ने हिन्दी प्रदेश पर पहला आक्रमण किया। उसने मथुरा और कन्नौज के मंदिरों को टूटा। कमीज उस समय वक्तिहीन था। थानेश्वर भी मुसलमानों के हाथ मैं चला गया था। क्यू १०१५ में उसकी सोमनाथ की छूट प्रसिद्ध है। इन इकों का उद्देश्य केवल न टूटना तथा करना था पर इस छूट नेवाद की पुष्टि की। इससे राहुल डीकृत्यायन के इस कथन का मौचित्य स्पष्ट होता और कभी भी इस्लामी क है कि वीके के नीचे ले गए थे। का हिन्दू व एक एक करके करने के लिए काल की प्रतीक्षा कर रहे है। मसूद और दूसरे कितने ही मुस्लिम विजेताओं के मन्दिरों पर भी प्रहार किया। लेकिन वे इतना श्रम सिर्फ पत्थरों के तोड़ने के लिए ही नहीं किया करते थे। वे जाते थे मन्टों और पुजारियों द्वारा ही जमा की हुई अपार भाग को टूटने। इससे यह लाभ ३०-३१. श्री कृत्यायन । १२ श्री रा Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जरूर हुआ कि मन्दिरों व देवताओं की हजारों से स्थापित महिमा बहुत घट गई। कोईताज्जुब नहीं दि दिल्ली विजय के बाद तीन सदियों तक हिन्दू संत भी मूर्ति और देवताओं के पी लट्ठ लेकर पड़ गए और चारों ओर निर्गणवाद की ईदमी बपने लगी। १०१६ . पंजाम में भी मुसलमानों ने अपना सिक्का जमा धीरे धीरे तुर्क सत्ता मध्यादेश वथा अन्य प्रदेशों में फैलती गई। १९९९ में मुहम्मद गोरी ने भारत पर आक्रमण कर पृथ्वीराज व जयचंद को हराया तथा ११ . मैं गोरी के एक मापति हम्मद बिन अस्तिार में सन् १९७ में मगध के पालासों और मन् १९१ बंगाल के सेन को समाप्त किया। भारत का मन इबीम ऐप को पौंप कर गोरी पुनः गनी बला HAT! ऐक ने सन देकर को जीता। देश इस तरह सारा में शासन में जब गया। मालवा अवस्य १० वर्ष तक स्वतंत्र रहा। इस तरह सलमानों का सम... वर्ष चला। ११५.. a गुलाम वा राज्य करता रहा। राजस्थान दिल्ली, कामेर, नागौर जीने के लिये । समोर ज्या माडी गालीरमान तथा जरा मोठयों के खा मेवाड़ अलि अबस्यो मा को को मालवा गुजरात की तरफ बने रोक। उत्तर पश्चिमी श्रीमान्त परी बस खालमेर मल का भाटीराब सुन्तान और विकी र उनके इमलों मे साम्मे वार राजा सिंह ने मान बनियो , यो पनीर से उज्जैन को सूट र पनि जीरा गुणराव मसिनाई पाटग पर चढ़ाई करने जा रहा बा. बरारी रवीवाडा माय बरे इतिहास प्रसिद्ध हो गया।' - - - t-मारा रावस्थानी वीसिया विकार। Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९ (१४) इसी प्रकार १२३७ ई० में बहन को भी मेवाड़ के महारावल समरसिंह से हार बानी पड़ी। मेवाढ से गुजरात के रास्ते मिले हुए थे। अतः मेवा के मेवातियों ने प्राण प्रण से तुर्कों को इधर बढ़ने से रोका। मेवाती लोग पुराने वर्कों के वंशज थे। ये बड़े लड़ाके और दुर्दमनी थे। अतः रणथंभौर और ग्वालियर की रक्षा मेवाड़ के इन्हीं वीरों के कारण हो सकी । १२९०६० मैं ख़िलजी वंश के कारण राजनीति में विविध परिवर्तन दिखाई पड़ते हैं। अलाउदीन खिलजी को मेवाड़ के रावल समरसिंह से हार मानी पड़ी, पर उसने फिर मेवाड़ के दक्षिण की परिक्रमा कर छन् १२९८ में गुजरात और पाटन पर अहमदाबाद होकर धावा किया। अब राजस्थान भी इन आक्रमणकारियों द्वारा तीनों तरफ से घिर गया। बिलजी बलाउ दूदीन से १३०१ में रमौर, १३०२ में चित्तौड़ को घेरा। रत्नसिंह की सुन्दरी रानी पद्मावती ने सैकड़ों वीरांगनाओं के साथ जौहर की धधकती लपटों में प्रवेश किया। खिलजी ने इस प्रकार १३१९ ई० तक मारवाड़ के जालौन, नाकौल, सिवाना, पीeere, बाचौर (सत्यपुर) तथा जैसलमेर जीता | आदिकालीन हिन्दी जैन की धना रचित कृति सत्यपुरीय महावीर उत्साह में अलाउद्दीन के बाचौर या वत्यपुर पर आक्रमण की क्या स्पष्ट होती है। इस प्रकार व तावृदी में राजस्थानमें भी हुई आधिपत्य पूर्वतः BT गया। सन् १३२० ई० में तुगलक वंत्र बाया। महाराणा हम्मीर ने मलकों को चुनौती देकर चित्तौड़ पुन: के दिया। कुछ अदूरदर्शी कार्यों से मेवाड़ के महाराणा काढा ने काम उठाया पर व्यू १३९८ के तैमूर के हमले ने १- देखिए गुजरात मी सांस्कृतिक इतिहास ० १२१-१३० द्वारा श्री रत्नमणि राव भीमराव जोटे प्रकाशक गुजरात वर्नाक्यूलर सोसाइटी, महमदाबाद। ক २- देवि प्रस्तुत का आदिकालीन हिन्दी जैन साहित्य (३) स्व काव्य परम्पराये नामक अध्याय Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० (१५) प्रतिष्ठा मिट्टी में मिला दी। मेवाड़ के दोनों दाजुओं पर मालवा और गुजरात में तब दो भारतीय पुस्लिम राज्यों की स्थापना हुई। मालवा के पठान थे और गुजरात के थानेश्वर के पास रहने वाले टाक (तक त्रिग) जो फिरोज तुगलक के सम., में बलमान बने थे तथा दिल्ली सल्तनत के प्रान्तीय शासक थे, अब स्वतंत्र हो गए। पश्चिमी राजस्थान में सिरोही जालौर तथा नाौर पर गुजरातियों का अधिकार था।दक्षिणी पश्चिमी राजस्थान में भाटियों ने जैसलमेर राज्य को पुनः संगठित क्यिामध्य मारवाड़ में डोवर का प्रतिहार वंश था जिनका नागौर के तुर्क पुस्लिम धाने के बराबर संघर्ष चलना था। राजस्थान में गुजरात के सोलंकी, परमार राम्बट आदि स्वरा जीवन बिताते थे इनमें एकता नहीं थी।इस तरह वीं वीं शताब्दी तक यह संघर्ष होता रहा। 5. मोदी व माना। महाराणा कुम्भा की सत्ता माननी पड़ी तथा उन्होंने महाराणा को हिन्दुस्तान का 'विन्द्र (मन् प्रदान किया। गुजराब और मालवा को तो पहले ही हरा दिया था मा बन्ने १५.. बाइयों पर सफलता न मिली। मारवाड़ राीर रवाल जोधा को महारामा ने शराब के क्लिा नागौर जालौर माविका ( 1) बान्त का किया था। नागौर का पुस्लिम केन्द्र परिवमी रास्थान राति पुरानों का महा मारामामा ( ४५-५८ on) उस पर बीम मान लिए और न ४५८ में गुजरात के सुल्तान शादीन की बिना पर राणस्थान में कों (इस्लिमों को महास को , मह हा, ईको पाट और बड़ी मस्जिद मेर पारे नागोर राय को कार का गोरा पिपरिवर्तित कर जाग देशमा मन्द हो जाने पर उसकी रमात त्तवावाला माना Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शाखाओं और पत्तों की तरह फैले अन्य मुस्लिम केन्द्र मानो अध्ने आप ही भी गए और नष्ट हो गए। तभी महाराणा की सहमति से राव जोधा ने मंडोवर के समीप ही वर्तमान जोधपुर की नींव (सन् १४५९) में तथा जोग के एक मेटे ने सन् १४९५-७१ में अपने लिए एक नये राज्य बीकानेर की स्थापना महाराणा कुम्भा बड़ा ही विश्वान था। वह मराठी और मन का अा जाता था। उसने गीत-रत्नाकर की रचना की जिसकी एक मात्र प्रति बीकानेर के राजकीय पुस्तकालय के साथ कन्नड़ी टीका भी है। इस प्रकार मध्य देश में तो इस्लाम का सर्वत्र बोलबाला रहा या जाणकारियों ने कहा की कला संस्कृति और प्राचीन साहित्यको पूरा पूरा वंश किया। यही कारण है कि म देशीय प्रान्तों की आदिकालीन हिन्दी जैन साहिल्की अद्यावधि कोई भी प्राचीनतम रचना १५वीं बताइदी के पहले की उपलब्ध नहीं होगी। बात सम्भव है कि ये सब नष्ट हो गई होगी या यह भी सम्भव है विकी डार में दबी पड़ी में जो कालान्तर में होने वाले शोध में पायो। की प्रानकारियों का ने भनी परिसर याय ने बयान और गुजरा बरामर के से। इसीलिम प्राचीन राजस्थान और शराबबादिकाल की वनामों साथ साथ संस्कृत, प्रा या अपशक की मिया भी tantn सकी। सारे पुरवित हारों में समा तीनों भागों पुरानी हिन्दी विपुल साहित्य र मध्यकालीन गरियो हो हजारों और लामो प्रतियों मारा राजस्थान वीसिंह मेवा। Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ () की सुरक्षा की है। यहां तक कि जैन कवियों ने तो अपने काम के प्रभाव से इलाम शासकों तक को प्रभावित कर दिया था। आदिकाल की एक रास कृति अम्बदेवमूरि कृत समरा रास! तो अलाउद्दीन के सेनापति अलपमान को राम के नायक समरसिंह ने बहुत अधिक प्रभावित कर निकाला था तथा जैन मन्दिरों का बीड्वार बनाया था। इसी प्रकार ऐतिहासिक जैन म काव्य में प्रकाशित अनेकों आदिकालीन ऐतिहासिक कागो में तत्कालीन बाराहों पर जैन औन कवियों का प्रभाव देखा गया है पिथहरास कहीरास आदि में भी पैसे ही वर्णन है। अत: ये प्रतिमा मेकों की स्या भाग मिल रही है। विभिन्न इस्लाम शासको प्रभावित मागीर भंडार हो अभी तक बंद पड़ा है। बात सम्म कि उसकी शेध होने पर इस सम्बन्ध में और अधिक नये मातम सामने आयें। इस तरह १५.... तक इस्लाम के इस फोगी शासन के मध्यदेश दाचिन गुजरात तथा राजस्थान को पदात करके मोरा तो अवश्य परन्तु इसके पीछे भी इस्लाम धर्म के प्रचार की भावना कूट कूट कर भरी दिखाई पड़ती है। राणडों की पारस्थ रिक फूट, राजनैतिक ना की कमी, पक्वा का भाव दुर्गनिक गन्न मावि ने साहित्य वर्ग था कि मानका सम्मन्धी नये मूल्यों की स्थापना की। बालक ही राति परिस्थितियों में हमारे देशी गाय, पार्मिक या तिकोनों में नये वरव स्थापित किया है। इस समय मादिकालीन साहित्य की पृष्ठभूमि राम साधारण योग है। पिप्राचीन बराबी पीडी. का . १७॥ शासन काव्य : श्री जगरनाटा प्राकमाटा द्राक्ष का- पीसी.डी.काल परिशिष्ट ....२४॥ 1- Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ब) • धार्मिक परिस्थितियां । आदिकाल(... से १५..2000 में हमारे देश में प्रचलिः धर्मों का विश्लेषण इस काल की रचनाओं को समझने के लिए परभावश्यक है। sa विभिन्न राजनैतिक परिस्थितियों ने हमारे देश में एक नये धर्म की दृष्टि की है। इस्लाम धर्म वास्तव में इन्हीं विदेशी आक्रममों का परिणाम है। इसके पूर्व यहा अनेक धर्म प्रचलित थे। हमारा देश भी धर्मप्राण कहलाता है। अत: इसमें अनेक धोरे दर्शन एक ही साथ किए जा सकते है। आदिकाल अधीत सं १०.० से १५. तक हमारे देश में जो विभिन्न धर्म प्रचलित थे इस प्रकार है: 1- जैन धर्म -मानक धर्म -इस्लाम - बौद्ध धर्म बौध वर्ष इसका कि प्रगति पर नहीं था। इस भारम्भ में यह पर्व गण के पीडा फिलमों और विद्यापीठों की बा। भी साइडी गराईब की इसकी की सीसीहोने लग गई थी।वीं सादी बोरापा ने इस संबन कर वैदिक की स्थापना की। बी पीयों की साधना र वाचार पी दोष आ गए थे। मठो, मारामों और विकारों क पोका बा-वर मादि देवता बनाने को ब, गा प्रार, ग्रहय समाज तथा स्त्री साधना पड्य को पूरा माविमा गया। इस अप्राकृतिक तत्वों मारण कोनोगन और मेला माने सरे। इधर TIRTAN पूर्व Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जर्जरित कर दिबौद्ध धर्म के सिद्धान्त दी थे: १. चार आर्य सर २. बारह प्रकार के प्रतीत-सत्पाद चार प्रकार के आर्य सत्य है. इस समुदय, निरोध और प्रतिपद या मार्ग। क्या गारा प्रकार का प्रवीत्य सत्पाद है। अविदया, परकार, नामरुष, कलायतन, स्पर्म, वेदना, मा, उपादान, भव जाति, जरा परम और शेक। संसार के पुक्त होना प्रत्येक प्राणी का कर्तव्य है। जीवन परिवर्तन की बार अवस्या उत्पाद, स्थिति, जरा और निरोध। यह सिद्धान्त पौधों का विवाद है।मात्मा सम्बन्ध गौतम इध ने सभी स्पष्ट नहीं किया। इन सिद्धान्तों का कालान्तर हीन बान और महायान गानों में विभाजन हो गया। महायान अनेको सो बटावाब, विजानबाद, मापाव आदि सब कमजोर हो गए। जनता को बयान का शिल्प और भी मानक और मित लगा। मौगिक किया, महानद्रा, मंत्र सबसे इस का लोगों की मास्था हट गई। जिसने बौदा पवित्र पिझाना इस शि और शिपियों इवारा पित होने की मान ने इस सपना की रोगावकारी थार्य वन किया. पीय साली पर पा उसकी पीरी किसनी ही मोरिया विकिपाल मेमेनी बौन पारसकी लिी माविक या अपने पास नहीं रख थे। अब उन अपनी पुरानी मागे कर जाना पूरी और ग्राहकों के हाथ प्रतिकका भाग । पाइप कभी भी विंय-नाग और वीडियो सामने रखकर होमों की बातों में काम वा करना चाहते हैं। सी बोग समावि, र, कालिी, पानीमा Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५ सेल"गों को अपनी ओरींचना चाहते थेrबी सिद्धों के विचित्र जीवन और लोक भाग की कविताओं को भी इस काम के लिए इस्तेमाल करते थे। मगर यह सब हवा में तीर बलाना था। अब भी बहुसंख्यक जनता की कितनी ही समस्याएं सामने थी लेकिन बीइधों के मस्तिक और हथियार इंठित होथे।........ मरहम्पा का सहजयान न मन्तर, भूत, प्रेत, देवी, देवना सम्बन्धी बजारों मिश्या विश्वासों और ढोगों के पैदा करने का कारण बना। अरे मिल्या विचारों और डोंगों के पैदा करने का कारण मन ये सारे मिया विश्वास सारी दिव्य शक्तियों महमूद और मुहम्मद बिन बस्तियार के सामने धोथी निकली और बारा कुमाला, लोकेश्वर और भीमन्दिरों और मठों में हजार हजार वर्ष की अमा हुई अपार सम्पत्ति अपने मालिकों और पुजारियों के साथ ध्वस्त हो गई। वैचू मियों के रहने के लिए जब न कोई मिहार रहा र उनके संरक्षक और पोकर सामन्त पहिली अवस्था में रो, न साधारण जनता का विश्वास पूर्ववत् सा तो उन्हें भारत में दिल काटना रिक्त होने लगा।पश्चिम की धरती को उन से पहले ही मिल की थी। लेकिन उत्सर (विषय) प्रब (बी, पीक) और बनि (डिल) में अब भी उनके स्वागत करने वाले वायूद थे। इस प्रकार ये मे बौध बौदय हस्थों ममा बाहर को गए। मिलीभाव में स्व बौध धर्म मे तने से। और जिसकी विपरीम समाई, घर चले गए। इस प्रकार नामा निशिता ध्वंस बाद पानीपीडियो बीचमा रह गया. - 1- वी कामगारा. श्री राम सांकृत्यायन । Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उक्त विवेवन से इस काल में बौध धर्म के कालु की सच्चो कहानी स्पष्ट होती है। आठवीं शताब्दी में बंगाल में पाल रा. इस धर्म को पालते रहे और कई वर्षों तक हिार,गाल, डीसा में बौद्ध बिहार, मारण, उचाटन, मोहन तथा वशीकरम की विद्या के केन्द्र बने रहे। इधर ब्राह्मण धर्म ने इस धर्म की रही सही प्रतिमा को भी धूल में पिला दिया। अतः बौद्ध धर्म का अपकर्ष ही इस आदिकाल की पृष्ठभूमि * स्पस्ट होता है। ही अपने पराभव काल में साहित्यिक क्षेत्र में बौधों का वो योगदान रहा, वह पर्याप्त महत्वपूर्ण कहा जा सकता है। गरे और नष्टप्राय वर्ग के होने पर भी बौद्ध कवि साहित्य साधना द्वारा ही अपने गम और पतन का मानो बहिष्कारण करना चाहते हो। उस काल में रवित बौदयों का साहित्य आदिकाल के पूर्वाध की सम्पत्ति है जिस परवर्ती रचनाओं में प्रेरणा के रूप में देखा जा सकता है। पाक की दृष्टि से बौध आदोलन का का महत्व है। पौधों ने जन साधारण की भाषा अपनाई। अत: संस्कृत के स्थान पर पाली प्राव में उममि रचनाएं की। सरहप्पा और नुहमा ने तो अपने साहित्य पूजन किया। उनका दोहा कोक अत्यन्त प्रसिद्ध है। लोक भाग बौद्धयों की सम्पति बन गई। परन्तु सेब उनकी कवितानों का बहुत का हमारे पास बा । उमझी की छोटी गेटी धार्मिक अस्वी वीं सदी की पास अनुवादों मौजूद है मगर से भी अधिक या उन पुस्तकों की सी होगी यो उदध सांसारिक अष्ट म य का मारा बाहर नहीं ले पाई गई और गौरी गट गई। वालों गाहित्यबाज यदि रह पाना तो अपांच और मध्यदेश की विभागानो या पुरानी हिन्दी की बल्य निधि हो । Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७ (२२) (२) जैन धर्म: बौद्ध धर्म की भाति जैन धर्म भी आदिकालीन कालो की पृष्ठभूमि समझने में पर्याप्त सहा ता करता है। जैन धर्म अपने सदाचार के कारण आठवीं सदी के राम्टों के समय से ही प्रगति पर था। गुर्जर सोलंकियों ने इस धर्म में अपूर्व योग दिया। लेकिन युध प्रिय सामन्तों के कारण हेमचन्द्र जैसे विद्वानों को भी जैन धर्म के प्रमुख सिदान्त अहिंसा को कोड़कर तलवार का गुणगान प्रारम्भ किया। इस्लाम के आक्रमण के समय जैन धर्म ने अपना स्वरूप बदला। पर व्यापारी वर्ग त्या कु द्धा श्रमिको वैसे ही क्टर में रहे। राजाजों में ही नहीं जैनियों में कई वीर जाति के लोग भी थे जिनसे कभी भवन, क, गुप्त भी हार मान मैठे थे।उदाहरणार्थ ओसवाल, प्रवाल, आदि वे अब - व्यापारे वसति लभी- को ही अपना मूल मानने लगे। अनेकों मन्दिर बने आइ, जैसलमेर, बीकानेर पाटय तथा गुजरात के जैन तीर्थ एतदक उइत किए जा सकते हैं। पौधों की बिगड़ी साधना के कारण जैन मुनियों में भी निर्वाण मारी पाविजण की भावना प्रकारान्तर से स्पष्ट होने लगी। जैन धर्म के प्रमुख तीर्थकर महावीर ने भी इध की तरह लोक भाषा प्रा और अपश को अपनाया। भाषा की दृष्टि से दोनों बायोलम साहित्य में नये अध्याय का प्रारम्भ करते है। इसका का। विशाम्बर सावाय रावस्थान या र मास और दिगम्बर का प्रचार दलिखा । ब्राहम और जान अब धर्मों सिद्धान्त जोर र पाब पोत वादिरापानी मे जैन धर्म को प्रश्रय दिवानापनों दिगम्बर रमनाएं बेलगू तामिल तथा विशेष मी या रास्थान क्या गुजराब या त्या मध्या मनी कवियों की गहित्यिक सेवा प Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३) ७८ जैन कवियों ने लगभग सभी प्रकार की साहित्यिक सेवा की है। इन्होंने अपभ्रंश साहित्य को रखना और उसकी सुरक्षा में सबसे अधिक काम कि. T। वे ब्राहृमणों की तरह संस्कृत के अंध भक्त भी नहीं थे। क्योंकि वरिष्ट विश्वामित्र की भांति उनके मुनियों ने संस्कृत में ही नहीं प्राकृत में भी अपने अमूल्य ग्रन्थ लिखे थे। व्यापारी होने से बही माता तथा मातृभाषा मैं लिखने पढ़ने का ज्ञान होना उनके लिए बहुत जरूरी था। ब्राह्मणों की समाज व्यवस्था के साथ मे मधे हुए थे। ब्राहमणों के महाभारत पुराण तथा क्यावाती का हर तरफ से प्रभाव पड़ना जरूरी था । क कि मु बूंद की तरह थे। इस प्रकार जैन धार्मिक नेताओं के लिए यह जरूरी हो पड़ा कि अपने भक्तों को ब्राहमणों का ग्रास बनने से बचाने के लिए अपने स्वतंत्र क्यापुराण तैयार करें। व्यापारी से यह आशा नहीं रही जासकती कि वह धर्म जानने के लिए कठिन कठिन भाषाएं सीरे । अतः जैनियों ने देश भाषा में कथा साहित्य की दृष्टि की। जिसके कारण स्वयंपू और पुष्पदन्त जैसे अनमोल अद्वितीय कविरत्न हमें मिले। उस साहित्य की रक्षा के लिए हम और हमारी अगली पीढ़ियाँ उन चैन नर नारियों की हमेशा कुछ रहेगी, जिन्होंने इन अमूल्य निधियों को नष्ट होने से बचाया। याद रहिए इन क्यूक्य निधियों में सिर्फ जैनियों के ही नहीं बल्कि अनुदुर्रहमान के वासक जैसे ग्रन्थ मी है। की व्याख्या यही नहीं, पैन कवियों ने दार्शनिक सिद्धान्तों १- हिन्दी काव्य धारा पृ० ३८ श्री राहुल बास्कृत्यायन । २- जैन की विस्तृत व्याख्या अगले अन्याय के सिद्धान्त वाले पक्ष में की गई है। देवि प्रस्तुत ग्रन्थ का व्रतीय बध्याय । (#) acara-gara wer (ब) विशेष विस्तार के लिए एतदर्थ देखिए जैन दर्शन लेखक इनि श्री म्याविषयी प्रकाचक देवाचार्य जैन सभाः पाट व १९५६ । Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के लिए अनेक ग्रन्ध लिसे किन्तु दार्शनिक ग्रन्धों के अतिरिक्त जैन आचार्यो ने व्याकरण, खगोल, गणित, राजनीति, आयुर्वेद और अलंकार ग्रन्थों पर भी स किने लिखा। पौधों की अपेक्षा में इस क्षेत्र में अधिक उदार । प्राका अतिरिक्त अपांच गुजराती, हिन्दी, राजस्थानी मेला, तामिल और विशेष सन्मही साहित्य में भी उनका योग अत्याविकी नहीं आदिकाल का इतना वैविध्यमब वि न मि बत्कालीन प्रादेशिक पामानों की रचनाओं में सबसे अधिक है। अभि में जैन धर्म ने हेमन्द्र को आचार्य प्रान किया और इससे तत्कालीन सान पान तथा तप स्याम की भावना में भी पर्याप्त परिवर्शन हुए। सायिक दृष्टि से महाकाव्य रूपक काम, गबमारिक तथा बीर काव्य ऐतिहासिक या नाटक बम्पू कोग, काय सभी नागार्गी की इस कात देन है। रामायण पुराण और भारत ने अमन को और अब रिसोपानों को इन्होंने मद पान था शानिवि माया। लोकगीवन को बा ने उनी बाबार बार नैतिक निधाराले बलाने बाला कालिया प्राइन कवियों में रखा पुनराम, माना है। नियमाना। बाकी मार PF प्रसको मारा दिया। नीति को समय सानों Ram गंग'वतः भाविकालीन दीantी जैन सत्य प्रेरणा म मारास गावित्री डा०हरिवंश Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२५) ग्राहमण धर्म इस धर्म के हिन्दू धर्म, ग्राहमण धर्म, वैष्णव धर्म, भागवत धर्म, आदि कई ना है। सच तो यह है कि यह ब्राहमण धर्म वासुदेव जान्दोलन का ही स्वरूप है। वही इस धर्म हिन्दू नाम का सम्बन्ध है या नाम विदेशियों का दिया हुआ है। कैम बीर बौध पारा के अतिरिक्त वायुदेव भान्दोलन ने इस ब्राह्मण धर्म की नींव डाली। यह धर्म पूर्व और उत्तर भारत मबीए मध्यदेश में पता। वैष्णवों और बों में भी मत भेद था। यों तो ग्राहक धर्म का उगम वैदिक काल था परन्तु वैदिक काल के देवतामों -इन्द्र बस्न अशिन आदि का स्थान ब्रहमा विष्णु महेश ने लिया। धीरे धीरे कर के दानिक सिद्धान्त ब्राह्मण धर्म की सम्पति समझे जाने लगे। ईश्वर को समझने का मार्ग में भक्ति मार्ग कहा गया। प्राहायों की इस समय बन आई। पन्दिरों की प्रतिष्ठा बढ़ गई। उपासना भवन कीर्तन आदि का सूत्र प्रभार गया। ब्राहमणों ने पौधों के बाम मार्ग पी बाध दिया। माहमयी इवारा अवैध बाब का पानी के दो मामलों में मिला विश्वासोंगे लाने मानवता को बया बनाने लिय पुराणों में या र रमेश लावा। शहरमे बातों पर विवार को सिवियोवार we tell-son..बाराम बाल 2.पा- - भाग रामानी लिक विविध भागों मलिनाबी प्र तिमा पर भागवत या वैया बावामी बल संख्म है। और वो भी किया वामगारभावों के परस्पर उस व भावनालों को दिया। मी मा दोसा.. Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८१ (२६) कारण शंकर ने आठवी शताब्दी में नास्तिकता के विरुद्ध आन्दोलन में ज्ञान और अहिंसा को हाधार भूत मानकर वैराग्य मार्ग का प्रतिपादन पिम्न भिन्न मूर्तियों ईश्वर की शक्ति का प्रतीक समझी जाने लगी। इस्ला के विजेताओं से मूर्ति की रखा करने के कारण इन ब्राह्मणों ने पूजा मैं जाविय बढ़ाया। कर्म का चरम पर पहुंच गया। धर्म में वाड्यावर बढ़ा। बेड़ों के विविध सम्प्रदाय इसी ब्राहमण धर्म की प्रतिक्रिया परिणाम है। चैव सम्प्रदाय दक्षिण में अधिक फैला। वैष्णव सम्प्रदाय के साथ सम्प्रदाय पी निरन्तर प्रगति कर रहा था। पुराणों का विकास हुआ पुराणों ने सम्प्रदायों के धर्म ग्रन्थ का काम दिया । इष्ट देवता की पक्ति, पूजा बादि अत्यन्त विस्तार से करना पुराणों का मुख्य उद्देश्यवन गया। शिव, मत्स्य, गरुड़ भागवत आदि पुराणों द्वारा यह बातें स्वष्ट हो सकती है। इतना होते हुए भी ब्राहमण धर्म मूलतः कर्मकान्ड ज्ञान दर्शन या ब्रह्मवार को ही प्रधानता देता था अत: जनता के लिए यह सहन प्राय नहीं हो सका। ब्राहमण के दोनों सम्प्रदायों मे यदुमपि मौद्ध और जैन धर्म को गहरा धक्का पहुंचाया पर ब्राह्मण धर्म का महत्व इसलिए अधिक जायगा कि इसी कीड़ा का जन्म हुआ। हों अनपूर्ण चारायों के प्रतिक बयना किया और मा मिटाकर परस्पर स्नेह, मन्दि, सौहार्द, और परलोक बाद का उपदेश दिया। बान में और केन की किष्टता से जनता की बात नहीं मिठी और कोलन चला। क्या मिता तो थी परन्तु फिर मी उस एक्वा भी। इसका प्रत्येक व्यक्ति अपने मन के अनुसार देवताबों की पूजा कर क्या था। ब्रह्मा की मूर्ति, त्रिदेव पूजा हन्ति पूजा कल्प तीन वानरः आचार्य क्यारी । Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणेशपूजा, पंचायतन पूजा, स्कंदपूजा, सूर्यपूषा, आदि इसी ब्राहमन धर्म के कारण प्रारम 'मारिल मट्ट क्या कर के क्लिष्ट सिद्धान्त ऐसी स्थितियों में लोकप्रिय नहीं बन सके। इतिहास ब्राहमम धर्म के इन प्रस्तकों पर सम्यक प्रकार डालता है। इस मामलों में अनेक गोनों और पों का प्राइभाव बा। यहा कि इस प्राहमणों का प्रभाव इतना था कि विभिन्न जाति मेमो पिय र आदि की स्यानो विवाह करने तक का वर्णन मिलता है। ना रे पर भी इन ब्राममों ने अपने धर्म को kिetsumitarनाने का प्रमाण यिा। प्रति इतिहासकार गौरी रोषा ने किया कि.. प्रत्येक व्यक्ति इन्धानुसार किसी भी देवता की पूजा कर सकता था। मी देवता ईश्वर की भिन्न मिम्म शक्तियों के प्रतिनिधि है। कमी प्रतिद्वार राणामों में अदि एक नव भा जो दुसरा परम व तीसरा पगबदी का स्वासो पौधा परम बादित्य पत।' ___ जो भी हो, ब्राहमण धर्म ने इस प्रकार पण मी गे प्रभावित किया। मागे चलकर इसी का नाम हिन्दू धर्म पड़ गया। विदेशियों ने भी इसका नामकरण बिन्द्र किया। भारतीयों को विदेशी शासक न्हिा थे। बताः हिन्दू विधी धर्म विशेष का नाम नहीं। यह परम्पराम भारतीय संस्कृति और धर्म का प्रतीक इस प्रकार अपनी गाना TAN, , कार या ब के कारण ग्राहक वर्ष लिटवानी मार - नी मा, ta, -- -देशिय नाम भारत -बारा कर राय बीमा नितानी नायाब १८ .. fotaदी माग विस्थर youtam - मध्यपाठीमारी रोका। मध्यम Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८३ जादि विभिन्न सम्प्रदायों की नीव पड़ी है। वास्तव में ब्राहमण धर्म का महत्व इसी इष्टि से अधिक है। परवर्ती विभिन्न सम्प्रदायः ब्राह्मण धर्म की प्रतिक्रिया में संत और विविध वक्ति सम्प्रदायों का उदय हुआ। इन संत सम्प्रदायों में भी अनेक धार्मिक भावनाओं का मिश्रण था । विविध और मन किया। उपनिषदों और एकेश्वरवाद बनकर सामने आई। दक्षिण आन्दोलन | नाथ ने संत सम्वाद से वेदों की परम्परा की मुसलमान फकीरों में भारत के वैन आन्दोलनों में वक्ता को किया। मौध जैन तथा इस्लाम धर्म से प्रभावित समाज में नीच की प्रवृत्ति घटाने का काम देतों में किया। इससे अनेक पादाने वे संत सम्प्रदाय कला उच्च वर्ग के व्यक्तियों ने राम कु कृष्ण की भक्ति को अपनाया। साधारण पूजा समाप्त हुई और उसके स्थान पर evenue और प्रेम की भावना रामान बल्लवाचार्य मादि दक्षिण के बार देन है। राजा कृष्ण भक्ति के केन्द्रको प्रचार हुए। राधावत्मी सम्प्रदाय निरंजनी सम्प्रदाय मा हरिदासी सम्प्रदान इन्हीं प्रवादों के है। इस प्रकार प्रान धर्म की क्लिष्टता को कम करने के लिए उक्त विभिन्न सम्प्रदायों को जन्म मिला। (४) इस्कान धर्मः इस्लाम धर्म की स्थापना में समय से हो । इस काल में अनेक शब्दों का राज्यों में इस्कान स्वीकृत कर किया था। साथ की मराठी रानी ही ११ र १२ - मूर्तियां इस्लामीक के नीचे है। जोड़ने और मने के कारोबा अनेक भारतीय विज्ञानों को उन भारतीय क्रयों, गणित वर्धन, गरमी में अनुवाद कराये गए। इस्लाम का प्रचार इन कवियों को हमारा किया। नावडी मन म भादि इस्लामी कवि इस १-१०-११ श्री ANT Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तथ्य के उदाहरण है। इन कवियों ने अपने धर्म प्रभार के लिए हिन्दुओं की प्रेम क्यानों को चुना । यो सामान्यतः इस्लाम में प्रेम को कोई स्थान नहीं। सिद्धान्ततः इस्लाम क्ट्रटर तलवार पर आधारित है। मारो, काटो, और मुसलमान कामों ही इनका प्रमुख सूत्र था। इस्लामी गुण के पारसी, कला-प्रेमी थे। दक्षिण की बड़ी बोली का प्राचीनतम साहित्य इस्लाम की ही देन है। मुस्लिम भरों ने हिन्दुस्तान की स्वीकार ही नहीं किया बल्कि उन्होंने उसे इन्हें सारे यूरोप में प्रहारित भी किया। का संदेह रास्क का रचयिता दुलरहमान भारतीय आत्मा का प्रतीक है। संतों ने इस्लाम व वैष्णव धर्म में साम्य स्थापित किया। प्रेमाख्यानक कवि इस्लामी थे। और चौकी में मुस्लिम कवि इसरों का नाम जाता है। इन कवियों ने हिन्दी are में अनेक स्थानों हे काव्य निर्मित किए है। ८४ इस प्रकार आदिकाल की मन तथा इस्लाम धर्मो ने एक और देवाय रचना में वैविध्य पर होता है। राजनैतिक और धार्मिक परिस्थितियों पर विचार करने के पश्चात अब देश की तत्कालीन वास्कृतिक और साहित्यिक परिस्थितियों का भी परिव के इन कर लिया जाय। कालीन वैविध्यपूर्ण स्थितियों के लिए परिस्थितियों का अध्ययन भी है। (च) सामाजिक व आर्थिक स्थिति (वारि विका की देवर माया वा सकता है। इसका की पनि ब्या में (१) वाति स्था पृष्ठभूमि में वैविध्य प्रस्तुत करने वाले बौद्ध, जैन, प्रस्तुत की है। इन सभी प्रदा प्राचीन बैंकि बाद विकार की राजनैतिक स्थिति को स्थिति को अस्तव्यस्त करने व्यापात पहुंचार था किन्न भिन्न मों में परिवर्तित हो गई। देवों के दुवार को उपपातियों है विश्व को Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८५ ग्राहमम, पत्रिय, वैश्य, और द्रों परस्पर ऊँच नीच की भावनाएं बढ़ गई। वैश्यवर्ग अधिक पम्पन्न होने लगा। परस्पर मेव भाव का प्रभाव उत्तरोत्तर बढ़ने लगा। सशक्त तथा सम्पन्न निर्गलों को बनाने लगे परन्तु इतना होने पर भी लोग श्रुति सम्मत मार्ग पर चलने थे। चारों को अपने अपने कर्म मेटे हुए थे परन्तु फिर भी माइमन वत्रिय - वैश्य नादि अपने निश्चित मों में अन्य कमों में भी भाग लेते थे। यही कारण है कि राजपूतों में अनेक महापंडित तथा विद्वान । धर्मो के अनुहार भी गौडध, जैन, इस्लाम, आदि अनेक वातिया बीं। भावी खाकी वी साडी के इस में गाडियों मेक मेव उपदों पर स्वर्गीय इतिहासकार शोभा जी ने प्रकाश डामा प्राणों में अनेक गोत्र हो गए थे। दीक्षित, रावत, पाठक, नगर, उपाध्याय, गोपा, दिववेदी, बडुबेदी, त्रिवेदी, दापीर, गुर्जर, गौड़, पारस्वत आदि अनेक गोत्रों का उल्लेख मिला है। उनमें बान, पान विवाह, आदि परसर को नियम मपए है। त्रियों की कई वर्ग हो गए बापत था पूर्व बों का विस्तार है। वैरों पर पान, व्यापार, दाम, बम का पेश था पर कई वैश्यों का राजमंत्री, बेनापति, मादि बनने के भी उल्लेा है। पुरानी गिदी की बनावों में उदारमा स्थतिमा का किम के पिता अक्टार जैन होने पर भी बनी । परनानाति व्यवस्था में पारस्परिक भेद भावना इस्लाम टार सिगे और यही कारण बिराच कारकीर मानितीन राग्यों को पासमाना स सम्बत काम नगरपालिकराबलिया, गुण, रा. गलिी था मिला र बोरासीवानी का मान समाप बत्मय पूर्ण करावाम रहमान, उपन, प्राबाद था रामोशियों की मानी राजीनामाका वार्षिक कर दी माल व्यवस्था भी इसके पी। नीच माल्योर, या पाका गावावरम बवाडीम रागानों पारा Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ संचय होता था। कई राजशों में बाटुकार हो गए थे, जो थोथी प्रशंसा कर करके राणाओं को अपने काम से तक कर दिया करते थे। मध्यम वर्ग व्या वर्ग से रागा देगा लिया करते थे। इतना हो पर इस तत्कालीन राजानी पर्व मामलों में अनेक राजा धर्म पराग ज्या व्य प्रेमी थे। मोष इंज, जगदेव, बीसलदेव बादि अनेक राजा विवान कवि था कभी थे। उनके दरबारों में कई स्ला प्रेमी संगीत चित्रकार कपि, 'विदूषक मूर्तिकार, नास्ता प्रेमी या चाटुकार लोगों का पी स्थान था। 1- दार वापीः राषायों की सेवा के लिए अनेकों वास दायिt सी बाती । उनका वीर स्वामी की सेवा के लिए बना था। उनी अधिकार नहीं थे। वे बागी बना विषबाने थे। और स्वामी प्रथा राणा सामानों की बेगम सम्पत्ति बने हुए है। प्रथा भारत में वीं सान्वी प्रचलित सी। पुरानी हिन्दी की बनेक कृतियों में उदाहरणार्थ जम्भूल्बानी परित, प्रसन्न परिव, विद्या विकार मागे अन धादिबाज बारियों का वर्णन मिलता है। • विवाद: निवास राज में प्रचलित था मार रानियां दी। सिमानामा विवाह करने वाले राणा, गन और पनि देशकोमा बारा-बीका निकाल प्रधान से मारा की मादीमा गति था। रावा बाजी मारील परस्पर अस होता पायरी बीन बनी दी। विवादमी मीmaha दिवा NR भान भी ब प्रचलित वारा वाणा था पर में मिी कठोर नियम का पास नही पाया - दीपिटीड निन्या पाव -AL Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८७ - - माविकालीन रचनाओं में विवाह की पत्तियों का रुचिपूर्ण सामाजिक वर्णन मिल जाता है। सवारण जास्वामी का ८ धनिक न्याओं से विवाह हुआ। मुम्न चरित में प्रत्युन भा के अमेव रानियां थी। जिन ने अनेक कन्याओं से विवाह किया। से उदाहरण अनेक मिल जाते है। ५- आम आभूषण पहनने का शौक स्त्री या पुलों को पूर्व था। स्वयं राणा तथा सामन्त हीरा मोत्रियों से बाभूषण पहनी थे। स्त्रियों के लिए वो बिना आभूषण रहने का प्रश्न ही नहीं था। बाक्लो उम माग अंग हो गए थे। साथ ही विवाह में दहेज प्रथा इन प्रचलित थी। राजस्थान में यह प्रथा आप भी दूब है। रत्न हीरे मोती, पोहे,माथी, दासदाशियां आदि बोन में दिए जाते थे। 1- मान पाना साधारण जनता का बानपान सामान्य था। राजवंश धामन्य वर्ग का पर अंबा था। मद्यपान प्रचलित भागधारन बान पान मेई, गाव यार, बाजरा, इल, की, श और शकर पाारा मासाहारी थे। बथा हाल भी पारी थे। रविनर की अपेक्षा माघार न था। बामनों ने भी मासमाना प्रारम्भ कर दिश धारा ब गान पान प्रभाव बीमा कार्य पर पड़ा है। इतना गौरी भारतीयों को मारी था कि सात्विक भोजन करते हैं।' पनिक कोष पतिका बीमा वाम नगर के, बीवामी बादि कि दे रराषिकार था। बनेको विश्विर मिलान वायर जीपीयार, आदि बोबे निकोडी मारानी दी की देसी रचनाओं में वगिरि मन , मरा राख माविकृतियों ने उन दिया - - - twीन भारी मोका। Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ जा सकता है। ८- उमा तथा वैश्या प्रथा: तत्कालीन समाज में वैश्या प्रथा के भी कई उदाहरण मिल जाते हैं। समाज मैं अनेक स्त्रिया इस अनीतिपूर्ण देते हे अपना जीवन चलाती थी। सा तथा धनिक वर्गों में जुबा बेला जाता था। पुरानी हिन्दी में ऐसी कृतियां मिलती है जिनमें मारियों या वैrयामों का वर्णन है। उदाहरणार्थ कथनवाला दाब में बंदन बाला को वैश्या के हाथ बेचा गया। स्थूलभद्र रास और कामु में स्यूलिप १२ वर्ष तक कोवा वैश्या के ही पड़े रहे। जिनदत्त करप में जिनदत्त को सांसारिक कर्मों में डालने तथा स्त्री के काम मोह में कंसाने के लिए अनेकों बार उसके माता पिता ने वैश्यागामी तथा जुजारियों के पास भेजा। मंद पान्डव चरित रात में भी जमा वर्षम मिलता है। इस प्रकार के कई उदाहरण है। ९- युद्ध wat को विशेष प्रिय था। युद्ध में होने वाला अपब्यय दिक्विय के लिए मावश्यक था। सुन्दर स्त्री तथा अटूट धन पर आक्रमण करने के लिए युद्ध करना राज में स्कृतिक तथा पारिवारिक प्रधान नियम समझा जाता था। किसान after reaकारों द्वारा उपाधि राजाओं के युदध में होता था त उप की मे राजाओं की इवि को बोला ना दिया था। बस्तः इसी कारण के बाहरी शक्ति का सामना करने में कार्मिक प्रायः यों से दूर भागते थे। च से दूर मायने के लिए वैश्यों ने कृषि तक बना लिया। पेवा भी उन मिलता है। 1 १०- साधा कम चार का जीवन नहीं था। उनकी वर्जित माड़ी कमाई को दे करते थे। सम्पत्तिकों के पास वैभव बन जाती थी। राजपुरोहित, रे, राजा, नवाब कादि अधिक है। वन्य कावा मनान के १०००: हिन्दी विडी ११० Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८९ सदैव पीड़ित थी। जैन धनिक अपने धर्म प्रचार में सुलकर रुपया सर्व करते थे। अत: साधारण जनता के लिए जीवन स्तर का प्रश्न ही नहीं उठता था। इस प्रकार उमाज की स्थिति कुल मिलाकर असन्तोषजनक थी । आर्थिक स्थिति देव की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी। सम्पति तथा व्यापार के स्वामी सेठ तथा धनिक लोग थे। जैन धनिकों के पास बटूट सम्पत्ति थी विशेषकर वैश्य वर्ग अधिक सम्पन्न समा जाता था। मध्य वर्ग तथा वृद्ध वर्ग गरीब था। जिनके पास सम्पत्ति का जमान सदैव देखा जाता था । १- व्यापार देव में व्यापार खूब होता था। सेठों, तथा घनिकों ने अपने व्यापार की पति को इन महाया। राजकीय पुरुषों के लिए बहुमूल्य चीजें बाहर से जाती थी । सेठ तथा व्यापारी वर्ग राजानों को बहुमूल्य वस्तुयं उपहार स्वरूप देते थे। व्यापार के आकर्षण का केन्द्र सिंहलद्वीप बना हुआ था अतः जैन अर्जन अनेक धनिक जहाजों पर मात लादकर अपने देश की चीजों को विदेशों में ले जाकर बेचते थे। क्या वहां से खूब धन कमाकर बारह बारह वर्षों तक देश लौटते थे। अन्तःपुर के लिए जो व्यापारी श्रेष्ठ उपहार कावा उसको राजा चूम प्रदे मंदिरों में धन का संग्रह मन्दिरों और देव पूजा में भी देवदासी प्रथा थी। स्त्रियों का व्यापार भी होता था। मन्दिरों में ईश्वर के नाम पर टूट पकत्रित किया जाता था । सोमनाथ का मन्दिर कालीन व्यक्ति का प्रमुख उदाहरण है। पुरानी हिन्दी की रचनाओं में विना विलास माड़ों या जिनदत्व कई में जिनदत्त का व्यापार के लिए माया, हीरा मोदी का जवाबाराव orat amerलीन व्यापार की स्थिति पर प्रकाश डालता है। इस प्रकार आर्थिक विषमता के कारण देश की नाक कमी वामना करना पड़ता था। कापी कानामाकि स्थिति या के बा Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० की यह स्थिति मुगलों के आक्रमणों तक रही। आदिकालीन हिन्दी जैन साहित्य की अनेक कृतियों द्वारा तत्कालीन स्थिति का सही चित्रण प्रस्तुत किया जा सकता है। वास्तव में १०वीं से लेकर १५वीं शताब्दी तक की सामाजिक स्थिति का ढाच सन्तोकजनक नहीं था। परन्तु इस विषम स्थिति में देश में साहित्य निर्माण कराने तथा कलाकार उत्पन्न करने में बड़ी सहायता की। उपदेश प्रधान वर्ग, बौद्ध तथा जैन साधु नगर नगर धर्म तथा सदाचार प्रचार कर रचनाएं करते थे। इसी प्रवृति ने जागे चलकर भंकारों के निर्माण तथा रवा में योग दान दिया। परवर्ती हिन्दी साहित्य में उपदेशक संतों की उद्भावना के मूल में यही उपदेश काम कर रहे होगें। वास्तव में इस्कालीन समाज का प्रत्येक क्षेत्र प्रत्याशित सामाजिक क्रान्ति का विषय था । इस्कान और मुगलों ने इस सामाजिकता में अपने आक्रमणों द्वारा विविध परिवर्तन किए। जिससे साहित्य रचना पर भी प्रभाव पड़ा। हिन्दू समाज आक्रांताओं से बराबर टक्कर लेता रहा। समाज ने विदेशियों की संस्कृति का दृढ़ता से सामना किया। (द) सांस्कृतिक स्थितिः संस्कृति में धर्म समाज, कला और सभ्यता इन तत्वों का समावेश किया जा सकता है। भारतीय संस्कृति पर समय समय पर ममपि विविध भाव होते रहे, पर कभी हमारे देश की रह सकी। यह भारत के ही नहीं संवार के इतिहास में भी महत्वपूर्ण स्मजीव घटना है। विका पूर्वकस्कृतिक का, क्या संगीत का क्या मूर्ति और वामी औरों का यह उत्कालीन कला प्रेम करने में यह है कि उत्थान प्रगति पर थी। क्या ि पर थे। राजा कस्कृति की स्वा योग दिया। गुप्त काल संस्कृति भी गुजरात तथा राजस्थान के राजाबों मेनोति दोनों कार्यो को पूर्ण प्रगति पर पहुंचाया। १०वीं शता परवा इन कार्यों का प्राथाइका ने की Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ को मन कर डाला। मूर्तिकला के इस क्रमिक विकास पर रानी के ये विचार उल्लेखनीय है सातवीं सदी तक पूर्व अर्जित मान बना रहा। आठवीं नवीं सदी मैं कुछ ग्रास जरूर होने लगा। लेकिन पूरी तौर से १०वीं शताब्दी में दिखाई पड़ता है बासतौर से यह बात चित्र और मूर्तिकला के बारे में बहुत देखी जाती है। दसवीं शताब्दी और उसके बाद की मूर्तियों बिल्कुल ही बदसूरत और भाव पून्य है। वैसे तो तीर्थकर की मूर्तियों को बनाने में कलाकार अगर बी टालते वीस पड़ते थे। मानव हठी, are serदी की कुछ बुद्ध मूर्तियां नहीं सुन्दर है। मगर आठवीं तादी के बाद तो बुद्ध और तीर्थकरों की मूर्तियां निरी पाषाण ही रह गई है। ही बोधि सत्वों कीर द्वारा की इर्तियां नवीं दसवीं शताब्दी में उतनी बुरी नहीं दीव पड़ती। बल्कि कोई कोई तो बहुत ही सुन्दर है। बासकर के कुर्किहार की आठवीं नवीं सदी की कितनी ही पीतल की मूर्तियां बहुत सुन्दर है। दसवीं गुबारवीं शताब्दी के कुछ चित्रपट free में मौजूद है। रुदाब बीर स्थिति के बौद्ध मठों में कुछ विचित्र मी बहुत अच्छे हैं लेकिन १०वीं ११ वीं शताब्दी के जो चित्र और बौद्ध वरल पोथियों पर मिले हैं वे जरूर मदे हैं।-- देलवाड़ा के जैन मन्दिरों में संगमर्मर पर ये कमल मन बहुत सुन्दर है। यद्यपि उनमें अलंकरण की मात्रा जरूरत से ज्यादा बी पड़ती है जिससे कानीन्दर्य की उसमें कमी है। तो भी संगमर्मर को मोम का भक्षण की तरह बनी किन्निबोध काट कर काकार ने जो की farar है यह खासनीय है। लेकिन उसी पत्थर में जोडियमी है उनकी नहीं होता कि उससे दुम्बर पर हाथ इतनी ही मूर्तियां सदी के बाद वह दिन और मूर्ति का का दिवाला भी बना सकते है। ही निक्क गाया है। के बाद की जैन मन्दिरों में बीन के बाद भी किता मिलती है जैसलमेर बीकानेर तथा पाटण १- हिन्दी काव्य पा Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के जैन मन्दिरों से इस ब्यूय पर प्रकार बढ़ता है। दक्षिण में श्रवन स गोल में माहवती की पूर्ति आदि को एतर्थ उद्यान किया जा सकता है। इन मन्दिरों की भूर्तियों को गजनवीं, खिल्जी आदि इस्लामी आक्रमण कक्षाओं में अब ध्वस्त किया। प्रति कला के साथ साथ जैन भवन निर्माण कला का भी विशिष्ट महत्व है। राजस्थान तथा गुजारत में इस कला का वैक्ट्रिय अनेक जैन तीर्थों और मन्दिरों में देखने को मिलता है, जिस पर विद्वानों ने पर्याप्त प्रकार डाला है। इन मन्दिरों स्थित जैन सरस्वती स्था विभिन्न जैन देवी देवताओं की पूर्तियां पी जिन पर डा. उमाकान्त प्रेमानन्द उपनिर्देशक कोरिएन्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट बड़ौदा एक विस्तृत शोध प्रबन्ध प्रकाशित हो चुका है। परन्तु यह स्पष्ट है कि पूर्ति का असावा प्रगति नहीं मिलती जो पहले थी। जातिीन हिन्दी बैन कृतियों में भी मी पूर्तिकला का प्रयावधि कोई विशिष्ट उल्लेख नहीं मिलता । अंगी। संगीत की इस काल पर्याप्त प्रगति हुई। नृत्य की भी प्राति पर था। भाव वर्ग के दरवारों में संगीत कृत्य या कादम्ब मावास गाबिक में संगीत के विकास नये वरण प्रस्तुत किए विमानों संगीत नृत्य प्रधान था। परन्न गीत के लोकातक स्वरूप में अत्यक्षिक प्रगति ई। मह मे या रास्ता होता। अनेक राम रामनियों का निसान मा। गुबराज पुनित - वाम काम्ब, पुस्तान पारस पारमादिपी मी योग दिया मी पति परानो बार प्रणिय मा . राजस्थान गोपीमी और प्रत्यक aer mau बोनों प्रों विलिनीकी प्रगति बोल दिया। माय लाभली मावी नेक संगीर Th. . . . - • पुरानी myfatNm. Pी हाई परावी मा नाति name पाम - पिपरावी कालराटी. बापावा Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रधान रचनाएं मिल जाती है। जिनका देशी स्वस्य, संगीत की देशी छन्द प्रधान डाले बाल मात्राओं से समन्वित विमिन्न देवी रागों के विकास में आदिकालीन रचनाओं ने महत्वपूर्ण योग दिया है। इन रचनाओं पर विस्तार में प्रकार प्रस्तुत ग्रन्थ के छंद सम्बन्धी अध्ययन के अध्याय में डाला गया है। इन रचनाओं में प्रधान है- रेवतगिरि रास जिनपति मूरि धवलगीत, विड्या विलास पवाड़ो, सरवर गच्छ पट्टावली, विराट पर्व, रंगसामर मेमि फाय, बर्बरी क्या त्रिभुवन दीपक प्रबन्ध। इस प्रकार संगीत कला की प्रगति में आदि कालीन उत्तर अपांव की रचनाओं ने पाच गोम दिया है। सामन्द्रों की राजसिक या विलास की प्रवृति के कुछ नूजन कलाएं भी पनपी जिनमें रनिवारों की विमला, जल कीड़ा के विविध आयोजन, नाटक रचना, स्नान मंडव स्वमाला का सामन्तों के विशाल प्रसादों में यह निहार देखा जा सकता है। संस्कृति का सामाजिक स्वस्य सामाजिक बत्वों का सांस्कृतिक विश्लेषण भी बत्कालीन कृत्रियों का प्रमुख योगदान है। संस्कृत प्रास तथा अपात्र के ग्रन्थों में हमारे पास्कृतिक विविध उत्थयों का उल्लेख है। हमारे देश के भारतीय उत्सव हमारी संस्कृति प्राप है। वैवाहिक प्रथानों में मांगलिक उपहार, म कसा राजानों का नगर की बालानों इवारा स्वागत, बावन, विवाहमा बादि उबारना का राडबा बबरी अभिनय गान इन सास्कृतिक उत्थयो, त्योहारों और पापीक है। होमस्या विविध डोगसव समारोहों को भी पर्व मनाया जा मा। भारतीय संस्कृती मोगमात्य परिवारों का बकार गादि का प्रथा । बिना र जिन्दी के कवियों ने भारतीय स्कृति की समस्याका राख, काय, परी या गीत ससवन मे रमानों का सर्व दिया जा सकता है। परिस्थितियां कि भारतीय परम्परा में की परम्परा पाया गया प्रारम ram, आदि Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४ साहित्य की यही परम्परा प्रान क्या अपने पल रही है। अपर गल भी साहित्यिक दृष्टि से या सम्पन्न रसा। स्वयंभू, धनपाल. पुष्पदास, हेमचन्द्र, भोज, मुंज, कुमारपाल, सरहपा, विद्यापति आदि महान साहिताकारों को नहीं भुलाया जा सकता। वस्तुत: आदिकालीन हिन्दी जैन माहित्य को परम्परा और पृष्ठभूमि के रूप में प्राप्त तत्कालीन अपश के बहान साहित्यकारों और उनके रवि साहित्य का बल प्राप्त है। ज्यों ज्यों मोल चाल की भाषा व्याकरण के नियमों में पती गई त्यो त्यों उसमें साहित्य प्रजन बढ़ता गया और जन साधारण की भाषा उनका स्थान ग्रहण करती थी। अपच का वह साहित्यिक प्रबाह विभिन्न प्रकार की साहित्यिक धारागों परिलक्षित होता है। अत: यह सारी माहितिक स्थिति भाविकालीन है। विध नावों का बाहित्य, अपर वियों का साहित्य या तत्कालीन चन कवियों का साहित्य व प्रगति पर था। इन को इसका निकालीन समय में पुरानी हिन्दी के इस गाहित्य का स्थान निधारव न्त महत्वपूर्ण प्रश्न है। वास्तव में अथक की यह निधि पुरानी हिन्दी को वरीयत के रूप में मिली है। इस पर पर्याप्त प्रकार प्रस्तुत बन्ध के अपक्ष साहित्य सम्बन्धी परिचय व्या विश्लेषण करने वाले अध्याय में डाला जा चुका है। यही पृष्ठभूमि में तत्कालीन प्राप्त साहित्य का विच विवरण दिया जा रहा है। वाथ वैन प्रथा प्राय प्रचार आन्दोलनों का विकास गरिसष्टिविी बसी माती के मध्यात्म पर अदि बिार कि बायो मेशियों पर गायों की म तियाँ मिनी मध्यस बार पुरानी कायों की माली मजदेवा भवपाशा या tanी इसका भी पता नहीं मकवापरबारयि हो धी पा उसमें भी देर पावागावी सादी कनेक विन माप गिर गयोन परि स्वयम्, धनपाल, मि, वा पुज्य विदयापारिक प्रतिगारो । Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ १वीं शताब्दी की प्राप्त अजैन रचनाओं में हिन्दी की तीन कृतियों प्रमुख रूप में मिलती है: १- वीसलदेव राe (अजमेर) १. पृथ्वीराज रासों (दिल्ली) ३- आल्हा ठ (महोबा) परन्तु इन ग्रन्थों की परंपरा अनुभुति मध थी अतः इसमें अनेक परिवर्तन होते रहे। सिदधनाथ साहित्य 7 बुद्ध धर्म ने सिद्धों और नाथों की रचनाओं को प्रदान किया। महात्मा दूध था महावीर ने जन भाषा में अपने उपदेश दिए। गीतिकाव्य उनका माध्यम रहा। अतः उनके प्रचार में सरलता बनी रही। साथ ही इनमें दार्शनिक क्लिष्टा मी अधिक नहीं थी। साथ ही साथ राजनीति की विविध करवटों ने भीमति स को बल दिया। वतः शव १५वीं बताब्दी में भक्ति के आज तक मिल जाते हैं। विविध सम्प्रदाय बने जो मध्य देव के १वीं से १५वीं शताब्दी की प्रामाणिक प्राप्त साहित्यिक veera पर ईशोध में अद्यावधि कोई सामग्री उपलब्ध नहीं हुई। महुद सम्भव है भौगोलिक वातावरण, आक्रमणकारियों के इन तथा सीलन और कृतियों की सुरक्षा की परम्परा होने से ही उत्कालीन वामिष्टष्ट होगा हो । इतर ग्राहित्य के बाद वो हिन्दी साहित्य में परम्परा चलती है। भी की कामी हिन्दी की विविध बोलियों की सम्मति है। में लिया हैरान और प्रेम काव्य सेव को माध्यम लाया। कम प्रादेशिक भाषायों में प्राचीन राजस्थानी और यूनी वराहीका धारा मिलता है। दविण में हिंदी (प्राचीन खाकी कवियों की रचना मिलती है। रचनाओं की ऐसी माजावान उपमें कवियाप्रेमी पोच धर्मका मादि रामस्वामी मारवाड, विद्वान, रामानों Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मी पाटव नगरों का महत्व है। निम्बई ९६ वाड, आबू, अजमेर, दिल्ली, जयपुर, नागौर आदि विविध इन्हीं परिस्थितियों में आदिकालीन हिन्दी जैन साहित्य की स्थिति पर विचार किया जा सकता है। वस्तुतः इस स्वतोव्याघातों के आदिकाल (१०००- १५०० ई० के इस उपलब्ध हिन्दी जैन साहित्य का अध्ययन, उसकी पृष्ठभूमि प्राप्त जैन जैन reera की मुख्य प्रवृत्तियों तथा समसामायिक विवेच्य परिस्थितियों के अध्ययन के किया जा सकेगा। Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धान्वः उनका प्रचार पर प्रति-पाय न्जन्म्म्म्म्म्म Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ जैन धर्म के प्रथम सिद्धान्तः उनका प्रकार वीर प्रतिपावन : www बारम्भ काल 110011 आदिकालीन हिन्दी कृतियों के हिप का अध्ययन करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि इन रचनाओं में जैन धर्म प्राणधारा के रूप में विमान है। जैन धर्म के प्रचार प्रसार तथा जीवन में सदाचार का मूल्य समयने और उसे जनता के सामने रख उसके लिए ही इन जैन कवियों ने इस विहाल वाहिय का जन किया है, तथा प्रकारान्तर से धर्म और दर्शन के विधानों को जनता तक पहुंचा है। अतः इन रचनाओं के मूल में प्रेरणा के रूप में विमान जैन धर्म तथा उसके प्रमुख दार्शनिक ािन् काष्ठ परिचय कर लेना परमावश्यक है। जैन में जैन धर्म और उसके दार्शनिक सिद्धान्तों का परिचय इस प्रकार है:जैन धर्म का उन और विकास। जैन धर्म अत्यन्त प्राचीन धर्म है। जैन धर्म के दिन दीर्घकर महावीर स्वामी मी १०० वर्ष पूर्व होने वाले भी पार्श्वनाथ को ऐतिहासिक महामान किया गया है। धर्म की एक डाटा मात्र ही मान किया बीच गया है पर यतिका निराकरण हो है ट का बारम्भ का ८०० वर्ष ६० पूर्वपान दिला गया है। पर डा० हर्मन कोणी और There can no longer be any doubt that rahva was a historical personage. According to Jain tradition he must have lived a hundred years and died 250 years before Rahavir. Bis period of activity therefore Creponds to the 8th century 8.0. मोइन्ट्रोडक्सन टू सेम के वियो "There is nothing to prove that israhva was the founder of Jainin. Jala tradition is animous in asking Rishabha the first Tirthankar (as ite founder) there aay be some thing historical in the tradition which nakes him the first tirthankarl. see Indian Antiquary Volume IX. page 162-163. Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८ ढTO राधाकुम्बेन का जैन धर्म के प्रथम संस्थापक के लिए मतैक्य नहीं है। एक पार्श्वनाथ को मानते है तथा दूसरे रिव देव को, पर आज अधिकतर नैनी रिक्मदेव को ही यह मान्यता देते है। रिदेव के महावीर तक जैन धर्म भारत के विभिन्न प्रदेशों में विमान था पर धर्म ने अधिक रम वीर स्वामी महावीर से ही पकड़ा। बौध धर्म की परत जैन धर्म भी रामानों द्वारा सम्मान प्राप्त करता रानीरों में महावीर ही माने जाते है जिन पर कर रिवमदेव पानाथ और नेमिनाथ, UNT काव्य रहे गए हैं। कवियों ने इन्हीं वीरों महावीर का प्राइमीय बौद्ध धर्म के य को अपने काव्यों का विषय बकाया है। महात्मा दूध के साथ ही हम विद्या में भी दोनों रही श्री नेमिनाथ पर हिन्दी प दोनों धर्म समाज के प्रगति करते रहे। अतः प में पामहा रही है। महावीर के म काव्यों में का राज परि प्रध आदि अनेक ग्रन्थ किये गए है। महावीर का जन्म ६०० ई० पू० ३० वर्ष की अवस्था में हो गए। महात्मा बुद्ध ने और महावीर ने भग एक ही अवस्था में ईधार त्याग किया। बेदार का इस स्थान की पीड़ा का निराकरण उनके प्राणों में गहरी प्यार करना था। १५ वर्ष के कहे बिहार प्रान्त में इमा। तक महावीर ने के बाद उन्होंनेको उनी गई उपदेश दिए। उनके उपदेश उनके उपदेशों भी पूर्व प्रभावित है। है। बाकी बात हो दूर, (1) There is evidence to show that so far back as the first century B.C. there were people who were worshiping Rishabhdeo the first tirthankar. There is so doubt tht Jainism prevailed even before Vardhamana or Parasnath. The fajurveda mentions the names of three Tirthankare- Rishabha, Ajitnath and Ariethaneni. the Bhagwata Paran endorses the wieve that Biahabha was the founder of Jainsie see Indian Philosophy Vol. 1 page 205. (11)Jainion prevailed even before Vardhanena (Mahavira) er Farahva Bath. the Tajurveda mentions the names of three Tirthankar Rishabha Ajit Nath and AristoBee Indian Philosophy vel. I page 207 2. S. gadhakrishana Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेक राजबंधों में जैन धर्म को माना। महावीर पाबात जैन धर्म त सम्प्रदाय हो गए। विताम्बर, १० दिगम्बर, - यापनी ताम्बर सम्प्रकार के अधिकतर मनुयायी रबर प्रदेश, राजस्थान और गुजरात के प्रदेशों या दिगम्बर सम्प्रदाय दक्षिण में अधिक सामाजिक में दिगम्बर सम्प्रदाय अनुयायी राजस्थान में भी मिल जाये। बाम्बर भन्दा aryal प्राचीन राजस्थानी या जनी गुजराती वा सर अ धिक काम रखना की या गिम्बर सम्प्रदाय वाले सालों में दी भाग काय रमा की। बीरा सम्प्रदा. यापनीय सम्प्रदाय है। यद्यपि या सम्प्रदाय विणभर सबा अधिक मिलता है परन्तु इसके मानने वालों की स्या का है। समापि स्वयंभू भी इसी सम्प्रदाय के अनुयायी थे। इन प्रदाग सिद्धान्ती निर मा वाम गाभ्य नको राम्याMAL - उत्तर भारत मावी वादी जैन धर्म का इस प्रकार रहा। मगर महाराव बीटार गाय थे। बाटार पुलिस महागलोर , भानु प्रकरण गरमागरमालामा पीनामापीवाली की साकोलीग-N- गामायाका THEmबाम (Mict.) Mantra मा प्रगति गोम नि विमानों की प्रार .. रावी then f arm.ark Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० अशोक के तिरपी - देवनार प्रियवर्ती से स्पष्ट होता है वह पहले जैन धर्म का उपासक था फिर मौge हो गया ।" अशोक का भी सम्प्रतिपी उजैन धर्म में दीवित हो गया था। १. अड़ी में धर्म उड़ीसा में जैन धर्म का महान उपासक कलिंग का राजा बारवेक था। प्रसिद्ध या हवेनसांग कलिंग देश को जैनियों का मुख्य स्थान कहता है। इससे स्पष्ट होता है कि बारने के बाद मी अनेक वर्षों तक धर्म कलिंग में कमा रहा । सारवेल पूरी तरह से जैन था। बारवेश के बाद ऐसा प्रतापी राजा नहीं हुआ। उसने मारत भर के बहियों, जैन उपस्वियों, जैन रिकियों और पंडितों को लपक धर्म सम्मेलन किया। कैम ने वार को -महाविजयी - कीवी के लिए "म राजा" "मिराज" और "धर्म राजा की पदवी दी।" इस तरह जैन धर्म को उड़ीसा में बढ़ा प्रमथ मिला। ३. बंगाल में जैन धर्मः बंगाल में भी न की प्रगति का इतिहास मिल जाता है। मानवून, मीर मीर वर्तमान आदिनी के जिलों के नाम करम महावीर तथा वर्धमान के धार पर ही दूर है। रमन में कई मूर्तियां मिली है। बाचार्य सिसरोन तेनों में यह कहा जाता है कि - परीक्षा ले से गंगा में धर्म में, मैं और में धर्म का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है के अनेक है। प्राचीन पिके से विशेष और ये वावर देवनागरी के साथ नहीं मिल पर प्राचीन विधि #TWTX में १ विश्व है। 3- «refta eftere #t'viter - jo sp-tÈ! ३०३८, ४- विश्वाची कृ०१०३-२०४ । • बार उड़ीसा रिवोपाटी पाली प्रकाशक भारतीय दि Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४- राजस्थान में जैन धर्म : १०१ अशोक के पहले से राजस्थान में जैन धर्म के प्रचार के प्रभाव मिलते हैं। यह भी बहुत सम्भव है कि अशोक के पौत्र सम्प्रति ने राजस्थान में कुछ जैन मन्दिर मनवाये है। बोभा जी ने राजपूताने में जैन धर्म की स्थिति को अजमेर के बहली प्राम के जिला के द्वारा बि० ० ३८६ पूर्व की सिद्ध की है। राजस्थान में अनेक जैन जातिय मोसवाल, पटेलवाल, पालीवाल, बोरवाल, पावकीय, आदि प्रचलित है। चित्तौड़ के प्राचीन कीर्ति स्तम्भ का निर्माण जैनियों मे ही करवाया था । उदयपुर का केशरिया नाथ जैनियों का प्राचीन तीर्थ है। जैन धर्म की सेवा राजस्थान में जून की जिससे इस धर्म को यहां बड़ा मिला। जैनापूर्वी प्रचारकों और कवियों में ही नही जाति रही। साहित्य वजन खूब हुआ। अनेक मंदरों की स्थापना हुई । जैनियों मे राजस्थान में राजकीय पद, मंत्री, दीवान सेनापति, बादि प्राप्त कर जैन धर्म की बड़ी सेवा की। बायू, जैसलमेर, बीकानेर, जोधपुर, उदयपुर, अजमेर, जयपुर आदि प्रसिद्ध नगरों में मकराण्याश्रय प्राप्त जैनियों ने अनेक मन्दिर बनवाये । मनेक ग्रथों की टीकाएं कि क्या बैलमेर मागोर, कापूर, नामेर, बीकानेर मादि स्थानों से प्राप्त इस समस्त प्रान्न भंडारों के मूल में ही जैन धर्म रहा है। ताम्बर जैनियों की ही रही। दिलम्बरों की वेदाम्बरों के म 1 गुजरात वर्गः राजस्थान की ही धर्म की प्रगति की परम्परा उमराव में रही है। बरा का निरनार तीर्थ प्रसिडी नेमिनाथकी है। गुजरात के कालीनगर में विनि। श्वेताम्बरों की अधिक रही है। बरा के राट राजाकों में अमोधर्व जैन धर्म के महान प्रेमी १- राजाने का इ०११-१२ द्वारा शंकर हीराचंद गोदा Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रामटों के बाद वाक्यों और गाढायो पायात गड़ा के पास जैन धर्म गै बाग डोर गई। बावड़ा और पाय दोनों जैन धर्म प्रेम करते थे। पाक में मूलराज ने मनासिवाहा जैन मन्दिर का निर्माण कराया। भीम प्रथम नापति विषल ने प्रा पर पन्ध जैन मन्दिर बनवाया जिसे आप विमलनही कहते है। विधराज गासिंह और मारपात पर आ मचन्द्र का भारी प्रभाव पड़ा। आचार्य ने सिद्धराज जयसिंह के नाम पर अपना वियोग मारक रमा। धिराज ने महावीर स्वामी का सिपुर में बड़ा भारी मन्दिर नामामारपास धर्म स्वीकार कर मास माय मादि सबन्द करवा यिा। अनेक वैन मन्दिरों की यात्रा करना कुमार पाल ने की। इनके समय में अनेक प्रन्धों की रमा की। यी अगदी बों का राज्य होने पर उनके मंत्रियों वस्तुपाल बार देवपाल मा पर अनेक र मन्दिर बनाए । जय और गिरनार पर उनके मार भन्दिरों की fast भाप मी पुरक्षित है। इस प्रकार वलभी, पाटब, अब डिवाक, गिरनार आदि स्थानों पलाय कवि पंडार तथा उनसे प्राप्त विविध प्राचीन साहित्य पारती न बनण irpति और उसकी मन का मल प्रमाण है। formामयों TT पन्य विवरणों और विषय नायी माराम विदी। मारामारी सर्वानी की माना होगा कि सीमाली बीम LATE m pire कमाना। गोरखपुर बार inmar प्राचीन प्रमाण मिलने है। वीं गादी mmeी बाई HTTीन परामा निकी कि Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०३ प्राचीन अवशेष को मिलते है पर मयावधि प्राचीन साहित्य की कोई रचना उपलब्ध नहीं हो सकी। इस प्रदेश में पर्याप्त प्रगति की। मुबालियर के कि विशाल जैन पूर्तियों की लता या प्राचीन रामपानों का, जैन धर्म भूचित करती ।वी रवीं ग्वादीमारी के सा राजा जैन धर्म के अनुयायी थे ऐसा मातोशकों का मन का सम्बन्ध राष्ट नरेशो से था। जो जैन धर्म के उपासक है। बारी की राजधानी विपुरी और पुरनी पी जैन अवशेषों लिए प्रसिदध है। पर या अनेक जैन नी । स्वागिरि मर और पेलया ग वीनगर प्रमियी । अप नी सिप प्रसिद्ध है। वराहों जैन मन्दिर नीम के प्रतिरिक्त देवगड मागिर, बोनागिर और अनगिरी भनेक वैनियों की भी बादी बध्य प्रदेश में जैन पद प्रमति पर उत्तर प्रदेश तरा इस प्रदेश मी मावधि मंडारों में कोई तीन कपमा नहीं हो सकी। वस्तुतः इन देशों की बगेर होगा । - विरारमा बिहान प्रो. रामवासी बाबर TRImamotoमाकर मालपारामारामानों अपने धार्षिक शाहिर. का विकरमारा विारीकोरी कि स्थानी nा कला कि ये बाधारणतया w - - निमय,.५४-५६, प्रो. रामा ल्यापी आसरा Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लौकिका बासीन रहते थे. गलत है। एक सीमा तक यह है कि संसार में सम्बन्ध नहीं होते थे। पाल्तु मेगास्नी विवरण हम जानते है कि मी पूर्व रतुर्व खादी तक राजा लोग अपने दूतों इबारा बनाक्षी जैन प्रभवों में राजकीय मामलों में स्वत्रता पूर्वक मला माविरा करते थे। म पुलों ने राग्यों की स्थापना कीबी और राग्यवादियों तक जैन धर्म के प्रसहिन्दु बने रहे। कि जैन धर्म प्रची मात मिय पर जो गोर दिया गया इस जाति राजनैतिक प्रयोगति को प्राप्त हो गई। उम जैन कवियों, गुजों व मानों को भाया प्रेम क्या राजकी कार्यों में उनकी प्रगति पर प्रकार या है। दकित में से ही प्रचारकों में जैन धर्म की बादी वा क्या प्रपति की। saa: दक्षिण में साहित्य को प्रदेशों मिलता है. बामिल और नाटक शामिल होक या पास्य मोहन धर्म महान पस मिल मालिवियर • मा० मार लामो वारा पीस कोक का प्रतिदूध जैन है। बरा का सिर । Fधाचा वारा खेलमा प्रविध मिति भी प्रविधि सर्व विदित नवागनों पी का वर्णन किया है। मास्टर इतीपट मे बीता और गरीमरी पर नियों का प्रभाव बताया। विगविगीनामा for Imमारवान्यों की प्रसारमा लागी म धर्म । - Ramr o -ter, प्रो. रामा स्वामी प्रार्यगर। Comparatimammertopriatanorthatanay LanguagesolkILMSeton (1ande1913). Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रयदाता थे। बास्यों ने अनेक जैन मन्दिर बनवारी । नाटक में तो राजकीय प लागों में भी जैन धर्म मा लिया। वीं शताब्दी गय राजा तैलय के मेनापति मल्लप की पुत्री मरियमये भाव जैन धर्माचारिती थी जिसने सोने और कीमती पत्थरों की डेढ़ मार लिया बनवाई थीं। बदम्बराजा कीशिव की पत्नी पाललदेवी का स्थान भी धर्म प्रेमी जैन महिलामों में अEPE बा जिसमे पावनाय त्यालय मौर ब्रहमाजिनालय बनवाया। यही नहीं कि बंग ने जन धर्म की प्रगति में योग दिया। मंगवा जैन वर्ष को राजधर्म बनाया गया गंगामों में न विदर मार, * प्रतिमा की स्थापना की, जैन अस्वियों के लिए कार्य बनवाई और नाचायों गे दाम दिमाधव, अवनीस, पारसिंह मितीय त्या बा-डराय प्रसिदध और पनी । दक्षिण मैसूर (अयनवेलगोला) के विध्यगरि पर गोमटेश की विशाललाय EिRA स्थापित की जो भाग विश्व लिए बार की बस्तु है। स्वयं गाडराय प्रविध विनाम एवं लेखक थे। जैनियों का प्रसिद्ध जन्य- गोपटराव- इन्ही लिय तिला गया। प्रणिमड़ी जैन कवि रत्नपी नयरवार रागवंश की पाति बसत में भी जैन धर्म में योग दिया और साकी प्रमति और नाम नी खादीन मेरी रविशार करो मही माया मा पारपट मी पानी की सोच का प्रथम मनी रावा बा िभापनि । ममोपसमय मोहा। सिबर पिन्नों की पता और बहीण लीनागनालाप अपने जैन व्याकरण पर नोति माग मा महावीर विचार ENTRA wि TET form Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ अधूरे ग्रन्थ- आदि पुराण को पूरा किया। अमोधवर्ष के पुत्र अकाल के समय में गुणम मे अपना उत्तर पुराण समाप्त किया। राष्ट्रकूटों के पश्चात् वाक्यों के हाथ मैं राज्य शक्ति आते ही जैन धर्म का ग्रास प्रारम्भ हो गया। जैन मन्दिरों में से जैन मूर्तियां उठाकर फेंक दी गई और उनके स्थान पर पौराणिक देवताओं की मूर्ति स्थापित कर दी गई, ऐसा विवरण भी मिलता है। इसके मूल में जैव और वैष्णव धर्म का प्राध्याय ही कारण था। दक्षिण भारत में जैन धर्म पर जब पारी आघात होने लगे ठीक से सम में दक्षिन के नगर राज्य ने जैन धर्म की प्रगति में योग दान दिया । इस राज्य के उच्च पदस्थ कर्मचारी जैन धर्मावलम्बी थे। हरिहर द्वितीय के सेनापति इका जैन के स्टूटर क तथा अवलम्बी थे। यही नहीं विजयनगर की रानियां भी जैन धर्म पालखीथी । श्रवणबेलगोल के काले देवराम महाराज की रानी पीपादेवी का जैन होना प्रकट है। इस प्रकार दक्षिण भारत के लगभग डमी राजाय ने प्रमुख मनु रूप में जैन धर्म की सेवा की और उसकी प्रगति में साधारण योग दिया। समपि १४वीं शादी तक दिन में विभिन्न धर्मो के प्रकार व्यादायक द्रवेश के कारण जैन धर्म दिन हो हो गया परन्तु फिर भी वह अपना गहरा स्थान बना ग पर्व की महान निधि छोड़ गया। वस्तुतः दक्षिण की मावा में विवाहित्य का चयन पर्व शोध मदन मावश्यक है। विभिन्न प्राि भाषावों में विरचित कवि का कम होने पर की रिझो विदेश में अधिकारी भी कवि और उन्होंने प्राचीन राजस्थानी प्राचीन प्राचीन मराठी और माली माया में की, या विवम्बरी विवानों ने दिन का क्षेत्र अपनाया। पर इसका यह नहीं है कि उत्तरी भारत में दिवम्बर का ही नहीं अजमेर, मार, दिल्ली, मेरठ, कानपुर मादि ने कवियों द्वारा प्रणीय रचना मिली है। स्थानों में विम्बर सिरहार गरी Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी नहीं है। वेताम्बर सम्बाय का प्रबार गुजरात में अधिक राजस्थान में बीकानेर, मेर, पान, जयपुर आदि अनेक डार श्वेताम्बरिकन कवियों द्वारा प्रनीत मयों के डार है। जिनकी अनेक कृषिया पुरानी हिन्दी की सम्पत्ति वस्तुतः उत्तर और दक्षिण भारत में जैन धर्म के ग्वेताम्बर और दिगम्बर सम्प्रदा की प्रगति की बप में वही कहानी है योकि श्वेताम्बर या दिगम्बर खदानों पर अनेक विद्वान या प्रकार के यहा इन सम्प्रदायों पर अधिक लिमा एम्पेषण मात्र होगा। श्वेताम्बर, दिगम्बर, पम्प्रदायों अतिरिक्त पी एक तीसरा सनदा -वापनीय सम्प्रदाय है। यह सम्प्रदाय दिगम्बर सम्प्रदाय का ही दूसरा स्वरूप है। इस सम्प्रदाय की शिल्प जन्य विशेषताओं का क्षिप्त परिवार यापनीय सम्प्रदायः दिसम्बर और श्वेताम्बर सम्प्रदायों के प्रतिwिa धर्म का पक ग्रीय पर्वमहत्वपूर्ण सम्प्रदाय यापनीय मन्नादान है। इस सम्प्रदाब को बानीय मापुतीय मा गोच च कहते । इस सम्प्रदाय का इस समय भी नुमायी नहीं है। दिसम्बर ताम्बर मीर जापनीय के तीनों सम्प्रदाय बमकालीन । m ar पब यह सम्प्रदाय और मास पासमा प्रभावशाली रामट बावि राजावों में मापनीय सम्वाब बालों को पियार मादि किसी का निवारणीय सम्मानपूर्वक THE या गटान गाकत अ सलसिौर रियपि पारित सविता स्वार निवास बालक पका मन नपरनानी पट अवश्य बीविया होगा, 1. Ahan - raamsamvीनाराम प्रेमी: हिन्दी अन्च रत्नाकर . ....पाध्यासी Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ milam ऐसा अनुमान लगाया जा सकता है, क्योकि मि के कागबाई के शिलाले २ यायनीग सम्प्रदाय के धर्म कीति और भागबन्द्र के समाधि लेगो का उल्लेख श्री नाभू राम प्रेमी ने अपने प्रन्थ कि मापनीय बामपीय सम्प्रदाय की उपासना और उसका स्वरूप: सापनीय च वाले भी दिगम्बरों पर्याप्त मेल जाते है। उनकी प्रतिमाएं विस्म होती है। अत: दिगम्बर और मापनीयों की प्रतिमा म अन्तर को सपना कठिन है। इसी तरानापतीय च का बहुत था साहित्य भी सबूत दृष्टि है दिगम्बर सम्प्रदाय जैसा ही मालूम होता है। सित बिस्तर के कवी हरिभद्र और पटवर्शन मधुम्चय के टीकाकार ने इसकी उपासना और स्वरूप वर्णन किया है। उनके अनुसार नि मगन रहते थे। पोर की पिछि रसते थे। प्रतित पोजी, नगन यि पू और बंदना सेबा भावकों को धर्मलाभ हो। सब बाबरियों जैसी थी, परन्तु पाय मानक स्त्रियों को बीभ मोव हो सका है, व मोन करते है और प्रभावस्था और परमपी गुल होना है। इसके सिवाय गटान की बमोरिय बारों से मालूम होता है कि पनीय में पावर बसून मिति और स मादियों का पलपान होता था बबाह न मानों वारियों माननी पी शिवारों को पी गानी .. गालीन बार गया . ... .. गनीम वाव मिमी की है कि पुvिaram me ना मी - भी पनपायोमानी हा का सामना - remARषी . .. r-ma mi Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०९ श्वेताम्बर भंडारों में मिली है। आपनीय संघ भागमों को भी मानता था और उनके आगमो की वावमा श्वेताम्बर सम्प्रदाय की उपलब्ध वल्लमी वाचना से भिन्न थी। उस पर उनकी स्वतंत्र टीकार्य भी होंगी जैसी की अपराजित की द बैकलिक पर एक टीका थी जो अब प्राय है। वस्तुतः वाचनीयों के प्राप्साहि के आधार पर हमें श्री नाथूरामजी प्रेमी के इन निकयों का ही सहारा लेना पड़ता है " जिस सम्प्रदाय के अस्तित्व का १५वीं शताब्दी तक पता लगता है और जिसमें शाक्टायन और स्वयंभू ठ प्रतिभाशाली विद्वान हुए है उसका साहित् सर्वथा की नष्ट हो गया हो इस बात पर सहसा विश्वास नहीं होता यह अवश्य होगा और प्राचीन प्रथ पंजारों में ज्ञात अज्ञात रूप में पड़ा होगा। विक्रम की १वीं १वीं शताब्दी तक कन्नड़ी साहित्य में जैन विद्वानों ने एक से एक बढ़कर सैकड़ों ग्रन्थ है, कोई कारण नहीं है कि जब उस समय तक मापनीय संघ के विद्वानों की परम्परा चली आ रही थी, तब उन्होंने भी कड़ी साहित्य को दस मी ग्रन्थ पेट न किय हो । कड़ी में जो ग्रन्थ उपध है, पता से जांच की है कि उनके कानों में किसने आपनीय थे? यापनीय संघ के साथ जैन धर्म के तुलनात्मक अध्ययन करने बालों की बड़ी सहायता मिलेगी। गिम्बर श्वेताम्बर पहनेदों के मूल का पता लगाने के लिए यह दोनों के बीच का बीर दोनों को परस्पर बोड़ने वाला है और धर्म का प्रारम्भिक इतिहास एक तरह से पूर्व ही इसके प्रकाश में माये दिला उक्त हो जाता हैकिस्तार इनके होने और यह कही भी है। मेर दानों के अनेक प्रकार के वर्ग प्रयोक्ता से बीटे जैनियों में मन्दिर मार्गी, बापू, रवी वजन हे वाचन वादादिवर्ष है, इसी तरह दिगम्बरों में भी इन नयाँ वर्षकी बन्दिति में पारी वाचा प्रस्तुत हुई है तथा आज प्राचीन काल कीरा की पाव में उत्तरोत्तर कमी जा रही है। १ र ७३ । Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निष्कर्षत: जैन धर्म बौध धर्म की ही भाति शक्तिशाली प्रादुर्भाव लेकर आगे बढ़ा, पर १२वीं १वीं शताब्दी तक इस धर्म को तत्कालीन अन्य धर्मो के प्रवर्तकों से एवं जैन धर्म के कठिन साध्य नियमों से इस धर्म को गहरे धक्के लगे। ११० आदिकालीन हिन्दी जैन कृति में जैन धर्म के विविध दार्शनिक सिद्धान्त और उनका परिचय: मयावधि जैन कवियों द्वारा प्रयुक्त जिवनी कृतियां मिली है, उन सबमें इस धर्म के प्रमुख वार्शनिक विद्यान्तों की अभिव्यंजना सर्व देखी जा सकती है। वि सच तो यह है कि इन कृतियों में अधिक समाज के सामने धार्मिक बिटकॉम प्रस्तुत करती है। धर्म का सम्बन्ध सदाचार और सेवा से है तथा बिना समाज के सेवा का मस्त्वि नहीं । अतः शांति और सदाचार से इन कृतियों में कवियों ने मम दिव और मन दोधन को बनाया है। इन कृतियों में जैन धर्म के प्रमुख ोिं को देता जा सकता है। (१) संसार यार नश्वर है, जिम और न ही बार है, दीर्घकर संसार की नश्वरता का बीच देते है। अतः संसार को नश्वर सनम प्रत्येक व्यक्ति को मात्र वाचना में पर होना चाहिए। वह वर्गों और मार दिय के द्वारा ही मनुष्य संसार के निकिता है। जैनियों ने धार की नरवरता का उपदेश दिया। अतः पहले संहार की फिर लामा को उपपना वापरतेश्वर बाकी राड, चैनवाला राव, नरनारी मोच या स्कूलिका में संवार की नश्वरता पर बहुत कुछ किया गया है। (3) HEL न्य पाच • कवियों में भी है। प्रमुख तत्व जीव, जीव, निर्जरा, आदि है। इनमें आठ तत्वों को जीव वाचवा है तो काव्यकारों ने इन मो की प्राप्ति उसे स्वतः हो जाती है। का हाथों में बाट दिया है। वीवों में मुष्य और प Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १११ स्वर्ग के देवता, तथा नरक सब आ जाते है। बंधन को कम के आवर्त में माधदेवा है। अत: परमाणु से लेकर स्थूल, अतिस्थूल और महा स्थूल सब पदार्थ पुद्गल है पुदगल का मूल परमाणु है। ये परमाणु है। परमाणु की प्रथम स्थिति प्रदेश कहलाती है। मुद्गल के संख्या अर्थमा और अनन्त प्रदे होते हैं : प्रदेशात्मक समूह * कारण ये अस्तिकाय कहलाते है। पाप और पुश्म इन्हीं अस्तिकायों से सम्बन्धित है। जिन कारणों से आत्मा के साथ पाप सम्बन्धी विविध कर्मों का सम्बन्ध होता है, ये कारण मास कहलाते है। वर्ग बंधन में मनोव्यापारों का स्थान प्रमुख है स शरीर को विभिन्न कयों के बंधन से रोकने वाले आत्मा के निर्मल मानों को संवर कहा गया है। कर्म का मात्मा के साथ दूध और पानी की भीति होने का नाम मंथन है। गम को इन्हीं बंधनों से बयाना मोड़ की प्राप्ति कला है। (३) माठ कर्म sa को आवागमन के बंधन में बचने वाले ये बाठ है। जिनमें ज्ञान वरण, वनावरण, वेदनीय, मोहनीय, गाइ, नाम, गौत्र और अंतराम आ जाते है। इनमें से दर्शनावरण, वेदनीय मोहनीय और अन्तराय पाप कर्म है चारही इन्हीं स्वाधीन है। इन आठों क्यों में मनुष्य जैसा कर्म करता है वैसा ही उसका भी भोगता है। ज्ञानावरण ग्राम शक्ति को बनाता है, वर्तनावरण दर्शन शक्ति का अवरोधक है मोनीय मोड उत्म कथा है। राय इष्ट वाचन में बाधा उपस्थित करता है। बीदों की बाइ बाती है। बाद कर्म पर अच्छा या द्वरा दौर, इश्वर भगवा इस्वर अथकवा अवध बाबा है। गोचक होते है। संस्कारी कर्म के देवता भाइभाइ विवेद बाला मार का पूरा म उच्च नीच दो काम में होगा इस कर्म का परिनाम है। कार्य विश्न उपस्थित कला है। अकरा है बंधन भावबंध और प्रदेश मे चार प्रकार में है। होते है। यानी जाता है। है और इनको रोकने का नाम है की के भाव का नाम है निर्मम फिट काम निर्वर और Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - काल निरा बो प्रकार की होती है। यदि मिर्जरा काल बन गया कर्म विनष्ट हो गए तो पत्र की प्राप्ति होती है। अन्यथा lna है। मोब से सबको मय हो सकता है। मोल बल नाम की सिद्धि हो जाती है। (यामाम, पन्या चरित्र और सत्य मात्मतत्वको पहिचानमा ही मामान (Rahe Kmastudae है। माम विधि कर्म आवरण को मामे बिना स्पष्ट नहीं हो सकी। बार की सम्पूर्व पीड़ा था सब भावात्मा की शामता पर बलविati मामापिस होना ही जीवन को माध्यात्मिक माना है। सत्य मान का पाप मोर ना होता ही हरित ( Raha conduct 1, पर ना जीवन का स्वर्ग कला या पाप माँ पुर राना बनी नारिया या प्राप्त करना है। इस गारिक मागों और गस्टो दोनों का गरिय गाबिल है। राग इसकी रियो मे बवाना और गीला ही वार्म का प्रसव- धर्म विश्वत्व का है। पान्य बरा त्य, माधिकाधिक ग्याला शोरपिसाव वन भोग होता है। मग मर्मीमा मया है। दो anth - :- अक्षिपात का बाबाली की त्या नहीं करनी muीमेवारयों का त्याग सा चाहिए महाना -पीनी मना- मासिक पी गरीबाला पुरी पोरी का माम माम मावस्या Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णन किया है। अपनी पत्नी की पादित गति के अतिरिक्त प्रतीक की कामनेष्टा देय है। - अपरिह अपनी आवश्यकताओं को जितना कम किया जाय इतना ही ठीक है। अनावश्यक वस्तु ग्रह से बचने को अपरिग्रह कहा जाता है। - दिशाओं का प्रत: नियों ने पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण दिशान, आमेय, रित्य, वायव्यये गार विदिशाएं, सिर अर की उर्व दिशा और पैरों के नीचे की अयोधि इस हराद विराई पानी है। इनकी प्रवृत्ति के अनुकूल बने कार्य में अवरोध नहीं होता निविन समाप्त हो आते है। भोगों - पोगों का मिलना अनिवार्य है। जैन म के अनुसार एकर जमा उपसोग किया जाता है, वे पदार्थ भोग कहलाते जैसे अन्न, ल , मादि। था जो पदार्थबार बार उपयोग मे उपयोग करता है। परवाभाय का निभी इसी बस में शामिल है। - निरर्थक पापावण: इसका नाम अनर्थ ही है। अनावश्यक पाप मनुष्य करता है। उसे पाप का उपदेश नहीं करना चाहिए। हिंसा पाप का धूल, इससे बह दूर है। पूरी वस्तुओं को उसे भूलर भी ध्यान नहीं बना पाए, क्योकि इससे अनेक प्रकार प्रमाद पाकिता पड़ी एक बान परमार ध्यान करने को सामाजि को है। : मासस्य में स नहीं कर धर्म गावो का चील या परपात्या प्रमिधान करना चाहिए। -पोषणा का परिणाम होयको बाका परावण मेरो- शायविधि नि! बोडीना वाणाला पारावा और प्रान्तमा राजीनामा मा भी मा गावातीसदी मासिकार का मानों में प्रारम्प पाच बों को मामलामागे तीन गुणवत पारा Heman सन मानt, antra माग हाडी mms र बम्ब इष्टि Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ की सृष्टि होती है। हीर्थकरों और महापुरुषों के चरित्र होता है। सम्यक दर्शन और सम्यकृत्व की का पूर्ण समावेश सभी प्राप्ति होती है। शस्त्रों में सम्यक्त्व की परिभाeा में इन बातों का समावेश हो जाता है। इसी आस्थान किया गया है। जैन प्रकार ज्ञान और गुन स्थानों का भी दर्शन में १४ गुण प्रेमियों मानी गई है। जैन दर्शन में प्रयुक्त सभी पारिभाषिक और प्रतिक है। आध्यात्म भावनT: उक्त विवेचन के आधार पर के कवियों की बाध्यात्म भावना का परिचय मिल जाता है। वार को जैन कवि अनिय समते है। आध्यात्म के प्रति जैन दर्शन का मान विविध रूपों दिया जा सकता है। इनमान व तत्वों में लोक मानना, धोषि दुर्लवत्व माय, धर्म व्याख्या-भावना, एकत्व भावना संसार भावना त्या neen पावनाओं को लिया जा सकता है। इनका जैन दर्शन में वितत परिचय मिल जाता है। पट वर्ग: जैनियों ने कमों को प्रधानता दी है वे है- देवपूजा, रूप, गुरु की उपासना स्वाध्याय, दान और संयम में तप ध्यान हुन्छ ध्यान, ध्यान, धर्म ध्यान दिव्यानों के जा सकते है। वहां तक वर्ष वैशिष्ट्य का प्रश्न है के धारणार्थ पाय और दो । प्रकार का वैशिष्ट् हो १- देवरी वा महि वाच विडियो डाउलोक-१ २१- या --ति सम्यक दृष्टि - XP, - बाग - अपूर्वकरण ९ अनिवृत्तिकरण ११-१२-१३ ५ १०० सम्पराय २४ न्याय विवा, युवाका १४ है। देश जैन दर्शन ० १०६ मुनि श्री विहाल, प्रकाशक: क्वदाचार्य के समा • पटन Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाप, पापामुधी पाय, और पापानबंधी पुश्म। इन तत्वों के firsa माँ की , अस्था' जिनका बहार मम जीवन में दी है। साथ आवक वानिक जिनसे जैन धर्म की व्यवहारिकता, धर्म भावना, IT मोव, सार, हिंसा, 'विश्व शान्ति भादि की प्रभावना होती है। जैन कविणे और बानियों में यह स्पष्ट किया कि कल्याण का मार्ग सबके लिए RT FITS में अपार दुष, धर्म प्रभावना लिए परमावश्यक है। भगवान की प्रतिमा के दर्शन में मन का समस्त काहस्य जाता है। जीवन को गतिशील बनाने के लिए fer का मनुगमन करना ह क लिए बम की भावग्यता, पग माध्यम पी शरीर है। मनुष्य को बसाई दान कीस होमा पाए। यो किरीर ही बयाना और दानशीलता सम्पन्न होती है। देवी सब गली। नी मध्यस्थ, प्रमोद ना मा बी नगर भावनाओं की अवधारणा की रिनिराकी पावना या भज प्रवृत्तियों अप करने का मनुष्य को रामार वरामी साने नियों में आया है व मनुष्य पता और बाबर याप्रति निमावान खिर क्या की प्राधिमा बसा करती। लो। बन लादोबारामागे पाययोर र माया मम Mrwarm गे यो मार विविध लिनों और परिवानी मारे भान गाजे -- - . . . ला. .मि... विमा . मन, .. उहवर्मना। - INTौत्यत्तिको Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है उम्र या कहते है। विवित्र रंगों के साथ इसकी संगति र शस्त्रकारों इसकी परिभाषा दी। रंगीन जीव मी विविध वर्ष बतलाए गरी श्यामनुष्यका मम प्रभावकार लोककल्याण कारक ज्या वस्वी-प्रवृत्तिमय बनता है। इन बयों के अतिरिक्त का विनाश मी परमावर गरम भाव को सबफ कर ही मनुष्य को प्रत्येक कार्य का भावमा करना चाहिए। निवविवाद मग शिति का विवेचन भी मिलता है। इसे देववार या पनि यता बाब एवं भामाबाद भी कहा गया है। नियति नवन अधिक प्रलय नहीं देता। महावीर में भी अनेक स्थलों पर अपने दूनो नियति का विरोध किया है। महावीर २ उपयों स्पष्ट है कि निशिवाय एक प्रकार की am मा प्रत्यक कार्य हिमाबित होने में मिा की भावना पह। नियति बारी बार में वास्तब में उनके अनुशार नियतिवाद थमा दैववाद गीका भार का है। यह को पापियों मे अपना पाप याने ग और गायों को अपनी कायरता पो मारा है। देववाद का मारा गति मिलती । पेसा का पाता है परन्तु वः जाति नहीं, सोमा, बीवन का पल है। वस्तुतः मिनिवाब, एक प्रकार की गणना, पापीर पाय वीरवाना बोरो परको भावना र परमा पी. पारपानी गायी वादी र पराकी माकोसी पानी पल मागणी त्या दृष्टि कमहीना की।'पानी विवानिति का विरोध और amar यि पर परवर्ती - पतिमोरमात्मनः ।.. ___ कटियाग - m Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११७ और वानिकों की दृष्टि से नियति तत्वों का समाहार भी कर लिया गया है। इस प्रकार कार्गकारा पाच गावि-कुल-मद, मान भरिक्षकर्म, अध TO वैराग्य और पति को भी पूरा पूरा स्थान दिया गया है। इम रचनाओं में जैन यापी बास बड़ा मिल जाता है। प्रमाणों wौर परोयको प्रमुख स्थान EिTT है। स्मरण प्रत्यभिज्ञान और अनुमान परोष प्रभाव बार बारी बाभी व किस गप है। मामलों में इनका शिल्प स्वप स्पष्ट होगा। उम्त यो अतिरिका ननियों मार विमानों में पी जाममा बाया। अनेकान्त अथवा स्यादवाद! म्याइबाद मन स्वार और माद वो मयों ना है। स्थार व विसी निश्चित इष्टिकोण का इयो। ही मामय बनेगा पूजा मेगन सक्थन गार्थ स्मारवाद का मा बाबाई का इबरा नाम भनेका बाद गी। भाग लिन ने स्यामार को कामय बर्ष का तक बनला र बालों निवारय नौस स्वम को स्वीगर किनार न यो न ग र्ग , कृष्टि, दिशा मेना. ऐसा करने पोmgefitोने - मारमा सोना स्वाणान्या मित्यानि स्वापस और बा निवाको स्याहार काम्बवाद वा नित्यानित्य मानाबानो गोलोर देखिए-बिद हेम बाल-बापी । amropriatelsentimentoubsistentMLALthat radatd- troduction byir.Karelallahapuger Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ वाली द्वन्दि अनेकाना इष्टि है। सीसे वस्तका यथार्थ स्वम का होता है। उदाहरणार्य हाथी के किसी क विशेष को हाधी नहीं कडे । सम्पूर्ण गों को मिलाकर हाथी संज्ञा दी जा सकती है। मतः अनेकान्त मा स्यादवाद वस्तु है, नहीं है, एक . अनेक है, भादि दोनों रूपों में 'सका मन करता है। वस्तुगों का विस्म बदल पता है परन्तु उनका तत्व बही है। इस प्रकार सही बत्व अनेक रूपों विद्यमान सता है। उसको विभिन्न स्वरूपों में हम देखते है पर उसका पूल रूप को इस इन्कार नहीं किया जा सका। इस तरह विविध इन्टि किन्यों इबारा का समन्वय करके भिन्न अथवा विदा दिखाई देने वाले मतों में समुचित भास्य स्थापित करना यह अनेगव इष्टि का स्वम्य है। इस पर इस दृष्टि की व्यापकता मारता और उपयोगिता समझी जा सकती है। इस उदार दृष्टि से पवित्र बल से ही म . म कोलाहल मानत होकर मान समान में परस्पर समभाव का है। इस भाव अथवा प्रभारी अनेकांसवाद उद्देश है। इस समय निकायही निकला है कि गन्तवाव समन्यवावाद है और उसमे उत्पन्न होने वाला वो न्याभूत वाम्बाया समभाव । समभाव व्यापक मैत्री भाग का होने पर तुम्ब भूमि न्यास भूमि बन सकती है।' मे क हब स्वरुप मा गाई है। वो बस्तुर बनेक या विदयमान री RTE कामको स्वागावागे के समीप या mail मा Thotomottana.orangestimatement the soul or the prialal astier, coastane, to subaie. Nothing sharinon.maLated30dakaasa (utodmotion" . Baralandan) page3, byAAVAL LAMMAdalateratun Boriesuspe-2 Shrivallabharasaard4.89TanbalataBoaby-3, Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११९ गावी वस्तुतः अनेकान्त या स्यावाद का मारा सिप वैशिष्ट्य उसके मन्त भंगी स्वम देखा गया है। मेवात को समय से बैन हिन्दी कलियों को सपने में पर्याप्त सहायता मिलती है। affari ___ ण का सायन जैन कवियों हमेश्य असा धर्म का मूलमा तात्मक प्रारियों का होना कर इस शिप्रसार प्रत्येक जब इमि में किया प्रतियों प्रकार बीम का प्रचार प्रसार और विन मिसा मानब अपने जीवन को कासेमा वा । a frre प्रमियाना मनुष्य को अपना पाहिए। जैन कवियों की या विषया को दी तक किया नमी देवी मां । विविध मियानी प्रयोग बोदलावों को स्किन परागित र जैन कवियों में स्वयं को रस्सा लिया बमा न पर्व और वन का मूल और 4 कलियों न करिबीमबारोको मामेक बर्मन EिTra affarnाला। owersonawantonymention thatate.xom dittorno in otat aon to unch whos we made ratand the parti. amlarpointm2003003atatapur2. माहिती पावः बास्ति यशामा अस्थि-माति, बागबाट मामः नासिबभ्यत प ति -गा -vara १-५५९ 3.Janataemptselset ANIMAnthemle otg004onlaet. artotuatan1000000000minishithamait 00rtims xist. Therstore injanne .maa. DOW N ighest.titonirincipak. ..matlamma.. Homsamasoomno indineCAMERIme Donation ameNan, M anilor oratasai Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ free: १२० कैवल्य उक्त सिधान्तों के आधार पर धर्माचरण करने से ही प्राप्त हो सकता है और यहीं वन्य जैन पुनियों को मुक्ति की ओर असर करता है। विदेह की तिथ भी जैन मुनियों की आध्यात्मिक साधना कर रहस्य है। कैवल्य पद प्राप्त होने पर तपस्वी साधक मुक्ति की ओर अग्रसर हो जाता है।सत्य धार्मिक after सह अस्तित्व, अपरिग्रह और शसके लायक होते हैं। स्यादवाद उसे अतिवादी बनने से रोकता है और तपस्या की विवि से ज्ञान के स्वरूप और areefense जैसे कठिन स्वरों से पार कराने वाले सहायक सत्य है। वहीं जैन धर्म दर्शन का द्वार है। इस प्रकार इन सभी कृति में साहित्य के माध्यम से प्रकट दर्शन सम्प्रदाता और उदारवाचक का प्रतीक है। यदि निरपेक्ष भाव से देखा जाय यो प्रकृतिवाद, निकवाद, विज्ञानवाद, इन्यवाद अद्वैतवाद, ईश्वर-कर्तृत्व-वाद आदि सभी वादों की प्रमाणिकता से जैन दर्शन फीता करके वला है। सत्यTE दोनों को जैन धर्म का वर्धन स्वीकार करता ३ जैन धर्म के समानान्तर चलने वाला बौद्ध धर्म अनेकों में जैन धर्म के बौध धर्म का जै धर्मों के मूल छत्वों से पद्धतियों को छोड़कर धर्म से साम्य देवा वा सकता है। बौद्ध धर्म के की नहीं मी उसका किया है। गया उसमें मामा क्यान और विनी मानवता के प्रदेश मरा है। यही कारण है कि वह संसार में स्थानों पर बाद भी ब दर्शन से मेल बड़ा है। कुछ 1. In the Jala syaton the principal is always kept in the fore front and hence religious toleration fellowship and e-existence is the essence of Jain Philosophy - see Jainsm 2000 7. The forword written by Dr. Hiralal Jain." 2. Jeiniem mentions that truth and natruth have been existing and will continue to exist side by side" See Jalaion page Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ WE १२१ स्तन रखने में यम है तथा अपने अनेकान्त सिद्धान्त इद्वारा अनेक वाद के विवादों के साथ समफीता प्रस्तुत किया है। वह वाय्व, बागाउंबर पर डी वह नहीं देता। अपरिग्रह, अहिंसा और अनेकान्त पर भी असाधारण वह देता है। ही उसके दर्शन का प्रमुख सत्य है। वस्तुतः जैन दर्शन आत्मा की सर में विश्वास करता है। वह मुष्य को स्वावलम्बी बनाना चाहता है। उसके अनुसार केवल मारना ही पवित्रता और पूर्व की ओर ही है। आत्मा को पूर्णता की बोर बढ़ाने में ब्रह्माचारों से दूर होकर लुक्य को कर गमन करना होगा। बाधना में उपने के बाद ही मनुष्य की हो सकती है। इन्हीं भावनाओं को बाबारंग म ११६-१७) में सम्यक प्रकार से पकाया है। वह को एक में विश्वास रखने का उपदेश देता है। कृाम में तो यहां तक शिक्षा है कि हे मनुष्य अपने शरीर लड़ी अन्य किसी ने कोई काम नहीं। मनुष्य ही उसका बड़े अच्छा मिया से कहने में 1 t:hocording to the Jains their religion as propounded by their omniscient TIRTHANKAR 1 nothing but truth and hence they are inclined to believe that there has never been an age when Jainism dil not exist at least in some part of the world and that there will never come an age, when it will be ompletely wiped off from the surface of our globe. See the Jain religion and 24terature, vol. 1- page 78by Dr. HR. Kapadia. 3- 2 PENTE NOW: z nove $. अवतारवाद E-NETENTE, & TEATS, 17 1- PATITE,, comf ११-साकार बिकार बाद बा १- नवा इन बा साथ उदार दृष्टि के निवाहर है। - निमदिवाद -क्रियावाद, १०-दिगम्बर श्वेताम्बरवाद १३-मा विवाद, १४-वहारBUT WITH THAT & BUT ना उनकीता किया Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ मित्र होता है। वास्तव में जैन धर्म के इस वैशिष्ट्य में आध्यात्मिक बेतना भरी है, पराग ही नितिन धर्म दर्शन और निहित बम दर्शन द्वारा करने की बस्तु न म योगी से विवानों ने बैन दर्शन सिन्ध वैशिष्ट. पर विद्वतापूर्व प्रकार डाला।' इन दानिक सिद्धान्बो का वैविय परिषद - 1 (1) The foxmot pullarity of Jnia is that it claias no non-humansouron Its tenets are baasdom the knowledge of the netors, who have attained perfection by theirometfortan this very nirarse. Acording to Jaunthaitiathe human mulatonouhich can mach the Lhost degrekotpurithoation AII80minaro passe"sed of fulness and perfection. Jain la totally against offtring devotion to any being human or devine, in the hope of caining bliss, immortality or perfection through theeroy of the beingthouldevelopment of the soul cannot begained thrush outsida and lond Mahavir emphationlly declared *Man, thou are thino own mond, why hashest thoutorairiend beyond thyaelt.ma.baa tostumsamith oners ownentatanhavingtaithin 00.. onastrength. Thatu Lotor10.xpected todateat napamananensomvinga and notArtollou beine. बावरंगपूब (A)Plantibyour own body,why shouliyontintuith any wain - (AILORAMATourselthy truthextemaltons. Hothonquareasok,throughtmaitlobbata 2. comtutonummernamaytunsonatantamin -originalston, ARAR.Stattootnandependeattha LOthemamathathoreton,Mutuablportsnos Torth.smdySPAadsaopbottomshsAN12xloualit. La madent IR LA 360 concns at the latory of Religion Page 102 MDEHRAmlallata. 3. The sleepy of the judam & aut osventilly founded on AparmomlarAsiaFostermal revealstion button the wntoldmentotoptrataaloonsetonanesandhsohis the birtariat of over old book writing AAd soriptures 13antrate,M uruPart, this truth, but the Ritimate taatmaakasmatomeremoriasangaretail HTeastoatokhetratimott aMhLebast botal 800-mansammausONARIE16. Mrs. Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२३ इस अध्याय में करने का मूल उद्देश्य लेखक का केवल यही रहा है कि हिन्दी जैन कृतियों के मूल में धर्मज्ञामधारा या प्रेरणा के रूप में विमान है। अतः इन रचनाओं का अध्ययन करने से पूर्व उनमें प्रयुक्त उक्त दार्शनिक विधानों का परिचय भी पीत अपेक्षित है। अन्यथा कई उनकर रह जायेंगे मागे कुछ कुरु में प्रयुक्त कुछ मोटे मोटे जैन दार्शनिक विज्ञान हों पर प्रकाश डाला गया है। यों तो इन रचनाओं में सामान्यत: जैन धर्म के तत्व सर्वत्र मिल जाते है करोंकि ये कृतियां जैन मुनियों, प्रधानान बावक, जैनब था वीतरागी गृहस्थ (कुछ छोड़कर) इद्वारा लिली गई है। फिर भी यह कुछ प्रमुख कृतियों के जैन सिद्धान्तों का परिचय दिया जा रहा है। प्रमुख हिन्दी जैन कृतियों द्वारा प्रणीत धार्मिक एवं दार्शनिक सिद्धान्तः कृतियों में धार्मिक दार्शनिक सिद्धान्तों के प्रथम की परम्परा के धर्म की प्राचीनता की भांति ही चिर प्राचीन है। प्राकृत से लेकर पुरानी हिन्दी क की मी रखना मैं किसी न किसी प्रकार जैन धर्म तथा दर्शन के स्कूलों का प्रवन मिल जाता है। महावीर मीर में प्राकृत पाया को धर्म प्रचार का ग्राम बनाया। संस्कृत्य भी वैनियों द्वारा प्रभूत मात्रा में रह गया है। ० साहित्य की महत्ता पर धूम प्रकाश डाला है। इसी प्रकार पर कार संस्कृत के पश्चात जैन की लोक 1. Sow what would nokrit pooter be without the large Sanskrit literature of the Jaians. the more I learn to know it the more my admiration rises - Jaina hasana Vol. 1- No. 21 Bartel. Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ गजानेट के विचार उल्लेखनीय जन धर्म पर्व दर्शन का प्रणयन इन प्रधी में ही नहीं निता श्री मिलता है। मोरिलों में अपने अन्य में इन शिला लेगे का पर्याप्त विवेचन किया है। बस्तु पुरानी हिन्दी वा अपरितर रचनावों में भाये विधान्तों का परिचय दिना रहा है:(1) निवास रिमा पाकी .की इस बना गुरु का पात्य स्पष्ट होता है। म -बिगुरु की बाना और स्तुतिको काम आवश्यक समय में इस साधन मगुरु का स्थान पाना मा RT है। (परतेश्वर भाइमली राम मिकी - Puी रखमाबाद, गाया और भन्यमत्व या सारी मारा और रायबका वर्णन यिा गण याबाद भी इसमें देखा वा मा । (a) मनवाला राम मा वि पाना भी दिया और बारह बत, प्रथा रोकायाापूना की वर्णन मिलता है। 10 मिमा माि - - 1.COMomandantoskaniamdastotherakrit Lterature.shonas01.00natomatics ot Mattraisentaravamtah onMastoorival otsanutriterwtarendertainty aor.popalarthaa SMARKESitersture are mahadetatto the Jataas for all the ide v get of the popular Prakrit USomsam-00mlna Darshan page24. (ADSomathon the bolnot thedatarpures11 Madangersualyoutudanamarateatedly Imrwalignnon- planatmelan Deman4-25 Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नेता न दीवा, तप, Ari, अमि था मोड पर प्रकार कालता है। 40 पेक्षा तथा मरारास जी खादी की इन afrat बर्मित धर्म, पूर्तिपूजा या विविध ब्रों का विवेचन है। वर्णन पति या को पूर्ण ब्रा का निवेदन है। (1) नेमिनाथ तथा स्थलिमा TYA इन दोनों पतियों मारवादिष, तप AT संसार की नाबरता एवं प्रात्या की शिका परिक पिता दिया की शिला पर कवि ने पयाड मिया मिसियारी पीपल का प्रम । माटो माध्यारिमाकाव्य गि, मन, उसकी इस्तिया, पाल, विश्व वय था के समानता पर पोज दिया गया है। विविध माँ, विवियो , मी बल्बों, बम्बकत्व, माध्यात्म पावना पति, देवपूषा, स्वाध्याग, गावत शान्ति, APE AT मोरहि । इसी प्रकार मा तय की विधि म स्वम दिया गया है। tea बारिता after बाब मगर । मोर और मयमा सारी मावर, पी. और बाग भासियों पर प्रभाग मी नारा नि । मालमा पोर मान त्यावर माना । fami Tamminानों कोपी भाग लिोडnterest. या मामान विवा की की। matोइन नि पाल, रा Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ (११) सुदर्शनदेठ शील प्रबंध हत्य १५वीं वादी की इस कृति में कवि ने जाठ कर्म, बारक द्रव, नौ पट कर्म, पूर्व भय गुण प्रेमी संसार नश्वरता, सम्यक शील, प्रत्यक्ष परोवे तथा मुक्ति केसों को जनता में प्रचारित किया है। (११) कुमाल - इस कृति में साथमा की विविध स्थितियाँ, तप विशिखा, धर्मोपाख्यान urereen freeमा दृष्टि राग आदि बिया मिल जाते है। (१३) विहंगति चौपाई प्रस्तुत रचना संसार की नश्वरता, कर्म, दापोह तथा भवलिति के प्रति करारा व्यंय है। आध्यात्म जीवन और आत्मा के प्रति राग को स्पष्ट करना इसका है। स्मों द्वारा प्राप्त विविध नरकों का वर्णन परलोक की स्थिति स्पष्ट प्रमुख करते हैं। (१४) विक्रयाविलास चवाड़ों और पद बाट पारित दरा इन दोनों रचनाओं में विविध मों से पाये कष्टों, पूर्व भव दृश्यों. दीवा वार की नश्वरता का महिंदा, वान्ति और आध्यात्म चिंतन का उल्लेख है। इस प्रकार अनेक कृतियों में साहित्य के माध्यम से कम भावा में इन रचनाकारों में बैन धर्म का प्रचार किया है। कवि धर्म प्रचारक भी है और कवि बाद में इस दार्शनिकों की ट को करने के लिए इन कवियों मे तर राम, रामों या विविध इष्टान्तों से arter se महत्व र क की मोर माय इन सब कृतियों की प्रवरा है। प्रकारावर से या निर्वेद को किया है। कार वीर बादि रवों का जम में समाहार इनों का अध्ययन इन रचनाओं द्वारा किया वा माध्यम का है। एवं दीवित हो । में कुछ में म ऐ 1 Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२७ इस प्रकार युग की तत्कालीन परिस्थितियों को समझ कर जैन धर्म के इन दार्शनिक विद्यायों का अध्ययन करने से इनरवनामों के साहित्य की सम्पन्नता और काव्य के गुणों का मूल हो सकता है। अतः कृतियों के अध्ययन के पूर्व पृष्ठभूमि के रूप में जैन वर्तन के विधान्तों का अध्ययन परम आवश्यक है। Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय - Y 1 अथ का पैन साहित्य ! Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ 18 अप का जैन साहित्य || अपभ्रंक का साहित्य अत्यन्त समृद्ध है। इस साहित्य का विशाल अंश जैन भंडारों में सुरक्षित है।अब जैन भन्डारों की पर्याप्त शोध हो रही है। अतः इस साहित्य की मृत्यु उत्तरोत्तर अधिक होती जा रही है। शोध के अभाव में एक बार प्रसिद्ध जर्मन विद्वान चिश्तु को को कहना पड़ा था कि "अपार का विपुल साहित्य हो गया है। वास्तव में उस समय सम्यक शोध की कठिनाइयां चरम पर थीं। साथ ही जैनी लोग भी अपने भंडारों को दिखाना अपना अपमान समझते थे। ras अब ऐसी बात नहीं है। गुजरात, दिल्ली, जयपुर, नागौर, बीकानेर, जैसलमेर के मंडारों से अपप्रेत्र की अनेकों कविया मिली, और मिलती जा रही है। कारंजा के जैन भंडार से उपलब्ध रचनाओं के आधार पर अप भाषा में विरचित जैन साहित्य की सम्पन्नता निर्मान्तविध हो जाती है। अप भाषा के साहित्य का समय यद्यपि विद्वानों ने चौथी पाचवी शादी से १००० ई० तक निर्धारित किया है परन्तु वास्तव में इस साहित्य का एक सिंहावलोकन करने पर उद्भव काल में उपलब्ध रचनाएँ बहुत पुष्ट नहीं प्रतीत होती । के परिशीलन के लिए इसके इतिहास को दी काल में विभक्त कUT जा सकता है: ● १- प्रारम्भिक काल (५०० ई० १. स्वर्गका १- प्रारम्भिक का ८०० ई० तक) (८०० ई० -१५०० ई० तक) ✓ भाषा का उदय हो ठीक से नहीं कहा जा सकता पर सर्व प्रथम महर्षि परिचित पापिनी टीका के पत्र का उल्लेख मिलता है।' १: पूर्वायोश्वयाः कनीयः इसुवा इति। एकैकस्य हि इदस्य महतोका सा teree se गावी गौवी गोठा गोवोकेत्यादी महाः देवि पाषिनी भाष्य निर्णयसागर संस्करण ० ३०-३१ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२९ १ साथ ही ई० पू० दूसरी शताब्दी में पतंजलि ने अनेक स्थाज्य अशवबूदों का उल्लेख मी किया है। ऐसे शब्दों को अपभ्रंश कहा गया है। इधर दूसरी या तीसरी शताब्दी में हुए परतमुनि ने अपमंत को स्वतंत्र भाषा सिद्ध किया है। नाट्य शास्त्र में यह उल्लेख इष्टव्य है।' भरत ने साथ ही als ner का क्षेत्र भी निर्धारित किया है। इनके बाद अपभ्रंश के कुछ उकार बहुल शब्दों के प्रयोग- ललित विस्तार 'नामक प्राचीन ग्रन्थ मैं भी मिलते है। नाट्यशास्त्र कारों ने अवश्य प्राकृत को ही भाषा कहा है और प्राकृत भाषा को भिन्न देशों के अनुसार लिया है। बलमी के राजा धरसेन के शिला मैं भी अपभ्रंश का उल्लेख मिलता है। साथ ही संस्कृत के प्राचीन विद्वानों दंडी, मार्के आदि द्वारा भी अपक नाम के विविध प्रमाण मिलते हैं। उद्योतन सूरि अपनी कुवलयमाला में वीं शताब्दी के अय की प्रशंसा करते है तो अपने भाषा को देशी भाषा ही स्वीकार करते हैं।" इसी तरह पुष्पदंत, जमि वा मम्मट, हेमचन्द्र आदि जड भावत पर अपने मत दिए हैं जिनपर विस्तार में प्रकाश डाला जा चुका है। ६ किन्तु अपभ्रंश नाम का उल्लेह जितना प्राचीन मिलता है उतना उसका साहित्य नहीं मिलता। ही इन प्रभावों के आधार पर इसके साहित्य का प्रारम्भ व वादी से माना हो जा सकता है परन्तु वीं से भी बादी तक अपभ्रंश का उल्लेली वाहत्य अद्यावधि उपलब्ध नहीं होता। वस्तुतः व सेवावृदी में पका विक १- अबरामी कडा विडीया हीना मावास्त्र (१६-१०) इनमें अमीरी ही वीरान् वदेशाः समाचिता: प्रयोजयेत्।। नही ग्रन्थ *- faårants, #I. «g, fie wy, ty- urfa, avaarafast-go 14(to-st) ४- अपच काव्यली: श्री सावन्द्र भगवान माथी बरामद विभाषा नाटके स्मृताः विष हुई है। उकारे बहुला तज्जेतेषु भाषा ५० वाटकर। ६- वाक्य हरि - ० ४५ • Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० साहित्य fear गया होगा जो सम्भवत: शोध होने पर उपलब्ध हो। अतः ऐसी स्थिति में वीं से रवीं वयाब्दी में उपलब्ध अपप्रेश साहित्य के आधार पर ही इस साहित्य कामूल्यांकन किया जा सकताहै । वस्तुतः यह साहित्य वीं शताब्दी से ही उपलब्ध होता है। २- स्वर्णकाल अपभ्रंश के टवीं से १३वीं शताब्दी के इस काल की उपलब्ध - साहित्य के आधार पर स्वर्णकाल कहा जा सकता है, क्योंकि इस काल में स्वयंभू पुष्पदन्त, धनपाल, नयनंदी, पाहिल, चवल आदि अनेक महाकवि पैदा हुए है। अतः इस काल में उपलब्ध साहित्य बड़ा विपुल है। स्वयंपू अपभ्रंश के पहले कवि घोषित किए जा सकते है। स्वयंमू के पश्चात् तो अपभ्रं काव्यों की परम्परा अत्यन्त समृद्ध होती गई और अप काव्यों की रचना १७वीं शताब्दी तक भी मिलती है। परन्तु १२वीं शताब्दी से ही अप के रूपों में पर्याप्त परिवर्तन होने लग गया था अतः ये परिवर्ती अपभ्रंश रचनाएँ अधिक सबल और सशक्त नहीं प्रतीत होती । स्वर्णकाल में प्रयुक्त अथ के काव्य प्रन्थों का विभाजन इस प्रकार किया जा सकक्षा १० 1 प्रबन्ध काव्यों की श्री में माने वाले काव्य है महापुरान पुरान पति काव्य ४. 1 $ महा स्यात्मक प्रय काय E 新 देवक लोग स्वगादि उपदेशात्मक काव्य Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुक्तक काब्य के अन्तर्गत मानेवाले काव्य : १- गीत सोत्र स्तवम और पद था २- उपदेशात्मक स्फूट रचनाएं। यही इस समस्त प्रकार की बनामों का विवेकम संप में भी संभव नहीं है और न आवश्यक ही है, जहा इस रक्षाओं की प्रमुख विशेषतानों पर हरे वेष में विचार किया जा सकता है। वे इस प्रकार :(१) रचनाओं की ऐतिहासिकता: अपच की रबनाएं प्रायः ऐतिहासिकता का प्रतिपादन भी करती है।इन रचनाओं के द्वारा तत्कालीन भाषा, समाज और संस्कृति के सभी तत्वों का ऐतिहासिक मात्य भाका मा सना है। अपज की क्या दिया,बच कियास, शक्ति और मौन्दर्य की सार्थकता और कोक जीवन में उसका सम्पर्क था स्कुट कीसमी परम्पराकों का निर्वाह अपभ्रंश की इन रचनामों में मिलता है। अपनी प्राप्त थाती का इतिहास अपने पुरवित रखा। भाषा गस्त्रीय बंधनों में आ निमग्न या साहित्य देशी भाषा मे सहन सम्पर्क स्थापित करने का अवसर प्राप्त कर सका। यइयपि वर्णन की परम्परारं से शिषित थी परत ऐतिहासिक पुरुषों, स्थानों या अन्य सामाजिक स्वोस्थापित कर साहित्य की समग सभी परम्परागों की रेलिसिमागे प्राणिमा स्य पर न सोमानी मा मा, ािरिक परिवर्तन का वो सीन की शतीय परम्परागों वो पुराना इन स्थिति का पर्याप्त वर्णन मि . नायर को बार बाहित्य की ममता की पूरी पूरी टी ... मीन र साहित्य उस नागर समान की थी विचारधारा को प्रतिविम्बिसा है जो अपना रेविवाकिया मामा करने लगानि बिना में बाधक हो गलीम . Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ संस्कृत साहित्य भी प्रत दिखाई पड़ता है। क्या वर्शन क्या काव्य सर्वत्र पुराने क्यों की पुनरावृतियां दिखाई पड़ती है। मौलिक उझावना की अपेक्षा टीका और व्याख्यानों में रख लिया जा रहा था,प्रमेय दूर था, प्रमाण बरी अधिक थी, दार्शनिक एकता मय म्याय के बाद विवादों में पुरित हो रही थी। समस्त पिन्समवर्क जाल में उसका संस्कृत काव्य हदय के सडन उच्छवास को छोड़कर पाडित्य प्रदर्शन तथा माध्य बालंकारिक बैन्टायों में लीन था | अन्यों का बाहुल्य था। रस के मान कर व शक्तियों के सामन्त थे। प्रकृति मित्र, नाम परिगणन, और भौधक्य विधान से वोफिल था। मानव अनुभूतियों की अभूमि संकुरित होकर गारिक लीलाओं से पंक्लि हो सी थी। राजदरबार के उजड़े वैश्व की भासी पुनरावृत्ति से वस्तु वर्णन मिल हो रहा था। चरित काव्यों में परिवों का व्यक्तित्व र थाए टाइपों के सा में ही हो पा था, मुक्कक काव्य कृत्रिम और प्रय थे। प्रबन्ध काम भाकार में बिल होते हुए भी श्रीन हीन है।' अषय में इन मी बढ़ियों का प्रयोग कर स्कृत साहित्य की उतभी प्रबियों को रोका काविलीन सभी सामग्री में ऐतिहासिकता को अवश्य बनाए रखा इनवों की ऐतिहासिकता निनाद हो पाती है। कृषिय गालियबा गागरण परिवन था रेसिामिछाति प्रस्तुत करती है। स्वयं अभ्यास, और मान प्रणि कपिल उपस्थित करने वाले स म य पर नि मंगमा सा गनों विज्ञान, निार और मान प्रमच काव्यों में राम और बीनको काव्या वाधार बना कर प्रबन्ध वाव दिशामा और पारीरवियों के आने से, कीक इसी मगर अपने प्राममान मिा कन्धों में बीवियानों को भी जोगितामसारा सम्पर्क करने की बारी सारेगामीजी mater PROR.MARA ,रीवाल Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३३ you faथिल होकर पुनः शक्ति लाभ करता है ठीक इसी प्रकार अपभ्रंश के इम प्रबन्धों की स्थिति थी। धर्म प्रचार और महापुरुषों के चरितवर्णम में इन्होंने वैविध्य ढो प्रस्तुत किया, परन्तु संस्कृत की एकरूपता तथा प्रभावान्विति की सम्यक सुरक्षा कर सकने में ये काव्य सवम नहीं थे। हर इन प्रबन्धों की सबसे बड़ी विशेषता है, इनका वैविध्य एवं इनका लौकिक परम्पराओं से समझौता से काव्य जन समाज के लिये हैं। इनमें विभिन्न रूपों में वर्णित सामाजिक स्वरुप तथा मानव की लोकमूलक क्रियामों और विभिन्न दृश्यों के सुन्दर चित्र प्राप्त होते हैं। * घटना में वैविध्य, कौतूहल क्या कथात्मकता में विविध चमत्कार एवं आरोह अवरोह लगभग सभी इष्टव्य है। इन प्रबन्ध ग्रंथों को महाकाव्य के तत्वों की सटी पर देखने पर इनमें नायक वर्णन, सत्य तथा वैविध्य, रस और अन्य सभी बातों का सम्यक निर्वाह मिलता है परन्तु थोड़े थोड़े परिवर्तन के साथ। यद्यपि मूलतः इनको वर्षमक्रम, काव्य पद्धतियों घटना- विन्यास तथा आधार भूत तत्वों में पर्याप्त समानया है। पर साहित्य की इस संक्राति कालीन स्थिति ने महाकाव्य को बहा दिया। उसमें जीवन्त संस्कृत की तुलना में कम हो गया। संस्कृत की कासोन्मुख प्रकृति का प्रभाव इन पर पड़े बिना नहीं रह सका। और यही कारण है कि वही क्या रूढ़ियाँ, वही काव्य कड़िया, वही वर्णन क्रम, वही पारम्परिक घटनाक्रम और वही क्या का तारतम्य बना रहा। फिर भी धार्मिकता, प्रचार पर्व जनसमाज से सम्पर्क होने के प्रयों में लोक जीवन का संपर्क सौन्दर्य, माध्यात्मिकता, प्रमा परवा और ईला मा बादि गुण विद्यमान पर पोच कसे वाले विमानों में मयि Treat afte मे काव्यों की प्रथमकता और साहित्य सौन्दर्य को काव्यों की दुर्बल कहकर संदेह की इष्टि से देवा है है बात ऐसी नहीं है। इस साहित्य का मन्थन भी नहीं हो सका है। की परम्पराएं तो उनमें अवश्य सुरक्षित है। १- देवि हिन्दी के विकास में मन का बोम ० १-० इवारा ठा० नामवर सिंह * देवि हिन्दी साहित्यका माविका व मद हिन्दी हिब की कि डा० ज्वारीप्रसाद द्विवेदी द्वारा दिए दूर afa at का विर ३१६२ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ है परन्तु ८वीं से १९वीं उताइदी के संक्रातिकाहीन समय में ऐसे सुन्दर महाकाव्य मंडकाव्य, रोमाटिक काव्य त्या मुक्तक काव्य अन्ध मिलना हमारे प्राचीन साहित्य की अपूर्व सम्पन्नता का इयोतक है। वन परंपरा की काव्यात्मकता, छन्द, अलंकार रस किसी भी इष्टि से ये काव्य कमजोर नहीं पड़ते। को संस्कृत काव्य मे तुलना करने पर इममें अपेक्षाकृत दोष दर्शन का आरोप लगाया जा सकता है। क्या और चरित्र अन्धो में स्वयम् का उम चरित हरिवंश पुराण, महापुराण धनपाल की पविसयत्त कहा हेमचन्द्र कृत विकाठि शलाका परित, धवल कवि का हरिवंश पुराण अप्रैन कृतियों में प्रथ्वीराज रासो के अपक्ष के अंश, रन्यू के पदय और बलभद्र पुराण ४ याकीर्ति का पान्ड-पुराण तथा हरिवंश पुराण और अतिकी ति का हरिवंश पुराण पुष्पदन्त का जयकुमार बरिउ, सार बरिउ ,वीर कवि का चंबूस्वामी चरिख, मयमंदी का दखन चरित कामर का करक चरित, सागरदत्त का जम्बूस्वामी परित प्रान्त के सुपामा परिक्ष में अपांच अंश, देवबन्द के मुलबास्यान और वर्धमानमूरि का वर्षमान परित, पाहि कवि का मासिरि चरित "श्रीधर कवि का पाना परिउ सलमाल परित, पविख्यात्त चरित, तथा मुलोचना चरित' +वि सिंह रविश पुग्जाल परिसर प्रद्युम्न परित) हरिमा विरचित मनत्मार पति। १- देवि बाय डा. हरिया गेम... १- मावा पी.-सम्पादक श्री. लाल और गुमे या हिन्दी विकास अपका बोन.सा.नामवर सिंह .. दिगम्बर मन्दिर बड़ा हपषिोंगर-जयपुरवित सबा इलाहाबाद निवापिटी डीज़ा मोधीरालाब का निर्देशन। ४.बामेरास्व मंडार बपुर। अशा गोड-10 "बही . . . -मामेरशाल्व टारनौष संस्थाम, पमपुर। - अपर प्रकार: . मार,.५०,प्रकास वर्षापबमाला,काली-१९५६ १-पाच प्रकार - मार पम.ए.,प्रकाशक व ग्रन्थमाला काशी। ११. अपारिवामि -100 डामेछ। -बही, आमेर गर, बबपुर। वाव Ful Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३५ लक्षमदेव कृत निविवाह चरिउ, बाहुबली बरिउ तथा यशः कीर्ति का चदम्प चरि १ तथा रयधू का कोड चरित, सम्मति नाथ चरित तथा ७वीं शतानी का भगवतीवास का गाe der वरित तथा और भी अनेक अप्रकाशित रचनाएं जो लेखक को उत्तर अपर के साहित्य की शोध करते समय उपलब्ध हुई है, अपभ्रंत्र की प्रौढ़ काव्यात्मकता की प्रतीक है। वस्तुतः प्रबन्ध बला और उसके तत्वों के आधार पर इन अपड काव्यों का भाव और कलापक उपेक्षा की दृष्टि से नहीं देता जासकता। क्योंकि परवर्ती पुरानी हिन्दी के सारे काव्यों का प्रसाद अपभ्रंश की इन वर्जन परम्परा, काव्यात्मकता तथा वैविध्य पर ही निर्भर है। अस्तु अपभ्रंक प्रबन्धों में जैन कवियों ने क्या नायक किसी तीर्थकर को अथवा महापुरुष को ही चुना है। इन प्रबन्ध काव्यों में से अनेक काव्यों की रखना के मूल में साहित्यिक संकल्प है। कला पक्ष अप के प्रबन्ध काव्यों, तथा उपदेश प्रधान अन्य सभी कृतियों का क्लापथ अलंकार शब्द चयन भाषा बादि सभी यों में पुष्ट है। ये कवि कला के बच्चे पारवी है। जैन कवियों को काव्य ग्रन्थों सेइतना अधिकप्रेम भर कि अनेक अजैन कवियों के ग्रन्थों को भी इन कवियों ने अपने भंडार में सुरक्षित रखा है। गौध रचनाएं, जल रहमान का संदेश राय, तथा बीजादि रास ग्रन्थ इस बात के उपकरण है। मिला है। काव्य षडियों में मोटा बोबाई पति को साथ बोधक, डिक, डोसा, इडलिबड़िया, राम, कुन्डली, वादा, पम्पेटिका, मातमादि और वन की काव्य पद्मवियों ने हिन्दी प्रति किया है। इसी प्रकार स्यानाविक बर्तकारों, खुद चन की प्राविका नामका या वारसा का रमन है। इस प्रकार एवं मोमीन्ड मयों ने मौन मीर मोड़ा, इन बस्तु, पत्ता, रहा, राजा अनेक है। यही नहीं 1- *ft, yo ur¬WI | SPAN Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ afrषद, दोहाको तथा ब्राहमणों तक ने अपअंड में काव्य रचना की है। अतः इनका कला पक्ष भाव से निर्बल नहीं है। चंद की चारण शैली में लिखे अपभ्रंश के अंशों से जपर्यंत पापा की क्षमता का परिचय मिलता है। काव्य स्मः आदिकालीन हिन्दी जैन साहित्य में जिस प्रकार काय पति और काव्य रूपों में वैविध्य मिलता है ठीक उसी प्रकार अप में भी काव्य रूपों का वैविध्य मिल जाता है। वरित, राम, आख्यान, बर्बरी, कहा, सन्धि काव्य लोक कथा काव्य आदि काव्य रूप मिलते है। अपभ्रंड के इन का रूपों का मूल इन पुरानी हिन्दी के काव्य रूपों में दृष्टिगोचर होता है। यद्यपि इसमें से अनेक काव्य रूप अपभ्रंश में नहीं मिलते परन्तु उनमें से प्रकारान्तर से उनका सम्बन्ध स्पष्ट हो जाता है। काव्य पद्धतियों में भी अप की इन वर्धन पद्धतियों का वर्णन पुरानी हिन्दी की रचनाओं के मूल में है। रुक काव्य, संधिकाव्य तथा वरित काव्यों में से काव्य कम स्पष्ट दृष्ट है। पुस्तक काव्यों में गीति, स्त्रोत स्वयम, दोहा, सल्काय आदि अनेक काव्य रूप मिल जाते है। इस तरह वैविध्य मूलक काव्य रूप अपभ्रंश की इम कृतियों में देखने को मिलते है। काव्य क्योंका यह वैशिष्ट्य अपच की अपनी विशेषता है। पुरानी हिन्दी में जो सैकड़ो प्रकार के काव्य स मिलते है उनमें वैविध्य प्रस्तुत करने की प्रेमरा मद के इन्हीं काव्यों ने दी है। लौकिक प्रबन्ध और उपदेव प्रधान रचनाएं। में कुछ प्रबन्ध भी मिल जाते है तु से या में बहुत कम है। इन वन प्रबन्धों में मार का प्रति काव्य शिराकलिया जाता है।इस काव्य में कवि ने विनीनाविका के उदय के समस्त दर्द को है जो विरहमयी विरह के कम में नामी दी है। पूरा काव्य एक सुन्दर लौकिक rfer की धड़ों का है। विज्ञापति की कीर्तिलता को भी इस प्रकार की रचनाओं में स्थानांचा वा या है। इमरजनामों को रख प्रधान ठोकि पर्व क्या जा रहा है। ऐसे काव्यों में कवि की ऐद्रिया कि स्थानीय रंगों का सुन्दर विजय मिळाला. उपदेश प्रधान पवनाथों में बालिक कवि मे Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३७ संसार की नश्वरता मुक्ति का स्वरूप, आत्म दर्शन, आत्म ज्ञान, कर्म विपाक, विषय निवृत्ति और कैवल्य का सुन्दर वर्णन किया है। ऐसी रचनाओं में योगीन्द्र का परमात्म प्रकाश और पुनिराम सिंह कृत माकुड़ दोडा प्रमुख कृतियां है। माध्यात्मिक उपदेशों के साथ जैन कवियों ने आत्म बुद्धि और सदाचार को भी पूर्ण महत्व दिया है। नीति और सदाचार से ही मनुष्य जितना मात्मनिष्ठ साधक जनकर मनोविकारों को दूर कर सकता है उतना तय और तितिक्षा तथा बाह्याडंबर से नहीं। ऐसी रचनाव में देवसेन का सावयवयम्म दोहा, जिनदत्त सूरि का काल स्वरूप कुलक और उपवेश राम राम्र प्रमुख हैं। इन ग्रन्थों का मुख्य उद्देश्य धर्म विश्लेषण क्या प्रचार कला 1 उपदेश प्रधान रचनाओं में दूसरा स्थान स्त्रोत स्तवन सबन्धी रचनाओं का आया है के संचिग्रन्थ, अभय देवसूरकृत मिषन स्तोत्र तथा धर्मदूरि स्तुति देखी ही रचनाएं है। जिनदत्त हरि बर्बरी भी प्रशस्ति गान तथा स्तुति है। अपमं में रची कुछ उपदेश प्रधान रचनाएं बौद्धों और सिद्धों की भी मिलती है। जिनमें केवल बौद्ध धर्म के सिद्धान्तों का प्रतिपादन है। बौद्धों ने इन मुक्तकर reerओं में कर्मकान्ड कढ़िवादी दृष्टिकोण क्या मायार्डवर की खूब निंदा की है। इन्हीं मौके में दोठाकोर, सीपद या कश्मीर दर्शन पर लिये कुछ यों के भी मिलते है। जिनमें कई टर पद में विषय वैविध्य, मार्यो की जीव्रता तथा अभियंता की बनता मिलती है। इस प्रकार जैन दोनों प्रधान काव्यों में उपदेश प्रधान, धर्म प्रधान, नीति तथा ब्यावार प्रधान, भावनाएं डी अधिक मिलती है। उपता को सदाचारी बनाने के लिए जनता की दीपा में किये गये ये मान कवियों में बाबा को ही अपनाया। क्योंकि ans ae are oा साधारण की मौत चाह की मादा थी। जैन कवियों में कितने भी काव्य लिये है उन सभी में धर्म प्राणधारा के रूप मेवा है। उदाहरणार्थ चरित काव्यों को ही के इसमें स्थात्मकता प्रेमास्थान लोक गाथाएँ हो रहती ही है, कवियों में उनकी परंपरा, प्रेम तथा ठोकानों की रंगीनियों द्वारा पर बना डाला है Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ उनके मूल में है। प्रेरणा के रूप में यह धर्म इन रचनाओं में विक्ष्यमान है।कहीं कहीं तो यह धर्म रचनाओं की पृष्ट भूमि तक बन जाता है। कर्म विपाक, पुनर्जन्म आदि जैन दर्शन की विविध धारागों का जन समाज में प्रचार करने के लिए जैन कवियों कागों में अनेक स्थलों पर उपदेष्टा बनवा दीर पड़ता है। उपदेश और जैन दर्शन के ये तत्वउसे कवि से प्रचारक बना देते है। डा. कोण के अनुसार रचना का आधार नियों के कर्म विपाक का सिद्धान्त प्रतीत होता है। इसी को सिद्ध करने के लिए जैन कवि इतिहास के निवृत्ति की उपेक्षा कर उसे स्वधा से बोल मोड़ दे । इसी कर्म सिद्धान्त की पुष्टि के लिए जैन कवि स्थल स्थल पर पुनर्जन्मवाद का सहारा लेता है।अप साहित्य की रचना की पृष्ट भूमि प्रायः धर्म प्रचार है। जैम लेखक प्रथम प्रचारक है फिर कवि। या की भारत सत्य पर आधारित है, नहीं खा सकता, की यह कहा जा सकता है कि प्रबारक होते हुए पी जैन कविय ने समा धान में समाचार क्या नैतिक मिछानों की स्थापना की है, या उम निष्ठावों को कवि ने विविध स्थानों और काव्य के आधार पर डाला है। इस प्रकार इन रचनाओं के मूल में धर्म प्रावधारा बनकर आया है कि काम ही नहीं। इनमें रचनाकारों का साहित्य-जन-कप मिल पाता पर तभी बाबण दापिनी रिया सको। यो । म कवियों का आवई व या न कामी प्रतिनायक का विधान भी मलिनागकवि मे या विमान और घटनाओं को चमत्कार बनाने वापरा, मंचया, बोंगादि की प्रष्टि की जो गावों NITIौतिक सुष्टि है। महाभारत और पुराणों की विभिन्म प्र माणे वियों ने अपने मौलिक परिवर्तन Trt, T rयो स्थान सम्बन्धी प्रयास मौलिक ज्या मनिलाम और पारस इन्ट रिय बाले भनेको पानीको कलियों में पानी की दृष्टि र मागास उपक पारी भाईसमय। Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३९ अपायक रचनामों में प्रधानतः तीन रसों का ही वर्णन मिलता है। (1) शान्त, (३) वीर और गत रस अपभ्रंश रखनाओं का स राज है। शेयरों में कमि ने यौवन में *गार, सुदध में वीर तथा त्याग वैराग्य और सम में निर्वेद आदि रसों की निपारित की है। इन रचनाओं की भाषा ध्वन्यात्मक, माछ, प्रीन, असल सरक्स तथा भावनापूर्ण है। अकारिक औजना भी पूर्णतया वैशामिक है। उपमान में भी कवियाँ मे परम्परा और कदि को तो था लोक जीवन में पुले र उपमानों,आवृति मूक सरस अनदो तथा लोक प्रबलियाबरों का भी प्रयोग किया । मत: और कवि यदि एक ओर धार्मिक और उपदेश प्रधान है तो दूसरी तरफ हो कि जीवन के परिष्कावित स्वाभाविक अनुभूतियोरभी मुदत है। अत: अपज की ये रचनाएं पाय और कला दोनों ही पलों में उत्कृष्ट है। - Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HAIRS || हिंदी के काल का लैटर की कि) sagesesses******292822222222222222222ses --- Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । हिन्दी के आदिकाल का जैनेवरलोकिक) . साहित्य । ___ आदिकालीन रवनामों में लौकिक काव्य दृष्टि से रची हुई कृतियां भी उपलब्ध होती है। जैन कवियों इवारा प्रनीत अद्यावधि गिवने काम उपलब्ध हुए है उनके काव्य सौष्ठव और भाषा शिल्प का अनुमान करने के लिए इन बेमेतर कवियों के काव्यों का यहा एक संक्षिप्त परिचय दिया जा रहा है। इन काव्यों की रचना के मूल में धर्म प्रधान दृष्टिकोण पाषा उपलब्ध नहीं होगा। इन रचनाओं में लगषग सभी सुन्दर प्रबन्ध है। इन कृतियों की विषय वस्तु सुगठित है। इनका पद-साहित्य ब्रम्टव्य है। अलंकार तथा की इष्टि से भी जैनेवर (लौकिक) कृतियाँ तत्कालीन पर्षन पहधतियों या काम्य परम्परामों पर्याप्त वास रखती है। प्रायः ये सभी रचनाएं प्राचीन राजस्थानी अथवा बनी गुजराती की रसमा प्राचीन अन की भी मिलती है।यह पी सम्भव है कि इन नेवर और जैन कृतियों ने एक दूसरे को प्रभावित भी किया हो। इसलिए संविषय हिन्दी के इस चैनेवर साहित्य का परिचय प्राप्त कर लेना आवश्यक है। इस हौकिक सत्य का अध्ययन दो खों किया जा सकता () कालिकामा नीति का जाने बागमार मालिन्दीष्ट कायसी सबसे महत्वपूर्ण स्थान वनी भवानी बा Maman शिवम के पक बिलाल का है। बाझिालीन न रम बनी बाबीही सका प्रमुख व इसी ..मम्बामा समरिम Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिलाब की है। इस विलाब का उल्लेख आचार्य डा० हजारी प्रसाद द्विवेदी ' और डा० हरिवंश कोछड़ ने अपने ग्रन्थों में किया है। डा० हरिवंश को ने लिखा है "संस्कृत और प्राकृत में लिखे गए अनेक बिलाले उपलब्ध होते हैं किन्तु अपभ्रंश में लिखा हुआ कोई विलास अभी तक प्रकाश में नहीं जा सका। बम्बई के संग्रहालय में धारा से प्राप्त एक अपभ्रंश जिला विद्यमान है। - डा० कोटड़ का विलास के अस्तित्व सम्बन्धी यह कथन तो सही है परन्तु उनका यह कहना मुक्ति संगत नहीं प्रतीत होता कि यह किलाले का है। डा० कोड को इस विलास का पाठ सम्मनवः उपलब्ध नहीं हो सका होगा। इसीलिए उन्होंने इसे अपड का लिख दिया है। वास्तव में यह जिलालेख पुरानी हिन्दी का है। आचार्य हजारी प्रसाद दिववेदी ने भी जपेन ग्रन्थ में इस शिलालेख को अप का लिख दिया है। वास्तव में सम्प्रति इस उपलब्ध पाठ से किला arrafथत बातों का सहज ही निराकरण हो जाता है। सम्बन्धी १४१ लेखक को प्रस्तुत विलास प्रिंस आफ वेल्स म्यूजियम, बम्बई के संचालक डTO मोती की कृपा प्राप्त हुआ। प्रस्तुत बिलाल का अलग अलग डा० हरिवल्लभ मतवाणी तथा डा• मावा प्रसाद गुप्ता सम्पादन कर रहे है। लेखक को इसके पाठ के मेड डा० मरता प्रसाद मुक्त और डा० गावानी से प्राप्त हुए है। उनका है०न्द्रका विचार है कि इसका का वर्ष जिसमें देश के विभिन्न प्रकार की ोिं ने नाम लिया इसका लेखक t: Roderavel है या यह कि देवी मादा के विभिन्न में लिया गया और इसका पाठ समकालीन प्रति देवी माकामों के विभिन १- हिन्दी २३- नही की भूमिका डा हरिवंश को की कुछ हरी प्रसाद दिववेदी, पृ० २२ सन् १९४८ पृ० ३५ सन् १९५६॥ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ कठिन और अस्पष्ट से भरा हुआ है। डा० मोतीचन्द्र का पत्र या अविक् रूप से उत किया जारहा है।' डा० मोतीचन्द्र को उक्त सूचना डा० मायावी से प्राप्त हुई, पैसा न लेन से स्वष्ट होता है। के डा० मायावी के अनुसार भी इस विलास में विभिन्न प्रदेशों की भाषाओं है। उनका मत है कि म्यूजियम के जिला की माया अपेक्षाकृत अर्वाचीन अनेक स्थलों पर अर्थ अस्पष्ट है। बीच में एक कोने से दूसरे कोने तक हर पक्ति में कुछ र टुटिय है।' डा० गोपीन्द्र तथा CTO बाबाजी के उक्त भतों में पेवा असंगति प्रतीय होती है। वास्तव में ये लाले विभिन्न प्रकार की देशी भाषाओं में नहीं लिया गया है न हो कवि का नाम ही स्वावल है। साथ ही इसमें किसी भी ऐसी जैन यात्रा का वर्णन नहीं है, जिसमें विभिन्न प्रादेशिक स्त्रियों ने भाग लिया हो सक के शोध निर्देशक डा० माता प्रसाद ने इस बिल के पाठ का सम्पादन कर दिया है। उन्हीं के द्वारा लेखक को इसके पाठ तथा माया के अध्ययन का वाय प्राप्त हुआ है। 1 a - I am in receipt of your letter dated 28th A., 1968. The in vi ption in question, is really a difficult one and therefore, I de not wonder theat you have not been able to make out any thing of it. It deals with a Jadne Extra in which women from different parts of the country participated. It is remarkable that the poet who is perhaps, med se Roderaval use different forms of Desi-bhasha prevalent in those parts of the country for describing women folk, The difficulty of interpretation an Bhayand has informed me, is due to the feet that the text is full of cheere words and terme derived from the contemporary, Dentabhashan. Perhaps Dr. Bhayani may be able to mitighten you are on the this subjeet, 00/ Letter e of Wales Museum of Western lonbay 3rd September, 1958. भारती ि है। Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४३ वास्तव में यह शिलालेख दसवीं शताब्दी का है। इसका प्राप्ति स्थान सम्भवतः धार की सा होगा क्योंकि इसमें जितमा भी वर्णन मिलता हैवा सब माल का ही है। प्रस्तुत शिलालेख में कवि का कहीं भी पता नहीं मलता। इस शिलालेख की नायिका का नाम राउत है।बहुत सम्भव है कि डा. नावापी क्या डा. मोतीक्ट ने इस राउल मद को रोद्रावल पड़ लिया हो। क्योंकि रोद्रावल और राउत बब्व में पर्याप्त साम्य है। शिलालेख की वर्षय वस्तु श्रृंगारिक है। इसकी नायिका राउत नवयौवना है तथा विवाद करके अपने पति के घर जाती है। कवि ने विवाह में पूर्व और पश्चात् भाइयोपान्त उसके अंगार का अपूर्व काव्यात्मक कलात्मक एवं चमत्कार पूर्ण वर्णन किया है। मत :राउल का मानिस वर्षन ही पूरे शिलालेख की वर्षयवस्तु है। भाग शिलालेख पक्ष्य में तथा मा गड्य में उपलथ होता है। गद्य में उपलब्ध वर्णन से उसके पदय के व न्य प्राभ्य का अनुशीलन किया जा सकता है। डा. मावा प्रसाद गुप्त का पता लेखक मा की पुष्टि में उन किया जा सकता है। डा. गुमा का इस शिकावी पापा म. इसकी पान पुरानी दी है। उनके विकी देवी विभावानों, विपिन अन्टमी का मन नहीं है। म सरल, बस या साबमा । सस्म की इस निका वर्ष मल्ट या प्रामी।बो पीडा माता प्रसाद पुचा और गरिमान भावाली बोनी बिडदान बब इस शिलालेख का सम्पादन प्रगतिमी समय में अनेक मान्यों को गाना गा Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ सकेगा। डा. गुप्त शीघ्र ही इसका पाठ, अर्थ तथा टिप्पणियां प्रकाशित करने वाले है। शिलालेख के कोने इटित और पंडित हो गए है। शिलालेख का प्रतिचित्र ( Eshampaqe ) बहुत पंडित है तथा स्पष्ट नहीं जा पाया है। अनेक पक्तियां त्रुटित है अतः पाठ स्पष्ट तथा सार्थक नहीं बन पाता फिर पी प्राप्त पंक्तियों के आधार पर काब्य और गड़ब दोनों अंडों की सम्पन्नता, कलात्मकता, अर्थों की प्रभविम्यता, प्रेक्मीयता तथा पदला हित्य और काव्यात्मक सरसता की परीक्षा की जा सकती है। कलात्मक गदव और गद्यकाव्य पर विचार करने हुए लेखक ने गइय की कुछ पक्तियां प्रस्तुत मन में उच की है उनसे इस गदा की सम्पन्नवा, भाग्य के उपमान, मौलिक वर्णन तथा सुन्दर चित्रों का परिचय मिल सकेगा। कवि ने काव्य या गझ में वर्णन की पुनरावृत्ति की। दोनों काम उसी प्रकार का मिला मुलगा वर्षम है। नाविका रास मोर, नाब, वार, मानमर मादिनी रे वर्णन मा स्थानीय काम की इष्टिका अपमान Hथा मन्दिन है। वर्षमा प्रामाविका मापान taरी वन कागार इन्टबाया गब्ब प्रथाविमा विशिष्ट काय म का एक उचरम ग रि वा रहा है. पए कानो काम बघा ना कर देखा बारमबोरो ) ,पाइनउ सो पथ को न मोहा माल दीव, जो बाबद मोबन बाड गिना, काई करेबर सोही बान। जान्दाकिन मरनाक साहित्यमा रमार, विवरण -बार प्राकाम्याय-PET Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४५ (अर्थ:- इस प्रगर नाव होने को किसी , शपि तू हमारे देश को नहीं देखती है। ऐ रान, जो (दू ऐसी) आपूर्व शेषित हो रही है, यही वह व्यक्ति नहीं है जो (ख) बसा मोहित न हो जायनरी) बारों में जो अल्प काल दिया मा है, जो वह उसका मवर्ष नहीं (at) कानों में बांकी रडिम (करपत्रिका) इस प्रकार ही है कि अन्यों (अन्य अंगो) को गेमा के लिए क्या कर्मव्य है।) उस उधरव से भाषा की धरलबा,अपच की कार बाला प्रवृत्ति तथा वर्षन की प्रासादिकता वा नाति की सम्पन्मता स्पष्ट है।इसी तराई उधरव दिए जा सकते है। इस तरह शिलालेस १०वी तादी की भाविकालीब रचनाओं की सबसे प्राचीन सरस एवंकाव्यात्मक प्रवाह से परिपूर्ण है। गद्य तथा पद्य - दोनों मों में इस शिला लेख का महत्वपूर्ण योग है। प्रस्तुत शिलालेख का कवि अवैन है। इसका पूरा पाठ प्रभावित हो जाने पर सम्भवतः विश्वान लोग इसके लेखक के सम्बन्ध में अन्य मत प्रसव कर । यो बैन परम्पराग इसमें पूर्व निर्वाह भी नहीं मिलता था जैन की के वर्षन शिल्प के विशिष्ट तत्वों का भी उल्लेख नहीं किया जाता । अनुमान से यह कहा जा सकता कि जैन कवि ऐसे समान में मणि वर्णन करते नहीं थे गए क्योकि ग्मकी वर्णन प्रति माया लिमोडी पर किन पी राम, चाय समानों न कवियों मामालियों से पार पीमा योग. मा प्रकाशियान रखा है। वाया पानी परिवार से बीमार होना "मग की शया, परिवानी मानौं जिगर की साडी पानी पीना बाकि विं , य एवं मामूली कमर मागविना कास्य भर कर सहज निवार दिया them. विरशिस सविंदा मामा माम मारठी का मारामारी मा की। Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ कवि ने रचना का समय और विक्य का परिचय प्रारम्भिक पंक्शियों में बड़ी ही लूट बेली दिया है। रचना की कथा लोक आध्यान पर आधारित हैारमा प्रकाशित श्री मोहन लाल बली बंद देसाई ने भी इस रचना विज्य में अपने प्रध में चर्चा की है।' भवता (1) मुनि , वछ ईसवर- बारित अब। बावन वीर क्या रस कीर, यह पवा असाइन करि। इस प्रकारइसका रचना काल १४ - नि ..:. १० है परन्तु चक्र और मुनि : • लेने पर इसके रचना की सम्भावना • भी हो सकती है। कवि के अजैन होने का प्रभाष यहमिलता है कि उसमे प्रारम्भ में ही भू और शक्ति की वंदना की है।वस्तु द में यह बंदना देमियः सकति बभूब सकति संभूब परत परमे। विध विधवर विधन र क कवित्त मन धाविति। कासमीर पुषमंडमी ईस गमि सरसती समिपि। वास प्रसादि बेद व्यास वाल्मीक रपि इस पहन उपदेश। नास प्रमाबिमा पनि वीर क्या वरण व्योग।। ।। बहकाव्य चार महीने विषय है तथा ४४. कड़ियों में लिखा हुमा एक रख प्रधान काब है। पूरा कास्य कवि ने ब स लिया है। अनेक स्थानों पर काम र हाथीभावना पीकवि मे झाकी शिनी प्रष्टि की है उसमें विविध रामों में निकाली। सिरि राम मामिका साकीका बिरामा पूर्व वि पि मा पने पोपट पाहिए पीविता : रामारि मावि पूरव प्रेम मक पानि दाबानक बगी बळी दाकिम पोष्ट पीना या ने नरनाथ नि बम की बनी मिनई पानी साथ --- पोपट) रवियो बी मोल का सीना मान ! Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४७ किलक्लिति वन विचरती वेलीवर वीसास सधि धामी साहस कीउ हूँ एकली निराम ... पोपट. माणि असाइत भव भरि बभरि सामाणि कंत हंसाउली धरती उली उि प्रि पुषि पत ... पोपट. इसी प्रकार के दूसरे विरर पद राग ह देशार और रागराडी के इष्टव्य है। कवि की हा सर्वत्र वर्तमान है। वर्णन में दों का साम्य है। इसी प्रकार की रचना #. १४८५ में रचित जैन कृति की हीरानंद मूरि विरचित विझ्या विलास पावाड़ो है जिससे इसकी वर्णन पदयातियों तथा अन्य विविध साम्यों की तुलना की जासकती है। विद्या विलास पवाड़ो का वस्तु शिल्प भी लोक क्यानक पर आधारित है तथा उसमें भी अनेक बार कवि ने पदों में अपनी छाप छोड़ी है। दो के वर्णन में देवी रागो का महत्व पर्याप्त मामय स्पष्ट करता हैदों में दोहा चौपाईसाउली के प्रमुख FE है। कवि ने नायक हंस और धीरोदात्त के गुणों का प्रायोपान्त निवार समय सेठ और रानी चित्रलेखा हंस के दरबार में आते है अपने बड़े भाई का पता बात करने के लिए हंस ने आने का जो प्रयास किया था उसी को कवि में के सराबों प्रस्तुत लिया है.. पुम्पर्वत की मार प ति परवार राब काम अबको बामलिया ,बहारीमा मासान परि बहन मन मिलिया सी. पा विषयी का निर्मश्री, MP पीनु नि धर्मी बीस विडिgand बिल पेन मी, पापीय पाल विमामा भाग, मालपाति पनि भाभि इन हिमानीको बही पहरसी भापनि तिगि बारित म्यागारिया बाने, बीमिनार माने काधिक सा गा करो. Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ इस प्रकार उक्त उद्धरणों कीभाषा में प्राचीन राजस्थानी अथवा जूनी गुजराती के स्वस दिवाई की है। पूरी रचना एक सुन्दर लोक प्रबन्ध है। अत: लोक परम्परा और क्या की दृष्टि से प्रस्तुत खना विदयाविलास पवाड़ो से पूर्ण साम्ब रखती है। ऐतिहासिक दृष्टि से पक महत्वपूर्ण जैनवर काव्य श्रीधर व्या व रणमल छन्द है। भूरला मे विसं. १४५५ में जब हमारे च पर माक्रमण किया उसी समय कवि मे इसकाव्य की रचना की थी। श्रीधर ईडर के अधिपति राब रणमल्ल के रायश्रित कवि। रमाकार श्रीधर मे काम्य के प्रारम्भ मेंस्कृत के मायाव दिए है, इससे स्पष्ट होता है कि वा संस्कृत का भी सक्षम कवि था। रममा सन्द पूरा काम्य वीर रस प्रधान है। रचना ऐतिहासिक तथा प्राचीन परिचमी राजस्थानी में रवी गई है। विशुद्ध वीर रस कृति में आयोपान्त निम्पन्न है। अन्य किसी भी रसको कपि मे निष्पन्न नहीं होने दिया, यह उसकी सबसे बड़ी विशेषता है। वीर रस का वर्णन क र भी विकास की सबसे बड़ी विशेषता यह है उसने कहीं पीरिमा को स्थानी दिया। बाराका पारगम्य स्वमायोति का अनूगा उदाहरण है। रमा विनय, स्वासरावोलिया, बों की अलमारला उत्तर म स्वरूप का भाव या प्रा स्पष्ट करती है। स्थान पर वीर रस मी स्वालियन हन्टमा मग अपर मुन्दर सटिव मालवारि र रंग गिरी गिरी, बोलनिमारकर fara पायर नर रेन्स मावि मर र विप गाविभाग, Re Manm: Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूपन्डलि भड काधम्ज भडोहडिजवालिपिडस भिडन्त रमाल रणकल रवि रोगाम पुषसत्तापि वरंत उल्लालवि पालबिक मला लवधि लोभिलाव घामट पारि घाड़ पर धसममि घसमरि इगपडन्त कमधन उदयगिरि पन्डम सविता मलमल मलल पडत रिस पनि धूम धरई, पगडायणि, परवरि डरलत भब्दों की बनुरणनात्मकता, ध्वन्यात्मकता एवं नावात्मकता और अप्रास अलंकार की सुन्दरता देखते ही बनती है। जैन कृतियों में सुध का ऐसा रोमाचक वर्षम शालिमा सूरि विरचित परतेश्वर बाहुबली रास देखने को मिलता है पल्तु उसमें भी काव्य का प्रवाह इतना सबल और सौक्यपूर्व नहीं मिलता जितमा रमपद में उपलबध होता हैतियोक्ति कहीं दिखाई नहीं पड़ती। यक्ष भूमि का इसमा स्वाभाविक और टापूर्ण वर्णन आविकालीन जैन अप्रैन काव्यों में कहीं भी मिलमा असम्भव है। माद बन के लिए पारसी के अन्तर्गतवति निम्नासि उधरण देशिय:बम बनाई उमटमकार, डकर ढोल ढोती चंगिया परली व बरबाद हरि बरस रपि सपरेटि गया यी गो कार धरमरण परा परवानगन बाली विमा उत्प्रेक्षागों का मदर वर्णन की लीराम पानी पिया. Fधार बार बार पी, पETanा परिवार प र निरुप्यमा अब्बार बार बार परसापानी मार' WITR दर ािकि काय बोरस म सानो मनकारी निवा सामवारी कामको और मान प्रधान, lon Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० fagu तथा अनुरणनात्मक शब्द जयन काव्य की कलात्मकता के जाग उदाहरण 音 1 eferter वारसी पुजंगप्रयात आदि छन्दों का सकल निर्वाह है। रचना प्रकाशित है। का प्रबंध : प्राचीन राजस्थानी का एक उत्कृष्ट महाकाव्य कान्हड़ दे प्र है। इसके रवा कवि पद्मनाम है। यह रचना प्राचीन राजस्थानी भाषा का एक महाकाव्य है, जो अद्यावधि उपलब्ध रचनाओं में एक अपवाद है। क्योंकि जैन रचनाओं में एक बी कृति महाकाव्य के रूप में उपलब्ध नहीं होती। बजैन रचनाओं में इस महाकाव्य के कारण आदिकाल की समनता और भी स्पष्ट हो जाती है। पंडित कवि पद्मनाम का यह काव्य प्रबन्ध एक विबुध ऐतिहासिक काव्य है। इसमें वर्णित घटनाएं बहुत अंत्रों में इतिहास समर्थित है। प्रस्तुत प्रबन्ध का नायक कान्हड़दे है। स्वयं कवि भी कान्हड़ दे के नगर जालौर का रहने वाला था। कवि की इस रचना में प्रेरित करने वाला बहुजाण वीर राजवंश ही था जो कान्हड़दे से केवल वीं पीढ़ी में उसके राज्य सिंहासन का शायद अन्तिम उत्तराधिकारी था। इसका नाम अबराज सोनगरा था । कवि के अथकानुसार वह बड़ा धर्मात्मा, बदाबारी दानशील और ईश्वर भक्त था। उसके पर कवि ने प्रकाश डाला है: म राज उत्तम अवतार, बेडमा पुश्मन कामइ पार ates कीति का वि ज्ञात होता है कि कवि के कुल का सम्बन्ध विराज बराने के साथ दानुक्रम से बला जा रहा था और इसीलिए उसने अपने माधवदाता राजवंश के एक महान वीर की कीर्ति क्या इ उ और इतनी पागाई है। बील नगर नागर, ब्राहमण महाकवि पदुमनाम भारत का पुरातन को दुर्ग का सच्चा संरक्षक, उदात्त, राष्ट्रीय मार्थ राक था। उसकी कवि प्रतिभा ने जिस वह कविता का जन किया है यान्यवारों कवियों की लाच कविताओं से भी उम्न नाव वाली और है। कविकोपा Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५१ (१) माइभारती तमा पचाइ, अवरबंध इधि रस थाइ। (२) कन्हडचारिय जिको नर भण्ड, एक चिटित जिको नरसुणह। तीरथ फल बोल्य जैवठू पामइ पुश्य सेव तेत । (३५) कान्ये प्रबन्ध को प्रो. वी. व्यास मे सम्पादित तथा प्रकाशित किया है। पुस्तक माला के विद्वान सम्पादक मुनि जिन विजय जी ने इस ऐतिहासिक महागाव्य को प्राचीन राजस्थानी की सर्व श्रेष्ठ कृति कहा है। मुनि जिन विजय जी की की इस उक्ति से प्रस्तुत कृति के मामा और विक्य सम्बन्धी दोनों पदों की बहा स्पष्ट हो जाती है। हमने उपर प्रारम्भ में इस प्रबन्ध को राजस्थानी महाराध्य कहा है। उसके पीले दो अर्थ लक्षित है एक तो यह है कि इस काव्य में एक राजस्थानी बीर की पुनीत गाथा गाई गई है और दूसरा यह कि प्राचीन राजस्थानी की श्रेष्ठ कति है अतः विषय और भाषा दोनों दृष्टि से या काव्य राजस्थानी है। ५वीं वादी के पूर्व राजस्थान और गुजराती में जो एक ही पाषा मोठी जाती थी उसी का प्रतिनिधित्व यह रचना करती है। प्रस्तुत कान्हदे प्रबंध भाग तक गुजराती भाषा की सर्वमान्य एवं सर्वशमन कृति मानी जाती रही है। परन्तु श्री मुनिजिनविजय पी ने इसे प्राचीन राजस्थानी भाषा की ति सिदध कर १५वीं वादी पूर्व राजस्थानी और नी गुजराती ग म विच मितिमा देसिएका प्रबन्ध रावस्थाम पुरा नाम,Ne, प्रकाशक राजस्थान पुरातत्व मन्दिर, जापुर (रावस्याका । 1.(३) बास्ववियोगी बारा बनाएं, जिस समय मार्ग निर्षिय,समय राजस्थानी औरणरावी वा पापा व सबक कोई माम निधार नहीं बाबा रावस्थानी बार गुजराती ये नाम भूगों के शासन काल परिणाम मोपरगस इमूल युग में माहित्यिक, स्कृविकगमाजिक परावतिकवादि सर्व प्रकार की नृतम परिस्थितियों के स्वामिकबरार बराबस्थामनाम सेनाविध और प्रस्थापित होने वाले प्रदेशों३मिवासिनोपति , साहित्य, और भाषा इतिहासका अवलोकनौरमपी मिलेगमें भिन्न पावकेचबिकसिमोसा परबा बोरिया की परिस्थिति म अनिवार्य परिणाम (महा प्रस्तुबप्रवाचोरावस्थानीका काकाना बताई उसका कारण पाका बामिको नाकाकाशाबोराखीवभाग किरिया सिमानारे बरामी मावि , गुजराती Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ दृष्टि से भी यह रचना तत्कालीन उपलब्ध रचनाओं में प्रमाणिक सिद्ध होती 1 पूरे काव्य में हमारे होने वाले दुर्दान्त युद्ध का वर्णन है। कान्हड़दे ऐसा नायक था जिसने अनुपम आत्मोत्सर्ग किया। कान्हड़दे की कीर्ति को प्रकाश में लाने वाला उसका वंशज स्वराज सोनगरा था। अतः कान्हड़दे प्रबन्ध में पूर्व देश के पाल राज्य मध्यदेश के गाइडवाल, दिल्ली लाहौर के सोमर, अजमेर के चौहान, अवंती के परमार और देवगिरि के यादव आदि राजवंशों के शासक कुछ ही दिनों में किस प्रकार नष्ट हो गए। हजारो वर्षो की गुगनचुंबी और बाल कंद एवं देवमन्दिर और पाताल कंपी राज प्रसाद धराशायी हो गए। ऐसे समय में राजस्थान के वीर वीरांगनाओं काव्य कहा गया है तो उसका कारण है कि जिस समय यह काव्य रचना गया उस समय आधुनिक राजस्थान और भाषा विषयक कोई बास भिन्नता थी ही नहीं थोड़ी बहुत जो भिन्नता थी वह केवल राजकीय सीमाओं के सम्बन्ध की दृष्टि से थी। बाकी सास्कृतिक, सामाजिक एवं साहित्यिक इष्टि से इन दोनों प्रदेशों के बीच कोई सीमा भेद नहीं था। वे परस्पर एक रूप थे। चालुक्यों की राजधानी अणहिलपुर में बसने वाले लोग जैसी भाषा बोलते थे प्राय: ऐसी ही माका बाढमानों की राजधानी अजमेर में बहने वाले लोग बोलते थे। चाहे उनके स्थानिक उच्चार और बाग व्यवहार में कुछ थोड़ी बहुत भिन्नता भले ही रहती हो, परन्तु उनकी साहित्यिक भाषा Tofed भाषा एक सी भी। भस इस ऐतिहासिक वय को लक्ष्य कर हम इसे गुजराती महाकाव्य भी उसने ही मंत्र में कह सकते हैं जितने मंत्र में इसे राजस्थानी कहना चाहते है। कवि तो स्वयं इसे प्राकृत बन्ध कहता है जो उस तुम प्रान्तीय देश माना के कवियों की एक सामान्य कहि बली या रही थी।-मावा के कवियों मे से नहीं करके ने इस लोक भाका कल करे, प्राचीन प्राकृत और तद्भव भय पोषों भेदों के जो कुछ नाम निर्दिष्ट किए हैं उनमें एक बार अपने भी नाम मिलता है. इस दृष्टि है हम इस प्रबन्ध की माया को मीर भी हो उसमें कोई गति नहीं दी। इस प्रकार प्रस्तुत प्रबन्ध की भाषा भी प्राचीन राजस्थानी, अथवा प्राचीन मराठी बाबा तो जर बाड़े जिस भाषा की रचना कही बाब या पानी बाव इसमें बाद विवाद का कोई कारण करें नहीं लगता । वास्तव में यह रचना समूचे पश्चिमी भारत की मूल भारत आर्य भाषा कुरु की एक प्रतिनिधि और मनात वाकृति है। देविष का प्रस्ताविक गम्य पृ० ४.५ विनिविवयः प्रकाशक राजस्थान पुरात वमंदिर, जयपुर Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५३ के गर्य का सम्मा और ममान्तक वर्णन इस काव्य में मिलता है।वास्तव में इस महाकाव्य की ऐतिहासिकता सर्व सिद्ध है।' भाषा विज्ञान की इष्टि से भी प्रस्तुत रचना का अध्ययन परमावश्यक है।हिन्दी पापा के विकास में ऐसी रचनाओं का बड़ा योग है। भाका, काव्य-सौष्ठव, मैगीत, प्रबन्ध, कला, पद-लालित्य और रस सभी इम्टियों से रचना महत्वपूर्ण है। पूरी कृति ४ खंडों में विभक्त है।रचना सौक्य की दृष्टि से इसका महत्व इसलिए और अधिक बढ़ जावा । कि कवि ने दोहा बापाई के अतिरिक्त विविध रागों में ढालकर काव्य रचना की है तथा माथ पवाड़ा वीर्षक के अन्तत बीर काव्य की सर्चना की है।यही नहीं, एक विशिष्ट बात यह है कि भडाउठीजीर्षक के अन्तर्गत कवि ने गद्य में वर्णन किया है। कुछ उद्धरण देखिए: ही कह धयूं चारु, गयमि म सूपा पान राठी बल मुहासइ माया ढम ढमीया नीसान भान्या सुणी शिबाला रमि राउतवट कीधी बतड ममा पहिला घाउ लम्, अन्न प्रतन्या लीधी मामइ बम बरासं बीळ, शिवडों सनवि लाई अबपति मा बसाइमा बारमा इम्मा पाई गीन पुरष रहमालि योगी, गाई कामा गत बडा रोकिमि पेरण माता भारी माग विवार की विम्यारि बढ़ बोलबीर बाबरा कर परक बना भूल करण्टीमा मारि नया नो 150 the Kanbardada Prabandh modern,Rajasthanluteratures the that givua'an atearate second or to y may doubt that the poot has to worldchrontolesamnam Amasthent, sterones Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ उक्त उद्धरण में विदेशी शब्द तथा सिन्धी भाषा के यूँ, उडी, आदि शब्द हृष्ट्य है। अत्याचारी आक्रमण कता की नृशंसता का एक मर्मान्तक चित्र देखिए: एक जूजूआ डालर कीधा वाइ बाध्यां आलइ एक लोक माय बाप विलोया एक पाठीआ गालइ करी विछोह मां कीधा सवि नारि नइ नाइ बालवृक्ष टलवलता दीठं कटकि उछली धाह एक मणइ अम्हे जममि आगिलड डीडया किस्यूँ आजू तुरका पासि पाडीओ दैवि बहरी दीघरं पूर्व कूडी साथ कई अहै दीधी कई बढाव्यां आल कह जननी उछरंगि रंगता थान विछोहया बाल गाइती का गोबर वेडयां का सोप्या आघाट कइ मत्र जई जंगलि मुध लीची का किही पाडी वाट ( १५७-१६१) बादशाह के दल का वर्णन कवि की प्रबंधात्मकता एवं आलंकारिकता का प्रतीक है। वर्णन का प्रवाह देखिए : गये गये ब दहि आव्यां बडी वाल्या सुरवीन बिही काम दीइ तिहाइ सात कोस मेढा हाथी दिव्यारि वाक्रीया घंटा परमाल we areat ers पटुका कुंनस्थल सुविसाल lastly the Kashadade as a work of art. It the partrayal of its the sentiments, The 1ively, sombre ar gay. Page 2. Introduction elain a high place of honour grand vits design, vigorous in and masterly in its treatment of attw, punctuated by descriptions filled with rate charm,make western Rajasthani literature Tyale Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५५ श्रावण मासि ऊनया दीसह जेडवा काला मेह गयवर ठाठ चालता दीस जोती भाव छेड सालि होत्र जेहनी कसंटी तेहवा कोडि केकाण गढ़ जालहर भी साचरीउ, साव दलइ सुरताण (८३-८६) tears ने प्रना को तबाह करने के लिए कुओं में गायों का रक्त डलवा दिया जिससे हिन्दू बाल वृद्ध नर नारी से मरने लगे। वर्मन की कारुण्य धारा अत्यन्त मार्मिक है: थयुं प्रपात तव तुरमी नारि, गई सरोवरि पानीहारि जागs मा हुहुं निरवर्ग, दीडवाणी लोही पर्ण गाइ ती मस्तक जलि तरड, काठइ कोइ न दान करइ पानी माहि दोष एवडउ, पाणी हारि भरइ नवि पड़त पालि मानी जोड़ लोक, डईड आवड अति पण मोक पाणी विश्वतनउ आधार, पाणी सविह जीवाडव हार जेइइ मोटा राजा राइ ते जल विन विन म रहाह free sé विमासी करी तेही पूछी बैरी रामी मग विमासत किये अम्हे सबै जयहरि पसिस्यूँ हींद्र तमइ मानी गाइ, कोही जल माहि ateesert आस्था टली, र पानी नहींपीय पली रामी बाय विमासी घनी डिष्याती • (१६४२ - १४७) Sarafat after एवं क का काव्यात्मक वर्णन कवि के काव्य लालित्य का परिचायक है। वर्मन की चित्रात्मक चमत्कारिवा इष्ट है: · विमरिया मटकूल मेथमम्मा करवा, कोड को eera चना विका, दीवर मोतीमा ऊपरी ती भर्ना भक्त दीसह सोनाणा वारातमा किरण मिल कोसीसे वीना ल गीत गाम वाली पी को कोर कानन्दवान (१००११) Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अब्दों की आवृत्ति से सम्पन्न एक काव्यात्मक देखिए, जिनमें कवि ने लोभ का यथार्थ चित्र प्रस्तुत किया है: लोभइ एक विटालइ आप लोपड एक करइ पण पाप लोमा ऐक नर लोपर धर्म, लोभइ करइ पाडूना कर्म लोभइ मिली माल माघडइ लोभइ एक नर वाहणि बहइ लोभइ एक विदेशइ, लोभइ एक नर पाला पुलइ लोभइ एक दापवइ अणाधि, लोभइ बूंदा बालइ हाथि लोपइ एक करइ दारिद्र, लोपड़ चोर न आवइ निंद्र लोपा का जि पियारह परइ, लोमह कन्या विक्रय कराइ लोमा जमला वासिन बसलोपा एक बेटाइ साउंसह लोभइ एक बाइ अन्यान लोपड़ पर ऊपाडा बान कोपा धर्मलोप आदर,लोभ सगा सडोदर पर तोपइ एक नर पाडइ वाट,मारइ विप्रनगारी भाट (१८:१८६) रागों की दृष्टि से पीरजना का देशीय स्वरूप स्पष्ट हो जाता है कवि ने स्थान स्थान पर विविध राग, पवा आदि नामों के अन्तरंग मुन्दर काव्य प्रस्तुत किया है। रागों और पबाह उधरण दे-लिएपवाह-बासापुरी मासिका मापी अबकि बागी शान डोल प्रसूम रंगर पा, पीर राज का परिधिका सावरा मान मि पुण्या गटो मामाची पवमी पारपी, परवरीया टी (९१-१९) राम न्यासी बर्षिगीत में की गाइति विशेष इष्टव्य है जो पद की गेयता योग देती है। इसी बरा राम गिरि पिल्ले पद की मिलवा मी. पद की भाति उनी - राम राममिति मला पोज इमर अमीष बौर को स्वामी जय माता दीर Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५७ दुपद।। विलवइ के सस्ती कीजय कंकण अंग उछा नीरि जिम माली तिम विरह दहइ अम्ह अंग ।। विलवइ बे सती।। जिको बंधन छोडवइ स्वामी ते पातक डइ पूठि। बेद बचन अहे सामत्या दू कान्हड़दे उठि।। विलबइ बे सती (A ) राग यासी,धुल मोडवि मिलिय महासमी सी उढणि मवर गपाट कि जीतर सहीय बधामp ए ||२४|| हियडा हरप अपार कि, सभी बोलइ माल वीर कि। गीता सहीय बधाम २ ।।चली।। २४|| हार निगोद बहिरषा, सबी र रणपाकार कि जीता सहीय बधामधूं ।। १४५।। इसी तरह राग सिधडउ (पद १५४-१५८) राग अंदोला, धन्याधी (पद १५१-५७) राग गिरी (पद २४१-२३५ got.) बादि प्रसिद्ध रागों का प्रयोग हुआ है। बहुत सम्भव है कि कवि में अपनी लोक संगीत तक प्रवृति का भी विकास किया हो। गाली राम का एक उदाहरण देसिप: गइ लबडी सये साडी, मेडी सीन रा निहायी। टोमे बाबीब, माई रोगावीय जातार परमा बचावीर अंबरी गोहानी परवाहमाली भाग मा पोकानी । भाना, बी वाला वीर मर ज्यों पम्मान भावना ५ वही रत्मीयाम मरवान वीरला भाभि निरिमामय (1) Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कवि रचना की फलति के साथ उसकी समाप्ति इस प्रकार करता है: जे फल ई तप कीचइ सदा, जेफल हुइ नि नरबदा जे फल सत्य वचन प्रमाण, जे कल हुई शामलीड पुराण जे फल पामा तपसी सवे, जे फल बाद छोड़ये, जे फल पाइ कीचड़ यागि, ये का प्रेटयां हुई प्रियागि ने फल पाम गंगा वारि, वे फल इ मेटि दारि के फल हुई विद्या उदरी जे फल भेटया गोदावरी वे फल नारायण दीठ नेत्रि, जे ई दानि कुरुषेत्रि ये फल पाइसाहसि सदी में फल नासा गोमती जे फल का वारिका मानिये कल मेटयां इन प्रमामि के कलाइ मुगति पुरी साति रामनाम उबरइ प्रभात कान्हड़ चरिय जि नो नर मगह,एक विहित जि को भर सुबह तीरथ फल बोल्यं ये तर्दू पामा प्रश्य सवे वेतनुं (art-1५1 4००) इस प्रकार पूरा काव्य बार बडों में रखकर रमनाकार पदभमा ने कानाइदे के परित्र को धीरोदात नाव में अमूनपूर्व समकता से ऊंचा उठाया है। प्रत्येक वर्ग पारी कवि वर्ग की था की ओर स कर देता है। रक्षा में बरबी, कारखी वा पीडब्बों का या प्रयोग मिला है। वस्तुत पुरानी रावस्थानी अथवा मनी बरामी लिन रियों का प्रचार मिमिग विमान बाकीब बन रमायो पि वैशिष्ट्य स्पष्ट होगा। १५ भादी की गरमानों को महत्वपर्ष कमेन रमा मात्र कवि का वन-विकास- म समा प्रो. ज्यास ने बम्पादित करके प्रकाशित कर दी ME रनाओं में भारत का पि, पवन वर्गव, या ब विधान सेर - Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९९ अतिजन बमद अनवरे बसंत विहां परधान तरुवर बास निकेतन केचन वित संतान बनि विरच श्री मदन चंदन बंदकर मीठ रवि अमई प्रीति सि सोहर मोहर विधुवन चीत (n-te) कोइलि माबुला डालि मालित करइ मिनाइ कामत करि आइसि बार पाडप साड धमन थिय न पयोहर मोड रका मा मारि मान र किस्या कारण नाम दीह विच्यारि नाहु निही छिम गामटि सामटि माई मानि भए महामडम सही सहीड बइ ए वाणि इन परि कोइलियड पूरा अति मनोर विधुर वियोगिनी धूया !...यक्यिोर (२५-२) बाबा भारि लागीय गागीय मधुकर माल सका मार कि विरपियवा धुपवरात आपकी बलि बाकी बांसी पनी बाग मिरविनीमा गायि गायिका मागि वीर मामा पर मिविया सिपी (n-10 Prodगार प्रयासपूर्व वर्षनीलाम इष्टिा परिचय मिलता । विरामी नायिका सीमामाको कामना,वाख के उसकी बाशी और कमिशार का प्रयासपूर्ण मालकारिक वर्षन देखिए। गो गोवामी राड़ी किमान पार मोति मो " मी काही बाकी विना बाड वाधिराज Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० विरs a fafe भागला काला कुलत पैकि जायस ना गुण हैं वरपर बाप त्यजीय विद्वेषि धन धनवान सुधर सरवदे भोजन कर करवला लाइ लडे सुक्पूरवी वासरे बविली वस्त ates are for en पावडीउ बैं कुन विवारि संभावीय भविमादी वा रसियर जिन प्रिय मिरवीय हरिचिय दिई परिरंग are सभी जैन का रचनाओं की तरह ही है, परन्तु भी वर्णन परम्पराओं की दृष्टि से इसमें जैम क्रम स्पष्ट परिलबित नहीं होता । 1 foresty oक कृति है जिसमें कवि ने मत के मादक उस्ता बसंत की की मधुर पदचाप काम का मधुमय भागमन, अमराइयों का उल्लास, उपमानों की श्री सूक्ष्मा, कानन की उत्थान अंगठाइयां और सुमायुध के सम्मेलन शस्त्र के विविध प्रयोगों का वर्णन किया है। जिनके कवि की वाणी विष्कित और गारपरिचय मिलता है।गार का इतना अधिक उत्तान वर्णन तत्कालीन बैग कवियों में नहीं मिला क्योंकि गारवा fare का वार कर उसका रविता कोई कवि नहीं है। पूरी रचना का में किडी गई है। रचनाकार में रचना का प्रारम्भ सरस्वती की नाक है: food acts रवि लिएं बी पर कर वापि दाहिने बाजू (१) अलंकार पूरी कृति गक प्रधान यूजर की में दिी गई है। भाषा सरल, सरस, बड़ा कोमलकान्त है । कवि ने है। विमानसून पावों की दृष्टि की है। पूरे काव्य में दर्द का एक में विभित किया गया है। काम Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५१ के पतियों का प्रवास अंगों की कड़कन धड़कन और परेशानी, शकुन वर्णन, वायस " से नेह और इस पर वर्तत्री का आगमन, रितुराज के साथी मार और उसका सम्मोहन कोयल की कूक, आन मंजरियों का बौराना नायिकाओं की विरह तथा पीड़ाजन्य स्थिति आदि लगभग सभी चित्र प्रस्तुत काव्य की अनुप्रासबद्ध शैली का अनूठा स्वरूप प्रस्तुत करते है। वर्णन की आलंकारिकता और स्पृहणीय शैली अत्यन्त प्रभावपूर्ण है। कवि का एक एक शब्द अत्यन्त सार्थक तथा गेय है। अजैन कृतियों का अध्यन करने पर यह सरलता से जाना जा सकता है कि जैन कृतियों की तुलना में काव्यात्मकता और अन्य शिल्प जन्य विशेषताओं में वे किसी भी प्रकार कम नहीं है। कदाचित अधिक ही है। काव्यात्मक उद्धरण देखिए: कामुक जनमत जीवन तीवन नगर सुरंग राज कर अवगहि रंगिति राउ अनु शी रमई पनि हरिसीय परिक्षीय निज परवारि ates से गणगमणीय नमणीय कुछ भरी पारि (४५०५१) साथ ही बस का अपने मित्र कामदेव के साथ सज धज कर आगमन, और ऐसे समय में नारियों के मंगों से उड़ती हुई जीवन की मादकगंध से प्रामों का व्याकुल हो जमा, कवि को पेवी नारियों के वित वर्णन प्रत करने को बाध्य कर देता है। कवि ने विविध उपमानों के एक से एक प्रस्तुत किए है।की कोकान्त पदावली, रखात्मकता और कुछ प्रमाद रथवर मग चढ़ा है। कुछ fat fast : कर डीई कुवि मुनि सारा कि सुरमनि कि कुंड गंडक ि ans for geet तुमहीय बलु डा बाम कि नयन रे बाफ हर व बोडीय गोडीयमा परि जाक रंग बरे करा Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ तिल मोषम ना रे लाकरे लीगइ भूति किसलय कोमल पामिरे पाणि रे बोल मंजीठि बाहुलता अति कोमल कमल भूमाल समान जीपइ उदरि पंचानन बामन नहीं उपभानु कुवि अमीय लापनि पानि तणीय अनंग नीऊ रापण किहा कि धवल भुजंग नामिपि कई न पयोषी योधर पुर समामि कंचुक त्या सलाहुरे नाहु महामु मामि मामि गंभीर सरोबर उमरि भिवति तरंग अपन समेत पीवर वीकर बहिरिणि बंग मियम पण विधि को बड़ी बापड़ी उपम न जाइ करि कैम्प पर मेयर र माडी माई (६०-६८) जनावम्बचाई इस प्रकार इन काव्यात्मक वनों के आधार पर प्रस्तुत काव्य की अमिमा इस का अनुमान लगाया जासकता है। वसंस बिलास फागु मधुमास का गेय एवं उन्कार प्रधान मानी जिसमें कवि ने वी के मधुर एवं मोडक काव्यात्मक चित्र प्रस्तुत किए है। म न कवियों में बम विकास का महल काव्य की द्रष्टि से आमेश है। बडा की शारीरि रानी दीका बास्यान के उपलक होने वाली en : सिराकार पीपा पाने की क कवि का जन्म स्थान, आदिवासी गणना की व्याधि का उपचार कवि ने पुरानी सम्भव है कि बा गुजराती होगा अथवा राबताना मानों इवारा भी माना TO बाबा कवि भानी होगी विकाtt सबस, N amta- लिमा नीलोक Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६३ है अतः वह चैव रहा होगा। कवि ने चार स्थल का उल्लेख भी किया है जो पाटण का है, अतः सम्भव है वह पाटण का निवासी रहा हो। सदयवत्स चरित एक आदिकालीन सुन्दर अजैन प्रबन्ध है जिसमें कवि ने वीर वथा अद्भुत रस को ही प्रमुख स्थान दिया है। श्रृंगार उसमें गौम रूप में हैं। यो सामान्यतः दो कवि ने नव रसों के वर्णन का कृति में उल्लेख किया है: सिंगार हास करुना इदो वीरो ध्यान वीमत्थो अद्भुत व नवइ रसि पि हृदयवच्छस्स 11401 कवि भीम ने रचना में विविध रागों की देवी ढालों के प्रयोग के साथ बंद वैविध्य प्रस्तुत किया है तथा विभिन्न दोहों, पवृध छप्पय वस्तु, कुंडलियाँ मौक्तिदान आदि मात्रावृत्ती में कुल ६०३ कड़ियों में काव्य पूरा किया है। छंदों का यह वैविध्य रचना की काव्य शैली और वर्णन की प्रासादिकता स्पष्ट करता है। कुछ उदाहरण भाषा शैली लोक आस्थान मूलक बस्तु तथा छंदों के वैविध्य के लिए पावर और बालू पद के देखे जा सकते हैं। (१) (2) चामर कति बंदिणा अनि कक मंगलिक्क मायूँ विचित निटित पत्र पाउारंग वरवं बडी इरंगी बंदंड बैग बार वंरी रसे ति वालवति नारि व्यादि भावरंचि विधे म बान वरति बिरह प बाजा राम से एरिक राज पावल पार न पानी प बाबा महीना र भीबार पार हव दीवर नवरा (१७-१८) राम वासी (३) माम मरवर तरल रंग ग्रामपति पढ़नापि पठान पर्वग जीवा मराठा Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ चामर कैति वि जे जुडंति ते तुरंग आणय जे सुद्ध वित्त साहित्य वामित पाया लहंति फीकी मयड होमदीउ आसणो पद चाल चिह्न दिसि बामर ढल ए सिरवरि ए सोइ छात्र विप्र वैउनि उच्चरs प बाबा जगलि ए नानाविध पात्र बहु बंदिष कलरव करइ ए चाभर करिति सारसी गईद डि डि र there are creatउ छूज ताब अंबर उचित्त वा दिवि राज बेगि साब रह करो प्रेम सुदयवच्छवीर पत्त तोरणड वरो बाबर पद चाल... गय गामिव गुण विन्नवद ए आभाव मुदी प करइ सिणगार हार पकाउति उरि वह आज के समय कुमार अदि नारदवरो (३३०) नरिदं ईद मोडतोय रि अदि विक मानिनि मनमो (९४-९६) verted पाय मा ते सुवीरकम (१) मन (९९) १- देखिए वर्ष १५ ३० १३०-११५/ (२०१) १ कवि ने कारी वर्णन किया है। सबहिंगा के वरीर के विविध उपमान उसके कार्य कार्यों द्वारा उसकी होगा दिवगुति कर देते हैं। Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६५ कवि ने उसके नवशिव सन्ध में उलकर पारंपरिक उपमाओं के साथ आलंकारिक बैली में मौलिकता उपस्थित की है। वर्णन की सजीवता देखिए: (पदधड़ी) गय गमणि रमनि तुरगय गर्मति, *ड अनि लगभग न नमति पय पंक्य लकति चिरंडित, पति पक्ति चित्तथरि चडवर्ड दि जब जंच डुअल वरवंम क्षेत्र, पिथल कि उरथल करिण कुंभ कर पल्लव नव वाया अशोक, यौनबन्न सारीर रोक ११४८ || मुख कमल अमल aftsर सरित्य, निलवटि तिलय ताडीकमन्छ कुंडल कि किन पायार मार, कोटीस निकर परिगर अपार ।। ४९ ।। तिलकुल्ल नाम संजुत्त मत्त, हि दाडिम देत अहरा रगत्त अंजन सह वजन सरिस मित्त, सीमंत कुंठ किरि भयरक्ति । हुड भगड कामकोदंड पंड, कटि दिवं प्रलंबित मी हरिद्वारसारणी समान, सममंडल अवर न उपमान ॥१॥ इस प्रकार कट्वा में कवि ने सामलिंगा के शरीर का सुन्दर चित्र डीवा 1 इसके अतिरित और भी कई काव्यात्मक वर्णन कवि ने बड़े ही संभार के साथ संवा है। वर्णन काव्यपूर्ण सरकार है, वर्णन की बात्कारिता देविष: गाँव कटर वह माड, पान मां का काव्या र, नइमति माथि कोई नगर | 12411 कीवी गपूर, वास्वी के बाब्या पूर | |३६|| बीडी पारिदिन परि पींडी क • लोया कोहिना बुनार, माठा ढोक न बाबइ बार 112014 कि कोल, किरि मानि पोवाडाच्या पारिर किरिवाटी पनी । ॥३८॥ - पिए १०-११ Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकि अटाति मालि गडि बडया इकि मारि सादिसि दडवडयो इकि सावंडा डण्डोक. मी किमया रुपा लोक ।।३९।। इस प्रकार भीम द्वारा विरवित इस लोक स्यात्मक प्रेमास्थान की सरसता और सम्पन्नता उक्त उद्धरणों द्वारा स्पष्ट हो जाती है। अप्रैन कृतियों में इस प्रकार की लोक भाभ्याम भूलक रचनाओं का महत्व अनुभव किया जा सकता है। पूरी रचना प्राचीन राजस्थानी वा जूनी गुजराती की सुन्दर कृति है। -हरिचंद पुराण - ( ४५) हरिद पुराम की प्रति अभय जैन प्रधालय में सुरक्षित है। प्रस्तुत रखना ब्रज भामा की है। नागरी प्रचारिणी सभा की बोर रिपोर्ट में इस कृति की सूचना प्रकाशित हुई थी बन्ध की प्रति बिद्वारा प्रचारिणी सभा गपुर में थी, पर वा पंडार नष्ट प्रष्ट हो गया और इसकी प्रतियां श्री नाहढाणी में इधर उधर मिकती हुई खरीदी। माहटा जी ने संग्रह की प्रति का प्राकार प्रकार तथा उसकी ब-संख्या पूर्णतः वही है जो विद्या प्रचारिणी सभा की उक्त प्रति की मागरी प्रचारिणी सपी की बोज रिपोर्ट में बताई गई, अब नाटा जी कीप्रति भी संपवाया वही है। कि रविता नाममिकार था. fuTE मे पीस शिकविसम्म प्रति निराधारी कामले निराकरण कर बि . सी विवालिब सारा का नामार बाराबार या दोवा मग.. १. अपयशाला नीकानेर , प्र तिशत -बोव रिसोर्ट न .nn 1. देविका और उसका बाहित्य-पा-श्विप्रा frut प्रकान्बिी बार मावासबाराणसी 1 Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आपली सुरिज बंस राज सपबिल्त, धन हरिचन्द न मेल्डो चित्त अषी भाव धरि जाडू को, नासै पाप न पीडी रहे।।८।। कवि ने वस्तु छन्द में बड़े सुन्दर पद लिखे है। हरिचंद पुराण में हरिश्चन्द्रज्या और रोहिताश्व की क्या हैरमाकार जाने रोहिताश्व और व्या का वियोग, रोहिताश्व की मृत्यु पर व्या का कम मदन रचनाकार की वापी विछित्ति के सुन्दर उधरण है। रचना की भाषा सरल, सरस और लोकप्रिय है। (१) अबधि न चूकै जाइ पराप, फाटे डिया परीयो थान रोहिवास मन झरे धणे, भागो लाम छ तोहि नमो परि वाडी नीरालो करइ,तब सब बालक हो आगे सरह कलीयल कोयल करै अति धणे, बीरन मेल्हे भाई त । मारयो थाप पड़यो पुरमाइ, पड़ता भाभल्यो बाप माय अणु प्राइक परयो पतिवार, जापे कन्द्र मिल्यो जिमि राज पुत्र के वियोग में व्या की व्याकुलता बरम पर पहुंच जाती है और वह कामयाब विलाप करती है। एक चित्र देखिए: मन नीर पर मार अवय बाल कर गरम ईका बास को एक बर बोसी बिमार बस्योपचार बाल साकि मि विकास विपारि इस प्रकार हैया का ब या या विवाहपूर्ण आलंकारिक या वर अभ्यास मी यामाजिलि: मिले सार, रियो र पुकार डाटा पीर, पुराना गौवे नीर गोपडियो बीमार, नी माग भयो सार - - Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ परि उछंग मुम चूमावेय, अरे वच्छ किम धान न पेय दीप करि दीने अधियार बन्द विहणि निति घोर अंधार बिन गौ जिमि कारडी आहि, रोहितास विणु जीवोकाहि तेहि विणु मोजणु पालट भयो, सोहि विणु जीवतह भारत गयौ वोहि विणु मैं दुध दीड अपार, रोहितास लायो अकवार तोडिवि नयन लै को नीर, तोहि विणु सास ज्यों मुके सरीर तोहि विणु बात न श्रवण सुमेर तोहि विणु जीर पयानेदेड " इस प्रकार यह कृति ब्रजमावा की जन बोली की सुन्दर रता है। तथा इसमें संक्रातिकालीन रूम के पर्व संधि काल में लिखे काव्य की सरस जन भावा का प्रतीक काव्य जामविहार का हरिचंद पुराण है। : रुक्मणी मंगल: कवि विष्णु दास की तिमी अजमावामें ऐसी ही एक सुन्दर कति पी मंगल है। रचना सं० १४९२ लिखी गई है। विष्णुदास ने अपने काव्य को कृष्ण के रंग में डूसकर पूरा किया है। विष्णुदास की इस कृति का विवरण मी नागरी प्रचारिणी सभा की बोज रिपो में है। स्वर्गारोहण, महाभारत क्या स्वर्गारोहण पर्व भी इन्हीं की रचना है। निम्नलिडिङ सुम्दर पद कवि के कला व का जागरूक उदाहरण है: १ मोडम महलन करत विलास कमक मंदिर में कैति करता है और कोर न पाव बिराने पपू १- बोब रिपोर्ट को मार पानी इरि पति देवकि बाढ बोबो तुम बिन और न कोक मेरो चरिव महा अका fe दिन निरन करत विहारो का पूरन परकास १९४०००५१/ रिपोर्ट १९५३ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घट घट व्यापक अंतरणामी निभुवन स्वामी सब मुखराम विनदास मन बनाई मम्म जनम की दास।' महाभारत क्या में से कवि का एक मास्ति मलक मुन्धर उधरम कवि की काव्यात्मक मसा का परिचायक है। अनुप्रास की छटा भी द्रष्टव्य है।कवि की अनुभूति एवं अभिव्यक्ति दोनों पूर्णतया सबल है। डूबे हुम गंभीर चिन्तन के परिणाम स्वरूप निम्नावित उद्धरण को देखा जा सकता है: विन राई पढाये पाडे, विनसे बेहे ज्वारी डाडे विनसे नीच ने उपजारु, विन सूत पुराने डाउ बिमसे मांगों पर जुला, विनी जूक होब बिन साचे बिनी रोगी कुपच जो करई, विनसे घर होते रनथरमी बिन राजा मंत्र जहीन, बिनस मा क्ला बिन ही विनी मंदिर रावर पायो, बिनो काप पराइ मासा विनसे विद्या कुधिषि पढ़ाई, बिन सुन्दर पर पर पाई मिनी यति गति कीने व्याड् दिनी मति लोभी मा नाडू लिपीने कुमार, विनी मंदी पर पटार पिन बोन डोर मार्ग, दिली व ने माने दिल शिरिया परिषरमासी, नि नि ' इस प्रकार व पाणी इस रसमा इसारा बिप्रादेशिक विमागायों की यानि यिनी रोष मा पारी वामध्यही समायोरोष परमावश्क है। हा बारादोगा.' शादी का एक प्राचीन और पापा काव्य होता मारा मोहा. - १.रेपर्य असावा और साहित्य ..। ल-गेका पारराग-कामावरीमालीमागी.. New Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपलब्ध होता है। प्रस्तुत रचना एक सुन्दर प्रेम काव्य है। टोला और भारु संसार प्रसिद्ध प्रेमी से है। अत: उनके जीवन पर लिखे गए ये दोो उनके शास्वत प्रेम की कहानी प्रस्तुत करते है। प्रस्तुत ग्रन्थ प्राचीन राजस्थानी का एक प्रेमास्याम गीत है इसकी नागरी प्रचारिणी मी कारी ने सं० १९९५ में प्रकामित किया था। अत: इसका पुण्यवस्थित पाठ सर्व मुलभ है। ला भा रा दोहा एक लोकगीत ( Balad है। इसकी परम्परा अनुव तिबद्ध रही है या काव्य अत्यधिक लोक प्रचलित रहा है जो धरती की गोद में ही बढ़ता, बनता, विगढ़ता और लता फूलता रहा। इसका यह मा कि इसमें अनेक परिवर्तन और परिवईच हो गए। नये दूहे और मई घटनाएं समय समय पर अगली गई और पुराने दोहे और पुरानी घटनाएं कमी कमी हप्त भी होती गई। आरम्भ में यह किसी एक लेखक की सम्भवतः डोली गालबा डाठी भादि किसी जाति की रचना रही हो पर इसके वर्तमान रूप में निर्माता तो कोई था कवि न होकर मनस्त जमता ही है। भारम्भ में या कृति वा सन्द में सिपी गई। प्रस्तुख रचना एक सुन्दर गीति मुक्तक है, जिसमें होता और माह की प्रेम था वर्णित है। प्रेम के पानी दिन जब नावे । बवा गमित के सब मिवों को होड़कर बाते है। उसमें गावि पानि, पुन्य सुन्दर मला इरा, वादि नहीं दिवाईया को बल अपने प्राय की पेली कामना कर की सम्भवतः उसकी निगा मिरवरी नौकामा बाहिर बाय। वालिनी की न बरंगों की बारोबर बोला। नीलम का बाक र बीड और रवन डोला की बसपा की परिपौवा दी। वीवो काम गेहा माता पिताओं ने उसका विवाह माल की मामी दिया। पर स्मरण दिलाए जाने पर उसो सकता है। वह परवन के पास रोज रात को जाता था। मागेको बीब उमरा भूमरा मारक परदारों की से दोनों प्रयी गारेगा। बीकान्धी । Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७१ काव्य की क्था का मूल आधार ऐतिहासिक है। भूगल, मरवर, मालव आदि सर्व प्रसिद्ध स्थान है। ला स्वाहा राजपूत था। मारवाणी का विवाह टोला के साथ हुआ था इसका उल्लेख ऐतिहासिक अन्धो पर्व लोक कथाओं में यत्र तत्र मिल जाता है। बाहों की ख्यातों में ये बर्षन विस्तार से मिलते है। प्रस्तुत काव्य की क्या में अनेक प्रवेष मिलते हैं। किसी में पूरा माम्य गाहा, दूहा और धारा छन्दों में लिया गया है।प्रस्तुत कृति कुल ७r छन्दों में पूरी हुई है पर विद्वान सम्पादकों ने इसके परिशिष्ट में विभिन्न प्रतियों में प्राप्त लगभग सभी पाठ वे विए है। जही तक रचना की प्रबन्ध कल्पना और वर्णन पीर्य का प्रश्न है डोला भाऊ रा दोहा एक उत्कृष्ट रमा है। कवि को मार्मिक स्थलों की पहिचान न थी रितु वर्णम, करहावर्णन एवं प्रेमवर्षन, को ही परस बन पड़ेला मा वियोग श्रृंगार की तुलना बावडी की नागमती विरा वर्मन की मावि सरस है। पपीस ... *पी कहा, पी हा की पुकार, बिजलियों काप्रेमी पन से भिल्ल, मालवणी का माबों की इस गना, आदि सबका स्वामा विक वर्णन है। पी कही के काल उत्पन्न बेदना का वर्णन देखिए: बावडिया मा विरहिणी डावा एक बहाव यही परखडपण या मीमा वाम पहनावा की नागमती की यह पशि मा स्थान हो पाती। पिय वियोग बस बार बीमाणि मि यो वि वितियों का गानो भागिन गानों पानी को जारी हो. पीलिया बळावानि मामा मागवि . कबरे की धन्यमा भूगोmil बीवतियां पाया कि मामा भ्यारि समिती बन्ना, बागी मार पसाdिion बार पानी रोगों और पारो कान सुनकर इन मिसिनोप मातील स्वर प्रार्थना बीयका प्रबार, नर Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सौदर्य, प्रासादिकता तथा अभिव्यजना की उत्कृष्टता सवार सुन्दर है: (+) कंकड़ियां कलरव किया परि पाहिले बजे हि (२) १७२ (३) (४) राति सति इषि वाल मई काइज कुरली पिं उबै सरि हूं धरि आपes बिन मेली अंति बिज्जुलियां मीलविया, जलहर तूही लज्जि सूनी सेज, विदेश प्रिय, पचरs मधुरs मज्जि (५०) कुंका ध्य नइ बड़ी, धोका मिनउ विदेसि सायर लंधी प्री मिला, मी मिति परी देखि (६२) उत्तर दिति उपराठियाँ दक्षिण सांगडियां कुरमा, एक संदेसर ढोला नइ कहियांह (६४) कुरजी के साथ संदेश पेजने को उत्सुक मरवणी अनेक प्रकार से व्यथित होती है जिसे कवि ने बड़े संवार के साथ संजोया है। गारवमी के एक निष्ठ सात्विक प्रेम की व्यंजना देखिये: सूटी साजन समरंया द्रह मरिया नयनैडि कुंकड़ियां कलयल किया, सरवर पहलइ तीर निसमरि सज्जन सत्क्रिया, नयने वृहा नीर जिम साहू सरवडी, जिन घरी घर नेह रीवा. sauratas its (48-49) इडी में हम मियम परिव डिक्ट भीतर बाद, मावई जाम में जीन । ११७५ || I हूं बलिहारी सजना सजन मो मविहार ई म बाकी सब नो मलद्वार | १७६ ।। कवि का देवी हुई पारी का कवि में दोहों में ट है ही हाडियों को विदाई किया है: तीसरा व बीर कावा दिवि पर फट नहीं Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७३ भरा पलट्टा मी परड, भी भरि भी पल्टेर बाढी हाथ संदेसहा पण विललंती देहि मरवण की माति मालवणी का विरह वर्णम भी कवि ने बड़ी बमता से किया है। वी काल के सारे दृश्य मालवी की कुमारी के लिए असहव है:. फोब घटा खग दामनी बूंद लगइ सहयम पावस पिउ विण वल्लहा कहि जीवीज कैन ।।२५५।। काली कंठति वादळी वरचिव मेहा वार प्री विष लागइ बड़ी बामि कटारी पाउ ।।७। गिग कति बा बावल परह, नदिया नीर प्रवाह सिष कति माहिद बल्लहा मो किम रयण बिडाय ।।१५।। मी मोरा मंडब करइ मन्मथ अगि म माइ ई एकड़ी किम रई, मेड पधारउ मा II जायसी ने नागमनी के बिरा का साम्य पी इससे किया जा सकता है। वर्षम एक रुपमा देखिए: का बीग चर्क गई गोरा, इंद वान बरसा पापोरा . बोगई वटा मार गईरी, ग्वार मनन गरी मानवीय बराब प्रसाद बाबानी सानीमा बन्धन मायामी, बाया पिरा-पाय पाली विद्यारी बिर वाव ५४ पचापिया बाहरी *विर कालमान 1ि0 पार पापी नि सकारी मार यही नही कामगार र सिनेमाम या वर्षन बस, मारावा. Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ सबिए ऊगट मा जिएल विजमति करs अनंत मारु तन मंडव रच्छ मिलन सुहावा केस 1143411 धम्म घर्मत पाचरइ, उलटकर जाण गर्यद मारु वाली मंदिरे, पीने बादल चंद ।।५३७।। बोली वीणा हंसगत पम बाजंती पाल राजादी पर अंगन, छूटे घंटे कंछल । १५४०|| सोई सज्जन भाविया, जीव की जोती थीमा नाव पर हंस, बेलव लागी बाट । १५४१|| यही नहीं, पाश्चात्य गीत-काव्यों की तरह वाक्चातुर्य, उत्तर प्रत्युत्तर शैली व्यंग्य वचन वामी विच्छित्ति के अपूर्व चमत्कार पूर्व उदाहरण प्रस्तुत काव्य में मिल जाते है। अलंकारों कावर्णन काव्य प्रमाद की प्रासादिकता में अभूतपूर्व निर्वाह पाता है। ढोला मारु की भाषा प्राचीन राजस्थानी या पुरानी हिन्दी है। मीर की कई पदों साक्षियों का साम्य ढोला मारु के दोहों से देखा जा सकता है। कमीर- अंबर कुंजा कुरलिया गरजि परे सब ताल जिन गोबिन्द बोटे तिनके कोण वाल || ३|१|| ढोला- राति सारस कुरलिया बुद्धि रहे जिनकी जोड़ी बड़ी तिनका काम इमा कबीर- यह बालो गरि करो में ईवा समि पति राम ना करे नरवि दुकाने मारि।। बाली गाँव की तिमी राय को ना३।१ ।। - ढोला- यह बन जारीपति की बात इस प्रकार प्रकल्पना डोक मीर वर्मन बगाकार, काव्य प्रवाह त्या स्थानीय गाँव की दृष्टि दृष्टि से गौर at: (1) विि स्वर सुन्दर है। काव्य प्रवाद की की दृष्टि से कुछ महत्वपूर्ण मम वा उका Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७५ (२) बीज न देश कहडिडयां प्री परदेश गयांह भाषण लीय पकडा, गलि लाभी मारा।।१५।। बीलिया पारोकिन नीठ व नीगभियांक अबइ न भजन माडे, बलि पाशी बलियां।।१५।। ___ वडिल: आप वल्लहा नागर बतुर पुजाम तुम विण धण विलक्षी कि विनलाल कमा||१५५।। डियदा भीतर पाति करि, गइ मज्जण स नित सूकई मितपल्हवा निव नित मवला ||१८|| अवध कहानी प्रेग की कि कही न बाई गंगा का अपना पण सुमर पुपर पिल्या ५९॥ प्रीवा, बोराकारमा प्रामबाणी हियड़ा भीतर प्रिय असा काही र पा to माडिया वर हुई, भया गमाया रोय से पाय" परदेशमाई रपया बिटामा होय।।।५।। जामी माह मोली, र बसा अगावि ज्या बोडी का मि बायोसीस बात (१) सी नाबाल lam बाल गोपी NिIT त्यो (1) रंगर-मेरा ना. मोगरा पावा का मामला, Tamel (Vा र परिभर, लिगाम nिyms (1) काली पारी मिल पसी INAL करीपार गाव पोषe any Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ इस प्रकार लोक काव्यानक प्रेम गाथाओं में ढोला मारु रा दोहा काव्य का स्थान अप्रतिम है। अचलदास बीची री वचनिका जैनेवर काव्यों में १५वीं शताब्दी में लिखी प्राचीन राजस्थानी की एक विष्टि कृति अचलदास सीबी री वचनिका है। इस वचनिका की हस्त लिखित प्रति जन्म संस्कृत लाइब्रेरी, बीकानेर में सुरक्षित है। पूरी रखना एक ऐतिहासिक काव्य है जिसमें कवि में बास शैली का प्रयोग भी किया है। काव्य की पति वाली के जाने वाला यह गम भाग मी पण महत्व का है जिस पर आगे प्रकाश डाला जायगा। यहां कृति का काव्य की दृष्टि से ही जा रहा है। दिया अचलदास बीबी री वचनिका के रचयिता श्री शिवदास है शिवदास बारण राज्याश्रय रहकर ही उन्होंने यह बचनिका लिखी। कोटा राज्य के वर्ग गागरोन के शासक श्री अचलदास बीची ही इसके आश्रयदाता थे।कवि शिवदास का समय टीड तथा टेस्सीटोरी सं० १४७५ मानते है और मोतीलाल में नारिया सं० १४८५ । जो भी हो, यह निर्व्रीत है कि रचना १५वीं शताब्दी के उत्तराईच के तृतीय गरम की है। इस रचना की प्रतिलिपि अभय जैन ग्रन्थालय में भी है। स्वमत १२१ छन्दों में पूरी हुई है। अलवार बीवी री बनिया एक वोर्थ मीरमान भीदा से भरा बीररव प्रधान काव्य है जिसने कवि के स्वयं युद्ध में उपस्थित रहकर भास देते रोश्चक चित्र यथार्थ है महदा समन्वय करके किया है। कथा मामः संस्कृत क्यनिका एक सुक्ष प्रभाग मान्य हैजिसकी क्या ऐतिहासिक है। पूरे काव्य कृतिकार में निवास की मामीरता के अनूठे चित्र उरहे है। मांडू के इवान में मन को अपने अधिकार में करना चाहा लवास १- प्रति अनूष संस्कृझेरी बीकानेर में दूरविड । Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७७ को आधीनता स्वीकार करने को बाध्य यिा। राजपूती न जबत पड़ामयादा की मुस्कान और समनी जन्म भूमि की रक्षा में राजपूत तत्पर हो गए।अचलदास ने अध के लिए ललकारने का संदेश या प्रथा आजमग को रोकने के लिए किले के द्वार बंद करवा दिए। दोनों बलों और प्रापकर मारकाट के बाद अवलवास स्वयं वीर गति को प्राप्त MARATE के बलिदान से भूमि रंग गई। सभी राजपूतों ने जौहर कर अपने प्राणों भाइति दी।कवि श्री शिवदास चरण पी बुझ में अपने भाव दाबा के साथ थे। जय रावपूों को गौर करना फा परन्तु राजकुमारों के जीवन निर्माण के लिए तथा अपने आश्रयदाता की इस वीर गति को वापी देकर अमर कर देने के लिए शिवदास को गौहर से मुक्त होना पड़ा। औरक्योंकि यह युग कि. १४७५ बारपास ही मामा बस: इस रचना का प्रजन भी इसी समय में या होगा। अबलवास झीची री वरमिका का वास इस इष्टिको भागों विषक्त खिा जा सकता है। एक बो अइच भान और इसरा जौहरराइविद्यास सामान्यत: कई प्रकारे मा भने । पन्त कवि शिवदास ने स्थान स्थान पर विशाल बत्वों की रक्षा कर का भाव बार किया है। मही महीने ती पिल्यक्ति को ईमानदारी सेवामी मार के बादशाह कीमापा वीणा वर्णन करने वाली हनिमारकी रमा ।। पूरी कविता और बार बोलो जी मई है। में बयानका सीव गीत। वासी काम मे बा का रोमागिय की काम्यात्ममा जाप ग्दाहरण है। ना पालिसी कई है। सत्कालीन रकार्य वन की नगर और दो विकली । केसों में पीर मोवीपी । Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ वचनिका शैली में लिखा गया जैन ग्रन्थ पृथ्वीचन्द वा विलास अपने ही प्रकार का अनूठा गयंबन्ध है, जिसमें किसी काव्यात्मक रस से कम आनन्द नहीं। साथ ही जो गम काव्य की शैली का उदूभवकहा जा सकता है । परन्तु अधिकतर जैन लेखकों ने वर्णन की चारण बैली नहीं अपनाई है और इस ओर उदासीनता रहने से वे जैनेतर लेखकों से इस क्षेत्र में शिथिल दिखाई पड़ते हैं। अचलदास बीची दरी वचनिका इस दृष्टि से बाहरण शैली में लिखा एक सफल काव्य है जिसमें कवि का गद्यात्मक काव्य और काव्यात्मक गम समान रूप से परिलक्षित होता है। ५वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में ऐसी कृतियों का मिलना आदिकालीन साहित्य की श्री सुषमा की वृद्धि में अत्यन्त महत्वपूर्ण चरण है। पूरी रचना काव्य गाहा, दूवडा, सोरठा- क्या बात भादि में लिली गई है। रचना अद्यावधि भकाशित है। रचना का प्रारम्भ कवि बुद्ध की स्वामिनी महिवारमर्दिनी महादेवी भैरवी तथा सरस्वती दोनों को नमन करके करता है। कवि ने सरस्वती से पहले दुगी की सिर नवाया है इससे काव्य की युद्ध प्रधान प्रवृत्ति और शैली का चारण पन स्पष्ट होता है। रचना की प्रारम्भिक वना देखिए: aate हथि विरोलि बीबह विरोलिये नाव पाहू वनइति ज्यों का ही मौकि टिम परविया भारम करि उपरिक देवि वारि बामति या इस ब मfeet माइ, गरज परिवार गरे इस बार वारी बी हवि ues का इकाति उहिया उपना कार बाकि है बाजा रधि बीस हथि रामायन ही राव कीमों ने इसी क सकति विमावि विमन होई (+4) Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कवि सरस्वती को मीत नाद, गुण युति तथा कवियों की दीप्त करने वाली कहता है बमा उसी की पाये इस कथा का गन्ध म निबंधन करना चाहता है: अथ माहा. वास गये नमो बलमाइ बेषा पुसिकक धारणीकासमीर परिवसंत्री गीच नाद गुग मार दियम, देम कवियन विवंती साचार बामनि संभरी पाठ थ अपार सूरत राम अकल कर सादाम सिकार (0) अचल दास की कथा ने कवि के काम में सोना और सुनंधि गुण को साकार कर दिया है ऐसा कवि शिवदास का कहना है। गुणियों में श्रेष्ठ अचलदास ही शिवदास बारव कधि का पन्चान्याक्न कर सकता है। खनाकार ने शिव सिंह के मात्र यदाय से शुद्ध करने वाले पाद के बादशाह की ना का प्रारम्भ ही में वर्णन खिा हैम वर्ष में प्रासादिकता और प्रवाह का सफल समन्वय देसिप: बाड़ा गत्तर दक्षिण देख पूरब नै पहिमाल बडिया - दनि टा, पिया मठ बरेश पर बाइकार पर प्रति बाण पनि राइस पर चार है न पायामा पारसी बाग मडगाव म यो को पूरा किया पर सनी ---- नारी दिवे मेगा पाप पुs (e-m मानाविन्दु राजानों के कापी और स HT सवा द्रावधान शि दासका स्टक की बनी कवि मैग्माण किया कि Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० और एक कुंडलिया छेद में नृसिंह दास के कटक का वर्णन किया है। एक ही बन निवास करने वाले पुगेन्द्र और हाथी के वीर्य की पारस्परिक मला क्या तुलना? हाथी तो लिकर गली गली घूमता है पर क्या सिंह को इस पोल कभी कोई खरीद सकेगा? " अथ दूहा एक कुन्डलिया एक १. जेक वनि वसंतड़ा एक्ड़ अन्तर काइ सीह कवडी न लहे वर ठाक्षि विकrs गैवर गलइ गल थियो जड़ से तह बाइ सीह गलबन जे यह तर वह लf विकrs दह लति विकrs मोल जाण विमुह मेरा वालिन केरा ager कारण कचिन कोपि पेटि की पडियारनि इति कटारउ दुहुन राइ न ग्रहण नरसंच गड गल ज गैवर (१७-१९) दूध में बीबी परिवार के समस्त सिंह आजुडे, जासपास केराजा मी स्वामी पर आई इस आपत्ति को ब्रहम करने को तैयार नहीं ये तीनों के तब भाई के राजाओं ने जाकर जुड़वाये। हम्मीर की भांति स्थल को चित किया।समस्त सैनिक अभय थे। एक दिवा है बर पढ माया और दूसरी दिशा से मानो सम्पूर्ण ही परिवार की सन के अति कर दिया गया हो बलपर के शामी वैनिकों का वर्णन कवि में बहुत ही सजीव तथा सरव किया है: मन का अदा से डर भावना यह काम महति का मा होइ गरम हुने मठ मेहिब बालेर इड मत सह कोइ वड मरवाई माथ ले जा लंकाल गइ चाही नाही व बजि बोरी राम या इरम मोड लिमिट की Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८१ लीधा बलि लागी करी माझ्या लमि सहि दास देखे जवपपुरत ज्यों न्यौ करइ, सिड कलालक मार तमी पटउलइ मावि कबही न पढ़ा काबला सरि गोरी राब क्यों मरह जीड बातिन पाति साहन लावण सार पैदल पार न मामियै गुडियै गोरी राव कहि मैमत सबक अपार अबले सवर अपार दल सरियो दाबी लंका लेवण हार काइमोरी राव गापुरम आलम व जागाह विवै की विधि अवलेसर गढ बबछडे जीव के पोकलिया का सूबर दिशि नामि मि कादवा विति अचल बड़े बालन सरिस अत आपठन शापि (३२-1) यही नहीं से मुझ की लाज लोप न बाब इसलिए सीची कुलके भी सूरमा उत्साह में चूर होकर प्रतिज्ञाएं कर रहे थे। साथ ही अन्य सहयोगी राब उमराब अपने सहयोग को विभिन्न वीरतामूलक रक्तियों द्वारा स्पष्ट कर रोमाई भाई को छोड़कर चला और बेटा बाप को छोड़कर चले वर कटक को लेकर भागे है। वन में पाया प्राधान्य और भारत की ममत्कार मानवीची पीक, मह की महतीवरी महापराकी बीपवई विजय से खरी नाव, छायोपि कोखबर प्यामिली पोचाव पाव । (-५) गक बर माही की हो शारीरको बीमा मा र पडियाक बोल बाइति बागडनि मालिका पीरबा विमा मा Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ नाह वण्ड नरलोड व जानियो महासती अन मेल्ही मेहर उदक रिषि दिनि तोइ afa asat तद आप, हरपायी ठरपी करी चाक ही चालइनहीं बेटर अवछडि बाप नीमनि क्रमनि नाह माई बरि भोजा तपइ प्रजा की मन पाधरा मरण देखि परिवाह बापैता मिरवत छलि, परिकुली छत्तीस डी जात्या स्वामि समाय, सीस माणस पास इस एकि पाल्हा की पूछि पूठि एकि पातलतणी उलि गावा आगी हूवा अस दिन वेल उठि (४८-६४) frea अचल निहार सूरा गुरु जिउदै एकिणि दिसि आया असुर पह दूजी परिवार कलि पालट करणीक सीतल सोम हमीर जिन गढ अनिये माबी वा मिले राइ परणीक मिल मेछिक धारि मह मिलते परिवार के छ बाइ बढ्यो इक्कार (५६-५८) घर कवि मे माह की सेना की मान से मना हामी पोटे, पैक आदि मी को देखकर प्रस्तुत की है। एकसान नामो दूसरे कालीन की भांति दिखाई पड़ा था। गाधा बार बार लक्ष्म व वनमिति चवरामी मइगल डी भर देत, बाल शाह अडीच केरह (६७) में दोनों मारगोटी हुई राजपूतों की मोहवीन अपने दी यों के हाथों के आाधारण बारों को देखकर मुध हो बा श्री ही नहीं, बूढी रानिया, गोही कहा था प्रौढ़ा स्त्रियों भी अपने Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपने देवर, जेठ, भतार आदि के पुजार्थ को ध नबनों से देखती फिरती थी। गाणुरपि इस समय अधस्थल अथवा वैसालपरि की भाति हो रही थी। अध स्थल का मायक अचलदास बुद्ध भूमि में छा चॅबर सहित इस प्रकार का नाम वीर दिखाई पड़ता था मानो साक्षात् हम्मीर ही बैठा हो।दोनों ओर की सेमाबों की समरांगण में मोचीवादी तथा भीषण मारकाट के वर्णन कवि की पूर्ण, उत्साह पूर्ण ज्या गहन अधच सजीव अनुभूति के बिना। कवि ने बोधानों की वीरतापूर्ण भयंकर मारकाट के अनेकों साकार एवं रोमाचक विश्वबारे है। वर्ष की चित्रात्मकता तथा सजीवता कविसावला एवं गाहा छंदों में स्पष्ट दृष्टव्य है:. अब रसाबला बिहू डि कामावलीसर पूटिंग मी भनी अभी अनुलीसग सगा बली उघिर पर रहतली,बानाचे इंशद महाबली भारमै बांगावठी बालम बचलेसर पड़गासेन बिन इम मिली सो कुम पुपरी। कारी बाबा काही नाही दिन राम बापा सबबीवरी भाँदा हनि सीरीन (-10 मथ गाहा पान है मीरा कब पिसाई मा gro) Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ उक्स वर्षम द्वारा रकमा वीर रौह तथा बीभत्स रस की निष्पत्ति स्पष्ट है। की ध्वन्यात्मक्या था मालंकारिक्ता विभिन्न दृष्टान्तों और वनों की साकारता या चित्रात्मकता क्या एवं साकार हो उठती है। शिवदास अरवर को वीर रस के उस प्याले पिला उनकी इस प्रकार की रश्मियों में से एक को देखा पा सक्सा है. * जस पावर मत गार पूर्व न होइ पाक वि वाटी हर ना बलियो बाइस हर पी। (४) बहुत भयंकर सामना किया गयारागण में विविध प्रयोगों द्वारा सीवी के सैनिकों ने बौर्य दिशाबा जाम कर - कर, मानो क्विाड बोलविष गए में वर्षन कबिस्तीक के सब किया गया है।पाल्हण सिंह के मेव रहते ही राय का इन पर आमा सुधारा बा बली: पारडमी विडिरयो अनिममस्या परपी विपि बेला हीया परी राइ राइ रोष लापि IR. कवित्व। पाती करपद पौसम ना बाबी बार र tena, बापापड मा म सबक समस्या गोपा सारी बाजारपीडो बाजार भ री गग्गई ।।११। कर भारकाटने पर पी.सीमाव प्रप मे अपथ करने पर भी खान को ही विवाईकी। एंगर सिंह मोक्काति, मान मिटकोनी मानी इस मा बरीको नाना कामयाबीर को पार करते व ती के Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कान में यही स्वर धे कि राजपूत पुत्र और स्त्रियाँ जीवित सम में मुसलमानों को आत्मसमर्पण नहीं करेंगी। अत:पुर से जहर के मुंए की लपटें मुसलमानों को इस हार का आत्म सम्मान पूर्ण करारा उत्तर देगी। हुआ भी यहीकषि ने अचलदाय की मृत्यु का ज्या राषपूर्वो की इस भूमिल एवं असंगत स्थिति का बड़ा ही मार्मिक एवं काव्यात्मक वर्णन किया है: पीववियो वा वापि सहर की माडर जुगति हव हत्या हरपुर दिया वेगा वैणि बिहामि १९४) गडा मीची मोठीकी रिच ही अभिस्य मृत पारौ सदा अबर राइ अनेक सदा पाइस जमीन कहि की अबसर की पढ़या र शानिय मुनिया बस छतीस यही नहीं, अन्त में कवि ने समस्त रानियों को जौहर की धपती बाला का भंगार कराया है वर्षन का सौन्दर्य और वीर रस का काम्य दृश्य बहा प्रस्तुत होता है जो अपनी पोडजी वालाई समी बनी जौहर के स्कृतियों से अपनी काम को सजा लेती है। वर्ष की प्रवाह रमा के उत्थान को पीरोपियों का ता मा सरकार बरसा रोमाटिका स्थानीय वम पीच परख एवं बीब या मागाव गाव सौम्य वर्ष athMat बीवी कि, मालिनि मही शाम मशिना का कारक मोदो अवरिपरिबार भाषीया रामरामारि मळम पीर मोर्टमा परि मात्रै हुदै नीषण हर गली बार कि fat पेक्षा किमतीका परमा Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ त अवेर उठिसी मंग जागे जामि आपणा सुवर अजीत माहे माहे मलपती कुल बहुवां दीसे केवल उगा किरि आदीव (१०१-१०५) से बाली तिथि ठाहि, आइसि अबलेसर aff सिव सिनकरे, पइसै पावक माहि छूट न जाई होहि माड़े जहर बाइ बाइ चडै उतावली पटरानी पागेकि हर गइ जति बाह इसइ तेजि पैसे अवल पहिली थी रहि मछली पग पकि पडावे नाह (१०६-१०८) 10 जहर जालन हार अमर बलइ ताइ उवरे हरि हरि हरि होई रह्यौ विसन विसम विनिवार हवि न पारावार गढ अनिये गावा मा सुर तेतीस समघर नि दनियर हार ster छोडि जामोलकि परि बाव जोहार मा जातियो, मी माधौ लोहि (११०-11) डोम वीर बिग जौहर बाडिय aft देव बाबा मादिगा मत बिहर विरि विधिठिवासी मोवाइज क्ल िकार िकार पर कालासी (१२१) अन्त में कवि ने अदा की कीर्ति को जल कर काव्य की समाप्ति की है Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८७ गढि संडि पढ़ती मागुरणि, विह राते सुरिताण क संसारिनाम आम सरंगि, अचल बेवि कीथा अञ्चल (१२१ ) रचना की प्रतिलिपि का प्रमाणिक वर्णन रचना की पुष्पिका में मिल जाता है। इस प्रकार पूरी रचना १२१ पट्टों में पूरी हुई है। बीच बीच में कवि ग रैली में भी पर्याप्त वर्णन करता है। वस्तुतः पूरा काव्य वीर रस की एक उत्कृष्ट रचना है जिसमें कवि ने वीरपूजा और जोहर द्ववारा उत्कालीन समाज की पारस्परिक युद्ध नीति राजबूतों की स्थिति, आत्मसम्मान की रक्षा के लिए जौहर एवं मृत्यु वरण, युद्ध प्रेम आदि प्रवृत्तियों को स्वष्ट किया है। वास्तवमे अचलदासखीची वचनिका जीवटपूर्ण वीर गाथा का जनैतर (लौकिक ) काव्य है। अद्यावधि जैनेवर जितने भी काव्य मिलैहैं, उनका विवेचन उक्तपृष्ठों में प्रस्तुत किया गया है जैनेवर रचनाओं को वस्तु शिल्प भाव बी, माया था वर्णन की विविध पद्धतियों की तुलना का विकालीन जैन कृतियों के साथ बता दे की जा सकती है। वास्तव में उपलब्ध जैमेतर (लौकिक) काव्यों का शिल्प, वर्ण प्रवाह, भाषा त्या विषय का सुन्दर समाहार एवं बतियावन की क्षमता इन काव्यों में परिलक्षित होता है। बोध होने पर हिन्दी की प्रादेशिक बोकियो और भी अनेक आदिकालीन तर काव्य मिल सकेंगे, ऐसी बाया है। १- संवत् १६३१ वर्षे पावन दिन लिटि ११ प २५ विवा घटी ३१४४ ब्रह्ममामा बोगटी ५४।१०वास बीची री वचनिका महाराजा विराज महाराज श्री राम सिंह जी विवराज्ये पाविवाणी मी मध्ये महाराजा विराज महाराइ श्री जोधा सत्य राज श्री बीदा तत्पुत्रराज श्री संसार बंद राज श्री सांगा का राज श्री हाक दास लिहिलायें । यं भवतु कल्याणमस्तु ।। श्रीरामचन्द्र जी (प्रतिलिपि अभय जैन ग्रन्थालय, बैंकानेर के संजय से)। Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ (२) आदिकाल की जैन तर (लौकिकागदय रचनाएं। प्रममिः हिन्दी साहित्यमें गद्य के उमव का प्रश्न भी तक समस्या बना हुमा है। आदिकालीन हिन्दी साहित्य की जेनेतर (लौकिक) गद्य रचनाओं पर विचार करने के लिए हिन्दी साहित्य की गठ्यपरंपरा का पृष्ठभूमि के म में परिचय प्राप्त करना आवश्यक प्रतीत होता है। इसके लिए हमें अजैन और जैन सभी विविध स्त्रोतों द्वारा हिन्दी साहित्य के गठ्यके उदभव के अंकुर खोजने होगे अशावधि हिन्दीगड्य साहित्य का उभव १४वीं शताइदी से ही माना जाता रहा है।परन्तु आदिकालीन साहित्य की इस रोध द्वारा प्राप्त १०वीं सताब्दी के शिलालेख अनेम) और ११वीं शताब्दी की खनपाल क्था (जैन) आदि प्रौद रचनाओं के आधार पर हिन्दी मइय की परम्परा का प्रारम्भ १०वीं शताब्दी से ही माना जा सकता है।अद्यावधि विद्वानों में जो पूर्व मान्यताएं गय के उदभव के सम्बन्ध में रही हैं उन पर पृष्ठ भूमि के म में यही संक्षेप में विचार किया जारहा है। जिससे आश है गद्य की परम्परा के उद्भव को समझाने में सहायता मिलेगी । हिन्दी साहित्य के मदय की परम्परा मिन्दी साहित्य के प्राचीमत मझ की परंपरा फूल स्त्रोत हमें संस्कृत और प्राकृत की रचनाओं में मिली है।स्कुल गम, वैदिक संस्कृत के साहित्य से ही मिलने लगा है वैदिक काल बस की वनाएं हुईऔर उसका महत्व पूर्ण स्थान भी था। that में बड्स को प्रधानवा दी है।प्राइमण ग्रन्थों में हमें पा का मान गया या विशाईपड़ता है जबकि उपनिषदों परि बोर पस लेवा है। स्थिति का बिलौकिक संस्कृत में गड़ब की प्रति महीं मिलती। रामायण और काधारानी पल को प्रधानता मिलीपरन्तु उसके बाद अधिकार गामिय मन में लिया है।सूत्र साहित्य में दो पक्ष्य के Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८९ कहीं वन ही नहीं होते। संस्कृत के पश्चात प्राकृत पाली में अर्थात जैन और बौद्ध रचनाओं में हमें गद्य की प्रगति पुनः मिलने लगती है। प्राकृत अपक्ष की रचनाएं वो हिन्दी साहित्य के प्राचीनतम गय रमनाओं की जन्मदात्री कही जा सकती है।वीच स्म में इन रचनाओं में गद्य के प्राचीनतम उदाहरष हमें उपलब्ध होते है। सत्य का प्रारीनतम स्वस्म हमारे सामने प्रस्तुत करने में इन प्रान्तीय भाषाओं और बोल बाल की देशी मावाओं का बात हाथ है।देशी भाषाओं पर अपश का प्रभाव सर्वत्र परिलक्षित होता है यहां तक कि उत्तर की भारत की वर्तमान सभी प्रान्तीय पामाओं का विकास अपज से ही हुवा है।प्राकृत और संस्कृत में तो गय के सैक्शी हजारो पन्ध हैं, पर अपभ्रंश की प्रधानता के समय पत्य का आकर्षण इमा अधिक बढ़ गया था कि अपांच में पड़झबद्त तो विविध प्रकार की को छोटी बड़ी रचनाएं मिलती हैं, परन्तु गद्य में लिा गया कोईभी बत्कालीन गय प्रन्ध स्वतंत्र में उपलब्ध नहीं होता। अपक्ष के नवीं ताइव में रविव कुवलयमाला अन्ध में हमें गद्य के होटेलोटे वाक्य देखने को मिलते है।प्रसिद्ध विइबान श्री लालबंद भगवान गाधी ने अपने ग्रन्थ अपमंक काव्यामी में खलबमाला के कतिपय उद्धरम प्रस्तुत किए है। न हिन्दी गद्य साहित्य की परम्परा उइपब के बीज इसी रनमा से हमें मिलने को है।कुवलयनाला ग्र प डा. हमारी प्रसाद दिवोदी ने भी हिन्दी साहित्य के नाम किय है। वे लिखते है किनवीं बतादी की साला या प्रसंग है जिनमें की तत्काल प्रबलित भाषा के अन्दर जाने काम प्राकृत के इस प्रविध ग्रन्थ प्रवास की वही अपांच का योग मिलता है उस समय के बोलनात की पाक पर रे होट मझारक मामलों में उस पर अच्छा प्रकार पड़ता है।इन - - देखि शेष पत्रिका बीमाटा शिक्षित प्राचीन राजधानी मा साहित्य हिन्दी साहित्य का आविकास-बापाशी Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छोटे छोटे छोपक्थनों द्वारा हम गद्य की प्राचीनतम स्थिति का साल अनुमान लगा सकते है इस प्रकार विक्रम सं. ८५ में लिये इस कुवालब माला क्या मन्च से अपभ्रंश की परिवर्तित स्थिति और तत्सम शब्दों के बाहुल्य को स्पष्ट करने वाले इन प्रासंगिक गयाओं के गढ्य की परंपरा समझने में योग मिलता है। जसके बाद पुरानी कोसली का एक ग्रन्थ उक्तिव्य स्ति प्रकरण ११वीं शताब्दी का कवि श्री वामोदर शर्मा द्वारा लिखित उपलब्ध होता है। यह पन्ध बनारस और उसके बास पास के भाषा स्पों को समझने में योग देता है। तत्सम शब्दों की ओर क्षेत्री से प्रतिक्रमण हमें इस रक्ना में उपलब्ध होने लगता है। यह अन्ध रक बात यह भी सिद्ध करता है कि देशी भाषा में था कहानियों की रचना प्रारम्भ हो गई थी। यह मन्ध देशी भाषा के गद्म ग्रन्थों में अत्यन्त महत्वपूर्ण कृति है। इस ग्रन्ध के रमिता दामोदर राजा गोविन्दचन्द्र के समा पंडित थेबे काशी के राजकुमारों के शिक्षक थे। ग्रन्च का रचनाकाल सन् १९५४ है अतः पाषा वीं बतादी की बनारस के आस पास की देशी भाषा की ओर मुक्ने की प्रवृत्तिमा मईधी, या भी इससे पर्याप्त स्पष्ट है। प्रथों के कुछ उइधरण उदाहरणार्थ देखे जा सकते हैवाक्ति व्यक्ति प्रकरण में पुरानी कोसनी को देशी अपज कहते हुए कहा गया है कि दे वे लोकोक्ति मिरा अष्टमा यमाकरित सावी संस्कृत रविता बाध्यत्व मावि १० बाम इति निम्न कीज कि साध्वगा प्रियासमा वादा बाटा दावा सापटी पीनदी में बीवात्मा स्थिती गमावल्यावर : व्याकरण के नियमों में स्पष्ट करते हुए गय के प्रबुर उदाहरण मित इस - मामार वर्म हो पाग १. बापा बोट ..ई बार *-बारा वारि देता Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९१ ५. जीपे चास, जीमें चालत आछ। - ना सूचन -- हा मा, काने मुण, बोले बोलाये ले पायगा। २. (अ) के ईहा काह पढ, को को पद (4) कार रक्षको कह कर का (स) का का वि का पास हापठ - पृ० १०-११) ....अब जस धर्म बाद मुबयु पाप पाट १. पाहा नाही वर्ष नांद बाबाहा पाए मान्य मादि उदाहरणों में प्राचीन गद्य के उदाहरण मिल जाते है जो आदिकालीन गद्य रचनाओं की प्रष्ट भूमि निर्मित करने में सहायक सत्य है। इनउद्धरणों के अतिरिक्त प्राचीन राजस्थानी भाषा में वीं वादी राजरानों के शिलालेख भी उपलब्ध होते है जिनमें दो प्रमुख दानपत्रों को ही रख दिया था रहा है। वे दानपत्र रावल समर सिंह और महाराज पृथ्वी सिंह के है तथा दोनों कासमय क्रमशः पन् ११०१ व सन् १७८ है।पामा प्रवी प्राचीन राजस्थानी है। रावल समर सिंह और पृथ्वी सिंह के दोनों दान पत्रों के उद्धरण क्रमशः इस प्रकार :राल समरमिक- स्वस्तिकी वीकोट पाराजाधिराज रावती रानी श्री नरसिंह की बनाइ दाबमा प्राकार गार पी सन की बेलायतीराव गोषवारी लेबमा पोषय पर पानी पारी मोनाना पारा चरा टाक्ष मोमो चाना नहीं और भारी बैंक की में ही पी प्रमाणे परणाम बरोबर गरम देगा और धारा 4 सपूत मूब शेवामा मामा स्तिव्यक्ति प्रकरण:प्रकाशक सिंधी के बाला - mad Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेगा जी ने गाय गोणो अगी राज में साश्या पाया जायेगा और धारा बाकर पीड़ा को कामो कोणर से बलावेगा और यूं जमा सातरी रीजो कोई में राजयान बाद जो अभी परवाना री कोई उसंगम करेगा जीने श्रीपक लिंग जी की भाप है। पंचोली जानकीदास। धन् र किम १९.९० . १२९॥' (२) महाराज वी सिंहः * श्री श्री दलील महाराचं धीराज में हिन्दुस्थान राजधान संपरी नरेस पुर बदली नात श्री श्री मान रान वीरान श्री पृथ्वी राजी घुसाधन बावारण मी कोष घनं त्रि अप्सनम ने काकाजी नं. के दुवा की गाराम बमोजीन के राज में रोकड रुपीमा ५०.) तुमरे वाहाती गोड़े का परचा सीवान मामे मान से इनको कोई माफ करेगे बीनको मेरको के अर्थकारी हो गई । हडमेत रामा मन् ११३८ विक्रम सं. m+.. . इन दोनों दान पत्रों को श्री हरिऔध जी ने अपने अन्य हिन्दी भाषा और साहित्य विकास में उपत किया हैपरतु दोनों की मात्रा में मिानों की बोली के प्रयोग तथा उदयपुर के आसपास बोली जाने वाली बालीन राजस्थानी भाग पनि बाइनिक मामानों के प्रयोग कर इन बाम पना के बारे प्राचीनता पर विश होनेलमा उपाय होने के गरम जमको कहा नान कर दिया मासा मिला माना पाक कमि है। वीं वादी रोमाद हमारी इस्टि गोरनारे गड्य पर मह पाती है बाबा की मेनी हो . मासपाय के प्रभाषा गड़ा १. रिती-हिन्दी भाषा और रित्य का विकासादिवतीय संस्करण) २८-२९ ist Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११३ का उदाहरण मान लेने को लिया है। मित्रबन्धु गोरखनाथ का समय ०.४७ मानते हैं। कुछ साकृत्यायन रनो १०वीं बवाइदी का ही कहते है। इस प्रकार गोरखनाथ का समय निश्चित नहीं है और उसके नाम से उपलब्ध गदय कृतियां भी असंदिग्ध नहीं है। परन्तु गोरस्नाथ की कृतियों की प्रमाणिकता पर बालोचक विद्वानों ने कार्य की है किगोरखनाथ की प्रामाणिक हस्तलिखित प्रतियां .८वीं शताब्वी से पहले की प्राप्त नहीं होती और रचनाएं गोरखनाथ के नाम से प्राप्त है वे विश्वसनीय नहीं है। परन्तु इतना होने पर भी इसे अवश्य माना जावगा।कि गोरखनाथ की रचना आदिकाल के गद्य साहित्य में अपना स्थान अवश्य रखती है। वास्तवमें यदि गोरखनाथ की ये रचनाएं उसकी अपनी हों तो भी वे अपने मूल स्म में सुरक्षित है इस पर संदेह क्यिा जा सकता है।असंभव नहीं कि उनका प्राप्त सम गोरखनाथ के बहुत बाद का हो।वही कारण है कि बालोचकों ने अयभाया के बल्लभाचार्य के गद्य ग्रन्थों को ही हिन्दी के प्राचीन गड्गमान लिया है। जो भी हो, स्थिति इस सम्बन्ध में बहुत स्पष्ट नहीं है। गोरखनाथ की सिन्धु हिन्दी का प्रारम्भिक गद्य लेखक मानते है। गोरखनाथ के नाम से उपलब्ध होनेवाले मड्य के जन अवतरणों को श्री अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध नेवी अपने खिहास * गोरखनाथ के मान से उपलमय गय कहकर उद्यत स्थिा है। मामले ... आसपास का गढ़ माना। .- सो वा पुन संपूर्ण वर्ष बस्मान कर चुकी स मयी ब्राहम्न नि को युको, बरु मात्रा कर चुकी देवबा गुग पिसानि को संतुष्ट -न्दी साहित्य का इतिहासमा रामचन्द्र चुक्ता 2-मित्रक विनोदः माम" मि . .. -बापमाना: बाबरी अमरवादमाटाका राजस्थानी पाकमकी परंपरा-ब-बडी। -मिगन्धु विनोदःभाग : Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ करि जुको स्वर्ग लोक प्राप्त करि जुको ना मनुष्य के मन लन मात्र ब्रह्म के विचार बैठो।------- पराधीन उपराति बंधननो ही सु ाधीन उपराति मुक्त नाही, पाहि उपराव पाप नाही, बचाहि उपरीति पुन्नि नाही अम उपराति मल माही, निहि क्रम पराति निरमल नाही. दुक उपाधि अवधि नाहीं निरदोष उपराति सुधि नाही, पोर उपराति बत्र नाही. नारायण अपराति ईघर नाही, निरंजन उपराति ध्यान काही श्री गुरु परमानन्द तिनको दंडवत है। वैसे परमानंदा बानंद स्वरूप है शरीर जिन्डि को किन्हीं के नित्य गाये है सरीर चेन्नि बरु आनंदमय होत है। ज मैं गोरष सो मांदर नाथ को दंडवत करत है से वे मदर नाय? आत्माको दि निश्चल, अंबड करन जिन्ह को अस्मूल द्वार है छह बैंक विनि नीकी तरह बराने व गुज काल क्ल्प इनि की रखना तत्व जिनि गायो ।सुगंध को समुद्र तिन्हि को मेरी दंडवतास्वामी तुम हो मजगुरु अम्है तो सिक सबद एक पूशिया क्या करि कडिबा भनिन करिया रामों उक्त उद्धरणों को १४वी शताब्दी कागद्य माना जा सकता है परन्तु बालोगे को जब तक गोरखनाथ के विषय में पुष्ट तथा प्रामाणिक वलय नहीं मिल जाते, गोरखनाथ के पदय को संदिग्ध ही कहते है।जो भी हो, इस गानों को हिन्दी के प्राचीन मडूब की परंपरा में बोम को वागाय ल किया जा सकता है। नामरी प्रचारिणी सपा कापी के एक मार्षिक विवरणसटि पाय के नाम पर मिला योग साधा रमाका महास बधा तिपिकाल सन् .. और ब दानों का वर्णन हैएक उधरण देविय गया यंती पहानि इमिग्रा बाप प्रभावबोलीवेनहम पर ग्रहब कीला मार बोली।-- परम पूज्य स्थान पर थे १- रिवी पाल और बारि - बाग विकास हरिबीच बिवी • wan. ... मी नागरी प्रचारिणी मा। Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११५ विनसे न आवै न जाई योग योगेन हे समाई, सुनौ देवी पार्वती ईश्वर कथितं महाज्ञानं * उक्त उद्धरण की पावा १४वीं शताब्दी की लगती है परन्तु यह ग्रन्थ भी पूर्ण प्रामाणिक है यह कहना कति है। उक्त सभी उद्धरण १४वीं शताब्दी की प्रादेशिक भाषाओं के मय के है ऐसा विद्वानों का मत है परन्तु इनके सम्बन्ध में पर्याप्त ठोस प्रमाणों की अपेक्षा है। एक उत्कृष्ट रचना विद्यापति की कीर्तिलता भी मानी जाती है। हरचना ५वीं शताब्दी के उत्तराध की है |ST० हजारी प्रसाद द्विवेदी मी इस रचना को गद्य की रचना स्वीकार करते हैं। 3 परन्तु ५वीं शताब्दी में तो हिन्दी साहित्यके गद्य की उत्कृष्ट अजैन और जैन कृतियों मिल जाती है। · श्री अगरचन्द नाहटा ने वरूण प्रवसूरि की १४वीं शताब्दी की एक जैन विदवान की गद्य रचना की सूचना दी है जो तत्सम शब्दों से पूर्ण है तथा पर्याप्त प्राचीन है । • जो हो, अशावधि उपलब्ध इन कृतियों के आधार पर हिन्दी साहित्य की परंपरा का तारतम्य यद्यपि संस्कृत से जोड़ा जा सकता है परन्तु स्थिति फिर भी इस सम्बन्ध में बहुत स्पष्ट नहीं हो पाई है। १०वीं शताब्दी से डोडर का मय का मे उपलध हुआ है परन्तु इसके पूर्व हिन्दी की मन परंपरा दिस रूप में भी यह बहुत स्पष्टनहीं हो पाता इधर गौरव नाथ आदि का समय भी अभी विवाद का विषय बना हुआ है। ऐसी स्थिति में प्राचीन राजस्थानी की कई चैनलों ही जाती है जिसने वीं शताब्दी से ही गम की महत्वपूर्ण sarees arrfaवयविषयक रचनाएं उपलध होने लगती है। इन रचनाओं पर प्रस्तु आगे विस्वार में केन मम परंपरा के अन्तर्गत विचार किया जायगा अवक का बाचार्य १६ - देशि हिन्दीभाविकास-डा० हजारी प्रसाद द्विवेदी दी यू०पी० हिस्टोरिक डोसाइटी कि १२ पर श्री र माष्टा का । Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ सबसे प्राचीन गद्य रचनाओं के रूप में अनेक उद्धरण विभिन्न लेखकों ने दिए हैं जिनमें अधिकांश उकारण प्राचीन राजस्थानी के जैन गयकारों के हैं। ये समी उद्धरण प्राचीन गुजराती व संदर्भ में प्रकाशित विविध जैन कृतिकारों की कथानों के है। वस्तुतः हिन्दीसाहित्य की गय परंपथा का प्रारम्भ जैनेवर और भजैन रचनाओं से वीं शताब्दी माना जा सकता है।१०वीं से १५वीं शताब्दी तक आदिकालीन हिन्दी साहित्य में य की अनेक अजैन और जैन कृतियां उपलब्ध होती है। यहा आदिकालीन प्राप्त बन कृतियों पर प्रकाश डाला जा रहा है। Wy जैनैतर रचनाओं में अद्यावधि जो कृतियां उपलब्ध हुई है उनमें पालवी, मिौली, राजस्थानी आदि विषावानों की है। मैथिली में प्राप्त गइब की रचनाओं में सिर्फ वर्णरत्नाकर पर ही प्रकाश डाला गया है। बहुत संभव है वर्ण रत्नाकर की भांति मैथिली में लिखी गई और बम्पन्न गदय की कृति क्या नाटक आदि रूपों में प्राप्त हो । अतः यहां उपलब्ध गजेन नववा लौकिक मय की कृतियों में से कुछ प्रमुख प्रमुख रचनाओं का ही परिचय दिया गया है। इन रचनाओं द्वारा हिन्दी साहित्य के आदिकालीन गद्दय की परंपरा में १०वीं शादी से लेकर वीं शताब्दी सक्के गय के स्वरूप का अनुमान सहज ही लगाया जा सकेगा। रचनाओं के विश्लेषण में अधिक उदूचरम इसलिए आवश्यक कर दिए जा रहे है क्योंकि इनमें निविष्ट कृतियां मावधि मौकाकादित और हारों में है। * बीड साहित्य के कालीन म प्रकाच डाला गया है उसके क्रमिक विकास को इमनेटर व प्रकार से समझा बा सकता है। परंपरा पर उक्त जितना रचनाओं तिमीमा के मय के विविध उदाहरण ० २४८-४ १० प्रा० मु०म० सम्पादक मिनि जिन विजय । बैंक ३ सन् १९३५ हिन्दी का महाि मेंटल विविध प्रादेशिक पा Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भागे जिन नेतर कृतियों का विश्लेषण किया जा रहा है उनमें अधिकतर कृतिमा अत्यानुप्रास ली अथवा गा काव्यात्मक वनिका अली में लिखी गई हैं, अत: इन रमाओं पर गड्य काव्य मूलक शीर्षक के अन्तर्गत प्रकाश डाला गया है उपलब्ध नेतर कृतियों का परिक्य अग्राक्ति है: अने तर (लौकिक) मद्य रचना गय काव्य मूलक: नेमल्य कृतियों में गद्य काव्य की शैली में लिखी कई महत्वपूर्ण रमाएं उपलब्ध होती है। गद्य काव्य की यह परंपरा १०वीं शताब्दी से ही प्रारम्भ होती है और वीं शताब्दी से लेकर १५वीं साब्दी तक मिदी की विभिन्न प्रादेशिक भाषाओं में अनेक रचनाएं गम काव्य की औली में लिखी गई है। इन रमाभों में प्रयुक्त गद्य (जन कवियों द्वारा रचित कुछ ही रचनामों को तोड़कर) बत्यन्त, सरस, सबल तथा पर्याप्त महत्यका है। जैन तर मल के अव अद्यावधि मिनी भी रचनाएं मिली है उनमें से किसी भी रचना का पाठ जैन रचनाओं के पागोर बा शिक्षित नहीं है। इस ओर चिनी पी रमाएं पिली है उनमें बना मिपी मेरी इसमोर पाच दोष की अशा परिचित होती है। गाय की सी यावधि मिली और रक्षा उपाय होगी म विच परिचय को दिया जा रह न रचनावों दीमे विभिन्न प्रादेशि पानों -नाली-काठी बा रामस्वामी.वादिमी की लौकिक रचनाएं है। Internatी मला माहित्य में मदद कान्य की परम्परा को १० मा वाम्मी परम्परा-हिर देसि प्रमगव्याव Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ पुष्ट करने वाली अजैन रचनाओं में अद्यावधि उपलब्ध लगभग सभी रचनाओं में प्राचीन १०वीं शताब्दी का एक शिलालेख है। यह जिला लेड हिन्दी साहित्य मैं काव्य की परम्परा का श्री गणेश करता है तथा हिन्दी साहित्य में पद्म और गम की रचनाओं में सबसे प्राचीनतम है। काव्य के रूप में इस शिला लेख का ग भाग लिया जा सकता है। रचना राउल नायिका के नववि के सम्बन्ध में है। इसका गढ़ काव्यात्मक प्रवाह से ओतप्रोत है। मद्रय काव्य की परम्परा के उदभव और विकास सूचक रचनाओं में वही जिललेस सबसे प्राचीनतम है। अतः हिन्दी साहित्यगय काव्य का प्रारम्भ करने वाला यही शिला-ब कहा जा सकता है। रचना का गद्य राजस्थानी भाषा की एक उप बोली मालवी में है। इस रचना का में अधिकांश मालवी के हैं तथा अपभ्रंश का विक प्रभाव मिलता है जो परम्परा का प्रभाव कहा जा सकता है। गय की प्राचीनता और सम्पन्नता की दृष्टि से नादिकालीन की हिन्दी अजैन रचनाओं को परम्परा के रूप में प्राप्त होनेवाला सबसे सम्पन्न वही गय है जो बम्बई के प्रिंस आफ वेल्स संग्रहालय के १०वीं शताब्दी के एक शिला लेख से उपलब्ध हुआ है। यह जिला लेड मध्यावधि प्राप्त होने वाली गढ़व औरषद्‌यात्मक रचनाओं में सबसे प्राचीन है। इसकी पाका कोट होता है कि यह रक्ता १०वीं शादी की ही है। वह दिला व रावक नामकी एक नाविका के सजा वर्णन का है और वर्णन कार में विवाह करके आई हुई नाविका के नहि का वर्णन किया है। इस फिला ठेव के द्वारा उसके ले के विषय में कोई भी तय नहीं मिलवा | कवि ने का क्या मत वर्णन पद्म में किया है और फिर म का वर्णन की बहन के वर्णन सेवयाप्त साम्य रखता है। १- के विस्तृत परिचय के लिए देखिए प्रस्तुत का समान ११ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अद्यावधि गय की जो वीं शताब्दी में रमाएं मिली है, उनका गढ्य काव्य की दृष्टि से एक दम साधारण है परन्तु राउल नायिका के नमशिख का वर्णन करने बालेइस शिला लेख का गह्य काव्यात्मक दृष्टि से बहुत ही सम्पन्न है। मइय की परम्परा के कलात्मक पक्ष का श्री गणेश इसी मइयां माना जा सकता है। यह गया वयात कलात्मक है। शिला लेख में या गइय भाग पड्व भाग में मद्यपि कम है परन्तु जितना पी है वह बहुत ही पुष्ट और सशक्त है। आदिकालीन हिन्दी जैन साहित्यमें गम काव्य का उन्मेष करने वाली रचना की चन्द्र परित का वर्णन प्रस्तुत ग्रन्थ के बैन गल्य परम्पराएं मामक ९ववं बध्याय में किया बागा। मन काव्य का प्रारम्भ की रचना से हुआ है।परन्तु १०वीं शताब्दी के इस अजैन शिला लेख के गइय का परिशीलन करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि यह गद्य १५वीं बाबूदी में गड्य काव्य की परम्परा का श्री गपेश करने वाली रचना वी भद्रगति भी लगभग ४०० वर्ष प्राचीन क्या काव्यात्मक है। शिला लेख का मन कलात्मक तथा तुकान्त है। गक्ष्म की भाषा में मालवी शब्दों की अधिकता है। मइय काय की परम्परा का उत्कर्ष बीज रूप में इस शिला लेख में मिल जाता है। इस शिला लेख का गद्दय ज्योतिरीश्वर के वर्षरत्नाकर के गहब की भाति सुन्दर प्रवाहपूर्व और नुवाम् । पारा मय काव्यात्मक तथा पास की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। इस कृति का वर्ष विगारमा मासिका गोपाल वर्षन करना मर है। मनः यह रचना अजैन केक की जत्यधिक मार और प्रति का सामोपाय वर्णन कप नादर नर है, क्याला ले वर्ष की जैन परम्पराओं का पधाधियों मपी परिचय ही नहीं मिला। सः इन्हीं समामा आधार पर नाराबा वा सकता है। बबी भूमि में गाय काव्य के रूपमें उपलब्ध होने वाली रमना का प्रश्न मिशिलालेख का गड्य बहुख काव्यात्मक है। इस Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० शिला लेख का उल्लेख डा. हजारी प्रसाद नी दिववेदी और श्री हरिवंश को ने अपने प्रन्धों में गिा है। लेखक को यह शिला लेख हा• मोतीचन्द्र संग्रहाध्यया प्रिंस आफ वेल्स बम्बई के समय से प्राप्त हुआ।वदर्थ लेखक उनका हार्दिक आभार प्रदर्शन करता है। शिलालेख के दोनों कोने टे हुए है पाठ एक दम कटफ्ट गया है तथा बीच बीच में से भी पस्बिया प्रष्ट हो गई है।फोटो प्रति (टेम्पे) हे या बात हुना है कि यह रचना बहुत काव्यात्मक और पर्याप्त महत्व की है। रना का सम्यान डा. हरिकलभ पायाणी कर रहे हैं या डामाता प्रसाद ने भी इसका सम्पादन अपने ही प्रकार से किया है, जो शीघ्र ही विद्वानों के सामने दिखा। जहा तक इस रचना की काव्यात्मकता का प्रश्न है, लेखक के उपमान मौलिक है। श्रृंगारिक अंश बड़े मधुर और मौकिक उपमाओं के दृश्य प्रस्तुत करते है।वर्णनकार ने उपमानों और उत्प्रेक्षाओं की माला पिरोवी है। का वर्णन राउत नाम नाविका के सम्बन्ध में है। यह भी संभव हो सकता है कि राम नाम कमि का पी रहा हो परन्तु कवि के रूप यह नाम अधिक सार्थक नहीं प्रतीत होता और रानाभ नायिका के रूप में ही अधिक संगत बैठता है। कविने गम कास्य के रूप में ही पूरे गम को प्रस्तुत किया है। आदिकासीन इम रमाओं में गद्यात्मक चिनीकी रचनाएं उपयोगी ,रकको देखने पर यह स्पष्ट हो जाता किमान वन करने कीमतों परम्परा सी थी। बाहरणार्थ:वरत्नाकर जैसी रमाबोंगयात्मक कान्त गहब को देखा का पता है। मिदिम मा शकिगम के महात्मा समयावधि गितमी भी कृतिका मिकी में मिलती है हो कि मही" - हिदी मियी निका९४८ ई.पू. २२;डा. हमारी प्रसाद दिवेदी अपरामित्व, ग.रिका कोण, पु.५न् १९५६ -समाउ धनिया: मायामा १-पाखरप्रसाराष्ट-4मकासका HिIावाश्या Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस शिला लेख में कवि ने नायिका राउल का नव श्चि वर्णन बड़ी भजन से किया है। यही उदाहरणार्थ नायिका के केश कलाय और रक्तिम आपा से युक्त भाल आदि के सम्बन्ध में एक उद्धरण दिया जा रहा है। वर्णन में कहींकहीं अब्द कट फट गए है पर अलंकारिक वर्णन भाषा की सरलता और प्रासादिक्ता तथा उपमानों की मौलिकता आदि को इस दृष्टि से देखने से इस गड्य की सम्पन्नता का अनुमाम किया जा सकता है।यन का सौन्दर्य देखिए:(1) सोपहि उपरि सोलाह दीन वान से किस भावहाविसब मिरिका जायसु काम्ब देवह कर नाबइ। निलाह रख करत सुपबाग------ मान न उचल। सो देखिउ आउम्विहि करउ बाइ इस मावइ.. (केवों के ऊपर जो सोलडा(मेलाड़ियों वाला आधुम) दिया हुमा उसका वर्णन सा भाता है जैसे सिंदुरिक के राज आदेश से कामदेव कर नमित कर रहा होमका ललाट रक्त वर्णन का और रा (हा या सुन्दर) है। उसके प्रमाण---) उससे कम ऊँचा है उसको देखकर अष्टमी का चन्द्रमा पेसा पाता है, (२) पर गौड हुई पक को पनु अउर वर (1) ...को (1) ईगंगा बोल्छ। म मालवीउ वे सुधि आय काम्बके गार (वा भाषा विवाए भूलइ। इस बार ममी डॉप काय पह। (कर्ष- ऐ गौर, एक दुसरा और --- कौन और बोर बोरमा जो किन मालवीया रे रसकी परिवादी कामवेव मानो बना हथियार मूल माता है। हर किया हमारी मी दोष होगामी।। मस उखरम मे H ereी काव्यात्मक नता का मान मी मिल वा का मा प्रकाशित हो जाने पर इसके काव्यात्मक गद्य का सम्बनुमान लगाया जा रोमा। - - - .-को रचना का यह माल रोग निवा . नाम प्रसाद मुना Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ strouters age का गद्यकाव्य की ऐसी रचनाएं आदिकालीन हिन्दी गइय साहित्य का श्रृंगार है। हिन्दी साहित्य की प्रादेशिक भाषाओं में अनेक गय रचनाओं का प्रजन हुआ होगा परन्तु आक्रमणकारियों के कारण या सुरक्षा ठीक प्रकार से नहीं होनेथा शेष सामग्री एवं भंडारों की सम्यकू बोज नहीं होने से प्रस्तुत का लेख के पाठ से लेकर जैनकवि माणिक्य सुन्दर सूरि की रमा पृथ्वीचन्द्र बरित के बीच में गद्य काव्य मूलक कोई भी रचना उपलब्ध नहीं होती। अत: अवधी, मैथिली, ऐसी राजस्थानी, तथा ब्रज के भंडारों की सम्यकु शोध होने पर बहुत संभव है कि ४०० वर्ष के इस काल में गदूब काव्य की परम्परा का पोषका दले वाली और भी कई रचनाएं उपलब्ध हों। १ afreeTor गय काव्य शैली में लिखी अजेन रचनाओं में ठाकुर ज्योतिरीर के वरत्नाकर को नहीं बुलाया जासकता । अद्यावधि १४वीं शादी की जितनी भी जैन मय रचनाएँ १४वीं शताब्दीकैपलब्ध हुईहै उनमें कोई भी रचना ऐसी नहीं कि उनके मदद को रत्नाकर के मध्य के समय रखा जा सके। मैथिली के ठाकुर ज्योतिरीश्वर द्वारा किसी इस रक्षा का महम बहुत ही सर, काव्यात्मक प्रवाहपूर्ण है। बतः मध्य काव्य की परम्परा में इस रकम का रहेगा। वस्तुतः इस उम में वि प्रकारची की यह रचना उपलध है न सम्भव है उसी प्रकार की सुन्दर रमाके में अन्यनादेशिक विभागान मी उप हो। मय का यह विषय पूर्वका होच का विषय है। काव्य अथवा क्लबव के होने वाली इस कोन रमा का महत्व निम्नांकित कुछ उद्धरणों से सम्भवतः माना जा सकेगा। रमा प्रकाशित है और प्रसिद्ध ०१०, डी०लि०, रीडर हिन्दी विभाग, प्रयाग विश्वविद्यालय के नु से प्राप्न १- देखिए वरना ठाकू ज्योतिरीश्वर प्रणीता द्वारा कि १९४०० की मार या बाबू कि।" Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा शास्त्री विद्वान डा० मुनी विमार पटी ने इसका सम्पादन किया है। यह ठाकुर जयोतिरीश्वर की गड्य रचना है।रचना के वर्णन प्रकारों और शिल्प की प्रौदता को देखते हुए यह साज ही कहा जा सकता है कि इसके पूर्व भी मद्य की रचनाएं मिलना बहुत संभव है नायिका वर्णन, रितुवर्णन, प्रबानक क्या श्मशान आदि बड़े ही प्रौढ़ बन पड़े है। इस प्रकार मैथिली गद्य को प्रौढ़ता अस्वीकृत नहीं की जा सकती! गद्य के क्षेत्र में इस रमा का एक अपना ही महत्वहै। प्रसिद्ध विद्धवान सुनी तिकुमार चटर्जी भी इस रचना के गद्य की प्रौढ़ता स्वीकार करते है। पैथिली गद्य के विकास में योग मे वाली इस रचना के गद्य की सम्पन्नता निस है। यही नहीं गय काव्य शैली में प्रति इस रचना का महत्व १५वी तादी में उपलब्ध श्री माणिक्य सुन्दर मूरि विरचित प्रसिद्ध गट्य रजना पृथ्वीचन्द बरित से किसी भी भाति कम नहीं है ।अतः गय का सौष्ठम वर्णन की चित्रात्मकता, भाषा का प्रवाह और प्रासादिकता का अनुशीलन करने के लिए ही यहा वरलाल के कलात्मक मद्याच उधत किए जा सकते है जिनकी गद्गात्मक पुषमा मालक इष्टि से दुष्टव्य है। भायिका वर्णन में परम्परित उपमानों का सौन्दर्य देसिप:उज्वल कोमल कोहित सम त बालंकार पंचगुण संपूर्ण परम अकठिन मार पर इस्त्र प्राय गान युगल पीन मार डाका श्रोणी धीर दखिनाव काकृति नानिबाप मार ति मिति गुने समन्वित पुष्टि मा बेच्न वाम मालार पुत्व के पी पुने सम्पूर्ण कोका। कमिनि नायिकामदेवक नयर बाल बरामिक चान्द बस्न पुर। मक जीरीर अइसन कोकाक रंग मान बहमारक बलका अइसन माक सीना बहन कान कार लया इन विरनी पाल जि अइसन अधर । समें दाखिल हम वादामे देवक पार अइसन वाहामिति (ोहित) । "देशिर परमानी . Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेखक ने गस्य उसे भावों का शक सूक्ष्म चित्र प्रस्तुत किया है। मझ्य का वन प्रासादिक है। वर्मन की बाकारिकता रचना के समक्त गदय का स्वरूप प्रस्तुत करती हैायिका के हास्य वर्णन के एक उदाहरण में कवि का वर्णन प्रवाह और अनुप्रसात्मकता देखिए: कुमुद कुन्द कादम्ब कास पास मैलास, कप्पू पीयूषक कानि(कान्ति) प्रसारीसन तीर समुद्रक दक्षिणानिले चाललतरंग धनक लहरी भरुन अमृतक सरोवर तरंगक सहोदर सन शरतक पूर्णिमा वाम्बक ज्योत्सना भइसम अभिनव प्रकशित कमल कोष प्रसारि शोभा सन कन्दपक दर्प प्रकाशन सन लोक्य नारजन गुवजन हृदय मोहन मन्त्रसन, स्वेद । स्तम्भ रोमाञ्च स्वर भंग कंप्य वैवयं अप्रलय इये आम्बो सात्विक भाव ताक मंडारसन संयमित योगिजनक मन निधान मन पावलं उन्मादन प्रक्षोमन संयोजन सम्मोहन इथे। इन वर्षों के साथ ही साथ सेक्षक ने प्रभात मध्यान्ह त्या च्या कापी मनोहारी वर्णन किया लेक का प्रासादिक वर्णन उसकी वम प्रतिभा और सूखम हुष्टि का परिणाम है। ध्या वन का पक ग्वारन होगा: मादित्य बारकाि सवाल अम परति पकत्वमा गनिमार मार करीमा मादित्यो भने मापक कार का सर पर का संचार मोक मबार रक कोठा महगन बीमा योरोत्रियानिक प्रामामान नबोडाम विसोबा हम पर (क) संकोच, प्रवरक उपम, प्राविका मिश्रा योरिंग कौकिक अवार, गोमाजक बोत अवनिक ना अमन अमिताभ, मोगीजनक डिवतीय भोजका उदय, पोषाक बनोवास सम्पूर्णता प्रभृति मन्यया दे' इसी प्रकार में वर्षा कार स्वमा, के, मात, रव गादि के कान मौलिक उपमान सुन कर सिरिरमों के धन को सम्मबाप का, ल.. दोसरबत्त्यावर ताशार बटबी. Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापान, वस्त्र, ज्पतिक अभिषेक, यूत वैश्या, कटनी, कापावस्था,आखट रस क्न, सरोवर वर्णनों के विविध 'चिम सीचे है। इस गद्य की भाषा मैथिली है जिसकी काव्यात्मकता और भाषा बम सबलता दृष्टव्य है।ब्द चयन मरल सुन्दर और पर्याप्त प्रभावशाली है। रचना का विभाजन लेखक ने कालोम शब्द से किया है और प्रत्येक वर्णन के नीचे उसका नाप्ति सूचक सूत्र खिा है। __ मैथिली भाषा की इस रबमा के समक्ष रखी जाने वाली काव्यात्मक मध्य की अझ्यावधि जो जैन रचनाएं उपलब्ध हुई है उनमें सबसे महत्वपूर्ण रना पश्वीन्द्र चरित है जिसका गद्य वर्गरत्नाकर की भाति वक्त है।मासंकारिक शुक्मा, उपमानों की माला, तथा उत्पादों की छटा देखकर कोई भी ग्यक्ति प्रवीचन्द्र चरित की काव्यात्मकता का लोहा मान सकता है। वस्तुतः ये दोन रचनापं समान सो गद्य काव्य की सुषमा में योग प्रदान करती है।' मद्य काम हैली में लिखी एक अन्य लो कि मन रबमा गन्म दे प्रबन्ध मिलती हैारमा की स्वालिखित प्रसि राजस्थान पुरात्व मविर कपुर में पुरवित है।कानड़ दे प्रध के रयिता कवि माना है यह पूरा न प्रबन्ध प्राचीन राजस्थानी में लिखा एक सरस भागव्य है कि परम पूर्व में वि-वार कर चुके है पूरा मन्ध कवि ने पदय में ही लिया पर गौर बीच में महा गाब की पी लिया गया है।इस रचना र काभ्यायाम का प्रयोग मिला है। प्रस्तुब महाकाव्य कवि ने ही जहा मय का न मिया उसकी कलात्मकता - पिक विस्वारसियदेम प्रसाद अध्यबामदनकायका रहनावका एवं प्रेरक मनाहियोक अंश। थंबीररितविष विवरण के लिए देसिप प्रस्तुत ग्रन्थ अध्याय इस रसनाविपरिचय केमिय देशिय प्रस्तुत पन्ध अध्यायका निर हाकिका संबंधी अंश। Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मी उल्लेडनीय है। भाग कविने अथ माउली शीर्षक के अन्तर्गत रखा है। मध्य के काक्य छोटे, शब्द पैने तथा सारपूर्ण है। इस काव्य में प्रयुक्त गदय की सम्पन्नता का परिचय प्राप्त करने के लिए कुछ विभिन्न उदूधरम इष्टव्य है: (१) कंठलिया किया। मंडार भरीया । आलोचि आत्मानइ माया । मंत्र मुहाद्धि हुई शिव सीममण हुई। पूरा सुगट वित्री ने परे घोडा पाठकया। छत्री वर्ग तथा मोड़ा। किस्या किया घोड़ा ।-- (२) विशेष गीव करइ । मनस्यूं बाला। पवनस्यूँ तरह पाटीर पन देई तरह (3) (४) २०६ (1) म पनि घर समुद्र माहि वस्या कवटी क्या ते घोडा पृथ्वी कुरताला । ते राउते चालते । हस्ती गुडीया । दूयषापरीया । रथ जूता राउत बडीया । समाह लीचा । किस्या किश्या बना जीवात जीवरमी | बंगरकी । कमी वांगी । लोड टूटि । छत्रीस दंडा यु हीथी। तेडे राउवे चलते बंदीजन बिरदावली नोल छ । सूरा राउत बडीया | हाथी हाथीयां थोड़ा घोडां । पाठापालास्यूँ । गावाटका पेडा उमा घाटक |वस्थारि मा फाटकानुष वमा चौकार भणीतया अंगार स्वामी दृष्टि। इसी दूरारापरि सौर्यवृत्ति। महाराज कान्हड़ दे के नगर और बरवार का वर्बन कवि ने मम में बड़ी ही संवार के साथ किया है। वर्णन की माता के उदाहरण देविय (t) श्रीनगर जाकर वणी रचना का मढ मंदिर मोति पार मट्टीया वालीयां दोन निव ख यूडीया क्याथ मनाविधि वाली मुख्या गिरी धामंती | पविवध काचबद्ध पिलीया री काकीवर चूना लूज । शत भूमिका सहस्त्र का भी वना । उदाहरण के लिए४१-४८ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०७ (a) महाराजधिराम श्री कान्हड़दे मना पूरी बइ हासिंहासनि पाउ परन्डि.छइ ।मेषवमा उलब नाघ्या । परीयछ बली छ। केतकीना गंध मगहीया छ । बोरपना सर गंधरिय छाइमा माहि मेरी मेहाणी दाइ। जाइबेठी वाळ पाडलना परिमल पंचवर्ष पुष्यवादिना प्रकर पारिया हा मुल्लामना गंध गामडीया डापडीया कपूर पाए बंपाइ हायोग बड़ी बाला पालीमा डाहाथियानी पारसी भापति बानि पडिई कार नवी संपलाडापंच पद बजिम बावा छह गिल्या पील रवावी बना पदावज घाँकार करइ नृत्यकी पात्र मूल्य का बवित न पिर पंचवर्ष वाजिन बाबा पंचवर्ष छत्र धरिता हावार यिाना बिड पधि हुई मारम प्रधान सामंत मंडलीक मुस्ट वर्दघ श्रीपरपावइ परमा धादिकरमा मसारणी बावरी बारदीया पुरुष वा हा इस प्रकार इस महाकाव्य में प्रयुक्स इन गद्यात्मक उधरमों द्ववारा रबमा मन माग की सम्पन्नता का अनुमान लगाया जा सकता है। कान्हड़ दे प्रबन्ध पद्मनाभ की एक प्रौढ रचना है जिसमें प्रयुक्त इन गांवों में भी पहब की पारि बाबाह सबा रखता है। निळ: उस उबरयों एवारा बाकिातीम नि म रमावों में मड्य साहित्य विकास का मास्कवृष्टि म्यान । अचल दास बीपी निका माविकास की भरमारनामों में बार बीवी री बरनिका एक महात्मा कवि पि कवि शिवदार खारा लिखी हीरना पड़ा और बोयों मोतिरी हुई है।पूरी कृति एक Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ उत्कृष्ट वीर काव्य है, जो आदिकालीन चारणशैली में गम काव्य की सरस वीर गाथात्मक सुकमा प्रस्तुत करती है।कृति का गय पर्याप्त प्रवाह पूर्ण है। aafterशैली की काव्यात्मक शैली होती है औरअचल दास की यह वचनिका प्राचीन राजधानी के मध्य के सौन्दर्य को वाणी देने वाली अनूठी कृति है जिसकी कथावस्तु ऐतिहासिक है। रचना की कथावस्तु एवं काव्य सम्बन्धी यों पर विस्तार में विचार इसी अध्याय के पूर्व पृष्ठों में किया जा चुका है। यहा इसके गद्दय भान का ही मूल्यांकन प्रस्तुत किया जायगा। अचलदार बीबी री क्वनिका में ठीक उसी प्रकार का गय भाग मिलता है, जैसा पद्मनाभा छत काम्हड़ देनबन्ध-महाकाव्य में बीच बीच में गइ भाग मिलते हैं। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि कदाचित रचना में पद्य और गम वैलियों में वस्तुवर्णन या कथा वर्णन करने की यह प्रवृत्ति उस काल में वर्णन की एक विशिष्ट शैली ही रही होगी। अचलदास बीबी री वचनिका का गद्रय भाग भावात वलेवा बिरदानकी आदि शीर्षकों के अन्तर्गत लिया गया है प्राचीन राजस्थानी के प्राचीन जैन जैन कवियों द्वारा प्रणीत बात और वयनिका शैली का यह साहित्य इतना afe है कि इस पर कई थ लिये जा सकते हैं। में कृतियों बाद बाद मीर क्वनिका नाम है यारों की संख्या में उपलध होती है तथा शा राजस्थानी साहित्य की वही तीनों माय, यात मीर क्यनिका काव्य या है जिनमें महाजन किया गया है। काडीची री वनका 'गम और काव्य दोनों मों में महत्वपूर्ण है। कवि ने इस वीर वाकाव्य को जिस प्रकार काव्य में संजोया १- माहीची दरी मनिका की मीति-अचल दास बीची री बात" कृति मी है इसका विवरवन्दराजस्थान के हस्तलिवित प्रथों की बोज माग में भी मोतीलाल मेनारिया ने भी अपने ग्रन्थ राजस्थानी गावा औरसाहित्य पृ० १०० पर इसका किया है।ना की या बढी है। एक दो उचरण इस प्रकार है:(अ) बचत भर का उत्तरविन पूरब बकिम का विवाह माझ्या अजयपाल कारी रावन मावि बरन छाया सावर पाने का बाधारे माळ करवाता हो राजा हे०आगे सुपर- Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। ठीक उसी प्रकार की स्थावस्तु को अत्यन्त स्मीय ढंग से मय -वात मी लिया है। पूरी रचना की क्या वस में लेखक ने गद्य भाग में केवल मात्र अध और पज्जावर्षन ही किया है।जौहर वर्णन काव्य में किया है। माद के अन्तान ने मागरोन (कोटा राज्यके अन्तर्गत) पर बाहर दी अचल दास पर्व उनके भनेक बायोगी उपकारक अड्ध में चारों मुसलमानों को पार करवीरगति को प्राप्त हुए और उमभी स्त्रियों ने जौहर की धधकती वाला में प्रवेश कर वीरोचित गति को प्राप्त किया। राजा अवलयास पीची की उसी समस्त की इस य प्रशास्तुि को चारण कवि एवं वाती लेक श्री शिवदास में कृति के काव्य में औरवाती माग में डाला है।वर्णव वस्तु महब और पद्य दोनों मों में समान नहीं है मन में अधिक है।मय औरपदय दोनों पैतियों में कवि श्री शिवदास की यह वनिका इसलिए औरमी अधिक समय बन पड़ी। क्यों कि स्वयं शिवदास अपने आश्रयदाता अचलदास के साथ युइप कर रोने वा अपने सिंहस्य सामानों को वीरोक्तियों, गर्वोक्तियों ज्या गत्या भान ज्झदनाओं से युद्ध के लिए प्रेरित कर रहे थे। इस ववनिका का समस्त मध्य भाग कृति सेखक का बार्गे देखा बनीव वर्णन वा प्रबाड मनी सवारिया यस बरस और पारावाशिक ART विस्य महीं है। हम की पाशिवाय मी वर सर्व कर ज्याप्त हवामान बहीनी मियोक्ति और मानव अवाररावास या निषि पासा लिया। (a) एकपाडा ग्रामवाली भूतवाह मिल जापक बरवरित मारा दिमान दिनोबा ाि बाम कारावासा पनिवाकर बात बोते पारसी माया पिरी बापी माखी क्यामा कुली जिम करवरिया, बौनाबाविमनौगरिताकाली निहाव, गोता वृहावा गर्दै पिर रही कारी राजीवजीरावरंगबीच गौच महडिमकर गाडि रंगली कामाबाबा म बापि मावि मालर पम पोष पीवालाहबानका सरावीकारावाहिकायााकोबाका महावापरली का विकासका बरीबालीकाही बानी राम द्वापामहाराबामियों काबोबावा वैषीरवार पालामाबोब बीबी निवारण गर, गाय करिनालवलीद अगल आबाण चमचमी उठायो मदिवाबपोरोमाबीपाराममहा बडा Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० अतिरंजना मिलती है इसका मूल कारण कृतिकार का मूलतः कवि होना है। उसकी ऐसी कहा कपना प्रधान अतिश्योक्तियां कृति के काव्यांशों में भी देखी जा सकती हैं। रचना में कवि ने पहले युद्ध की साज सज्जा का वर्णन किया है। आदर्श वीरता भी कहलाई जा सकती है जबकि प्रबल के आक्रमण का प्रत्युत्तरउतने ही सक्त रूप दिया जाय | कवि ने अपने मात्र दावा को प्रतिबन्दी शत्रु मा के सुल्तान की सेना का परिज्ञान करने के लिए रचना में सुल्तान की सेना का वर्णन पडले किया है। रा के प्रारम्भ में ही रचनाकार अपना नाम स्पष्ट कर देता है। वर्णन की प्रासादिकता तथा सरसता उसकी काव्य क्षमता के साथ मम सुषमा का परिचय भी देती है आश्रम दाता और कवि जीवन की ओर संकेत करता है : । अथवात ।। बेकसीह ने पार्यो।सूर सिंहा इति भावय। सूरक्षिता इति काव पंचामृत अभी परगरौ । महादान आछ । दूध माहि साकार है । सोमो भर सुवास। एक अचल भरौं सिवदासु । चारण कहै ए वही वाडाई तो आपने पा बुधई नहेप वरेहि ज कारमै । भमिति राज सभा सहित सु जिस द गइ। कवि कवि कवै जमैइ । (८-१) दोनों की कवन देखकर दोनों कों की शक्ति की परवाना प्राप्त करलीजिये नेतान की नाका न पहले और भवदास की देन में सढ़ने वाले बयोगी वा राजा वृद्धि दास तथा विभिन्न राज या हमारे क्यार मर वाण हिन्दु मुसलमाच । राव बाप हूं गाड़ने को बुरा खोडा समयड़े। जो हूं पढ़ पोलिय गोव्यार कम उनके बकरे सौ उमरी भरे तो मरी गढ़ आधारी, रावा बारी! जन्म में इन्प्रादात्मक मध्य की छटा दिखाई दे रही है। वाक्य छोटे और वर है के कमरों में अधिक से अधिक अनि का संभार है। रचना भाजने से पूर्ण है वर्णन केली प्रासात्कक एवंज्ञावाविक है। सेना के हि का नुमान व्याया वा है। Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २११ राजाओं का वर्णन फिर किया है दोनों का तुलनात्मक पर्व चित्रात्मक सरल वर्णन देखिए: 1 अथवात ।। नावाह का सैन्य वर्णन (१) इसी परस्यो क वालम मोरी राजा नाम लबमा लवा, रो करवर्ति ।तरहे बापू लखभा वारा कटक बंधे। कटकबंध रखआर आर पवार भगवान मडावर । वडक्टक बंध माहि कहि कहि दिवा महाधर का कहनामा उपमा खान कतै साम गजनी खान उमरबान है बति बान बान का युमीत मारिया (१४-१५) (२) देखकर करण करण खटिगा ननिया जुगर मांधात मासैरिद गरि वीि नीलहरि हरेक राइसेवि रानी गण पउली पट उलीव राणी बिलार सिलार पुर लगइका कटक बंध माडन धार उमीन सीड उर वरी संगीवाय लगइ का कटक बंध।इसी एक के पाससाह का कटक बंद देस देश का बंड का, नगर नगर का साम मीर उमरा चतुरंग दल बढि चाल्यापास मापना पी पती तात्या ।।(२२) ।। (३) अवर पातिसाह इवामा मागिलेरा भर मल पलेरा त्या का करावी इलीया था दिहाहै पाउडायो तर पुरखान इसरत अलाउद्दीन जिवि बी गढ इन कीमा एक ही विका।।२४। हिन्दू राजाओं का वर्णन हिन्दू राम कि काय मक्कदी एकता संपूरम राजा गर दाख बाबा कटक बंच चालवा वावरि मागिल यति पानी डडी बासरी विक्रमाइत (१६) काय का वह मान दिनि दाव बारिया वीस हस्ती मेवि वाल्मोर आय बाद राजा बावी दोन गदिमा व उपवात्यो किरिमा बाद पारिका राजा वर या का सुंदर बाली पास्मो राजा Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ संप्राप्ता हुवा मुकाम मुकाम का ढोल वागा । तब जायए डूंगर वे धवल हर दीसिया लागा ( १९-३१) । राजा अमलेश्वर से उस समय छत्तीस वंशों के राजा आकर मिले उपहार देने लगे। राजा अमल दास प्रदेश की रक्षा केलिए सबसे पहली पेट पाल्डणसी से हुई। दूसरी भीमा भोज से। फिर धैर्यवान कल्याणसी, जर पक्षी क्वलक्षी, कामाडि, उजन, सुरजन, मेर, महवन आदि सभी राजाओं से मिले। इस प्रकार छत्तीस एकत्रित हुए वर्णन की परिजन बैली विभिन्न राजवंशों के वर्णन के रूप में देखिय गोदा कामाहितौ राजा राजथर सोलीक्या माहि छ सबल हाडा माहिती बीट अथवम प क्लम। 15 वाडा व रिम मलहर छोड माहित उनाथ नाय । वागडी व डूंगर कान्ड साल विरहर | धावता व डागा, स्याबोधा इसा एक केला देवा का नाम लीजइ । कनेक्टवर सूती सद्रीय क माहितौ कवम कवम । रिवि सारंग बुरु नराम बाबूमा मोडि हरपति लाला बैच बाळ | माट माहि का गागर तिलोकखी, कढ बाल माहि मा art नाफा बारहट क लाऊ के | इसा एक ते केवा हेका का नाम लीजै । कोष्ट बारस्ट का बैंक इसा एक देवा देवी का नाम ही कष्ट वह सूप छत्तीस ही मंदी ही राजीक एक की। इलों में ही नहीं यार बाक, बलामी लियों में स्वार्थ के प्रति उत्पाद छा गया मोटी और बोली सुन्दरिया अपने पतियों प्रेम को, उनके स्वार्थ को देखकर हो गई। बिसरे व बार काटा बार लाम भोजन उस चालीस का घाट बाद का लाठी मोठी मा प्रौढ़ा पोडस वार्ष की रानी १ देव बैठ भरवार का पूरिकां देखती फिरे है । (६४) स्था में कवि का विरदानात उत्साह में चौगुनी गर्मनी का प्रयाविरियावद के नष्ट - व वृद्धि कर बैठा था। कार Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१३ माता पुरी का बम्वति लखम राब पारिताप उती का बेड़ा देवसीड मारिमा। बूंदी का चक्रवर्ती संग्रा सारिका अवर देवड़ा जिन्दू राय बंदि छोड़ इसरा माल दे समरजीह सारिमा (२०-२० (a) इस हिंदू राजा उपकति काम है कि मनि पालिसा की रिपवारी करन का माथा व विसीम है दई छी ।उण की माइ विवानी का सामस रहइ अणी पाणी आज 7 मोम सानल कान्हड़ दे महीं तिला सुपरिता मडिल तु महीं,सीह उरिर नसू नहीं।ठ का राब हमीर आधाभ्यो (७) अचलेश्वर के ऐश्वर्य का वर्णन करने में कवि विल्कुल नहीं अधाता। दूर दूर के प्रदेशों में उसका यक्ष प्रसारित हैजसकी बजा तुलना में कोई दूसरा राजा टिक्ता ही नहीं। अक्लेस की भाति तो अचलेस ही है। ऐसे अचलेश्वर को धन्यवाद । जिसने माडू के बादशाह भयंकर लोहा लिया।वर्षन की सरलता और प्रबार. उल्लेखनीय है। लेखक की आलंकारिकवा विक्रम को और अधिक सक बना देती है: • पनि पनि हो राजा अचलेसर थारउ जी माणिपि पातमा मसार लीयौ। तेषी पातमा आयातरि सत पE नहीं. बाड नहीं ही न मादापामार सैषित न होइ तर वे राजा अचलेवर मारिखा अब ने बरसेवा की होई।। यस बरस किन र वान पूरब पनि लाडामाया अब पाल नगरि राव इसर पकि बीपरत बोलावरम मानव पा का आधार का बकरववियन पनि हो रामा गोबर भारत जीवी विषि पासा र बालीवी1) बादशाहका का बरोबर की मेना पर टूट पड़ावन नवा दिशाएं डोने लगी। बरडसनी गर्दा पूर्व के बम पी दुर्लभ हो गए। न हाथियों का पार न बोड़ों का उत्मा और प्रवाह देखिर: इसा क राटक बंध अचलेसवर मरि लूटाबाट गरम ईथम बूटाादा का पापी हा परवा शिरि लामा, जाट बाबा। भर मासि भागावर वर पाइक किन पारावारमोरी राव गिर . भारत का पहाडाचे पावह ग स्टक बंध हाइको मात Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । अब बिरिदाबह।। ज्यमन्टन "बार साहि रिटमाहि विमार बलिया सहि *धि दात सबला हि भान परवान निवल साहिथापना बारिजासंग्राम बाहि जग थरिन पाना माहि जइस परिवार द्वारी अलावदीन किस पकि प्रारंमि पारमि भाइ टिक्यो है।। पमि पगि पाहि पालि इस्ती की गजघटा। ती परि सात साख जोध धनकधर सावठासात सात उति पाइक की बैठी सात सात उहि बाइक की रही। डा डिन पुद फरारी मुह पकि ठी ठाठारी।इसी एकल्या पाट उहि पत्र दिसी पडी।तिमी वापित निनादि घरमाकारस पड़ी।पाप बाप हो थारा मत देव अहंकार रा राममहार १८-१) इस प्रकार कई दिनों तक कर अपच चलता रहाारत की नदी गा मईयुद्ध स्थल इमरान हो गए। मिल मंडराने लगे। राषपूर्वी असापाल गोड्या पारन सिंह ने या ही मरकर प्राप दे की प्रतिज्ञा की पेशी मधि को बार बार घोड़ी ही मिल सकती है और इसी तरह भयंकर मारकाट कर शव पेलने पाहवासिंह क्षेत्र रहे। राव का दव पर मायावर्षन की कापिकवा एवं वीर नाविनाशिनी । उन्नीस : इसी परित्या मग कार भारती डान्टमी पारण माग धी त्या दारीमण्टमी गार गाणी बाप की गाडि भरको बारिकादया। किमाना । रात दिनति पीमा विरगना नबी पाहिल्यामाबरस बनि बनायो। सिरे बोलो मी.पानी बारामा अपलेसवर प्रवि वीप मार माई इल प्रा पाडली बार बार। ४-५) मा पुनारथ की यह माखन का बी कीर का पिंडवि विपिना * महापौर बीमारिलो औज नारी होगी कीबह पारावीपार पर परामिनी Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बालिग बदल गाडिलाना आपनपों निरकाही मूढा विज14-0| (6) तितर बोलतो ही हुवी राजा अबलेसवर को है भाइहो या ना तुम्ने कही छ चालती बडबडीमार मनि न हुई एक ही पही या नौ । भवानी आस ज्या जागी त्यो परो आसपास--- 100 ( पिणि कधीर न बीपहनक है ए हो म जीपदाम है शिव सातिसम जति सिल हारयो बीवी पकडि ए बड़ी बड़ा है वष मदि। इन मन्हे धूवा की गैल मरा। माई बाप बीबरा बीन परव बरा अब यो अभिमान काम की। इसको सत व अहंकार न हमहू संगर () (५) का काइर पुरिस है दो की ही काउमिनाथारइ कीमी पागे पाल गलगह न बालापानम बी मला मला लोकग का क्या करना। चार माभन्या आसु पुछि माता डीयौविवाग बाडीग बाई -प्रिथिमी प्रविपि यो यो गली मारह बार दुरिताप मोरी राना सर कीन्यौ।मान सी पुहविरियो पनि संगल्या सरमिालिपि बेला की या परी रा राइ रोक्न कमि -.) सदध में वीरमति पाने पर रानियां क्या अपना माल सम व मोशों हाथ रेगी। यि गला रेलयाना मी बावापानी बता पर या और उनका वासिनो सही उत्तर होगा। मा सिमाज कीरनोरमारापीर परपर भी को बपिय गालावों बौहर कणली बार मौरी मादा की साकीबी। मा गरीब गायोमारन की सामग्री क्यिा सिर: पानी कौकबारे बाकी हो हीरोटि देवता हित शिरपहार ती मारे गम ना हो औ मिना बाम मा पावसामा माइनोमयी बोका गोवाइस परियार र गौम बाहिरिरीनार का सामान दिलाई रिव Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरि राषा भीर धौ का परि जौहर बााब्लूि डरा जिका वास मी दूई व त्या म्हे पूरी करि दिखानापूरी हुई एवं त्या पुनरे पि बाहडि मानो बस बिंडा व तिमी कारण छरितुवमें गड मानल भाषण मन यहि बसाइ मोलि राजा अबलेसवर का राज होक इत्यो भाइ मरण बाली रसाळाई वीनै पुस नइ इ किन्ता क्या काम बिसा। राजा अगल दास की जौहर करने की बताई गई उक्त समियिान्त्रित किया गया। भयंकर युद्ध में भी राजपूतों के मारी अबलदास वीरगति को प्राप्त रानियों में जौहर के में कूद कर अपने आत्मसम्मान की खा की। पारा सी के मरने ही समस्त अन्त:पुर में बोका गया। वर्मन की बरतता देखिए: • मुख माउ नीमख नदीम नीसा इव मज घटान फूटै पामा पावल बाइपारी धीरउ कहा रामामोकली पापि गयो बोल्यों न जागी हो ही रहयो। न जापा मावळ पाडल्या रिक्यौ ही उही पीर मरे इही पारसी परीक्षाको परीछ राजा बलेवर को भाई हो सबरी रही हमारी नारी र रामा असर पार हो सबरी हमारीमाली परीक्षा मार भोक महाराज ताबड बाई का भोग · की काया अब की बा। यह वाईवा पाईरामा मोलकी वारण। सकत ही परिवार है कि पार पारसी परीछानी परी नहीं मबार।। पापसीपी बहाली की माली हा पाणी पात्यो साप हावीरी गnिta-Lal है और राम युदध का समाहार जौहर में जाकर मना है। कषि मे मय गौरवमयी प्रस्तुत किया म उरतो इबारा रखना को मामिला, बागरिया, न बोक्न बालसा एवं चार मिया पर होगी सीमेक बाब म्मा और निका Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१७ संज्ञक कृतियां राजस्थान के भंडारों में अनेकों उपलब्ध होती है। १५वीं शताब्दी के अन्तिम दशक में यह वचनिका जैमेवर गम की अप्रकाशित एवं प्रतिनिधि रचना है। निष्कर्ष:- आदिकालीन इन अजैन रचनाओं के अध्ययन से यह कहा जा सकता है कि ये उपलब्ध रचनाएं काव्य तथा मय दोनों की दृष्टि से बहुत ही सम्पन्न है। प्रवन्ध कल्पना, गवय काव्य की स्वहनीयता, भाषा की सरलता, चरित्र चित्रण, अर्थ गांभीय, वर्मन सौष्ठव, प्रासादिकता काव्यात्मकता तथा रसात्मकता आदि सभी दृष्टियों से मे काव्य अत्यन्त महत्वपूर्ण है। यद्यपि आदिकालीन जैनेवर काव्य और मध्य रचनाएं संख्या में वह है, परन्तु फिर भी भाव और कला दोनों पों में जैन रचनाओं से भी अधिक सम्पन्न है। इनकी सम्म बोध बत्यावश्यक | एक आवश्यक बात यह भी है कि वे रचना साम्प्रदायिकता से भी अलग है। से अजैन कृतियां बुद्ध बाहित्यिक संस्थ की दृष्टि से लिखी गई है। इस प्रकार ब्रज, अवधी, मैथिली, प्राचीन, राजस्थान, जूमी गुजराती और ब्रज के पंडारों की सम्यक् शोध होने पर इस आदिकालीन अनैन साहित्य के और भी ग्रन्थ मिलेगे, ऐसी मात्रा है। Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय भाग Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - - - - - - - - - - - - - - अध्याय अध्याय -६ - . आदिकालीन हिन्दी जैन साहित्य की प्रमुख-काम परम्पराएं Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१९ arfarota हिन्दी जैन साहित्य की (१) प्रमुखकाव्य परम्पराएं PRFFFX PF d PPTET आदिकालीन हिन्दी जैन साहित्य की सबसे बड़ी विशेषता उसके स्वरूप के वैविध्य की है। यह वैविध्य वर्णन परम्परा, छेद राग, काव्यप आदि पीप में देखा जा सकता है। इन सभी काव्य स्यों का विभाजन नीति प्रकार से किया जा सकता है: (१) आदिकालीन हिन्दी जैन साहित्य की (२) आदिकालीन हिन्दी जैन साहित्य की (२) (३) मादिकालीन हिन्दी जैन साहित्य की (३) (४) भाविकालीन हिन्दी जैन साहित्य की (४) ) प्रमुख काव्य परंपराएं गौण काव्य परम्पराएं स्तवन काव्य परम्पराएं गट्य परम्परा । (१) प्रमुख काव्य परम्पराएं : प्रस्तुत परम्परा में जितनी जैन रचनाएं अद्यावधि उपलब्ध हुई है उनमें उसका में घड़ी महाकाव्य की संज्ञा से कोई अभिहित नहीं की जा सकती। अतः इन/रचनाओं को एकार्थ काव्य कहा जा सकता है वर्थ वे काव्य, जो एक ओर तो काव्य की सीमा से ऊपर उठे हुए है, औरदूसरी ओर विस्ता परिसर और प्रबंधात्मकता की इष्टि से उन्हें बैडकाव्य में भी होता है। भावों को vor काव्य ही सबका जाना कि इन नामों में कि किसी गई है। इनमें रिनों का पिनाना कोट, गौकिया कय वैशिष्टय मादी पूर्ण कर भी महाकाव्य नहीं कहा सकता। ऐसे 6 में इंगारिक काव्य, बरितकाव्य मायाका बादि लिखे है। देवी महत्वपूर्ण रचनाओं में प्रबन्ध और प्रेम प्रकार की जाती है। हम रक्तायों का वजन परमानवक काव्य परम्परा में रचा गया है। रचनाओं को है कि मे काव्य विमोनों इन्दियों से प्रमुख है Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साथ ही इनके शिल्प में अपेक्षाकृत पर्याप्त परिपक्वता है।इन कृतियों का वर्गीकरण व प्रधान- प्रबन्ध काव्यों क्या विषय प्रधान प्रबन्ध काव्यों में भी किया जा सकता है। दोनों प्रकार के काव्यों का प्रमुख अध्ययन निमनाकित क्यों में प्रस्तुत यिा जा रहा है:(अ) रास (ब) फा (स) सम्पादिका गा चउपई (२) वर्चरी (क) प्रबन्ध (स) चरित (ग) विवाहली (1) सन्धि (४०) पवाको (च) कक्क मातुका। (२) गौण काश्य परंपराएं: दिवतीय परम्परा गौण काव्य की है। ये काव्य बहुत ही महत्वपूर्ण तथा मौलिक है परन्तु प्रबन्धात्मकता, पटमा कौतुहल वा बस्तुशिल्प की पुष्टि सामान्य है। हा काव्य यो तथा वैविध्य की दृष्टि अत्यन्त महत्वपूर्ण है। ऐसी सब रचनाओं का अध्ययन गौण काध्य परम्पराओं के स्तर्गत लिया गया है। इस गौष काव्य परम्परा के अन्तर्गत आने वाली रक्ताओं को पी छन्द प्रधान और विषय प्रधान वर्गों में विभक्त किया जा सकता है। इस रकनाओं में प्रमुख गमन है:- व प्रधान- दोहा, सब, अध्यक, रेमा गाभा आदि विषय प्रधान:- इनरवनाओं प्रमुख महात्म्य पोर, पट्टीवली.बारहमाग बलारा, सम्बोध और वाय बाधित (२) सक्न गब्ध परंपरा बीबरी परम्परा भवन कायों की साम्य परम्परा में आने वाले काका मी अपनी प्रवर क्लि fo tस प्रमुख काय कम इस प्रकार:( उत्था सोच (1) स्तवन (५) बोलिका (6) स्तुति (७) वीनंती Or (१) सकार(10) प्रशस्ति (1) सन्भाय मादि Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१) प्रमुख काव्य परंपराएं एंव प्रधान ज- रास ब- फागु इस वर्गीकरण को निम्नांकित रेसा चित्र द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है: (४) परम्परा: इसके अन्तर्गत न गय सम्बन्धी कृतियों का अध्ययन प्रस्तुत किया गया है। स- चतुष्पदिकाया वउपट्ट ६. चर्वरी या बच्चरी विषय प्रधान क- प्रबंध स- चरित २२१ - विवाहल घ- सन्धि उ०- पवाड़ो च- कक्कमाका (२) गौम काव्य परंपराएं T संद प्रधान --- १-दोडा २ काव्य उक्त सभी काव्य क्यों का अध्ययन (१) का परम्पराएं (५) गौम काव्य परम्परा या (३) रमन काव्य परम्परा (४) विषय प्रधान १- महास्म्य १-धीर ३- पट्टावली ३-छप्पय ४- रेलआ ४- बारहमासा ५-गाथा आदि ५- तलहरा (2) स्तवन काव्य परंपराएं (४) गद्यपरंप " उत्साह ६- सम्बोध ७- संजाद आदि में: प्रस्तुत प्रथ १- गी ३- स्वोज ४- स्तवन ५- बोलिका ६- स्मृति ●- वीनंती ८- कलवा ९- नमस्कार १०- प्रवि ११- सज्याय परंपरावादि पारो मच्यायों के बनत किया गया है। Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ : रासकाव्य: राम परम्परा अत्यन्त प्राचीन परम्परा है। इस परम्परा को सम्पन्न बनाने बाली रास संशक रंचनाएं बहुत ही विशाल रूप में प्राप्त हुई है। रास परम्परा का अध्ययन करने के लिए इस तीन भागों में विभाजित किया जासकता। संस्कृत काल या प्रारम्भिक काल, अपक्ष काल क्या अपपतर काल। इन तीनों कानों में राम के मान दम्डों में विभिन्न प्रकार की परिवर्तन दिखाई पड़ते है क्या इसी परम्परा में राम, रासक, रासा, और रासों आदि कई बड्दों का निर्माण हमा है। राससाहित्य के इस विकास का अमन अत्यन्त महत्वपर्ष ब रोका प्रतीत होता है। पातीय साहित्य में यहाँ तक रास शब्द की उपलब्धि का प्रश्न है, यह बहुत ही प्राचीन लगता है। संस्कृत काल में "रास गड का परिचय पुरान साहित्य से ही उपलब्ध होने लगता है। रास परम्परा के इन तीनों कालों को दृष्टि में रखते हुए राबवत्कालीन स्वरूपों, विवानों द्वारा की मां उसकी विभिन्न परिणामी, या रास उत्तरोत्तर बबने पाले मान कन्डोग अध्यकम करने में विनिमय बनान लोगों की सहायता मिलती है। उनका पिता विन लाhि . सर्व प्रथा पर पुनि में जाने नाट्य त मा उल्लेख किया है। राग व कीडा मृत्य स्वर र उम्होंने कहानी का है.' पारमारित नाटक समानार्थी शब्द गल्लीमा म प्रयोग पिलाना बोक्सिानों का साथ साथ कीड़ा कले का उल्ले . - -- - - - - १. मादल बाबा नरनि-कीड़नीपिच्छायो । ..रि पानाती . देवर. ४-४. काबा बापावरमादि मागोवा- बोरिनमाकेन्द्र रोगोमवानामुनो भीग सका उप- महा। Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२३ "हरिवंश पुराण और विष्णु पुराण में भी रास" शब्द की ओर कुछ संकेत मिल जाता है। धनंजय ने अपने दक्ष स्पक मैं रास पर प्रकाश डाला है। महाराज भोज के सरस्वती कंठाभरण और अंगार प्रकाश में भी रास संज्ञा का उल्लेख मिलता है। इस उक्त विवेचन में हल्लीसक शब्द विशेष दृष्टव्य है। हल्लीसक शब्द के साथ मास के नाटक और पुराण साहित्य में गोप गोपिकाओं का साथ होना और क्रीड़ा करना तो स्पष्ट होता है पर अन्य संगीतात्मकता अथवा उसके अन्य किसी free जन्य वैशिष्टय का उल्लेख नहीं मिलता। अतः यह लगता है कि इन ग्रन्थकारों के समय रास क्रिया शारीरिक अवयवों से सम्बन्धित जन मुत्य याक्रीड़ा मात्र थी । वस्तुतः उस समय राम का सीधा सम्बन्ध पुरातन मुल्य मात्र से रहा होगा। संभावना है कि आदिम नृत्य भी इसी रास का एक रूप रहा होगा यह भी संभव है कि संगीत के तत्कालीन शस्त्रीय नियमों के विधान का अभाव ही इसका मूल कारण रहा हो। जो भी हो, यह स्पष्ट कहा जा सकता है कि उस काल में यह जम नृत्य या गम्य नृत्य अथवा लोक नृत्य विशेष के रूप में प्रचलित रहा होगा । एक बालोचक ने इसी सम्भावना पर रास शब्द का अर्थ बोर से चिल्लाना स्पष्ट कर उसे जंगली या भाम पुरुषों की शारीरिक क्रिया या बम्ब नृत्य बताया है। settes शब्द की व्याख्या व व्यवकृति अनेक संस्कृत के विद्वानों ने की है। राम गौतम, क्रीड़ा व संगीत का समय बिताने वाले अनेक विद्रवानों ने १- देवि हरिवंश पुरानः विष्णु पर्व बध्याय १०- (1) पर्व कृष्ण गोपीना वारकृतः । (काक्री पश्य ती बहुभिः स्वीमि : क्रीम सैव रास क्रीड़ा। २. विवेचन में विमान टीमकार ने बाल उड़द का अर्थ संभवतः रास किया है विष्णु -६० उहाहरू(1) ररास च गोष्टी मिल्दार हरियो हरि गोविना राम मन्डल्यू दावा प्र० १४९०४४ में श्री कंकड़ की यह उक्ति र (RAS) * विमा It is not to be derived from (RAS), but from (Raan) a reet which means to cry alone, which may refer to be very prinitive form of this dance when the propertion of masie à artistic movements may not have been still realistic and when it must have been practised as wild dance." Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रास के शिल्प का विवेचन किया है जिससे रास के उत्तरोत्तर परिवर्तित होने वाले कप का पर्यवधन किया जासकता है।वस्तुतः यह इल्लीसक रब्द विभिन्न विद्वानों के द्वारा भिन्न भिन्न अर्थों में प्रयुक्त किया गया है जिसमें "रासा में अनेक नवीन तत्वों का समावेश होता है उनका संप में विवेचन इस प्रकार है। (1) बाण मट्ट ने अपने समय तक रास में नृत्य का आयोजन होना बताया है। इस तरा के विशिष्ट नृत्य के आयोजनों के प्रमान परित अनेक मित जाते है। राम के इन भन्डलों को हरिवंश पुराण के टीकाकार ने जिस प्रकार चक्रवाक की शादी है उसी प्रकार नागभट्ट ने रासक मण्डल के लिए बाव शब्द को उपमान जुना है। इस प्रकार इन उदाहरणों से स्पष्ट होता है कि बाप के समय राम इत्या अन साधारण में प्रचलित हो गया है।अतः बाप पट्ट ने इसे एक उपस्मक विशेष कहा है। (1) काम पुत्र के प्रणेता वात्स्यायन ने भी लीक अथवा परक नल्य के साथ गान के आयोजन का भी उल्लेख किया है।' पावप्रकाशकार गरबासमय ने रासक के नृत्य आयोजन में नायिकाओं की संख्या का विधान किया है। उसका कहना है कि पिन्डी बंध के साथ नायिका १० या की मस्या में कोय करती है, मेरा हो।' (M) अभिनव गुणोत्व किया बाम, उसी को इल्लीमा है।' रासक को उस मक बाप मापद में लिकिगा -भाव-प्रस्थानपाकिा-और-विहारामा तीसकसीवि रामोन्टी प्रवी नि-यानि इस परिणाम के बायपाट - . 76 . -au -बा-डा. वासुदेवार अपवाल- चतुर्व अध्याय। एकीकडील ४. रोहा प्रवाह गरिमन्नत्यन्ति मासिका पिही दिया रांडवा-बाबा-शारवासना . . . . . Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२५ ३. इनमें संगीत तत्व का पूर्ण समावेश है। ४- नृत्य और अभिनय भी इनमें प्रधान है। (v) डल्लीक्षक के विषय में एक संकेत यशोधर कृत कामशास्त्र की जयमंगला टीका में मिल जाता है वह "मंडल में होने वाले स्त्रियों के उस नृत्य को जिसमें एक नायक होता है, हल्लीसक कहता है और प्रमाण में वह गोपियों बहरि का उदाहरण देता है।' हेमचन्द्र के काव्यानुशासन (५० ४४५-४४६) में इल्लीसक और राम शब्द का उल्लेख मिल जाता है। उपदेश रसायन रास के टीकाकार ने रासक के शिल्प की सरलता के सम्बन्ध में बतलाते हुए लिखा है कि "वर्चरी और रासक ये प्राकृत प्रबन्ध इतने सहज व सरल है, कि इस पर कोई भी विद्वान पुरुष इन पर टीका नहीं लिखना चाहता ।" २ (vi) श्री मद्भागवत के तो पाच अध्यायों का नाम ही रास पंचाध्यायी है।' अब्दुल रहमान के संदेश रासक में राम की जगह रासय या रास्ता मिलते है जो संभवतः रासक का ही अपभ्रंश है। शुभंकर ने गोप क्रीमों को ही राम कहा ४ है और जय देव तो रास हरिहर सरस वर्तते ही कह डालते हैं। (VI) उपदेश रसायन राम्र के टीकाकार ने राग या गीतों की भांति गाया जाने वाला भी बताया है, जिससे स्पष्ट हो जाता है कि प्राकृत भाषाम संज्ञक प्रबन्ध पर्याप्त सरल होते थे और वे दे मैं रची गई बर्बरी और भाषा में अनेक रागों में गाए जा सकते है। टीकाकार में उसने अनेक छंदों का होना भी बताया है।" रासक धन्द के वनों का विस्तृत विवेचन बाट मे और स्पष्टता से किया है। जिसके कुवार में परिवाम निकाले जा सकते हैं: १ २ री कि वृत्तिनाथ प्रायः कोपि विश्व स्त्रीमा नेता मदेवको गोपस्त्रीवां यथा हरिः ३-श्री ४- गोवानी क्रीड़ा मत्यपि - ५ ६ त्रपइटिकाको मात्रा पोव पायगा: सर्वे चित्र ताल लय न्वियाचा (बागप: काव्यानुशासन, पृ० १८०) रामे मी विद मला Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ १- रासक मसण रचना थी। २. इसमें अनेक नर्तिकार होती थीं। ३- यह उधत गेय उपक था। ४- अनेक तालों से समन्वित होता था। ५. इसमें एक निश्चित लय होती थी, तथा - कीड़ा करने वाले युगलों (लोहियों) की संख्या ४ तक होती थी। गेय रासक के विकसित स्वरूप को उस काल में "राग काव्या की संज्ञा दी गई थी। गैरमनी प्राकृत में भी रास साहित्य का उन्ले मिलता है परन्तु यह आधार युक्ति संगत नहीं प्रतीत होता उक्त समस्त विवेचन इल्लीसक, राम और रामक शब्दों के संस्कृत कालीन स्वरूप वर्ष और परिभाषा को समझने के लिए किया गया है। राम अब सि प्रकार कालान्तर में अपना बिल्व परिवर्तन करता गया, इसके ऋषिक विकास अध्ययन में युविधा हो, इसी दृष्टि में संस्कृत काल के प्रमुख विद्वानों के विविध उदाहरणों को प्रस्तुत करना उचित प्रतीत एमा। राम के संस्कृत काल में का बाप के चरित में रासका बलील विवेचन मिलवा बीमालीराम पयामि का उन्ले भी आar है। उसका मकानों हवारा उनके साखि प्रेमियों को, बिना विक मा बिपा, बालीक पब माने का उपाय गमवारीमा सम्बन्ध में मीकि उडमक इलीन बार पास नान प्रत्य विशेष इली शिवनमारास त्यावर ती नुत्य इन दोनों की १-मार प्रयोग राना विधिमा माना निवास स्म-मचन्नाकाव्यानुशन • ४४९॥ बारबराती हर लिटोबर-पी०एम.बी.पु.८० -गलागली को मालामन्यो विटामा कमीमवायली रा Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२७ परम्पराओं में सम्भवतः किसी समय परस्पर सम्बन्ध हो गया। पर यह तथ्य कहा तक सत्य है, यह नहीं कहा जा सकता, इस सम्बन्ध में अन्य कोई अन्य प्रमाणों और अनुतियों का भी अभाव है। इन दोनों बातों मैं इल्ली तक के उद्गम बाली बात तो संदिग्ध ही विवाईपड़ती है, का यह अवश्य कहा जा सकता है कि रास नृत्य का सम्बम्ब संभवतः किसी जंगली जाति अथवा गोष जाति से अथवा महीरों आदि से हो गया हो। जो भी हो, अब तक इतना अवश्य स्पष्ट हो गया है कि बाण के समय तक रास में नृत्य के साथ मैय तत्व घूर्णतया प्रचलित हो गया था और इल्लीसक या रासक के शिल्प में उक्त सभी faarat के विचारों में युगल, लयो तालों और गोप गोपियों का सम्बन्ध परिलक्षित होता है। अतः रास के अमंद काल के पूर्व मुख्य क्रीड़ा कप और गेम रुप डी अधिक प्रचलित प्रतीत होते हैं। श्री मद्भागवत में कई वर्जित कडे स्थल राम के मेव रूप की पुष्टि करते है। रास शब्द का प्रयोग भी दृष्टव्य है तथा कुछ श्लोकों में तो रचनाकार ने रास में संगीत व रागों का उल्लेख कर दिया है। पद राग पर भागवतकार ने उस प्रसंग में प्रकाश डाला है। १ संस्कृत काल के पश्चात राम्र में इन गाँवों का समावेह दिन तक बना रहा, यह कहना बहुत कठिन है तथा साथ ही यह भी नहीं बना उसके शिल्प में उक्त तत्वों से इतर किन अनुपात में, पर इतना अवश्य कहा था स्काई कि बाकी कई यों का बनावेश हुआ, और वह भी किय क १- नही ग्रन्थ ३२-२३। (अ) बना रमे मीनिंदो कीड़ा (4) रामोत्सव संप्रवृत्तो गोपी (४) विनाको रास श्री महमागतः ३-३ - ३ (अ) स्किमररमा य या विरेजुः वहीं ॥८|| मग मार्ग व वडवदातः वडी । लोक १०॥ Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ २ (जब तक कि रास रासक, अपभ्रंश काल में नहीं पहुंचे) उसमें उक्त तत्वों कह समावेश आंशिक अथवा स्पष्ट अस्पष्ट अनुपात में अवश्य मिलता रहा है। संस्कृत काल के इस रासों की परम्परा की एक महत्वपूर्ण कड़ी राजस्थान में उपलब्ध विक्रम सं० ९६२ का रिपुहारण रास है। जो अद्याबधि उपलब्ध रासों में सबसे पुराना है और यह रास संभवत: हेमचन्द्र से भी बहुत पहले का है। सक के शिल्प पर राजस्थान में उपलब्ध होने वाले राम्रों में प्राचीनतम होने से यही अच्छा प्रकाश डालता है, पर अभिनय, नर्तन और गान ये तीन तत्व रिपुहारण में भी मिलते हैं। अत: राजस्थान में मिलने वाले रासों में प्राचीनता की दृष्टि से भले ही इस राब का महत्व हो, पर शिल्प में इसका कोई नवीन योगदान नहीं लगता । ऐसी स्थिति में अपभ्रंश व जयवेवर से दो काल ही ऐसे हैं जिनमें राखी के अनेक प्रकार मिलें। राय में विशाल संख्या में विविध मान बढ प्रस्तुत कले वाले रास ग्रन्थ उपलब्ध हुए है। जिनके शिल्प में संस्कृत तथा प्राकृत के रात ग्रन्थों की अपेक्षा अधिक प्रगति व नूतनता है। राइ, लकुटा या लड्डा रा उपदेश रसायन रास के पक्ष में वाला मामक दो प्रकार के राखों का उल्लेख मिलता है। कर्पूरमंजरी में भी वाला राड और लड़डा रात का है। डा० ०पी० मानेल ने वालियर बा की एक पेंटिंग में चित्रित डा राय का वर्णन किया है। इससे यह स्पष्ट १- देखिए, मध्यारवी, वर्ष ४ अंक 3 में खिवार राम निर्वणः डा० वर शर्मा, ५०५७ १. वाई १९५१ में बीके का विकास- डा० दशरथ शमी ३- बालाराह विदिति स्वविति विमतिदि का विडि०२००६ दम्य माबोवीसदि राम्रो (11) कडा खु बहि पुरिव विवि मावि र मंजरी ४।१०-२० । ४. बेदी 4- We now come to the fourth s eene plate D. consisting of a double group of female musicians. The left hand group comprises seven women standing around an eight figure, evidently a dancer. The next three musicians are each engaged in beating a pair of vooden atteks called dania in Hindi and Tipri in Marathi, Painting by br. 3.Ph. Vogel. Page 49-51. Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होता है कि अपभ्रंश काल में राम क्रीड़ा में तालियों और इंडियों में खेलने की प्रथा पी प्रबलित हो गई थी। कालान्तर में राम कीड़ा के सम्बन्ध में यह भी उल्लेख मिलता है कि जैन मन्दिरों में श्रावक आदि लोग रात्रि के समय में तालियों के साथ(बाल देकर) रायो को गाया करते थे। उसमें जीव हिंसा की संभावना के कारण रात्रि में नाला राम का निवेश किया गया है। इसी प्रकार दिन में पन्नों का स्त्रियों के साथ डा रास करने (इंडियों के साथ नृत्य करते हुए राम माने) को भी अनुचित बनाया गया है। जैन मन्दिरों में रामवीं शताब्दी के जाने' एक महत्वपूर्ण बात यह भी है कि उपदेशों के गैग मों को भी, जो जैन मुनि प्रस्तुत करो थे, राख क्षा दी जाने लगी। उपदेश रसायन राम में जिमदत्य पूरि के अनेक मेय उपदेश राख बन गए है। स्त्री और पुरुषों के एक साथ रास नहीं चलने के जो उल्लेख मिले हैं, उनसे यह बातो स्पष्ट हो ही जाती है कि राम किया अयंस और अपरिवर कालों में स्त्री पुरुष दोनों वर्गों में समान उत्साह के साथ सम्पन्न होते और राम विशेष अवसरों पर जनता उल्लसित होकर ली थी। महा मृत्य और गीत तत्य राहों में समान अनुपात से वीं बतादी तकदेखने को मिलता है। यही मा प्राम बालाकि कित्यनारी, कतार में राम मात्र यो समगा। मृत्य किया क्योंकि हो म. कारण राणे रमा परिशीलन र मिल नामा है। मपविर का न गिन उपदेशों को देख भाग में मर पापारण को मागार मा, उनकी सीटी मीयों और परीक्षक उपदेशात्मक रमाए पोरे पोरे राज बनती गई। गानों को म प्रधान बीवन बिताने से विशेष गया औरराम सब नियनी राय रखना पड़ता था अतः मृत्य का बत्व पोरेगर गिने मा परम्परा के कारण वे मीडिया इनी पनी होम -- मागि ...m- मरद माहाकाल ... मन जिनेश्वर रिकवावक बहू रविड बम्बकत्वमाइपई Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० प्रचलित हुई कि जन मानस रसमय हो उठा, और मृत्य को लोग उपेक्षा की दृष्टि से देखने लगे यथा कर्पूर मंजरी में विचित्र बन्ध में ताल लय प्रकम्पन के आधार पर नृत्याभिनय करती हुई नायिकाओं का वर्णन मिलता है।' इन मर्तकियों की समबाहु समान आदि अनेक भिन्न भिन्न मुद्रामों का भी उल्लेख मिलता है। वस्तुतः ११वीं बताब्दी तक पहुंचते पहुंचते राम गेय काव्य" मात्र रह गया। क्योंकि इन गीतियों और बर्बरियों को ही जनसाधारण में अत्यन्त अधिक प्रचलित देखकर जैन मुनियों ने उपदेश का माध्यम चुना और ये वर्षरियां और नीतियाँ इतनी अधिक प्रसिद्ध हुई कि इनके नामों से विभिन्न छेदों का निर्माण हो गया। कालान्तर में बर्बरी और गीत नाम से स्वतंत्र छेद ही बने गए। अब जनता इन राम्रों को सेलने की अपेक्षा श्रवण करने में अधिक रस लेने लगी और इसीलिए श्रव्यकाव्य की उत्पत्ति का काल ११वीं शताब्दी कहा गया है।' आलोचकों ने इस कथन की पुष्टि भी की है कि इन्हीं उपदेश बहुल रासों के काल मेय राम केवल अन्ततः श्रब्य रास मात्र रह गए, मृत्य से नका संबंध सर्वथा विछिन्न हो गया। ११वीं शती तक तो रास रासक की यह स्थिति रही। पर डेम के समय तक जन मानस में राम को रूपक का रूप दे दिया और ऐसा लगता है कि तत्कालीन वस्तु स्थिति को देकर डी हेमचन्द्र में प्रेम काव्य के रासक को तैय are के एक मेवों में से माना है जिसका उसके ऊपर किया उद्धत और मित्र के तीन मेद थे। इन तीनों के जा चुका है। मन उन्होंने होम्बिका प्रस्थान, डिंग, भाषिका, प्रेरण रामाजी इस्की एक, गोष्टी आदि उपवेद कप १- साहित्यलाई १९५१ पर भी डा०दशरथ मोका का रासो के अर्थ का क्रम विकास- देव २- कर्पूर नंबरी ।४।१-११ का यह रव माथा रेहा विबुधा भवराउ दिति । दो मे परोपरं सानुडी हुवंति।। ३--इलाई १९५१ - रात्री के काक्रमिक विकास-लेव । ४- वही बैंक, वही लेख | Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३१ है।इनमें रासक और हल्लीसक ग्वधन गेय उपक के अन्तर्गत आते है। इनमें उद्धव तत्व का समावेश अधिक था और अमृण का आशिक । अत: अनुमानतः यह कहा जा सकता है कि रासक और तीसक में उपस्वतावत्व की अधिकता हो जाने के कारण उसकी क्रीडा यारास जन्य जिल्प में वर्ष यावीरत्व समाविष्ट हो गया होगा और ज्यों ज्यों उसकी रण प्रधान प्रवृत्तियों बढ़ती गई ये रासक वीरत्व प्रधान काव्य बनते गए और दसरी ओर वे रासक जिनमें मणता का तत्व आदिक था धीरे धीरे कोमला प्रधान हो गए और कोमल प्रवृत्तियों बाते में सकारास रूप में बलते रो, और यह परंपरा आग मी में काम के कप में सुरक्षित मिलती है। वस्तुतः जन चि के इस बदलते हुए प्रभाव के कारण रासक में उद्धत तत्व की वृद्धि और गेयता तथा मृत्य होने से वह एक गेयता प्रधान उपप हो गया।' बता ११वीं शताब्दी में ही राम उपम्पक माना जाने लगा। नाट्य वर्षक बैंछ प्रसिध सम्धों को देखने पर उसमें नाट्य रासक और रासक का उल्लेख मिल जाता है। रासक में अभिनय की प्रधानता बढ़ी और साहित्य दर्पण में भी नाट्य रासक और रासक अड्डों का उल्लेख देखकर यह कहा जा सकता है कि उस समय जनता मैं रा का यक के स्म में पर्याप्त प्रचलन हो गया थाारलावली नाटिका पी को गीत माट्य की मापी गई है। पर 7 को के पास गईनया विश्व मी पायी नृत्य, गाम और अभिनयमा किरा कर उनी विषय बनीवासी थी। मा. पवीं जनाइदी के वियप पीक गीतियों में करीब रथमार या त्या मावेश होने लगा ।अत: स्थापक मामे बालीका र अपशवर जैन रासों प्रमाण मापीर बाती. मौसम स्वामी स्थति भर, आदि मी जहित्य नागिन नारी प्रसाद द्विववेदी • -11 मायाविर कौवा संस्करण). 11 Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ के वर्णन मिलते हैं, साथ ही श्रेष्ठि श्रावक व दानवीर पुरुषों के ऊपर यथा वस्तु पाल, तेजपाल, पेधड़, समरसिंह तथा तीर्थों आदि के नामोभी अनेक कथा प्रधान Te रखे गए जिनका विश्लेषण आगे के पृष्ठों में किया जायगा । वस्तुतः कवि इस कथा सत्य को विविध छंदों में बाधकर अर्थात् मासाबंधन रूप देकर जनता के समकक्ष रहने लगे। अपभ्रंशेतर इन रासों में छंदोपस विविधता के साथ साथ रामानंध के कारण मास या रासा* आगे चलकर एक छंद ही हो गया । पतदर्थ यह कहा जा सकता है कि क्योंकि हर एक रास में गए तत्व व रसमय तत्वों की प्रधानता रहती थी और इस गेय तत्व ने जब अनवरत वृद्धि पाई तो यह समस्त रास ग्रंथ एक रास छंद के लिए ही रुद्र हो गए हो। कालान्तर में यह रासा छेद इतना प्रचलित हुआ कितत्कालीन लोक काव्य में ही इसका समावेश हो गया। वस्तुतः १२वीं शताब्दी से १५वीं शाब्दी तक में मिलने वाले इस विशाल जैन रास साहित्य के शिल्प उसकी मुख्य प्रवृत्तियों, विशेषताओं और उसके विकास की कड़ियों का अध्ययन विभिन्न दृष्टियों से किया जा सकताहै: १- संगीत व नृत्य कला की दृष्टि से २. छंदों की दृष्टि से । ३- निक्य की दृष्टि से ४- साहित्यिक क्यों की दृष्टि ५० धर्म की दृष्टि है। संगीत और रा (१) संगीत व नृत्य कला की दृष्टि से काम ar तक संगीत का प्रश्न है तक संगीत राजय विवेचन में हमने यह की है। अनेक का एक प्रधान तत्व था। संस्कृत काल और प में संगीत तत्व ही प्रवान हो गया था । इसके प्रधान परियों और गीतियाँ गाई है, बादमी के कवियों ने जो संगीत की उत्कृष्टता से रात का प्रचार करने व हारने हुई थी। एक बावश्यक बात यह भी है "दास को रासा छेद बनाने के भी संभवतः Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३३ संगीत ने ही सहायता की है। वस्तुतः उक्त अनेक विद्वानों ने गीत, लय और ताल का महत्व रास या रहसक के लिए स्पष्ट किया है। अतः राम और संगीत परस्पर अन्योन्याश्रित है। श्री श्याम बिहारी गोस्वामी रासकों एक नृत्य विशेष मानते है तथा एक प्रकार का काव्य और उप रूपक भी।' आचार्य हेमचन्द ने तो राख काव्यों में विभिन्न राग रागिनियों की व्यवहति होने से पास के विकसित स्वरुप की राग-काव्य ही कह दिया था। इसके अतिरिक्त "रास जब गेय उस रुपक का प्रकार था तो उसमें अनेक छोटे छोटे उर्मि गीतों का समावेश आवश्यक या और वही उर्मि गीत संगीत के अनूठे अंग थे जो राम नाम से प्रयुक्त हो रहे थे । अतः स्पष्ट है कि राम ने संगीत कला के क्षेत्र को भी उन्नति की ओर बढ़ाया। नक्ष्य और रास: तत्व, नृत्य कला का भी रास से पर्याप्त सम्बन्ध दृष्टिगोचर होता है। नृत्य कला को प्रगति के चरम पर पहुंचने वाला मर्तकी या नत्यकार होता है और रात में नृत्य बावश्यक था | अनेक नर्तकी योर्वचित्रताल व्यान्वितम उदाहरण से यह स्पष्ट हो जाता है। हल्लीसक और रासक को हेमचन्द्र ने देशी नाम माला (८६२) तथा धनपाल ने पाइयलब्लीनाम माला ( शब्द १०२ ) में - सामान्यतः गोप गोपियों की क्रीड़ा कहा है"- रासम्म हल्लीसो रासको, मन्डलेने स्त्र्यणा नृत्यं" अतः स्त्रियों के नृत्य का उल्लेख स्पष्ट मिलता है अब तक राम नाम से बनी जाने वाली सब से प्राचीन क्रीड़ा कृष्ण गोषियों की ही रही है। इसी प्रकार नटराज क भी अपने उदूत तड मुत्य विनिवाइयों से स्वयं मुख्य मटेश्वर बहाव बनकर नृत्य करते थे। पर श्री कृष्ण के इस भय राम का सम्बन्ध हास्य नामक नृत्य भी रखता है। आगे राव को को बना दिया गया, ऐसा उल्लेख मिलता है। राज मा लाभ रसपूर्ण गाव ही नहीं, उसमें नृत्य के साथ होता है। परि के शिष्यों ने वीं शताब्दी में रखे नाम में केन्दों का उल्लेख किया है और जिसमें १४ देवि-अक्टूबर १९५७ वर्ष ३ अंक १ ० ५३ पर दीपा बिहारी मोस्वामी का स्वामी हरिदास वीर १० भाव मेदाद लास्य बेदी बहुधा तवैव नियमेदीनं देवे प्रवर्तितम्। Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभिन्न देश्य कवि ही लास्य केभेव उपभेदों में परिवर्तन करती रही है। स्मय बागंधर ने अपने अन्ध संगीत रत्नाकर में सन् १२... के आस पास सौरान की नारियों के रामनुत्य का उल्लेश किया है। लास्य नृत्य भी कालान्तर में रास का स्थान ग्रहण किए रहा। कास्य की इस परम्परा में संगीत रत्नाकर में बर्षित उमा अनिदध एवं अभिमन्यु की पत्नि उत्सरा का बड़ा हाथ रहा है। स्वयं अर्जुन मे ऊपर भी नृत्य राम के संस्कार का प्रभाव पड़े बिना न रह सका। मणिपुर नृत्य लास्य नृत्य का ही प्रकार माना जाता है। सौराष्ट्र और गुजरात प्रदेशों में लास्य या नृत्य की परम्परा अत्यन्त प्राचीन वा स्वरूप में एक ही रही है। सौराप में आप भी रासहा लेवा मन्द प्रचलित है। राम ने नृत्य कला को पगत सहायता की है। संगीत की पान्ति मृत्य व मभिनय रामक उत्तरकालीन समय में एक दम अन्योन्याश्रित है।यह भी संभव है कि नृत्य की अनेक कलाएं बाय या संगीत रासक में समाविष्ट थे। अत: रास मे लास्य को ब कास्य मे राम को परस्पर बड़ा ही मल प्रदान किया है। अस्तु नृत्य क्ला भी रासक का प्रमुख ससा ( दों की दृष्टि से रामका बयान छंदों की इष्टि भी किया था war ma नाइदी मक के रास मेब म में इने अभिप्रालिका मावि ही कामया। बों विधानों में बात का विक बनेको ग माहार किया। मा स्पष्ट परम्परा अनेक राधों की इष्टि श्री सिने नागारवा देश में प्रयुक्त रास और इस प्रकार की इष्टिका राम कालाने वाली रचनाओं के बि विकार रवि माटी समई। ध्यान से देखने पर यह लाता राप्रपा प्रबक्स मा राम पद के इस प्रभाव कवीमनीमाया या विषया उनके नाम में ही भा गई और ema - गुजराती बालिया स्वोरमबार,.nn Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुधा के नाम उनके शीर्षक के अनुसार विविध काव्य रूम बन गए. उदाहरणार्थपैडेड रास, समराराम आदि में रास छंद प्रमुख है तो चतुष्पादिका में बउपड़ की, म्थति मद का और अनेक नैमिनाथ फागों में फागु छन्द मिल जाता है। रास छन्द का शास्त्रीय अध्ययन अथवा रासक के काव्य रूपों व शिल्प के विषय में हमें बिरहाक के वृत्त जाति समुन्वय (४1-10 और स्वयंपू के दस से बड़ी सहायता मिलती है।इन दोनों द गस्त्रियों ने रासक की परिभाषाएं दी है। विरहाक के अनुसार रामक बनेक बडिल्लों, दुवाहो, मात्राओं, रड्डाजों और डोसानों के मिलकर बनता है। इसके अतिरिक्त मात्रा रड्डा दोहा, अडिल्ला तथा डोसा की उसने अलग परिमाकाएं दी है। संभवतः विरहाक मे रासकों की दो प्रकार की लोक प्रियता बताई है तथा लिखा है कि रास बंदी के बाद ही उन्होंने "रासा' नामक स्वतंत्रद की परिमाका दी है जिसका डा. हरिवल्लभ पावामी ने संदेश रासक की भूमिका में उल्लेख किया है, तथा दोहा छपिया, पहाड़िया पत्ता चौपाई रहडा, ओढया, अहिल आदि अनेक छंदों का बहुतायत से प्रयोग करने वाली रचनाजों को रासक नाम दिया है उक्त सभी परिमालाओं में प्रयुक्त तथ्यों को कसौटी मान कर चलने में जब हम आदिकालीन हिन्धी जैन साहित्य की रास रचनाओं में राम मन्द को इंडते है तो हमें Ta इन लोग ही लगा है। और इस स्थान का दोग होगा डिल्ल आदि दो से त्वचा मसिद्ध होता था परस्पर बाकि पाध्य भी नहीं दिखाई gara: यी कहा जा सका किन विभिन्न पदों की कमियों को रामक नामदे दिया पाना होगा। राम और राम मियावधि प्राप्त प्रमानों के आधार पर इसके अधिकाना बात गर मही सगापर या स्पष्ट है कि रासक और राम मियों में एक विशेष ममें सूब मिलता है। बिपी इष्टिा अवतार रामों विषयों में विस्तार ए। अनेक विषयों पर राम रकमा निमें प्रमुख विश्व खाति है। t- उपदेशमूलक उपदेश रसान राख १- गारित प्रधान- बारा Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ ३- प्रवज्या या दीक्षामूलक, जैब स्वामी गौतम स्वामी और स्थूलिभद्र राम ४- उत्सव वचैव वीरता मूलक भरतेश्वर बाहुबली रास ५० छेद प्रधान रास- भरतेश्वर बाहुबली रास ६० कथा बधान- रामायण महाभारत पर (मंत्र पाडव चरित रा) ७- तीर्थों पर व तीर्थ यात्राओं पर रेवतगिरि रास तथा जब रास, संप्तक्षेत्रीय ज ८. संघ वर्णन समरा राम ९. संकीर्तन जन्य तथा सैद्धान्तिक-सोलह कारण राम्र १०० ऐतिहासिक रास पेथड रास, समरारास इस प्रकार चरित्रों के गुणों का वर्णन करने, उनके दोषों को हटाने यात्रा वर्णन करने, कथा निर्माण करने, मंदिरों का जीवादकार करने, दीवा उत्सव हेतु जय घोषणार्थ आदि के लिए ही इन रास ग्रन्थों की रचना की जाती थी। इसके अतिरिक्त वे भौगोलिक सामाजिक राजनैतिक तथा वरित मलक होते थे। जैन राम्रा साहित्य जितना ही चरित मूलक होते थे। उतना ही ऐतिहासिक भी होता था। इस प्रकार कालान्तर में रात ग्रन्थों के विषय में व्यापकता आ गई और विषयों की सीमा में कोई बंधन नहीं गया। अतः इन जैन साधकों ने लोक साहित्यपरक अधीत् जन भाषा में और शास्त्रीय भाषा दोनों में राम रचनाएं की। धर्म की दृष्टि से..... वैष्णव राव परम्परा में वैभव जैन इन दोनों धर्मों ने बड़ा योग दिया है। कृष्ण भक्ति बाबा के मोड में गोषियों ने राम को बरम से प्रसिद्ध है। इनमें श्रृंगारपरक पक्तिपरक पर पहुंचाया और ब्रज के और कोमल सभी प्रकार के मिले हैं। जैन धर्म ने पी विशाल संस्था में रहा है। अनेक बीरानी जैन मुनियों व पर भी राहों की क्रीड़ा होती थी। स्वी से खेल के और अपनी राम कविवर कयास ग्रहण विधि विवाद होता था और इन जैन विकाल के राखों को सुरक्षित राजपुत्रों के दीक्षामहन करने के अवसर और पुरुष इन राम्रों को बड़ी श्रधा अभिनय व संगीत में वो कर साकार ही नहीं करते काकी के साथ रातों में से अनेकों का उद्दे Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री का संजम सिरि से वरण कराना होता था यथा जिनेश्वर पूरि दीवा विवाह वर्णन रास इस शुभ अवसर पर अथवा पर्व पर उनके अनुयायी NTEE मला कब मानते थे बेउल्फुल्ल ढोकर नृत्यलय, ताल, गीत आदि द्वारा आचार्य भी को श्रद्धाम्यति देते थे अतः राख का मावेजन होना स्वामा कि था। साहित्यिक रूप व विल्प योजना: साहित्यिक दृष्टि से मूल्याकन करने पर रास या रासक संगीत नृत्य, रुग साल, छन्द, क्रीड़ा, अभिनय आदि उक्त सभी अंगों के समन्वय का समूह है। वस्तुतः रासक का सम्बन्ध उक्त अंगों से ऊपर दिखाया जा चुका है। रासक या रात का स्वरूप उद्धत गेय उपरूपक के रूप में उल्लास प्रधान होता है। अतः साहित्यिक दृष्टि से इसके जिल्प जन्यस्त्वों का विवेचन इस प्रकार किया जा सकता है १ २० 3 ४ २३७ 6 रासक गेय उपकपक है जिसकी कथा बद्म में कम व पद्म में अधिक अधिकांश पद्म में ही होती है। उसमें अनेक नर्तकियां हो विभिन्न राग का समावेश हो अनेक हो। ५-यात का हो। अनेक प्रकार के हो वह मों में विपक्व हो । अनेक मुम, दो साथ क्रीड़ा करें। पुच्छ अलग feat aण नववा समवेत मृश्य । का इति अनिवार्य हो । से १०. ११- विकिप्रकार के कृत्यों का माने १० वा एक निश्चित स्थान या मेव पर हो । मंत्र राव निधास्थान हो । किया जा सकता है। रंग की सूचना भीरा और एक साहित्य का उल्लेख करने वाले बाबीन Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ नृत्य विशेक, मुद्रा, हाव, पाव तथा स्थिति विशेष आदि तत्वों को देखकर यह कहा जा सकता है कि रंगमंच का स्पष्ट उल्लेख नहीं होने पर पी रास में मंच विशेष की स्थिति अवश्य थी। । वर्तमान काल में रास की स्थितिः रास जैसा गेय उपपक आज भी अपनी जीवन्त विधाओं को लेकर विविध ज्यों में हमारे सामने सुरक्षित है। हमारे देश की लोक संस्कृति अनुश्य है। राम वैसी सांस्कतिक गेय उप रूपक की आयोजना देशके हर प्रदेश में अपने विभिन्न शिल्पी में देखी जा सकती है। जहां तक राजस्थान का प्रश्न है राजस्थान में राम मेलने की प्रथा आज भी है। मन्डलाकार बनकर विशेष अवसरों परस्थल विशेष को सजाकर उसी पर डंडों से वे ढोल बाग पर रास खेलते है। विभिन्न मंडलियों में भी रास चलने की प्रथा है। रामधारी नापक यक मंडल एतदर्थ यदिध है। रास गाया भी जाता है परन्तु पुरुषों की अपेवा स्त्रियों में इसका पवार अशिक है। स्त्रियों के समाज में रास की स्थिति विचित्र प्रकार की है। रास का या वर्तमान रूप अत्यन्त प्रसिदध है। यो रास के शिल्प का पूर्णतया प्रतिनिधित्व क ले वाला यहा कोई नत्य विशेष नहीं है परन्तु उसके थोड़े छोड़े तत्वविभिन्न विभिन्न प्रास्तों के मृत्य विशेष में बंट गए है। राजस्थानी लोक मृत्यों में जो नीषों और पीको मृत्य, नारों के मृत्य, नटों में मार बागड़ियों और गरमित्यगोलियों इन्डिोगी, करिया, और पिणारी का पावात्मक अभिवात्मक और मृत्य प्रधान मंगीतात्मक नार सवा इत्व रामपारियों की दीवार, पुलिसी के अभिनय प्रभान मार, बीकानेर के भनिन मका, गहीर टोल नक, डीडवाना और पोकरण की रामाली ( बारा) भारवाहकी कछी पोड़ियों का इत्य, गीत अभिनय, रीरिक बलों की का, मत्व तथा वाइयों से समन्वित मारवाड़ का पुसली नृत्य, पानी की कानद गुजरी के नृत्य विशेष तथा मानी स्याल, मल्मन दिनी राम के अभिनय को उदी आणि विवि में एगाने का प्रयास करने वाले और भी कई जंगली मूल्य कित्त, Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३९ irसियों के मुत्य कंजरों, नायकों चमारों व मेहतरों के नाच प्रसिद्ध है। शेखावाटी प्रदेश के चौक चानवी और मन्दिरों के कीर्तन और नृत्य भी अपना महत्व रहते है। अंकि रूप से रास के तत्वों को प्रतिनिधित्व करने वाले नृत्यों में राजस्थान की स्त्रियों का "घूमर" या भ्रमर" नृत्य नहीं भुलाया जा सकता। घूमर नृत्य में स्त्रियां "गवर" या पार्वती की प्रतिमा के सामने सैकड़ों की संख्या में बक्राकार मन्डलों में विभक्त हो, घंटों नृत्य में डूब जाती हैं जिनमें वाय की मधुरता गीत का प्रवाह, स्वर व संगीत की उफान, अभिनय की उत्कृष्टता तथा भावोन्मेष दर्शनीय है। पर इसमें युगलो में पुरुष माग नहीं ले सकते। यह विशेषकर होती, गणगौर और दीवाली जैसे त्योहारों के अवसरों पर मध्य वर्गीय स्त्रियों द्वारा प्रस्तुत किया जाता है। घूमर का उदयपुरी स्वरूप संगीतमयी है जोधपुर की घूमर कलात्मक है पर उसमें भंग संचालन का अभाव है और कोटा बूंदी की घूमर में एक अपर्व जीवट और प्रभाव होता है। इन नृत्यों में ताला राम व रानु आदि सब रूप देखने को मिल जाते है। अतः घूमर राजस्थान का एक राष्ट्रीय नृत्य है। गुजरात और मालवा में रास की वर्तमान स्थिति वहां के "रा" गरबो या गरमी नृत्य प्रस्तुत करते है। गरबा एक ऐसे घड़े को कहते हैं जिसमें सैकड़ों छेद होते हैं स्त्रियां उनमें दीपक जलाकर वाल, अभिनय, संगीत आदि के आधार पर उसकी करती है। महत्व राख का बीमा भी करता है। रात के वर्तमान स्वरूप की सुरक्षा करने वाले राखों में मन के रासों को भी बड़ा महत्व है। मथुरा कृदावन जादि स्थानों पर राधा कृष्ण और गोपियों के रूप में विविध लीलावों या कृष्ण द्वारा किम राखों की मयोजना होती है। यह तक कि अनेक महलों में हो इसे अपना पेशा ही बना लिया है। रास ब्रज की प्रमुख वस्तु है और कृष्ण उसके माता व में रास का वर्तमान रूप कम प्रचलित हुआ उसके प्रारम्परी कौन से में इस सम्बन्ध में निश्चित रूप से नहीं कहा Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० जा सकता तथा मतभेद भी है।' नारायण भट्ट, बल्माचार्य हरिदास तथा चमड देव का इसके प्रवर्तकों में उल्लेख मिलता है। ब्रज में इन रास या रात के दो प्रमुख प्रकार है:- १- शास्त्रीय बंधन युक्त तथा १- वास्त्रीय बंधनमुक्त लोकनृत्य जिनको नंद गांव और बरसाना की गुजरियां विविध मुद्राओं में नृत्य करती हुई इल्लीसक का वास्तविक रूप प्रस्तुत करती है जिसमें वाइब नहीं होता ।पर यह गायन बढ़ा ही करुणाजनक होता है। यह नृत्य सम्भवतः समय के प्रभाव से समाप्त हो गया हो। डॅडेलेकर मंडलाकार नृत्य अहीर आज पी करते देखे जाते हैं। ब्रज का शास्त्रीय नृत्य दो प्रकार का है (१) राम और (२) महा राव राम रासमंडलियां करती है तथा महाराम, जो श्री कृष्ण ने दो गोपियों में एक कृष्ण या दो कृष्ण के बीच एक गोपी के रूप में किया था, जब ब्रज की मंडलियां रास करती है तो भरत के नाट्य शास्त्र में वर्णित बीमों रासकों का मिश्रण देखने को मिल जाता है। मान जो क्रम में रास पद्धति है वह ३०० १४०० व से अधिक पुरानी नहीं प्रतीत होती यह मंगलाचरण के बाद सारंगी पहायज, किन्नरी, फं और मजीरा के आधार पर संगीत गाम होता है और सम हृत्य करते हैं। अवधी भाषा में भाव का स्वस्थ के रूप में मिला है। चिकी में हर वर्ष होने वाले स्कुलको १६ के भी है जिसमें अनित्य, बागान ने परिवेश मे और after or after मिलता है और अब के स्वाग भी राम के एक अंग " १- देसिए पारखीवई ४० २०११ पर प्रभुदयाल मित्तल का नारायण मट -श्री मानवी का-जब लोक संस्कृति सं० २००५ २०१३९-४७. कारमानारा वा बारासलीला के पोधार अभिनंदन ग्रन्थ का क्रम भारती वर्ष ५ अंक ४ ०७१३-१७ में नारविन रहन का राखीला के विदेशी दर्शन । देवि का इतिहास भाग १ श्रीकृष्ण व बैंक का बाजपेयी पृ० ११५ पर श्री कुन्नीकाह Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४१ की पूर्ति करते हैं। इसके अतिरिक्त ब्रज के लोक नृत्यों में रास के सम्तनाथी, ब्रज की चरंकला, ललमनियों,बाबर, फूला नृत्य, नरसिंह नृत्य, ढाड़ा दाही नृत्य आदि लोक कलात्मक नृत्य अत्यन्त प्रसिद्ध है जो रास की परम्परा को भी सुरक्षित करते है। जयदेव के गीत गोविन्द और चेतन्य के कुष्य भक्ति प्रेमलीला वर्णन किसी राम से कम नहीं है। बंगाल में भी भगवान कृष्ण के रास का म प्रचलित है जिसमें उनका देव ब्रज से भिन्न होता है पर अभिनयात्मकता बड़ी उत्कृपा होती है। आगाम मणिपुर प्रदेश में वेवका,अभिनय, भावुकता तीनों तत्वों की रास में प्रधानता है। वही भी वसंत रास, नत्रास, और महारास से तीन प्रकार के राय होते है। इसी प्रकार दक्षिण में तामिल, तेलग बन्न मलयालम, आदि प्रदेशों के लोक साहित्य में राय का प्रतिनिधित्व मिल जाता है।वस्तुतः राम की परंपरा आज भी विभिन्न लोक कलात्मक अनेक नृत्यों के रूप में सुरक्षित है। वस्तुतः तत्कालीन अपवितर कालीन जैन रासों का वर्तमान स्वरुप जैन समाज में आज भी प्रचलित है परन्तु उसका आंशिक रूप ही दृष्टिगोचर होता है। दीक्षा के समय जैन अनि का बम श्री के विवाह के मक के रूप में सब क्रियाएं परी की जाती है पर राम नाय और उल्लास के साथ नृत्य पिम अब क गया है। सिर्फ अपनी उन्लास प्रधान अभिव्यक्ति को संगीत मया के माध्यम से प्रकट कर देगी। तीयों बाद में स्त्रियों का नृत्य माथि उल्लेखनीय है वस्तुतः राम नृत्यमादि के प्राचीन भानगड भाग बदलते जाते है। पर जैन पुगियों में रास बनाने और उनको गाकर उनका उपदेश मा माय भी प्रचलित है। राम और गुजरात के जैन नि तो भावी मना कर मारे। रेखालग सा कि माधुनिक जैन रासन मनी प्राचीन मेयर उमदेवात्मक स्थिति को जो हेम चन्द्र से पूर्व थी, प्राण पातारासानी भाषा में जो परवर्ती रास मिले है उनमें का हो गया है और वे अध बनारमा काम भी मी काल राजस्थानी राखों शव का प्रयोग मागोवा गरम Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ गोटाले के अर्थ में भी प्रयुक्त होने लगा । १७वीं शताब्दी के उत्तराध में तथा १८वीं शताब्दी में कुछ विनोदात्मक रचनाएं उंदर रासो, माकड रासो, आदि राखों की रचना हुई है।' डा० हजारी प्रसाद द्विवेदी का कथन है कि "रासक वस्तुतः एक विशेष प्रकार का मनोरंजन है। रास में वही भाव है। आज का रास विषयों की सीमा के बन्धन में नहीं है जनता अपने सुख दुख को प्रेम धर्मोपदेश, श्रृंगार, कथा आदि सभी रूपों में प्रस्तुत कर इस व्यस्त जीवन में सुख अनुभव करती है। २ जो भी हो, उक्त विवेचन में रास की परम्परा, उद्देश्य, परिभाषा, शिल्प आदि के तत्वों का पूरा पूरा मूल्यांकन प्रस्तुत करने का प्रयास लेखक ने किया है। अब अपर काल अथवा प्राचीन हिन्दी में जो आदिकाल की विभिन्न शताब्दियों मैं जो विशाल संख्या मेंरास रचनाएं प्राप्त होती है उनके काव्य का अध्ययन करना ठीक होगा। उक्त विवेचन सेआदिकालीन हिन्दी जैन साहित्य में प्रत्येक शताब्दी मैं मिलने वाले हिन्दी जैन रासों की मुख्य प्रवृत्तियों, शिल्पगत तत्वों तथा काव्य रूपों का अध्ययन "रास विवेचन में किया गया है अतः कहा जा सकता है कि आदिकालीन हिन्दी जैन रासों को समझने में इससे बहुत सरलता हो सकेगी। १- देवि-नागरी प्रचारिणी पत्रिका ० २०९९ बैंक ४ पृ० ४२० पर श्री आर चन्द नाहटा का प्राचीन भाषा काव्यों की विविध संमा-लेख। २ हिन्दी साहित्य का कालः आचार्य हजारी प्रसाद द्विववेदी १० १००1 Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४३ परतेश्वर बाहुबली राम जैन रास परम्परा में सर्व प्रथम और सबसे बड़ी रचना भरतेश्वर बाहुबली रास है।आदि कालीन हिन्दी जैन साहित्य में यह कृति ऐसी है जो पर्याप्त प्राचीन है तथा जो अपग्रंश की परवर्ती अवस्था और पुरानी हिन्दी (प्राचीन राजस्थानी और जनी गुजराती) के बीच की कड़ी है। परिशीलन करने पर यह कहा जा सकता है कि हिन्दी जैन साहित्य की रास परम्परा का परतेश्वर बाहुबली राससर्व प्रथम राम है।' अमावधि मुनि जिन-विजय जी त्या गुजराती विद्वान इसी रचना को सर्व प्रथम रमा मानते हैं, पर श्री अगरचन्द नाहटा ने शोध पत्रिका में एक प्राचीन राम श्री वनसेन सूरि रचित परतेश्वर बाहुबली पोर" प्रकाशित किया गया है, जो इससे भी प्राचीन है पर रचना अकेली तथा विप्त होने से वहरास प्रवृत्तियों की प्रमुखता का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकती ऐसी स्थिति में परतेश्वर माहुबली रास को ही हिन्दी जैन साहित्य का सर्व प्रथम राम माना जा सकता है। प्रस्तुत कृति का सम्पादन मुनि जिन विजय जी ने किया रचनाकार की मातिसूरि , और रचनागल • Pun कावरा बिहबान कान्तिक्णिय बी की है तथा प्रति कागज की है। मनुमाम! ..या ५० वर्ष पुरानी होगी। मनिपी का या पाठ पूर्ण प्रामाणि। इसी पाठ को राहत सात्यायम में भी ग्छ यिा।' बरा करम कालव भगवान गाली दवारा सम्पादित). भी पाधी प्राव विमा मन्दिर की या नामरा मा की श्री विजय धर्म परिबीपाशर पर कवि सम्पादित की है। श्रीगांधी का पाठ पुनि जी पाणीव विड्या पाम सं. १९९७ -९मिलि मिय। -हिन्दी महाबारावीपावरवाम.6-.01 पर माली राम की कारवाच पगवान मापी प्रकाशनाय विदया Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ की सम्पादित कृति से स्थान स्थान पर थोड़ा मिन्न भी मिलता है तथा इंद क्रम में पी अन्तर है। ___ प्रस्तुत कृति की पयालोचना करने से पूर्व दो और महत्व पूर्ण वातों का स्पष्टीकरण आवश्यक है।एक तो यह कि यह कृति याबीन पश्चिमी राजस्थानी की है तथा इसरी बात यह है कि देश्य पाका और जन भाषा के आधार पर यह कृति पुरानी हिन्दी की है। गुजराती विद्वान इसे पुरती गुजराती की मानते हैं जब कि १५.. वि. के पूर्व गुजराती का स्वतंत्र अस्तित्व कुछ नहीं था व दोनों प्रदेशों की एक ही भाकाएं थी। और यह राम वि०सं०११४१ का है अतः प्राचीन राजस्थानी और गुजराती की प्रथकता का प्रश्न विवाद का विषय ही नहीं है। परतेश्वर बाहुबली रास के कस्ता विद्वान जैनाचार्य लिभद्र है जो अपने समय के विख्यात कवि थे। परतेश्वर औरबाहुबली दोनों अत्यन्त प्रसिद्ध च दिन नायक राजपुत्र रहे है। इन दोनों से सम्बन्धित अनेक वर्षन चरित कथा कवि यात ही पुराने ग्रन्थों में उपलब्ध हो जाते है।अतः यह परंपरा आगे तक मिलती है। क्या परंपरा और मरतेश्वर बाहुबली संबंधी साहित्य परवर तथा बाहुबली संबंधी साहित्य की परम्परा १८वीं सावीक मिलती है प्रायः एकवी है, वर्षन व्या घटनामों में किन्न भी मिeart मी मराका वन को मिलता और बडीगावकी का। नीचे रमानों का विवरण दिया बा । सिप प्रतिमान उपाय खूब में परत देश गाय बब्बी परत के .40 की बिका काम है। पर और बाहुबली का अधिकार वर्ष विमल हरिकृत पाय तिथी गावीपीवासमा रचित बासुदेव हिंडी भामक माबि बोनों गा है। नीं पताम्बी की जिन दासगणि की प्रामामामा माल्या में दोनों का चरित वर्णन है। दोनों है परस्पर सीबीसनि अन्यों में उल्लेख रविवावा का . ए बापानंद मधमाला नि परकिय सचिव ९८ Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६५ पद्म पुराण, धनेश्वररि के तथा १२वीं शताब्दी में जयपुरि कति धर्मोपदेशमाला के साथ साथ जिनसेन के आदि पुराण पुष्पदन्त के त्रिति महापुरुष गुणालंकार तथा हेमचन्द के सि जला का चरित तथा सं० १२४१ के सोमप्रभाचार्य के कुमारपाल प्रतिबोध और विनयचंद सरि कत आदिनाथ चरित परवर्ती साहित्य में १४वीं शताब्दी में जिनेन्द्र रचित पद्म महाकाव्य, वर्ग १६-१७, सं० १४०१ में मेरुतुंग रचित स्तमनेन्द्र प्रबन्ध में १४३६ के जयशेवर सरि कृत उपदेश चितामणि की टीका में • तथा सं० १५३० में गुणरत्न सूरि के भरतेश्वर बाहुबली पवाड़ों में तथा १७५५ के जिन गण के गुजराती "जय रास" में भरत बाहुबली का चरित्र वर्णित है। वस्तुतः इन दोनों चरित नायकों के वृत्त बड़े स्थान है और यह क्या परंपरा १८वीं शताब्दी तक मिलती है। भरतेश्वर बाहुबली की कथाएं संस्कृत, प्राकृत, अपत्र पुरानी हिन्दी (राजस्थानी गुजराती) आदि सभी भाषाओं में विस्तार से मिल जाती है। प्रन्थों के लिए ही नहीं, भारत के विभिन्न मंदिरों, तीर्थो, स्तूपों, चित्रों तथा अनेक स्मारकों के लिए भी बाहुबली आकर्षण के विवयरहे है। उदाहरणार्थ मैसूर के श्रवणबेलगोल में ५६ फुट के लगभग बी अद्भुत विल्प की कलात्मक बाहुबली की ध्यानस्थ बड़ी हुई प्रतिमा है तथा बाबू की १०८८ की विमलब की किल्प कला में परत और बाहुबली युद्ध के दृश्य कि परतेश्वर बाहुबली राम्र वीर रस पूर्व प्रबन्ध है। प्रेमी मावायों का वीर और इंगार रस कोई परम्परा के काल उन्हें काव्यों की रचना भी करनी पड़ी। रास में उत्पा af मानपूर्ण क्या था वीर रस का स्तोत्र उमड़ता है। इस रास की प्रधान व वीर रस पूर्ण होते हुए वित्रों में विहार गए है ति और वि नहीं मिलता, परन्तु एक मौलिकता यह भी है कि १ द्रविशम्बर जैम वाला समिति वाराप्रकाशित ग्रन्थ १प ४० ६२०४५। गायकवाड़ प्राय ग्रन्थ माता में० १४ में प्रकाशित ३. बड़ी नं० ५८ है का (गामकथा प्राच्य ग्रन्थ माला) ४- परतेश्वर बाहुबली रात भी गाधी प्रस्तावना ०५६-५६ Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी निर्वेदात है। जैन रचनाकारों ने विरोधी रसो का समन्वय बड़े कौशल से किया है।यहा तक कि यह बहुत ही आश्चर्य जनक तथ्य है कि रास या फागु जैसी श्रृंगार प्रधान रचनामी निर्वेदात है। प्रस्तत रासमें रचना- स्थान कवि ने कहीं नहीं दिया है पर भाका के अनुसार एतदर्थ गुजरात या राजस्थान के किसी भी स्थान की कल्पना की जा सकती -कश भागरास की कथा वस्तु संशिप में निम्नलिखित है:.M जंबूद्वीप के अयोध्यानगर में रिषभ जिनेश्वर के सुबंदा और मुमंगला/स दो पुत्र क्रमशः बाहुबली और भरत दोनों यशस्वी और पराक्रमी पुत्र उत्पन्न हुए। परत ज्येष्ठ थे। रिफमेश्वर परत को अयोध्या का तथा बाहुबली को साथिला का राम सौपकर विरक्त हो गए। म स्वल्य ज्ञान प्राप्त हो गया। जिस दिनरानी वाय मान प्राप्त मा भरत की आयुध शाला में "दिव्य चक्ररत्न- उत्पन्न हुआ। परत ने पहले पिता की वंदना करके दिग्वजय प्रारम्भ की। आगे आगे बकरत्न, पछि पीछे सेना। अनेक राजाओं को विजय करने पर जब वे पुन: लौटे वो बक्र अयोध्यापुरी के गर म गया। भरत के मंत्रि में इसका कारण उसके भाइयों को जीना या में नहीं करना बताया। सब की दृष्टि बाहुबली की ओर सई पराब होकर बाहुबली को इसके साथ अपनी बीमता स्वीकार कर पैरों में प्रपाम करने को कहा। सौगाव व उत्कोच मांगे। बाहुबली भी हो गए और कहा रिमेश्वर ने जब सबको मान मरा पर यिा कि एक मा मा हो और दूसरा भाई उसके आधीन, या सम्भव नहीं है।दा को उसने कटकार वापस लौटा दिया। दोनों ओर धीमारियो । निर अप रस की नवी बा गई। तब भरतेवर की ना बद्रपूर और र विवारों में बिनय की।न्द्र ने आकर अवध बंब बामा और मा किमाई माई की पारस्परिकलाईमा मार हो सास: अण्ण हो या हो किन्दा होकर मजा-म विजय Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९७ का निर्णय से जायावचन युद्ध, दृष्टियुद्ध (नेत्र युध) और एन्ड युद्ध निश्चित हुए और तीनों में अब बाहुबली विजयी हुए तो परत ने वध होकर उन पर मयादा तोड़ कर चक्ररत्न चला दिया। यद्यपि इससे उनकी कुछ हानि नहीं हुई पर में चक्रवर्ती के इस व्यवहार से बहुत उब्ध हुए और उन्हें विरक्ति हो गई। उन्होंने दीया प्राण कर ली। युध बीर को निर्वेद हो गया।राज्यत्री उम्में तुन्छ जान पड़ी। ववर्ती भरत मे उनके सरपों में प्रस्तक टेक कर अमर्यादित अन्य क्या भूल को स्वीकार कर क्षमा याचना की। पर बाहुबली को तो निर्वेद ने अपना लिया था।अनेक वर्षों तक तपकर वे कैवल्य मानी हो गए। भरत ने भी धूम धाम से नगर में प्रवेश किया । उत्सव हुए नगर बोरण सजाए गए। आयुधशाला में आकर चरत्न पी शान्त हुआ और चतुर्दिक मरतेश्वर का या T गया। रास की क्या यही है। रचना मेक बंधों में लिखी गई है और कुल मिलकर २०५ छन्दों में पूरी क्या समाप्त हुई है। प्रबंध परम्परा का यह एक महत्व पूर्ण र काम्य है। सं० १२४१ का यह रास अन्य उपलब्ध अनेक जैन हिन्दी रासों में सबसे बड़ा है। इसके बाद इतनी बड़ी रास रचना १५वीं शताब्दी के उत्तराईध ही मिलती है यह प्राप्त कृतियों के स्पष्ट होता है। बस्तु १. बाँके Pune ) के इसमे बड़े काल की साहित्यिक प्रवृत्तियों, पाश पर्व बाबी का प्रतिनिधि वा बझाराप ITags प्रबंध की रखमा भार वर्ग वा पर्व माथि विमान में काम को परम्पराकी भागों विभक्त कर दिया गाभा मा मन्य वर्गमा कोमा में प्रबन्ध गयों को बा भावा. गव्यों में सन्धि' का प्रयोग मा।विप्रारबीर ने बागे यक तथा प्रत्येक कड़वक । गतिविनायक को महाकाव्यो को मायक: सुर: Tar -1) की गारवार -साहित्य वर्ष... मावि वर्षकारक का पर बार बाबा मायक हारमकोडीबी कड़वक यूपात्मक -सिप मा Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ के बाद पत्ता रखा जाना था। कहीं कहीं प्राम' नाम भी मिलता है। हिन्दी जैन साहित्य के परवर्ती मन्य रामों में भी ये नाम विभिन्न प्रकार से मिलते है। उदाहरणार्थ कच्छली रास में वस्तु या वस्त ५ स्वामी चरित में कड़वक एवं ठवणी (स्थापनी) समराराम में मास' व्या पेधड़ रास में लड़ा नाम 'दिए गए है। इसके अतिरिक्त सगों के नाम काडव पर्व भी मिलते है। मरतेश्वर बाहुबली रास पी इसी तरह वस्तु ठवणी,वाणि भावि में विभक्त होता चलता है। यइयपि कथा में कहीं भी कविकृत सर्म,यदि या समाप्ति नहीं है परन्तु फिर भी क्या का विभाजन परत की विडिवजय (२) परत व बाहुबली का युद्ध (1) बाहुबली का दीक्षा ग्रहण, आदि इन तीन भागों में सरलता से किया जा सकता है। प्रस्तुत रास के कारती श्री इलिमन मे राम का प्रारम्भ मंगलाचरण से ही क्यिा । कवि ने रिम जिमेश्वर के घरों में प्रणाक करके सरस्वती का मन स्मरण करके, गुरु पद वंदना के पश्चात ही काव्य प्रारम्भ किया है। रिसह जिसर पय पणमेवी सरसति सामिनि मन समरेवी नमावि निवर गुरु परम नाटकीय काप: राक्ष में कई यो कवि की माटीय बाद योगना पर होती है। .. देवि वि रामान बपिका पाना १- प्राबीम पूर्वर काबनि लि विव.. 1- स्वामी बतिया.. . ! मरामानि किन विबा विद्या सिकर्जर काब्ब मैचय.YO1101 शाची पूर्वराषियों-हादेवाईया प्राकका००परिशिष्ट पाग १४॥ सीरामवासिमानाबालगन्दा अयोध्याकाडमदर डलंकाकाहादि। विवापाराशनिर्वअवध वर्षमादिमामा टेश्वर बाबही रामतीमांधी .७.२०आदि। Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४९ संवाद बड़े प्रभावशाली और सरस है।यथा प्रतिसागर भरतेश्वर-संवाद, दूत बाहुबली-संवाद आदि इन संवादों में एक नाटकीय योजना, गेयता, दर्प तथा उत्साह है। कविवे इनके द्वारा काव्य में अभिनय भगिमा का समावेश किया है। दोनों लापों के उदाहरण देखिए(१) मतिसागर किमि का चक्क न परि प्रवेस करा ईचि महारइ रानि धरि धरीय धारिपुर (प्रश्न) बोला मैत्रि भयकु, सभमति सामीयाकघर नवि मानइ ब आप बाहुबलि विहं बाहुबले तिणि कारणि नर देव । अक्क न मावइ नीय नियरे (उत्तर) इसी प्रकार त बाहुबति का संलाप उल्लेखनीय है:दूत:- दूत मभणइ इस पमणइ बाहुबलि राउ परदेसर चक्क धेरु कहि न क्यामि इडवण कीया बेगि मुवेगि मोड माहि बावति' (प्रम) विम बंधन वि संवा मी नि मिसन योर मनी इस कि उत्त र मिनि माट गो मार और इसके यह कहने पर किलो पावर की बीमा स्वीकार करो, नहीं हो का नारा बच करेमा. नाली का असर हो । -परतावर बाकी रानी गाणी,..८ पद +की प . . Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "रार संपइ राउ अपंड पुषिन सुमि दूत विठि लिही भात्यलि जि लोड हलो पानइ अरि रि) देव इणि देव न दानव महि मंड हि मंडलवे मामब बाद में लंबा लडीयाली काम अधिक म छोडा दी। विविध वर्णनों में नार वर्णन, सेना वर्णन, 'विग्विजय वर्णन, कुन वर्णन गाधी घोड़ों सवारों आदि के वर्णन मिलते है।इनके कई वर्षन सात्मक और अतिश्योति प्रधान है। क्षेत्र वर्णन साधारण है परन्तु उनकी पाक में पर्याप्त सरलता है। वीर रस मधाम वर्षों में पित्य और भटकार प्रधान भाषा बलती है।इसी वर्षों में एक जीवट और बोग+ है। शब्दों में प्रवास, भरसता, और उत्साह परा इद बबन अनु-प्रासात्मक है। कुछ वर्षन देखिए:हाथियों का वर्णन- (1) चलिय गयबर चलियगयवर गुहिर गन्चत Cm ग फिरि फिरि गिरि सिरि पंवा JALA अंकुस बस भाव नहीं य काड पाट जिभागि घोड़ो व मारों का समय मालई बरवत स्पट परिसर - किरण बारकार प्रापिरंगण सम देविय र बार Omft निम्बिई र बरवर बार बार कई नारा विपि राम राम रतन - वीणामी परम्परा को विकसित करता है। इन का बाहुबली पास जाना और रालोमी, बिार, सर्म, भादि का मिलन वर्षन बड़ा ही admaamsunny Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभावशाली है, अनदों की अनुप्रमात्मकता उल्लेखनीय है:. वा रथ जोत्रीय बाब मुणि भापसिद नरवरह ___ फिरि फिर सामन थाइ वाम तुरीय वाहिनि बन• पद (५४) (1) काजलकाल विडाल माबिय माडिई उरिहर जिमगर बम विकराल बर बर बर-रब उछलीय - (५७) (1) सूकीय बाउल डालि, देवि बढी मुरकराए पीय भालम भात पूक पुकारहि दाहिए- (५८) (जिमनाई गमई विवादि फिरिय किरियविकराए डावी व डगलइ सादि पैरव भैरव रव करइएइसी तर बिल्ली, गधा, बीये घोड़े का बढ़ना, शिडालपर देवि (पया विशेष) का बोलना, दाहिने धूक (उल्लू का बोलना) और लोमड़ी(शिवा) का बार बार सामने फिर फिर कर अपशकुन करना आदि चिम स्था । उक्तिया वीर रस की वर्ष और उत्साह प्रधान अक्सियो अत्यन्त दर जिनमें गीवन के किस भाष्य जीवट का समावेव स्वावलम्बन औरस्वाभिमान पूर्व कुछ पर मा किषि कारण कीवा, बास बर पिपिरीया होना इत्थीबार, बिलीरा परिवार ! (इसरे की बाग क्यों की बाबा गोस्वकीय को बप करना चाहिए। पार बार ही वीरोग परिवार बा । किनी वर्ष स्थान और पुमा पूर्व क्स है। रिजवासीका बोर नीयत पान नमीबई' 00ो बोध माती। (1)ीवि कप-विवार लिप बार। तरीन विदारक किस पर 10 परसेश्वर बाहुबली TR-Tam - Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ प्रस्तुत रास में गेयता है वस्तु प्रवाह के साथ गेयता का मिश्रण राम का सौन्दर्य और ब.टा देता है। भरतेश्वर बाहुबली रास विविध रागों में बंधा अतः यह अनेक प्रकार से गाया जा सकता है। अधिक विस्तार में होने से अमवा विकता संभव है, परन्तु इसके प्रवार को देश विसी पी बीर के पुगदंड कडक उठगे। परतेश्वर बाहुबली राम भाषा,रस संजना, अलंकार योजना और छंद योजना मादि की दृष्टिसे भी पर्याप्त महत्व की कृति है। भाग विचार भरतेश्वर बाहुबली राम की भामा देसिल बयना सब जन मिदा उक्ति की सार्थकता सिद्ध करती है। पापा का सब्द चयन ध्वन्यात्मक, और अनुप्रासात्मक है। : काव्य की नादात्मकता स्पष्ट है। शब्द बैश एक ही सच में ले है। पुरानी गुजराती और पुरानी रावस्थानी दोनों ही विभाषाएं इसेअपना काम करती परन्तु अधिकार पद राजस्थानी गे है। साथ ही अपभ्रंश केपरवर्ती मो का भी प्रभाव माषा का कुछ परिचय इस प्रकार है:उत्तर अपाय: रिसम, जिणेसर, नयर, परह पर्वड, बक, रमण, गयबर, आदि। दियाएं बिग्लिीय, मिल्लीय, बल्लीय, उत्तीय, के साथ धूवीय,बालीय, भावीय, बलिय जादि म सरल राजस्थानी । राजस्की बनी बरामी गल, परवस,गोरी,र, नाव पूवीय, माड, गया, पण बडवर्डस, पटवडा, मत, भात, निडाम, काम, माप, बेली मित, रि, सों, मपी, गगी, जिवबा, कार, बाल, आ. परिवा, माविमा क्रियाओं पुरा यी नामिषि, मारवंड, बंधवा, पपिण, रासावित स्वामी राम, रा. निगर, पंड ना माबि ब मजाक सारस बात पर बाकी भाषा मरयोग भी मार अपस्कार । Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५३ नये - पम, बार, वरिस दिन याविहि, सामला गभ सिंगार, पाटवर, ती तर, गुण, दिहिं आदि में भूनता का आग्रह स्पष्ट है। ' सत्सम पद 1 प्रस्तुत कृति में पुराने कप धीरे धीरे कम होते गए है और उनके स्थान में प्रयुक्त area की आयोजना इष्टव्य है यथा चरित्र, मुनि, निरंतर, गुरु चरम, अपर पुरी, गुन गम में पर आदि। प्रस्तुत राम की भाषा परिवर्तन के इन नियमों का तथा ध्वनियों आदि के परिवर्तन पर प्रकाश स्वतंत्र शोध का विषय है। उक्त उदाहरणों द्वारा यह वो जाना ही जा सकता है कि भाषा सरल पुरानी हिन्दी है तथा राजस्थानी शब्दों की भरमार है।साथ ही अपना स्थान रिक्त कखी हुई पुली हिन्दी और सक्षम द ग्रहण करती प्रतीत होती है। वीं शताब्दी की इति सत्यपुरीय महावीर उत्साह की तुलना में इस रचना की भाषा में पर्याप्त सरलता प्रतीत होती की है। पावाला कु उदाहरण - () का कुल मंडण का कुल वीर, हा समरंगी (१५४) (i) ग्रामीय)विस्मर करन विमाज (1) कठिन उपरि की वह रो रमजा मरतेश्वर माइकी राय में धान कि कवि में मीरा के छोड़ में डांस वीरता का उपशमन इनमें किया है। (140) वि दीव व दो (१५६ ) सबर है, वह है कहै कि का धमाकार किया है। या राय के निपूर्ण संसार राज्य परीर १४ मेडियामा कवियों का वास्त्री पृ० १५८ A definite tendendy to replace Apbhramsa form of words by its ammskrit equivalent comes into existence-Gujrati and its Literature by Sri K.M. Munshi- Page 86, Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ और श्री की मश्वरता पर प्रकाश डाला है।रास में भरत, बाहुबली, आश्रय, बालंबन, बुध की तैयारियां उत्तेजक बबन उद्दीपन तथा परस्पर दानों पदों में दिन उत्साह स्थायी भाव। सेना नर्गन, रण वर्णन, रक्त पात, बुध तथा योद्धाओं के शरीरिक स्वम अनुभावों और संभारियों के प्रतीक है। बीर रस, बीभत्स रस, तथा त रस के म उदाहरण दटव्य है:बीर रसः हुड, इसमम हम हमा, वरवरंत हय अटुट बन्लीव पामक ययारि टल टलीय मैक बीच मेव मणि ड हल्लीय 000 को फिट कति कालवीय कानानक कोडी किमोमीनो करि काल मावळ Com जुडइ भिडई पडाई दिसा बडा पति (1) कैषिय किमर कोरिपडीग हरगण साडिया ("मारईपुरतीय भूमिम मम्छर परिया । भयंकर अवध मा और रक्त की नदी बह गई। बीभत्स का परिपाक हमारे साने निष्पन्न होता है। बीमय म. जेडीयम पद पर नावि गाणीय मबार अपूर बडई मुहड पड पाया पडी माम्बी नि मापी महा सरि-नारवर ज री राम ' (सपर की नदी और रोंगे Team या भावाने कर प्रसन्न होना पीपा प्रब बरखा." गर- अक्ष के पापा का दोनों पानों परस्परमेन बधः जल यइथ और वापरार बार सो बाहुबली पर वक्ररत्न से -परोयर बाली बीमाधी. २-परवर बाकी रामापी Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५५ प्रहार कर बैठते है। राज्य व विग्विजय के लिए इस अमर्यादित कार्य को देखकर बाहुबली को निर्वेद हो जाता है और रास के वीर रस प्रधान सारे आलंबन गत में बदल जाते है। इस एकदम हुए परिवर्तन को विदवान कवि ने बड़े संभार से गोगा । जिसमें कहीं भी रस दोष नहीं होपाता। उदाहरण दृष्टव्य है: पिए थिए र पम संसार, पिक धिराभिम राम रिदिन पबह ए जीव संहार की धड़ कुण विरोधे बतिर अपनी पराग्य, जीव हानि मादि बातों ने भाई का अपने ही सहोदर पर धर्म शुद्ध के स्थान पर चक्र का प्रहार एक दम अधर्म युदध था। इसी अभयादित कृत्य ने ही बाहुबली के प्रदय में शम की अष्टि कर दी। वे दीवा से लेते है। भरतेश्वर की माले मासुओं से भर जाती है और वह उनके कदमों पर लेट जाता है। सिरि बरि पलोच करेउ कासणि सी बाहुबले असूइ मावि परेर स पनमर पर पहो।' उक्त उद्धरणों की भाषा बरत, पादवकी सरस व गेयता प्रधान है। अब मोर और माधुर्य का समन्वय हो जाता है। अपज की टकार वमित्व प्रधानता में बस्तु थिति को और भी परस बना दिया है। भरोबर बाकी राजमार मोबना बनी। बोनस परी मावीम रावी माय मम समीर रख प्रधान अध काम वा मागाव यादी. यामप्रसार गाय का बोबा दरनुप्रास तो रासीका पिrm। इसके अतिरिक्त इष्टान्त, उदाहरण, बलि, त्यति मादीवानाका गए कर कविका mom नीमा पब १५ Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आग्रह नहीं वे तो स्वतः ही का गए है। अनुप्रसा २५६ छेकानुप्रसा(1) गढ गर्छस गयबर गुडीय जंगम जिमि गिरि श्रृंग तु "" (11) सई मिस महम (11) तरवरवार तोबार तु। २-वल्य ० चलीय गयवर बलीय गयवर गुडिर गर्जत I ३, लाटाव (11) पढन जिनवर पढम विश्वर पाय पणपेवि वीसा । ५० अत्यासी: (1) दिखि दिति वारक संचरहर (11) गंगो मंगिय अंगमइप । ६- शुत्यनुप्रास (1) मंडीय मनि गय कड मेधाडंबर सिरि धरिय (11)वेगिम बोलहि संपति बाहुन । यमक अभंग (1) वेग वेग बोल (11) सर सर सर र उछलीय सभंग / (11) पिय फालम फालि (1) पैरव भैरव रब कर ए ठिक बहुवित इष्टाम्प स्था उदाहरण () बाम तुरीयमाहिमी त (1) फिरि फिरिय चिव के करइय errous (1) काजल काल विवाह । (11) बोल मंग उपमा पर्व उत्प्रेक्षा- (1) बिनि उपवाचक दूरि विनि विरि सोहमिनि नवो ईकानि रवि हषि मंडीय किए अट (11) (111) की भाषिक नाहि मा बाइबले । रंग चमर कारि बाल चमर । (1) परिवाहि उन बाइ सिर डोका वह पर ि िए टकटकी ट्रॅक गिरि । (1) पंडित विनय मंडपावर विरि परिव भूमंडी का विर बह Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९७ an विण बंधव सवि समद मी शिमि विण लवप रसोइ अतूली इसी प्रकार व्यतिरेक अपति विभावना मादि के उदाहरण मिल जाते है. व योजनाः मालोच्य राम की द बोजमा भी बड़ी विस्त है।पर प्रमुख छंद राय है। "रा नया द नहीं है। पहले के पृष्ठों में इसका परिचय दिया जा चुका संस्कृत प्राय और अपक्ष की छंद योजना पुरानी हिन्दी में पूर्णबना परक्षित रही है। विशेष तौर से हिन्दी मे तो अपग्रंक के कई छन्वों को अपनाया है। अपनाया ही नहीं उन इलार कर अपनी सम्पत्ति ही बना लिया है। रासदों में अब्दुल रहमान ने पूरा विश रासक लिया। श्री लिभद्र हरि ने प्रारम्भ में ही अपना द गक्ष मन्तव्य स्पष्ट कर दिया है। प्रारम्भ - शिव मणि रासह दिहि है जण मग हर मन भाद- मावि भवीयण मामलो और साथ ही रचना कीसमाप्ति पी भर. और पुत्र गबह ए बा भंडार अलिमा परि जापी इए की पर्ष एबीपि पछि मरह मरेसर राति बना कषि का मन्मान्य हो जय स्पष्ट पर मिझामा भरे मामत नहीं। प्रारम्बारों और ॥ १ ॥ मामानों की बिपी विडी।वारा पूर्व सीपीयने में मी मामारी करना होता की, और बदों के प्रयोग राको पहिवामानानी में अनेक मानवे विका व मारपरा-विपना लिा न जुमा श्री अगर वेद माटा रामेको विश्व स्वम महीमान, एक स्वर मानो - -बाला वियों का. स्त्री.. Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। डा. हमारी प्रसाद द्विवेदी रासक को मात्राओं का मानते हैं। प्रमाण में ये संदेश रासक का यह द - उद्धत करते है। "तू नि पहिप पिक्वेविण पिन उतिरिव मथर गय सरला इमि उत्तावली बलिय रु मगहर चलतिय चल रमण परि डिवि बिसिय रसमावति किंकिण रवयतिरि.' पर मदेश रासक के इस च की तुलना प्रस्तुत रास से बंद में मिलाने पर जबर दिसाईपड़ता है। दोनों की मात्रामों में पर्याप्त अन्तर है। इस रास द का शिल्प संदेश रासक के छेद से एक बम विन्न है। और सम्भवतः इसी भिन्नता के काल श्री के०का शास्त्री मे • इस प्रकार का मित्र बंध पूर्व देखने में नहीं आया लिख दिया है डा. विवेदी लिसले कि विरहाक ने अपमे वृत्त्यादि-गुब्बय में दो प्रकार के रास काव्यों का उल्लेख किया है। एक में विस्तारित मा दिवपदी और विदारी त्स होते थे और दूसरी में अहिडन्त, पत्ता, रड्ड और टोला मना करते थे। बात जब है कि प्रत राब इन्हीं दो प्रकारों हो, योकिदिवपी में भी मिलती है। पY TEET- पटक ma विआधार पर कवि की धार लिया बाबा और अब मानकर च ली गयी। मामाका परिकार :गोरखा लिपि गाव प्रकरण NITORोरि पर यीय कामारी प्रगद दियदी,.. सरोवर बाल्की मापी." Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५९ चौपाई अहिल का ही दूसरा रूप है:चंद्रचूड विजजा हर राउ, तिथि वातइमनि बहइ बिसाउ हा कुल मैडल ! हा कुलवीर हा समरंगणि वाइस चीर' वस्तु एक प्रसिध छंद वस्तु का भीप्रचुर प्रयोग मिलता है। ५ चरणों के इस छंद में नीचे के दो चरणों की मात्राएं तो दोहे की ही २४ होती है। नीचे के दो चरम लगता है कि दोड़े की ही भांति है राज जब राज जंप सुनिि tes #ड भूमि सरह मरह राज अम्ह सहोदर मंत्र महाधर मंडलिय, मौउर परिवार सामवह सीमा सह कहिन सुकुलविचार अंतिम दो चरम बिल्कुल दोड़ा ही है। इसके प्रथम चरण में अंत में ) और १३ १५ १८ मात्रा होती २ १५ मात्राएं वितीय चरन तथा द्वतीय चरणों में हैं। मात्राओं की कुल संख्या ११९ है । प्रथम चरण की सात मात्राओं की प्रायः आवृत्ति कर दी जाती है। उस अवस्थामें प्रथम चरण में २२ मात्राओं हो जाती है बद पर विचार करते हुए एक वसरे विश्वान ने इसका संस्कृत नाम वस्तुक या वस्तु तथा वपण नाम बम या वच किया है इसका दूसरा नाम रहा भी है। दवा में इसके अनेक वेद किए गए है। प्राचीन राजस्थानी साहित्य में विशेषतः जैन बाहित्य का इसका प्रयोग हुआ है।" चउपड़ इदों के अतिरिक्त गीन पोटक या इस छंद के व निवासियों का प्रयोग भी हुआ है: ही होते है वर वर वर वीरवार मंडलीय मिडिया जान ही गंग मान मंगळ मावि गायिका गिरि गृह गुम गुमई चम चीन पर नकुल गिरि कम कपड़े १० नही ५० १८ पद ९३ (२) देvिe राजस्थान भारती (३) मरतेश्वर बाली राम श्री गाडी ३० १८ मद ९ ४१, परिि Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० धम घसीय शयई धार धावति धीर बीर विहंडए सामंत समहरि सम न लडई मंडलीक म मंडए १ (१४५) प्रस्तुत राम में यह द कई बार आया है। . , . सरस्वती धवल: इस छंद को धवल भी कहते हैं। इसमें चार चरण होते हैराठीउ राउत बाइ पावालि विजाहर बिम्जा बलि चक्क पहुचए पठि तिणि तालि बौलए बलवीय सहस जसो २ रे रहि रवि पीउ राउ चित्धु साहसि nिg मारिए 'सिड्डयण कोइन अबइ अपाय अय जोखिम वीगइ जीवहरविधि प्रस्तुत राम में ठवणि प्रयोग कई जगह आया है। जो संस्कृत स्थापनी अच्छ का अपश है। या कोई विशेष नहीं है। मात्र नो द की स्थापना करने वा द बदलने के लिए प्रयुक्त हुआ है। वस्तुतः परतेश्वर बाहुबली रास में इतने ही छव प्रथम हुए है।क्षेप में रास का अनुशीलन यही है।आदिकालीन सिदी जैन साहित्य की रास परम्परा अन्य भव काय बों या काव्य परंपरागों में भिन्न है। मी, बी और सी प्रसादी के मेक प्रकाशित भागमा aafar TEAM प्रकों प्रस्तुत किया जाना। मेक देव पगारों मइयावधि उपकड़ी जैन राहों में सबसे प्राचीन ही भररोबर माहवही राम।। नीमा बारा मजल्ययन मागे भारतीय विमानतीनिमि विजय वर्ष २ अंक १ पृ. १४ पद १४५ देय दिी गीत लेखक रास परंपरा और परोवर बाराबही रास मध्यमीका -देखिए राजस्थान पारदी पाम01-- १०४.11 परीबारदमाटा काबकविनापरवानवाला Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६१ के पृष्ठों में प्रस्तुत किया जायगा । ये उपलब्ध रासों में काव्यात्मकता, कथा कढ़ि बारित्रिक उत्कृष्टता, शैली छंद और भाषा आदि सभी क्षेत्रों में अत्यन्त महत्व के है। विवेक तौर से इनकी "रासजन्य प्रवृत्तियां किसी न किसी रूप में सुरक्षित ही मिलती है। कोई रासवभिनन प्रधान है तो कोई क्या प्रधान । किसी में महापुरुष के चरित्र का विकास व गुणगान है तो कहीं धर्म के उत्कृष्ट a free art को गेयता में आबद्ध कर जन साधारण के लिए बम बनाया गया है। वस्तुतः मात्रा में क्रमगत तरलता और विकास प्रस्तुत करने में इन कृतियों का विवेषहाथ है। जिनका शताब्दी क्रम से विवेचन किया जायगा । सामाजिक कथा वस्तु को प्रस्तुत करने वाले ऐसे ही राखों में एक वीं aarat का एक महत्व पूर्ण रास बन्दन वाला रास है। जन भाषा में प्रसिद्ध जैन कवि आe ने इस कृति की रक्षा की है। चन्दनबाला जैन विकारों में एक जादर्श एवं चरित्रवान महिला भक्त रही है। जिसने अपने ब्रड्बरी सतीत्व, संयम और पवित्रता के लिए ही स्वयं का उटवर्क कर था। कवि आशुं स्थानी है / बौरराजस्थान के डी नगर जालौर में इस रास की रचना हुई है। वह रचना जैसलमेर के बड़े भंडार में सुरक्षित है तथा प्रतिलिपि संभव जैन वाय बीकानेर में वो राय अब प्रकाशित भी हो गया है। afe are का एक वीि के आसपास की ही है। परन्तु बहुत अधिक न होने और अधि हो महत्व नहीं है। राव की एक विवेा यह है कि इसमें कृतिके, कवी वा काल, वथा ले न काँव मे कर किया है। कृति की एक ही प्रति उपलब्ध होने १- भारतीयाः श्री विजय जी, भाग तीन अंक १ ० १०५ Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से पाठ कहीं कहीं उटित रह गया मिलता है।यह पाठ सं. १४३७ की स्वाध्याय परितका से मिला है।' चन्दनबाला रास एक धात्मक कृति है जिसमें घटनाओं के कुतूहल बड़े विचित्र है। रास की मुख्य बिंदना चारित्रियक पवित्रता, स्त्री समाज में नारी के सम्मान की अपेक्षा, अत्याचार का धमन तथा मान से मानवी की भागीण प्रगति आदि का प्रचार करना है। रास का प्रारम्भ ही कवि मंगलाचरण केसाथ करता है:লিজ থিস প্রথম पुहविहिं परह-खेत्रि वीन वीर जिमंबह पारयो निसुपर चंदन-बात परिस बदनबाला रास बम्पानगरी के राजा दधिवाहन औररानी धारिणी की लड़की थी। चम्पानगरी पर कोशम्बर के राजा बद्रीनीक ने चढ़ाई कर दी। भयंकर अप के बाद शतानीक का एक सेनापति धारिणी और कदन बाला का हरण कर ले गग। धारिणी मे भात्य सम्मान को संक्ट में देख अषयात कर लिया। समाधि में चंदनवाला को एक बार के हाथ बेच दिया।ड की स्त्री में से कारामार की ही बाहय वेबना दी। वनमाला अपने बगीय अयम, बरित्र पर मटकसी ने महावीर को अपने गयो पोषन कराया और स उनी मान को पाई। की इस क्षणाकवि ने बानपारा का है। ३५ डों की इस टीबी रस्मा मे ला का सफल निर्वाह किया है। उसका -- -- - - - - - - मिग पास सभी ३ पुरु श्री विनराम मुरि सदुपदेशन 4.राविधिक विवाभिभूषित पस्तावापाईमाविक्या बालवानी स्वाध्याय पुस्तिका रेबिठा(जैसलमेर बी डारकीप्रति प ) सारडार की प्रति पाक नवासा - राजस्थान भारती .to0I - Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६३ क्या तत्व अनेक कुतहलों से युक्त पनपने में पूर्ण है। पारिणी व चैवम बाला के प चित्रण के उदाहरण देखिए(1) दंधिवाह गहिणी पहागी, स्यवंतमा पारिणी रापी तुंग भबोहर बीरसर, कृति केस पुय नयब सुर्यगी हंस गमणि या मृग नयणि मब जोवण नव नेह पुरंगी और बालिका बम्बाला का पंचल यौवन और भोलापन कवि की वर्णन शैली की सरसता व सरलता का प्रतीक है। धुंमर भोली सा माता नार दी तस चंदन बाला (२१) . -- पाये धारिश कारज, गलइ उससउ सोहा द्वार कन्ने वीड स सरलिया बसु सिरि लंबउ केस कलार धणबइ धीय स चंदपा बी बिय देह पगाडि पार (१२) मेठ ने सद) बाला को दासी के रूप में त्र्य किया था पर उसके सहभा विनाता और चारित्रिक उत्कृष्टता से उसे पुत्री की भाति दुलार करने लगा। बहमी से पिता की भाति पूजने लगी। सेठ के पैर धोने समय से उसके नामों को अपनी गोदी सहिगा। सेठ की स्त्री या देखकर भाग का हो गई। उसने की सपत्ति में रखा हिर अंडमार इकड़ी बड़ी नाम बाल यिा। डीन सिने स्वयं को मिलाकी पत्या तीन राम का कम से ही मिन-कवि न करसी मेखि बाला ? का चित्रण यिा.. •पाय दिलायी परतीची माणे मा . मि मा बास निशान कति मायाधि नदिन्नंबाप (1) इधर श्री महावीर मापी में भी सिर , मीकी मनि पूरी मसा करने वाली रोबीसी के परमा करने Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की प्रतिज्ञा कर रखी थी अत: दनवाला ने ही उसे पूरा किया। महावीर को भोजन कराने पर इन्द्र ने १शकरोड़ स्वर्ण मुद्राओं की वी की ओर इन्हीं मुद्राओं को दान कर बदमबाला ने अवस्य प्राप्त किया। वस्तुतः कवि ने रास में वीर कसम और त रस का परिपाक किया है। युद्ध के समय तथा दूटपाट का कवि ने अमा वि क्यिा है: बज्जिय टक्क इक्क मीमाण, मेवावि चिय दुरिव केकाण बल्लिया मंडलिक पउडमार सेलच पण बटिसह मेह करा संग्राम भरि अंगों अंगी पिडीया औरऔर इस इवयव युद्ध के बाद विल्मी ने नगर को पूब लूटा जिस जिसने जो जो चाहा लूट में लूटा- वर्षम की सजीवता इष्टव्य है: हत्यि कुम पति शिविर पाल, भवपडिया की बाडन रार घोड़ा चहि माठि गयर, सीह वित्ता पूर्ण काई पुरय बह गय घड इब उ जीतएं स्त्रयनिय राई (४) यवि लधा रयन मंडार गावि बरा हुमा छार अधि पावित बन्चर बार चोर बरत बाडियां पाक किरीिय पारिवि पिपलिया ) वस्तुतः कवि ने इन वर्षों में घटनायों की प्रथामा बसको मुम्बवा प्रदान की। पूरी या विनानी बार दे मोड। कृति निदान है। पाका बलबीर बना है। याला राग पुरवित मिनी या राम था प्रभाव पारित कायसवार गरी इष्टिकृति का कोई विजयी , पण पाटि पर्व छोटी भाव पूर्ण बन्दाक्ती कारण का पात्यना । भाषा की प्रमुख विशेषता या या शुवरामी और रावत्यानी किन है। रावस्थानी और आप पुराती भोपपारसी भाषा को परेला पुरानी ची का Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Bendon& २६५ कवि ने रास की मुख्य संवेदना को अर्थ धर्म और काम मोड में से अंत मैं कैवल्य की प्राप्ति से सार्थक किया है। जो काव्य के प्रयोजन है: "सेपिणि जिप दिन्न दाणु बीर जिनंदह केवल नापु चंदन पढम पवत्तिणिय परमेसरह निव्वाणह जंति बत्तीसा सय सिम्स हि अब सिद्धिति मार्गति १४ अंत में कवि ने अक्षत पर सत की विजय दिखाकर रचना के मंतव्य पवंस के उद्देश्य को स्पष्ट किया. यह राष्ट्र पूर्ण वृद्वियहि जंति, पाविहि भगतिर्हि जिन हरिर्दिनि पढड़ पड़ाव जे सुबह तह पवि as महयह जंति जार नउरिं मास भणइ जम्मि जम्मिड वउ सरसति ||३५|| यह रास बेलने, गाने, पढ़ने, पढ़ाने तथा सुनने के लिए लिखा गया है। रचना की शैली वर्णनात्मक, सरल व स्पृहणीय है। भाषा की सरलता व शब्दावली का प्रवाह दुष्टव्य है। जन पावा काव्य की दृष्टि से कृति का महत्व और अधिक बढ़ जाता है। वीं शताब्दी की कथा तथा पटना प्रधान इंद्रियों में भाषा व बैली की दृष्टि से चंदनवाला रास का महत्व अपने ही प्रकार का एवं प्रशंसनीय है। वस्तुतः ऐसे ही रात में मानवता, वारिश्य निर्माण, स्त्री सम्मान वा जीवन की बहुमुवी प्रगति का संदेश दिया है। 21 स्कूतिमद्ररा स्वाद में वाला राव की ही पाति एक घटना व कथा प्रधान स्थूलिप राह मिलता है।स्ट्रेलिया का जीवन चैन नायकों में विनाथ और जम्बू स्वामी की मार से स्थति रहा है। यूनिट और कोवा वैश्य के प्रति अनेक मारक का उपदेश प्रधान स्थानों की रचना की गई है। प्रस्तुत रचना की दो है या दूसरी के १४७ में किसी पूर्व है और उप है। जिनमें पाली भा में रवि है। पीरइट का ि Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ पहली प्रति भी १५वीं शताब्दी की ही है। स्थूलभद्र रास के नायक स्थूलभद्र पर काव्य लिखने की परम्परा पर्याप्त प्राचीन है। स्थूमि का जीवन आचार्य हेमचन्द्र के परिशिष्ट पर्व में मिल जाता है।" संस्कृत में भी इनके जीवन पर अनेक ग्रन्थ तथा सूर्यचन्द्र रचित गुणमाला महाकाव्य आदि रखे गए हैं। कालान्तर में तो गुजराती, राजस्थानी या पुरानी हिन्दी में स्थूलिप पर सैकड़ों की संख्या में रवे राख फागऔर गीत मिलते है। सं० २८९ मैं शकटार का जीवन चरित्र हरिषेण के बृहत्कथा को केशकाल युनिकथानकापृ" नाम से प्रकाशित है। अतः इस राख की कथा वस्तु के लिए वह कथा कोक व परिशिष्ट पर्व आदि ग्रन्थों से पर्याप्त सहायता की जासकती है। राख के कर्ता ने अपना नाम स्पष्टनहीं किया है पर अन्त में एक शब्द • जिनधाम" आता है जिससे अनुमान किया जा सकता है कि लेखक का नाम जिनधर्म सूरि था। स्वर्गीय श्री मोहन लाल देसाई ने प्रस्तुत रासकता का नाम धर्म दिया है। साथ ही उन्होंने इसका रचना काल भी ० १२६६ के आस पास बढ़ाया है। स्थूलिमद्र राम घटना प्रधान है, जिसमें कवि ने अनेक कौतूहलों का समावे किया है। रास का प्रधान है। बमपि राज स्थूलभद्र के जीवन से उनकी erent we ffer] बन्ध नहीं डालता परन्तु कवि ने अपने को अवान्तरनामों का काम को टके द्वारा कु का सवा अवतार ही विवध कर दिया है। कवि में दास का प्रारम्भ शासन देवी और बागीश्वरी का स्मरण कर किया है तथा प्रारम्भ में ही स्टार और रवि पंडित का दिखाया है। संघर्ष कारण केवल बया कि रवि की गाथार्य राजाओं को बड़ी प्रिय थी और मंत्री कटार (मता) की राजा इद्वारा बरकवि को दिया आवर ठीक नहीं लगा। उसने वपनी मालिकाओं द्वारा उसकी गाथाओं को याद करवा दिया एक को एक बार दूसरी को दो बार और डीसी को तीन बार इस क्रम सेक्टर की Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६७ की लड़कियों ने वररुचि की नित नवीन कही जाने वाली गाथा को याद करके पुराना सिद्ध कर दिया। ५० बररुचि में भी कटार के विरुद्ध राजा को भड़काया कि यह मंत्री राजा को भरवाकर उसके स्थान पर अपने लड़को को राजा बनाना चाहता है। राजा यह सुनकर बदध को गया। अक्टार ने अपने होटे लड़के को सिवाकर स्वयं की हत्या कराने में ही परिवार का कल्याण समझा। मंत्री कटार को सध नंद ने मार कर परिवार के सामने (उसके लड़के के सामने 'जिसने अपने पिता के कहने के अनुसार उनको मरवा कर स्वयं कोराज पक्ष सिदध दिया था, मंत्व का मान रखा। स्थतिमा के पास जब यह प्रश्न पहुंचा तो वे कौशा वैधा के यहा भोग लिप्त रहा करते थे। माई की राज्यलिया व पिता की हत्या बेखकर उन्होनि मया आलोरिमा (बश्यालो चिउ) कहकर अपने केश उभाड़ डाले तथा विरक्त होकर दीक्षा प्रम कर ली। कवि ने इस कथा में उत्साह निम्पन्न करने के लिए परचि की गाथा काली घटना का मजन किया जो कहीं का पूर्व रचित तथा परवर्ती प्रन्यों में नहीं मिली। वर्षन व भास की सरलता इम्टष्य पणम धूलिपइदा राड पाडकि रित भयर जा बाड मंडा राय नंदा राजे मंत्री खगडा अमाराकाने प्रतिपद पिठाव सगळा मांस, बिकिय का राजा राय नपा नि पशिबावा, मणिय माग र भगवाह परिमाया दिया था कमाई अब रिसाटी राबवावा गाव बरबय मोविलित मात्र म मेरा बोलिन Prem माया MINS पइ,वर कपि भाउ रामण रोशिी पा. पर कमिटारर इस तथा अपने शिष्यों की मासा Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ नावह पंडित बाहिरि थाउ, इम्भ थबा नितु गंगड गाइड অ তীয় কাম বিত, সময় অন্ত এ পৰি मेरि महतेष तर म उस रिय, पंडित उच्छ धाउति बोरउ गारिय उ पडित कोपानल बडिका, पास ही समऊ थी कर बेड को पिराया पोई, नंदु इभिङ सिरिया राज होती नयर इवारे सो ना मालिया, महता का राज अनि लिया जा महका अवसरि बाबा, तब पुठि दिया पुनरवा मुहवा जाणिमूल विणाडि, वैभव भयो नरबाइ कति सिरिक भइन बल्ल धाउ, जो विउ साधि लिया जा राउ महापरा बडबा स्वाभिर, अमित इला रयशिक नामित सिरिया कहइ नरिवह बाइउ, बम ब्लड बैंक पाइउ बस हामि इंद्र अमा मवि बाबा, भामिमि विरु निमा या भाषा तल निसणेविण नरवा पिउकाइला तिमद आमिर रायह मंदिर पतिका पक्षमनातोपि मोग विरra: (२-1) रमन उबरन में कवि ने राजकीय मान्यों और कर्मचारियों की पारस्परिक ईबी प्रथा राग डाटा माती प्रतिको मा है। पोमनि लिन जनक विषयवार नरम गी। मेवार sinान कोई गप 10 पर किसी पर बरपानामा पर निगमका निहीं रमा । यिा है। इसके पामार को की बम, योनी पक गुरु माई उससे प्या ra g on बार पवनों का बलम क्यिा त्या गों म पानी में खाने कोण कोपी बाल एक marसारको सब मिना भाव होली मिनाको Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६९ ही सबसे प्रेष्ठ बताया। इस पर पक मुनि वृध हो गए और उन्होंने भी दूसरा चतुर्मास उसी कौशा के ही जाकर किया। पर ये काम लोलुपत हो गए। कोश ने उन्हे रत्न कंबल लाने नेपाल भेजा। काम विमोहित पुनि ने यह सब किया पर अंत में कम से ही नई हार माननी पड़ी। कोश का पुनि को उपदेश, मुनि की काम बिमोहित अवस्था, रत्न कंबल के लिए अनेक कष्ट पाने पर पुनि की उससे कामप्ति की याचना गोशा बारा उनी असंत्रा, संयम श्री का महत्व अ र स्थतिमद्र की जितेन्द्रिय शितिक स्पष्टीकरम करना आदि अनेक चित्र कवि ने बड़ी ही मार्मिकता से उरेहे है जिनकी भाषा प्रवाहमय भाव प्रवण मरल तथा चित्रात्मक है। श्रावण भाद्रव में कामोत्पत्ति तथा न मन की चंचल स्थिति और मुनि की विचलित अवस्था तथा कोशा के सौन्दर्य के प्रहि हुए व्यामोर का सरस वर्णन देखिए- वेस ससि वयणि मिग नगणि नब जोवमी, मुविधि परिजिविहि परि दि पुणि लोपणी भावह पुषि का षि देश में दुल्लही, अम्हारि गनिक परिजा इमि गुमा बज्य मनपर गुरु वणव पररावा कार, बेड पर पारस पर पिबामिय मा सतिस पुषिबी मोतिय, बक इस ध निरिए उम्मति भामा पुल भारो मायो, पारित पाटरमयण भजये व परिव परि पिहिमाल सागर बनिकि परि पिक्सवित जिए पार पोलियो नि.मा, अत्य विशु वेस 'निहर का गेगनिमे और मा कि बिना ई के ना ना भव मी और निति नि बरसो गर उनि कोमामा जी, गमकी इसी लिपि या न बकवि में बनी रत्म Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० कंबल के रूपक में नैपाल तक मटकाया है। मुनि कंबल लाये तो कोशा ने उसे पैरों से पोछकर फेंक दिया: बेसा चमने विदु देखना लेविनु, जाड राय मगिगह रथ इडु अत्थ विहुर हिंगृह दीवड, मधु धरि कम्मु करेसिजह " साम मुषि मेधुन गइ नं वल्लिउ, कलिहिनं जल्लहि में नइति में पिल्लड़ are a tea aणु ममइ पुट्ठि लगुगर, नेपाल देसि गउ रथन कवल मगर वेग करि पैय परि बलि मुनि आबिउ, वेस लइ नगइ जड़ कहविलंबा आणि पुषि कंवल रयणु खलि मोहि कहइ, पाउ में लाइ धनि लक्कु ब्रम्ह लहर org लाघव मुषि दिल कउडी गयइ बस गुणवंत जसु घपि चित्तु रमइ यहां तक ही नहीं वैश्या कोशा अन्त में इसे गुरु बनकर महायता करती है और स्थलिभद्र का वैशिष्ट्य स्पष्ट करती है। मुनि की रत्न कंवल लाने पर भी जब वेशाने इचा परी नहीं की तो वह निश्वास परने लगा। वैश्या उसे बील की महिमा बतलाती है। काम मोहित मुनि के हृदय के अंधकार में कोशा स्थलिपद्र की विजितेन्द्रियता से प्रभावित होकर प्रकाश किरण प्रदान करती है और इस प्रकार पुनि को वह चरित्र रत्न को हृदय में धारण करने की शिक्षा देती है। कवि इन्हीं मनोवैज्ञानिक चित्रों को वही लता से स्पष्ट किया है। कवि का प्रत्येक मनोभाव इन वर्षों में उसके काव्य कौशल और काव्यगत सरलता का योतक है: Traft पर नि दोस्त धावे बना मवेनि भिरिव वाये इह मह तु करोरिहिं मावइ लिए जो गति कहथिन हाजर वह नेपाल दे णीवर, बहर कठिन हि बाइब as ne fear पुषि कंबल अडु (४०-४९) और वैश्या में उबर पर कीचड़ में फेंक दिया और कहा कि अपने चरित्र रत्न को डोमालो वह इससे भी गंदी जगह में जा रहा है चमक दवारा यह स्पष्ट किया कि नेपाल देव कितना दूर था कहा जाना किना है यदि है दुनिया ले गए हो क्या परित्र . Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७१ ताप रत्न और संयम रत्न की प्राप्ति उस अपूर्व आनंद निर्माण की प्राप्ति हेतु नहीं कर सते? उक्त पंक्तियों में इसी प्रकार की ध्वनि है। दिठ रयल जं कदम भरिया, हियडा सुन्नइ सहु बीसरियर तउ मुषिवरु मेल्हहि नीसासा, मन् वणी नवि पूरी आसा जं जिण भम्भह किज्जइ मूल, तं तरुणस्तणि पालिस सील इसर वयण मुहियडर घरइ, मयण मोह चित्तह उत्तरह चिंता कि वह हियइ तिरंग, संजमतरु मह स्पइ भाग धनु धन धलिभद्र सो सामिउ, पाउ पणाई लइ यइ नाभिउ (४०-४४) और मुनि अन्तर्दवन्द, आत्म गुलानि और पश्चात से भर जाता है उसकी ज्ञान दृष्टि कोश के गुरु वचनों से मुल जाती है और वह वैश्या कोश के कहने से चरित्ररत्न को हृदय में धारण करता है तथा गुरु के पास जाकर पुनः दीक्षित होता है और वही पुनि स्थूलिभद्र की कृपा से देव लोक प्राप्त करता है. तमु उपरि मई मच्छक की, तिणि कारणि मई फल पामीम्स तुहु सुर गुरु कोसा मा माया उं पहबो विउ आणि गये मई जणि तउ क्यिा अकम्भू मालि वलि गउ माणुस जम्पू वैया कोमा बोल्ला , अग्जिन मुनिवर मन करि क्षेत्र चारित रबनु बिड परेशी गुरु पारि बाठायम बहुत माल वय पालकि कब पूरब दिया परेबि प्रतिमजिम धम्म कोपि यहोरिपा बावि (४५-४०) बस्तुबा इसी प्रकार कवि ने स्थतिमा बमित जीवन की दिव्य सुबमा पर प्रकाश डाला है। रामी पी पि पर गार पाने या कीड़ा करने केस पर प्रकार की मालिषा के उत्कृष्ट चरित्र पर मुनि की या के बारा प्रकारान्सर प्रकाश डालना ही कवि का भव्य है। कोश गै बागी पक के सामने वाली है। ४.दों की इस छोटी सी रचना में कवि ने यात मार रामा कमी माप के साथ साथ अलिबल बावस्थानी । Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ कवि के वाक्य सरल व शब्द वयन प्रभाव प्रवण है। कवि ने क्रोध काम, मद चरित्र अंतर्दृन्द आत्मग्लानि तथा पश्चाताप के चित्रों पर सम्यक् प्रकाश डाला है। एक दो हथों को छोड़कर पूरा रास चौपाई छेद में लिखा गया है। जहां तक कथा रूढ़ि और मौलिकता का प्रश्न है प्रस्तुत रास बड़ा महत्व पूर्ण है। १५ शताब्दी में मिलने वाले स्थूलमत्र राख या स्कूलिप फागु' की मीति कवि ने कहीं भी स्थलिपद्र व कोवा का श्रृंगारिक वर्णन नहीं किया है। अत: काव्य श्रृंगार आंशिक रूप से ही जपाया है। अंत में कृति निर्वेदात हो गई है कवि ने वरकवि की क्या, मुनि की ईर्ष्या, नेपाल जाकर काम विमोहित स्थिति में रत्न कंवला लालना आदि घटनाएं अवान्तर रही हैं, जिसमें वह पूर्ण सफल हुआ है। छोटी छोटी सुक्तियां- यथा-भामिषि विरहु क्रिम व भाजड, बल्ि धपकन रयण चविषु, अस्ति sलाहल रयति नामित, सयल इम कैद बणि चित उम्मलियं, सावर्ण सलिल मुणि सील संबोलिये नम भरवेविणु मिरिय कुरवाने, अकरनइउ संजय भाटुष्पाला इह गइ संधु करीरिहि भाजइ तथा वारित्त ray fsass परेहि गुरुपास आलोवण लेडि आदि अनेक सूक्तियां है। राम की मुख्य संवेदना पदेशात्मकता है तथा धर्म प्रचार है। बैली वर्णनात्मक है। काव्यात्मकता मेंबर स्थल थोड़े हैं पर पटना वैवि और कथात्मकता ने कृति की का में पर्याप्त सहायता की है। मिरराव शव शाब्दी का प्रसिद्ध ऐतिहासिक रास है। रासके रचयिता श्री श्री विजय प्रेम वृद्धि है। का विषय धार्मिक है तथा कवि ने रेवतगिरि जैन वीर्य का महत्वपूर्ण विवेचन किया है। वी के प्रति अपार श्रध रखने वाले कों * स्थति पर विचार के लिए देविष अता, नई, १९५८ काका एक इन्ड काव्य भी बुकिंग का डीर्षक लेख | प्राचीन र्वर काव्य संग्रह: श्री डी०डी०५०१७ का यावि Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७३ की यह रास उल्लास पूर्ण गेय तथा नृत्यमलक अभिव्यक्ति है, जिसे कवि ने arotener से संवारा है। प्राचीन काल से ही इस ऐतिहासिक स्थल का महत्व रहा है। रचना का रचनाकाल तेरहवीं शताब्दी का छत्तराध सं १२८८ है । प्रस्तुत काव्य का नवीनतम संपादन व प्रकाशन डा० हरिवल्लभ पायाणी ने किया है। रेवतगिरि रामा नाम का एक ग्रन्थ और भी बना हुआ है। इसकी प्रति पाटण के संघवी पाड़ा के भंडार में है। जिसकी भाषा को श्री नाथूराम प्रेमी प्राचीन हिन्दी बतलाते हैं।' इसकी रचना वस्तुपाल मंत्री के गुरु विजय सेन षि ने सं० १९८८ के लगभग की थी इसमें गिरनार का और वहां के जैन मंदिदों के जीर्णोद्वार का वर्णन है। रेवंस गिरि का परिचयात्मक उल्लेख गुजराती के विद्वानों ने भी अपने ग्रन्थों में किया है। उसकी कथा वस्तु शिल्प, नायक तथा अन्य वर्णनों का अध्ययन करते समय राम का ऐतिहासिक और सांस्कृतिक दृष्टि से भी महत्व पूर्ण जात होता है। रेवंतगिरि रास प्रसिद्ध तीर्थ स्थान है यहां तक कि इसकी प्राचीनता का उल्फे महापुराण में भी मिलता है। इसमें जिस करिव नायक के मंदिर प्रतिमा, व अन्य वस्तु सौन्दर्य का वर्णन किया गया है वे वैनियों के करी स्या है जिन पर अपने बाकी कृति नेमिनाथ है मेमिनाथ का हरिकृनेमिनाथ बलि है। ܐ प्रस्तुत रास में यात्रा वर्णन संचवर्षण तथा मूर्ति स्थापना वर्णन है रास की क्या व धार्मिक है। रात मे है या इसमें दी एवं मात्रा के महत्म्य का कुदर काम्यात्मक वर्ष है। इस काल के जैन राम्रों की विषय वस्तु में पर्याप्त १. सियाका इतिहासः श्री नामूराम प्रेमी ५० २६वि०स० १९०३ का संस्करण देवर भाषा कवियो : श्री का० शास्त्री व जैन गुर्जर कवियों: श्रीदेव २० हिन्दी के विकास में यह का योग: श्री नामवर सिंह ५० ११८ Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७१ परिवर्तन परिलक्षित हो गया मंदिर शिल्प कला तथा उसकी प्रति कराने वाले धनपति श्रावक का यह गान वर्णन करना भी परास प्रारम्भ हो गया था। रेवतगिरि रास की ही भाति १५वीं शताब्दी में हमें कवि राम वारा ० १२८९ में लिबा हुआ एक आइ रास' मिलता है जिसमें आबू के प्रसिद्ध तीर्थ व संघवा आदि के वर्णन है। रेवंतगिरि रास में भी सोरठ देश के प्राचीन मंदिरों तथा प्रसिङ्गच पौरबाड कुल या प्राण्बाट कुल का वर्णन है परतुपाल और तेजपाल इसी कुल के दो प्रसिद्ध ऐतिहासिक पुरूष है जिनपर १५वीं सताइदी तक रचनाएं उपलब्ध होती है। अत:रास की ऐतिहासिकता के अनेक अंतरंग तथा बहिरंग प्रमाण मिलते है। राजा भंगार,जयसिंह देव एवं गुजरा प्रसिद्ध राजा मारपाल का भी प्रस्तुत रास में उल्लेख है। जो इतिहास प्रसिद्ध व्याक्तिमय और अधिणियों के अनेक चित्र जैनियों के प्राचीन तीर्थकरों की मतियों के साथ आज भी बने मितरो है। स वर्णन स्वतगिरि रास में भी मिलता है। इसके अतिरिक्त अनेक बहिरंग प्रमाण राम की ऐतिहासिकता सिद्ध करते है। कुछ टिप्पणियां इस प्रकार है:( तेजपाल गिरिनार तले केवलपुर निमामि ५ गपाल ने वह अपनी मा के मार पर मापाराम विकार मियालय अलमल बनवाया। (२) वर्ष रेखा नदी किनारे चमरियामोवर का व्यय मंदिर भी उस समय पाया र कवि के प्र विा है। अतिरिक्त भारपात की पाती बने को राम समानार१० में गिरनार कुमारपास पास निमन मंडन - - मिर राजस्थानी पूर्व की अगरचंड माडा का समायरामपनि प्राडबाट तिहास (भूमिका भाग) की प्रारदमाटो। रागिरि राम, डा. हरिकला पावानी. . बी. पानामा विपीका स्त्री . ८ Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंबयो सिरे सिरिमाल कुल संभवोपाल मुविसाल तिणि नाठिय अंतरे धवल पशु परम्व मराविय १ जयसिंह देव ने सौरान को गार का वधकर अधिकार करने के बाद साजण मंत्री को वहां का बन्डनायक नियुक्त कर ०.८५ में गिरनार पर नेमिनाथ का मन्दिर बनाया "सिरि जयसिंहदेव पवा पुहवीसरु, हावि घोरतु तिमि राम मारत अहिम मे मिनिषिद, शिणि भ. कराविक इनके अतिरिक्त मालय के पावड शाह का स्वर्णिम नगाड़ पाना बनाने का उल्लेख कामीर के अजित एव रतन नामक पादों का वही संघ लेकर जाना था वस्तु पाल तेजपाल का रिषदेव मंदिर मादि बनवाना- रास के ऐतिहास महत्व को स्पष्ट करते है। प्रस्तुत रचना : कड़वकों में विभक्क है।डवक कोई काव्य स्म या स्वतंत्र छंद नहीं होकर सर्ग विभाजन के सूचना जब्द है। अपभ्रंश के संधि काव्यों में अनेक हक मिलते है। साहित्य दर्पणकार ने अपनव कायों में कड़वक सों को कहा है। परन्तु परम चरित, हरिवंश पुराण आदि ग्रन्थों में तो सर्ग संधि कहलाते है। प्रायः इन कामों में अनेक सन्धियों होती थी। और पक पक धि में अनेक कामक होते थे। इसरे बब्दों मक मिलकर एक संधि को बनाये पि को दबकों का एक समूह का वा सभी का को विदेश दिया। उसके अनुसार दो बार्षिक पवाब की समाधि का जन्म व रामों को वर्ष के पक भाम के अन्नबीर बरे नवे वर्ग के प्रारम्भ का शमा मना है। प्रत्येक 1-प्राraj.anीया -बाप कवियों:पीकात्री १८ - निबंध बरिणामासानिधान *ध्याचा कड़वकान्वादिति स्वापामा । Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ कवक के अन्त में कथा समाप्त होती है और ओक कवक के बाद क्या प्रारम्भ। रेगिरि राम बार कवकों में विभक्त है। इस कड़वकों में कोई विशेष कथा सूत्र नहीं है। चारों कहबकों में गिरनार, नेमिनाथ संघपति विका यक्ष तथा मंदिरों का वर्णन है। वस्तुपाल तेजपाल संघ महोत्सव करते हैं और नेमिनाथ की प्रतिष्ठा का महामहोत्सव होता है। एक विशेषता यह है कि इस काव्य में प्रत्येक कवक में स्वतंत्र वर्णन है जिसका पारस्परिक कोई सम्बन्ध नहीं है । इन चारों कड़वकों में जयसिंह कुमारपाल कडनायक, मालव के भाव शाह के वर्मन है तथा कश्मीर के अजित और रत्न नामक भाइयों का संघ यात्रा वर्णन तथा दानवीरता, संघ तीर्थों के शिल्प, मूर्ति का पराक्रम TIT THEकार पूर्व घटनाओं का वर्णन है। श्रावक भक्तों को धर्मी बनने का आम और धर्म प्रचार ही रास का उद्देश है। प्रस्तुत रास की एक मति पाटण भंडार में है जो ताड़ पत्र पर लिखी हुई है। डा० हरिबल्लभायापी ने अपना पाठ सम्पादन श्री सी०डी० बलाल के प्राचीन गुजराती का संग्रह से ही किया है। १ गिरि राम मीति प्रधान राख है। सत्वनुश्य में सहायक होता है freeder महोत्व में बहुधा भक्तों के में रास एक भूतपूर्व उड़ता की दृष्टि करते थे। धर्म में हमारे समाज के क्यों में एक विश्वास की दृष्टि की है। इस लोक और परलोक का नाम और बाध्यात्मक का पान * feast की अध के ही परिवार है। समाज की इसी विदिष्ट मनोवृत्ति ने ही समय पर अनेक साहित्यक विधाओं और पोषकतत्वों का निर्माण किया है। और प्राय प्रार्थियों के * है। कृति में का प्रगाढ़ता है। कवि की पदावली कां है। दूध निध क्रिस ट पढ़ता है। पावा गाव बहुत है। १- रेवं विरिदार का० उ०० मानावी देशका डा० उ०मी० नामापी - Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७७ प्रारम्भ में ही कवि मंगलाचरण करके आगे बढ़ता है। मंगलाचरण की परंपरत भारतीय प्रबन्ध काव्यों की प्राचीन परंपरा है। कवि ने गिरनार के सौन्दर्य के कई मधुर चित्र खीचें हैं। अनुभूमि की सरसता उन्हें और भी मार्मिक बना देती है। कवि गिरनार का संसार यात्रा के साथ रूपक बांधता है: १ जिम जिम चढइ डि कडणि गिरनार, तिमि तिम ऊठई जणभवण संसार जिम जिम के जल अंगि पालाट तिम तिम कलिमल सयल ओक्ट्र वही की शीतल वायु तीनों वाप हरण करने वाली है: जिम जिम वायड वा तहि निम्भर सीयल तिमि भववाडी तवणि तुइ निम्बलु पक्षियों के मधुर वर्णन, काकली की मिठास, मयुर का कलरव, अमरों का गुजार और निर्करों का नाद सारे प्रान्त को कंकृत कर देता है। वर्णन की ध्रुवमयतत्मक २ और काव्यात्मकता इष्टव्य है : "कोयल कलयलो मोर केकारओं सुम्भर महुयर (ह) मडर गुंजारवी जलद जाल वाले नीरनि रमाउल रेडर, उज्जिल सिडर जति कल सायल वहल बहु धाङ्ग र मणी, जमल सोबघून मइ मे उपी जत्थ देति दिवस ही सुंदरा महिश्वर मध्य गंभीर गिरि कंवरा जाइकु हितो कुछ दीवा दस दिति दिवसोकरि तारा मंडल मेयों के अरु समूह से प्रवाहित रवीय निर्भर मलिकम्मल गिरि श्यामल free की शोभा अनेक धातुओं एवं रसों से युक्त स्वर्णमयी मेदिनी अर्थात् औषधियों से परिपूर्ण वसुंधरा और विकसित कुन्द कुसुम का वल मानों विवाओं का नवत्र मंडल है १० वही ग्रन्थ दिवसीय कम । १० ही ० ३ २ पद ४। ३- देवगिरि राव: डा० हरिवल्कम पावावी ॥ ३ Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ आदि उपमान उत्तम कोटि के तथा कवि की उत्प्रेक्षाएं भी अति नूतन हैं। समास बहुला, अनुप्रासात्मक शैली और सरस पदावली से कवि ने नीरस पत्थरों में से भी रस के स्त्रोत उमड़ाए है। निम्नांकित पक्तियों के प्रकृति वर्णन से जयदेव के गीतों के शब्द चयन व कोमल कांत पदावली का स्मरण हो जाता है: ● मिलिय नवल वलि दल कुसुम फल हालिया,ललिय र महि लवय चलण तलता लिया गलिय थल कमल मयरंद जल कोमला विडल सिलबट्टसोईति तहि संभाला १ प्रकृति वर्णन में कवि ने नाम परिगणनात्मक रूप को प्रस्तुत किया है। अनेक वनस्पतियों का परिगणन उसकी विशाल शोध दृष्टि एवं बहुजता का परिचायक है शब्द अनुप्रासात्मक और नादात्मक है। एक ही अक्षर से प्रारम्भ होने वाले अनेक वृक्षों के नामों को व कवि की बहुलता लिए: "अंगुण अंजण अंवितीय अंबाउथ अंकुल, गंव अंक भागलीय अगरु असोय महल्ल करवर करवट करुणतर करवंदी करवीर कुडा कडाड करीब कह कर कमल कंपीर बेल बंजुल वउल बडी वेउस वरण विहंग, वासंती वीरिषि विरह, वासियाली वन बंग सीम सिंवलि सिर (स) सभि सिंधुवारि सिरखंड, तरल पार साहार सय सागु सिग सिण दंड पल्लव फुल्ल कल सिय, रेहह ताहि बमराड, तहि उज्जित तति पनि यह 1 उत्कट नि उत्वा बादि अनेक अलंकारों का स्वाभाविक कर अनुसार रूप व उत्प्रेवाओं की यो घटा डी अनुप्रास, गगक frore हुआ है। कृति में उनही पड़ती है: ate: (१) निम्मल मल विहार परे (२) (३) विराम बोग सुन्दर बार वाकुल् १० बड़ी, पद ५ ० ३ १४-१ Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७९ उपमा रुपक- (४) जिमि जिमि बडइ तडि कडिणि गिरनारह व उत्प्रेक्षा तिमि उडई जण भवन संसारह (५) जाड कुंद विहसतो जं कुलमिति संकुल दी दस दिसि दिवसो किरि तारा मंडल (६) जत्थ सिरि नेमि जिणु अच्छरा अकरा असुर तर उरग किंनरय-विज्जाहरा are मणि किरण पिंजरिय गिरि सेहरा उल्लेख, वर्णन, क्रम तथा स्वाभावोक्ति (७) अइरावन मयराय पाय मुद्दा सम टाकउ दि गर्वदम कुंड विमल निर्भर सम लेकि (८) गयण गंग जं सवल वित्थ भवयारु भणिज्जइ uratford as अंक इक्स जल बंजलि बिज्ज (९) गगन प माहि (१) जिन भापु पब्ध माहि जिन मेरु गिरि त्रिहु म तेम वहाणु विथ मोहि रेवंत गिरि (e) नथण सलव मेमि जि १ ras ष" प्रयोग कितना उत्कृष्ट है। और अब में कवि ने प्रकृति के उपादानों द्वारा नेमिनाथ का अभिषेक कराया 97 मेमिनाथ के रूप न करने में कवि के काव्य का परिमिता है। वन से एक दम रति है ता स्वाभाविक मान निष्यन्न हुआ उसको का त्योंवों का है। मीवर (मी में बमर इति वार्डवर सिरि वरीय * बंदि विज्ञान व विवि narrat विवानों ने प्रतिपाटन मंडार में उपलब्ध होने से इसे प्राचीन गुजराती के विकास की की बढ़ाया है। पर वह भी स्पष्ट है कि प्राचीन गुजराती का ही प्राचीन राजस्थानी का है। अतः इस बात का कोई स्वयं मह १. गिरि-रायः श्रीमान० १० वढी ०६ प १८-१० ३० बी विजय कवक। ०६ प Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० नहीं प्रतीत होता। वस्तुतः कृति दोनों ही विधाओं की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। संद के क्षेत्र में भी रेवंतगिरि राम का मौलिक योग है। चारों महबकों में कमरः २०, .., ", और २० पद है। प्रथम बड़बक के बीजों छद दोहे छंद में वर्षिस हैं। दोहा अपच और हिन्दी का लाडला छंद है।कवि ने उसे बड़ी ही संभार से निभाया है।" दिवतीय पत्रक में एक प्रकार का मित्र है, जिनमें हली दो पक्तियों का दानों के आधार पर ठीक नहीं बैठता और भेक बार पत्तियों में लगा. छंद है जो २० भाषाओं का होता है।' नवीय कड़वक का द रोला' है। यह छंद १६ कड़ियों का है। ST• पायापी ने उसे ११ पक्तियों में विभक्त किया है। रोला द मी अपज परम्परा का प्रमुख पद है। चतुर्थ कातक की सबसे महत्वपूर्ण बात कि यह पूरा कड़क की सोरठा छंद में लिखा गया है। इस छंद में वर्णिक वर्ष गीत को पीवात्मक बनाता है और इसे हटा लेने पर सोरठा की मात्राएं बराबर ठीक बैठती है। कवि का वर्णन बातुर्य इसी में है। प्रल रास की रममा का बाम गामाविक एवं धार्मिक प्रवरियों को प्रकार में बील निब का महत्व और परिज नामको बावरी भी बहावा स्पष्ट करना बीन मिनाम में मा राससमाभ्यास देखा है। इस कृतित्कालीन वैन सानो बाहित्यिक पति और पाकि प्रकृति पर माय मा। प्रय सीमा पा , प्रायलवा और देव की बापी की मा प्रसाद और मथुरा विकारात्मक प्रवृत्ति तथा पास 1- परमेशर शिविर मय जोगिमामि राम रेवगिरि अविक विकि मिरि ग. बाबानी - पदकड़वक मध मिस इनामब समय बना भामा वित Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तइभब व तत्सम शब्दों की उल्कानित स्पष्ट है। प्रयुक्त राजस्थानी और गुजराती के बदबों में भी नवीनता का प्रयोग है। मासु, परव, सूख, मामिथि, उजिल, अंबर, पाज, गिरनार, पाव, धरिउ, पासाट, मठाई, मीह दी अगुण आदि। कुहा अब्दों का विशेष विश्लेदन देखिए काव्य की दृष्टि से इस जाति का अपर्व महत्व है। बास्तव में संस्कृत साहित्य की इम्टि में भी हम इस काव्य में उच्च कविता दे सकते है।इसमें कुरा अब्द चमत्कृति और कुछ अर्थ चमत्कृतिवाली कविता है। यह विद्वान लेखक श्री गस्त्री का विचार है। इस प्रकार धार्मिक स्थल, धार्मिक विस्य तथा आध्यात्मिक संदेश पूर्ण रचना होते हुए भी इसमें साहिरियकता भौर निमरी काव्यात्मकता का उम्मेद है। नेमिनाथ रास: वीं ताब्दी का महत्वपूर्ण रास नेमिनाथ राम है। इसके रचियता श्री सुभविगवि है। यह रास एवीं सताब्दी की उत्तराईध का है इसका रका कास - है। विषय मेन मूरि के रेवगिरि राम के पहले ही इस रास की रचना जोगी। मीकि राम की महिमयिकीय रनामों की ना वहीर पडते रवी या प्रतीत होगाकवि अगायिका निवार स्थान राजस्थानी गायक पिपाणी वर माली टीमगर। प्रोगam स्वाध्याय पुस्तक में उपलब्ध मा। और प्रति और गरम दोनों बाधार परी का पालम्यानमिति कवि की बीर भी अनेक रना होगा, कोमामी नई प्रमी होती है। मापना कीमतीकापीमाती. दी सरीन,. .... ला TRI Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नेमिनाथ पर र काव्यों की परम्परा अमव से ही मिलती है।अपशितर रचनाओं में दो नैमिनाथ जैसे प्रसिद्ध व्यक्तित्व पर सैकड़ों की संख्या में ग्रन्थ रचे गए है। कवि ने नेमिनाथराम में नेमिनाथ के परित पर प्रकाश डाला है। रचना शेटी है, कुल मिलाकर ५८ छंद है पर कवि की काव्य प्रतिमा की परीक्षा इसी से हो जाती है। नेमिनाथ के स्यालय पर आगे विस्तार में प्रकाश डाला जाबमा कृति का मल्याक्न की प्रस्तुत किया जाता है। मेमिकमार जैनियों के २ तीर्थकर थे। उनका राजकुमार होना तथा शक्तिशाली, बीर, परामी होकर भी संसार से वीतरागी हो जाना, त्याविवाह के अवसर पर अपि नयावना राजमती को छोड़कर बल देना बड़ी भाश्चर्यमय घटना है। राजमती भी उन्हीं के चरणों में जाकर दी प्रहण कर लेती है और अंत में दोनोंमहानिर्वाण प्राप्ति करते है।बारातियों के लिए जीनित पानों का वध किया गकर भोज्य बनाना आदि बादों ने उनमें वैराग्य उत्पन्न कर दिया। नैमिना श्रीकृष्ट बलराम पाई ये था यादब कुल में सबसे सर्वशक्तिमान थे। राम के अध्ययन से शाम होता है कि रचना जन भाषा में लिखी गई यो वर्णनात्मक और मेब तस्व प्रधान है जो सम्भवसा माने और खेलने के लिए ही रखा गया है। प्रारम्य गावर रवि ने पिनार (बरिष्टनेबिन मन उसके पिता नविय बौरीपुर की पारानी शिवानी का वर्णन किया है। बायका मिनार साधारण पराम्मी । सो को ही पनि गमका कुबकी भावाला में बार मोनों कार की बधा हीला पात्र ह मा जित्यन्त पनी हुए। जिनेश्वर मिनाथ समाचारमाला परा वर्षम दृष्ट्वय है। •होगा निगा विक मरो जिब मन दुनीयक पर परिहार पर बेन्च, वृषा नेमि गुमाय ॥ Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तहि वरति जायव कुल को डि सहि रमति कीली बढ़ि सागपुरी इन्द्व सन काल, गव न जागड कित्रित काल नेमि कुपए अन दिया रमं गउहरि आउई साल भमंतउ संधु लेपि लीला वाई, सब सब्दि सिहयण सोमेड In || तुमणि पपणा कण्हों, किछ बाय संस पति अमेय नरिदा जिज बलुज असंतु तो भयभीर भगइ हरि रामह भाउ नहिय बास इह ठाया लेखाइ नेमिकुमक तह र हा हिया धसका भन्' विविध रूपों में कवि ने नेमिनाथ की राज्य के प्रति निर्मित का वर्णन किया है। विस्य पुओं के प्रति के सदा उदासीन रहे। राम भनाइ पन करइ बिसार, रतु न लेसह दुख कुवि भाउ र संसारु विरत जिमेस मुक्ख सुक्न करिवउ परमेसर रख सुक्न करि पुष्ट सुकाइ धौर नरइ सो निबड़ा निन्छ। पुर्षवि भागइ हरि रामह अगगह, बंधब गय ह पुङ वि समग्रगाह अतुल परिक्षण मेमिकुमार लेसिहरन्तु न पिइ सहा राम जबइबा पड़ियोडेड शह कारण र केह इक्षा प्रदिपर्व कृषिगाडि हि किम बिन मोह 10-m विविध हटानों कार ने मामा के भावपूर्ण बना विवाये रचमान निकाय के विवाद पर ला है। उन की लकी रायक को रोटी गेह मैमिनाथ बीतीनी बनमय। विपिनी राम निरविरहिमी कम गई। मायामों का मन मना नहीं सा गया जो बरातियों केपी लिए किसान पारसकार इमार तोरण पर आये पिमा परी मारे मनों को प्रमाडीम कर दिया- पाती राजीव कविन वर्षनीय है। अकरम की टा स्थल कबील भार का शिा - - -- - .. हिन्दी सीलन वर्ष . ... Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ " जागा मई बच्छ बाली राइमई बहु गुणिहिं विसाली उग्रगण रायं गहि जाइय, स्व सुहाग साणि विकाय जसु धणु केस क्लाबु हलंत, नीतु किरण वालुव्व फुरंत दीes दीडर नयण महंती नं निप्पल लील सि वय कमलु नं छन स िमंडलु दिक्ववि भुलला चना मंडलु मोहे, कंचन कलसह लीड न देई reas ures म सरल बालय के विगिजय, नं० बंपर लय गयवणि साजिय जय वस्तु परिक्षण उत्ताखिय नरइ गइयस कत्थ विनातिय इय चिज विणु करिह सा बाल वाविय मेमकुमार देखि (गुपस्थिय ) जायन मेलाविय (४१-४५) सौन्दर्यवर्मन पर्याप्त है। तथा सौन्दर्य उपमानों में भी मौलिकता है। रूपवती राजमंती की जीवन भर की साधना व्यर्थ हो गई, राजमती का सारा अंगार तिरोहित हो गया उसकी कति कथन में बदल गई पर उसने धैर्य नहीं फोड़ा। उसमे बोचा ऐसे दिव्य पुरूष पूर्व के वल्लम कैसे हो सकते हैं? कपण रस में डूबे हुए राजमती की वामी बढी दयनीय स्थिति की योतक है। अंत में राजमती व मिनाथ के बाद गिरिवार जाकर दीवित हो केवल पद को प्रा करती है निमुनि राजनई चिंव चिचि यह है नई न परवड नेविकुमारु जो विमान कपि करि पडिक कुरूवि मी जि जो कि इस हो कि ईडियन बल्ल बुमरवि चिखंड राइम मेनि मारिष विक इस युति पय मदिनिन्छ लोग धक्क अन विजवर बारहमह दगड वरमचिम पाराविक संत दिन कति योजक भाव के कुछ बो यो म पानि सावय साबिम म पनि रोजिन नयनानिय Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८५ श पर बिहु दिल पवित्र, नाग चरम देसिमिति पवित्र राबाई पड पाय नपेवियु मेमि पाभि पवन हे विषु चरम महासई सील निदिधव नेमि कुमार पहिलो विधिया नेमि विकृषि पविण पडिकोडिवि पूर्व वैम्ब मवि महा मोहिति आवादपि पुदि पुनीवर पसल सिधिई परमेसक मंत्र में कवि ने पति के रूप में च और गुणवतो के माप की कामना जिणवर और #मिका या शासन देवी विन पुक्त करने की है। सिरिजिणवा गुरु सीमा मन हरमासु अभिभारत रस गपि मुगइन राजु साराम बी बाईहरा विद्या विद्यारर सिहा पट मुगाह - (१७.५६) पुध्यिका' के रूप में कवि का नाम भी मिल जाता है। रचना की भाषा अपांग से प्रभावित है तथा जन साधारण की भाषा ही है। अपने शब्दों की बहुललाहोते हुए भी उसमें समभाषा का प्रवाह है। पदों में सरलता और प्रमान प्रबनता है। रबमा रास (इ) में है। द के अन्त में एक एक विपदी विनता है इसकी पीलिया भी स्पष्ट होती। प्रकार भाग गया या राड बायपार, और निमावि meीस पापा काबों भिनाय कायान m eीकार। e पसार राशि मिरसि ।। Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । गय मुटुमाल राय जैसलमेर के बड़े भंडार से सं० १४..में लिपी एक प्रति गय मुमाल राख की उपलब्ध होती है। इस प्रति की प्रतिलिपि अभयन प्रधालय में विद्यमान है। इसके रवविता इनिजगञ्चन्द्र पूरि के शिष्य श्री देलान । हन का समय निधारित नहीं है पर क्योंकि अगव्यंब्रसूरि का समय - 1... है या बाब संभव है कि इनका काल भी निकाल या ५०५ के बीच में कमी अनुमानित किया जा सकता है। कृषि की भाषा को देखने पर वह स्पष्ट होता कि बह पांच पदों की अधिकमा लिए है। इसके पूर्व बर्षित राम कृतियों में आने वाले अपच आदि के शब्दों के अनुपात में इस कृति में भय के शब्द अधिका। फिर भी लोभाषा की कृति होने से इसका महत्व स्वस्ट है। प्रस्तुत राम पुनि मज मुमाल पर लिखा एक बरित काव्य है ।गजमुकुमार कृष्ण बहोबर अनुव थे। देवकी को अपने पहले पैदा हुएम सहित पूर्ण का मुन मिल सकने पर उसमे सम्म को मा मुख जिकीड़ा बामद का प्रभाव कहा। कारण मगर , निमा साथमा की और दो को की टोली बमाम लीग माहार प्रान करने को बायोग मातृत्व सम्मका मिना पने साना कि मि उसी वारा मार डाले पर भी बयारी गे अब पान पस्या करके मायादेवा में बाबा कि बाक बोरामारा बाग का मुखी देश केगी। मावीमा। नियत समय पर बालक हो पया यो मार बगेमा या सः उसका नाम बास दिया था। काली ने उसे हम का प्यार पानी ans राजस्थान पारसी वर्ष क र कानावरा-श्री बबर माष्टा। Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८७ इवारका आये उनकी रसीली वामी पुनकर गजमुमाल को वैराण्य हो गया। मा के बहुत मना करने पर भी हठी बालक न माना। नेमिनाथ ने दीक्षा दे दी। पहले ही दिन उसने उनसे कैवलय की प्राप्ति का उपाय पूछा। नेमिनाथ ने ईच्या दुबैक रहित होकर तितिा धारव करना बताया। बालक सुकुमाल समशन में गाकर ध्यानस्थ हो गया। इधर उसी का पाणिग्रहण करने के लिए एकमुंदरी लड़की के ब्राहम पिता को जब बात हुमा 'कि इसने बो दीवा लेकर मेरी दरी लड़की का जीवन की मिटा दिया तो उसने विद्या के मर्म गर्म बंगारे लेकर उसके सिर पर डाल दिए। बालक पूरा जलमया पर वो उसे मान हो गया था कि मैं को बात्मा ई जल को केवल शरीर का है। इस तरा साधना व मोर प्राप्ति के लिए बालक मे जीवन उत्सर्ग कर दिया। पापी ब्राह्मण पी कृष्ण को देखते ही पापकरने से मृत्यु को प्राप्त हुआ। मही इस रास का स्था बार है। क्या में घटनाओं का वैविक है औरक्या सूत्र में स्थात्मकता होने के पाठकों का उत्साह पकरस बना रहता है। जैन सुमों में भी गज कुमात का जीवन परिक मिलता है। वस्तुतः पूरा रास कवि ने गजमुमाल की साधना, शिक्षिाव कैवल्य प्राप्ति में प्रसाब बरित वर्ष के म लिया है। मामा की इष्टि से इस रा . हरिवंश कोल ने अपांच गानों तिमा है परन्तु मनकी गापामा सनही मला मातीमा पा समा.. सगरमा का केही भासmar पर गीलीम भाग परिवन का की उपवा लावालसरमा काठीन रहाकवि ने यह हिरवा कर पिनामि की मनाम पाए सिवि रा मार काम्बा पापा ग Fिal Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन के राज्य का वर्णन, देवकी का माहार भाये हुए समान स नियों को देखकर बाrurम का वर्णन आदि स्थलों को देखिए: भयरिति र कलामरि भरवा मंति सही शिव पुरवि इंद्र ससक गय पारण भारा * मराहिय का सहारा जिब आप उरि मन्त्र वियरित रावि मा शासि तारा सा बसुदेवों पर स्थानिका पीयति पर पवाबोलिभाममा विशी वा जन्मिय नावापुरतोय raf मा नियमशिर मा बाम सिन्नि उक्त अपि बाय साम्य सिरि बच्छवि बनी बि बियामा हिन्मि नारी पाना । को मियो को कर गोपियार भागार नेमाव और पार निरी पुगियर बरा , माया वाया कि पास जयाबा... मिवर बाबा () महोबर नाति मागि. वि पि नडिया nita taram.मलामा HINRemem Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८९ पुग्यि एच रयण तहं हरिया, विषि कारपि तुइ सुय अवहरिया बि होइ निमितू वर बरा करेई मुलस सराविय ताम्या सुरु अल्लाई देवा भूमिवर बंदा गाम्ब हरिस विसाउ परइ मणि वाम्ब मुलय सपन्निव मा धारिताडियत्र पुण बाल विउइहि बाडिय सिलवा मलहावइ गाव, देवइ मन इम्भक हुइ ताम्ब कवि ने गयमुमाल का स्मशान में जाकर कन्नि तितिक्षा का वर्णन देखिए मोड महागिरि बुरण बज्ज पवतस्वर उम्मलम गग्य मुमरिनि जिणवा नेमिकुमार मय सुकुमा लेइ क्यभार किल काउगिंग साम्ब बारबि पसाणे, वारवा नयरीए वाहिर उजाये मि सु दिवस कवियर पेक्षा तिरिय जल पवालि दिना अम्ह धुंब बिनडियपरिणिय जेल, जमिनट तक कर जोया कठोर साधना में केवल मान का उपासक गप शावक की भाति कोमल गजमुकुमाल सौमित्र ब्राहमण के चिता में सेउडाकर अंगारे डाल देने से जल कर वहीं मस्त गे गए और निवाष को प्राप्त हुए नायक की यह साधना कवि ने की ही अध से बर्षित की. "बावा मनाला पिाकरे, वाम र नारा Nिews उमाविक मारमा दिwि पिसि विवाद विव बरपान न परमिरि RE, Mइम कामा बस्ता अबरामद किरनिविय या वा विधिरनिद्र माया पनि बनाए निमा बार अंडमाडिषि उमाशिमा पानि म बिगा। स न लिने न रहदेव स्पष्ट क्यिा है। कवि ने यह पति प्रधान राम मामा की या प्रधान माना की प्रति कि रा नाम, जनम करने और बाद मन होने की वा - रावस्थान पापी वर्ष पद (R ). 1 . Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गया है। ए राज मुडेयह जाई. रक्सर या संधु भवाई ए राजो देसी मुषि सी सो पासय सिब मुबई हाती वस्तुतः सन्धि कालीन रामों में पाया की दृष्टि से पसी कृतियां विशेष महत्व की हो सकती है। इनमें अपर कालीम प्रयोग और शोक भाषाओं के बीच की। संक्रान्ति की स्थिति स्पष्ट होती है। अलंकार आदि की इम्टि से कृति का महत्ब गौण है। वों का यह राम निवासी कवि ने गय सुकुमाल का परित वर्णन करने में ही सारा चरित गीत तिखा है। इस प्रकार यहाँ तक आते आवे या स्पष्ट हो जाता है कि राम के रचना उद्देश्य में केवल नृत्य गान उल्लास कीड़ा भावि न रहकर उनमें क्या तत्व का पूर्णतमा समावेश हो गया था। इस तराराब करबमाओं की बस्तुस्थिति कालान्तर में बड़ा परिवर्तन हो ममा . . . . - - ..बडी, पब Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ककी रास : १४वीं सताब्दी के उत्तराईध में एक रचना कमली रास मिलती है। रचना का लेखक अशात है।रचना काल, रचनाकार औरराम के रखना स्थल की संभाव्य कम्पना रास की अंतिम पक्तियों से की जासकती है। श्री मोहनलाल देसाई ने भी इसका रचनाकार श्री प्रभावित इरि माना है।' पर मह बात ठीक नहीं जंचती है। रासकी अंतिम पंक्तियां इस प्रकार है मात्रीसह अबाडि लामण पवधर साहबो छयबी गयर ममारि आरिवार भी मि किसी कमल परि नियपाटि बधि प्रजारिठवीयो कमीर मावीउ प्रीड पनि अन्या कीओ कषि पत्र मुरकोड गवार मंगाजत विमलो नाबी चिरकाल प्रपा प्रज्ञा तिलक रे जिन शासकि नाडा गुरुभवी गई कल्पतरो बाबाग अब उमाहोबा मि मा बसकरो और त्रिका मेटा निम्ति जिब हरि शिमलव सावि परका इसमwittent का नाम, रासका लाnिा बना वक कोटि है। शाई बी की नाका परिधार इस बार होम किसी प्रकोप से बह स्वयं अपने लिए मागास्त्री का मत है कि ऐसा me योगा।' पर शास्त्री बीका प्र प्राचीन पूर्वएगबानी विकास का भाषाकविकोपीकावामी Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माधार भी इस इष्टि से किसी निश्चित परिणाम पर नहीं पहुंचा। बस्तु रचना के स्थल चरित नायक ऐतिहासिक वातावरण TT उलास एवं प्रशंसात्मक वर्णनों के देखकर यह कहा जा सकता है कि या तो इसकी रखना किसी संघाधिप द्वारा या प्रातिलक सरि के ही किसी मंतरंग शिष्य इवारा हुई होगी। ___कमली रास पक ऐतिहासिक पीति रचना है जिसमें बाइ का अबलेश्वर जैन मन्दिर, चंदावली, कोरिटवड आणि वैन तीर्थों का वर्णन है। साथ ही आधु के अनलकुंड व परमारों का वर्णन पी कवि ने किया है। कोई क्या विशेष महीं। कम्ली ग्राम में उत्पन्न श्री उपीड मरिका पराम्प और गैर्य वर्णन है। धार्मिक दृष्टि से मछली प्राय का महत्व स्पष्ट किया गया है। साथ ही कवि में संघ वर्णन यिा है जिसमें प्रभावित हरि प्रमुख पात्र है। उदयसिंह ने सिंघनिकाल पंप बंद्रावली गगा, वही सावन के पुत्र कमल मूरि की दीवा इई और जब कोरिन्ट बह स्थान पर प्रशातिलक के क्सिी शिष्य विशेष ने रास रचना की होगी। स्था की दृष्टि से इस धि का कोई विशेष महत्व नहीं क्या में कोई नवीनता भी नहीं मिलनी पर मापा की और दो की इष्टि रखना महत्वपूर्ण है। कवि मंगला बरक र ण यिा वागार निवार और अनियमित बीवन यापन करने वाला कवि मेवा पुगीन मिया मातील मान उपरि मीर बबmme maratधि मिलिग बालवीय की मार विधि । साइन्टिक मिलता है ।यो दोहा चौपाई बादि tीष पूर्वर गीला Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दो मिलते ही पर भूलमा छंद विशेष शिल्प के साथ बर्षित हुआ है। यह छंद २० मात्राओं के चरणों का मिलता है इसमें दो कड़ियाँ होती है जिसमें एक दोहा व दूसरी कोई विपदी होती है। छंदों के क्षेत्र में इसका मौलिक योग दिखाई पड़ता है। बीच बीच में जो बार बार पदों का प्रवर्तन होता है वह द को लयात्मक बनाता है। इससे इस राम की यहा जन्म प्रालित स्पष्ट होती है। एक उदाहरण देखिए. मीवर त डिव रहिजै जै गुरु सिदिचाहिं चंडी 'विसहक भाव परिवलि जे लषीउ प लबीर कपडी उ परि डा मिल्हि करि हो गए योग धालीन चतु पढे मिलीउ र गिलीउ ए गिलीउ छाल पुर्यगो पाउ पिल्लिवि समुहीम डर डरं थीउ माधो जोवहार सवि मतीय जीवई यहीवडई पहीया पडीउ दाधी बउ गरि मूकीउ रम हरण कीधा सीड करालो भाषा इरि पीउ रिसीउ प इरिसीर परिसीर मयक सबालो' मा इससे पूर्व भीम रवि जिनावर र विवान राबी भिखा, मिका मला म मिा वा और को • पररोवर बाकी , Ma r at मामानीमा मिति मे मा का वर्णन करने परपरा नि तिमी क्यिा मे। -शिरि पर परिणीयो बीबी सायमिन राजी ___ धमीय रोह निवारी मार, गवार मा गिरिantan Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९४ सर प्रववदि मोहरी य श्री लालचंद मावी ने इस छंद कोरासछंद की संज्ञा दी है। जो संभवतः राम्र रचनाओं के लिए एक छेद विशेष हो गया था। श्री के का० शास्त्री ने इस छेद 露 १३ और १६ १६ १३ की को मिश्र छेद कहा है तथा इसमें १६ विपदियां बहाई है।' इस छेदों के अतिरिक्त दोहा बौपाई छेद मी मिलते हैं। Te महोत्सव के लिए लिया गया है अतः गेयता उसमें विद्यमान है। भाषा के संबंध में रचना का महत्व साधारन है। लोक भाषा के प्रवाह में कवि ने "ब" जैसे शब्द का प्रयोग- इइ कमाली कालपुडी लौकिडि मे लोकहि ये लोकिहि वाइय ब * किया है। राजस्थानी में बोलवाल में आज भी बूंब शब्द मिलता है जो संभवतः जोर से चीखने के लिए प्रयुक्त होता है। यह भी सम्भव है कि यह शब्द विदेशी हो । नयेदों में- कमठ, वाय, वरमाल, बनगर, पावजिन, अनलकुंड चिंतामणि हिमगिरि धवल, बाबिल, उपवास, मूकी बीजी, पुकति, प्रीति, चिरकाल विमल आदि अनेक शब्द मिलते है। अतः इन शब्दों मावा में नवीन शब्द के म की क्स स्पष्ट होती है। १ बाबू के इन्हीं काव्यों की परंपरा में इसी वस्तु के दो विस्तृत राड काव्य मिलते है। इन काव्यों में दानवीर परियों की मानवता का वर्णन है। दोनों का मनीष दे किया मादा का पाया और छेदों कोटि ने दोनों रा महत्व पूर्ण प्रबन्ध है। *+ Buyers" --* r*4* - २०११ - 吉加 प्रकार की क्या संघ वर्णन है तथा २- (इसके प्रथम पृष्ठ का) परमेश्वर बाली रामः श्री ला०म० गांधी, १०२ । १- प्राचीन मु०का०सं० श्री दलाल, ३०५९ २. प्राचीन का०० श्री ५०५ ३- आपना कवियोः श्री केल्काव्यास्त्री, ४०१५६-६०१ ४- प्रायका०सं० श्री प्राचीन वैर काव्य संग्रह श्री दास पवेन्डिक्स १० पू० ११। १० मी० १० Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९५ ये दोनों कृतियां प्रकाशित है तथा इनमें पेथड और समर सिंह की दानवीरता, पराक्रम, और शौर्य, सीधाद्वार तथा संघ का वर्णन है। दोनों रासों में से पहले का लेखक और समय अनिश्चित सा है पर प्राप्तवहिरंग प्रमाणों के आधार पर इसे सं० १३६३ की रचना मानी जासकती है। पेथहरास की पूर्णता पर श्री शास्त्री के०का शंकर प्रकट की है।' यो रचना की पुष्पिका "इति श्री प्रागवावंश मौक्ति काव्य पेड़ रास समाप्त" को देखने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि लक्ष्य भी पूरा हो गया है अतः रचना को रचना अपूर्व नहीं है। रचना का अपूर्ण कहना अदिग्ध ही लगता वस्तुतः शास्त्री जी का अनुमान बहुत ठीक नहीं है। कवि मंडलिक पर भी मत वैभिनय है। पर मंडलिक का प्रमाण रास में मिल जाता है। कृति का ऐतिहासिक दृष्टि से भी बड़ा महत्व है। कई ऐतिहासिक पुरुषों यथा कर्णर्वपैल, बंगार, जादि का वर्णन भी मिलता है। श्री स्त्री इसके कती के विषय में लिखते है कि- "या तो इस काव्य का रचयिता ही बंगार है या वह नहीं है तो मंडलिक का पिता बेगार होगा और वह वृद्ध होगा अतः मंडलिक ही इसका करना होगा। बंगार की मृत्यु के प्रमाण तो वि०सं० २३१६ में ही मिलता है। जो भी हो, कृति के एकाकार और स्वना काल दोनों की स्थिि अस्पष्ट है। प्राप्त प्रभावों के आधार पर मंडलिक को ही इसका राकार कहा जा सकता है म काका १० माना जा सकता है। पेड़ बचा और वाल की मावि बली था । समरसिंह का यह भी धड़ से कम नहीं था। पेड़ और सगर दोनों दानवीर पुरुषों ने वैध निकाला था। पेड़ राय में कई स्थानों पर क्रीड़ा बाल, लकुटा राम, नृत्य संगीत, गान १० आप कवियों की के०का० शास्त्री, पृ० १९७ १३० ३०८ Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदि के पद मिलते है। कुदा काव्यात्मक सरस स्थल दृष्टव्य है: "देवाइई बातीय, मयणि विसालीय, दितीय वाली,रंगि फिरती हरिस भरे ताहि बेला नाबइ मेल बहुमत बेला वाला मोल लड्डा रसि रमई' कामिनी पामिपि पवल दियंती गायती गुण जिपबरा अति माह मात्र समाह वरीयल *नि गुती व है चारा डा रवी बाडी, नवा नवेरा दाई मेहण गण सथन व घमा धमेरा सम विवरा सति न दीबई अखि पुष बइद चयन की अगमितता, सरसता तथा गीतिमा के साथ साथ कवि ने रास कीड़ा का महत्व स्पष्ट किया है. "रास रमेवर जिन पुषि ताल मेब वियारे संघ तलायन रोपिठ व समगिरि विगिरि मेविस अनेक आलंकारिक इक्वियां भी रास में मिल जाती है। () पिर पड गरव करेइ लीगइ राउत छ धई (२) मनूब जमा हवं सह करीज लिविय यौवन ला लीजा (0) एक चित सपि ममान जाम () चिम चम का बट्टीयर पामिर बाबर Nमर बार समिविवार साथ ही नारिणी माय मामिनियों मारवाणारी बाब या कीड़ा के साथ मिला और बीमामा वर्णन है।' इसी प्रकार श्रीमद हरिरारा गधारमा स्थल भी गनीम राबरला वेश्य, गाने, कीड़ा करने और इत्यापन माग पो. एरा को पडा, गुणा,मावि जिण हरि बेड अनि पो व ए तीरथ प वीरप एडीरण - -प्राचीन कर गया . पेडिस.. Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९७ समरसिंह ने मुसलमान सुलतान को प्रसन्न कर च निकाला। बादशाही मुस्तान मे संघ की बड़ी सहायता की। समर सिंह ने ऐसे साम्प्रधिक समय में इंजय तीर्थ का उद्धार कर आमिाथ की प्रतिमा स्थापित की और जूनागढ़ प्रभार पट्टय आदि अनेक ऐतिहासिक स्थानों की यात्रा म समरसिंह पाटण लौट आये। राम कटी ने अनेक ऐतिहासिक घटनाजों का रास में उल्लेख यिा है। कवि ने पासह, मुन्तान भीम, मतपमान, मीर भातिक पाहिदर मालिक मावि ऐतिहासिक व्यक्तियों से रास का सम्बन्ध स्पष्ट किया है। रचना का बस्तु वर्णन भाग में विभक्त है। मुनि जिन विषय बी मे इसकी संख्या ही बताई है और श्री बलाल ने भी इसे वावरी भाषा ही कहा है" इन भानों का विशेष अवलोकन करने पर ज्ञात होता है कि संभवतः कवि ने इनका विभाजन ईदों के आधार पर किया है क्योंकि हर भाषा में वैविध्य है। माया समाप्त होते ही परिवर्बम हो जाता है इस दृष्टि से पाठ का अध्ययन करने पर भास होता है कि इसे १२ भाषा के स्थान पर १३ माों में विपक्त होना चाहिए। क्योंकि वारी माग की कड़िया एक ही छैद में चलती है जिसको के०का. शास्त्री ने विपदी या मानव का है। पर उसके बाद गावापापा दोहों रखी गई जिस स्वर के गायों का बीन बार भावी मिळवा इस बबन पाग को भी भाषामा ना सका है।पापा मारकीरा मिला प्रकाश धर्म परिव सूचक है। कवि भारदीन और मीरा की प्रथा डोस की कवि को वर्ष गाविप बाबिक पू जा करतो. पिक विज्ञान करिस घोर नियात्यो गावि बरोबर पिपरमिशी विहित 4 किरि अगर देशि भामा बाबा १-प्राका - बाप कवियो।नी के०का नास्त्री..in Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पात साहि सुरताण पीई तहि राज करेइ, अलपबानु हन्दूबा लोयथा पानजुदई मीरि मलिक मानियइ समक समरण, पममी नइ पर उबयारिय माहि लीह बसु पहिलिय दीपई असंख्य सेना के साथ समरसिंह चलते है।हाथी, घोड़े, यात्री सैनिक फलही, और स्थान पर स्थान पर उत्सब आनंद सब का अनुमतिपूर्ण वर्णन है: घोड़ों स्टो व सेना वर्षन में कवि का कौशल दर्शनीय है:गया जिय संस बसंह नादि काल इंडबड़िया घोड़े चढाइ सन्सार बार राउत धींगडिया सर देवालय गोविधगि धारि शुभमका सम विसम मावि गड कोर मावि वारिउ थक्का सिजवाला भर पड़ रहा वाहिनि बागे ঘন্সি ক ল ত দৰি মুকলি পার हमीसह आरसह करह वेगि पडइ बहस मादक्यिा चार अबक मावि देह बल्ल रापके दीपकों का तारागणों से साम्य विना स्पन मिशिदीची watt अव जनित बाराब पा पार न पामिवर वेग बहान प्रति वर्षम, भाषा Tom, मनमाया कविको माया माकारों ने बोला निमामिपों सगे पानी(a) म मवीर या विमा पोलिय दिन मागलप (२) पुरोड निगरा टिक पणि रासिनीली वहाबी पडतिह 61) बाप मरा कर पुलिस ध्यान विवि मंपियन पन्त परिवार Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५) धम्म धोरिव धुरि धबल इइ उत्तया,म पिंजरि कामधेनु पुत्तया ___इन्दु जिमि जबरथि वडिल संचारप, मूह वसिरि सालि धान निनहाल ए (O रितु अवतरित नहि जिवसंती पुरहि कुसुम परिमल पूरती समरह वाजिय विजय टक्क, सारा सेठ सल्ला साया केमय कुडय कब निकाया. (७) भाषिके मोतिष बउ पुर पूर रतन मइ वेहि मोबन जवारा भोक वृक्ष अनुमान् पालन पलिहि रितुपते रविवले तोरण माला देवकाय मिलिय धवल मंगल दिया कि नर गायहि जगत गरो' लगत भातर मुर गुरो साधए पत्रीठ करई सिध मूरि गुरो उक्त उचरण से पति का काव्य कौशल तथा भाषा में खत्मन बड्दों का समावेश विध हो जाता है। भाषा में विदेशी पदों के अनेक उदाहरण इसी कृति में मिलवाने है.. ( सल्लार -घोड़े बहइ पल्लार सार राउत सीगंडिया (२) मानकानु-मैटिलं ये खाउ कान पानु (क) बहिदारमालिक अहिबर ए पलिक-मापस दीन्न ले श्रीषि प्रापथए (४) मीर मलिश- मीर मलिक मनिवड समरु बगरम (५) पाल, मलपान, इमिय, बस, free, भवावि- (पासारखाप पीडबी राजका पान या कोवलमान न देह माली र इनिय मिराब न पाणीव हीन बीरगम (गलि मिमि बढ़वादि । बार मरा दोनों का बही मात्व है। इन दोनों रापारा T वैविध्य के अनेक प्रयोग लिए.. - मरारासाकार.m बरारारा.. Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० उनका क्रमश: अध्ययन इस प्रकार है: पेड़ रास में छंदोंका वैविध्य दृष्टव्य है । एक तो लोक भाषा और दूसरे छंदों के बदलते क्रम ने काव्य प्रवाद को बढ़ाया है। इस कृति में चालू रोला दोहा बौपाई और चौपाया तो है ही नवेछंदों में सवैया गुजराती कविता * सर्व प्रथम प्रयुक्त हुए हैं। गुजराती कविता कहने का कारण यह है कि जयदेव के गीत गोबिंद के पूर्व प्रयुक्त स्वैयों में तो देवी पद्धति थी की परन्तु इस राम में सवैया में विविधता लाने का प्रयत्न है। इसमें बालू भाप के पदों में कुछ मात्राएं अधिक दी है और कुछ मात्रा बढ़ाये हुए छंदों में त्रिभंगी छंद की भांति यति अनुप्रास जैसी पद्धति प्रस्तुत की है। ' त्रिणी छेद ३२ मात्राएं होती है। यह दस होता है आदि में जग ८,८६ पर यति और अंत में गुरु वर्ष का होना ( । ) वर्जित है । इसके शास्त्रीय लक्षण माने जाते है। उदाहरणार्थ: वाम्मीय निशुगर लोय कि संघ समभवीजग प्राण वीजक परियत्ति भीमा लाइ लाइ धन कण क्लब स्लीय रंगि राम हवं नवरस, नवरंग नमी परे सिमी जो करई निरंतर परे परे एक विशेवशद इस रात में मिला है। वहीं मि कहलाता है। कही राय में बिह प्रकार का उत्स प्रकार कवि ने इस पद्धति को सदन कहा है। चकार वाले बद में लवण के पश्चाद जो जाता है, ना सोरठा है और उसी के साथ कड़ी में दो परिचित होता है पर उत्तराईच में उसी पंक्ति में बार बार नामी है। इसके बाद देशी सवैया का प्रयोग है। के बार प्रयोग ही विष्टि है १- मापन कवियोः श्रीवास्त्री ०२०४ Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०१ *वाय वद्धापक अतिहि सोडाणं रिसह भूमणि रत्नी आम प भविजन कलस कंचन मय मंडिबले ए लुक्स जलंजलि देवैति कुसुमंजले मंति दीप रीम जीम उतारंति जल लवण मम्हण करेति सामी सुगंध जले कपूरि पुरि प्रीय तिमि कीयलि मृग माथि महण त्रिजग गुरु गुण मिला देवा चिदेव जोउ वेलवउ सेबत्री पाडल बहुल कुसुम परमल विपुल पूजते । ।वाय वद्धमनु । । इसके अतिरिक्त गोत गोविन्द की २७ मात्राओं की देशी सवैया पद्धति में दो छेद इस रासे में मिलते है। इन सवैयों का प्रयोग पहले गीत गोविन्द में ही मिलता है: *राजल कंत । सहि नाचिनर सहिलडीए ललागीय गिरिनारे राजलिवर इलिनामपर सामला संसारो । तहि नाचिनए || अंग पक्षालि सुगयंदमइए जल पहरीय धोति प्रवीय इन्द्र महोत्सव आर्यमी तहि बयठलि बहु धनवंत । तहि नाचिनय सहि० || और इसके पश्चात् कवि ने राम के अंत में देशी पद्धति में दोहा का वर्णन किया है वह भी अपने ही प्रकार का है जिसकी एक योजना में भी वैविश्व है: afe मा मोर पूरी भक्लोईम जगन्नाथ साव पूजन इहारीय वलीका थम चुकी बाथ। यदि नाबी क्लीवा गई गिरिनारि सोमनाथ वेद यह मंदिर की बान far पीया मम रहा कि भगड़ ईम ।। तहि ना० ।। पिया हि हरीबाला बूढा रे सूरवाहे संपत मनीला बूढारे उपमा राय में मीदों के भौतिक प्रयोग है। कविने दोहा रोला, दिदी, पोरा बाद में रास रखा है। की व व मावा में बीबाई या ५ कड़ियां रोता की है। वी ९वीं में क्रमशः १० कड़ियां दिवमदी की Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ ९ कड़ियों का एक भूलना छंद है जिसमें अत्यानुप्रास का काव्य चमत्कार है जिसमें उसकी गेयता स्पष्ट होती है और यह छेद प्रथम बार प्रयुक्त हुआ है। १०वी भाषा में दोडा और ११वीं में कवि के नये प्रयोग है प्रारम्भिक कड़ियों मै १६, १६ मात्राओं का एक चरम है और फिर १३ मात्राओं की एक माली । रवीं रवीं भाषा में इसकी त्रिपदी छंद है। इसमें पोहे के साथ "ए" का प्रयोग व आवर्तन तीन बार मिलता है। इस प्रकार दोनों कृतियां अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं। वस्तुत: To हरिव को ने अपने ग्रन्थ अपभ्रंश साहित्य में इन कृतियों को स्कूट साहित्य कह कर छोड़ दिया है और इन रासों को अपभ्रंक की ही कृतियों माना है पर उक्त विवेचन के आधार पर इनका यह भ्रामक सिद्ध हो जाता है। ऐसी कृतियों को अप की कहना प्राप्त तत्कालीन लगभग सभी रचनाओं के लिप, माषा, शैली, काव्य, तथा इतिहास की मान्यतानों की उपेक्षा करना है। वस्तुतः दोनों रासों की साहित्यिकता सिद्ध है। Tổng đà đi ta đi TN HÀNH MỘT TÊN Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०३ १ 1 मयणरेहा राम्र 1 हिन्दी जैन साहित्य में जैन वरित नायकों की ही भांति जैन साध्वियों और मादर्शनारियों (संतियों) पर लिडी गई अनेक रचनाएं उपलब्ध होती है। मयमरेडारास जैन आदर्श राजपुत्री भवनरेखा की जवन क्या है। प्रस्तुत रास ५ ठवणि में पूरा हुआ है। सदियों के जीवन चरित वर्णन की परम्परा भी अब प्राकृत और अपभ्रंश काल से ही मिलती है। १३वीं से १५वीं शताब्दी में राय और चतुष्पविकाओं के रूप में अनेक कथा काव्य मिलते हैं। पूर्वील्लिसित चन्दनबाला राम की भांति मयवहारास भी सती मदनरेसा के सतीत्व, नारीत्व और पतिव्रत्य जीवन की मार्मिक और करूण कहानी है। प्रस्तुत रास जिननमहूरि की परम्परा पुस्तिका सं० १४२५ से प्राप्त हुई है रचना की पति अमयीन ग्रन्थालय में सुरक्षित है। कृति के रचनाकार का नाम कहीं नहीं मिलता है। राख की अंतिम पक्ति में दो बार र शब्द का प्रयोग हुआ है: सलह यह वयर रमन जिव मूल न जाए हम जिम बी कवि कहण न नार अतः बहुत संभव है कि वह वही रचनाकार हो, पर फिर भी स्थिति यदि नहीं की जा सकती। उत्तरा की यह कृषि काव्य काव्य की दृष्टि महत्वपूर्ण है। इस रचना का ३ बाबा प्रवाह, और था की दृष्टिसे # प्रारम्भिक मैच प्रति का मध्यवर्ती पत्र प्राप्त नहीं होने से उपलव्ध नहीं होता । प्रारम्भ दही रचना प्रारम्भ होती है। नहीं मिले और १-४ ३० ९६-२०३ पर बतियों के दो राम्र चीर्षक लेख * विस्तृत विवेचन के लिए दिन- महावती मदनरेखा के नाम ०१ बी नवनरेखा: प्रकाशक श्री जैन हिला मंडल, रतलाम श्री जी महाराज, ११५०० ११८८ १- देवी Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ मयबरेहा सुदर्शनपुर के राजा मणिरथ के भाई युगबाड़ की रानी थी | मणिरथ ने उसके असाधारण सौन्दर्य पर आसक्त हो उससे प्रेम का प्रस्ताव रखा। सती ने उसकी मार्ग ठुकरा दी। बसंत क्रीड़ा के बहाने एक बार युगबाहु सदम्पति उपवन मैं गया। मणिरथ ने धोसे से वहां पहुंचकर उसकी आत्मा हत्या कर दी । मयणरेका जिनधर्म को प्रेम करती थी। उसके पुत्र का नाम चंद्रकुमार था। पति की हत्या के समय वह अंतस्था थी । उसी स्थिति में वह वन में निकल पड़ी। इधर मणिरथ को भी सांप ने काट लिया और वह मृत्यु को प्राप्त हुआ। पुत्र प्राप्ति होने पर मयरेखा नदी में स्नानार्य गई तो एक हाथी ने उसे उछाल दिया और एक विद्याधर ने उसकी रक्षा की तथा उसके साथ प्रणय का घृणित प्रस्तावरखा। इधर सती के सदय उत्पन्न शिशु को यक पद्मरथ नामक राजा ले गया और बड़े होने पर वही नेमिराज राजा हुआ। कद्रयत्र भी सुदर्शनपुर का राजा बनाया गया। सती मयणरेखा ने इधर दीक्षा लेकर विद्याधर से अपने वील सतीत्व की रक्षा की और उसे कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति हुई। अन्त में उसके दोनों पुत्रों ने भी अपनी साध्वी मां सुव्रता (मयणरेखा) से ज्ञान प्राप्ति कर दीक्षा ग्रहण की। इस प्रकार सती नवनरेखा ने अपने शील की रक्षा की । कवि को इस करुण कृति की रचना में अनेक स्थलों में काव्यात्मक वर्णन करने का अवसर मिला है। रचना में अनेक मार्मिक स्थल है। प्रारम्भ में ही कवि नेमणरेडा के सौदर्य का मकित वर्णन किया है: धारावी ------- ------- --------- वह ठीका वनदेवी, राममर जिन ने करी उसके इस प्रकार के regate विहरवी बिन मनहर मर्मती से मर मम बीड या बहुमती भय बालवार देवि घरि कावलि हा बहती (ε-c) करम िलीला करडी, सी जिन किंपि भवंती परमविर रोक गया उसने अपना कुलस्वाम उस रे से क्या कवि ने उन दोनों के उत्तर प्रत्युत्तरों को बड़े ही " - Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णित किया है। बीच में कवि की उपदेशात्मक सूक्तियां बड़ी अनूठी है: नवि वेग पुराण सुगीजा, चिय पारि लोइ इसीजइ संपि मरेसर मंडिउ क्यू, पेखर भयक महा पड़ रख कुलि कम लोहिम वृद्धि करवठ, नियम बन्ली अंगिग वांतर हा हारव तियामि पाक पपिए भयका प्रविरिपत्ता तामह प मणि रहो राउ, भयभि महापडि गजिउ । बुल्लइ र वयम् विनाश, ण उभंगपि लागिय र बीलह ए सोवन रेस इल्लए मयमा निम्मलीय मरवर ए क्या विचार, निम कुल संपणि भनिरतीय पुरगिरि ५ मिन्हा ठाउ माथि पुराला महिला र तिहया एक्क मैलेख, बोय न मयमा मनु बल ए (०.२) और इसके पश्चात् रवि मधुरितु के वर्षन में डूब जाता है । प्रकृति के उपादानों का परिगणन कवि ने बड़ी कुशलता से किया है। मधुरितु क्या आईमानों मजरेता की बात श्री हीसदा के लिए टूट गई।बसंत कीड़ा के लिए युगवाह और पविरथ पाये। मौरकामलोप मगिरण मंगी अलवार कर बना है। वान्टी बातावरण को किनार बाबीवरसमा देखा पी पीरी गादों अपने भाई को उमा RT पोरे बच करना या दुनीय अम प्रसंग है। वन स्टाग्राममा व प्रकृति का नाम परिगवनात्मक देसिपा भारी बारी माहीमा पीडा बन-पापा पित्त बोरा पीटा पानी विता सब पर भारा पासपरिण मामार मा निसा Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मयण सरासषु करइ बज विरहिणी भा पह अवतरिया सिरि बसंत राय मणिरा इवयंपा युगबाहु और मयबरेहा की केलि क्रीड़ा और रास आनन्द पपिरथ से नहीं देखा गया। पीठी मीठी वाणी बोलकर कृत्रिम सहानुभूति दिखाता हुआ वह वही आया और भयरे मा को प्राप्त करने के लालब से पैर छूते हुए भाई के सिर पर तलवार मार दी। अतस्सत्वा मदनरेशा दीन होकर भटकने लगी पर अपने चरित्र सतीत्व की पूर्ण रवा करने में उसने कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी। स्वामी की मृत्यु पर सदन करती हुई मयबरेहा की स्थिति बड़ी करुणात्मक हो गई और सती को सताने वाले दुति मपिरथ को भी साप ने काट लिया:. जमजीडा सम खा लेउ बा को वि जलता माया चिठ सयल लोउ के लीहरि पावर कुमए न भूवक पई किया वनवासि वसंतई महिमंडति बहरि गमिति निमि दिवा भर्मता इव जंपता नर बराह मो पवमा पाय हा महोबर, सिरि मिना पाव सावि धाम होर हामि दिन मानी कि पार पला मजनम जमिन गा पुरावा होरप मीर बयर करे मा बिमा तोड मरवा भूम करे मनको मोमा रेमि fier मोमि जोगति समिरा पढेर, पाव महापरि यो परिस लिपि र मन रिजिना हि पनि रलिय विपि कार सवालिया दरमणि बोषितीय (बी-1 रमा पूरी हो जाती है। पापा बरस बागरिक Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०७ रस के स्थल स्थान मि पर मिल जाते हैं। कृति की समाप्ति निर्वेद से की गई है। कृति में चौपाई और रामद प्रमुखता से मिलता है भाषा की सरलता, उसकी तत्समता तथा प्रवाहात्मकता के लिए एक उद्धरण इष्टव्य है हरिकरि विस बेयाल, कालि नवकारि हमंती जउ रिसंती ममणरेह, उ सरबरी पत्ती बफ कति सरजति मागिर, दिवस निमि पुत्तु जबेई केली हरि मिल्हे बि, कुमरु सिरि नहाए करेई जल करि नतिणी परतु, जेन गयषि यति उलाला धरनि बंडती बीड, बेम विजाहरु पल्ला हुंदरि जमिन बार राव भविष विज्जाहरु नंदीसर बरि जम्म बार मषि बल अपीसक जिप हा पुत्र करेवि जाम भूमि पाय नमेवि देसण निषिय सयर राय मबया हाई है कुमरा सबला बिना वरि पड़ियो करती केवल ना घरेवि मयमा शिक्षित पाणी . (मकि 11-4) वस्तुतः १४वीं बाब्दी भाषा में समा स्वम इस विमा सो ब की कहीदने को मिलो।ति की महत्वपूर्ण है। वीं मगही प्रकार अनेक राम मिकी है। उवारमा महावीर राम (10) मनातरार, बाणा रास (m) सम्परमीयराम, जिनपन इरिषदहाकिम भावविषिरा मावि पर रचनाएं काव्य की दृष्टि मापारीही । ती सादी बादी में राम को दिया गया। गेगी। वारली नदी गराम विकासमन्य है। Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ _श्री जिनपद्यसरि पट्टा भिकारामः! बीमाविबाह या पट्टा भिक एक ही कथा के सूचक है। १४वीं सताबदी के पाइध में हमने सोममति के जिनेश्वरसूरि विवाह वर्णन रास पर विचार किया है। ठीक उसी प्रकार का राम • me का मारमूर्ति इवारा लिखित जिनपइमरि पट्टाभिक राम है तथा मुख्य प्रवृत्तियों की इष्टि से यह अति मोमभूति की रचना से पर्याप्त साम्य रसती है कि परन्तु काब्य भाषा और रस की इष्टि से इसका स्वतंत्र महत्व है। वी वादी के उत्तरा की रचना होने थे यह रखना महत्वपूर्ण है। इस रचना की प्रत्रिी अगरबन्दनाहटा के संग्रह अभय जैन प्रधालय में सुरक्षित है। श्री देशाईने ति से आदि त एवं समय का उल्लेख किया है। कृषि पेखिहासिक है। इसकी ऐतिहासिकता पर पर्याप्त प्रकाश डाला हुजा मिलता है। इस प्रकार यह रास ऐया गीत जो जन साधारण की भाषा में लिखा गया है। जैन पुत्रों और मुनियों ने समय समय पर गो धर्म प्रभावना की रावाबों महाराजायों और समाटो पर अपने धर्म की धम बैठाईगीर ममाव के लिए अनेक चार्षिक अधिकार प्राप्त किए भने उल्लेख गीतों पर पद पर मिल है। विशेष ध्यान देने योग्य निमें पुलमानी बावशाहों पर अशा राम के माधी मे मुख्शाम शादी प्रय कर लिया वाली प्राममा कर हरीवर कायाम करना पर निस्वीकार नहीं HिITarन मे गमकी दीपालन और ताप विना पा राई जिसका t-tarte म रद भवरलाल नाहटा.प. बीबसावा.राम किyि." Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रास में स्पष्ट उल्लेख है: कुशगदीन पुरताप रा रविउस भयोहरू जणि पबहक जिमचंवरि भूरि सिर सेहतर इसी प्रकार कवि सारमूर्ति के जिमपदमसरि भी ऐतिहासिक तथ्यों से सम्बन्ध रसते है। जिन हाल परि, जिनका पुराना नाम बना है, और जो पड़ावश्यक बाला व पोध के बता रहे है, से सम्बन्धित है। इसी का नाम जिनपदम था। प्रस्तुत गीति रास में धर्म की नीरस सैतिकता ही नहीं है, पर ऐतिहासिकमाणिकता था काव्यामकता है। धर्म की प्रेरणा सेकाधकी भाषा भाव और अली आदि प्रभावशाली हो गई है। कुछ काव्यात्मक स्थलों के उदाहरण दृष्टव्य है।जिन पद्मसूरि पट्टाभिक रास में कवि मे पुरवा रिका जिनेन्द्र को और सदवी का अनुसरण करके रख लिया है। कवि ने राम को पाव पक्सि से गाने के लिएलिसा है: हपय ठवमा राजु भाव भगति वे नर विवाह माह हो विवाए मारपक्ति भूमि म भगा माध्यामिक विवाह का साहित्य में महत्व स्पस्ट है।मामे गाकर माध्यामिक विवारी इन न पटनायों का प्रभाव पीर की साहित्याला पर पहा । बीर माल्मिीमा विवाह का मात्व पट मा है। सर पर राम कि पर कायों ग न किया है। अगामा कर शामिल थाम स्थान पर पलोड और समीर और मारिया धमकर मृत्य करती। कवि ने नीरा को सामान्य प रचना को श्रावकों सामानवाल - मे मषि की कुछ अनुभूतियां इस प्रकार भोपारा यमी महत्वपूर्ण है। mom Mruth Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदा बस पटिसयत कला संपन्न मयंक मूरि फाड बहावयं जिणकुशल मुर्विद्ध पति डल विहान् सुपरि बाउ देरारि त्य विहिब क्स गहन माल पब व विविपरि (4) क्वरिय पाट ठवन द्रदिसि संथ हरे सयत संघ मिति भाविका, बरि कर पवेड भादि विषेशर बर अवमि बिय नन्दि सुविधात पब पड़ाग तोरण कलिय अशिदि बदरवात सिरि बलमा भूरिनरी सरसह पए अगुक बवि पदी कि पदमरिति मिरवण जुगपहा विषपदमरे मात्र विउ सुपवित्व भाविदुर नररममि जय जयकार करंजि संप बर्मन और नारियों का उल्लास, रास क्या नृत्य गीत ममलागर मादिका वर्ष देविषा मिति दादिवि मिलिस विमिमा वैरागीर मारिएर बहिब मलिक नमातिय पर सवापि मानि पिर पववियुबरा विकास बोर हिमालि पर सपासागर नट नारिवामिविक परे Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३११ वर वत्था भरणेण परिय मगूगण दीप जण धवलइ भुवा जमेण अपरि साइ हरिपाल जिइम नाचा अवलीय बाल प सबद नागा सुपरे परिपरि मंगाचार परि परि शि भक्यि उबवड कति मालक पाट विल विणकुशल मुरि जिन शासपि भार्य, जमकर जिम पदम सूरे जिम तारायणि चंडु सहसमयप उत्तम मुरह चिंतामणि रयमा सिम गुरु गुम्यउ गुणा नवरस देशवाणि भयंजलि के नर पियति भनुय जम्म सारि सहा कि इन्दु कलिवित जाम गया पति सूर परमि जाम थिर मेर गिरि विहि संघा संजत्तु वाम जया जिपपवम सूरे इस प्रकार उक्त उद्धरमों मे कति के आध्यात्मिक विवाह का महत्व समझा जा सकता है। काव्य अधिक सुन्दर नहीं पर भाषा की सरतमा व समी इन्टिके महत्वपूर्ण है। इसी प्रकार का लिखित कविका जिनमरि पट्टाशि मिला है। सीपीसी बरा या बस्तु जिप, और वर्षमा पनि बादि दोनों गाणगा वियपी टा ।बोनों रमा गया वीं सादी गतराम प्रतिनिधिसी। Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ -: कुमारपाल रास : 2 १५वीं शताब्दी के पूर्वाध में विरचित रास रचनाओं में एक प्रसिद्ध रचना tage विरचित कुमारपाल रास है। इस रचना का सम्पादन ढTO भोगीलाल साडेसरा ने किया था और पुनिजिनविजय नेइस रचना को प्रकाशित किया। प्रस्तुत रचना एक ऐतिहासिक काव्य है जिसका प्रमुख विषय राजा कुमारपाल के वैभव, राज्य, उदारता, प्रदर्शन तथा संघ वर्णन है। प्रस्तुत रास्की अंतिम कड़ी में कवि देवप्रभषि का नाम मिलता है। हिसाक्ष्य में भी देव प्रभवनि का नाम मिल जाता है। पाटन के संघवी मुहल्ले के जैन ज्ञान भंडार की ० १४३५ में लिखी हुई पार्श्वनाथ चरित्र की प्रवास्ति में सोमलिक सूरि के विषय मंडल में देवप्रमगणि का नाम मिलता है। काव्य की पुष्पिका से होता है कि इसकी नकल सं० १५५८ के चैत्र शुक्रवार को की गई या मी स्पष्ट होता है कि मंडन रिजो मुगृधान बोधि औक्तिक के लेखक है, देवप्रम के समकालीन थे। क्योंकि मुगृधावबोध मौक्तिक का रचना काल सं० १४५० है अतः यह अनुमान किया जासकता है कि ड्रेस राम की रचना बाद के प्रथम दशक या दिवतीय व मैहुई होगी। पूरी रचना एक सरस काव्य है, कवि के पदातिर और काव्य प्रवा मैं कहीं भी वैचित्य नहीं है। ४३ कड़ियों में पूरी वाहनाना हुई है। रचना की व उस्लीय है। कवि में काव्य का प्रारम्भ ही महावीर, गौतम स्वामी, सरस्वती, पाली की विनय नमस्कार द्वारा किया है। कुमारपार रहे। उनके था। कुमार पाल की साधारण दोना है राज्य का प्रभाव योजन की मंति मुक्यों ने वो क्या यह पवियों तक मे अपनी पारस्परिक कमावता छोड़कर सर्वत्र अहिंसा का साम्राज्य स्थापित किया पड़ों में पेरमो, हिरन, बारहवींया, यूजर बी आदि को १- भारतीय विद्रवाः ० निजिनविजय, भाग १९८० ३२३-२२४ १- बड़ी - बड़ी पृ० ३१३ Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१३ मरवाना कद करवा दिया यहां तक कि जूं और खटमल भी मारना पाप समा गया। हिरनियों के समूह सुखपूर्वक केलि करने लगे पिंजरे के तोता मैना पक्षी सुख से रहने लगे। पवियों मैं भी यह बची रहती कि आजकल पानी की मछलियों का भी अहेर बन्द है। कुमारपाल के राज्य की तुलना बिहारी के ang arrer सो किमी दौरव वाघ निवाच- से हो सकती थी । उसका राज्य में साप कोज और यहां तक कि कुत्तों को भी कोई नहीं मारता था। कवि ने कितनी सरसता से इस प्रकार के चित्र उतारे है: पहिल परी घर पare गिरि मे समाया, कुमर विहारह कर भगति सवि मंडल करामा सोवन ने पूतली प मई मयाल दीठा, संगलि कुमर नरिंद राय प्रेम सूरि बुकावर आहे बारिल सयलदेसि राय धम्मकराव वरिल नेमि जिम कुमर पालि डागर दिवारि छाती बोकड़ कर बात वाढरि बैधावई, बसला नावइ कलियारे अजरामर डुबा लडिया दहिया करई आकि पारेबइ बहीमा, माम हरि रोक र मन मेर ater उमर मरद राज रंगि मावई बीव बूम म मान की कोइ कहवि न मारद, हरिया हरिमी करई केहि दिन मार लामो व ईटाननिवि र माई बीfe रवियादिति, सीमति डू बारह, र सोधानवि मार कावरि होल मम पानी मावि वि are it r वर मोरडीय बधावई, माई हो कुमर पाठ अन्य मरम न जावई Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाग सप अनइ सुबह पार कोई नावि पास न पर बर मारिदं राजि पशिडीब माना ऐसा था मारपात का राग्य। जिस शिकार से दारथ को पुत्र वियोग होकर मरना पड़ा उसे मारपाल मे च करवा दिया जिस इयून कीड़ा ने मन को सब कुछ बार जाना पड़ा, कुमार पाल के राज्य में ऐसा मा हेय समना गया। जिस मइयके कारण समस्त यादवकुल बिनाको प्राप्त हो गया। उसे लोग कुमार पाल के राज्य में स्पर्म करना भी पाषसमकने लगे। पास अवम में जिस प्रकार सुवास और प्रेमिक नामक रावाजों को इस मिला उसका कुमारपाल में निमेष किया। गणिका गमन पोर पाय था। वैश्याएं सती स्त्रियों की पाति बन गई और जिम पूजन करने लगी। चोरों का उपहन संपूर्ण देशमें कहीं भी नहीं था। पानी नगर में तीन बार वितरण होता । विविध प्रसादों तथा विहारों से रागा ने माडिलबाड की सोपा में अपूर्व वृद्धि की। कवि में इस वर्षन को अत्यन्त सरल भाषा में प्रस्तुत किया है। काव्यगत सरसता पद बबन और वर्षन की चामत्कारिकता हनीय है। अक्सि का मगन गाय की रक्षा और किसान सी पारधि बीकन पोजीशपाया गोड पारपि बाहर कियो हार नरेतर किमान बार मा भार, परवीन माम मार मामाची पो afrker बार बार पनि होश भासी बरि लांसारि, मारि मावि स खां, मवि को मार Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१५ मणि सदासराव पामि दुहसेणीय, बीठी मरगड वणीय भूमि नइ पुन सेविय afe मोयन तह दंड बत्तीस विहार, राय करावइ कुमर पाल जगि ठिहुअन सार दुक्म मदिरापान तमइ जायव कुक नासो, किरितं दीवायणि उदक देवि मारवड विणासो राया देसई नीच सबै हिम मदिरा मेलाई, मतवाला नवि मधु करई मलीन वेल गणिका गम निवारई ए नरवई निय राजि, डविन लोग लागवि काजि वैवा कीथी भाइ सरिस उई कुमरठराय तर पण पूजई जिनह मुक्ति वंद गुरुमाय arraries गम रथ जो पुरित अन्न, tres fes मन माहि जिम वणीय क्सन (trate) मगर वर्णन और संघ वर्जन में कवि अपनी बानी नहीं रहता। भवनों से निर्माण क्या उस समय बचनीरकृष्टता को प्राणी विविध बाइयों से निमावि अनेक राजाओं वर्षीय था। विविध कार बंद की पोषा बढ़ाने बवार्यमत्र या श्रीकृष्ण या मल नृत्य गान, तब का लोगों को द्वार के संपका देश्व और नगदी व का हम को देखकर गरय, या प्रकारका या स्वर्ग है इस प्रकार धीरे धीरे होने चामा पनि की मिरवार में, वनस्थली में हावीर की, नागौर में पापना की, दीव कोडीनार में सोमनाथ तथा पाटन में पार्श्वनाथ की की ओर इनकोटा। कीता, चाचा की सरलता, का पाया होने के या विविध डोबोरियों का तुम्बन प्रत राय का म Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बा देते है। कुछ वर्षन देखिए:नगर बर्मन मोवन धमे पूतली ए आपण जोमंदी निस्वम कविहि आपणइ ए बियण मोहंती हीरे माणिक्य चूनडी र पाधर संध्या निम्मलती विवरानि आइमिर पडिया मंतिय मोकलि देखि देसि बहु संघ मेलाबा, धामी बहु भासीस दिई राउ बात चलावा (१-४) वादय नृत्य गीत वर्षम: महब बेसह बड़ब देसा अंध तिथि विष प्ररित पानवि पि मा वि बच्या गाई थाई सलिम भरी संघ लोक आदि मम्बई हामि हामि बधाविई शिव मंगल चार पर बरसई मेह शिम बानि मागि वि क (७) मिलिया क्यानाडा पनि सवसमा गावीय बासी मलति मी माया परी रानीगा पारी माली बीरराव 'गाया मारे र बाषि (१८-११) मारा विधि र विगी यायो Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१७ इसी प्रम का दृश्य प्रस्तुत किया है : चालीय गयघड माल्हती, प भारती मद वारि, होगी समंवा तुरव ला रहा सई च्यारि বয় আৰু অতীক গন গান্ধা मंस विवन्जिय मिलियलोक कोई जापइसार कि अह चालित परत राउट कि सगर मारियो राया पडा दमन भट्टा कि कम गोविंदो। राया संपही दमन म कि वादीसह नल नरिई कि देवहराउ, प्रति उपम्बा गोयंता ए नरवइ सुमदार (10-1) कवि में पूरा काव्य रोलादों में लिखा है। बीच में,बस्तु ठंड का भी कर प्रयोग किया गया है। वस्तुद का एक उदाहरण देखिए: मारि वारी मारि वारीय देस बढारि देस विदेसह तिकरि भबिय लोकजिणि जत्तकारिय पक दाई चाहीसह राय विहार किय रिविध सारिख पोगा की बेग यि जमिनीचा सवार छ महोद गियुम मर गरि राब) बस्नुसः पूरी रचना को देखते रह का ना बाकाय मारपाक का परितकाम, वि उसके जीवन विविध घटनाओं और महत्वपूर्ण गोबर सिगरमागमा विजय व परिलवित होती है। राजका विविध उदाहरणों और स्वाभावगमों पारस्परिक Tatो सामाजिक शान्ति का प्रतीक है। कि इष्टि और विष्टि में भी प्रस्तुत रचना मे नाकारी को मगध, कौशाम्बी,बाराक, माटरीपुर, गुवराम, विन्धु बाला, कगानीरस, पारि, मान्हर, पासवर माविदेशोंबा मारोबायोग मा Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८ संघ उत्सब वर्णन जैन समाज का सदैव से ही सांस्कृतिक पर्व रहा है। कवि ने पूर्ण कौशल के साथ इस छोटे से काग्य में सबको सजाया है।रचना की भाषा सरल राजस्थानी है जिसपर अपक्ष का यत्र तत्र प्रवाह परिलक्षित होता है।मदिरा, पान, युजा, वैश्यागमन, चोरी आदि सामाजिक कृत्यों को भी कवि प्रकार में लाया है। प्राः राम सभी इष्टियों से महत्वपूर्ण है। इस काव्य को कवि ने यद्यपि रास संज्ञा दी है। पर रास के नाम पर केवल कालान्तर में परिवर्वित प्रवृत्ति अधीर चरित प्रकाशम को होड़कर अन्यबाते नहीं मिलती हैं। संभवतः १५वीं शवादी राशक रचनाओं के शिल्प में परित गम्यों को ही स्थान दिया जाना होगा। क्योंकि रबमा रास, नृत्य, लय,अगल भूत्व मावि वर्षम नहीं मिलते। न कोई रास ही मिलता है तो यह कहा जा सकता है कि राम, बाल, मा युगल नृत्य के वर्णम तथा रास छन्द की उपेक्षा कालान्तर में होना प्रारम्भ हो गया होगा और रास संज्ञा केवल सामान्य चरित मास्यानक काव्यों को पी दे दी जाती होगी। साथ ही उसका नामकरण पूर्व रासकाव्यों की पाणि रास संक्षक श्री रखा जाता होगा। रचना के अन्त कवि ने परत बास्यों के स्म में मारपाल के इस राख काव्य को अमो मो शक प्रचारित रहने और अमर होने का भाव दिया है। बब तक गुमेकप अपने स्थान पके, बब का से, बब कलाम भूमि और सागर का पार गरमा सेर बहार विद्यमान या जबरा निगेनाममार पा राणाका मा रायर मानबको प्रा . मामाह बाब, -झिायर बनायुमा रामनगर यह सिपाना मावि और नियत होए, पौर निती र राम मंदा लोष इस प्रकार नबावों मारा गी मे क म या । टाबार। भाजी विकगडद बम भावपूर्ण Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१ : है और स्वार्थवर्थ प्रदान करता है। कुल मिलाकर रचना छोटी होते हुए भी रास संज्ञक रचनाओं के शिल्प में वैविध्य प्रस्तुत करता है। अतः कृति का महत्व और भी बढ़ जाता है। Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० : पंपान्डव बारित रा: १४वीं शताब्दी में प्रबन्धात्मक ईसी में लिखे गए समराराम के पश्चात ५वीं साइबी की सबसे प्रमुख कृतिश्री शालिमासूरि बिरपित पंचपान्डव परित राज है। राम परम्परा की यह राम एक प्रमुग की है। विद्वानों ने इस कृति पर किंचित प्रकार होता अवश्य है परन्तु स्वतंत्र रूपमें हमें इस रचना का पाठ हाल ही में प्रकाशित गुर्जर रामावली प्राप्त होता है। सम्पादकों इस पाठ को बड़ौदा की एक प्राचीन प्रति में उपलब्ध होने वाले पाठों में से एक कहा है। रचना वीप्रति महाराज जसविजय के पास सुरक्षित है। शालिमसूरि परतेश्वर बाहुबली के रचयिता से भिन्न कवि है। अब तक उपलब्ध साओं में मानव पारित रामे वर्षय विषय, क्या-वस्तु व और भाषा सब इन्टियो से नवीन योग दिया है। पालिमसूरि पूर्णिमामा या रास नर्मदा के किनारे स्थित नालद्र नामक नगर में लिया गया। कवि में स्वयं भी अपने समय के लिए परिचय दिया है जिसका उल्लेख सम्पादकीय में भी मिलता है। . भाविकालीन हिन्दी जैन रचनाओं में अब तक हमें धार्मिक स्थानों परित नायकों, पुराण मोउपदेशों प्राविाि विषय बना ही विवेन मिला पिराकमायाम को क्यामराम स्वीगर करने वाले की पालिसहित अनुब राम पानों पायोनि महाभारत का राय पति वेनिस मारा विगबो मी मिलता है। - चान्स बसिर्जर रामावली बी.एससी-11-बोदा ...४ Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजराती विहवानों ने भी महाभारत लिखा है।पंच पान्डव बरित राज की कथा महाभारत की कथा से मेल तो भाती है,परूतु कुछ रचना स्थलों घटनाओं और प्रमुख पात्रों को कवि ने अपने जैन धर्मानुसार मोड़ा है तथा उसी के अनुसार उसकी सृष्टि भी की है। रासकार ने प्रमुख चरित्रों को जैन परम्पराओं के ताने बाने में उलझाकर क्यामन प्रस्तुत किया है। पूरी क्या . वणि में विभक्त है। बामि शब्द सर्ग विभाजन का सूचक है।भरतेश्वर बाहुबली राम,' भयपरेशारामादि बनि का प्रयोग मिल जाता है। प्रत्येक व्यमि के बाद रासकार ने बस्तु दिवा है। सि सिम व्वपि को मोड़कर जिसमें उसने वस्तु र अलम नहीं रक्सा। कवि ने व्यपि और वस्तु को मिला दिया है। कवि ने राम की स्था का प्रारम्भ नेपिजिन स्था सरस्वती की वंदना करने के पश्चाइदिवसीय व्यामि से ही किया है। गंगा और शाम्चनु की बंदना करने के पश्चात दिवसीय बापि में ही दिया है। मंगा और जानन का प्रेम स्या मैमा का उनकी बोरी प्रकृति से जाना ब उन बोनों के पुत्र मागेब सहित हम चले जाने का वर्णन मिलता है मात्रम में शाम से शिकार के लिए विरोध करता h. कौषल बहितिी बोबडी वीर मि निराज मोटर चला रोरिकी रापीमा , प्रिया पारिधिको बीब या शिपाया, बोषि बारम मि सपा ' या बानकर मंगानन्दन ने बोरी पिन को और रोग को क्यार हो गया। बा ने बार दोनों - १. खबरकाको रामारी दी। ससीमा क -४०१00-१० Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ को वान्व किया। गंगा के न आने पर शान्तनु क धीवर कया पर मुग्ध हो जाता है और राजा को प्रतित करा चीवर अपनी कन्या सत्यवती का विवाह उनेक साथ कर देता है। वर्णन की सरलता दुष्टव्य है: सालि सामी अम्ड पर सूती, तुम परि ग गंगा मूती मई बेटी जर तुम्ह देवी, उर्मि दूढ परेवी कुरुवंसह केर डणु, राज कोसि गंगा मंदणु १ धी महारी या जिवाल से क्षवि पावड इस काल सत्यवती के दो लड़कों में से पहला कर्मो के दोष से बचपन में ही मर गया व दूसरा कुमार विचित्र वीर्य हुआ जिसके काशीराज की अंबा, अंबाला और erfer तीन कन्याओं से विवाह किया। जिसके क्रमशः विदुर, मान्डव इतराष्ट्र हुए। राष्ट्र ने गाधारी से और बाड मे बाही बेविवाद किया। इन्ही कर्म कुमारी अवस्था में उत्पन्न हुआ इसकी अंतर्कथा जैन महापुराण में १ एक विद्याचर की बडी से सम्बधित है। वही कवि ने इतना ही वर्णन किया तभी पाप करते है। कर्म मंजूसा में डाल गंगा में महा है कि किस प्रकार दिया गया: परिनीय वापी पै कुमरि आयीय विभ सरि ति पति हुई इत्युबा रमणी कीव पाति कई ब्राय कि रो इधर गंधारी के १०० कौरव, पाईरहने सर्विस और राजा में | अर्जुन उतरे है कवि में महा में राज्यों के प्रदर्शन का आयोजन पर किया। धिन्किर को भाव में, भीम दुर्योधन में गवा- युद्ध हुआ, १० बी ०२ उत्तरा ० १५० १०४ श्राचार्य, पारखीय ज्ञानपीठ काशी। Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और कर्म में वन्द अर्जुन के इन बाद वामों से नहीं हो सका: अरजुन बोला, रे भकुलीम, अरजुन मिति भई हीन मारजुन सरसी मैडिन कीड नियाल मानि गरव बहीजह इम बापण पणे बबाल, मोलिन नियकुक गई प्रमा मई गंगा आगमना दीस, लाधी रकन मरी छ । अखाड़े में पी अर्जुन बिजी हुए। इधर द्रोपदी का स्वयंवर होता है और पागों पत्तियों से विवाद होने का कारण चार निवाद को पूर्वजन्म से सम्बन्धित बनाने है। प्रत्येक पान्डव की मारब द्रौपदी माय अबधि बांध देते है, उल्लंघन पर अर्जुन को वर्ष बनना पड़ता है जहां वे बेतया पर्व पर माविनाथ ग अभिनन्दन करते है। वही अपने मित्र बद्र की बहिन की ये बासा करते है। मागे कवि ने पाडवों का मा में अपकर्ष व वनवास सिाया है। सभा में द्रौपदी का बस्त्र हल होता है।मागे बनबास में पीप का राक्षसों को मारमा, हावाह से बबना, भीम का हिडिम्बारे विवाह वर्णन मिलता है। इयाँधन पान्डवों प्रियंवद को भेजकर पुन: सहावा मागता प्रौपदी स्वध होती है। फिर अर्जुन विशालाब नियार लड़के को डरारोग्राम मते है। धन की बलि के प्रति मे बोपनी का व विमा सेमी है।इबाँधन ने पाटों बिमारी पोली। what त्या राती उन परोही। नारापाड मा म विराट के पास शादी का विचार मौन के पास गए। माँ माना। मकर सोश कातिम व्यपि मनपानीमा म प्रमन्या परीक्षितको हस्तिनापुर का राजा मार दीवा र उनका पूर्व पब, पुरवि, संतम, और सामानों पट करता है उन सक्ने गयोपर wीगरीमा खबर के न होकर पायी मायावारिसमा Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और अब पूर्णता को प्राप्त हुए। इस प्रकार सम्ध्य भागमारा को कवि ने .९५ दो में संजोया है मामा की सरलता,जन साधारण के लिए रास का बोधगम्य होना तथा पौराणिक स्थानक को नई रेखाओं में पाना कवि की प्रतिभा के द्योतक है।पात्र बाड़े है। पाचौँ पाइब प्रीषदी, ती बाँधम कर्म आदि। पात्रों में यह माव होता है कि कवि ने Bा असा दोनों प्रकार के पात्रों का वर्णन कर अमन पर सन की विजय दिखाई है। कवि के प्रयोग मौलिक है। जो भाषा की दृष्टि से मध्य कालीन गुजराती वा राजस्थानी के भौतिक प्रयोगों वामाजिक तथा सास्कृतिक वातावरव प्रस्तुत करते है। जहां तक क्या दि और कथा परम्परा का प्रश्न है कवि ने दोनों का सम्यक विवाह मौलिक अनुबान के भय में किया है। पान्हनों की क्या परम्परा का प्रारम्भ अप साहित्य से ही हो जाता है। ओरिएन्ट रिसर्च इन्स्टीट्यूट पुना में पुरवित हरिवंश पुराण के यादब रु युदध और उत्तर इन चार काडौं में कुल गादव कायों में पान्डब चरित वर्णन मिल जाता है। जैन महापराक में पी पाण्डवों की क्या का मेलिनाथ के प्रसंग में आदिक उस्लेख मिलता है।बामेर बात का किस महाका लेखक को मिला है। विवि ने पनि पाल्य या मि। इस प्रकार या परस्परागों C M परिवारो । राससमागर नकली घर सापटमाओं का योग्य किया था मोवाणि मोड लिएको गाय माया पौवा की ष्टि करते है मा महापार विवि में बाग मापार महाभारत की रक्षा पर पी चिकिमान सा का प्रमाद सर्वत्र स्पष्ट to बागोरी का विरोध कसा वा कम पिक मान, गायक प्रेमी होना ब बैग स्वीकार ना ar Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपने हिंसक पिता से युद्ध करना ।ती व पाम्ड के पूर्व प्रेम ब संतानोत्पत्ति का प्रसंग। वर परीक्षा व राधविध का बसंग। १. प्रौपदी के स्वयंवर में उसके हाथ में जयमाला पाचों पान्डयों के गले में जा गिरना और चाल मनि का दुपद को द्रौपदी का पूर्व भव समभासक अदृश्य होना।' हरिवंश पुराण में कवि ने अहिंसा से साबित हो मत्स्य बंधक के स्थान पर धनुक बढ़ाने की ही कल्पना की है। पर प्रस्तुत रास में मत्स्य वेध भी है व जयमाला बरण भी। अर्जुन का अनवास में वैतर (वयहढह) पर्वत पर जाकर आदिमा को नमन करना और अपने मणिपुड़ की बहिन को गाकर पुनः उसके पति को देना। युधिष्ठिर का राजसूय या में शान्ति जिनेन्द्र की प्रतिमा का अवस्थापन करना' प्रियंवद का प्रसंग त्या पाण्डवों का पुन: अपने स्वम को प्रडम करना। पान्डवों के जाने पर कुन्नी व द्रौपदी का नमोकार मंत्र का ध्यान करना। पुरोहित का पान्डवों पर हत्या छोड़ना तथा पुलिंद का आकर कृत्या से उनकी रवा करना। कालकुमार ब जीव मा का अग्नि विसर्जन। पान्यों को मेमिनाथ के उपदेशों से मिव होना तथा पीया प्राणा दोष का पूर्व पन बहाना बरमको निर्वा प्राप्ति होगा मावि पटमार गालि राम में अनेक विलोम पापा। परना र सम्ब - गो Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ अभिव्यक्ति की इस काव्य की कसौटी है। राजपुत्रों के वन्य युद्ध उत्साहमूलक मुद्राओं का चित्रण बड़े प्रभावशाली बन पढ़े हैं: # afe feet साडा सरमु, केवि तुरंगम जान मर चक्र दूरी fafe areल पालय, किवि इथियार पडता फालइ पहिलं परम धरमह पुत्रो, जेड रहई मदि कोई शत्र म भी गया बेर व दुर्योधन मिडड इकड लोह पुरुष छड बक्रि पाच वाव न तुरंत राधा वेध करीउ दिलाउs, तिकड न कोई तीन अबाउड वीछे की मठकर, मरतु पापड करि भाइ रोसिया, रमर जोई देवी देवा efer aures गाजर गय हरिइ जीवइ जय जयवयण डीया चढवक कायर लोक संततमा मन कर सकोक जावे मी पहि(अ) अकालि जाने मुंद्र तुम्बा कालिकाल (स्वमी ५ g०१४ ) कवि ने स्वयंबर, नगर तोरम, अनेक वाइयों और उत्वों का वर्णन बड़ा प्रवाहपूर्ण बन पड़ा है: arata न हि भीवान, बिनवरो ि म पानी पेड़ मरि कीवा पोरण बंदरात नयी * बामप विि गमि मय ली सोनम व पोलिस पूरानिया प दिवादि परि परि होली ए बंद मरि पवार गरिव किरि मगरातरि वरी कवि के और पुरुष दोनों के रूप वर्षन में कलात्मकता मिलती है। पा का ईयारी है। होने नयन, सुरभित करी, किस्तूरी करके नहरों की इन मौरी की मत कर बरसी में Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२७ नूतनता है। स्त्री और पर दोनों के रूप वर्णन देखिए: दुबद रायह पद रायह समी कुंवार त स्पह जामलिहिं जिकडं भूमि का नारि नत्थीय सीसी कदर कुसुम कावि नेउर मलई ए नयन समीय काजल रेड तिलठ कसल्यूरीय मवि थडीय करमले कंकण मणि कमका बादर फालीय पहिरन र ई अहर बोलीय इदी बाल, पाम नेजर और पुरुष वर्णन में: समर बाल अनुकंठि कुसुमह माल अनुकंठि कुसुम मा किरि ई यमि भाषण बाबी कोड ईड चंद्र मरि सगरि म इम संभावीय इ (ठवणी ५ पृ० ) क्रीड़ा में हारे हुए पान्डो को और सभा में द्रौपदी को पकड़ कर बीच कर लाने का कवि ने अत्यन्त प्रभावशाली वर्णन किया है। माया की सरलता और वर्णन की चित्रात्मकता से वर्णन और भी सजीव हो उठा है: शक्ति राज विरह मनमानी प हारीया व हाथियं बाट भाईय हारीय रजिस्ट हारीय हक्क चीय उदावि उवि मामरण प ग्रामीय पति परेविदेवि सासर पिडिए बीयर कारि इरीय आदिम आदि उपनिषदि इन प्रणय दिवसरा (-) कि बीट काढवी पीक मोटवर का वाडीय प (ठवणी ६ पू० १७) और भी अनेक काव्यात्मक स्थल है।मदी का कपमाजनक वर्णन कवि ने किया इस बनकर पाने पर भी इन उन्हें पुती है। पिकवाव विन पानई शुष्क उत्तर देता है तो महामुदुध की तैयारियां होती है द्वारा दृश्य उदध में बदल जाता है, मीरता एवं उत्पाद वर्णनीय चित्र कवि धन इम वि Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ ने उरहे है। अन्य वर्णन और युद्ध की प्रतियोक्तियों तथा चमत्कारिकता इरयौनु अति मत्सरि बढीउ, जाई परासिंध पार पडीत पु राई पहिला दिउ अमेवाइ पंडव का दल जिममाए ईशा मेनानी मंगउ प्रह बिसी उडिया बल बेर (प.) हाथी घोड़ों और अभय पैदल मा का अंध वर्णन, सिरों का कट कट कर गिरना और नाचना, सामंतों की गई मिश्रित भी क्षेत्र को और भी उस्सा पूर्व बना देते है।वन की आलंकारिकता तथा अनुप्रासात्मकता देसिप: दलझिीया कलगलीन मुहट गयबर गलगलीया घरा प्रसकीय सलवलीय पेश गिरिवर टकटलीया रमवनीया पनि सदर बरु जानीर हय गबर गरि भवीय रेख उडीर जा पीर पडई बंध चलवलई विंच सी मिमि गण साधई गमवरि गईवा तुगि गुण राय रख सई मिड रखवाई मी म जिम मम्बाई कई बार मना मिस भब पूरा गडनारा पाग समयमा रोकि मि ब मा गौरी मीसा इस्टम है। वीनmविनि , मोचन बोबा का वर्णन पार पाना मारिन पोला म मोविदिति रामरणि मा पारी पनि कम Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२९ ल्युशकुनि ने हनीय बेगि नकुलं सहदेवि सरवर मीहि कढावी दुर्योधन देवि राइ सनाडु समोपीय मीमिति मिस इ गदा पहरि हमीय जांच मनि साइ फोडिल सी विडी त तानु छेदी साधी पाय पराभव न प्रवेति गति मा विराधी (४० ३०-३१) इस प्रकार श्रृंगार, करुण, वीर, रोद्र, बीभत्स आदि भावों के चित्रच कर अन्त में पान्डवों की जैन दीक्षा द्वारा सम्पूर्ण रास का समाहार शाद और निर्वेद भाव में कर दिया है। धर्म घोष का गठन उल्लेखनीय है : कपड़े केवल नानु सामीय ए नेमि जिनेसर साली धामि वा विरत बसावय तु धरई ए बातीय देखि मारिनीकि प जाईल जि नमई ए ---- सामी गनहर पास पांच ए हरिविहि तु लिई प 141 ates ye sitter पिप ममी प ret विचार वर्तमान क्योर पापा व अपर मावति कु बीज वी कुता हिनकी लिए पत्र वियर ह प पवि र सिवपुर पानिकार पाडवा विनिरखा बारच व समषि देवी विजय व मीडन चिदिप बबार (१५-१० ) Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० इस प्रकार युक्त उदधरणों में स्पष्ट हो जाता है कि कवि ने कई घटनाओं का परंपारित वर्णन करते हुए भी मौलिक सुजन किया है। प्रस्तुत राम के दो का वैविध्य है। पूर्ण रचना १९ उवनी में विभक्त किया गया है।इस रास की अवधि में विशेषता यह है कि उसका अनुगमन बस्तु द करता है। भरतेश्वर बाहुबली राम के दो से इसका पयाप्त साम्य है। प्रथम बपि मा उनी में ११ कड़ियों में मामा था सी कड़ी में बस्तु ७८ है। दिवतीय उपमी में चौपाई तथा उसके साथ दिवपदी भी है अतः यह मित्र बंध कहा गया 'तृतीय रोला चौथी पावनी में हा चौपाई है। छठी बनी के समवरण में दोहा तथा विश्व में चौपाई सम परम के अन्त में ए मिलता है। देशी सवैया की माति प्रयुक्त चार कड़िया भी इसी ठवणी में मिलती है। पुनः समवरण मेदोहा और चार चरमों के साथ एक हरिगीतिका भी मिलता है। और बस में बस्तु द है। जिसके बाम से ही या का बोध होता है। वीं में सोरठा और 6वीं बढ़ियों तक शुदध सोरठे मिलने है जिनके विस्य पद में अनुप्रसा मिलता है। वीवीं बनी तक चौपाई ही मिलती है। वह द सबके साथ मिलता है। इस प्रकार कति रवैविध्य इस्तियां- राम में अनेक प्रविन परियायो सनीय, लि बनाया गया -और प रि . ११.४ Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३१ (२) ऋमि अपि जुम्वणि तिथि पसरीजा बीजतणी मसिरह विम (७) कीजइ पातक प्रश्यवति का लाज किरीसं (४) वाचई पंचइ चंद जिम पंडव गुण गंभीर (५) मंच चडया सोहह जिमचंद (6) कुंडल सरिक लायो बालो, रंकु लाइ जिम रथम मालो (0) कि न कीजा शनि अवसरि लापड़ परमवह (८) देखे न गिबई देव गिणह प्रश्नइ पात्र संताप मुयमह करई पश्य हीन जिमराय रोलई दारिद्र हुक्म केह परई तृष्णा किजि गिरि सिडक ढोला (९) 'मिडइ सहड रहबढई बीम घड नह जिम नम्बई इसई नई अससई वीर पेमल जिम मन्नड प्रस्तुत रास की भाषा सरल हिन्दी है। जिसमें प्राचीन राजस्थानी, यूनी, गुजराती आदि गइयों की बहुतायत मिलती है।अपने माबों को सरलतासे ज्यात कर देना और अपनी अभिव्यक्ति में पूर्ण ईमानदारी रखना तथा उसे क्लिष्टता सेबचाकर जन साधारण के लिए गुलम बना देना ही पब्ने कवि एवं उसकी कविता की पहिराम होती है। मापि इस नाबालक भागरिमा लावापिया नहीं, पर वो भी बाबा का काम है। पिपरा और नहोस मामय बालिया। मामी के रामरतेवर मावली के बाद मारपूर्ण भाषा में बन पायों को पदावली निगल वैमाने पर बोंबाबा ग्वारप मिल जाते है। बामा मापर भारी पार पाडव अपर परीयो (Vris-IMIM, कोमल वार्षि हरिपी बोला कि पति Com mar, अपि अधि वी गरपियामि, प्रिय पारपीट बाबाईया Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४) साठ गापा जिन धर्म मागों मनि जुषण लाइ विरागो गंमानन्दषु परिवार (4) प अमारा कुल सिणारी, सामी अer मारी कक वसा केरल मंडराव करेगानंदम् । (१) इथिमा उरि परि र नरि मेरो कुल मंड सहचिहि संतुहाग पीला नरबा सेन्ड () जनम महोण्य परकर बाबा अपर बाल इंडहि वाया गयणबहे घर मिहि ताल कमाल (6) मिस दीपा दरबोधनि भीमह पोजन माहि, बमुख हुइना परिणापि पुन्निहि इरिख पुकार (९) अरजुन बोल रे बकुलीन बरन मिति मीन विगुरि पियरि देव विला. पंडव वणवाड (.) रे राम पु भागलि बाल मारिषि उरत पूगर काल वा मासिालीम हिन्दी भाषा का स्त्रीय म धीरे धीरे सिरा किन किस गइयों नहा गया उन अब नोटों की बना इस उपाय हो जाती राखावाब पान्योतिर प्रकाश डाला। शिरिस कवि meeी माया : की दो मा यो गुगल सर मिन सीता नापि . सकरावि र (५ स्वमी अभिनव ) मगर कमिली शिल्प और भाषा की दृष्टिक गान्टा वाया। Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३३ गौतम राम ! र्वी शताब्दी के पूर्वाध में पंचमाम्डव चरितराष्ट्र के पश्चात् काव्य सौष्ठव तथा प्रवाह की दृष्टि से एक अत्यन्त महत्व पूर्व कृति गौतम रास है। मामा, मा तथा काव्य इन तीनों ष्यों में यह कृति अपने पूर्व है। १०० वर्ष की प्राचीन रचना होने पर पी कृति का पाठ इतना अधिक लोकप्रिय है कि आज भी मारवाड़ी जैन श्रावक (तरतर गच्छीय ) इसका प्रतिदिन पाठ करते हैं। रात कई बार प्रकाशित हो चुका है। सर्व प्रथम श्री नाथूराम प्रेमी और परचा श्री arent प्रसाद जैन ने इस कृति के महत्व पर प्रकाश डाला। डा० रामकुमार वी मैं भी अपने आलोचनात्मक इतिहास में इस का उल्लेख किया था। इन विद्वानों ने उदयवन्त पनि इम् मणे और कहीं विजयभद्र मुनि इम् भने पाठ मिलने से रचविता का नाम ही उदय या विजयपद्र रख दिया पर वास्तव में ऐसा नहीं है। २ स्वामी रामः श्री eaf देसाई मोहनलाल तथा श्री अगरचन्द नाहटा ने कर दिया है। रास की है० १४३० की सबसे प्राचीन प्रति भंडार में सुरक्षित है। जिसकी पुष्पिका में : इति श्री गौतम सम्पती बिहारे श्री विनय प्रमोगा ध्याये कुछ मिलता है है कि रामकी रचना १० १४९१ में भोजन स्वामी केवलज्ञान प्रावि पर संग में श्री विवका उपाध्याय ने की हो कृति के पीने मार मिलते है तथा विभिन्न प्रतियों में पदों की थी कि है। यह संगम ३-हिन्दी ४-हिन्दी ०११५ १- वाडित्यः बिहार राष्ट्रमा परिषद् में प्रकाशित ही अगरबन्द मास्टर का गौ स्वाची का राम व उसके रचविता पाठ ० २०९। त्या श्री माधुराम मी सं० १९७३ संस्करण ० ३५ विश्वका प्रेमी ०. १९४७ संस्करण ० ६५ का मन इतिहास: डा. रामकुमार वर्मा, दिव०स० प्रकाशित साहित्य श्री इस भूल का परिवार बीकानेर के बड़े ज्ञान . -: श्री गोवन हाल देखाई भाग पृ० १५ बिहार राज्याचा परिन्द्रः श्री गौतमरासःश्री जगवंद माइदा का व Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ रासकार स्वयं प्रसिद्ध मुनि और कवि थे अतः १४३० की कृति में उपलब्ध पाठ से ज्ञात होता है किवासकार ने यह पाठ भी सं० १४१२ में ही म स्वामी के बैंक कैवल्य महोत्सव पर्वपर लिखा हो । प्रति कीमतिलिपि जपयजैन ग्रन्थालय में उपलब्ध है। १ प्रege Te afta मूलक है। प्रसिद्ध जैन तीर्थंकर महावीर के प्रथम गणधर गौतम की साधना का इसमें विस्तृत वर्णन है। घटना प्रधान और पाव प्रधान दोनों का मत है। रास की क्या विचित्र घटनाओं से संजोई गई है, जिनके वर्णन में कवि का काव्य कौशल अपूर्व परिलक्षित होता है। गौतम का मूल नाम इन्द्रमूर्ति था व गौतम उनका गौत्र । नगध प्रदेश में राजगृह के समीप बबर गांव में उनका जन्म हुआ । उनके देह की ऊंचाई ७ हाथ थी। इन्द्रभूति ५०० शिष्यों के प्रतिभावाली एवं असाधारण विश्वान गुरु थे। एक बार श्री महावीर स्वामी पावापुरी भागे वहां उन्होंने भ्रमवसरण बनाया। हजारों स्त्री पुरुषों व देवताओं को वहां जाते देव गौतम को जयने ज्ञान पर दंभ इजा । वे ५०० शिष्यों सहित महावीर स्वामी से शास्त्रार्थ करने पहुंचे। महावीर ने उसका समाधान वेदों के मानों के किया। इन्ति ने महावीर से दीवा मन कर ली ५०० विव्य भी दीक्षित और गौतम प्रथम गणधर कहलाये ।अनुक्रम से ११ प्रधान वेद माताओं ने महावीर का विम्बत्व स्वीकार किया। गौतम के अतिरिक्त जो भी महावीर के वित होता वह ज्ञान प्राप्त हो जाता था। वीर्य का भाव के मन्दिरवालों से हटकर मौतम ने रास्ते में एक पात्र मैं मनुंठा इवाकर को बीपी व बीर डिलाई बतः मे ५०० वापस ही हो गए। ५०० को महावीर का समवसरण देते ही कैवल्य हो गया ।इस वर १५०३ मी हो घर पर गौतम को केवल ज्ञान नहीं मिल सका क्योंकि महावीर के प्रति उनके मन में सार राग था। ७२ वर्ष की आयु में गौतम की निकटवर्ती ग्राम में उपदेशार्थमेवर महावीर ने निर्वाण प्राप्त किया। गौतम को की पीड़ा हुई उन्होंने धोया महावीर मे अन्त समय में मुझे यह सोचकर कि मौन मालक की तरह पीछा कर उसे पश्य मानेगा दूर मे दिया। मुझे बीकानेर। Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३५ लावे में डाल दिवा, सच्चा स्नेह नहीं किया। विलाप करते हुए उनके मन में यह बात बाई कि महावीर तो वीतरागी थे, उनके साथ राग भाव कैसा और मान प्राप्ति के साथ ही वे केवली बन गए। गौतम ५० वर्ष तक गृहस्थरहे। . वर्ष तक भी रहे और १ वर्ष सक क्वाली म में बिथरे और ५१ वर्ष की आयु में मोक्षगामी हुए। क्या का सार यही है। सम्पूर्ण काम्य में कमि में घटनाओं का प्रबन, गौतम का वर्णन उपमाओं और उत्प्रेक्षाओं की उत्कृष्टता के साथ किया है। प्रकृति वर्णन में भी कवि की मानी नहीं है। पूरा काव्य चरित मूलक बाल्यानक है। जिसकी कथा बस्तु धार्मिक है। तथा गौतमबमहाबीर की साधना से सम्बन्धित है। गौतम राब एक ऐसा का काव्य है जिसका उद्देवस्य जीवन को आध्यात्मिक मानन्द और साधना की ओर उन्मुख करना है। बिहार के ही नहीं समस्त मानव समाव को इम्प्रवृत्तियों से निवृत कर समवृत्तियों की ओर वाहन की प्रस्तुत रास का संदेश है। एतदर्थ राम के प्रमुख प्रमुख काव्यात्मक स्थलों का निरीक्षण किया जासकता है। इन्द्रीपति की शारीरिक मा.म, आकार, बम और कातिका वन कमि में बताया: जान पुन गिरि भू धूवर पमिण बडदा बिबा दिहि म नारीरति मिल बिमा कि बिार बार दुब महतो गाव प्रभाव देह साप मावा मय बरबर विवि का पाटिय It बर माग मानि गामी मानिस नियाडिय विकार विनिम का वाडिय शालिक निस, बसपा किरिव सारी कहिली व पुजा लि Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६ अडवा निवचई पुष्ण जन्म जिणवरु इनि चित रंभा परमा गरि गंग रतिहा विधि वंचिय नहि बुध, नहि गुरु, कवि न कोवि, जल आगे रहिय पंच सर्व गुन पात्र शत्रि टिड परिवरित (१-६) कवि मे समवसरण की रचना में पर्याप्त उत्साह दिखाया है। इन्द्रभूति की स्वा और पांच सौ वियों सहित समवसरण में जाकर महावीर से साक्षात्कार करना और महावीर का वेद उक्तियों से उसे समभाना, गौतम का वीवित होना व्या प्रथम गणधर बनना तथा गौतम द्वारा सूर्य किरण पर चढ़कर सीर्थकरों के मंदिर में जाना और पुनः अनेक तपस्वियों को केवली बनाना आदि अनेक स्थल मेयता और काव्यमयता उत्कृष्ट स्थल है: जोजन भूमि समोर पेव प्रथमारंमि effees मंत्र जति सरंभि मनियम तोरण व चज, उसी से नवपाट वयर विवज्जित तुगण प्रतिहारिज वाढ सुरनर किम्मर मरवर, इंद्र इंद्राणिराय free मुक्ति प सेवंहा अनुवा ase forम बिन बीर जिन बिसाहू भवर वा मह इंद्रिया a बाटावर चिम पुरो गान श्रीवादि भानु नियति करे, नाग बी मेकि मानबारे पुन प्रति बोधई 本無數 #11 #21 मद इदि भिमानि वाया मनि बडवई रबि नि, भावनि दिनकर किरम Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३७ चव मणि निम्पन्न दंडक्लस भयका बाहिर पेखा परमानदि जिण हा भरयेम विहार निय निय काय प्रमापिदिशि ठिय विणा विव पणपति मन उल्हासि गोपन गया की वसि (1) राम का प्रकृति वर्णन कवि के काव्य कौशल का जागा माप कवि ने गौतम स्वामी की साधना और गालीनता का वर्णन प्रकृति के सामानों वारा किया है। कवि ने श्री गौतम गमधर में महापुरुषों के सभी माय मुषों का समावेश किया है।उनका व्यक्तित्व कवि में बड़ी ही कुशलता के मा बड़े विचित्र उपादानों में निर्मित क्यिा उपमा और तोबा सरस है। वर्षन का कम सुन्दर है तथा विविध उदाहरनों से पुष्ट है बिन सहकारिणी कोयक टर जिन इसमा पनि परिमा बहाजिन बानि पाच विधि जिम गंमाजलु लागि लडका मि कणयाब मिला, 7 दिम गोयम गोमागनिधि जिन मामा परि भिवका सा, मि परवर शिरि सानिमार रावाणि जिन रामक रवी मिर, नि गरि रामन मिनि मोनु गुमान मिम मिनिकि, परममा निमोहपूरब दिल निसागरो बाक्नु नि शिविर . मावर कि मामा नि विनवरी विमलरी पराजिनि कि मामा विन लिहा मागोमन सी मार (10-11 Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८ नायक की एक car स्थिति का चित्र बड़ा मार्मिक है जब महावीर निर्वाण को प्राप्त होते है और गौतम को समीप के गांव में प्रतिबोध को प्रेषित कर देते हैं। गौतम उन्हें जाते देव बालकों की तरह फूट पड़ते हैं और इसी विलाप मैं उन्हें महावीर के वीतरागी होने का जान होता है तथा उनका जितवा राग महावीर के साथ था, वह सब छूटनाया है और वे केवली बन जाते हैं। उनके मन के अन्य को कवि चित्रण करना पड़ता है। महावीर के जाने के बाद गौतम के मन में उठने वाले ये संकल्प विकल्प "मुझे दूर भेज दिया, लोक व्यवहार का पालन नहीं किया। हे प्रभो। आपने सोचा होगा गौतम बालक की तरह पीछा पकड़ कर मुझे से कैवल्य मांगेगा आपने मुझे भुलावे डाल दिया, सब्बा स्नेह प्रकट नहीं किया बड़ी ही मार्मिकता प्रस्तुत करते हैं काम हृदय गौतम विलाप करते है: प्रधीर प गोषु प्रामि देवसमी प्रतिबोध किए • आपन भिला देवि नंदण परत परम पर बलराजं देव अकासि, पेवि जामिय जिन सम व मुनि पनि विकाइ नानमेव जिय उपन कामुनि पाय देवि, आप कहा क कामवई व विकून माहि लोक विवाक न पालिक मति भएको यानि वा माि ना बीपि बालक वीर जिवि आप विकट ने और कृति र निर्वेद कृति की भाषा पर यह है कि fe समय यह राय किया गया उस समय कवि बहुत विडिवो पोि नाहिन से वि (33-34) डोकर निखर उठी है। भाषा की दृष्टि से का पवीत प्रभाव दृष्टिगोचर होता है इसका कारण महा के उत्तराई में लिखी गई है। क्योंकि हो गए थे। मःम Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संभव है कि इसका लेस काली शादी हा हो। रचना गेय रासकरती ने राम के सम्बन्ध में अपनी ओरसे कुछ भी नहीं कहा। रचना को देखने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि यह राम गीति तत्व प्रधान है। स्था गरिबमूलक र काय है। प्रति के मन में एम्पिका इस प्रकार है। . गतिक मुदि प्रतिपदाया ।। देव स्तवन पुस्तकं ।।(बड़ा मान बहार, बीकानेर प्रवि) इस प्रकार १५वीं शताब्दी की अद्यावधि उपलध प्रमुख रमाओं में श्री विनयप्रय उपाध्याय विरचित गौतम रास का स्थान महत्वपूर्ण है। Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : कलिकालरास हीरानंद हरि ५वीं शताब्दी के प्रमुख कवियों से रहे है जिनकी इस ताब्दी में कई महत्वपूर्ण लिया किती हैं। जिनमें बस्नुपात राम (0 १४४४), दशार्णभद्ररास, जंगु स्वामी वीवाडला सं० १४९५ विद्या विकास पवाड़ी, स्थलिपन बारहमासा आदि प्रमुख है, जिन पर आगे के अध्यायों में प्रकार डाला पायगा। कलिकTETस भी अपने ही प्रकार की रचना तिकाल रास कलियुग की परिस्थितियों और गुणों पर प्रकाशडालता है।इसताब्दी में राम सैक्षक रचनाओं में मह अपने प्रकार की पहली रचना है।कलियुग की लोकस्थिति का वर्णन महाभारत में मिल जाता है। हिन्दी मेंमाण कवि का कलि परित • सर्व प्रथम मिलता है संमें सभा चंद्रकृत कठिचरित और . १८४५ में रसक गोविंद कृत कलियुगरानों में आदिन्ध मिलने है। परन्तु प्रस्तुत राम बाण के कलिवरित मी १०० वर्ष पुरानी रचना है।इसकी प्रति जैसलमेर के बैन अंडार में है तथा प्रतिलिप अभय जैन प्रस्थालय से उपलब्ध है।पुरावस्व मंदिर जयपुर के एक गुटके में भी इसकी प्रारम्भिक १८ गाथाएं मिलीं। खना प्रकाशि श्रीरामचरिबाना वीं बनादी उत्तराई की है। जिसमें इनकी भाषा सरल राजस्थानी या माजीम दी है। कवि ने वर्षनमें माग बहारा लिया है तथा कब्धिग के क्ट मीठ अनुभवों को खाने में पनिम्नानागामि रहा है। बाद में मुसलमानी राज्यों हुए बत्वाचार की प्राय गावर प्रस्तुत रास लोक काय शिक कवि वीनर पाळू पर किका प्रभाव दिखाया है।वी की स्थिति राणा, मा, मि, बरतु कन्य, सा, गुरु वीर्थ, तपस्वी, दान तथा निवर .- दी तुरीन बर्षक , मई १९५०ी भवरलाल नाहटा का Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४१ मादि की परिवर्तित स्थिति परप्रकार डाला है। इस तरह की कलिकाल संबंधी रचनाएं परवर्ती राजस्थानी कवियों कीअनेक मिलती है। कवि ने रचना को माय, वस्तु व्वणि ठउ फाग आदि शीर्षकों के अविभाजित करके लिखी गई है। कवि ने वीर जिनेन्द्र तथा सरस्वती का स्मरण कर रास प्रारम्भ किया है। प्रारम्भ में ही कवि कलियुग की सामान्य प्रवृत्तियों का उल्लेख करता है तथा कलियुग के प्रमाण कहता है। वर्धन सरल वाक्यछोटे भावपूर्ण तथा भावा अत्यन्त सरल है: वीर जिनेवर पाभिनाजु कहिले कलियम व प्रमाण ers समs बहुलवनी हामि ईण्विवनि यहूद हिव जावि grata वरसई थोड़ा मेड, बोड़ी आयु घना संदेश राति कपि हुआ भूपाल अम्बानी नइ अति विकराल नकरs लोक वनी सुरसार, लोक हुआ बि स विनिरधार afe निरधन दीes दातार कृथवह परि ठिडिमी अवार पुर्व हुई व इतकाल, पापी नर जीवई चिरकाल औषध मैम मामान सोरिय विद्या नयि सुजान अंतरंग ने बिसाल बिरला बीसह अन्य गाठ देव रवि हुआ मित्रभाव के न दीसह सरल भाव कोई न पाइ बोल्या मोल सह नावद पूनिटो कोई न वीस नि गंभीर अवल धीर विनय विवेक, लौका, काय सब दूर हो गई। बाउस बटन संसार में नहीं रहा कलियुग के प्रभाव से दान और दानदी दोनों मिट गए हैं। परमार्थ का विनाश और पाक का प्रचार कह रहा है। बना हीन हो गई और कटू वाणी का गया है: कीला हार गई मन्दिर परिनंदा छ पकई पूरि विनय विवेक मया आवार, बाली कोन कर बारि Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहस सत्व नहीं सार रंगरली नहीं हिया भार दानव दाविन दान दाविन गया परदेसि अपन फांदूळ व दृश्य वाइन पीइ जवंचा घट आप्पणा मुिंदानते कृपण दीड बाहा मन रचनावमी मोटीय बात करंति धरि आवत जाइप नीसत नासीय बंदि (बस्तु १) गरों वर्षों की स्थिति भी कवि ने बड़ी दयनीय दिखाई है। वैस के प्रेमी स्वार्थी मित्रों तथा किए हुए उपकार को ने मानने वालों की स्थिति भी उल्लेखनीय है। षष कुल आचर हीण, वित्रीयलोक असत्रिहि लीय मग सोक मनि नवि धरइप पापि तप पिरि दौडई बहन बषिका साहिब हुआ बहन निरदय कर्म समाचरइए बाप सरारधि सहइ कोई घरमा विरळ कोई काज विमान प्रति मार र बाविक माना, पापड अरब विद्यालय के गोन बापा भाषीमा, TO लोक सबै विमा (परत) बझन श्यों के हवारा पी कबि ने का कीड पर्वकालिगी प्रभावों का परिचय निकाय का पानामति का निष्कर होना धर्मभागों में हुए अनेक प्रचालित मानवानरो काम या सत्य से दूर कटवामी बालों का जबान भावि वि मे कोणी मोहक शैली में प्रस्तुत किए हैं: और नाम किया उपवार हरमन समबड़ि गण्ड गमार भएप कम बीरा पनि पनि गोई बिपार मणि नोई बापण भागार Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५३ अम्हि कुण भारगि अनुसरलं ए इंगरि अपरि बलतइ देखई पा हेछिन गपहलाई भापण भावा पण ए देशीय थोड़ा दोक जनेर विस्तारीय महि कहिइ अनेकन जे गुण हुई है आबई परम भारग घरम मारग हुवा महु मेउ वे पुखि बई कहिए धर्म भागु अम्हि कह सक्स आपि प्रशंसलागि सडक अवर धम्म पुहि कहा कचर अंक का बाड़ी आविग वेडि लग जामहार नयरह पणी वन दिसाउइ मण साच कोई सारु कोई बोलति सारइ राइ कोइ नवि कहकपट सहूइ पतीजा पेश अभयकुमार जिम धरम दैभि बंधीय लीज का वचन बोलइ जिके माया रचिहं अपार बका वेणि काइ बे िमस बेसार द्रो मित्र मात्र पुस माइबाप मुल सिह या देख इब्ध हरि वावरा, कोष बमले न देखाई नाव बाष कुल गुरु पी भानइ ममि भाग सरक भाव विस चालना देली हाक बोलिपीन का मति मिली नोड मररमा पनि दुखिर सा कोई (वस्तु 10-10) काव में काबोली उपशात्मक और सचिव है। प्रस्तुत काय जन भाग लिन समाधी मस स्थितियों और बाबानों का लोष कवि में बागमवारिक जीवन की वापी एक दम बानियों लिल कादि में एक अत्म कर दिया है। माना गरमा नाकारिता Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ तथा कथाकी पाति जनउंचि पर विजय पाने वाला प्रस्तुत रास है जिसको हने में बड़ा आनन्द मिलता है।साहित्य का उपयोग यही है कि वह व्यवहारिक जीवनके लिए निरन्तर उपादेववहितकारक एवं मार्ग प्रदर्शन कसे बाला होकविने मुनियों या बाबको का कलियगी कायाकल्प बताया है। उधरण उल्लेखनीय है : पुपिबर मरि मागला ए, पगि पगि करइ विरोध एका भारगि अंतर प, माणई अतिथि अबोध कोहि लोहि माहि मोडिया ए, पारगि नवि बालेति आप प्रवेमा तप करई,ए, परनिंदा बोलंति लोक दबा मन रंजिव २, वणि धरई वय राण भागा भरम इ मारिई ए, नवि वीसइ अनुराण पंच विषय गीता नहीं ए, निषि हिंच्यारि बाय वह हरई संजामि करीर, जीवन तपउ उपाय कुटिल भाव श्रावक हुब र हीड़ा अति निरभाव समाकित पर मुंहड़ा कहइ ए बल्लाबह बहुपाव धरि बरसन मडिकी कई ए, विषण करइ पार बरहम देखीव कविनगा र यस मनि बकार पुरु उपदेश ही नवि पीजी पाभर पापिय गरि गाइ एमी ममि पीति (स्वपि ( वस्तुतः पूरा रामकलिकाल का स्वम विश्न करता बहा गया है अगर औ रख की दृष्टि से रमा साधारण परन्त वात, शिल्प, भाषा, और मध्य विका की मिट मत्वा महत्व है। रक्षा की भाषा में अपर के प्रयोग इंटने पर ही निराजस्थानी था गुजराती के जनद भी मिलो है। पर पूरी रक्षा को सरल हिन्दी की रचना कहा जा सकता है। कवि ने मशदा वित्र को नेक नियों उदासों इटाबों और वावों इवारा स्पष्ट किया है। यह उधरम राग महत्वपूर्ण Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अति निरलावन देह स्य, पुडि वापि कठोर म्यारिड वर्ष इस्या इमाए घर माहि जि बोर माइ बाप बंधव कुटुंब म्यू करइ विरोध दीसइ धरि धरि नब नबाए कारपि बिन क्रोध लोपीय कुल गुरु तमीब रीति की मरज्याद सीम दीयता कर रोष माडा याद मीचं गोत्र उत्सम तपाए अवतार सुपीजा साब सूच जे नवि धरई ए है कहिइ अबान ये धन माया केवलयंए तीही करइ वमान इषि परिकेता कहनु बोल ई तिहिविसाठे र लमणि पापीइ ए माया कलिकाले किय कोचन चम्म भए, भन लोचन जोर अंतरंग बरि निरजाब पब मालपोत दान सील पमना व्यास किन पापड सहा निवड होर धर्म न भी पापड छ एनी मन पधि राइ श्री समति पाता पपई हीराद पवीय कोष पव माला (1) वस्तुतः राम की पीपट हो पाता है कि १५वीं वादी आने भाले रासीमा बल बीमित नहीं रखी तथा उसमें विविध विषयों का भी विवेम होने कमा बिया कि पूर्व में अन्य रामों में विविध विषय वस्तु रामों में वर्षित हो जी पाति प्रस्तुत राम में भी कवि ने अपनी स्वेच्छा कासिम का मेमोपांग वपन बिमा को इस पैमाने पर है। मावती का किया उदायों को भी स्पष्ट for t.. Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ चऊह छीवासीय वरसि पाकलिकालह रायो बीविड रबीर भवीय लोय कजि उपदेश निवासो पपई गुबई के भुग पवि मेलई नर नारि है मन वा wि मुख लाई ए बार भवपारे इस प्रकार ५वीं सताब्दी की रास संशक कलियों में पारा और विषय की दृष्टि सेकलिकाल रासका महत्वपूर्ण स्थान है। Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४७ :: सौलहकारण राम :: P १५वीं शताब्दी की रास रचनाओं में एक छोटा सा रास सोलह कारणरास है जिसके रचयिता सकल कीर्ति है। यह रचना दिगम्बर भंडार जयपुर की है। कृति आमेर के भंडार जयपुर (श्री दिगम्बर अतिशयक्षेत्र कमेटी जयपुर के भंडार) में सुरक्षित है। प्रस्तुत रचना अप्रकाशित है तथा छुटका ० २९२/५४ के पत्र २४२-२४३ पर लिखी है। प्रति का लेखन काल सम्भवतः तावृदी के आस पास है। कीर्ति अपने समय के दिगम्बर कवियों में प्रमुख कवि हुए हैं जिन्होंने होलिका रास, आदि अनेक कृतियां लिखी है। प्रसिद्ध दिगम्बर कवि ब्रहन जिनदास के से समकालीन थे। मस्तुत रास एक छोटा सा खंड काव्य है जिसमें कवि ने प्रारम्भ में मंगलाचरम के पश्चात् साधना के लिए तप और तपके लिए १६ कारणों का विधान एक श्रेष्ठि कन्या प्रियंवता से किया है। प्रियंवंता का परिचय कवि ने एक दुर्भाग्यशाली परधर्मी, और व डोगों युक्त महा कुरुपिणी के रूप दिया है। जो पूर्वभव में कि अपराध के कारण इस गति को प्राप्त हुई थी। जंबू दीवह भरत सेत मागथा छह देसा राजागृह छह नगर हेम प्रभाराज धनेटा विजया सुंदरि तमाम पुरोहित महासरमा बिडीया नारि म घरमा Sore मैरवि रोग व्यव कवि ने पूर्वमय में कर्म सिद्धान्त का प्रचार कथा के द्वारा किया है तथा सोलह कारों है जो पाचन की सकता और यों को निर्वाण की प्राप्ति कराये है इस राख को प्रेम कसा बाहिर यही संदेश दिया है। क्या की नायिका एक बार पूर्वभव में बाकार हम करने के लिए आये मुनियों पर शुक देती है और उसी बाप से वह इस जन्म में भयंकर रोगों से ग्रसित होकर कुरुविनी का जाती है। इस प्रकार दो बार मुनि उसे पूर्व भय में किए पाप और इस भय में इसका उधार करने के १६ कारणों का उत्ते करते हैं: Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ राजा महीपाल वेगवंतर छइ रामी विसाखी पुत्रि नाम विवेक विदूषी आहार लेवा मुनि इक माया वह्नयामा बाहार लेवा जाम बस्ति निरमल गुण धामा गरिव बइठी ताडु उवरि थुकि मद बंधी राजा छेह लहूही करी तुम सठ दीनी निदा गरुडा आयु की मुनिकन्ह लगाइ कुंवरि ते तपु लियउ अनसरण आहारी और इस प्रकार भिवार्थ आये युगल चारण मुनि उसे १६ कारणों से सम्पन्न व्रत करने का विधान समझाते है। कथा वस्तु धार्मिक तत्वहोते हुए भी इस छोटी सी कृति में क्या-त्व होने से पाठक या श्रोता की रूचि बनी रहती है राव रचना का उद्देश्य उपदेश प्रधान है कवि जनसाधारण में किस प्रकार पूर्व मन में Pregcreat से इस भव में फल प्राप्ति का सिखावन देकर जन साधारण के सामने संयम व उपासना के १६ कारणों को कथा सूत्र में बांधता है। इन कुली तेरी जनम हुआ पूश्व विदेह, सोलह कारण वरत करी बीर्थकर छोइ वन वाली पावनमी कहि वापि विवार्थ, मादा मावि चैत्र मास कहिए विवारा करि मंस एक टोक्छु पालीन्जर, परिहरि परि व्यापार व मध करीजंड ffer घरि पालियर कानवि कीन्जर विबन गाना चरित्र वर्षो वहि विन करीन्जर पालिए सब पटारे, ज्ञान निम्बर बार पढन बहु रंगि विवा भव भव दो पर महि बर रामु घरी. पारिवान व वारि वेद कति पातीबर Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१९ शनिबर साधु समाधि बरी उपगार करेन्बा, बसविल बैगावरत करी पालिन्ज भारत देवड प्रक्खि कर सब बीगा टास, बाबा गुरु मवि करी भगति प्रतिमा शास्त्र बना इनि बो पढी हि भवति करी, प्रवचन बानी पकिरी निएका पानीपत बाल प्रवचन पालियइ मनि निराश भाभी, बोलह पावन मावि र मुर पास बानी दिन दिन प्रतिमा पूजिवइ निसि जाप जपीज्य, बोबड पन अवमठ मोदिक डोटीमा महवा पितेवन वार बामसिन लहिण्या, मुनिबर अस्थिय भय च सवपूजकरीज बारव गुरु पयनमस्करी ब्रत दिल कर तीनो गतकाल न्यास की दिढ मरमपि सीधा इन्हीं बोल कारणों से नायिका ती भविष्य में श्रेष्ठ योनि को प्राप्त कवि ने कावास्यों वाक्य के सभी अक्सियोंकि कामना करता किन मोका काला को बनी ममकर को पालता से असाधारण पद शाम होगा: एक मिनो ब्रतुका मा बहवा नारी सीकर पर बोला यो पमिमा भारी सनीति निरा किस कारण बमबार और सी टितिक महत्व नीव है परन्तु मामा की टिकिया बस विकास की दृष्टि से सोलह कालराम उतनीय विकर कवियों की चमार की पोती कि मिटी माय मुनियों कियों स्वामी मौतुबराती। Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधिक लिखा है परन्तु दिगम्बर कदियों ने की गोली में ही अपना साहित्य लिया है । : पाका की दृष्टि के प्रस्तुत कृति म महत्व अवश्य स्पष्ट है। यो मिलाकर कृति साधारण है दया काव्य की इष्टि से बहुत प्रौढ़ नहीं है। ब्रह्म बिनदास की कुछ और कृत्रियोंका विवेचन करने पर उनके काव्यमत की मुख्य प्रवृत्तिमा जानी जा सकेगी। प्रस्तुत रामक वर्णनात्मक नया काव्य है जिसका पल उइदेश्व धर्म प्रचार मात्र है। Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फागु · काव्य 3883333333333 Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फाय काव्य उल्लासमय अनुपूतियां प्रकृति-प्रदत्त होती है। मानव को राग हर्ष और शाहलाद जन्मजात मनी विकारों और मावों के रूप में उपलब्ध हुए है। रोने, गामे और अपनी अभिव्यक्ति दूसरों तक पहुंचाने का काम वह आदिकाल से करता चला आया है। अतः प्रत्येक रितु के साथ प्रकृति स्वयं उसका बाहवान करती है। ग्रीष्म, वसंत,शिशिर, हेमन्त आदि रितुओं में किसका वा स्वागत नहीं. करता। उसके लिए पतन का भी उत्तमा ही महत्व है जितना प्रीम और शिशिर का। विशेष तौर से अधिक आहलाद और उल्लास का पर्व वसन्त है। फूलों का मादक पराग, अलियों का मुंजन, मौरमित आमल्लिरियां, पंजिक कानम, बौराई डालियां कोयल की कूक, तथा इठलाता मायामिल सारे वातावरण को ही चंबल और दोलायमान कर देता है। आह्लाद मान के स्त्रोत राशि राशि उल्लास को लिए फूट पड़ते है। सौन्दर्य के को किल की हलकी मी पवधवनि सुनाई देने लगती है और मादक वसन्त सिल उठता है। फागु वसन्त का ही मादक गान है।काम को मम्मथ कहा गया है और सम्भवतः यह का मन्मथ का की एक उल्लास है। बस इस पर्व और अब सडास पर काम का अपनी बापी बो चार मो इनका स्वागत नहीं करेगा। क्या जीवन और नई प्राधारा को कराने वाली बाय की एक मीठी पीर के माहित ना माना है। और मकान को अपने प्रभाव की रंगीत में इयो देखा। बम गा. वा महोत्सव, स्वागत-गीत, सत्य, उल्लास किया बाबारी मान का बीवन में नए उत्साह का उन्मेष करने बाली शक्ति मिला है। का काम की परम्परा के इतिहास पर विचार करने पर मैं अश की मारामा मा । यो संस्कृत में भी यह पहरित विवाई की। Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस दिश में रितु वर्णन और रितु सम्धी साहित्य लिया जा सकता है, जिसकी अभिव्यक्ति आनन्द और उल्लास के साथ संगीत में डूबी हुई है। रितुकाव्य भी संस्कृत में अधिक नहीं मिलते। संस्कृत के पश्चात अपरंश के रास युग में फागु की परम्परा का प्रारम्भ माना जा सकता है। सामान्यतः रास और फागु दो शब्द साथ साथ प्रयुक्त किए जाते हैं पर वास्तव में इन दोनों के अर्थ और कार्य व्यापार मैक्दाचित कुछ अन्तर है। एक अन्य सब्द रासक भी मिलता है। सम्भवतः यह फागु रासक की ही क्रिया व्यापार के अधिक निक्ट हो। काग का तात्पर्य उल्लखित वा आह्लादकारी गान है। फागु संज्ञक रचना श्री सिरि थलिमद फाग १४वीं वताब्दी के उत्तरार्दध की रचना है। डा. भौगीलाल पाडेसरा ने इससे पुरानी पक और फागु कृति का उल्लेख अपने ग्रन्ध- प्राचीन फागु संग्रह- में किया है जो उन्हें श्री अगर चन्द जी हाहटा से उपलब्ध हुई थी और वह फागु श्री जिनचन्द सूरि काम है। नाहटा जी को इस फाय की प्रति जैसलमेर के प्राचीन जैन भंडार से उपलब्ध हुई थी। इस कृति में यद्यपि • से २० तक की कड़ियां मिलती नहीं है। परन्तु उपलब्ध पाठ (६.२१) कड़ी तक) के वर्णनों में सबसे अन्दर एवं काव्यात्मक वसन्त वर्णन है।' अव: स्पस्ट हुआ कि फागु काव्यों का सम्बन्ध वसन्त वर्णन से है। इस प्रकार भाविकालीन हिन्दी साहित्य की उपयुध से प्राचीन वह दूसरी शिरि लिगद काय के साथ साथ डा. साडेसरा ने अपने गन्ध में अनेक कामों का काम किया है। श्री नाटावी माह मी अनेक प्राचीन फागु रचनाएं विद्यमान है। नवरा मावी वादी के बाद श्री १८वीं वादी कडो मो की संख्या का काय मिलते है ।मत: यह रचना फागु परम्परा की १० शिप्राचीन कामु संग्रह, डा. योगीलाल साडेसरा, पु.॥ २- बही अन्ध, वही पृष्ठ। 1- बहीब .10-२३१॥ ४- प्राचीन मु संग्रह, डा. भोगीलाल साडेसरा y.-- Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सीरेखा में आने वाली एक प्रमुख कृति है जो अब तक अधात (जिनचंद मूरि फाग के नहीं मिलने से पूर्व तक) आदि कार की सर्व प्रथम फाशु रचना की जा सकती थी। संस्कृत काव्यों की परम्परा में फाय का स्थान स्पष्ट करते हुए श्री अवयचंद्र जमी ने लिखा है कि रितु काव्यों में भी फामु का प्रारम्भिक रूप देखा जा सकता है। फागु की स्पष्ट झाकी में सबसे पहले हमें प्रमीत रत्नावली नाटिका के प्रथम अंक में मिलती है। कवि मे मदमोझाम मैं मदन पूषा का समारोह पूर्ण समारम्भ दिखाया है। मदनिका तो उन्माद के कारण समयोचित मृत्य भी भूल गई। विदूषक ने उसे "ममण वन विसंबुलं बसता मिषय मैपडी(कामवत्र वैडिका बसताभिनय नाचती हुई) देखकर ठीक ही वैसा राजा से निवेदन किया था। कंदर्य पूजा के अवसर पर चेटिया मृत्य करती हुई समवेत स्वर से डिवपदी मन्ड माती थी। अत: यह स्पष्ट हो जाता है कि फागु की ये प्रवृत्तियां स्कृत के रत्नावली नाटक में भी मिलती है और मदनोत्सव तथा वर्ष पूजा इसमें विशेष म्स से होती है क्यों कि वर्ष का विशव मित्र वसन्त ही माना गया है। उत्सव का विषय होमे से या कामना की जा सकती है कि काय में मील, बाश्म, मृत्य बाम और समावि मनन गोगये। और बबनी कि नकार ... समातियों के माधार पर विमानों का की कमेक (क) का बागरा में काम की मरमति बस्य फसा (बसस प्राकृत-पाय c) गुजराल बिवाम की मात्रास्त्री ने मारिक विषयों के आधार पर ... ... . मन काल या मागरी वारिली पत्रिका, ककनीमा का-विधिलिड्दगंा-पालोपक १.प्रा.का.डा. साडेसरा पु. - बबन्तोत्सव माई बाप। -भाषा कवियोश्री काडीमाती Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ग) वसंत विलास की भूमिका में श्री का व्यास ने भी विषय वर्णन के आधार पर इसे मधु रितु के उल्लसित वातावरण का गान ही माना है।' डा० साडेसरा ने भी हेमचन्द्र की काम सम्बन्धी परिभाषा पर प्रकाश डाला है। देशीनाम माला में हेमचन्द्र ने इसे वसंतोत्सव कहा है। अतः यह स्पष्ट है कि इसका विषय श्रृंगारिक होना चाहिए। इसमें मधुमास का वर्णन हो। कोई विशेष अवसर या महोत्सव का वर्णन हो। उल्लासपूर्ण अभिव्यक्ति हो। बसंत क्रीडा वर्णन न होने से श्रृंगार के संयोग और वियोग किसी भी पक्ष (ख) (8.) का वर्णन हो। (च) वर्षम सरस और भाहलादक हो। उक्त प्रवृत्तियों के उदाहरण अनेक वरवर्वी फागु में मिलते है सिरि भूति भइव कार में भी कवि ने उसकी विषयगत प्रवृत्ति को स्पष्ट किया है खरतर गछि जिण पदम भूरि क्यि फामुरमेवउ बेला नाबई चैत्र मासि रगिहि गावे । अस: यह नाचने और चलने की प्रवृत्ति कागु के उक्त उधरप से स्पष्ट होती है। कवि में विशेषकर इसका मन बन पात सि ही यिा। पीर का विधान-मावेकर- मद से अभिप्रेत गेला । म कामपूर्ण अभिव्यक्ति के लिए है। रोका और माह में कीड़ा और मृत्व स्पष्ट हो जाते है। वीं शताब्दी के भयेक परवी गाव काव्यों की प्रेरित भी इसी प्रकार विश्व प्रधान रही है जिसमें काश पाछो-देवी नाम माला हेमचन्द्र(६-01) क्या प्रा.का.डा गाडेरा .. .प्राचीन और काम्बा श्री डी.डी. पद Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रीड़ा नुत्य गीत. वसंत आदि का ही विधान मिलता है। कुछ उदाहरण एतदर्थ देखे जा सकते है. राजल देविस सिविध गयउ सो देव शुभिजइ मनहारिहिं राय सिहर मुरिकि फागु रमीजइ ' मैं रमीज ग्इद विशेष उल्लेखनीय है। यह कृति ५वींतादी की है। भविय जिणे सर भवण रंगि रितुराउ रमेवउ मनहरिसी जयसिंह पूरि कि फागु कहेउ-२ में रंगि रितुराउ, रमेवर से फागु का अभिप्रेत सिद्ध होता है। यह कृति भी १५वीं बतादी की है। फागु वसं ति जि बेलइ बेलइ मुगुम निधान विजयवंत से छाइ राप तिलक समान-" इस उधरण से स्पष्ट होता है कि उन्लासपूर्ण मधुरितु का महोत्सब जिसमें सेना गामा और रंग में डूब जाना ही फागु की प्रवृत्ति रही है। समुधक ने तो फागु को मुहावना तथा खेलने के लिए ही कहा है। जो समुधर ममा सोहावट का बेला पविवार १५वी वादी प्रसिधाम जबर cिe to) मेक्निाव का मी रास पाये जाने के लिए ही किया है, मा स्पष्ट होता है। मिव या शिरि दिमि व्यापर धाप सहि संध सूर उसे शामिन पापिय गाभिक रंग . १.प्रा.का .. . रा १. सबसिंह यूरिया-पिणा 1- अन् स्वामी गम-मास ४. बही . ५६॥ की-प्रा०का... ५५॥ मा.का.स.पू. ५६ Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कवि विनोदिहि सिरिजय सिरिजब सेहर टूरि जै खेल से अपद संपद पामह पूरि फागु में रमणियों और कामिनियों के नृत्य करने और खेलने का उल्लेख भी मिलता है । कवि दूम के नेमिनाथ फागु का उदाहरण एतदर्थ उल्लेखनीय है पीण पयोवर अथकर गुजर चरतीय नारि फागु लइ ते करि करि नेमि जिनेसर बारि ३५६ फागु तेलहि मनरंगहि हंसगमणि मृगनयणि गुणचन्द सूरि ने तो एक वसंत फागु ही लिख दिया है। १५वीं शताब्दी के देवरत्न सूरि फागु में कामदेव, रति और उसके मित्र ade का वर्णन अत्यन्त सुन्दर मिलता है। फागु की इससे उक्त प्रवृत्ति और मी स्पष्ट हो जाती है। चंदन नारंग क्वलीयलवलीय करइ आनंद raat xes बहु मंगिइ रंगिइ मधुकर वृंद aft वनि गायन गायई बायइ मलय समीर safe मावई रमणीय रमणीय नव नव चीर Tags चैक stent करा मयम महीपति मावई राजइ र ईमार --0 प्रमुख मित्र और अन्य में कवि अपने 90% रविना वह बारीक रोख बाबीर रे परिकरि परिकरि गरि रे को का काव्य के अभिप्रेत के रूप में स्पष्ट करता है। १- मुरबाड, मानक्वाड मारिएन्ट सीरीज, १८वा पुष्ध पू०७४ पेन मैं उपलध । प्राचीन य-त्री र माटा की से० १४९३ की पोथी पना २०३०७ संग्रह- ST० की ५० ५५०५६१ Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२७ संवत् परब नवा वरिसिई रितु वसंत जन पहनइ दिवसिई मन रंगिडि म विशाल। फाग बंधी ये गुरु विनती पाव भगति भोलिम संजती कीधी रस बरसाल।।' इससे यह एक बात और भी स्पष्ट होती है कि कबि ने यह फागु काव्य लिखा भी वसंत रितु मैं। अतः वर्णन में वजन्य वसंत का मधुर चित्रप हो सकता है। इन का काव्यों के अतिरिक्त और भी कई ग जो खेलने और गाने के लिए रचे गए थे, श्री आरचन्द माहटा के संग्रह में विद्यमान है। 'व्या अनेक जैसलमेर के जैन मंडार में है। फागु काव्यों की यह प्रवृत्ति हमें १६वीं 10वीं शताब्दी तक बराबर मिलता है। बसन्त विलास के सम्पादक ने फागु के वातावरण का बड़े ही मधुर पदों में चित्र सींचा है, जिनसे कई बाते स्पष्ट होती है।' निम्कयतः उक्त धारों से कागु के शिल्प विधान के बत्वों का विवेचन यों किया जा सकता है. (क) फागु बसन्त का काम है। (ख) या संगीत प्रधान होता है। (1) बा क्रीडा से सम्बन्धित है। रमेका सबसे कम की या की ओर ध्यान पाना है। १-देड- न रेविकारिक गूकारब-श्री पुनि विमविका-देवरत्न पूरि काग पृ.१५४०५८ २. अमन चैन प्रधानमवीगमेर में संग्रही-जिमकद मूरि काम,रावणि पार्वनाथ फाय, जीरापी पाश्र्वभाष कामोत्तमच पानावकामादि अमेकका है। 1. देवि भूमि - प्रा. ग. गह-श्री बला . प . Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८ (घ) खेलने के अतिरिक्त नृत्य का भी आयोजन इसमें होता है। अतः खेलना और नाचना दोनों क्रियाएं फागु में होती है। बेला नाचई' से तात्पर्य क्रीडा करने और नृत्य करने का है। 1 (3०) यह उन्माद पूर्ण उल्लसित महोत्सव का प्रतीक है जिसमें उन्मत्त होने या प्रमाद पूर्ण हो जाने से अभिनेताओं को शरीर की भी सुध बुध नहीं रखती थी । उदाहरणार्थ सिरि धूलिम फागु मैं कवि ने लिखा है कि * मामकूफर माथिविम सिमसिम नाचते ।। (च) का काव्य के लिए मासविशेष का आयोजन है और फाल्गुन या चैत्र मैं वसन्तोत्सव पर ही यह बेला जाता है। (छ) वसन्तोत्सव या कंदर्प पूजा इसका प्रधान विषय है। बहुधा कई फाग मैं चैत्र या वसव का उल्लेख मिलता है। चैत्रमासि' से यह बात और भी स्पष्ट हो जाती है। (ज) जो रंगिहि शब्द कुछ फागों में मिलता है उससे तात्पर्य सम्भवतः मानव की आल्हादकारी मानसिक रंगीनियों से है अर्थात अत्यन्त उत्साह में डूबकर जो कार्य किया जाय औरउसमें उत्साह का वास्त्र उत्स प्रवाहित रहे । (4) इसमें क्रीड़ा करने वाले स्त्री पुरूष दोनों होते है। (a) अनंग पूजा और इन सब बातों से यह कहा जाता है कि कायु में एक प्रकार की जमिनम नियोजमा रहती है, और यह होता है। नैव काव्य क्यों को मीडिकाब्य और africa काव्यों को मीडिय कहा जाता है। अब इस टि से रास और का की फिल्मूत विशेषताएं मम समान ही ही दिखाई पड़ती है। संभवतः यह रास से और छोटा होता होना और इसका बिल्व राम से अधिक क्लात्मक एवं १- वही अन्य पृ० ४ २- प्राचीन ३- नही थ सब भी इसमें निहित रहते है। श्री डा० वाटेवरा पू० ४ पद ८। Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५९ कोमल होता होगा। रासक की परिभाषा देते हुए बागभट्ट ने उसमें ६४ युगलौं (प्लेयर) तक का उल्लेख किया है।' अनेक नर्तकियों और चित्र ताल तथा लय को प्रमुखता दी गई है। इसमें कोमलता और औवधत्य का भी समावेश है । २ सम्भवतः यही रासक फाग का पर्यायवाची हो, क्योंकि आगे विषय परिवर्तन होने पर उसक में वीररस की प्रमुखता के कारण औद्धत्य की प्रधानता हो गई और वे रण प्रधान बन गए और उनका कोमल पक्ष फागु या राख कहलाने लगा हो । जो भी हो, इतना स्पष्ट है कि फागु काव्य गेय रूपक है जो आज मी राजस्थान और गुजरात में गाये और सेले जाते है। यह तो हुई फागु के विषय संयोग श्रृंगार की बात पर वियोग या विप्रलंभ श्रृंगार वर्णम में भी फागु काव्य की रचना होती थी। मायिका के वियोग के पश्चातृ नायक से उसका पुनर्मिलन किसी फायु या राम से कम उल्लास का सूचक नहीं था। प्रेम का चरम मिलन और मिलन झुल्क कैसा? अतः तब भी सम्भवतः फागु की रचना अवश्य ही होती रही होगी । काय की सामान्य प्रवृत्तियों पर ऊपर प्रकाश डाला गया है पर इसके अतिरिक्त भी फागु सम्बन्धीरचनाएं मिलती है जिनमें विक्यान्तर स्पष्ट परिलक्षित डोक है। वियोग श्रृंगार में नाविका के पुनर्मिलन पर इद उल्लास का एक फामु बखत विलास मिलता है। इसके सम्पादक ने का का विषम विजन और इसके पश्चाद १- वायुम- काव्यानुवासन ३० १५० । २. अनेक नकी यो विश्वास किट धूमलाहास समृधते । ३- नागरी प्रचारिणी पत्रिका वर्ष ५९ १ ० २०११- विरि थुलि मटका ५०२१ । K Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायिका का नायक से हुआ मिलम आता है। इस प्रकार की प्रवृत्तियों से कुछ साभ्य रखने वाली कृति स्थूलिभद्र का हो सकती है, जिसमें कोश को स्थूलिपा से मुनर्मिलन होने की आश में असाधारण उन्ला हुआ होगा। कागु काव्यों के शिल्प पर विचार करते हुए हम राजस्थान के डफ के गीतों का विस्मरण पी नहीं कर सको। राजस्थान में ये गीत आज भी असाधारण उत्साह के साथ गाए जाते है। इन गीतों का समय भी मधु रिख ही है। बसन्त का आगमन ही इनको आमंत्रण देता है। पकड़ में बसन्त की भाति, शुष्क और व्यस्त जीवन को फागुन के यै गीत एक अजीब सी मस्ती, प्रमाद और उल्लास से भर देते है। इनमें साहित्य के जीवन्त तत्व होते है तथा कई व्यक्ति मिलकर इन गीतों को गाते है । ये डक कैगीत ही सम्भवना काय काव्यों के वर्तमान स है क्योंकि इनमें ड वाट्य तो बजता ही है, साथ ही पायक बृत्य भी करते है। डफ एक बड़ा सा वाड्य होता है, जो डोल की भाति बड़ा और गोल होता है। __डक के गीतों पर राजस्थान के प्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमनोहर बी.एम.ए. ने विस्तार में विचार किया है। इन गीतों का परिचय देते हुए श्री मी लियते है कि-बसन्त पंचमी से लेकर शुलंडी तक राजस्थान में डक पाये जाने है। या यों कहना चाहिए कि इतने समय राजस्थान का समस्त वातावरण मीयों की बावाब में मगने लगा है। शहरों के दिम जीवन को छोड़ भी, जो गावों, पूरे जीवन में इन दिनों एक मेगवडी बोरगी उममी मो. मस्स कोम मामय को मावान कर देती है। इस लिों में होगी डबवाये किा महीं रहा जाता इन मीठों और गा मी सम्भवाः यार है कि काल में मृत्य, सीमा, र आलिाि भान ही पिल्व इम सक के गीतों में स्त्रिया भाग की रीली गुत्व कोनकी मेयता, सम्ममता, कटवा तथा प्राय मादिगा मेक भाग त्य,वाइस गीत तथा इन डक बजाने बाटो - मारती- 1 . स्थान वी,एम.ए.,मारवरत्न,काव्यही का । के बीड शीर्षक:श्रीमनोहर Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की विशेष मुद्रा का परिचादेते हुए श्री मनोहर शर्मा लिखते हैं कि डफ के गीव कुरुष समाज के गीत है। इन दिनों के सम्बन्ध में स्त्रियों के गीत अलग है और पुरुषों के अलग। यह वसंतोत्सव का समय है। इस समय नृत्य गीत एवं बाहुब की एक धारा सी बह चलती है। हफ पुरुष ही बजाते है और वे ही इसकी आवाज के साथ नाचते है और गाते हैं। एक हाथ में डफ (चंग) और चिमटी (लकड़ी का एक छोटा सा टुकड़ा) रखते हैं और दूसरे हाथ से डक बजाया जाता है। हाथ की बोट से नर की आवाज पैदा होती है और चिमटी सेमादा की बाबाब निकलती है। साथ में छिमछमए (भंजीरे) भी बजाए जाते हैं। डक बजाने वाले अपने पैरों में मोटे बाधते है। उफ के साथ जो नाव होता है वह भी अपनी अलग विशेषता रखता है। उफ के साथ कुक्कर, बैठकर, और यहां तक कि लेट कर भी नाव होता है। इन डफ गीतों के विषय भी अनेक होते हैं। इनके गीतों का धमाल अथवा होरी कहा जाता । इस तरह होली के आगमन तक ये गीत अपने चरम पर पहुँच जाते है। राजस्थान के देहातों में इन गीतों का सुन्दर रूप मिलता है। डफ के इम गीतों में उल्लास की अन्विति रहती है तथा सामाजिक जीवन एवं प्रादेशिक वातावरण के भी सुम्दर चित्रण मिलते है। इन गीतों की लय व धुनें अलग अलग होती है उसे ढाल कहते है। यह बातें कई प्रकार से गाई जाती है इन गीतों के tarfsfree, धार्मक, सामजिक, सांस्कृतिक आदि अनेक होते हैं। कुछ गीतों को प्रमुख रागों के अतर्गत भी रखा जा सकता है। श्री मनोहर वर्मा ने अपने लेख में श्री मह, वि पान्डव धन- विजोग, भरवन का विरह, कान का माव प्रमरगीत, माहेरा, बराय, हीररांगा हवी, कूंजा, स्वच्म, चरसा, मे आदि पर प्रकाश डाला है। प्रश्नोत्तर रूप में हम गीयों के मी मी चलते है। ३६९ इ प्रकार का कायों से इनका पर्याप्त साम्य है परन्तु गायक, नर्तक भी है। परन्तु जहां वसन्त मास, मेयात्मकता या पात्रों की दृष्टि से थोड़ा वही, पृ० २४-४४ वही, पृ० ४-४४ Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 ३६२ संगीत तत्व, लोक साहित्य के एक रस मधुरता, उल्लास और नृत्यएवं बोध का सम्बन्ध है, राजस्थानी डफ के गीत फागु काव्यों का पूर्णतया प्रतिनिधित्व करते हैं। सामन्यतः फागों की यही प्रवृत्तियां हैं पर क्योंकि जैन कवियों द्वारा ही अधिकशत: इन फागु काव्य की रचना हुई है। अतः इसके शिल्प में एक विचित्रता है। कईफाग श्रृंगार शून्य है। इनमें रितुओं की वासन्तिक सुषमा का वर्णन भी नहीं होता | ये शान्त र प्रधान होते है। पर जहा तक स्थूलियन और नेमिनाथ दोनों चरिनायकों से सम्बन्धित फागु है, उनमें मधुर श्रृंगार सर्वत्र परिलक्षित होता है। फायु की इन्हीं विशेषताओं को दृष्टि में रखते हुए श्री अगरचन्द नाहटा ने लिखा है कि वसंत रितु का प्रधान उत्सव फाल्गुन महिने में होता है। उस समय नर नारी मिलकर एक दूसरे पर अबीर आदि डालते हैं और जल की पिचकारियों से क्रीड़ा करते अथाय फागु खेलते हैं। जिनमें वसंत रितु के उल्लास का कुछ बर्गम हो या जो वसंत रितु में गाई जाती हो ऐसी रचनाओं को फागु संज्ञा दी गई है। " फागु काव्यों की एक और शैली शबुदार्तकार वाची अनुप्रसात्मक शैली है। श्री नाइटाजी ने भी इस शैली को फागुबंधी कहा है। ऐसी रचनाओं में ब्दालंकार के साथ यमकच अनुप्रास पाया जाता है। परन्तु आदिकालीन सब फार्गों को इस इष्टि से देखने से कई रचनाएं इस का बंधी बैली में नहीं आ पाती। संगवादः यह वर्मन की एक क्लिष्ट साहित्यिक बैठी है और इससे इसकी शास्त्रीयता स्वाभाविक रसमयी कानु रचनाओं में बाधा पहुचाती है। इस यमक अनुमान बद्धकी में किसे गए कुछ का अवश्य मिलते है। काव काव्यों के पूर्ववर्ती और उत्तरवर्ती काल में इस प्रकार की रचनाएं नहीं मिलती। डी मध्ययम में इस प्रकार के काव्य यमकशास मिलते है। उमाकरणार्थ बेवरत्न सूरि काम, जीरापल्ली पार्श्वनाग फागु आदि। डा० अम्बालाल प्रेमानन्द बा ने इधर फागु काव्य की नई ही परिभाषा है। उनके सुधार का नगी है मद हैं औरन काव्य (प्रकार) का नाम । नागरी प्रवारम पत्रिका वर्ग ५८ बैंक ४ सं० २०११ प्राचीन मावा काव्यों की विविध स्वार्थ-त्री मगर माइटा का Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६३ ऐसा प्रतीत होता है कि फागु शब्दालंकार वाची अनुप्रासात्मक रचना है। संस्कृत मैं जिस प्रकार यमक बदूध अनुप्रासमय काव्य होते है वैसी रचना को भाषा मैं फागबंध कहा जा सकता है। उक्त परिभाषा कहा तक ठीक है, यह तो नहीं कहा जा सकता। पर saना अवश्य है कि इस प्रकार की परिमाया को ही फागु काव्य के लिए खू कर देने से अनेक आदिकालीन फागु रचनाएं, जिनको रचनाकारों और प्रतितिधिकारों मे फागु लिखा तथा कहा है, काय की सीमा में नहीं आ सकेगी और इमको अनेक सरस मण एवं प्रसाद गुण सम्पन्न साहित्यिक कृतियों के हाथ धोना पड़ेगा। श्री डा० शाह ने संभवत: परिभाषा में नवीनता अवश्य रखदी है पर विषय की दृष्टि से यह बहुत संगत नहीं कही जा सकती। क्योंकि इसमें उनका दृष्टिकोण एकांगी है जो फागु के बहुत महत्वपूर्ण अंश को छोड़ देता है। संभवतः श्री डा० शाह के कथन के मूल में यह बात हो कि श्रृंगार जर्मन जैन कवियों की प्रवृत्ति के प्रतिकूल है । अतः अfिiree: उनके कागु यमकबंध अनुप्रासमय ही होते हैं और विषय निर्वेदात, वसन्तवर्णन हीन एवं शीतरस पूर्व पर वास्तव में ऐसी बात नहीं है। जिम जिन जैन कवियों ने भी मेमिनाथ और स्थूतिमद्र को अपने काव्य का रिमाक माना है वे श्रृंगार और वसन्त नादि का चित्रण नहीं छोड़ सके है क्योंकि इन पुरुयों का संच डी पहले श्रृंगार से रहा है और फिर मग मात्र का का मात्र कहना इस साहित्यिक कृतियों की ओर से बहुत कम नहीं कहा जा सकता है। यह सही है कि का are are du org रचनाएं मिली है निगार आदि का वर्षम नहीं है औरकेवल परन्तु विषय प्रवृत्ति और संस्था दोनों ही दृष्टियों से बैच रथनाओं को ही बंद कर लेना होगा, जो काव्यों के मध्ययुग 請 *** र का है काव्यों के पूर्व और परवर्ती काल की अनेक परस कृतियों के आधार पर ही कार के वित्त्वा परिमाया भय दृष्टिकोण का निर्णय होना चाहिए। अतः किसी व्यापक परिभाषा की पर्याप्त अपेक्षा है ताकि उसने दोनों प्रकार की इवियों १० जैन प्रकाश वर्ष १५५६० १६५ परस्य अने भादरी निराश कामना की। Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ के आधार को स्वीकृत किया जा सके और फागु काव्यों का सही मूल्यांकन हो । इन फागु बंध रचनाओं की परम्परा चलती तो रही, लेकिन यह बहुत ही शीघ्र छोड़ भी दी गई और अव्यवहारिक समझी जाने लगी । श्री चन्द शमी ने लिखा है- अनेक फागु काव्यों को उद्धृत किया जा सकता है जो स्पष्ट घोषणा करते हैं कि प्रास यमक शैली फागु काव्यों में सामान्य रूप से प्रयोग में नहीं लाई गई। युग की पीडित्य प्रदर्शन की प्रवृत्ति एवं अंशत: afe के कारण यह विशिष्ट शैली अपनाई अवश्य गई किन्तु आगे चलकर अब तक प्राप्त अंतिम फागु के निर्माता श्री राजहर्ष तक आते आते यह शैली शिथिल ही नहीं हुई जति छोड़ भी दी गई। अतः इस शैली को आधार मानकर फागु की परिभाषा बनाना किसी प्रकार समीचीन नहीं। ' जो भी हो, इतना अवश्य निश्चित है कि फागु मधुमास की आह्लादकारी गेय रचना है। फागुरचनाएं दो प्रकार की मिलती है जैन और जैनेशर बर्थ ब्राहमण परन्तु जैन फागु रचनाओं का शिल्प एक वैचित्रय लिए होता है। कई रचनाएं तो ऐसी मी देखी गई है, जिनमें जैन मुनियों के संयम श्रीसे दीक्षा ग्रहण करने पर कामु की ही तरह रास या क्रीड़ा होती है। जैनेतर विद्ववानों ने फागु अधिक नहीं मिलते है और उनका विल्प भी साधारण होता है। जनेवर रचनाओं के अधिक नहीं मिलने का कारण उनकी असुरक्षित रहना त्या विभिन्न आक्रमण की ही हो सकते है। या यह भी है कि वे किसी ही थोड़ी संस्था में गई हो। जैन फागु रचनाओं के विप विधान में एक विशिष्टता यह है कि उसमें श्रृंगार के साथ जमका सम समय है। मार का परिहार उम में करना बहुत ही कठिन स्थिति है। इन रास को यदि विरोधी रस में पी कहें तो भी इनका सरलता से निर्वाह कवियों की अभूतपूर्व प्रतिभा पर्व विदुबत्ता का सूचक है। इन रचनाओं में जीवन का स्वाभाविक और स्वार्थ विजय है। १. दे० श्री यन्त्र वर्ग का विरि स्थूल व फागु-लेख ना०प्र०प०वर्ष ५९ अंक १५०२४ २० के०मी यार सम्पादितवत विहार प्रस्तावना ५० ३८ ३- बडी इथ वही पृष्छ । Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६५ श्री लालचन्द गाधी फाय रचना को विविध तत्वों से युक्त देखते है उनका कहना है कि बसंत उत्सव से सम्बन्धित, अभिनव उल्लास वाली एवं जीवन को नव नब भावों से पूरित करने वाली विशिष्ट वर्णनात्मक रचना का है जिसमें गाबिक छटा के साथ साथ यमक अनुभसा आदि अलंकारों की मुबमा विद्यमान हो। श्री म०प० अमी ने इसे मधुमहोत्सव पी गेय मक का है। जनवर फागों से जैन फागों के शिल्प विधान का अन्तर स्पष्ट करते हुए श्री व्यास ने भी जैन कागों को इंगार रहित रचनाएं ही कहा है। जिनमें बम की प्रधानता है। पर ऐसी स्थिति में स्थूलिमा और नेमिनाथ सम्बन्धी जितने अन्ध फागु रचनाओं के रूम में होगें, अपवाद ही को जाये क्योंकि इन दोनों परिवमायकों के जीवन का सम्बन्ध गारिक घटनामों से ही रखा है। - - १- देखिए- श्री चैन पत्य प्रकार, वर्ग 1 अंक • ए. ११३ श्री कालचंद गांधी का लेख । * मागरी प्र०प० वर्ष ५९ अंक १ . २०११.१५॥ Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ १४वीं शताब्दी फागु कल PPTE 4 १४वीं शताब्दी से ही फार्गों की रचनाएं मिलनी प्रारम्भ हो जाती है। फाग परम्परा पर पूर्व पृष्ठों पर विचार करने के पश्चात अब हम १४वीं और १५वीं शताब्दी में उपलब्ध कुछ उत्कृष्ट साहित्यिक तथा काव्यात्मक फागु रचनाओं का विश्लेषण करेगें। इन उपलब्ध कूतियों में भी रास की तरह विविध विषयक फागु रचनाएं मिल जाती है। फागु कीप्रवृत्ति कालान्त में इतनी बढ़ी कि १४वीं के उत्तराध और १५वीं शताब्दी के पूर्वाद्ध में तो रास छंद की मीति का एक द · विशेष ही बन गया है इसी समय की अनेक रचनाएं श्रृंगारिक प्रवृत्तियों की मिलती है । यों अंशिक रूप में अन्य रसों और प्रवृत्तियों से सम्बन्धित कृतियां भी इन्हीं फागों में मिल जाती है। फायु काव्यों के वर्य विषयों में रास की ही मीति विविधता मिलती है। कुछ वरित प्रधान फाग हैं तो कुछ कथा प्रधान किसी में घटनाओं का बाहुल्य है तो किसी मैं उत्कृष्ट श्रृंगार है। यह श्रृंगार भी ऐसा जो संयम और म की सीमाओं से बंधा है। इनके अतिरिक्त, काम पराभव वर्णन, राप वर्णन, क्रीड़ा, रमण, नृत्य आदि के पुरुष पक्ष से सम्बन्धित विषयों पर भी फागु संज्ञक रचनाएं मिली है। विविधता की दृष्टि से इन रचनाओं का बड़ा महत्व है। १४वीं और १५वीं शताब्दी में जो प्रमुख काम मिलते है उनमें से जिनका सम्बन्ध नेमिनाथ स्थूमि और नंबू स्वामी से है वे रचनाएं ईमार प्रधान है। कुछ काम पराभव की है और कुछ अन्य विषयों से सम्बन्धित है म का वंशक रचनाएं श्रृंगार बर्मन के लिए नहीं है पर प्रस्तुत बधिकीय कार्गो का सम्बन्ध ऐसे नायकों दे रहा है जिनका एक चरण तैयार में रहा और दूसरा वम में काम के उड़दीपन, संयोग, वियोग के चित्र तथा वर्ष वर्णन के उल्हासित गान इन फागों में उपलब्ध होते है। इन कामों में गहनता है काव्यात्मकता है मधुमास का उल्लास है । वास्तव में मे काव्य गुहारिङ्ग के पैगीत क है। इस काव्यों में सेकई कार्यों की प्रवृत्ति श्रृंगारिक है। समधि जैन कवियों और साधक इनियों द्वारा मार व उनकी परम्परा से प्रतिकूल पड़ता है परन्तु क्योंकि उनके पूर्व पुरुषों गरि डोना नायकों 8 Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और तीर्थकरों में से कुछ का सम्बन्ध श्रृंगार से रहा है अतः उस वातावरण का एक स्पष्ट चित्र खींचने और उसमें अपने चरित नायकों को आदर्श सिद्ध करने के लिए उन्हें इन मयादाओं का थोड़ा अतिक्रमण भी करना पड़ा है। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि इसमें वे असफल रहे। इन्हीं फागु कृत्रियों में श्रृंगार के सफल चित्रण और संयोग वियोग की मार्मिक अनुभूतियों देखने को मिलती है। ताब्दी क्रम से इनमें से कुछ उत्कृष्ट रचनाओं का परिचय प्रमाकित है जिनके विषयों का विभाजन इस प्रकार कर सकते है: १. गेय फागु २. श्रृंगारमूलक काम १. वसंत वर्णन सम्बन्धी फाग ४- यमक अनुप्रसा प्रधान चंगारिक काग ५- स्थान और तीर्थ क्या महापुरुष के जीवन सम्बन्धी गग। उस आधार पर मेव रचनाओं में अधिकतर व प्रधान है। मिनी कामु बंच कहा जा सकता है। अंगार मूलक रचनाओं में नेमिनाथ स्थूलिमा और बंद स्वामी सम्बन्धी कागु बाबे है, वे मेब प्रथा योग वियोग से सम्बन्धित काब है। श्रृंगार को उददीन करने के लिए बन्द रिख सम्बन्धी, तथा काम परापन सम्बन्धी म काथ्यों की भी इन कमियों ना की है। इस मापार के बस मनाया खेती पर जिगर काम्यों पीना मनि " विक्व भूरि काम अब उपमान शाकानी रमा बसे प्राचीन है। रका छोटी और रन मानिसहराट महोत्सव पर ले जाने के शिबिरमा रमा का क्योंकि इनमें सूरिषद सं०१४१ विभा नामक मानवतः खरबर के किसी जैन गा मे हिदी जोगीवामी सम्पपरिबीवियों मिी मे पा प्रतिपादन - -रखर मन पटाकली - सन्यास निजि विया जी.. Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ किया हो। इस छोटी सी कृति में शांतिनाथ की स्तुति वर्णन, गुजरात के पाटण नगर का वर्णन, बसंत श्री वर्णन आदि बड़े सुन्दर वर्णन मिलते हैं। ' कृति का कथानक बहुत ही छोटा है। छोटे छोटे सूत्रों को मिलाकर ही रचना के विषय का अनुमान लगाया जासकता है कवि ने अपने चरित-नायक जिनवरि के महोत्सव पर सुन्दर वसंत वर्णन किया है। दूरि का बील संयम को देखकर कामदेव अपने ससा वसंत सहित उन पर आक्रमण करता है और मदम पराजित होता है तथा समस्त भक्तगण उनकी जयजयकार कर फाग गाते और सेलते है। कृति की समाप्ति निर्वेद में हुई है तथारचनाकार में इसे दोहा छंद में लिखा है। इन कृति की मूल प्रति जैसलमेर ग्रन्थ भंडार की एक हस्तलिखित पोथी मैं सुरक्षित है। प्रति की प्रतिलिपि नाइटा जी के पास विद्वयमान है। उन्हीं की प्रतिलिपि से डा० साडेसरा ने इसका सम्पादन किया है।" यहप्रति डित है लगता है एक पत्रा हो गया है अथ से लेकर २० तक की पंक्तियों नहीं मिल पाती और छी और ११वीं पक्तियों के पी छोटे छोटे टुकडे डी मिलते हैं। जो हो, उपलब्ध पाठीर के आधार पर इस रचना के काव्य तथा भाषा सौष्ठव पर विचार किया जा सकता है तथा अद्वयविधि उपलबुध का काव्यों में की जा सकती है। बाढ़ का बहुत सा अंडित है पर इसकी प्राचीनता प्रति पर्याय महत्वपूर्ण है। प्रारम्भ में मंगलाचरण करके कवि में धमलिवाड़ में होने वाले महोत्सव का चित्रा सींचा है। जिन प्रयोजति पर्व नायक के वंश का परिचय दिया है:संयु, विव वाउलि उरिहार भरेषणमा अरे वा न विसा करे जिन प्रोडरि बाटदि सिरिज विरि केतु मेरे माइक निरिक काम देवि का पू + १- जिनवेद दूरि फाग:प्रा० का०के०डा०सीडेवरा | पु० ३१-३२ | १-अ मा माइटों की गबाड़ बीकानेर ३- प्रा०का०सं० डा ०४५ सम्मेलन का भाग ४००६ श्री अगरचंद नाहटा का हैक-राजस्थानी का काव्य की परंपरा और विपिष्टता । प्रका डा० भोगीलाल प्र० १३४ । Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३.९ मुनि का तेज, शील और संयम को देखकर कापदेव से नहीं रहा गया उसको ईप्या हुई। अपने मित्र वसंत को इलाकर मुनि को शलब्युत करना चाहा और इसके बाद कवि का मन बसत वर्णन में रम जाता है. भरे हयडऊ तपिया पेसिवि न सहए रतिपति माह अरे बोलावइ बसंतु ज सम्यह रितुङ राउ अरे नागए सुह बक्रुिजीतो गोरड करउ वाक अरे इसइ वचतु निसुगविषु आमयउ रलिय वस्तु र असन्त का मधुर वर्णन कवि की काव्य सम्मयता का पखय देता है। प्रकृति की सुषमा वर्णन में कवि खूब मुखरित हुआ है। शीतल दक्षिण पवन बहना बंधकों और कमलों का खिलमा, आमों का बौराना और कोवल टहरूष तथा इन गारिक उद्दीपनों से मनुष्यों के दब में उत्पन्न होने वाले काम का वर्षन मी वर क्यिा है: अरे पाडल वाला वेउल संवत्री बाइ मुच कुंद अरे कंट करणी रायपक विहसिय देवाडि बिंदु अरे कमलहि मंदिहि मोरिया, मानस जवलि लाय अरे पीबला को मला पुरहिया बाबई इकिल वाय अरे परिपरि बाबुका हरिया को मयि बेड बरे मा ए टुहकार बोकर मना रियर की इबाइ वर्षदिदि इस बात को मात्र पर बरसन ने पामिा , कितनी जुनक्रियवाद बरे सिंगारावर विवि परि सब को यह काम रेगिरि कार अनि बाबरा को टिहि नवयक हारु भरे बासीहा मामी वरको भकार बीच बीमोम का साडा• डेसरा, . । - Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगे का पाठ संडित हो गया है कवि ने श्रृंगारिक उपादानों और उदीपन एवं अलंकरणों का बहुत ही मदर वर्णन किया है। सुन्दर श्रृंगार संभवतः इन सोई हुई पंक्तियों में अवश्य रहा होगा क्योंकि ऐसा इन इंडित पंक्तियों से स्पष्ट होता है। इसी संभावना तथा उपलब्ध पाठ के आधार पर ही इस कृति को लेखक ने श्रृंगारिक आख्यान काव्यों में स्थान दिया है। मंडित पंक्तियां देखिए: अरे सिरिया मोहा लहलहदि क्सतूरिय पहिवट अरे .......------- .............--- ट परिया देवगण भाउ । रिण दूरिहिं वजंविहि उहि शील नरिई वेरिवि उत्क्ट विडियर पाय विदेशि विड' श्रृंगार का राजा काम अपने उत्तम प्रवन पर भी मुनि को नहीं जीत सकाारपर्य बजने लगा। बील के अधिष्ठाता पनि उठे और उन्होंने कामदेव को पछाड़ दिया और कायर कामदेव का लज्जित और इंठित होकर भागना था इन्द्र का जगजयकार करना उल्लेखनीय है: अरे ट्रेणिी टेलिशी दीप, मास रतिवति राज नारीय जक मेडिवि जोवर छाडिय " पर विवा पायाशी विवि कोर बीवी इस मा पनि पुरषति इंड। और नायक की काम विजय पर पाटय के उलवित भक्त उत्सव करते है। मार युद्ध की घटमा संस्कृत काव्यापलटी मा रही है अतः पटमा गार प्रधान होने की स्थिति उत निष्ट हो पाती है। मैं कवि श्रावकों के उल्लास और १.प्राचीनकासा बाडेसरा पु. २३२ पब १२-१३ Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आल्लाद, नारियों के नृत्य गान, तथा फागु के मन्तव्य को स्पष्ट करता है: वध माउ करावए सिमिगहि जिपचंद मूरि गुजरात पाटण मला सयलई मयर माहि सिरि जिणचंद सरि फागिहि गायहिजे अति मावि ते वाउल पुसला विलसहि विलसहि सिबमुह साधि ' रचना छोटी होते हुए भी सीव दर है। विकृत अंश सम्भवतः कवि के काव्य का बहुत ही महत्वपूर्ण अंश रहा होगा। फागु की प्रत्येक पंक्ति में अरे शब्द की आवृति है, जो उसकी गेयता की सूका है। यद्यपि रचना के प्राप्ताव में काव्यात्मक प्रतिभा के स्थल बहुत कम मिलते है, परन्तु जितना भी मिलता है उसी से कवि की वैली भाषा तथा उसके उस्लास गान का अनुमान हो सकता है। शब्दों में अनुप्रसात्मकता है। प्रकृति वर्णन पी कवि ने अनुरमात्मक किया है। विसिय विडि बिंदु में कितना निवार अरे रि पुरि आँबुला मउरिया कोवल हरचिय दो ___ अरे अचेतन वे पासिया सिन्हुणी जुगलिय वास अंतिम पछि में कवि की उपदेशात्मकता स्पष्ट होती है। प्रकृति बर्मन में इसी से पहले भी उपदेशात्मक स्व इस काम में मिल पाता है। वर्ष में कवि का कौशल दोही पंक्तियों में देखने को मिल बाबा है: अरे सिरि माह काम बावरा कोटिहि अवाक हार अरे माही हा पाणिहि वर क्यो का रखों कवि ने गार के दीयों के साथ साथीर रस की भी प्वनि का मान कराया है। काम का गबर गेर माना,रमतूर्य का बना और गर्वोन्मत शीलवान पुनि का सम्मा मादि सब कार्य उत्साह की अभिव्यंजना करते हैं: - बही ग्रन्थ, पद २५॥ Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२ रिप इरिहि वजतिहिं उट्टि बील मरित अरे दैठिहिं देठिहि दीठ नाल रितु पतिमाह घर निदह पाय लिहि पुडविहि पंडिय लोउ जीता जीता इयमणइ पवइ सगिगहि सुरपति ईछ उक्त उद्धधरण की इस जय जयकार ध्वनि- कि पाताल के धरनीन्द्र को पृथ्वी के पंडित लोगों को तथा स्वर्ग के इन्द्र को मुनिवर ने जीत लिया- से उत्साह की योजना स्पष्ट है। ___ इस छोटी सी रबमा में अपप्रेस के गिने चुके बहवों के साथ कुछ मालय के प्रान्तीय प्रबुद तथा प्राचीन राजस्थानी या प्रचीन गुजराती की भरमार है। कुछ शब्द- तदभव है एवं कुछ तत्सम यथा:अपनव-मउडू, मेवर, बजविहि, उदिव्य , सया पुषि, समिति, नवरर आदि। मालवी व प्राचीन गुजराती- वाउ लि, पुसला, आंबला, म रिया, उरि, श, गोरड, रलिय, वालर, पुरि पुरि, टुडकए, तणी, प्रकार, नाल, दी०ए आदि। ___ इस प्रकार कृति बहुत छोटी होने पर भी काव्य रित्व पर प्रकाश डालबी । यो रकमा मामा और काम मनोमय परामय की बसका वित्रण करने वाली बबावधि शाम प्रति से प्राचीन और भावपूर्ण है। Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नेमिनाथ फाग ३७३ (पवम्) १४वीं शताबदी में एक लोटा सा काव्य नेमिनाथ फागु मिलता है । इसके रचयिता कवि पद्म है। रचना के नायक श्री नेमिनाथ है। इसी प्रकार के अनेकों काव्य नेमिनाथ के जीवन पर इस काल में तथा परवर्ती काल में उपलब्ध होते है । प्रस्तुत फाग में नेमिनाथ का राजमती से विवाह न कर वीतरागी होने का संविस में वर्णन किया है। | कवि पद्म रचित इस नेमिनाथ फागु की प्रति श्री अमरचंद नाहटा के अभय जैन प्रन्थालय में सुरक्षित है। श्री देसाई मोहनलाल ने तथा डा० मांडेसरा ने भी इसका उल्लेख किया है। का सिर्फ १४ ईदों में लिखी गई है। कृति का छेद दोहा है। जिसमें १० कड़ियों में कवि ने खुलकर वासन्तिक कमाओं का वर्णन किया है। ऐसा लगता है कि यह छोटा सा काव्य अनेक मावोर्मियों से कवि ने छोटे छोटे भावों द्वारा फित है । अत: इसे हम उर्मि काव्य कह सकते है । वर्णनों में एक चटक व माधुर्य का समन्वय किया है। कवि का प्रकृति वर्णन सरस है । प्रारम्भ में मंगला चरण के बाद कवि ने मधु रितु का चित्र खींचा है। उसकी 7 आलंकारिता व चित्रात्मकता इष्टव्य है जिसमें प्रकृतिक या वासन्तिक सुषमा h भूम झूम कर इनती बालाओं के काम खेलने का आस्थाविक वर्णन है। साथ ही नारियों का अश्रृंगारिक व एम रूप चित्र भी उत्कृष्ट है:मलयगिरि रतिया मक्टर दविन बाबार कामिणी मन सोडा बहुत रिवर रा fafe fees afव विवह वही अलि जाति कराव कोटडूक मोविन माय ara जन ais मोटरि बहुमिं करवी कर करगदी नारंग नव रंगि बाद वे वरल सिरि होवन केतकी जाइ tree परिमल महमद वाढ सुगंधर बाइ " Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ पीप पयोहर अपछर गूजर धरतीय नारि फागु खेलइते फरि फरि नेमि जिपसर बारि कडि हि पटउली गडमडा उरि एकावली हारी करियलि कंकण मणमय पय नेउर मकारो अवर संबोल रसि रंगेउ नयषे कज्जल रेड आप अंधारीिय काचली, 'किरि ऊनइ उमेह गोरी कैठि नगोदा बीजल जिम भवति देति कति हीराउली दीपति सहणन जाइ सिरि सीदेखि सयथला भमर माला जिसी वीणि फाय खेलइ मन रंगिहि हंस गमणि मनी १ आगे के छदों में कवि नै नेमिनाथ के आध्यान का बहुत ही संक्षेप में तथा मुम्बर वर्णन किया है। उपमा और उत्प्रयाग में कवि नेमि व राजुल का कुछ ही पंक्तियों में निर्वद वर्णन करता है। फाग खेलती हुई बालाएं नैमि का चरित गाती जाती है तथा उल्लास मैं झूम उठती है। भाषा सरल है। अजूदों का गहन व प्रवाह वर्णनों को उत्कृष्ट बना देता है। अब्दों में थोड़े में ही अधिक कह देने की शक्ति है। मेब रास में इतनी छोटी रचनामें कवि के लिए इससे अधिक कहना असंभव ही था: काने कुंडल सिरिषड़ीव जड किय सिणगार महर सरे सि गायव मे मिहि बाल कूवार अगर कपूर केरउ (उ र सूकवि तम सविवार विही प्रा बेसइ नै मिजिए रितुरा बीजब हार माहिमा निधि महिमा गुरु गाइकर ग्रहण मंडार सिंध गामल वम सोनका राव देव भरतार हंस सरोवरि बिन मिलमा पावर जिम वपराय पसम नपा शिम सानिय बल मुरुम मुनूजाय देव मिरि रतिया मवर बोडी पुरबर सार पानि मा भाविकपमा जिम पाय भवषार Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रचना की वस्तु में मौलिकता नहीं है पर कवि की भाषा का शब्द चयन १४वीं शताब्दी की जन भाका है जिसकी प्रकृति तत्समपन लिए है। संभवतः कवि ने यह रचना नत्य के साथ खेलने व गाने के लिए ही लिखी है। कवि ने अपने मानस मन्थन द्वारा इस उल्लसित उमि काव्य से जन साधारण को प्रभावित किया है। वस्तुतः कृति कोटी होते हुए भी महत्वपूर्ण है। Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६ श्री स्थूलभद्र फागु फाग वसन्त रितु में खेले जाते है, गाए जाते है और उल्लासपूर्ण जीवन की आरहादक अभिव्यक्ति के प्रतीक काव्य है। कई फाग रूपक काव्य भी कहे जाते है। अनेक विद्वानों ने फागु संशक काव्यों की अनेक प्रकार से परिभाषाएं की है जिन पर पूर्व पृष्ठों में प्रकाश डाला जा चुका है। मधु महोत्सव सम्बन्धी ऐसे ही रूपक फाग ? हमारे आदिकालीन हिन्दी जैन साहित्य में बहुत बड़ी संख्या मैं मिलते है। जैन फागों के शिल्प और जैनैतर फागों के शिल्प में बहुत अन्तर है उनमें सेवक काम शान्त रस के छलकते स्त्रोत है परन्तु अनेक ऐसे फागु भी है जिनका वर्णय-विध्य श्रंगार ही रहा है। श्री जम्बू स्वामी, श्री स्थूलीभद्र आदि पुरुषों पर र जितने फागु मिलेंगे, वे सब श्रृंगारिक रचनाएं ही होंगी। ऐसी स्थिति में इन चरित नायकों पर लिखी ये समस्त रचनाएं अपवाद ही कही जाएंगी। सामान्यतः फागु का तात्पर्य रास के मसूण रूप से है। इसका काल मधु महोत्सव या वसन्त रितु होता है और इस काव्य रूप में गेय-तत्व नृत्य, संगीत, रुपक आदि सभी उपादान समन्वित रहते हैं। श्री के०व्यास ने जैनेजर फागों और जैन कार्गो पर बहुत ही बिस्तार के प्रकाश डाला है। उन्होंने भी जैन फार्मो को वन प्रधान या श्रृंगार रहित रचनाये ही कहा है परन्तु मै उनकी परियाका में नहीं जाने वाले अपवाद है। द्रि और नाथ के Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७७ श्रृंगारिक घटनाओं से सम्बन्धित होने एवं प्रेमाख्यानक वृत्त होने के कारण ही इन रचनाओं की प्रवृत्तियां अंगारिक है। स्थूलिभद्र फागु ऐसी ही रचना है। स्थूलिभद्र स्वयं एक श्रृंगारिक नायक रहे है और क्यों कि उनकी प्रारंभिक पत्तियां श्रृंगारिक है, अत: इस काव्य को श्रृंगारिक काव्य ही कहा जाना चाहिए। प्रस्तुत काष्य के अधिकांश अवतरण श्रुमारिक है। रूप-वर्मन पर्व नसविस वन में एकअपूर्व श्रृंगारिकता, प्रेमाख्यानकता एवं चमत्कारिकता है ।अवः स्थूलिभद्र काय को गारिक रचना कहा जासकता है। सर्व प्रथम यह रका प्राचीन गुर्जर काव्य में प्रकाशित हुई थी। और अब इसका पाइ डा. भोगीलाल साडेसरा ने सम्पादित कर दिया है। उनके सम्पादन से पूर्व उनका यह पाठ प्राध्य विद्या मन्दिर की पत्रिका में भी छप सका था। डा. साडेसरा मे प्रस्तुत कृति के पाठ का आधार बलात का पाठ एवं पाटण मंडार से प्राप्त प्रति के पाठ को रहा है। स्वर्गीय श्री मोहनलाल देसाई ने भी अने प्रस्थ जैन गुर्जर कवियों में कृति का नाम एवं आदि अन्त दिया है। कृति के रमाकार श्री जिनपद्म सूरि है। जिनपद्ममूरि का परिचय ऐतिहासिक जैन काव्य-संग्रह मंत्री नाटा जी ने विस्तार से दिया है। पूरि जी स्वेताम्बर सम्प्रदाय के घरबारमा । को संवा १. आराय-पद पिता और • १४0 तक इनका मासान मा सम्पन: इस कार की रका संवा रे .... के बीच पीकहीं शेषी। पाटन में इन्हीं पुरि जी को (वास पासवति सरस्वती) का बिल्य खिा ।' प्रतिमा का एक गारिक बन्ड काव्य है, जिसी स्था नास का पूरा चरितमी मिला उसके जीवन सम्बन्धी पूर्व कार्यो और म-व्यापारों का Marat..श्री. बीधार.९ . प्राचीन की नीलाल साडेसरा.प्राचीन गुर्जर अन्धमाल...." - शिव रेविहासिक जैन का ५. वही ग्रन्थ, बही महकी अमर वरतात माटा- प्राका-डामाडेसरा,.. Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कवि वर्णन नहीं करता। इस काव्य वारा चरित-नायक के व्यक्तिगत जीवन की कोई सूचना हमें नहीं मिलती। तत्कालीन साहित्य के मय ग्रन्थों के आधार पर ही स्थलिभद्र का चरित्र जाना सकता है। वस्तुतः यह भी सम्भव है कि कवि ने इस प्रभावोत्पावक चरित को उसकी अमेधक्षा के लिए ही जना हो। विलासी और पेन्द्रिय लिप्सा में डूबे हुए इस चरित्र को भी सूरि ने एक अपूर्व आध्यात्मिकता में ढाला है, जिसमें एक उज्जवल संदेश है जो समस्त मानवता का नेतृत्व करने में सक्षम है। यह भी संभावना की जासकती है कि कवि ने संविस्तता को ही अभिव्यक्ति का माध्यम जुना हो। स्थूलिभद्र के जीवन के प्रथम तीन दशक विलास प्रधान रहे थे। नगर की वारांगना कोश के साथ ही स्थलिभद्र लिप्त रहते थे। अत: परम्परा के कारण कवि ने उसका उल्लेख इसमें करना ठीक नहीं सममा हो। या कवि ने उनकी जीवन की समस्त घटनाओं में से इसमहान विचिन, कठिन एवं असाध्य घटना को ही अपने काव्य की रचना के लिए चुका हो, जो उनके जीवन की असाधारण एक महान एवं आदर्श घटना है। वथा भाग ___जहा तक प्रस्तुत काव्य के चरित-नायक का प्रश्न है, वेचन इतिहास के एक महत्वपूर्ण पुत्र है। उनका यक्ष-वर्षन अनेक काव्यों में भा है। वे स्वयं एक बहुत ही प्रतिमाशाली साधक जैनाचार्य थे। जैन समाज में इन अपूर्व बीयरागी की बड्डी प्रतिष्ठा है बथा जैन उनके मा को वीर्षकों का पर्व बभर मानी है। कवि ने इसी चरित-नायक को अपना विश्व बना कर गब्ध की रेखाओं में बाधा है। २७ कड़ियों के इस छोटे से काम के कषि मे भाविकालीन काव्य-प्रवाह में एक मवा अध्याय जोड़ा है तथा वर्षन की प्रसादमबी ली उसे अभूतपूर्व सफलता मिली है। पाटन ग रामा क्व इबिहार में प्रसिद्ध हुआ है और उसका मन्त्री अक्टार भी प्रमिल है। ब्मित इसी शक्टार के ज्येष्ठ पुत्र थे। पुलिस की रियो अत्यन्त उबलता पूर्ण एवं बैलासिक हो गई। प्रारंभ है की समका सम्पर्क पात्रि की एक बारीमना कोशा से हो मबाबुस्लिा विकास में डूब गए। दिन रात उसी के यहा पो हो । योग ही उनका कार्य था। Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैलासिक वातायनों की रंगी नियों के ऐश्वर्य के अतिरिक्त उनमें कुछ भी नहीं सुहाता था। राग में कर्तव्य का ध्यान ही उन्हें भूल गया / कोश वैश्या के यहा स्थूलिभा ने इसी तरह अपने जीवन का एक अमूल्य युग पूरा कर दिया। इधर शक्टार ने यह समझ कर कि उसकी मृत्य तो निश्चित है, उसके बाद उसका सारा परिवार मी मारा जाएगा, अपने छोटे लड़के श्रीयक से जो स्थूलिभद्र का अनुज था, कहा कि मेरी मृत्यु के कारण परिवार की रक्षा हो सकती है। ज्यों ही में सिर को नीचा कर ई तुम कह देना कि ऐसा राजद्रोही बिरोधी तथा अस्वामी भक्त पिता मुझे नहीं चाहिए। हुआ भी वही। इसके पश्चात मन्त्री-पद के लिए प्रश्न आया। श्रीयक ने स्थूलिभद्र से कहा। स्थूलिभद्र को जब ज्ञात हुआ कि तुच्छ राग्यपद के लिए पिता का 'वध हो गया है और माई श्रीयक इसके मूल में था, तो उन्होंने राज-सभा में जाकार * मया आलोचितम्भ कहने के साथ ही अपने के उखाड़ डाले। स्थूलिप को वैराग्य हो गया। संसार से एक बम विरक्त होकर बे चल पड़े। आचार्य संभूति विजय को उन्होंने दीक्षा गुरु बनाया उन्हीं के पास तप एवं अध्ययन प्रारम्भ किया। विधिवत् दीना पाने से, सम्यक् आचरण, साधना एवं गुरु-प्रसाब से विसाली स्थूलिभद्र जिनकी काति कंचण "जिम भलकति थी, अब कर्मळ, तपस्वी, योगी एवं जिवेन्द्रिय हो गए। प्रथम चतुर्मास का समय आया ।सबने गुरु जी से अपने चतुर्मास विद्या के स्थान पूछे। स्थलिमह मे गुली के उसी कोशा का प्रासाद बिहार के लिए मांगा। विविजय को उनकी जिजेन्द्रियता पर बस विश्वास हो गया था, उन्होंने माझा दे दी और से प्रसन्नता मे कोश के प्रासाद को मा बाहुनासिक विकार बनाने को बल थे। बालोय कृति की कथावस्तु यही से प्रारम्भ होती है / स्था का सूत्र स्पष्ट करने के लिए उक्त पूर्व क्यासार वे किया गया है। लिये बगल में कोग के यहा प्रवेश किया,क्यों कि चतुर्मास वाकाल को ही कहा जाता है। कोश ने अपने श्रृंगार को चरम पर पहुंचाया - देखिए पनि कामुप्राचीन गुर्जर धमाला // Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हाव भावों से अनेक कला-बाजियां दिखाई, पर बितेन्द्रिय स्थूलिभद्र तो लौह घट हो गया था। कोश हार गईं, पुनि की चारित्रिक दृढ़ता के समक्ष उसके मारे राग-रंग हाव-भाव और अंगराग मलिन पड़ गरी स्थूलिमन की काम पर अभूतपूर्व विजय हुई। वे चार माह तक उस घोर वैलासिक बातावरण में रहकर भी उससे असंपृक्त बने / रहे। अन्त में कोग को प्रबोध देकर पुनः गुरु के पास चले आए। पास केपश्चात पत्ता के सण दोडा में मिलती है। जो बा की समाप्ति और नए मर्ग के प्रारंभ की सूचना देते है। साटों भासों में कवि ने क्या के मार चित्र दिए है। जो उसके विदाच शिल्प-चातुर्व की वमता के परिचायक है। बहकाव्य और गारिक काव्यों की परंपरा के अनुसार कवि ने मंगलावरण प्रारम्भ में रखा है: पगामिय पास जिद पर अनु सरसह समरेवी धूलि मइद पुषिवर भाषिए कागु बन्धि गुणकवि इससे कवि की फागुबन्ध शैली पर भी प्रकार पड़ता है। फागु बन्धु शैली के अनुसार इसमें कवि का एकागी दृष्टिकोष नहीं रहा है। इसमें भी एक विरह विदग्धा वारांगना कोश को 11 वर्ष पुरा देकर प्रियतम स्थलिमा चले गए और पुनः मिल रो, इस धारणा का अपूर्व मुख किया जा पर वास्तवमाथि कोश का पुनर्मिलन नहीं हो पाया मान की बी किरणों को उत्तानबा नहीं थी, इ हो मान और काम का प्रकारानामिका उसी विलासी पार ई. सगे स्वाद हो गया है कि विप्रलय भार वामावरमा सिनिवार दो सफल नहीं हो पाया, पर नायक की गायिका निभाव देववाओं का पुष्प वृष्टि करना और सामानों वारानी गाने ने और रंग। इनकर आनन्द मनाने की मियानोनिती की रचना की गई है।अनुप्रास तथा फागुबन्ध ली इसमें नहीं दिशा की। ग्रामि उदाहरण ..... - ४.धावीमकायहभीडा. भोगीलाकोडेखरा.प.३२॥ Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से रचनाकार ने काम विजय की घटना के सफल निर्वाह के लिए तथा श्रावकों के सोल्लास गाने और कीड़ा करने हेतु ही इस फागु की पुष्टि की है। कुसुम इटिठ मर करह बुदित छ जयजयकारो धनु धनु राजु थलिभड्द जिणि जी भारो' बन्दउ सो सिरि धूलिद जो जगह पहाणी मिलियउ जिणि जगि मल्लसल्लर इबन्लहमापो खरतरगच्छि जिणपदम सूरिकिय फागर मेवर खेला नाच ई चैत्रमा चि रंगिहि गावेवर / इसकृति से आदिकालीन हिन्दी जैन साहित्यकारों की काव्यात्मक प्रौढ़ता परिलक्षित होती है। अनेक स्थल काव्य-माधुर्य के हलकते रव-स्त्रोत है। काव्य की अनुप्रासात्मिकता ध्वनियों की अनुकरणात्मक, अलंकारों की प्राकृतिक छटा, काव्य की नादात्मकता, माधुर्य और प्रसाद का स्वाभाविक निर्वाह भाषण में असाधारण प्रवाह अब्द की कोमलकान्त पदावली, रसात्मकता प्रभृति मधुर-चित्रमों का अनूग समावेश है। नहीं होकर वर्मा व से प्रारम्भ हवा है. इसी का भी स्पष्ट to एखी कृतियां बसन्तु बर्षन के अतिरिक्त भी किसी भावा प्रारम्भ की जा सकती थी और काम प्रवर्तक बन्य की पलिदिनी काम में पीस रागात्मकता क्या बरसता का समावेश किया था. मया / इसरे चित्र में कवि ने कोश का रूप ' विन किया।म बिस की विमा , पूर्व काम-सौष्टव एवं रसात्मकता की परिवाक्षिका है। बायो माविका के हाव-भाबों, कटाधों का तथा मास की इबा और पीक सीमों का चित्रण है, और अन्त में नायक की काम - Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 381 विजय। इन दृश्यों की काव्यात्मकता तथा कला सम्बन्धी प्रवृत्तियों का अध्ययन यही संक्षेप में प्रस्तुत किया जा रहा है। जिनपद्म सूरि ने फागु के वर्षों में परंपरा के निर्वाह का ध्यान रखते हुए भी पर्याप्त स्वतन्त्रता का उपयोग किया है। माव और कलापक्ष दोनों ही बड़े सबल बन पड़े हैं। कवि ने स्थूलिभद्र का वर्णन भी किया हैमारियों के स्प-चित्रण में बहुधा कवि सम्ल होते ही है पर पुल का म तथा चारित्रियक चित्रण में कवि ने अभूतपूर्व चमत्कारिकता की पुष्टि की है। एक उदाहरण देखिए: अह सोहग सुन्दर स्ववन्तु गुनमावि मन्डारो कंचन जिम फलकन्त कत्ति संजय-सिरि हारो / कंचन जिम मलकन्त कन्ति और फैजन सिरि हारो- दो उक्तियों में की कितनी तीन अभिव्यक्ति है, जिसमें यौवन और संयम दोनों का एक ही साथ परिचय दिया गया है। सर्व प्रथम प्रकृति-वर्णन को ही लीजिए। कवि ने वर्ष का अपूर्व वर्णन किया है। वी-वर्णम पूरे तीन छन्दों में हुआ है। अब्दों की अप्रासात्मकता, काव्य की ध्वन्यात्मकता, पावस की प्रचन्डता, विपतियों का गर्जन, पाराधरों का दुराधर्ष प्रकोप, अजस्त्रष्टि तथा विरहिनी कोश का प्रबंपिक इमा-किशमी सहरमा चित्रित किया गया है। रसात्मकता और गमवों की परमात्मा वैविण मिरमिर मिरमिरि रितिरि प हा परिसी सडक बलहा र वाला बाशि भरार बार घरहर र विरहिदि यमुबह किरणी कोरा का मन कर गया। मेव का मार मर्डन ज्यों-ज्यों होता था, मन को काम के बीच र यो वा मतियों का मानन्द और केतकी का मौरमित भवनाम हराकर कोश को पालो। १-पान का ग्रा.श्री डा. साडेसरा पु... .मी. Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महुर गम्भीर सरेण पेष जिम जिम गाजते पंचबाण नियकुसुमबाग 'तिम तिम माते। जिम जिम केतकि महमन्त परिमल विहसावइ 'तिम तिम कामिय वरष लगिग नियरमणि मनावइ / परिमल का विकीर्ण होकर बिसना और कामी पुरुषों का अपनी मानिनी पत्तियों के पैरों पड़ पड़ कर उनका मान मनावन कितनी तीव्र कल्पना है। पाव का संवहन करने में भाषण कितनी सक्षम है। प्रकृति का काथ्यात्मक चित्रण उसका प्रस्तुत, अप्रस्तुत दोनों रूपों का मोहक एवं चित्रात्मक वर्णन उल्लेखनीय है: बीयत कोमल मुरहि वाय जिम जिम वाक्ये माप पडफ्फर माणषिय विम तिम नाचन्हे जिम जिम जलपर भरिव मेह गाणि मिलिया तिम तिम कामीतमा नयण मी रिहि लहलिया विदगृथा मानि नियों का आवेश मान में आकर नृत्य करना और बिरडिपियों के अनुपूरित नयन सभी कितने उल्लेखनीय चित्र है। वियोग-पब में वी रितु की सपस्त सुखद वस्तु की संवेदना देने वाली हो जाती है। शब्दों के सरगनकारी मार में जै पावस साकार हो रही है और वही माविकानों की बिरा-पीड़ा का साधारणीकरण अनुभव कर माडू बहा पी है।माव वडकर मानषि व बिन सिम माबोर में किसनी सकट बाकि है। पावस में इनी देवों की मार मर्यबा और विवतियों के प्रकार में कोश के लिए मामा-हिर कर लिला बा / / झारखोरव पर ही स्थलिमा चकित चिस्व परिवारिकाओं सम्मान पावोग की प्रसन्नता का भी क्या wie mm पन र भान उत्सुकता में वह मुनि के पास दौड़ी बाबी Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . मुनि का तेल देखकर अपने से ही उसके हाथ ऊपर उठ जाते है। करबध कोश की विचित्र स्थिति हो जाती है। बाजलि देखकर मुनि उसे कहते है."धर्मलाभ। मंदिर तोरणि आविया मुणिवा पिक्सेवी बम क्यि वित्तिहि दासडिय बेगि जाइ बधावी वैसा अतिहि उतावलि य हारिहि लहकती आवीय मुषिवर रायपासि करयल जोडती / "धर्म लामा कह कर मुनि उससे विहार के लिए चित्रशाला मागते है। कोश पर उल्लास में इन बड्दों का कुछ भी असर नहीं होता। उसने सोचा अभीष्ट मिल गया पर उसे क्या पता कि विलास में डूबे रहने वाले स्थूलिपद्र अब जिनेन्द्रिय स्थूलिभद्र मुनि हो गए है। मयूरों की मधुर ध्वनि में और मेह की पट्टी में कोशा अपनी स-सुधा के गर्व में डूब जाती है। सत पर पदी पड़ जाता है और उस वीतरागी को अपने अलौकिक श्रृंगार और नस-रिस की सजावट से स्खलित करना चाहती है. कवि ने उसके यौवन-उन्माद व्या सौन्दर्य सुषमा के अनेक मुन्दर चित्र खीचे है। नख शिख वर्षन में कवि श्री जिनपद्मसूरि मे अपश की समस्त काव्यात्मकता एवं रसात्मकता ही रेल दी है। कोश का बाक बन्या बनना बनेगारिक उपादानों और अकिरनों से अपने शरीर को बबामा उल्लेखनीय कवि का गाविस अत्यन्त असाधारण बम पड़ा है। नायिका की गति , रक्षका अंगरराम चुरों की मधुर ध्वनि, बेनी, रोशावळी, यवस्था आदि सबको कवि ने अनूठे उपमानों और गुन्बर उत्प्रेवानों से संपोबा है। अबपिड काम में मिलने पर इस संतिकाल में इनका प्रयोग होमा निविड महत्वपूर्ण है। मा विकास वोह मन काटि. बार शिरक माटि / 1. प्राचीन का ग्रा. डा. साडेसरा पु.॥ प्राचीन काम पाडेसरा पु.॥ Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सौरमित चम्पा और केतकी के कुसुमित पुष्पों से भरी हुई कबरी और मुन्दर परिधान सभी सौन्दर्य मुक्मा में योग दे रहे है। बषय केतकि गाइ कुसुम सिरि पुंच भरेइ अति आठ सुकमाल वीर बहिर पि पहिरेइ लहलह लहलह ए उरि मोतिय हारी रमरण रबरष रमरण ए पगि मेकर सारी मगमग मगमग जगमग प का निहिं बर कुंडल मलहल मलइल मलइल ए भापरह मैडल / उसका कामदेव के बढ़ग की माति देणीम्ड सरल तरत और श्यामल रोमाकी दण्ड उल्लेखनीय है विक्षस्थल की उपमा भी उस समय की .कतियों में अति नूतन है। कल्पना और उपभानों में अतिरंजमा नहीं होकर सरसता एवं स्वामा बिकता है। तुंग पयोहर उल्लसह सिंगार थबक्का कुसुमबा णि निव अभिय कुंभ किर थापपि शुक्ला इंग पयोधरों की उपमा श्रृंगार के पुष्प स्तकको अथवा कामदेव के अमृत कलवों के देकर कवि ने उक्ति वैवध पर्व सुन्दर प्रेक्षाओं का परिचय दिया है। कोश ने अंगार और समया के बल पर ही उसे अब सेना बारा। आगे काल, क्षास्थल पर पर बुरी, कामों में कामदेव के बोला की मावि मानों की बमक, कामदेव के विकास मन्त्रों की बात उसकी बाप, काबबरमरित लास की कातिनामि, क-गावल्य लिन मान, मन की मावि दर उसके मपल्लव भाव को पहले मुगर की खिों पर ध्वनि, मात की पाशि उसके अपर बि, बया की भावनावली, बनी हुई रतिलीम का साकार का, सलोन मयन व्या अनेक गमावोस गुगसम्पन्ना कोश के नाशित जबर मार टन भापति गिनि सिरि संथा काई बोरामा बढि fee पुन र मैडल बोदेड बाबा // Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 385 कन्नजयल जसु लहलहत किर मयाहिंडोला बैचल चपल तरंगचंग जसु नयण कचोला सोहइ जासु पोलपालि जपु गालिम सूरा कोमल विमल मुठ जासु वाजई संबतूरा लवणिम रस भर कूवडिय जा नाहिए रेहद मयन राय किर विजयसंभ उसु अरु सोबइ गयु नह पल्लब कामदेव अंकुछ जिम राइ रिमझिपि रिमझिमि ए यायकम लि चाप रिय सुवाजइ नबजोवन विलसत बेह नवनेह महिल्ली परिमल लहरिहि मयमवंत रइके लि पहिल्ली महरविंब परवाल खंड बरषावन्नी नयम बलूगीय हाव भाव बहुगुण संपुन्नी' रचना में अभिनयात्मक प्रवाह है और उत्तर प्रत्युत्तर जैली भी परिलक्षित होती है। स्थलिपद्र के पास कोशा अनेक श्रृंगारिक चेष्टाओं एवं हाव भाव दिसाती है। लेकिन शनि का पसीजना तो दर रहा, कोई प्रभाव ही उन पर परिलक्षित नहीं होता। काम उनके सरीर का स्पर्व ही नहीं कर पाया। कोश का मार मालिम हो जाता है, हाव भाव लि हो जाते है। रीसरे साहब को एकत्रित कर अपनी हार को सियासी प्रेम मि को कामे कमी है प्रियन) इन 'किने निफर हो।।९ वर्ष साथ रहकर इस बरस बर्द बन कर के जेड़ नाना क्या उपयुक्त है। पक गुम के मे को लोहने का क्या काल बार बारित पर ह किसी कारमसि एका मिस कर कि जिस लिलागे ) बन करो। मेरा हवय तो अब लौह पट हो गया। अब इसमें भारी बानी की बावा नहीं जा सकती।जिनेन्द्रिय में दुर्बलता सी। "बी. Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 386 थूलिपद पभणेइ वेस अहदेषु न कीजह लोहि हि धडिया हियउ मम्म वह वयणि न भीजइ / लौहघट हृदय की काता सिद्ध करने में कितना सार्थक शब्द है। परी कोश के हृदय पर लोहिपडिया हिया का प्रभाव उसी प्रकार नहीं पड़ा जैसे उस पर मुनि के धर्म ग्ब्द का नहीं पड़ा। उसने फिर अपनी काम भावना को मुनि के सम्मुख रखा, अपनी विच्छित्ति और वाक्चातुर्य से उसने उन्हें जाना चाहा, भोग का लालच दिया पर मुनि तो संघमश्री को अपना चुके थे, उसी के साथ वे रमन करते थे। अतः कोश को उन्होंने हाः है कोग) ने संयमश्री से वरण कर लिया, संयमत्री के मोहक हाथों मेरा मन बिक गया। अब मैं भोग भी उसके ही साथ करता हूँ। नारी को अविश्वास हो गया। जैसे उसको संयमत्री लौकिक स्त्री मात्र जान पड़ी। नारियों के मनोविज्ञान को सार्थक करती हुई वह बोली:- पुरुषों का नवीन स्त्रियों के प्रेम में फंस जाना स्वाभाविक है। तभी तो आपने मुझे क्याग कर संयमत्री को अपना लिया। भाव यह है कि इसमें आपकी क्या विशेषता है. सिद्धि और मुक्ति भो तो स्त्रियां ही है वर्णन कितना अनूठा है। काव्य में अभिनय का क्रम और बीब्रतर होता जाता है: यह वितिय उवरिया अपराग घरीजा एरी पावस का ति पापीगड है माथ। सुहाना वर्गगल है। सब को छोड़ मेरे साथ मानन्य भोगो पर स्कूलिभद्र का तत्काल प्रत्युत्तर उ शिथिल बनादेवा है, क्योंकि उनके हाथ तो चिन्तामणि आ गई थी. अब उसे छोड़ कर पत्थर कौन इन करेगा। संगमश्री की ग्रीन हाथ की परीर बष्टिवाती लौकिक स्त्री से तुलना क्या मुणिवा जपा मेस शिविध रवनी परिवा म तीन र सिरीहिमोम रमेवा - वही वही छ। Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 387 चिंतामणि परिहरवि अवण पत्थर गिहणेइ तिम संजमसिरि परिणएवि बहुधम्म समुन्चल पा लिंगइ हुड कोस वा पसरंत महाबल पर जीवन की समस्त साधना से अपने सम्पूर्ण योवन का अयं चढ़ाने वाली कोश का काम तब मूञ्छित हो गया, जब मुनि का घोर शीलवत एवं बारिश्यक संयम स्पष्ट हुना। वीतरागी को मगध करने वाला और अपने दृढ़ निश्चय मेहटा कर विमोहित करने वाला अब तीनों लोकों में कोई नहीं था। मार के सब मोहन, मादन और बशीकरण सब मंत्र तंत्र व्यर्थ सिद्ध हो गए। काम का पराभव और मुनि की विजय मिस्वंदेह शम की श्रृंगार पर विजय थी। कोशा ने यौवन का लोभ बिताया, नारी हृदय की दुर्बलता को बार बार सामने रक्सा, पर संयम की आम में विकास अलस गया। भाम के स्फुलिंग उड़ने लगे और कोशा और काम दोनों हतप्रभ एवं हतवर्ष हो गए। कोशश की स्थिति ठीक ऐसी ही हुई जैसी महात्मा बुध को श्रृंगार एवं सज्जा से रिझा लेने का अभिमान करके आई हुई वैशाली की प्रसिद्ध वारांगना आम्रपाली की हुई थी। स्थूलिभद्र अटल रहे और अन्त में वह उनके चरणों पर गिर पड़ी। मुनि ने उसे प्रबोध दिया: पहिला हिवडा कोर कहा जुम्बाप का लीजा भारि संससिरिरिक जीवा अपि बोला कि मह मिति हो बका भवपाले जोमा मोबा मारी हार गई। काम बाको के हाव-भावों और आयात्मक रविना का अभिनय समान हो गया। उस पयों से काय का गेय स्मक कहलाता जाना बिइप होवा पीवि talwar है और उत्कृष्ट अभिनय के सभी गुप विनाम है। मा वि स विनिम्न चिों इवारा स्पष्ट होता है। बलकारी ग स्वाभाविक मिवार काव्य के कलात्मक-पथ को अपूर्व निवार बेवासी गोविय की ही मासि इस कृति में सरसता, मधुरता और कोमलाल पदावळीथा मकारों का सर्मिक वर्णन है। मनसा और उत्तवानों की हो / Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 388 घटा ही उमड़ी आती है।पक मी बड़े मार्मिक है। इसके अतिरिक्त सुन्दर उपमाए दृष्टान्त, उदाहरण, वीप्सा ,अथान्तरन्यास, वर्णनगम, उल्लेख आदि अनेक अलंकार है। कुछ उदाहरण देखिए: (क) फिर पिरि मिरि मिरि मिरमिरि ए मेहा बरिसंति खलहल खलहल खलहल ए वाहला वहति रिमझिम रिममिमि ए पायकम्मलि धाधरि. अनुप्रसाों के अतिरिक्त उपमा, रूपक और उत्प्रेवाओं की मधुरता भी उल्लेखनीय (स) जसु वह पल्लव कामदेव अंकुस जिम राजा (ग) मयण खग्ग जिम, लहलहंत जसु वेणी दंडो सरला तरलउ सामला रोमावलि वंडो (घ)तुंग पयोहर उल्लसइ सिंगार धबक्का कुसुमवाणि निय अमिय कुंभ किर थापणि मुक्का (30) कम्न जयल जसु लहलहंत किर मयण हिंडोला (च) सोहइ जाड कपोल पालि जा गालिमसूरा (8) महर बिंब घरवाल मंड बर बंधामी सीमल कोमल पूरी बाब जिन जिम वाद भाव मडकर मानषि व बिन विम नाचते और भी अन्य उदाहरण उल्लेखनीय है, जिनमें स्वाभावोक्ति और वास्तनिवास हि महत्वपूर्ण है: (क) उमसमरसभर परिवा रिमिरार भइ विद्यामणि पहिरवि का पत्थर मिहह जिन मधिरि परिवपि बहुधम्म समुज्जल मालिना मुह कोस व पसरंत महाबल 1 - वही . 4 पद 9, बापा कवियोः के०कामशास्त्री का स्लीपर घर विश्लम। Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ () लोहिहि पडिया हिया, मम्म मुह बयणि न भीजह () कम्म जयल जसु कहलाईन किर मयण हिंडोला चंचल चपल तरंग चंगु जसु नयण कचोता (ट) सोहा जासु कपोल पालि जमु गालिम-पूरा (8) मेहारव भर उलटिब जिम जिम नाचइ मोर तिम तिम माणिपि सलमला माहीता जिभ चोर / इस प्रकार ये अलंकार, काव्य में एक अपूर्व नाद की पुष्टि करने में योग स्थितियों पर भी प्रकार डालती है।राजनैतिक पृष्टभूमि में चरित नायक के पिता सक्टार का वध, राजकीय अप्रसन्नता, विद्रोह आदि आ जाते है और बद्गत संक्रातिकालीन स्थिति का एक चित्र स्पष्ट होता है। धार्मिक अवस्था भी स्पष्ट होती है कि उस समय भी मुनियों का संयमत्री से विवाह होता था। रिषियों की मार पर विजय, अधालु भक्तों की धर्म-प्रवणता तथा मुनियों द्वारा जनसाधारण को शान्ति तथा आध्यात्मिक संदेश और राजकीय खटपटों में भी धर्म प्रामधारा के रूप में अजस्त्र प्रहमान था। जहा तक सामाजिक रीति रिवाजों अथा स्थितियों का प्रश्न है, वह भी इससे स्पष्ट हो कि राजघराने के बावकों में किस पर विकास पर कर मया या वारस्परिक ईवी-देव और राज्य सिम्मा का पार मात्व पाण्या प्रथा भारतब भी प्रचलित धीमी केहवराम शास्त्री ने भी इसके विकासका लिा / ' फागु और राम ने की प्रथा भी विद्यमान थी, और होम सि प्रकार काम होनृत्य और राब, गरबा, पर मादि क मियों के माचरण और चतुर्मास की विधि की स्पष्ट होगीचा पालिका देवमाय तथा अन्य किसी प्रकार का मामी बार किसी भी स्थान पर अपना चतुर्मास कर सकी है। पाली और वैश्या दोनों प्रधानों की सम्यक् व्यवस्था का भी वर्षम मिलना - - - - - - या दिशशती सीमा पर विक्सि। Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। इन्हीं सब मूल प्रवृतियों के आधार पर प्रस्तुत रचना का मूल्यांकन किया जा सकता है। जही तक स्थूलिभद्र फागु के रस का प्रश्न है, यह बहुत ही स्पष्ट हो जाता है कि कृति में कवि ने प्रमुख कम से श्रृंगार का वर्णन किया है और यह सब भी है कि श्रृंगार अपनी सम्पूर्ण सजा के साथ अपने स्थायीमाव सहित निम्पन्न होता है। परन्तु श्रृंगार के इस कोड़ में वीर और निद भी बलने हुए परिलक्षित होते है। मार और स्थूलिभद्र का संयमयुध अवश्य ही वीर रस का वातावरण प्रस्तुत करता है। लौहपाट का मा हृदय रखने वाले उस बीर ने कामदेव वा रतिवल्लम के, जो संसार के बड़े बड़े वीरों के हृदय में तीक्ष्म र की भाति चुपने वाला था, मद को बुरी तरह बिदीपं कर डाला। उसका कामरथ बतशव खन्डों में चूर होकर धराशायी हो गया। संयमत्री-हार स्थलिभद्र की इसी संवम पूर्ण वीरता में वीर रस निम्पन्न होता हैऔर अन्त में स्थूलिप इस समरागण में किस प्रकार अपनी ध्यान या संयमरूपी तेज तीक्ष्ण तलवार से अपने प्रतिद्वन्दी को विमष्ट कर देता है. उत्साह की व्यंजना देसिप बइ बावन्तु म मोडराउपिनि माथि मिया डिर फार मडाणिव मयनमा समरंगवि पाटिल कुसुम बुढि पुर करइ पु जाकारो धनुधन पाइलिलाब पिषि बीब मारो मम्ब बोधिरि धूलि भइव वो माह पहायो पनि विवि मि म सरसामानो। परमार और बीर दोनों रसों का बमम त में कवि ने निवेद में कर दिया है। कोणा को प्रयोग कर, काम वियव कर, मुनि पुनः वैराग्य में उसी पथ पर चल को बार अपने गुरु के पास विजयीवीर की भाति प्राय होते है। LLLL -- १- प्राचीन कानुसाइः डा. बाबरा. Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३११ अतः समस्त श्रृंगार पर्व वीर शान्त रस के गाभीर्य में समा जाता है। यौवन के उच्छृंखलित बलबल खलबल बहने वाले "वाढले" (बरसाती नाले) शम के कठिन कारों में बांध दिए जाते हैं, जिसमें यौवन के मधुर रस का स्थान संयम की अग्रिन ले लेती है। अतः कृति की अन्तिम परिणति निवेदयाश्रम में ही होती है। श्री अक्षयचन्द शर्मा लिखते हैं कि -कामु के प्रारंभ में कवि ने श्रृंगार रस का उत्कर्ष दिखाया है। कोड़ा की विलास चेष्टाओं के वर्णन में कवि कहीं भी कुन्ठित नहीं होता। यही यह मालूम नहीं होता कि रचना किसी जैनाचार्य की है। यदि कवि इस वर्णन को इतनी सन्मयता के साथ उपस्थित नहीं करता तो स्थूलिप की मार - विजय प्रभावहीन हो जाती । स्थूलभद्र ने एक बच्चे योधा की तरह कामदेव को ध्यान की तलवार से पछाड़ दिया।--- बही वीर रस भी फलक उठा है । कवि श्रृंगार का सम्यक रूप से उद्रेक करने में कृतकार्य हुआ है। पर स्थूतिमद्र की धान्य गम्भीर मुद्रा के द्वारा इस काव्य की चरम परिणति शान्त रस में हुई है। वीर रस और शान्त रस का यह मिलन, जिसकी वह मैं श्रृंगार रस मूर्हित पड़ा है, इस काव्य में अनूठेपन के साथ संपन्न हुआ है ।" १ कंदों के क्षेत्र में इस कृति का बहुत महत्वपूर्ण स्थान नहीं है, क्योंकि जो मी म् कवि ने प्रयुक्त किए है, ये सब पूर्व वर्णित है। कवि ने सात मा मैं बोडा और रोला का ही प्रयोग किया है। प्रत्येक मास के पूर्व बोहा मिलता है और फिर क्रम तीन रोता। वह डे बास में ऐसा नहीं हीम रोका नहीं होकर दोहे के पश्चा केवल दो ही रोता है। गायों की पर दो में विभाजन या कथा-समाति का परिचायक समझा जा सात और मा तथा दोहा के से पा सकते है। सकता है या रोता के लिए लिए ९, १३, १० जादि 71 • इस कृति में महत्वपूर्ण परिवर्तन देखे जा सकते है। अ मदों का प्रयोग स्पष्ट परिलवित होता परवती स्म हाथ नय नय art पत्रिका वर्ष ५९ अंक सं० २०१० ३३ वर्गर इमारा हिदि विरिति पद का एक Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ है | स्थान स्थान पर प्राचीन राजस्थानी या गुजराती का प्रभाव सर्वत्र दिखाई पड़ता है। इस शताब्दी की भाषा को देखते हुए यह स्पष्ट होता है कि लोकमाया से मिली जुली, प्राचीन राजस्थानी, परवर्ती अपभ्रंश तथा जूनी गुजराती के शब्दों आदि से प्रभावित एक ऐसी भाषा का विमाण होता जा रहा था, जिसे हम विबुध रूप मैं न राजस्थानी ही कह सकते हैं, और न जूनी गुजराती या उत्तर अपभ्रंश | उसका स्वरूप हिन्दी की ओर बढ़ता चला जा रहा था। शब्दों की बदलती स्थिति और उनकी तत्सम रूप ग्रहण करने की प्रवृत्ति अत्यन्त अधिक प्रबल होती जा रही थी, साथ ही नए प्रयोगों की भी कमी नहीं थी । विदेशी शब्दों का प्रयोग भी, भाषा को लोकप्रिय एवं जन साधारण के लिए अत्यन्त बोधगम्य बनाने के लिए ही तत्कालीन जैन कवि रचनाएं निर्मित करते जा रहे थे, क्योंकि उन्हें मानवता और धर्म प्रचार का उपदेश पर्व जीवन्त सन्देश सब को देना था | अतः फागु की भाषा में अत्यन्त अधिक सरलता है। शब्दों में क्लिष्टता कहीं नहीं मिलेगी। पुरानी हिन्दी या सरल हिन्दी का स्वम निर्मित करने के अतिरिक्त कवि ने उत्तर-अयमंत्र, प्राचीन राजस्थानी या पुरानी गुजराती कामी प्रयोग किया है। प्रयोग में नवीनता, उसकी बदलती स्थिति की सूचक है। इस प्रकार इस कृति में हमें कला और भाव दोनों में मौलिकता के दर्शन होते है। श्रृंगारिक काव्यों की परम्परा में इस काव्य का विशिष्ट स्थान है। यह आख्यान प्रेमास्थान है। जैन साहित्य में श्रृंगार और बिरह तथा नायक के प्रति नाविका का प्रेम चित्रित करने वाला यह प्रथम आविकालीन हिन्दी जैन फागु है। इस कृति में कवि ने काव्य-नमस्कार के अतिरिक्त जीवन को एक महान संदेश दिया है। संसार नरमर है, विकास मनुष्य की आध्यात्मिक प्रगति में बाधक है। जीवन में संयम की निष्ठा तथा नियमित जीवन ही असाधारण महत्व के होते है, काम रख रहने वाला व्यक्ति मी निर्मल हृदय तथा वैराश्य का ठीक हो सकता है। जीवन की सवामी प्रगति के लिए शारीरिक, मानसिक Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३:३ और मौतिक प्रगति के साथ साथशान्ति प्राप्त करने के लिए आध्यात्मिक प्रगति का भी मानव-जीवन में अपूर्व महत्व है, आदि अनेक संदेश इस छोटे से प्रमाख्यानक या श्रृंगार प्रधान काव्य से मिलते है। जिनपदूमसूरि का यह काव्य निस्संदेह आदिकालीन हिन्दी जैन कृतियों का उत्कृष्ट श्रृंगार है। कवि ने सर्वत्र जीवन के प्रति स्वस्थ दृष्टिकोण रखा है और श्रृंगार-वर्णन में कहीं मी शिथिलता नहीं आने दी है। कृति का हरेक पहलू सबल एवं सूक्ष्म है । अन्त तक इस कृति की उपदेशात्मकता व्यक्त होती है। चरित नायक कोशा को सतर्क हो जाने के लिए प्रबोध करता रहा । निष्कर्षतः फागु रचनाएं हमारी प्राचीन सांस्कृतिक धारा को भी प्रवाहमान बनाने में महत्वपूर्ण योग देती है तथा समाज के हर्षाल्लास को अभिव्यक्ति देने का माध्यम है। Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैमिनाथ फागु' (अनुचर) १४वीं शताब्दी के उत्तराईध में कवि समुधर कुर्व नैमिनाथ फागु काव्य और मिलता है। काव्य यद्यपि अप्रसिद्ध है। इस काव्य की एक प्रति पाटण में मुनि जिन विजय जी को मिली है। इस कृति का श्री पं. रमणीक विजय की एक संग्रह पोथी के अन्त में OEM से माल होने का उल्लेख मिलता है। कृति की एक प्रति श्री अगरचन्द नाहटा की संग्रह पोथी में भी सुरक्षित है। श्री देशाई ने भी इसका संकेत किया है। नेमिनाथ के इसी कृत ने अनेक कवियों का मन आकर्षित क्यिा है विविध रूपों में अनेक काव्य यथा पाल्हण का सं० १२० का भावुराम, विनयचंद्र (सं० १३२५ में विरचित नैमिमाथ चतुष्पादिका तथा १५वीं शताब्दी के राजसरसूरि तथा जयशेखर सूरि नामक प्रसिद्ध जैन कवियों ने नेमिनाथ पर का लिखे है जिन पर आगे विचार किया जायगा। इसी तरह माणिक्य सम्बर मूरि का नैमिश्वर चरित फाग बंध (सं० १४.) त्या रत्न मन्डल गामि विरचिa(०१५००) नेमिनाथ बबरस फागु और नारी निरास फागु महत्वपूर्ण कृतियां है। प्रस्तुत नेमिनाथ फाय काव्य में कवि प्रारम्भ में तमाम का उल्लेख करता है। इवारका के यादवो का रैवतक पर्वत के सहस्त्र-आमजन में बसम्व विहार के लिए जाना, बन में बनरापि की अमा, मादब लियों की उस्लामियी क्रीडा मयूर कोजल का मधुर रव और उस पर प्रमरों का वार, और पैसी स्थिति में न का बारी बावन और मार गोपियों के साथ नृत्य, इसके पश्चात मेमि और कृष्ण का चाळीड़ा को जाना और वही कृष्ण की रामियों का मेमि को विवाशिष बनावन, का विवादेवी, सामनी और सत्यपामा आदि सब ने १- प्राचीन का बहा गडेसरा, प्र. ८.r बही प्रस्तावबा . - प्रधान-पोषी ४९ पा २९५-९०। ४. न मुर कवियोः मोहनलाल वैवाई भाग १.४ Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिलकर उन्हें दूल्हा बनने को बाध्य कर दिया। बरात धूम धाम से चढ़ी पर पतुओं के करम कन्दन ने नेमिनाथ को विवाह से परांगमुख कर दिया, वे गिरनार पर जाकर दीवित हो गए। काव्य का कथासार यहीं समाप्त हो जाता है। काव्य की पाषा अत्यन्त सरल है। २८ कड़ी का यह पूरा काव्य दोहा छंद में लिखा गया है। काय का बंध पुराने आरम्भ कालीन काव्यों की भाति सरत है।इहे मैसामान्यतः आवरप्रास या आतर यमक सामन्यतः नहीं है परन्तु हरएक पंक्ति के प्रारम्भ में मंद परिभाष से विशेष अरे शब्द आता है दूसरी पक्ति में अहे शब्द भी मिलता है। जो स्पष्ट है कि इसकी गेयता का सूचक है । कई फागों में वर्णित फागु नामक दहा विशेष के चरवाईध के अन्त में आने वाली बमक योजना इसमें नहीं मिलती। वस्तुतः छंद सादा होने सकाव्य में प्रवाह बीर बेग का उन्मेष करता है गो वन विहार करने वाले नर नारियों का उत्साह व रास का उद्देश्यमूचित करते है। कृति के कुछ काव्यात्मक स्थल उल्लेखनीय है:- कवि का सहस्त्राप्रवन का प्राकृतिक वर्णन देखिएः के बमु ज्यडर रलियावउ अनु बिहसिय वपराय जी वाला बेग्र बिधिरी केतकी सहि जाए अरे पाउल मंचर पारखी चमड़ को सेवनी कर पिय पारि मह है का बैंड भोलि पाई जोगाया, मोरि भार बात भी अमरा रमन सकाइ किीि किम्मरि मावि बोहरि रिस पनि आफ्ना बाबल्डी बाति। को विमा पबबाहि गोलि बोल सहा नाति प्राचीन का डा. डिसरा, प्रस्तावना -भाग पृ. १०-११॥ देर बरपाक मा चार काय काव्योः श्री के०बी. पास फाया मुजराती धमाका ५८ - देविष- बही .१६-01 ४.१५ Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९६ कृष्ण की स्त्रियों द्वारा जल क्रीड़ा में नैमिनाथ को विवाह के लिए उपालंभ व कटु शब्दों का वर्णन कटाक्ष व राजुल का रूप वर्णन आदि स्थलों का वर्णन मी पर्याप्त सरल व सरस भाषा में है: अहे पाणुमती अनुरूपविणि सत्यमामा पभणेइ अहे नीरसो नीठरो नेमि जिषु पाणिग्गहणु न कोइ अहे कुल केस मृगनयणि रा मांग भरवि सिंदूर बडे नयण कडवे आइनइ मिलि सवि सामल वीर अहे करहि करहि अहमद के कैसे ताणं दि अहे कार्ड नेमि नर्युसको एक रमणी न करती अ सभामा इम बोलए मोरिम बस्नु काह अहे रूषि रंभा सामी तोलियइ अवर महीअल नाहि अहे हंस गमण मृग लोयणी बंद बयण सजवाल अहे घूमह विणु नहु पामियइ उग्रसेनि सुकमाल अहे साबसलखन राजल रूपि नहीं अनुनारि अहे के सावरतीय ब्रहमा के गवरी तिवरारि --- पाभिग्रहण के समय नैमि का रूप और पशुओं के कण क्रंदन के समय उसकीका स्म स्थिति के स्थल भी उल्लेखनीय है। वनों की अनुप्रासात्मकता और प्रवाह विवेक इष्टव्य है: अहे के इ ईड के चंदु के हर अरु मान अ ff विसेस अवि दिवि तम नंदान बड़े बाल मबक्से राइन जोवर प्रिय भावंड अड़े रहनार गठिया मेंमितोरनिवेगि पत म बाविय त्रावक डाक मूक बल्कि नीसाने पाठ मरमर मेलिना बाजन राज Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहे चवल मंगल दियई गोपिय वदिय जयजयकार हे विप्र वेदणि (सुणिय) तहि, पति नेमिकुमार अहे कुरंगीए दीउ नयभुले करून पलाव कोइ अहे पाणिग्रह तुह सामिय पता जीव वा होय हे विगु पिण इयर परिपका बइ जीव हाल अहे पाय मेल्डि रह वालिया बलियउ नैमिकुमार इस प्रकार समुधर की इस कृति में विषय वस्तु की इष्टि से मौलिकता न होते हुए भी फागु काव्य के शिल्प, कवित्व, गेयता, व काव्य मोष्ठव एवं प्रवाह उल्लेखनीय है। भाषा में पर्याप्त मरहता है। दोहा छंद से कार में और अधिक प्रवाह आ गया है इस प्रकार वीं बताब्दी की फागु रचनाओं पर विचार करते समय हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते है कि सं० १९. में कवि श्री जिनपड्मसूरि विरचित स्थलिभद्र कागु की सबसे महत्वपूर्ण तथा काव्यात्मक कति है। लिभद्र फागु के अतिरिक्त १४वीं साब्दी में जो भी कृतियां मिलती है वे साधारण ही है। १५वीं बाब्दी के फागु परंपरा में कुछ महत्वपूर्ण कृतियां मिलती है जिनपर म आगे के पडों में प्रकाश डामें। Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५वीं शताब्दी फाग ००००००००००००० :: नेमिनाथ फागः:' (राजसर) १५वीं शबाब्दी में फागु कृतियों के विषय, उदेश्य, और शिल्प में परिवर्तन हुए। भाषा अधिक संयत हुई। भाव व्यवस्थित हुए। काव्य में प्रवाह और सरलता सर्वत्र दिखाई पड़ती है। इतना सब कुछ होते हुए अधिकार कृतियां नेमिनाथ के जीवन पर ही उपलब्ध होती है। बिविध कवियों ने विविध नामों से नेमिनाथ के असाधारण चरित्र का उल्लेख किया है। इसर कृत्रियों में प्रयोत्तम पंचपंडब फागु, स्थलिमा फागु, रावपि पार्श्वनाथ का वीरापल्ली पार्श्वनाथ फाय देवरत्न मरि फागु व बसत फागु आदि कृतिया विविध विषयक मिलती है जिनपर हम संवेध मै विवेचन प्रस्तुत करें। प्रस्तुत कृति काव्य की बष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इन कृषि की काव्य मुबमा बिस्कुल वैसी ही है बैनी जिनपड्मसूरि के स्थलिभद्र फागु की। यहां तक कि दोनों कृतियों की कड़िया भी २७ है। वर्णन की पद्धति काव्य की मुबमा, भाषा की सरलता, अनुप्रासात्मकता, छंदों का साम्य, शब्द चकन की मसूपता मावि सब इष्टियों में प्रस्तुत काम स्थतिमा का मिलता जुठला है। इससे यह कया जासकता है कि कवि प्रस्तुब राब की श्री राखरपूरि में अवश्य ही इस किला राब को या मे या उसी साली मी बाधि कृषि का परिवील किया हो, मा कपि रायर अवश्य ही सारे विी पीस पीच्च प्रभावित हुए हो। राबोर इरिमेह एबमा सारनी गे सन्धि में लिखी गई है। राबर का बन्ध कोष समिति कध, watक नारी प्रधान गढव प्रबन्ध, THE I Mr की यायावती पर पंजिका नाम की टीका पी मितवी श्री साईसीका बा विनोद कथा संग्रह का उल्लेख किया ग. गसरा ने मामा-कलिका, स्यावाव-दीपिका, रत्नावतारिका मागीय भाग. गोखरामाचीन पुर्वर काम का भी १०माला करियो की दरार कावीर स्त्री ...मर कतिकोः श्री मोहमहाल बीब खाई मांगा Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंजिका तथा १०८ लोकों में विविध दर्शन युक्त संस्कृत ग्रन्थ, षड्दर्शन आदि प्रन्थों का भी उल्लेख किया है। प्रस्तुत कृति का काल सं० १४०५ है। श्री के०का शास्त्री ने इस सं० ११९४ मे १४०५ के बीच में माना है।' कवि राजशखर ने इस छोटे से काव्य को रोला छंदों में लिखा है बिली प्रसाद गुण सम्पन्न तथा मालकारिक है। कवि की उन्नेबार प्रेषणीय है। कवि बहुक थे। उनकी विद्वता अनेक देशीय थी। परम्परा के कारण कवि ने बसंड का वर्णन भी किया है। कवि नै नेमि को इतना परामशाली दिखाया है कि बंदर जिस प्रकार शक्षा से धूल जाता है कुन भी उनकी भुजा में वैसे ही लटक गए। रानियों ने मिलकर उनको विवाह के लिए बाध्य किया। वे, हरि, हलघर सब बर्मत खेलने लगे। नेमिनाथ से माउ भवों का नेह निभाने वाली प्रसन की मुता राजुल के नसशिन वर्षन में पर्याप्त कौवा दिखाया है। उपमाओं, रुफकों और उत्प्रेक्षाओं का एक विचित्र संभार है। कवि का प्रवाह, आगिक उपादानों के साथ प्रकृति के तत्वों का मेल, वर्षन की सरलता और श्रृंगारिक्ता उल्लेखनीय है: जह सामल कोमल केश पाव किरि मोर कलाउ बह दस माह मयन योग भडनाउ बंकुटियालीबईड निगरि वन बनाय कारी होवन सा र नगद पान कारी (ब) राशु के बमों की गुफा मिल अब बीवन मार वर्मन, मरस घरत युवा बसारिया, नईम पोषर, बिली बम, गंगा पलिन की पाधि कोमल विमा मिसब बिबादि व अपमानों की गुमा देखिए: कारबासि सिमोलमोल फुटता मारा ममामि द्या मार बबाल II रागलोडर भाभी सह बाइको टडकडता t-पाचीमा डा.बोगीका डेरा प्रस्तावना माम.. बापणी कमियो,श्रीका. शास्त्री Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०० सरल तरल य वल्लरिय सिहण पीण घणतुंग उदर देखि लंका डलीय सोहइ तिबल इरंयु अह कोमल विमल नियंब किरि गंगा पुलिया करि कर ऊरि हरिण जंघ पल्लव कर चरमा मलपति चारुति वेल हीय हँसला हरावइ संका राग काहि बालु नह किरणि करावइ सह जिहि लहडीय रायमर लक्षण मुक्मला घणउ घमेरल गह गहए नव जुळवण बाला afa वर का घोड़े पर प्रयाण, गवार्थों में बैठकर नारियों का बारात का लिखना वर ऊपर से लूम (नक्क) उतारना आदि प्राचीन सामाजिक प्रथाओं की ओर संकेत करता है। रूप के साकार म नेमिनाथ को तथा श्रृंगार की हुई दुलहिन राजमती दोनों के वर्णन दो स्पष्ट चित्र खींच देते हैं। नेमि के रूप वर्मन में भाषा की सरलता तथा अलंकारिकता कृति को महत्वपूर्ण बना देती है। दोनों चित्र इस प्रकार है: अह से तरल तरइ रइरहि बडइ कुमारी कन्निहिं कुंडल बीति मड गति नवसर हारो बंदणि महि बंद चवळ कापडि सिमगारो माईश मरवि कुछ अधिकारो घरहि तु विनवर चामनवमी उदारहिं नरबहिनी दरि बनी चट्ट परि बहस बार केडि जान भूषाला हम-गम-रह पायक चक्कीक माला नववधू का भार करने में कार्य की पनी म रमी है। वर्णन काव्य प्रौढत्व का इक है किम किन राजलदेवि भ गोरी मह घोर मंगद Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इंप पराविड जाइ कुसुम कसरी सारी सीमता सिंदूर रेह मोती सरि सारि नब रंगि कृमि तिल क्यि रयपि तिला सत भाले मोती कुंडल कम्निथिय विबोलिय करजाले मा निरतीय कज्जल रेह नयाणि मुंह कमति संबोली नगोदर कंठलड कैठि अनुहार विरोलो मरगद बाहर कंचया फुड फुल्लह माला करि कंकण मणि बलय चूड सलकावइ बाला रोला छैच में कवि ने यह विप्रलंभ काव्य लिखा है जिसको तीन तीन कड़ियों के आधार पर सात छंदों में बाटा जा सकता है। काव्य निदान है। प्रारंभ में तो कवि श्रृंगारिक रहा है परन्तु अन्त में सारा दृष्य ही परिवर्तित हो जाता है। नमिनाथ की विरक्ति पर कवि राजल की स्थिति, उसका धरती पर पछाड़ ना बा कर गिरना, और उसकी समाजनक स्थिति को कवि ने अनुरपनात्मक तथा ध्वन्यात्मक शब्दों में वर्णित किया है: सय एस ए ए कडि परिवाति रिमिकिमि रिमिती निकिति र पय नगर उभळी माहि माल बलगल विमिसि शडियाली रायमए पिउ बोबा मम रवि भरिण धसका पडा वि रावत विवाल रोमा रिन्या बेखमा मम्मा निक जीव माया कि परमागइ पालइ विमा इस्यो म मरिह बाद Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०२ नैमि न मन्नइ ने देह स्वच्छर दाई ऊजल गिरि संजम लियउ इय केवल ना --- --- दयकरि दयकरि देव तुम्ह इर्ड अथ दासी श्री केशवराम काशीराम शास्त्री ने कवि की भाषा की पृष्ठ भूमि के प्रमाण में कुछ उदाहरण दिए है ये उदाहरण पबन्ध कोष में से है: उवयारह उवयारउ सब्लोउ करेs अवगुमि कियइ जु गुण करइ विरला जणणी जपेइ ----- छाया कारवि सिरि धरिय पब्चवि भूमि पति पत्वई हुई पत्तत्तणर्ष तक पर काई करें ति • कुमरपाल | मनचिंत करि चितिई किपि न होइ जिपि तु रज्जु सम्मति चिंत करे सइ सोइ उक्त उद्धरणी कवि की भाषा पर प्राकृत प्रभाव स्पष्ट है। क्योंकि प्रस्तुत कृति संक्रातिकालीन है इसमें उदूभव और तत्सम शब्द अनेक है। कवि की मका पर प्राचीन राजस्थानी या बूमी गुजराती का प्रभाव है। साथ ही जन गाया होने से उसमें सरलता और बोधमम्यता है। अलंकारों की दृष्टि सेमी कृति का कौवल युष्टव्य है। उक्त उडुचरणों में पक्तियों की परियां ही तत्सम शब्दों में लिबी गई है। · अलंकारों में विवेककर उपना, उपक, अनुशाद, यमक, उदाहरण वर्णन अपति आदि प्रमुख है। राजस्थानी संतानों और क्रियायों में हिडोलिक सलग लाडी टहल कोरडी व पीर छ आदि है। अनेक तत्सम शब्दों के कई मौधिक प्रकोष है- बाळा, काजल, ज्योर, निरडई, छं, बहिरनि sweet, नव बीs, बावडी, मोडणी, पहिरिणी, बड़ी, टडळ, मलपति, are site माह, केवडियास, बादि Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०३ = नेमिनाथ फाग (प्रथम) = नैमिनाथ फाग (द्वितीय) = --::::-- (जय सिंह सूरि ) कृष्ण वर्षीय जयसिंहसूरि कृत दो की नेमिनाथ के जीवन पर उपलब्ध होते है। कृष्ण वर्षीय एक जैन गच्छ का नाम था। डा० साडेसरा ने इन फाग का संपादन बड़ौदा के ज्ञान मंदिर की प्रतियों के आधार पर किया है। ये फागु पोथी नं० ४६७७ से, जिसमैकुल आठ ही पत्रे (२४८-५५) है, लिपिबदुध किए गए है। A जहां तक इन दोनों फार्मों के कथा सूत्र का सम्बन्ध हैं, दोनों में पर्याप्त साम्य है। माषा भाव उपमाओं तथा परंपरागत वर्णनों में भी पर्याप्त साम्य है परन्तु छंद व काव्य प्रवाह में दोनों का स्वतंत्र महत्व है। दोनों फार्गों के तुलनात्मक कुछ काव्यात्मक स्थल अंग्रा कित है:नर्स वर्णन (प्रथम फाग ) वन सह मंडन अह पहूतु रितुराज वसंतु चंपक बैडल वल कमल परिमल विलसंता कोयल कलिख कर हि जापू वाजड़ वर वीम मन्नावs प्रिय पाय ति तस्मी अहि दीव ममइ भगर महुवान भरत कंकार करता रितु रायह किरि पट्ट थट्ट र किति पढा varta after मलहवार दसीदिति पूरंगो arraft arfafe मन मा arfer वर सहकार सांहिंडोला नि पूरंतो fit विजन सरिर माई बोला मानव का रंग इक्सिय विरहिनि नजण मी नीकरण करते १- प्राचीन कामु संग्रह- डा० साडेसरा ० ८-२१ । Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०४ इसी तरह द्वितीय फागु का भी वर्तत वर्णन देखा जा सकता है: aft वनि कुसुमि हि वहबs वन सहग प्रति पेपिवि बिरहिनि चंपय संपय कंप करं ति वेल मवकली संकुल बकुल कुरइ सच्छं चकुरि महबल सुंदरू कुंद्र रचइ आनंद फल परि भरि विजय रिव करिव वोरिय ग मधुकर सेबिय करुपिय तुरुजिय जिमनुषसँग विहसिय नलिनिय सरवरि तरवरि भमउन जाइ पाडल परिमल सुबिमल पुहविडि कहनि म माइ afe करs करालिथ पालिय जिम मन रंग नारंगी रंग तरंगिन संगिय बहु नव रंगि neering afs लटकर बहक परिमल भूि aree aye gates त्रास पंथिय दूरि फिरि फिरि बनि वमि मधुकर निकर करई कारु जीत जा कर अमरसु समरसु किरि जयका १ दोनों कामों में राजुल की श्रृंगार बब्जा का कम उत्कृष्ट है।राजु का श्रृंगार के विमोर होना कवि afeat gari aaा उसका क्रिया के काव्य प्रवाह का परिचय देता है: सज्जा वर्णन (NEW ST For utsa Tees पारण विमारह बाबावर बी मा बडिराव सिं मानिक्य निपरिक किरि तुरु १- प्राचीन काडा० बॉस ० ८-११। Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०५ अंजनि अजय वैवि नयण पत्र वेलि कपोलि मोती लगाउंक कन्नि मुखि रंगु तंबोलि कंठु नगोदर फुल्ल माल उरि नवसर हारो करेठिय कैकम रयण वलय मुंद्रडिय गवारो वसु कडि कंकण चगृचरियमवमन वाजते वरमिहिनेउर रूप मुबई महि आवत उज्जेति १ ( खितीय कामु ). ठठठक सीसह मोतिय जालिय वालिय कंम देह उमटि कीधी क्यमिहि नयविहि काजल रेह कन्निहि वेसि कुंडल चैनल उरिवरि हारू कंठि नगोदरू करठिउ करि ठिउ कंकण भारु कडिहि परोलिय पहिरिय गहिरिय गुण गणिवाल a नेउर कप स्पभुव करs विषाल इस प्रकार दोनों कृतियों की फागु रोला छंदों में है क्या दिवसीय में बीवर अनुप्रस मैं हर एक पक्ति में कवि की अन्तर अनुप्रास बैली का यम प्रधान शैली के कुछ उदाहरण देखिय: २ १- मधुकर सेविय करुनि तरुणिय जिम तुम चंद २- एक न परनिय कवि ईगड मौवनु जाय ३- केतु को ४ ५. इसी सरायक पंक्ति को देखा जा सकता है। भाषा और भाव प्रवाह में पर्याप्त साम्य है। प्रथम यवक प्रधान दोहा चमत्कार है। बीतर अनुप्रास नुक कर जमुदा हिंडोला रमर मरमर किरि निर मोल विवि हरति वरति दानु सदे १- चीन का संग्रह: डा. वाडेवरा ० ८०-११ बड़ी। Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंत में दोनी फागों में कवि संयोग की मधुर आशा को एक दम बम में परिवर्तित कर दिया है। सारे दृश्य बदल जाते है। जहां तक कवि के काव्यात्मक स्थलों का सम्बन्ध है, भाषा का प्रवाह, शब्दों की कोमलकात पदावलीवर्णन की आबर अनुप्रसा यमक प्रधान शैली तथा मौलिक उपमानों की दृष्टि से दोनों फागों के नख शिख वर्णन बड़े उत्कृष्ट है। दोनों में यद्यपि वस्तु साम्य है परन्तु फिर भी दोनों का स्वतंत्र महत्व वर्णन की पद्धति की ओर संकेत कता है। दोनों फागों में राहुल के नम शिक्ष वर्णनों की मिठास देसिए। दोनों के उपमानों में राशखर के नेमिनाथ फाग में वर्णित उपमानों से भी साम्य है: (प्रथम भाग) मयण मुड करिवाल सरिस सिरि वेणीय बन्डो कति समुज्जवल तासु वय सिपि विंड असंही मालथल अठेठभिव चंदु किरि केन हिंडोला ममुइ धनुइ सम विबुल चपल लेयण कंचोला दक्पण निम्मल तम कपोल, नासातिल फूल हीरा जिम भलंकत दंत पतिहि नहिं पुल्ल जाहिरु प्रवाला करइ कोइल वादो राजल बाषिक देषु बीच सारइ नादी वसु पुय बल्लीव करि मह पीप पयोहर तुम परि पूरिय सिंमार रवि नव कलम किरि बम रहरि कालिय गीत म खम त्रिवलि रंग माही मंडह बह महीर रोमावली चंक पनि विकास नियंब बिबबली पोस्ट रपिय अंग बरण अक्सन गुण बोरु . (हिवडीव शम) गोड पिरवर राज भाजक साल वेषि पा पुमका नराख्नु सानु दीया वीकि Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रवण हिंडोला रइवर नरवर किरि निरमोल सोहहि कविहिं ससहर जाइ पोल उन्नत सर लिय नासिक सासिक लइ आमोद्ध विलसरि कतिहिं दद्विहि नवकुंद कलिय विनोद्ध जापठ अहर पवाला आला अभूतह ताज कंतु सुकोइल समधुरु मधुरु करइ जग दासु तस पुज सरलिय तर लिय पीन पयोधर तंग उयरि लंका लिय वालिय लालिय त्रिवली तरंग गजपति करवर पीवर उस्य हरिणी बंप सकल सुकोमल नवदल पवतल मुणि हि अलंध १ वस्तुतः दोनों वर्णनों में, करवाल की पाति वेणी पायल अमिय चंड निर्मल दर्पण की प्राति कपोल तिलफूल इवनामा मादि अनेक ननशिस के मौलिक उपमान कवि ने जुटाए है। कृतियों के अन्त में राजुल का विलाप और 'निर्वेद उसे मार्मिक बनादेता है। इस प्रकार दोनों फागों के मौलिक प्रयोगों और काव्यात्मक स्थलों का प्रयोग क्या प्रवाहपूर्ण सरल भाषा का परिचय उक्त उद्धरणों द्वारा मिल जाता है। दोनों फागुकारों ने नेमिनाथ के निर्वेद का विश्व शाम मीत बयान, दुबारा यिा है। इस कतियों बाकालीन सामाजिक प्रथा, स्थानीयवासावरप बाधिक सुन्दर चित्र प्रस्तुत किए है। क्या परंपरा में बस्तु मित्र को छोड़कर कषियों ने वर्णन शैली और दृष्टिकोष की मौलिकता प्रस्तुत की है। साथ मे पिनाथ का पारिवारिक संबंध, नैपिनाथ की कृष्ण की पटरानियों के साथ बह कीड़ा, पटरानियों की उमरे छैन, विनोव मा विवाह की वी वादि प्रसंग कवियों ने मौलिक रक्स है। यों अब तक कि कामों बाधा क्या नेमिनाथ के पाणिग्रहण उत्सव से ही मिलनी जो भी हो, दोनों काम काम्बा विकास से प्रतीक है। Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रावमि पार्श्वनाथ फागु, रावणि पार्श्वनाथ फाण की बडौदा ज्ञान मंदिर की पोथी नं० ४६७७ के आठ पत्रों में एक फाग प्रसन्नचंद मूरि कृत रावषिपार्श्वनाथ फागु रचना उपलब्ध हुई। रचना की प्रतिलिपि अभयजैन ग्रन्थालय में भी सुरक्षित है। प्रसन्नचंद सूरि जयसिंह मूरि केशिष्य थे अतः इनका काल सं० १४२१ के आसपास ही अनुमानित किया जा सकता है। रावणि पार्श्वनाथ कान का क्या शिल्प पूर्व वर्णित फागों से भिन्न है। इसका वर्णन कवि ने प्रशस्ति काव्य के स्स में किया है। रावमि अलबर के पास एक व है। वही पार्श्वनाथ का मन्दिर है। कवि ने १६ पदों की इस छोटी सी रचना में ही गाब रावमि, पार्श्वनाथ का मंदिर तथा वनश्री और बसंत श्री का वर्णन किया है। इन जनभाषा कवियों के काव्य में यह लाधव अत्यन्त अधिक मिलता है। छोटी सी रचना में अनेक तथ्यों का समन्वय कवि ने प्रस्तुत किया है। इस रचना में फागु काव्यों का मधु महोत्सव वनश्री वर्णन के रुप में मिलता है। तथा पार्श्वनाथ के मंदिर में होने वाली पूजा का भी कवि ने मुष्ठ वर्णन क्यिा है। रमा प्रकाशित है। साथ ही इसमें क्या शिल्प की दृष्टि से भी कवि ने थोड़ा परिवर्तन क्यिा है। बड्यावधि लगभग सभी कागु नेमिनाथ के जीवन पर ही मिल है परन्तु कवि की उस रचना परिवाधान होने पर भी बीर्थ या स्थान विशेष की प्रबस्ति में लिखी व रचना है। पूरी रचना को कवि ने पास में किसक्स यिा है।पूर्व पृष्ठों में भाव पर विचार किया जा चुका है। कवि ने पूरा का इशा या रोला छंदों में लिया है जो पूर्व परिचित है। कवि के काव्यात्मक स्थलों के कुछ उदाहरण इस प्रकार है: कवि नेगी वर्णन नाम परिमानात्मक रुप विभिन्न वनस्पतियों की वासन्धिक पुकमा देसिए. बाल विशाल रसात, मालहि बात धमाल पारसपीपक पप घलास पुर्वप्रियात Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०१ करपट चषयार कउठ करमंदी विंद पहुय मणोहर मंदयार पाल्हइ मचकंद सीसमि सरधा सरल साग सिंभालि सलीसइ बंसया लि बडि बम पमुह वसइ जहिं दीसह जात्रिगु जनु चलित छह अति घणु हरिसेइ सूशा सालहि मोर सबटु अपि मागि विहसेई (२०४ ५० २१) कवि ने फागु खेलने का उल्लासपूर्ण वर्णन बसत्र वर्णन की गोड में किया है। मधुरितु का उन्लास चित्रण करने में कवि का मन खूब रमा है। अदों की सरलता, प्रवाह स्था अड्चयन की कोमलता देखिए: सरवर निरमल नीर परिय हसिहि परिवरिया मालि सुमंघिय तथा क्षेत्र पगि पगि अवयरिया धूव डि धावलियालडर धसमसती चालइ लडमडत लहर्कत देषि दूबहि जिणु ननावइ गाम ममारिय गोवलिपी गहि गेलि करते परले तरले लोयगड हसि हिय हरते तिमि परि पाय वर वणि चाल घड दिसि नारे, काम विजनिलिमा युबड सारे इस बरस कवि की रचना की में अनुब, मृत्य, मीन या काव्य की रसमयता और मेवता का परिचय मिल पाता है। वर्ष राजि का वर्षम उत्कृष्ट है: अब दावि बाझं बापराउरितु पका पडून दिशि दिसि रहि संत कोर मनमाधि पुषि मून पानी पंचक बस बेल पर लिया देवबडी मारा इंदर रवि मिलिया मांडला डाल गुहावनी १, वरि महमहए पाल विन नाइबा नारिमि महगहए बीमारि बहुमगि परिव नब मा पारो सरवर विडद कि कम मार कारो Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बमणुलो मातउवण ममारि मरुक मणुमोहइ दाडिम दीसइ अतिसुरंग केसुअडउ सोहइ दाडिम दीसइ अतिसुरंग केसुअडउ सोहा कोइल कलिरख मागलउ किरि अमियह ऊलट मवणराय मडि पामियर तिहुषण उपरवट ( प्रा.फा.सं० ६-८ पृ०२३)। कवि ने प्रतिमा पूजन विधि तथा नीराजना गान, नृत्य, भवजन, पूजा आदि का वर्षन मी सफलता से किया है।समास बहुला शैली में कवि ने काव्य कौशल प्रस्तुत कर जन साधारण में राभि स्थिति पार्श्वनाथ की प्रतिमा की प्राण प्रतिष्ठा की : अह नागनाह कण मंडलिहि मडिउ जिणनायक मेछ माण नीवलग सयल वैङ्यि फलवायकु सीह जैम एकल्लमल्ल वमाहि बईठठ विधन गयंद विहारण विहु नयणे दीठ चंदन कुंकुम पण कपूर कसथूरिय लेविशु पूज रचिमु पहु पासनाह करि न्हवा विलेविष भारतीय मंगल पईयवर ध्वनि वो ढोइय माल नालिपर बहुल जन माफ लेखो वा लगि चंचल चोर चउर पहिया वाय तो कमि कोष रोम बोग संचय संबाबा वा ठगि इट्ट दरिद्र विवइ दीमत्कापिठ (११- प्रा.फा.स. पू. २४) इस प्रकार रमा छोटी है परन्तु प्रालि मील के स्म में कागु कायम महत्व इस स्पष्ट हो जाता है। पापा बरक मौर वत्सम बड्दों से युक्त है। Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४११ -- जंबू स्वामी फाग.. (अजात कवि कृत) नन्द सं० १४३० का जंबू स्वामी फाग महत्वपूर्ण काव्य है।प्रस्तुत काव्य की प्रति पाटण में मुनियक्ष विजय की हस्तप्रति से उपलब्ध हुई है। यों यह रचना बहुत पहले प्रकाशित हो चुकी थी। बू स्वामी नेमिनाथ की ही भाति बहुत प्रसिद्ध व्यक्तित्व हुए है जिनपर अनेक काव्य लिखे गए है। १५वीं शताब्दी के पूर्वाध में यह कृति एक बहुत ही दुर्लभ तथा महत्वपूर्ण रचना है। जंबू स्वामी फाग में कती का नाम कहीं नहीं मिलता) कृति की पूर्ववर्ती रचनाओं को देखते हुए काव्य पद्धति भाका, भाव और शिल्प में यह रचना जयशेखर के नेमिनाथ के फागु से प्रा साम्य रखती है जिस पर आगे प्रकाश डाला जायगा। बहुत संभव है कि ये दोनों कविसमकालीन रहे हों। अथवा परस्पर प्रभावित भी हुए हों। काव्य की दृष्टि से यकृति बड़ी महत्व की है। प्रस्तुत काव्य पातरणास वाली ३. कड़ियों या ६० दूहों में रचा हुआ है। सम्पूर्ण काव्य में कवि ने अंतरयमक प्रत्येक दोहे में रखा है जो फाग की प्रवृत्ति विशेष है। कृति का पाठ, भाषा भाव, प्रवाह और काव्य-कौशल की दृष्टि से अज्ञात कवि कुन अजेनरचना बसन्त विलास फागु में पर्याप्त मेल क्षाबा है। बसन्त विलास का समय भी सं० १४२५ के पास पसल है। रखना बंध यमक अनुप्रसा की या शैली वसंत विलाब में सर्वक परिलक्षित होती है। कृति जंबूस्वामी जीवन पर लिखी एक विविध घटनाओं में गुम्किन एक चरितमूलक मंड काव्य है। जिसमें जंबू स्वामी का व्यक्तित्व संयम की अनूठी सुषमा से जगममाता है। चंबू स्वामी रामगृह नगर के एक अनपढी रिक्मदत्य के पुत्र थे। उनकी माता पारिणी भी। युवावस्था में एक बार बंबू स्वामी अपने परिवार सहित वैभवमिरि पर्व पर कीड़ा करने गए। पुनः छोटो रास्से में सुधर्मास्वामी गणधर से मैट हुई। अबू कुमार ने उनी प्रणाम किया और उपदेश देते ही उन्हें विरक्ति हो मई। घर बाकर माता पिता के उन्होंने दीक्षा की बात कही।पर पुत्र पर असीम - १-प्राचीन काम अंग्रह . २५-३० गुबराबी बीपोत्साक-पु.n m डामाडेसरा संपादित। Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार होने से माता पिताओं ने उनसे लगन का आग्रह किया। उन्होंने कह दिया कि 'विवाहोपरान्त में दीक्षा टूटा। रिषभदालत ने भी उन आठ कन्याओं के माता पिताओं से दीक्षा की बात कह दी। श्रेष्ठियों ने सारी सूचना कन्याओं से कही। विवाह के उपरान्त दीक्षा पथ से जंबू कुमार को पथम्युत कर राग रंग में हुबा देने की इच्छा से परिणीता आठों लड़कियां मिलन की प्रथम रात्रि में ही हार गई पर जंबू स्वामी को अपने अविचल निश्चय से नहीं डिगा सकीं। उसी अवसर पर रात्रि के फिले पहरों में प्रभव नामका एक चोर अपने ५०० चौर साथियों को लेकर सेठ का द्रव्य लूटने घुस आया पर जन स्वामी के उपदेश को सुन स्वमित हो गया और अपनी अवस्वापिनी 'विइया को इस स्तंभन विद्या के सामने तुच्छ माना। उस अवस्वापिनी से उसने सबको बेहोश कर दिया पर जंबू स्वामी पर अखंड ब्रह्मचर्य के प्रभाव से उसकी विद्या निष्फल हो गई उसके पैर इससे वही स्तंमित हो गए। इस अवसर पर जंबू कुमार ने उसे संसार के असार होने का उपदेश दिया। प्रभव भी उन्हीं के साथ दीक्षित हुआ। रात्रि में अपनी बाहों पत्नियों को भी जंबू कुमार ने विविथ इष्टान्तों द्वारा परितुष्ट कर दिया और इस प्रकार जंबू स्वामी ने प्रभव के साथ ५०० चोरों तथा माता पिता और आठौं कन्याओं सहित सुधर्मास्वामी से दीक्षा ग्रहण की। १६ वर्ष की वय में दीक्षा ग्रहण करके उन्नी ५ वर्ष में कैवल्य प्राप्त हुवा। ४४ वर्ष उन्होंने कैवल्य प्रवज्या में विवार और वीं वर्ष की अवस्था में मोक्ष को प्राजए और उनका नाम प्रमय में ग्रहण किया। संक्षेप में काव्य की कथा बस्तु यही है जिसको कवि ने विविध भावपूर्ण रक्तियों से संवारा है। कवि ने जंबू स्वामी के वैषवमिरि घर कीड़ा करने गावे खमय का पति और परंपरा के अनुसार वसंत श्री का सुन्दर वर्णन किया है। कवि ने उनके माता पिता का परिचय बड़ी प्रासादिक शैली दिया है। फागु काव्य के शिपमें यह बार देखने को मिलती है कि चाहे रचना का नायक हो या नामिका कवि उनका प्राविक वर्णन कसा है। जंबू कुमार का म वर्णन देखिए: बकुमार बड नंबन मैन- अछाड कायडि बहु भाउ, वासरमा जिम राह Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विस्वम कवि पुरवस सुंदरू सोहग-सारु क्वालि लवलि कोमल निम्मल जस आधार ससिमंडल गंगाजल उम्जवल गुणि संजत्तु लावन सिरि लीलावन गोवनवय संपतु यहां तक कि युवक नायक के माता पिता का वर्णन भी उतना ही प्रासादिक है जितना अन्य वर्णन । कवि की आलंकारिक शैली तथा अंतरयमक का सफल निवाह अत्यन्त स्वभाविक है: मगधदेश मुख भूषण, दुषण रहित निवासु नयर राजगृह राजमे गाजभे जगि जसवार सोहई नहि सुगुणायर सायर परीय गंभीरु रिसहदत्त विवहारीउ धारिय निजम निवीस तस धरणी गुण धारणी धारिणी नाम प्रसिद्ध अमिय वेलि जिम मंदिरि सुंदरी सील समिध फागु वर्णन की परंपरा के अनुसार कवि ने वसंत का वर्णन कर काव्य कौशल का परिचय दिया है। सैली प्रसादगुण सम्पन्न है। पाका तत्सम, भाव स्पृहणीय तथा पदावली मसण है कवि की आलंकारिक शैली उसके वर्णन लाधव को और भी उत्कृष्ट बना देती है। वासन्ती प्रकृति कर्पन देसिपः इणि अवजारि गमहाल, पल भार बदेश दक्षिण बाब विकासीय, बासीय बानि विहरण रमति स्तूलि कळीर, 'मिलीउ 'निज परिवारि बंड कुमक बहारिवरि, मिरिवरि किन मारि कामीय के परिणति, सहि कई बहु में गि रमई रसाल उसीय, करणीय नबनब रंग पंधीय वनमनवड, बमका देखी अनम रंग पर मम यरू, मन बन्लब चंशु कामिपि मन बसु कंवर चंपक बन बहकति काम विजय ध्वज जमलीय क्दलीय लहलहकति Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११५ परिमल के लिअ मातीय जातीय जिम विहसति महूयर तिमतिम रुणभुग संगणकार कर ति वनि सेवत्रीय बेडल बेडलाई बहुमान वउलसिरि वनि पेलाइ मल्हइ मानिनी मान बालउ सुरभि सुआलउ, आलठ मवण नरिवं पाडल परिमल विकसिय, विसीय नय मुचकंद जिम जिम वा डिमि पाचइ माचइ तिम रितुराउ रायपि हालि लहलहतीय, बहतीय फल समवाउ फल भरि भरिय बीउरीय, मउरीय मंजरी चंग नारिंगी फल अति नमतीय, समतीय पनि हि सुरंग कुसुमतणइ परि सोहइ मोहइ मनजंबीर कुबलय दलबहु विकसइ निवई वनि कणवीर कमल सरोवर वासइ वासइ हंसगंभीरु मयणराय पहराउत राउत किर अति धीरू फलवल पारि मनोहर मोह रचइ सहकार मंजरी पउरबहकर टहवा कोहलि सार (८-२०TToday- २५-१६) वर्णन की प्रासादात्मकता स्पष्ट है कवि ने वैभवगिर की बसन्त श्री का वर्णन खूब डूबकर दिया है। कान की प्रत्येक पंक्ति में बाहर बमक है मापा सरत हिन्दी है तथा बत्सम अब प्रधान है। वसंत का वर्णन फागु को उल्लास प्रधान बना देता है। कवि ने इस बयंत वर्णन के रूप में प्रकारान्तर से चंबू स्वामी के जीवन के मौवन की मुना का सुन्दर बम विा है। बरी कमसि वर्णन, अपवर्णन और श्रृंगार सज्जा की काव्यात्मकता का प्रश्न है कवि ने अपनी पूर्व सफलता दिखाई है। सरल भाषा में इतना मधुर वर्णन भाविकालीन हिन्दी साहित्य में बिरले ही देखने को मिलते हैं। बबू कुमार को अपने दीवा के निश्चम से हटाने के लिए आठ श्रेष्ठ कन्याओं Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१५ ने उनके साथ पाणि ग्रहण की सोच ली। उन्होंने अपने काम इंगित, श्रृंगार सज्जा, प्रूकटाक्ष, तथा सौन्दर्य के उपादानों से संयम के साकार रूप जंबूस्वामी को पथच्युत करना चाहा। कवि ने इन्हीं आठ नायिकाओं का नखशिख तथा शारीरिक सुषमा का वर्णन किया है। पदावली बड़ी सरल है जिसमें कवि ने नायिकाओं में यौवन के दंभ का रंग भरा है। वाणी सरस और शब्द बड़े गंभीर है। जंबुस्वामी को झुकाने के प्रयोजन से तैयार होने वाली इन बाठ नायिकाओं का सौन्दर्य रूप व सज्जा का वर्णन बेखिए: घर घरि गूडीय कहकह, भलकइ तोरण बारि रंग तरंगि गाय (वायs) हर खि न नारी कन्या अभिनव जोवन सोवन बन्न समाणा मागीय रुपि विलुत्तम, उम वंस पहाणा आठइ दिसि मन रंजन अंजन भूमहीय नारि आठ गुण संपन्नीय उपनि संसारी सिरवरि वैणीय लहकइ, बहकर चंपक माला रविपति व समाज जात माल विसाला महिय स्व कुसुमसरि अवसर तोरण मात त्रिभुवन जय उत्तासिद्धि कासिंहि कीय काल लाडीय पंक्य लोणी जोयमी जग मन मोह कम्बल र दम निस्वम सारणि मोह उकड चंड सम सरल तरला नासानं अहर बिंब मरवावि, छालीय राग विदे विमल कपोल वि दीवह जीवइ दिनयर कंति क्यानि कति मिलिय रहीय एकति कोठि मोर मराठिय राखीय विनिजीय म क्कू विरे छाबड, गाजड़ कारण ते Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अति सरलिय भूय जुयलीय कुयलीय कमल समाण पाणि जयल नहकिर णिहि अरुणिहिं राग निहाण मनमाथि ठवीय पयोहर मोहरसावलिलैम लवणिम भरीय अंकुरीय पूरीय रागि नितंब त्रिभुवन मोहणी तिवलीय, त्रिवलि जिसी भूगमाभी काम केलीबह दोक्ली छलीय रसालीय नाभी कीरति धंप समाणीब आणीय उरु समान मयणराय आरोपिय लो पिय जगजपमान चलति कमल हरावइ, नावइ कुणि उपमा नि कन्या एउ मलुणिय, कुणिय नवि गुणी मानि हंस बसहगय गमणीय रमणी नयण मिलति जैबु कुमर नवरंगिहि भगिहिसिणगारंति (२५-३५) उक्त वर्णन में प्रवाल की भाति अधर, दाडिम की भाति देत पंक्ति, दिनकर काशि की भाति कपोलों की आमा कमल के समान कोमल युगल भुजाएं, पयोधर मनमथ के स्तबक, रागपूरित नितंबों की लावण्य आभा, मगनाभि की भाति काम की बाउड़ी, की ति स्तंभ की पाति अगल बंगाए आदि सभी उपमान सुन्दर वस्तुतः वर्णन पद्धति को देखने यह कहा जा सकता है कि संभवतः इसका की जोवर भरि ही हो पर यह बात प्रमाण पुष्ट नहीं है। सौर्व वर्णन और गार वर्षन में कवि की पकड़ बड़ी मनोधी है प्रथम मिलन रात्रि में ही शामें कन्याओं के सौन्दर्य व भार वर्णन करता हुआ कवि उन्हें बंडू स्वामी इबारा आड अवधानी और दृष्टान्छों के निर्वद का आनन्द स्पष्ट करता है और पोर रस में इसी बाग नामिका चंबू स्वामी के साथ दीक्षा की ओर आकर्षित हो पाती। कवि ने वस्त्र परिधानों और आभूषणों में लिपटी कम्मामी की रखा का शम इवारा पराभव विसाया है। यौवन के इस अभिन्न स्त्रोत और उमार में एक रस वरिष्न ध्यास का शमन कवि ने निर्मद इवारा किया है। प्रमय चोर भी उसके ५०० साथियों सहित उनके साथ दीवित हो गया: Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जंबु कुमरु इणि उच्छवि, मच्छवि आठइ नारि मुज नि माड परणाविउ आविउ नियघरबारि वास भवनि तिई पहठउ, बइठउ गउरख मारि आठ नारि आगल रही सहीय सहित सिणगारि केसर कुमकुम आटि उलटि करि मुविसाल सिदि संथइ उगोतीय मोतीव तिलक माल नयणि तुलीय जमणाजल काजल सामल रेह करइ कडक्व तरंगिहि रंगिहि सुरह सिह अगर कपूर कस्तूरीय पूरीय रहइ पोलिक नयण कमलि ससि निरमल रमति रची बोलि का नि हि कतिहि मंडल कुंडल लहलहकति नवासिणगार सहोदर नगोदर भल अलकति उपरि कैचूउ तडक्कइ लडकइ नवसर हार कणयवन्न करि चूडउ सडउ तस मलकार पहिरणि चीर पटलीय बउलीय मूल विचारि चूनडली नवरंगीय चंगीय ढाणि सार इणि सणगार न राबड़ समचइ रसि अमरत्व नि नारी क्यानक थानक बल न बिस्त अग नबी प्रति बैधइ रोषा निज मनि काम चार राउ मा भडिन प्रभड पडत वाम पानमा झिा सका विर बवरागी निब माय पिय सिरसल, बरस जन मागि नमा आइ बापपि पनि प्रभवर पिय माधि पामीवरम नियम सोहम मार हाधि (४४-५६) प्रा फा०म०. २८-३०॥ इस प्रकार कवि ने हमारे सामने श्रृंगार का उत्कृष्ट वर्णन कर उसका परिहार Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्वेद में किया है। १५वीं शताब्दी में रचित इस कवि की भाषा अत्यन्त सरल तथा स्पष्ट है। अपशकालीन लबाणिकता के साथ कवि ने अधिकाश शब्दों को तत्सम प्रधान रखा है। ___ फागु का उद्देश्य नायक चंबू स्वामी के संयम की उत्कृष्टता को जनसाधारण में प्रचलित कर असार संसार को त्याग निर्वाण की कामना को स्पष्ट करना है। फागु गैय और काव्यात्मक है कवि नै फागु जनित उद्देश्य को स्पष्ट कर दिया है: फागु बसति जि खेलइ बेलइ मुगुण निधान विजयवंत ते छाजइ राजा तिलक समान इस प्रकार प्रस्तुत काव्य फागु काव्यों की परंपरा में वर्णन माधुर्य की एक मौलिक बड़ी है। ऐसी ही कृतिया आदिकालीन हिन्दी जैन कवियों की काव्यात समता का परिचय की है। १५वीं शताब्दी में विविध विषयक और भी कृतियां उपलब्ध होती है जिनका परिचय आगे के पृष्ठों में दिया जायगा। Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रापल्ली पार्श्वनाथ फाग। (मेसनंदन)-सं० १४३२ छठंठंठठठठठठळळळळळळंठठठ यह फागु श्री अगरचंद नाइटा के संग्रहालय की सं० १४९३ में लिखी संग्रह पोथी से उपलब्ध हुआ है। रचना के लेखक श्री मस्तेदन उपाध्याय है।खरतरगच्छ के मेम्नवन जिनवय सूरि के शिष्य थे। इनकी अन्य कई कृतियां और मिलती है जो आदिकालीन हिन्दी साहित्य की बड़ी महत्वपूर्ण कड़िया है। जिनमें प्रमुख जिनोदयसूरि विवाहलउ, अजित शान्ति स्तवन आदि है। जैसलमेर पंडार में भी प्रस्तुत फागु की प्रति उपलब्ध होती है। श्री लालबंद पाधी ने इस कृति को सं० १५१९ की लिखी बताई है जो एकदम ठीक नहीं है। जीरापल्ली आबू के पास जैनियों का प्रसिद्ध तीर्थ है। इसी फाग की मावि एक रावपि पार्श्वनाथ फारा मिलता है जिसका वर्णन हम पूर्व पृष्ठों में कर चुके है। प्रस्तुत कृति की मुख्य प्रवृत्तियां भी ठीक वैसी ही है। कवि ने पार्श्वनाथ मंदिर का प्रवाहपूर्ण वर्णन किया है। जिसमें पार्श्वनाथ की यात्रा पर निकले यात्रियों का परस्पर वातीलाप, बसंत की बनश्री पति पत्नियों का संलाप तथा पार्श्वनाथ की स्तुति बड़े ही प्रभावक पदों में की है पूरा फाग ६० कड़ियों में लिखा गया है। कृति के वर्णन को देखने पर इसमेंफागु के शिल्प सम्बन्धी लाक्षणिक तत्वों का समावेश भी मिलता है। भाका काव्यात्मक प्रबाह की दृष्टि से कुछ उदाहरण नीचे दिए जाते है। जीरावली स्थान का होमा वर्षन विधन विकास काम मामिड पावकुमार मायवि सिरि पीरउलिराउ हिउ का सार सिरि अमन महीपति दीपति कुल आधार अबढी सदी अभिरामा बामदेवि महार पामक बहु बाल पाक इक जग सामि सेवक शिवका सका डीपद नामि रमलाइ अब पुर्णगा बंगमु मोडि ममा रि बलपि बल राषि वालि म मयकारि - - - -प्राचीन कामु संग्रह- डा. मोगीलाल साहसरा- 11-141 Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२० कमठ कठोरु पयोधरि धरिउ जो नवकारि मुगति रमणि मन रंजय भंजणु भावठि भारि जीरा उलीय सतीसय, दीसह तमु अवतार एकलमलि जिण सादरि आदरिउ जगभारु चउरासिय नर नायक, पायक मड़ सपराण चोर चरड बह मानइ मानइ सिरि जस आण जसु डरि करि परि निय प्रिय स्यि नितुजपइ ईम कूडइ मनि पासह तणी धनियम लाधसि सीम . कवि ने गूर्जर घरती की सुन्दरी नारियों का वर्णन , उनका पार्श्वनाथ के दर्शन का उल्लास तथा उनके नृत्य और उन्लास का मनोहारी वर्णन किया है। वर्णन की सरलता, चित्रात्मकता तथा शबूदों की आतर अनुभसा योजना नष्टव्य है: जिपि विणि वैवह जोइ न कोइ न पूछ सार तिषि(दिणि) बभण पत्रिय जात्रिय वर्ण भढार इणि महिमागुण रजिय जिय नयण विसाल भूपि बोलि सुरंगिय रंगिय अधर प्रवाल लडहियापि कडमड़तीय घडतीय भाव रसाल नेह महिल्लिय दिवा प्रिय हुला पइबात धरणि क्वणि रोमविय विय सवि भरबार सोक्न अनइ सुमधाति बंधहि कहि किम बार परिसनि शाकिर नील दीम मिय समाप पूज माविम विमोरिय दोषिय पश्य प्रमाणि भाकिय मेडिसिडित नियनिय वैसि - - १. प्राचीन का महः डा. साडेसरा पु. १२-11 Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२१ चई दिसि तणिय सुयालिय बालिय मंडप देसि जस मुख कमल निरुपम पम विउ ससि निबि सरल तरल जसु वीणिय लीणिय रमा निर्ववि गुजरडी गुण वतिय दैतिय सर अवतारि मधुर वयण जब बोलइ तोलइ कुण संसारि सर लिय अंगिलता जिम वा जिम नभतीय वा कि सोरठणी मनि गउलिम कडलिय मानि जला कि सामलडी धण पाख्य बाध्य नयण तर गि हाव भाव नेवि जाणइ आणइ पुणि मनुरं मि सिधुंय सहजि समागिय जागिय लवणिम साणि, अंगि अनोपम चोलिय मोलिय वचन विनागि ढी लिय अनुनागोरिय, गडरिय सोहगपूरि जसु वरवदानि कलंकि पंकि चंदल दूरि चंचल चपल सलूणिय उणिय सहजि न रुपि वापिविलासी विचजण दिक्षणडी रसकूपि बइसि पलिय मोलिय बैलिय माबय रंगि पासकुमर मुष मा मायी र किन अमि चरम चोरि बिचमका कमाइ नेउर नादि कल्पलता करि लइ रेलइ न सावि इपिछति रवि पापड वर गरम में भापरि चिति पास ममाथि जोब लोष कोष साबि रीति इसी प्रकार काव्यात्मक और परम वर्षन कवि ने वर्मत का किया है। यमक की छटा वर्णन को और उत्कृष्ट बना देती है। वसंत्री का फूलना, सौरम का तूफान और मलयानिक की बालिया मी दृष्टव्य है: पिरिवरि गिरिवरि पुरि पुरिवनि बनि परमल सार बीड विल्व जबाइ वी भार बार Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिणि अभिमानाहि रतिपाति रतिपति मास वसंत पोभ भपी अवता रिउ मारिउ कुसुम हसत दविणवाउ महीतलि सीतल लहकिउ जाम बिरहि नीसासड कालउ बाला बाहि किस ताम सकल कमल बनि महीक्यि टहक्यि कोयल जाण पंधिय मनि दुख धर तिय वरतिय मन्मथ आण वाजा कृषि अलि कैरिव मैरिय प्रथमार मि पान तपइ मिसि ऊडिय भूडिय कदली मि बहुपलि नभइ बीज रिय मउरिय अब रसाल सहजि सुमागहि म्यडला सूपडला खेलय डाल मधुकर नादिहि पक चपक अति अमिराम वन सिरि दीव ऊसारति आरतिया सिरि काम वेउल पाडल कणिय अरुणिय दाडिम फूलि लीजइ पक अवाडी वाटडी छाडइ भूलि परिमल दसदिसि वासइ वासइ सारस इंस बेरहमारिसरीमहरीबईसह अवस पंधिकि धिय सोपिय मोमिन सा पलास देवावि बम प्रवाहब, भाब छय बास वाइ माहि पवायपि रायणि अनु करणार अवर भमोहर बस्वर बयर कवि अपार विपि सपि त्रिभुवन कंपइ बह रवि पति सीम मोर मधुर चरिबाबा बालबइ विरहिषि कीम विरहिणि क पपइ सहि की किन बावइ नाह पावनि बौखल वन वन पैदा बाह एक पपइ कुछ देवति मेवाति तू जमसामि शिव परदेसि पहल मूळ कवव विरामि Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२३ इणि परि जग जगउँ तर कंतर रतिवर नारि सहिड वसतिहि घाउ आस पासह बारि अवसरु नहीं अमीणउ ही चिंतय मारु बुद्विध विभासिय नाडउ घाउ रति भरतारु (३० ३६ प्रा०फा०स०) इस प्रकार कवि की अनुप्रसा यमक योजना प्रत्येक पक्ति में है। पाषा की सरलता मधुरता, प्रवाह और अनुदों की कोमलता उक्त उधरणों से स्पष्ट है। कवि की उत्प्रेक्षाएं भी उसकी काव्यात्मकता में योग देती है। रास में कवि ने गीत नृत्य, लय, ताल आदि का उल्लेख किया है अतः स्पष्ट है कि फाग रचना के लाक्षणिक तत्वों का समावेश भी हुआ है। पूरा काव्य आवरप्रसा वाले दोहा छदो में लिया गया है। स्थान वर्णन प्रशस्ति में लिखे हुए पुरानी हिन्दी के पैसे गीत काव्यों में जीरापल्ली पार्श्वनाथ गु का स्थान अपने ही प्रकार का है। Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरुषोत्तम पाच पान्डवफाग। मन्न्न्म न्न ठठठ००००० (अज्ञात) श्री नाहटा जी के संग्रह में १५वीं शताब्दी के उत्तराईध की एक पुरुषोत्तम पंच पाडव फागु रचना उपलब्ध हुई है।जो उसी सं० १४९३ की संग्रह पोथी में लिखी है। रचना शालिमसूरि के पंच पान्डव चरित्र राम की ही माति पाच पाडवों का चरित वर्णन करती है। पर कथा वस्तु में थोड़ा अन्तर है। रचना का कती अज्ञात है तथा रचना काल भी निश्चित नहीं है। पुरुषोत्तम पाच पाडव फाग में कवि ने पाडवों के द्रौपदी विवाह से ही काव्य प्रारंभ किया है। पान्ह राजा द्रौपदी व पाचौं पाडवों को साथ लेकर हस्तिनापुर आते है। राजा के सम्मान में उत्सब होते है। इसके पश्चात कवि ने कुला पर्वत पर विकसित वसंत श्री का सुन्दर वर्णन किया है। वसंत वर्णन फागु काव्य की लाक्षणिक विशेषताओं में से एक है। गंगा और यमुना के बीच में स्थिति इस पर्वत पर यावव और पान्डव क्रीडा करने जाते है। कृष्ण और कुती पुत्र खूब क्रीडा करते है और कृष्ण को नारद रिकि तीर्थ का महात्म्य बतलाते है और फागु समाप्त हो जाता है। छोटी सी रचना में कवि का वर्णन कौशल खुब निचरा है। कवि का बर्षन अत्यन्त स्वाभाविक और सरल है। कवि ने रचना को मास में विभक्त किया है। पाका अत्यन्त सरल है। १५वीं शताब्दी के उत्तरार्दुष की इस कृतियों में पापक अत्यन्त ही सरल हिन्दी बिाई पड़ती है अतः शब्दों की सरलता, लोक प्रचलन और तत्समता स्पष्ट है। मगर प्रवेश के समय नागरिकों का उत्सव वर्णन देखिए: अहे साये करिड गोविंद बाम परि नामक आवा अल्बाभि बिहरह बारि लो पुरि सोह करावा बडिया कोरस उग मेगा दम्पन बिसल्यारि मैव विधि करि पुर विकास महियल भवतारित परि परि मोद्रिय का पारिज मूडिय उठा लिय १-प्राचीन का संग्रहा डा. बाडसरा पु.४३-४६॥ बाय बीकानेर on Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२५ धरि धरि मंगल कलस ठविय वर वंदुरवा लिय उच्छायि घर घाट पवर पट्टोलिय सोहय १ नाचति किरि विम पुतलिय त्रिभुवन मनु मोहइ कवि का वीर में पान्डुओं कम वर्णन अत्यन्त सफल बन पड़ा है। शबुदों का चयन, आलंकारिकता और अनुप्रसात्मकता उल्लेखनीय है। वर्णन के साथ ही कवि पान्डव का एक चित्र ही प्रस्तुत कर देता है। वर्णन बहुत ही सजीव है: सहजति निस्वम स्व च पंचइ राजकुमार तहविह मायडिय रलिय लगि करविय सिणगार अहे काराविय सिगारू सारु सिरि मऊ छबक्कड़ कुसमहि सेहर सुमर परिय बहुर्गंधि बहुककर का नहि कुंडल उगमगंत लहलह लहकता कंठ कदल विलसति हार फलफल फलकंता तिलउ अंलकिय भाववट्ट पट्टस्य सारT कडिहि कटारा फामर्गत हाथिहि हथियारा जयकुंजर सिंगार सारखे गुपहि गिरा durier लय बिज्जहरिय बटुका भों के राल में डूबकर कवि ने नारियों का वर्णन किया है।दों की अनुप्रासात्मिकता और ध्वनात्मकता इष्टव्य है जो काव्यप्रवाह में वृद्धि करती है। भाषा की सरलता और अलंकारों की छटा काव्य का प्रसादिक बना देती है: : १- या ग्रन्थ पृ० ४३ १ aas arrea कि किमीय रनिकमिसार safe चार मनि दंडमव पडियम फुलकार अहे मडियम मकार सारमणि ने उरयाली sure कस कस कविवावर फाली *मन म त उरि उत्तम बोली ot ~~~~) पटवीडी Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृगमद मयवट कुमम भार सिरितिलउ सरंगी नयपाहि काजल रेह वयणि बोल सुचंगो *चण कुन्डल हारदोर मणि मउड सिंगारी पंचकुमर पठहि गर्यदि व्यय बयसारी । वर्णन की ध्वन्यात्मकता काव्य को नादात्मक बनाती है।वसंत वर्णन प्रासादिक बन पड़ा है। यादवों के साथ पान्यवों का कीड़ा विहार वर्णन बड़ा स्वाभाविक है। कवि ने फाय काव्य में नृत्य क्रीड़ा और खेलने की मिया को बड़ा महत्व दिया है। सः फाग को मधु रितु का उल्लास प्रधान काव्य नामदेना सार्थक हो जाता है। गंगा यमुना के अंतराल में जाकर कुलगिरि पर्वत की बनश्री का वर्णन मधुरित. वर्णन के क्रोड में करता है। अंतराल जैसे तत्सम शब्दों का प्रयोग उल्लेखनीय है: तउहथिणार सगग तल्ल उच्छव मइजाइ इणि अवसरि किरिकोड धरिउ आय रतिराइ तर तिहि मास वसंति राइ आइसि पर लोया जादव पाडव कुमर सवे खेलइ सुपमोया खेल खेलत रायमर अंदेउरि जुत्ता मंग जबाणि नब अंतरा लि कुहागिरि संपत्ता एक मुगिरि रलियावण बनव वसंत पडूती बनराजी राजी वाणि परिमल बिया बानो बहे परिमल बिया बहूत बुद्ध रविरार पठावळ सह गहगह सबल लोर साहि मिरिवाणि भावित किवि सुरवर किषिवास केषि दूर बाई किवि बदन कप्पर गधि बिसि महल माली किवि वीपी मब असम के-विमुंबइ वर मालहि किवि का रसि रमा केवि वा बरतालहि किमि नाबा नरम कैवि कहाधिहि फागों किवियतिवनमामि अडियवर रामो जातीय कामताप्राचीन काबाडामा सरा०४५-४६ - - A Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अलंकारिक वर्णन करने में भी कवि का कौशल स्वाभाविक है। एक उदाहरण पर्याप्त होगा: अहे पग पग नव नव संमि रंगि नच्चतइ पाउलि हाव भाव सिंगार सार नव नट रसाउ लि जिमि नाचणि तरल रंगि लोयष लहकाबइ 'तिमि विम माणस कवण मात्र सुर सगूगड आवद्ध र जिनपद्म के स्थूलिमह फाणु की माति ही प्रस्तुत काव्य रसमय है।नागरिकों का राजा का स्वागत, भी तत्कालीन सामाजिक प्रथा है जिसका कवि ने वर्णन किया है। कवि नै १४ कड़ियों में फागु का छंद राजेशवर कैनेमिनाथ के फागु की भाति ही रक्सा है। प्रस्तुत फाग दूहा और रोला मेलि सा गया है। भास शब्द सम विभाजन परंपरा का सूचक है। कवि ने रचना का प्रारंभ बिना मंगल चरण के ही किया है। यह जैन रचनाओं में पहला ही उदाहरण है। प्रस्तुत फाग वस्तुतः १५वीं शताब्दी के महत्वपूर्ण उर्मिकाव्यों से है। १. वही . Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :: भरतेश्वर बावर्ती फाग :: (अज्ञात)-सं० १५०० के आसपास भरतेश्वर बाहुबली रास के बाद फागु काव्यों में भरतेश्वर के जीवन पर लिखे भावि कालीन हिन्दी जैन साहित्य में बहुत थोड़ी संख्या में काव्य मिलते है। भरतेश्वर वावर्ती भाग पैसी ही अप्रशिद्ध कृतियों में से एक है। प्रस्तुत कृति मी श्री अगरचन्द नाहटा के संग्रह में सुरक्षित है। इसी कृति की एक प्रति गुजरात विदया समा बडोदा की एक संग्रह पोथी में भी मिलती है।' परतेश्वर चक्रवर्ती फागु में कवि ने परत के वैभव का वर्णन किया है। अब तक उपलब्ध परतेश्वर बाहुलबली रास में बाहुबली और परतेश्वर का पारस्परिक दृक्द-यध वर्णन है परन्तु प्रस्तुत फागु में कवि ने परतेश्वर का ऐश्वर्य वर्णन क्यिा है तथा कवि ने अयोध्या नगरी की राज्यत्री और रानियों सहित मरेतश्वर की वसंत कीड़ा का काव्यात्मक वर्णन किया है।प्रारम्भ में कवि ने परत के भोगों और अम भावनाओं तथा रिक्ति और कैवल्य प्राप्ति का साधारण वर्णन किया है। इन फागों के बसन्त वर्णनों में पर्याप्त साम्य है परन्तु भाषा व काव्य की दृष्टि से प्रत्येक रचना अपना वैविध्य प्रस्तुत करती है। कवि ने परत चरित्र को फाय का म दिया है तथा चामत्कारिक वर्णनों द्वारा कति की रचना की है।फागु का रचनाकार बात यह कृति भी दोहा और का है और पूर्व बर्षित पुलोत्तम पाच पान्डव काय से पाच मेळ बासी है। पूरी रचना कवि ने ४ मास में लिखी है। कृति के कुछ काव्यात्मक स्थल निम्नाक्ति है। परस का ऐश्वर्य वर्णन: कंचन का नाद विमोईवी सेवर बिशपाई पुरखाल बालवा बालइ बस चामर बागी बी मुहर विमिल किरि गमावापी रापी दि सहस बास माहि इंद्राणी १- प्राचीन काम प्रा. डा. डेसरा Yoxe:४८ १.समय जैन बायपोथी .१४९ पत्राने. २९०-१२ - प्राचीन का .. ॥ Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हयगय जुलसीलवस, जक्स खेचर जस किंकर, हास कास संकास जास जसु गाई किनर वारु खेली वेस बाल पहिरवि वर चोली जम आगइ नाचति रंगि बहु मंगहि भोली कवि ने प्रकृति वर्णन और बसंत श्री कावर्णन न करके अपनी प्रकृति जन्य बहुजाता का परिचय दिया है। नाम परिगणन कवि ने खूब कराया है। काव्य प्रवाह पर्याप्त है। अनुप्रसा, यमक उत्प्रेक्षा सभी दृष्टव्य है। आविय मास वसति संति सो चडय रिवाडी पेखय चंपय जंबु अंड तरु फूलियबाड़ी विहसिय तिहि मचकुंद कुंद अरविंद अपार 'निरमल परिमल महमहए सेवंत्री सार फूलिय सवि वणराय वाय वायंती लहका चपउ चंपइ अवर सीम निय परिमल बहकइ केवइ सेवइ भमर देव देवि जिमरंगि विमल सरस फल रंगि चंग लागइ नीरिगइ चंचल पल्लव हाधि साथिरिमान संवार कोयल कामपि भारवापि सहकार करेइ राता के मुब फूलियसोहा रवि प्रिय संग गाणे नवरंग पाटड़ी बोढी बन सिरि मि बेडल वेलि अमूह प रस मेला मील करबका विकास काम सकरन बीड बार र अपार बार पुषि बरपा काला वाडिन फूल पुरंग अंग विशु मेष निहाल पंचर चारि विधि कोयल वान्ते बस सिरी चिरिधि अंधिकब ममरमर्मत Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३० अरुणी कमी वरुण चित्त उहणी जिम मोडइ सिवार सिंदूर पूर किरिवन सिरिसोडा कालिणि कामिणी राजहंस कामिय मि माइ नव पल्लव अहसोग सोग विहिणि मणि आपाइ कोमल कूपल पहिय चितित करवाल नमालो राषइ सिरसिज मयणराय फिर फल मया विलो . उक्त प्रासादिक वर्णन के अतिरिक्त कवि ने गंधसार, धनसार, चंदन, कपूर आदि के अंग रास, यौवन विलास आदि सब का वर्णन सरस 'क्यिा है: आरामिय आराभि नाम साभिय बोलावय विमल कोमल कलिय फूल अमूल अणावह कुमसमहार नियकरि करै वि राणी पहिरावय रयण ममाल विसाल माल सिरि पुल भरावा २ गंधमार धवसार मार केसर रस केलवि कारह अंगहि अंगुरास कसथूरी पलवि जोबन लावन ललिय देह किरि अमिय कटोरी मम्बाउन मपि रमिप्रिय बीय मंधव मोरी इस प्रकारकवि ने काय काय की लाविक दिवसानों का वर्णन किया है। भाषा सरल है। भवों की बत्वमा स्पष्ट परितावित होती है। इस छोटे से मिकाव्य कवि ने काव्य के सभी प्रमुख तत्वों का समावेश किया है। ऐसे छोटे काव्यों में इन जैन कवियों में बाबावीस पाव भरे है। रचनामेव ज्या कागु काव्यों में महत्वपूर्ण - जाननमहासासरा प्राचीन काय महाडासाडसरा ०४८। Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बसत फागु (गुणचवसरि)-सं० १५०० का उत्तराईध । १५वीं शतादी के उत्तराईध में एक अत्यन्त माल्हावपूर्ण कृति वसन्त विलास है। इस कृति का शिल्प लगमग अब तक उपलब्ध सभी फागु कार्यों से अलग है। इस फाग की कथा वस्तु न धार्मिक है और न चरित प्रधान । वरन् यह काव्य आइयोपान्त श्रृंगारिक है। कवि ने पूरा काव्य वसंतत्री के वर्णन में ही पूरा कर दिया है। कवि का नखशिख वर्णन भी अभूतपूर्व हुआ है। प्रारम्भ से ही कवि ने अंगार का इतना खुला वर्णन किया है।यवपि जैन मुनियों व कवियों में श्रृंगार का इतना सुला वर्णन अन्यत्र नहीं मिलता। यह उनकी साधना व प्रवज्या के नियमों के विपरीत है परन्तु फिर भी कवि ने नवशिख वैस सामारिक काव्य का वर्णन नियमों का अतिक्रमण करके भी बड़ा प्रसाविक किया है। काय शिल्प के रूप में यह रकमा एक मोड़ प्रस्तुत करती है।वसंत वर्णन अब तक यहयपि फागु काव्य की लाक्षणिक विशेषता मानी जाती रही है परन्तुकेवल मात्र वसंत वर्णन ही फागु काव्य का प्रधान तत्व नहीं था उसके साथ क्या तत्व श्रृंगार रूप तथा नखशिख वर्णन भी मिलते रहे है। प्रस्तुत काव्य में कवि ने कथा वत्व की एकदम उपेक्षा की है तथा वसंत फाग में मधुरितु के आने पर संसार के मनुष्यों के सामान्मत: आल्हा औरतस्याह का चित्रात्मक और उत्कृष्ट वर्णन किया है। अशात जैनबर कविकृत बर्वच विलास काव्यों जिस प्रकार वसत के प्रसाविक चित्र है जीक इसी प्रकार कवि श्री शुगचब मरि ने वसंत कागु में मधुमास की वसन्त्री , किसलयों का इलावा स्वरुप, मलयानिक का मौभिख मान, कोबल की माधुरी और मारका सम्मोहन और मारियों के समक्ष और उल्लास गान का सचा चिन किया है। प्रस्तुत काव्य की प्रति घाटय के केसरबाई ज्ञान में विर में सुरक्षित है।'प्रति कहीं लेनका स्पष्ट नहीं है। काव्य का कत्ती गुणचंद मूरि मी बहुत निश्चित नहीं है क्योकि नी और १५वीं बताब्दी में गुपचंद्रसूरि नाम के दो कवि बाबा हो चुके है इन वोनों में से कृतिका रचनाकार कौन है यह -प्राचीन कामु प्रहः डा. बाडेसरा पु. ५५-५६ १- बही Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३२ कहना बड़ा कठिन है । परन्तु यह तो निश्चित है कि रचना का करती दोनों गुणचंदसूर में से एक है। कुछ भी हो, दोनों की ही स्थिति असंदिग्ध नहीं है। यो माया का रूप, छंदों का प्रकार, शब्दों का चयन और वर्णन की पद्धति के आधार पर यह अनुमान किया जा सकता है कि यह कृति १५वीं शताब्दी के उत्तराध की है। यह भी संभव है कि यह वि०सं० १५०० के आसपास या बाद की रचना हो पर सं० १५०० विक्रम के आसपास की अनुमान कर लेने पर यह कहा जा सकता है कि श्री गुणचंदसूरि १५वीं शताब्दी के उत्तराध वाले ही रहे होगे। जो भी हो कृति, भाषा भाव, छन्द, रस, काव्य और अलंकार सभी क्षेत्रों में महत्वपूर्ण है। जिसकी उल्लास पूर्ण अनुभूतियों का परिशीलन आगे के पृष्ठों में संक्षेप में प्रस्तुत किया जाता है। कवि ने १६ कड़ियों में ही काव्य कासरस वर्णन प्रस्तुत किया है। वसंत वर्णन: अ फागुण फलीअबीजोरडी पुहतल मास वसंत वनियन तर कूपला केसूक सम अनंत कामणि कारिणि ममरल भमतु मामि राति काची कलिय में मोदी मोदी नव नवि भाति erer कुली afta ली परिमलरहिणु न जाइ बालि मोबान प्रीय गड तु इस हीवडे न माइ अहे बहिरनि पीव पटोलडी ओढणी नवरंग चीर विरह तुम्हारी माइला मयष न सूक मीर भरत पर क्यूट गति पकाउलि हार tator सकोमल बालती पाये नेर मनकार जसी वस्र पाडी बोबडी काजलि रेह areer मा का वि नारियों का सौन्दर्य वर्णन और रूप गार्बन कवि ने भाव प्रवण होकर प्रस्तुत किया है। गुर्जर धरती की स्वस्थ सुरंगी कुन्दरियों का कवि श्रृंगार वर्णन करता है:arthe stars अकीय परि वाडिम लडा देव 2 Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयषि न देई ना मोर मध्य अहे सरवीर सोहि राण्डी सहिधि पाली सीवर माली गरि करि बीडली माहि कपूर । महे मवर्कदि हि मन मोहीउ, लकिड लाइम मावि चतुरतुरंगी संवरी पूरि केरी नारि पाइ करि सबि मराठी सोरठी अवि पुजाणी बर्मत तनी रसि खेलती प्रीय पति कविसमामि मालिया बड़ तेबड़ी सरोवर केरी पालि पालि मल्टी पटोलकी की लि सरोवर माहि मोमीन कामिनि न पीनू नवसर हार कीनी बाजति रेवड़ी पीनी माची मात सीप परी परि पापीय लोटिशि बिना छोड मा सिरीसी गोरड़ी दापि अति धड मोर आहे हीरखा वहरि पूजीउ किया सिवराति गोरी न सरि पारीदीड नि राति जोमहरि यह बाराी माबि गाय विराकि मोरी म मारि बाहरी बलराति "मासी कवि वाक की पराग बिलरित का प्रयोग किया है। का कवि में कामु का देव लिया। विमें रंपरेली, बवंत कीड़ा और नामद की प्रधानता :गोडा बी अधिकार मापा अनिनिरि मम पिसोरी । इस बार साली गराई रायगयों की तरह का काव्यों के किसी पणिन ने कर मया था। बस का इस प्रकार जिला परिषन का प्रभाव है। ना छोटी है पर मारपूर्ण है। कवि ने मणि मारवार का प्रामादिक वर्णन किया। - Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३४ १ नेमिनाथ का Oooooooooooo (जयशेखरसूरि ) सं० १४६० । नेमिनाथ फागु नाम से अनेक रचना १५वीं शताब्दी में उपलब्ध होती है। बहुधा उन सब फार्गो की कथा वस्तु में आंशिक अन्तर ही परिलक्षित होता है। सं० १४६० मैं श्री जयशेवर सूरि रचित नेमिनाथ फागु मिलता है। | १५वीं शताब्दी के उत्तरार्द्धय में मिलने वाले लगभग सभी कार्यों में यह कृति उत्कृष्ट और मौलिक है। माषा, अलंकार और छंद सभी दृष्टियों से यह महत्वपूर्ण है। यह रचना प्रका वित है तथा प्रबन्ध शैली में लिखी गई है। वर्णन शैली में एक विचित्र प्रवाह है । (जयशेखरसूरि स्वयं संस्कृत के अच्छे आचायों में से थे। खर्जर रासावली में इस समय कृति का सम्पादित पाठ प्राप्त है। '' नेमिनाथ फागु ५७ छंदों में लिखी एक प्रोडुरचना है जिसमें कवि की अलंकारिक पद्धति और वर्णनात्मक भावप्रधान पद्धति उल्लेखनीय है। रचना में नेमिनाथ और राजमती का जीवनवृत है। फागु कृति होने के कारण कवि ने वसंत का वर्णन बड़ी सुषमा के साथ किया है। प्रारम्भ में कवि ने गुरु के आदेश का उल्लेख कर नेमिचरित लिखा है। द्वारिका का परिचय कवि ने प्रारंभ मैदिया है: दीपई जिणि जिन मंदिर मंदर विवर समान fies fafe fafe डाटक हाट कड्रंक विमान नदिई धि थामिय वाची अवर मारामि मणिम पण संपूरय पूरिय द्वारका नाम १ उक्त उद्धृधरण में डाट कहूं क विमान प्रयोग उल्लेखनीय है। बालक नेमिनाथ के पराक्रम का परिचय कवि एक ही बंद में दे देता है। उधरण की प्रत्येक पंक्ति मै दमक और आवृत्ति अनुस्पष्ट है १- गुर्जर राबावली -नायकवाद प्राच्य सीरीज- सी० १८ पृ० ६५ । Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३५ संख इलिई जिणि पूरिय भूरिय हरिमनि जंपु टोल टलक्कड़ रैवत दैवत मनि आकंपु सारंग चाप चैडविय उविय बाहु नइ प्राणि हरि हेला ही डोलिय तोलिय तर बहु प्राण त्रिभुवन नाथक ज्ञानिय मानिय वरु संसार नेमि न यौवन परिगए अरणय धरई दसार कहई कहावर ते जिम तेजि मनोहर नाडु १ तिम तिम किमई न मानइ ए मानइ मनि अति बाडु कृष्ण की स्पर्धा ही नेमिनाथ की विवाह के लिए प्रस्तुत कराया गया। कवि ने फागु नाम सार्थक करने के लिए वसंत का बड़ा सुन्दर वर्णन किया है महत और नृत्य और तरुणी दल का प्रासादिक वर्णन उल्लेखनीय है : रमइ रमापति रोणिय आणि आपण पाि तीणि उलई नवि दीपइ ए दीपइ ए ज्ञान प्रकासि त अवतरिउ रितुपति तपति सु मन्मथ पूरि जिम नारीय निरीक्षिण दक्षिण मेल्हs सूरि कीजs अवसरि अवसरि नवरसि राग बसंत तमी ई दल दीठा रस सारस भमइ संत oes areनिकंदन वंदन fee for नाथ मारिय नारिय नवा तक रितु राज का शुभागमन डुबा, मौवन की तूफानी दिशा और प्रमाद उसके साथ थे। सूर्य ने दक्षिण दिशा को उस प्रकार छोड़ दिया जैसे कोई निस्सहाय नारी को छोड़ देता है। कवि ने दक्षिण विद्या की निस्वहाय नारी से तुलना की है। दूसरे म निवेद में ज्योत्स्ना की भांति श्वेत शरीर कहकर कवि ने सुन्दर उपमा का निर्वाह किया है। मैं १- नहीं प्रन्थ पृ० ६६ १० वी पद ८-९ ० ६६। . १ Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३६ नायिकाएं क्रीड़ा में वासंतिक प्रमाद का अनुभव कर रही है कवि की अनूठी अभिव्यक्ति देखिए। विरहिणियों के मन की अवस्था बताने वाले दूहा फागु है। उद्दीपन विभाग को कवि स्पष्ट करता है: चंदरे तु गम मूकि म मूक्मिकिरण उबाड़ कोइल बोलि म मानसि मानसिक ताहरउ पाइ मनकरि मधुकर रुममुनि नीणि रहण सुहाइ मलयानिल क्षण माहरी थाहरी क्षण इकु वाइ एकली करबकनी कली नीकली गिउ अभिमान मानि अशोक अनोहक शोकह तण निधातु दव जिम दीठई करुन करणइ ए डिर्यु निकाल व दमन कि मन किहीं नहीं य चित्रां म पक्तियों में हे मलयानिल) बहो जिस तरह तुम्हारे बहने के क्षण है उसी भांति मेरे पास भी मेरे वर्ष होंगे। कवि का प्रकृति वर्णन भी आलंकारिक बन पड़ा है। शब्दों का चयन और आनुप्रासात्मकता रचना के सौन्दर्य और निसर्ग वर्णन की सुबमा में पूरा पूरा योग देती है। टालई ए केकीहर दोहर बल जिम से भीरि निरक्षिय नीरज नीरज का के विरहनि स विदेसक किक न िप ति विori विरह कवि वालिय इम पति चैव जंग कोरक चोर कह जिन वीडि मीठा प्राह मंडय गेट वधारई प्रीति erce परम पूजती जती पवन संवारि नव रंगि बनि विकसी असली जिम न विचारि ग्रन्थ, वही पृष्ठ | Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वनि वनि विकसई वेउल खेउ लगाडई चीति दीठा बासह मंडव मंड वधारई प्रीति मजारि मधुर मि मीठीय दीठीय जव सहकारि तव मत मागि न लागइ ए लागइ विषय पिकारि सामली मन अनु आमली ओमलि फलिय अनेक वर्षकाल वि मालती माल वी रहीय स एक ' जल क्रीड़ा में रानियों का सौन्दर्य और विवाह के समय राजल का रूप वर्णन भी कृति के अन्दर काव्यात्मक स्थल है: गति रसि हंस हराविय आविय मनई मेलि पाठी अलि हरि रमपीय विमपी करिवा केति हरि मींगा परी पापीय राषीय छोटई प्रेमि ते हिय वरणि सनेउर देवर नाई नेमि ते सवि हरि सत कारिय धारिय जिम धुमंत ताई बीडिय कमालिनी रमलिनीसक प्रमत चाई धसई ति अवसई विलाई इसई अबाहु अधि व संधागठी बाकी न सकई बार राजमती का भार और सवा कवि ने अत्यन्त सरल भाषा में किया है.. मला कर कि सुरक्षाडि बरसहि अमीरस बाणि मैन कृषि किर गाविव षामिय सारंग पानि हई मन पब वीषिय वीषिय उग्रम राब गरि महीप राबीमावि दीपशिक्षियण माह चमकति बालाप मनमावि बडि बबभूगवाल शिवन सुखा बासी पाडळी समाल हिं बाक्षिय प्रविरिदि सई व भागि कामवि शायि बाविय बाब पनि 1. मुर्जर राधावली. ६७ २. वहीए. ८ - - Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विवाह के लिए तैयार होने पर घर में बनाए थाने के लिए विविध भोज्य पदार्थों का कवि ने क्रमशः वर्णन किया है। प्रत दधि गोरस और चंदन आदि सुगंधित दुव्यों से बने विविध पक्वानों का वर्णन देखिए: धवल तणी सरधोरणी तोरणी तस्वर पान गैति गहिल्ली गोरडी ओरडी भरई पक्वानु संचियइ त दधि गोरस ओरस चैदन हेतु कीइंफाल फलावली आपली पडई अचेत आणइ अनुचर आकुला चाकुला चाउरि पाट मोड मंडपि माडषी आडमी ऊपारि त्राट हरिमन हरिखि हकारिय नारिय स्य निजजाति बइसिई बडल हुडाई भाईय जिमते पाति पडिला नीली सूक्यि भूक्यि फलहलितीड देखीय मोदक पुरकीय पुरकीय जमता जीह बाजा बरहर चूरता कूट ता भाविउ थालि जामंइ त जिम पाणीय ताणिय ठीजइ दालि भामा बबन संसालले सालणे बाधी पालि पीलई पापि परिमल निर्मक बहुल विवालि मधुर करंबक परि सुपरि परीबई धोक मुख इधि करई विकर विय करविय करई बोल (...) मवावों में बैठकर नैमि को निहारने वाली मारियों का वर्णन कवि ने सजन के किया है। अहंकारों की भारसा याक मौषना, विविध दृष्टान्बों और उदाहरणों से पुष्ट करके कवि ने प्रस्तुत की। कवि की ग्लोवार बड़ी महत्वपूर्ण है। कारुणिक विप्र कवि के विद्याप और दूड़ियों के तोड़ने तथा गिर गिर पड़ने धरने बादि का पनि का मार्मिक तथा प्रवास पूर्ण किया है. बवति बिरसाना हा महिनाडिय अपार प्रियमेला में वासरे भामरे बडिय सारि ई पनि देखी बावरी बावरी बावरी यादवराई Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३९ धाकीय दृष्टि पसारिवहारिय काजल वाइ रेरे जोसी जातक बात करी जगवंच वाया करण कहलि हलि हरि दिई मंच लगन उधर आणि या पापिय अम्ड धरबोल जोराई जाई जान माणसु न हई वे ढोर कोयटर्ड साधई वाघई फूटी पालि वालs नेमि जुवलिकर मलिक ते ईषि कालि इम करि कंकण फोडर मोटर नवसर हार अंगि निरंतर सरवती करवती जिम जलधार ( पृ० ७३) इस प्रकार कवि ने कार को निर्वेदान्त समाप्त किया है। भाषागत प्रौढ़ता फागु मैं जयसर यूरिका यह काव्य का काव्यों में सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। कवि ने काव्य को गेय बनाने के लिए ही इसमें अन्तर्ममक प्रयुक्त किया है। अंतर्यमक का प्रयोग वसंत विलास एवं जंबुस्वामी फाग और भी मैकनंदन के पार्श्वनाथ फागु और रत्नमंडन गणि के नारी मराठा आदि कृतियों में भी है। इसमें यमक विराम से पूर्व ४ मात्राओं का और विराम के बाद भी ४ मात्राओं का है। वसंत विलास में भी इसी प्रकार का अंतर्यमक है। यह दूढा का ही एक दूसरा रूप है। वस्तुतः कवि ने काव्य में तेजी गति तथा मेवा के लिए ही इस बंद का प्रयोग किया है। इस प्रकार प्रस्तुत कृति में कवि संस्कृत का विश्वान होने से छंद का कप गर्म बिलास से अधिक वि ที give a short has also the a अन्तर्यमक 3. It moms there is no food tom for the compond ttom of फागु But the present has and is found in averal other phages of **** It was a form bering an to give rapidity and effect Valle sing The moral o of 12 Matras Taking the last syllabie to be a long en net hat bem carefully all through to annel tnod to bol ove Chat वसन्तविलास With 34-74+ of the same type. It is the variation o By redoing 13 Matras to 13 Katras with a short sylla end of the first work to be followed & Bort of rising rapidity is anislaved and the panse effect is minimised. But as remarked previously the s ffect alone has counted with the poet under the infintion of Gala Poetry of the time to the deteniment of each prosodio metrical form. Let me take one story instances Iatra 24 Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यस प्रकार पापा की सरलता, वर्षन की प्रौढ़ता आलंकारिक योजना पुन्दर दृष्टान्योभूक्तियों क्या विविध वर्णनों से कवि की काव्यप्रतिमा सर्वत्र परिलक्षित होती है। काय काय के लगभग सभी लामिक तत्वों का कवि ने विवेचन किया है। भाषा में प्राचीन न्दिी के म देखने को सर्वत्र मिलते है। प्राचीन राजस्थानी बा नी गुजराती के शवों का पूरा पूरा प्रभाव है। कवि ने कृति में अनेक सामाजिक रीति रिवाजों और शनों का सुन्दर 4 वर्णन किया है। वस्तुत: भाव और कला दोनोपों की दृष्टि से यह कृति भयावधि उपलब्ध काव्यों में सर्वश्रेष्ठ प्रबंध है। - - - - - - - - In the above three syllables are to be taken as short thonghinarettonline they are.lomg. This.poom. howotor has not so much moftored from Prosodio contand nation 9बसत विलास hasmftored. Thomash thopanse after 12 A11 is intended to be shortened, in PH MIAST there are cases where it is lengthened and even a syllable for w ical effect is part in between. Naturally it dependa vypon how the song is popular. The mo popular a song bocomos, the prosodic contamination hon it is written by scribes. The present y porn is written by & poet who vas a Sanskrit poet of distinction and naturally the pretting of metrical form is more pubserved in this thirthade In बसंत विलास- देखिए गायकवाड भारियन्टल सीरीज. पुष्प-१८,प्रस्तावना ५०३ Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४१ | देवरत्न सूरि काम 88888888335555555 (देवरत्नसूरि शिष्य) सं० १४९९ देवरत्नपूरि काम एक सुन्दर ऐतिहासिक बैंड काव्य है। यह रचना सं० १९२६ में ही मुनि जिनविजय जी के द्वारा प्रकाशित कर दी गई थी। कृति का रचना काल सं० १४९९ है एतिहासिक तत्वों की दृष्टि से भी यह कृति महत्वपूर्ण है। कवि की इस रचना में काव्यात्मक सरसता का वीत्व प्रवाहित होता दी पड़ता है । कवि ने लाथमिक प्रयोग प्रकृति वर्णन, आलंकारिक योजना, रसात्मकता, और ध्वन्यात्मकता आदि अनेक गुणों से यह कृति १५वीं शताब्दी के उत्तराध की फामु रचनाओं की बहुत महत्वपूर्ण कृतियों में से एक है। के देवरत्न सूरि फाग कृति का वस्तु शिल्प भी अब तक वर्णित फागों के क्या विप से भिन्न 1 का उल्लास नय अनुभूतियों की क्रीड़ा है। यह मधुरि का श्रृंगार है। आल्हादकारी पाव व्यंजना में डूबकर जिस तरह मानव अपने इस दूस कूल कगारों मैघूमने और उतराने लगता है उस समय उसकी रागात्मक प्रवृत्तियां और अधिक सजग हो उठती है और उसकी अभिव्यक्तियों में एक नवोन्मेषानीति का प्रवाह समा जाता है। अतः यही अभिव्यक्ति अनुभूति की उत्कटता लेकर हमारे सामने फूट पड़ती है। देवरत्नरि काम ऐसी ही रचना है जिसमें कवि जीवन का निवार मार निमय काम का सौन्दर्य रति जीवन तथा देवरत्न की साधना पर वी के मधुर वर्णन किए है। मामा और भाव अत्यन्त सरल है। कवि ने इसमें अतिरंजना लेख मात्र भी नहीं की। देता है कि ये पुरातन कवि अपनी अनुभूतियों को स्वाद और बानी दे दे। कृति का मर्मन अजय है और रचना का काम नाम भी सार्थक है। १-र्जर काव्य संचय: श्रीदेवरत्नरि का पू०८६ ० मुनि चिनयजी - बड़ी ग्रन्थ- भूमिका प्र० ७ Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपनि जिन विज्य जी इस रचना को गुजराती मानते है। यों यह रचना आशिक में प्रारंभिक गुजराती के कुछ अब्दों को प्रस्तुत अवश्य करती है। गुजराती कवि श्री नरसी मेहता के ली एवं गन्दों आदि का पाशिक साम्म इसमें दिखाई पड़ता है। संभवतः स्वतंत्र में गुजराती भाषा के निर्माण की सीमा रेखा ऐसी ही कृतियों निधारित और प्रस्तुत की जासकती है। कृति की स्था वस्तु देवरत्न सूरि की काम पर किया है और कोई विशेष कृति को प्रायोपान्त देखने पर भी रचनाकार का नाम कहीं देखने को नहीं मिला। अनुमानतः देवरल पुरि के किसी शिष्य या मात दुवारा ही रचा गया होगा। फाय कसा सर्व प्रथम चिराउली के पार्श्वनाथ और सरस्वती का नमन करता है और मंगलाचरण के बाद ही वरित नायक देवरत्नमूरि का वर्णन करता है। देवरत्न हरि अपने समय के जैन आचार्यों में एक ऐतिहासिक पुरुष रहे है। बागमगन्छ के थे। देवरत्नसूरि पाटम में पेधडकुल में उत्पन्न हुए। इनका बचपन का नाम जावळ था। प्रसिद्ध ऐतिहासिक जैन विद्वान पुनिजयानंद सूरि ने १४७में इन्हें अपना पटुटधर बनाया और देवरत्न मूरि के नाम से प्रसिद्ध हुए। देवरत्मसूरि ने अन्ड ब्रहमचर्य सीधा। काम की स्त्री रति को ईच्या ई। उसने अपने पति से देवरत्न को काम बिमोहित र साना मे न करने का प्रयास किया और अपने मित्र मन को लेकर सवाया। मोन और मान साथ काम कोविगे, देवरत्न पर बालक पि, मरों का धान दिया पर बल नायक नहीं मिला। काम सारे मस्त्र प्रयोग निरक काम हार गया, और देवरत्न विनवी। कवि काव्य में अपनी स्थानीय लीवावा है कि किस प्रकार काम परासिमा और मामा ने अपने बीवन को बध ब्रह्मचर्य में काट दिवा की गति इस ब्रहमचारी की गरिमा और भी अधिक मुधर उठी है। - विहाकि पूर्वर काव्य संव . Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४३ निजिन विजय जी ने लिखा है कि- "इस ऐतिहासिक काव्य संचय में कई काव्य साहित्य की दृष्टि से भी उत्तम है और उनको पढ़ने पर कवि की काव्य प्रतिमा @ उनमें स्पष्ट मिलती है। इस संबंध में वि०स० १४९९ की साल में रचित देवरत्न सूरि काम है उसमें देवरत्न के सन्यास के बाद में कवि ने उनके ब्रहमचर्य की दृढ़ता को बड़े ही आलंकारिक सरस वर्णनों से संजोया है ।" " कवि का मंगलाचरण ही पापा की प्रांजलता का प्रतीक है। शब्द सरस व पदावली कोमल है: fagar गगन विपासन दिवयर नयर जीरा उठिवासरे नामिय निरंजन भव भय भंजन सज्जन रंजन पासरे कविजन मानस सरवर हंसीय सरिसीय अविचल मत्तिरे ध्यार माविई देवी शारदा शारदा इति बरकंति रे 3 बालक जावह के बचपन का वमैन भी अत्यन्त सरस है। ऐसा वर्णन अन्यत्र देखने को कम ही मिलता है बाल रूप वर्णन बाल सुलभ चेष्टाएं, कोमल व मधुर वाणी आदि कवि के कौशल का प्रतीक है। वैशय में ही बालक के गुणों काललित वर्णन कवि ने उपमाओं और उत्प्रेवाओं में बांध कर किया है: निर्मल निage कमs विवायर वायरस गंभीर अनुदिन नव नव भाई मनोरथ रथवर बारधि पर रे efeat मानस सरवर हंसी रिसीवरे प्यार मावि देवी वारद शारद उवर कवि है ३ बालक को दीवा दी गई राम्रोत्सव हुए काम माये और बेले गए। श्री जयानंवरि ने उन्हें दीवित किया। पाटन में इसमाल्हादकारी महोत्सव का आनंद १- वही पृ० १५४ २- वही ५० १५५ ३- नासिक मूर्जर काव्य संचयः पू० १५५१ Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ××× सर्वत्र छा गया। दीक्षित मुनिवर अन् ब्रह्मचर्य का पालन कर अध्ययन और मनन करने लगे। ऐसे समय में काम की स्त्री रति को ईक्या होना स्वाभाविक ही था। उसने कामदेव को दुध कर उपाड़ने का प्रयत्न किया। वर्णन में एक अपूर्व सरलता और मधुरता है उसकी वाणी से उत्तेजित होकर काम अपने मित्र वसंत को साथ लेकर मुनि का मान मंजन करके पहुंचते है: तिन समइ रति प्रियपति बोली बोलीगल, महीवली गई मुनि बीसीयका तुम मवि मानद आप मनि मयण महमडठर तत्क्षणि मित्र वसंत कारित, कोमल बने ते नि वारित क गहि अपार • कणयर केतकनs बीजरी, पाडल कैंसर करनी मठरी तारणी गाईवार • पाटल मकरंद केसर आदि सुगंधित दव्यों और सुन्दर नर्तकियों से मुनि को पथच्युत करने का प्रयास किया जाने लगा। ऐसे समय में कवि का वसंत श्री का वर्णन अत्यन्त संभार से किया है। प्रकृति के ऐसे सरस सरल और कोमल था रागात्मक चित्र बहुत कम कवियों ने बचे है। प्रकृति वर्मन की आलंकारिकता मी इष्टव्य है: मरि सहकार लडकई टडकई कोइल बंद पारवि पाल महिमा गहि महिमा मुद चंदन नारंग कदलीय ममलीय र वानंद एमइ मम मंईि रंगिई मधुकर सुंद बनिवनि माया मावई बाइ मध्य समीर fe नाव रमनीय रमणीय नवनव बीर सम्यक कोलि कठिया तवर बार १ महीपति मनई राजइ र कुमार एक पूर्व काव्य Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४५ कवि ने श्रृंगार के सारे उपादान प्रस्तुत किए है। अबलाओं का बल बाचकर कामदेव चला। साथ में उसका मित्र वर्तत भी था। अनेक प्रयास किए गए पर सब निष्फल । निर्वाण रस में डूबे हुए चरित नायक श्री देवरत्न हरि का कुछ भी नहीं बिड़ा । पुनि बिजयी हुए। जितेन्द्रिय को हराना काम के लिए असंभव था। मुनि की विजयपर अनेक उत्सव हुए। गान हुए पाटण में उनका यश सर्वत्र का गया अनेक संघ जुड़ जुड़ कर महोत्सव में शामिल होने अनेक दिशाओं से आये वर्णन की प्रासादिकता उल्लेखनीय है: रचिति अबलाबल सारी, रीसर वाला वीर रे मित्र वसंत प्रमुख निज परिकरि परिकरिउ यति धीररे आवि मुनिवर पासह तेजवि जगतबहर उन संताप रे सील व सु देखी अतिषण चमगुण जगण चापरे घणगुण आगम चीप ध्यान ला कलम, सीलिंग रथ बक्ने नायक जय करने कहि तिहा मुनि राउ, बहरी टाला ठाउ बाम बाटोपि ए, मैलाई कोपि प क गई अभिमानि कति मानि बेनवि भाजप, गुणवर बाब ए बिंग इति भवदि, # तिम नाउडर, मिति दीर मही लिया जयकार डाउन वर्ष अवार सविन छाव र भावि माज र मनि विचार आप पच्छड बार प जति समर प पाटन मोहि पडोसन नवनव करई अनेक दिति दिति संपते अन भावई चरम विवेक गाई तिही नारीय वाकर करि निमार सावी वत्सल संघपजे जई हर्म अवार १- नहीं। Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रचना में अलंकारों की स्टा के कुछ उदाहरण नीचे दिए जाते है जिनमें अनुप्राम, रुप यमक, एवं उत्प्रेक्षा का खत निवाड हुआ है:(७) ममिय निरंजन भवमय की मज्जन रंजन पाम रे। (१) सारव ससि निम्माल गुणगण पति। (0 बा मागामि दीपड दिनकर किरपे रोहिषि क्षरे वा माहि मंडली सुन्दर श्री गुरु गुरुया गुमि जगतरे (४) त्रिभुवन गगन विमासन विषयर, निर्मल निजकुल कमल विवायद मुमबई मुहिई मुलवष लन सालंकार नाटक वनइ नबनबई कबई कवित्त मुसार (6) मित्र वसंत प्रमुख निय परिकरि परिकारित यति धीर रे () रमइ भाइ बहु मंमिई रमिड मधुकर कुंद किंशुक सम्पक फोफति फलिया तम्बर मार (९) मुह जिम पूनिम सारद ससिकर कर पंकजि जा सिविध रे प्रस्तुत फागु में बीच बीच में काम शीर्षक के अन्तर्गत पदों का भाव संस्कृत लोकों में भी दिया गया है।' फाण संझक अन्य रसायों में भी इस साइदी में इस प्रकार संस्कृत श्लोक देने की परंपरा मिलती है। का की पाका बत्सम प्रधान है। कवि पर संस्कृत का पूरा प्रभाव अपांच पदों की परंपरा मोम बमें भी पुरवित मिलती है. मायर, रिणयर, मोडम, मोगम, नगर, दिनावर मादि सब मिलने पर मयका मन, अनि का पशि का नियम का निमुन मन का न बाबर का बागर बादि अपार मदों स्थान पर बम सोंग प्रयोग किया है। बिमाबगर अधिक दिखाई पड़वी राजस्थानी - ...विद्याकिर कायद: उवारणार्थपाप पुण्याबरोनालिबान चा व स्तियो बारमा पिविनियम उचकीविकमारवा निबटा कामोयमा मोचन विश्व विदीनदोवार बन्छौ पव दिये। Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४७ या गुजराती भाषा की विशेषता है। साथ ही कवि ने उत्तर अपभ्रंश की उकार बहुला एवं वित्व प्रधान प्रवृत्ति को भी निभाया है:- मोहक, दीos, चालइ, बोलाइ, मानिs, स्वावर, तेहावर लोनई, आवई वरिसिई, हरिसई परिसीलिए, लीला, मुण्ड, वाचई, संबइ, लहकई, टडकई, मंमिई रंगिई, गाय नावइ तथा संदर नरवs are मंद वरी मरी जागिर लागउ, गडगति, महमति, रड, जी, वाला आदि अनेक शब्द है जो नये राजस्थान प्रयोगों की विशेषता सिद्ध सरि करते हैं। ● कवि की शैली की समास बहुलता के कुछ उदाहरण देखिए: (१) त्रिभुवन- गगन विभासन दिनयर (२) नमिय- निरंजन भव-पय-मंजन (३) कविजन- मानस-सरवर हंसीय आदि। रे और वे का प्रयोग गुजराती स्वतंत्र भाषा की प्रारम्भिक भूमिका पर प्रकाश डालते है। सत्सम शब्दों की तो भरमार है ही । छंदों के सम्बन्ध में कवि ने स्वयं ही पदों के ऊपर किस लिए दिए है। संस्कृत लोक काव्यम शीर्षक के अन्तर्गत भा जाते है। कवि ने चरणों के छेद को राम्र कहा है। साथ की गदै भी मिलता है जो राव हैद का उत्तराईय लगता है क्योंकि रास छेद की प्रक्ति के चिरका में जाकर प्रथम पंक्ति के प्रथम चरण में ही आवर्तन होता है ध्यास मावि देवी शारद, वार कर तिरे गया बार किड निम्त संस्कृत लोकों में एक स्थान पर जाना भी मिलता है। नये छेदों में कवि ने के प्रयोग किए है। कामुकंद अंतर बनवा दूहों का डी एक स्वच्म है। क्योंकि बार बार भइ काव्यों में प्रयुक्त होने से इस हंद का नाम काम ही फा हो गया है। १५ादी में यहद बहुधा अधिकार काव्य है। रंग सागर काम बादि में जिस पर हम जाने विचार करेगें, ने भी Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४८ इसी तरह का छेद मिलता है। इसमें मात्रा १६ १३ होती है । पहिले चरण में चरण कुल द व दूसरे चरण में दोहे का उत्तराध तथा दो मात्राओं का गीत वर्ष 'मिलता है। आदोला या आदोला दूड़े के ११ मात्रा के सम चरण की आवृत्ति पर अंदोला छंद बनता है। दूसरे चरण में १०, १० मात्राओं का तथा ( ८ मात्रा का गीत वर्ण) होते हैं। दूसरा चरण लय में इस तरह प्रथम चरण से भिन्न हो जाता है। २ फागु और अंदोला छेद के उदाहरण क्रमशः इस प्रकार है: कल भरि सहकार लहकई टडकई कोइल वृंद पारचि पाठल महिमहमा गडिगडिया मुचकुंद चंदन नारंग कदलीय लवलीय करइ आनंद t रम भमइ बहु मंगिइ रंगिई मधुकर वृंद बार यह भी चरणों का ही होता है। संभवतः रचना के कवर्णय विषय के आधार पर ही इसका नाकरन किया होगा। आंदोलन:- सारणि जय जयकार भट्ट कर कहवार श्री च बी बीच बविरु प गंधर्व नाजिम वाज मनरंगि गाई प मान दीजई बहु विवान संभवतः ओ रे की बात का की मैया बनाये रखने के लिए है। यह भी संभव का ही समानार्थी हो । राइ छेद भी काल में मिलता है कि भोला दोहा है। यह छेद हो यति है ही या सवा देवी का है। कहीं यह चरम में भी लिया गया है। मात्राओं का बना है या दूसरे का करता है। बाम नि बारे हैं। है। इस काम में यह बार वरण पहिले चरम में १६०१६ करम में ११ मात्राओं का दूहा का उत्तराई है मीटर के पहिले खुद के साथ यमक की दृष्टि माया गारवीर और हम तीनों एक ही ६० १५ Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४९ सागरनेमिफा ********CESTE ( रत्नमंडल गणि) सं० १५०० aaaaaa88888 श्री देसाईमोहनलाल ने इस कृति की सूचना अपने ग्रन्थ आपणा कवियो मैं दी थी पर इसका कस्ता उन्होंने भूल से सोमसुन्दरपूरि लिख दिया था। परन्तु वास्तव में इस रास का करती रत्नमंडन गणि है। श्री देसाई ने इस रचना को प्रकाशित भी किया था पर किसी गुजराती पत्र में प्रकाशित होने से यह रक्षा arraft अप्रसिद्ध ही रही। १५वीं शताब्दी की उत्तराध की यह रचना अत्यन्त महत्वपूर्ण काव्य कृति है जो अद्यावधि अप्रकाशित है। रचना की प्रतिलिपि श्री अगर चंद नाहटा के अमय जैन मैंथालय में सुरक्षित है। देवरत्नसूरि फागु की भांति इसमें भी कवि ने अनुष्टुप वृत्तों में काव्य का संसार संस्कृत श्लोकों में दे दिया है। पूरा काव्य एक सुन्दर प्रबंध है। जिसमें कवि ने विविध छंदों का प्रयोग किया है। कवि की शैली पर्याप्त स्पृहणीय है। वजूद चयन कोमलकांत है समास बहुला शैली में कवि ने फागु को वास्तव में रंग सागर ही बना दिया है। इसी रचना का नाम श्री देसाई ने नेमिनाथ arre का भी दिया है। पर रंगसागरनेमिफागु और नेमिनाथ नवरस फागु एक ही रक्का है। नेमिनाथ की क्या कवि ने बाल्यावस्था से ही वर्णित की है। विमा देवी पुत्र जन्म का उत्सव मनाती है उसका क्या उसका कप वर्णन किया है। 'किवोर होने पर ष की रानियों द्वारा कीड़ा में नेमिनाथ को विवाह के लिए बाध्य करना, बराड चढ़ना, क्या नैमि का पुनः लौटना पड़ के कमी होना बीर मिलार बार दीक्षित डोकर निर्वान प्राप्ति है। वस्तु या कथा तव में कवि ने कोई आदि भी पटना पूर्व मी नहीं रही है कर्मों में राज्य वर्णन, रूप या नव विवर्णम बराव काका, हामी घोड़ों का बरातियों के बनने वाले मोच्य आदि १० मर्जर कवियोः श्री मोचनका कहीवेद देसाई प्रथम भाग ० १२-१३ २- वही, वही पृष्ठ * १०-१५ जुलाई अगस्त १९१५। ४- ० पूर्नर कवियोः श्री देबाई- ४० ३२-३३ ॥ Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५० सभी का वर्णन कवि ने बड़े ही कौशल के साथ किया है। दों के क्षेत्र में इस रचना का विशेष महत्व है। कृति निर्वेदांत है थ श्रृंगार और वसंत के रसमय वर्णन परिष्तावित है। जहां तक फागु काव्य के तत्वों प्रश्न है कवि ने रुप श्रृंगार, नशिव, केलि क्रीड़ा और वसंत का सफल वर्णन किया है। रचना का प्रारंभ मंगलाचरण से ही हुआ है। कविशिवादेवी के स्वपुन रूप और नदशित का वर्णन करता है: अपन as sisteाटई बाटई परडीय देवि गौरीपीन पयोन्डरी ओरहरी माहि सर्ववि पहिल पेराई ए, गयबर अमर गईद उदार ger कपूर रसामल, सामल- सिंग- सिंगार चन्द्र चवल पंचानम, कानन नायक एक fafa गज-विडिव सुधारसि द्वार सिरि अभिशेक वीहर टोडर नवसर नवसर मधुकर वृंद सुंदर अभिय रसागर, सागर-नंदन चंद विनयर तेजि दीपंत जीपत तिमिर अभंग सोवन इंडि घरी पर कीच मति ज्यु गंग मंगल क्स अभीभरत कंठि परीठीय माठ पवन सरोवर निर्मकि जबकि रम बराक मोडीय नवि-रथमावर ग्रावर डीर-निहाय जगमम ममय नयनुं काम विहान पारमपि ममरेड मादक मति पर गो और पीवर्धन बड़े लाचन के साथ किया है। का गठन विविध उपमानों के साथ किया है। पुरुषों का काव्यों में मिलता नहीं, परन्तु कवि मे मे भिगाम का इसी कवि में विनाथ का विनाथ प्रकारका ने किया है। वन की बाकारिक इबना देखिय: Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कामि गुणधर मंगल चलता रंग केलीथर्थ कुजलीये, साथल जुजलीए कटि जिसि कैंसर तक नामी गंभीर निकलंक, उरवरि उन्नतर श्रीवच्छ डिलू ए कुसुम-कली जिम अंति, आंगुलही दीसंति, कमर कॉबडी पलानी हे नेह बोडडीए संग सरीक कंठ, प्रगटिउ गुडिरठ कंठ, बंध पुरंधरुष अधर ने रंग धरू प अधर कुंअर केरा तुर्डि, राडि बढई प्रवाल, कैंप डालिज जीमई, जीपईविजित प्रवाल सकल की नित्र दासिका नासिकाइ शुक चैच वदन चरण कर जला कूजला पदमप पंच नेनि त सुह विमणिम चन्द्र अच्छइ निसिदीस, देवनहीं यह उजली मलहलह क्ला बत्रीस लोचन विकसित कमल कि अमल किरणु अणी आल है हर सेसि मंडल बैंडलसित एडवाल देता दामिनी कुली अधर में, जाची प्रवाली जिसी कीas संजन पंडि डि हरिता धारा जिसी नाका बारी बीन वाली महिनाकी बड़ी बीडी काली कि बहुमा कुमार कि बीजाइ लमही । कवि ने कृष्णवनेम आदि की का क्रीड़ा और डेली बादि का वर्णन किया है। जिसमें बाद का ध्यं भी जा बाता है। पूरा काव्य तीन बेटों में विभक्त किया जा सकता है। प्रथम में नेमिनाथ की कम सम्बन्धी लीलाओं का वर्णन कवि ने प्रस्तुत किया है। दूसरा व तीसरा बी के वर्णन बातों के विविध रामरंग, नारियों के उत्कार और राजुल का विre के लिए सज्जा वर्मन मादि मा बाये है। साथ ही कवि मे योजन वर्णन, इवारिका वर्णन मोग्यपदार्थों का वर्णन, • बराव का वर्णन वही ही चलता से किया है। कुल वर्णन इस प्रकार है: Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५२ इबारका वर्णन हाई रयपि अंधकार, डलवा पक्षिार, ই ক য় ল ক খ पुडि आवाम कारपि भावता धेष, रंभ कि प्रालिए पपिपरी ली। दी नगरि युवान ईबर-बोक्न वान, अनंग जीवनी परिपरि पदामिनी मादन पर बाबी, एंटा बराबी, मोक्न पावडी १, बारी बाकी ए विवार म समापीय पानीय हारि पुरंग, कातरव बाली प्रत वारपा नारा बोरव बंग नवरंग मा पतीनारि, अवर उपम देवा टला मारक मारि रस गरे वारे, पोवाट पणियोग गरि मारि अक्किा बाट बटालियन मन गोलिता र परिणा-याति मावि रवि-करवात झारिकारी गावनियों मालिसा कामिनी-सलो-मोन, बोमर-बैक भरमा पीक सलारिमा र .. भ रि पानी, भावी परिमल पूरी रे Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५३ नारियों का । दोहद - कुसुम आयुध लेइ वनस्पति सवि रही, विरही उपरि सूरि रे मदन रमनिनि सारथी परिमल-परि मलिया निल वार्ड रे सुभम कि मधुकर कई कोलाहल, काइल कोकिल वाई रे । आंदोल कोइलि विश्यणी मदिरा -नवणी नाटकि मरठी एवविवनि बईठी ए पंथी प्राण पतंग, काल काजल म चंपक दीपकूप वनधर दीप कूप कुसुमित कक्ष्मी, जाणे किरि तरुणी मधुकर- जिए तेह, सिरि वीणी प मधुरित में नारियों का वर्णन, वसंत्री का मोहक स्वस्म, कामिनियों का दोडक रूप में वृर्वो पर चरण प्रहार, कुसूमों का विस्तृत सुरम्य लोक, नारियों के कसे वस्त्र, और वसंत क्रीड़ा वर्णन सभी एक से एक स्पृहणीय बन पड़े है: बावी ए मधु माधवी रति पली फूलीसवे माधवी • पीली चैपक नीकली मयमनी दीवी नवी मीक्ली पामी पाउल केवड़ी मगरनी पूर्वी ती केवड़ी कूडे वाहिनि रावड़ी विडिया दोल्डी हुई राही काय इकलित-वरण-प्रहारिद, मार कामिनी-कोक, वीयामा विमोक कुम भरि कई परीरंग रंगासवानी मारि यदि बनि म रोमाकुर कुरक धरई बारि घुटई पदस्ट टूि पिन दोषति गति प्रद Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५४ बसंत की जला कीड़ा मोडी नादर चीर सुंदर क्सी, टीसी कसी काबली आजी लोचल काले सिरिमरी, सीमत सिरनी लेई साथिई नैमिस्बर सबे मोविंद नी सुंदरी बाढी र गिरिनारि ईगरि गई सिंगारिणी लिया बर्मत देतपि साथिई देवर, देवरमणी सम गोरी रे पातली गिरिनार गिरि अबावनि चंदन बावनी गोरी रे अनर्ग जंगम नगरा बहुपरि परिषवा मनावन हारी रे, ललाट घटित न पीपति कुन कुमर रमाउड नारी रे जगमग जगमग माल झवा भोला कामा नीरिक रिभकिमि रिममिमि और मकर सरभि नलिक परी सोवन सिंगी मेखव सुंदरि सकल पुरंगी, मीचई नेमि परीरित विवाह वर्मन द्वतीय ड में ही प्रारंभ हो जाता है जिन कवि के अनेक काव्यात्मक स्थत वस्नीय है। कवि रसमडी का परिचय ही या देवा : मादी गा कि वन मावि मोरी पुजामती बारी बाबमापी रखती साबीती बरी भाषी नैमि-विवार- बारी या मुलीपीला मंसिरि आन हाली मोनिवि रागीभवी विविध पागल भी अपनी ही छटा रखता है। पहा ] परिमोसी परिवारीज सिरिया रा-शिव-पटिसिरि Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५५ इन्द्र-धनुष बाकारि, वलिया ढोरम बारि मणि हीराती, वन बाली संग्रहियों अति अभी बाल, सुंदर धवल विसाल, नागर खंडडीए, पान ड कवि ने बरात के लिए बनाई हुए साइय सामग्री का क्रमशः बड़ा ही लित वर्णन किया है: संग्रह रंग मनागर नागर इंडडा पान, परचल मधुकर पूरी करी ते करीई पकवान माडीइ पणिमयं भाजन साजन जिमs विवाह, भूकीई पकवान शालिरे वालि रेलिक माहि काव्य aas पूकोई पकवान वानि चक्का देखाउरी बड़ी पीली दाली अर्दड वालि सुर भी खाटा बालगी टाढा ढेप दहीए उपरि गंगाजले उजवले काये केवड़ी ए कपूर सरसे बोति पानाउठी दूल्हा नेविकुमार का श्रृंगार वर्णन करते समय कवि का की उल्लेखनीय है। साथ ही बरात में यादवों की सजा बंदर मेवा ईसर भादि का वर्णन इस प्रकार है। इस वर्णन में बहिनों का टूर उतारना भी सामाजिक प्रथा का परिचय देता है। नेमि वर्णन • कई कानि इति-रवि-मंडळ मानि . मुकुट मनोहर बिरिदो र मीबाट विवेवा, नयने काजल रेमा, दनि मोर, पनि कुरो प उपरि नम बहार, नय पवार जिम चार, मपि पी ए विचि विदि बीजली ए Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बडी-पंडित पाणि, वीर-वलय भुज गणि, बाडी बहिरवा ए, मलके बिटु परवाए थाल मणिमय साडीरे, मोतीबढ़ गधावई क्रु र मनपातिक धवल भय मिलिसिवादे ईवा ए मोमाग सुंदर रे बढी पिसि हुई पुस । बहिन बालाठि बइठी लीला दंग रसाइरे दृष्टि-दोष निवारइरे उपरि घरिट मेधा उंबर ए सिरि छा शायर कर स्थाप #डि बिहुपति सी किरि शिरवरि चामर धवल लति धवल माई धरि चुनसह धवल हीराउली दंति, भागलि अवसर बोलही मोलही नाच करती यादों की ना और बराव मागतिक बाइगों का मौलिक वन वे शि: ३ नमानी का किरालीबा सीपक सिमा क्या काली रियाला देशानियान यानि मिला पाम मौला. है यादव बरा करवा पी रखोरे बदमा पोती tejita ता वीसी बना पाणी मारी बेनी जी हार मा बालदिरामा सवे gaye tीर र रमाप वाजिरे पदा वितिमी मारविरबिण पुरीब बाईतिरे Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पालरबी तरीय रथ गयंदावरि अंबरी अपन निहाली रे सा पणा अलंबसी किरिबा परधर सघरपान हिव वाली रे और अन्त में कवि काव्य को निवेद प्रधान पर समाप्त करदेता है।राजुल की विरह दा नेमिनाथ के चले जाने पर अत्यन्त कारुणिक हो जाती है। सारा श्रृंगार फीका पड़ जाता है फूलकुल हो जाते है। सारा श्रृंगार, वैभव और सजा उसके लिए सुख का कटक इकन बन जाता है। निरन्तर विरहिणी नैमि मेमि की रट लगती हुई उस पर अपना सारा जीवन ही उत्सर्ग कर देती है।नारी का यह सात्विक विरह वीजणे करइ सचीन वीजन राज्यति उपरि ताप निकंदन चंदन रसि विवि चन पापिय राजति काजति ऋषित दृष्टि बिलपति विरह वाहती पाड़ती भाग वृष्टि पीठई काई नापीया प्रीगडा विरह-विका दि प्राण हरे ई मोरठा (भोरडा) मधुर निनादि रडई व पडई लोटई ए मोरह पर कार बबई महिमि मेरर र करिहार राति विराई पूणि पूरिक अगर मार म निरंतर अपरविर पति मुगवार बान वर देश्य इस यग पार, मेमिका पनि विदेश विदेश विकार इस प्रकार कपि शक्य रनों का लाषिक बत्वों का हर वर्णन कर कृति का नाम कमति का नाम नवरस का या रंगसागर का पूर्व उपक अपनी मति की रंगीनियों में काव्य को वारा अपने विधि इष्टिको इवारा नया नया रंग भरा है। बाकारिक टा मसा वा दरका की प्रत्येक पंक्ति में बार यमक व लेख भापोपाल देश पाता है। Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५वीं शताब्दी की यह कृति बुम है इसके पाठ का संपादन होना अत्यावश्यक है। नाबटा जीजा में प्राप्त प्रतिलिपि मे लेकन इसके अधिक अधिक उद्धरण इसलिए दिए है ताकि ऐसी कृतियों का महत्व स्पष्ट हो सके। कृषि की प्रवृत्ति पार्मिक तथा उपदेश प्रधान है। निदमय है। काय राव रामक, अनुष्टप, बार्दूल किया और आदोला प्रभुत है। इस प्रकार कवि ने १५वीं जवाब्दी इस रचना वारा कान की परम्परा शिल्प विधि, भाषा, सा. पाक रस, या आदिसमी क्षेत्रों में नया क्या मौलिक योग दिया है। Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नारी निरास फाग: उ888888ठसकन्छ (रांडन मणि) #. १५.०का उत्तराय रत्नमंडन गपि की एक और प्रसिद्ध कृति उपलब्ध होती है। कृति की प्रति बड़ोदा के जैन भान मंदिर के गुजराती विभाग में पुरवित है।' यो यह रचना जैन सत्यप्रकार में एक बार प्रकाशित भी हो गई है। रचनाकार का नाम स्पष्ट नहीं मिलता पर पुरया, मंडन और रैवतरत्न मन्डनमभूद इन शब्दों के फाय कवी ने अपना नाम स्पष्ट किया है। रत्नमन्डन आवार्य सोमसुंदर के (तपागच्छ ) के शिष्य थे। कति का रचनाकाल भी बहुत स्पष्ट नहीं है परन्त ५वीं वादी के उत्तरार्दध में ही यह रचना तिक्षी गई होगी ऐसा अनुमान दिया जा सकता है। रंगसागर नेमि फाय की पाति आवरयमक प्रास वाले छदों में यह काव्य लिखा गया है। इस रचना में दूहा छंद अधिक प्रयुक्त हुआ है और बीच बीच में कवि ने संस्कृत श्लोकों का वर्णन भी किया है। कवि ने संस्कृत में भी अनेक रचना की है। नारी मिराब की विषय वस्तु देखो यस कृति सबसे भिन्न दिशाई पड़ती है। कवि ने विषय विज्ञान की इष्टि मेस कृषि उत्कृष्ट है। 'विच तरा ब-विलास व दर , मन्यात्मक है, ठीक रवी प्रकार भारी मिराज काय मी काव्यात्मक सना है। विकास में ही मालिक की इन्द्रधनुषी अपना का वर्णन करवा और में नारी राजमी की नवापारय मिरामा का। मारी को परिवान करले बानिए कवि ने रामग्री के बड़े स्वाभाविक विवारी सायराब कारण ही कृषि का नामकरण नारीनिराज शिवा। नागडेरा पू० नानपावर बहीबाराही विवान वै. की प्रवि। -त्यागामाल बादशाह क-करवरी मार्च, १९४७ -शाबीनमाज हा डा. बापरा. - Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६० संस्कृत के श्लोकों पर भी तो पाषा का असर दिखाई पड़ता है और हस्तलिखित प्रतियों में के पद अपर भाषा में वर मिलते है। वस्तुतः ये विषय, भाषा और फागु रचना शिल्प की दृष्टि से इस कृति का वैशिष्टय देखा जा सकता है। __ कवि का प्रकृति वर्णन, आलंकारिक शैली, संक्षिप्त में सारपूर्ण लिखने की साधना सभी उत्कृष्ट है। पाषा की तत्समता और बदों का विशुद्ध रूप स्पष्ट परिलक्षित होना है। निरास राजुल को अंग का सारा सौन्दर्य सारी बना और श्रृंगार काटने वाला बना । अंग प्रत्या के लिए उसमें कोई भी उत्साह नहीं। उसका सौन्दर्य-मूरित होकर निवेद के चरणों में पड़ा है। इसी तरह संपूर्ण राम कवि ने नारी की अपने सौन्दर्य व उसके उपादानों का तिरस्कार तथा नैराश्य पूर्ण उद्गारों की अभिव्यक्ति की है इस दृष्टि से पूरा काव्य विरह प्रधान गारिक काव्य है। राजुल की अपने भूगार को कोसने की उक्तियां देखिए:तेह तर्ण कीअलि अलि पयकमलाहिं, परिहरिट हि अकाय रे कायरे बर वनिता बेगि गम नहीं आज मुंआ जमुना जल पूर, कालिन माग निराम रामह बस अविर मकर वि एकति राबड़ी राही रंग, निरामय दीपक ई नि पीक सिंदूर श्री सिरि मुंधर उधरै नब निर्मक, उन्न परिपडी बरे लबरे मनी रेकर राज को झाडियों इवारा बनेकार का लिाक और राजुल का अपने जीवन, बोन्बा मी मा मे निरर्थक सिध करना कवि ने सुन्दर इष्टान्तों तो और बाहरला पुष्ट किया है। -प्राचीन भानु n साडेसरा पू. ८-१९॥ Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६१ प्रस्तुत फाणु की क्या बस्तु इस में एक बम पौलिक है। कवि प्रारंभ मे ही श्रृंगार वर्णन की प्रतिकूल स्थिति राजुल में उत्पन्न कर देता है। अब तक उपलइध फाणु काव्यों में यह रचना सबसे उत्कृष्ट और मौलिक है। अभिव्यक्ति के कुछ उत्कृष्ट उदाहरण देखिए। राजुल के लिए समस्त वातावरण ही काटने वाला हो गया उसकी चर्दिक उसे पीड़ा पहुंचा रहा था: कामिमि वहरिपि सीगामि बींगपि पति जाषि निका कटा पराउली राउठी संकर वाणि तु पन र परमि अधरम अधर मधुर में विभासि गुवती जंगम विसलब किसलय तिणि वेड पाथि विकसित पंक्स पाखंडी आण्डी अपम टाति ते विष मलिलि तलावली सावली पापिणि पालि हार मिलि मुख सामु कि वायुक्डिइ फुक विणि बीपि करी पहिलीई गडिलीय चतुर अचूक मारि लबह नि कुर्षली कुबली महषितुं वाणि कुमति कर बढाइपि गवति मंत्र जागिर नारी राजुल ने अपने घर नशि की बड़ी प्रतिकूल होकर उपेक्षा की। बन्दर्य के एक एक अपमान उसके लिए निमय प्रतिष्क की बात है। कवि की अलंकारिकता प्रथा बरस की ओर राज की प्रवृत्ति मी का वर्णन का उत्कृष्ट : कानि नुक मिति बाबई भाई अमिरिमि पीवरि मरिदिएकावा काय परिवि नगि भाष विपि गएं हार बइ निरी माहिमपास पयोधर मोहर रहवा रेखि करवठी पिवळी कर लीम सी मन बामि विविध स्पट परी रे बरे (ब) हा सिपि निषि भय पारकिर काली की किसी की कमानी मह जीम ने तीन Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बिल जिसी आपिम मुंवरि ई दरिसिपि निज नाभि मदन रहइ दृष्टीविक ही, विष घरइ तेइ गाभि विषकन अम जापिम, तापिम कुचफल लुवि सेविम तह तपी छाडी, वाडडी डालिम वि करपा कामिपि न कोलम विणु जिम रंक करि घरी लिइ र पाकिषि, पाकिणी मरमि निक विपतक विषम तथडी जांण्डी परिहरि बैठ ईन पी पुष भान, धान कु जब नई देउ अमि अगानि साची रची रची प परिगड तिम किरि जिम काफिम दाफिम विहा तू मूढ सार वचन अगाडी या काडिया जिन मुख सीम नेउर कृषि पगि लागला लाग लाभ्यां लहई कीम' वस्तुत: कुल ५३ कड़ियों के इस काव्य में कवि ने फाणु के शिल्प और क्या तत्वों २ नया मोड़ प्रस्तुत किया है। पूरा काव्य ही कवि ने इसी विषम शैली एवं विकम वस्तु में लिया है। पूरी ऋतिनिवरस में सराबोर है। काम की प्रत्येक पंक्ति में आतर यमक मुत्रमा बर्षिय हुमा है। भाविकालीन हिन्दी जैन साहित्य अद्यावधि उपलाय कामों में बिना क्या के या पूरा का पलता है। बत्व पौष । मारी राय को कवि ने विविध प्रकार के दोहा दो प्रकट की सारी का वियोम वन करने में कविका पन दूब रखा है। क्या इसी बरा प्रकाराबरी की विशेषताओं का वर्णन मी कर दिया है। मामा अत्यन्त और प्राणालि है।इस प्रकार नारी निराम काम एक मौलिक रचना । - 1. प्राचीन भाग. गडेना,... Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६३ सरंगा मिध नेमि फाग। (धनदेवगाणि)-सं० १५०२ नेमिनाथ के जीवन पर लिखा ५वीं शताब्दी की अन्तिम फागु काव्य सुरंगा भिध नेमिफाग है जिसके कती धनदेवगणि है और रचनाकाल सं० १५०२।पूरा काव्य नेमिनाथ के जीवन की एक बात काकी प्रस्तुत करने वाला प्रबंध काव्य है। जिसमें कवि ने संस्कृत, प्राक्त और गुजरावी या राजस्थानी आदि भाषाको में लिया है। कवि ने जन मा को प्राकृत काव्य कहा है जिसकी मात्रा बड़ी स्पृहणीय तथा प्रासादिक है। १५वीं शताब्दी में फागु काव्य की रचना जैली, विकास, बस्तु तथा फाJ तत्वों पर प्रकाश डालने वाला यह अंतिम काव्य है। इस कार्य की शैली से परवर्तीकाल में फाय के विकास और काय मशक कृतियों की प्रौदता का विशलेषण असमानत: 'किया जा सकता है। कवि की बेली स्पृहणीय व समामबाल है। अब बबन अत्यन्त कोमल व स्पयुक्त है। कवि ने प्रारंभ मंगलाचरण संस्कृत तथा प्राकृत काव्य की अन्तर्गत किया है। गेयता प्रस्तुत रमा का प्रधान गुण है। कवि ने रासक, अढउ, गाईल विक्रीडित, काग आदिदों में काव्य लिया है। मेमिनाथ की क्या वस्तु वही प्राचीन है जिसमें कवि ने कोई मौलिक घटना का नहीं किग पर वन ली, भाका और कानु माय लावों की इम्टि में प्रस्तुब रमा की महत्वपूर्ण है। एक और बाजी मा ध्यान देने मोमीर बह किम कृषि चन्द्रावी स्वादी और पनी असावी की गाडियों की बीच की एक बीमा रेषा गग कही है। मासिकालीन कृषि होने है इसका कारण और भी बढ़ जाता है। मामले सामों वाक्यों और बों के भी प्रयोग तत्समता की और पापा का समाधानमा मालिनी सामों को इष्टि में रख इस कृति का मल्वाल किया बा | -प्राचीन काय हा डा. बाडेवरा-पु.10-01 Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथादि और कला कथा परंपरा(Surules) भी इस कृति में पूर्णतया सुरक्षित रही है। क्या परंपरा में जिस प्रकार नारी निरास फागु एक पौलिक मोड़ है ठीकउसी प्रकार यह कृति नेमि काव्यों की आदिकालीन परंपरा को मध्यकाल तक ले जाने वाली है। पुरंगाविध नेमि फाग का उदेश्य जन साधारण में धर्म के प्रति आस्था जगाना है। यद्यपि कृति शत रस पूर्ण है परन्तु फिर भी फागु काव्य के लाक्षणिक तत्वों का मन निवड कर कवि ने कृषि की भागुमयमा सार्थक की है। इस काय की सूचना सर्व प्रथम श्री मोहनलाल देसाई के ग्रन्थ में उपलब्ध हुई जिसमें उन्होंने इसकी प्रति पाटण मंडार में बताई । पर वही यह प्रति नहीं है। बड़ौदा के जैन ज्ञान मंदिर में से प्रति उपलब्ध है। कृति के अंत में षिका नदेवगामि का उल्लेख मिलता है। पुरंगाभिध नेमि फाए कुल ८४ कड़ियों में लिखा गया है। इस काव्य की रचना भी अद्यावधि उपलब्ध फागों से भिन्न अपने ही प्रकार की है। कवि ने प्राकृत काव्य या काव्य शीर्षक के अन्तर्गत प्राचीन राजस्थानी या गुजराती के भाईलविक्रीडित हैद में बबैन किया है। काय आवश्यक प्राय का दहा दही है, और कवि ने इस हा को का नाम दिया है। पूण और काम का अन्योन्याश्रय संबंध स्पष्ट होगा। कवि ने 8 दियोजना रखी। कवि विभिन्न काव्यात्मक स्थलों विलय से उसकी काव्यमय प्रौड़ना का परिचय मिलता है। ना की मामा म हिन्दी दान अनुप्रासात्मक हैप्रस्तुत गजमाव किलोग हमारा श्री मावि देव प्रभु की चना की और लिीि सरस्वती की बंदना बड़े भरस mommon कुर कवियों पान .n.ml बाल मंदिर बडोदा खराबी विधान -मागासरा -1 र Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवी देवि नवी कवीश्वर तणी, वापी अमी सारखी विद्या भावातारणी भण्वनी ईशासपी सामिणी बदा दीपति जीपति बरसती. पईवीनती बीनती बोई नैमिमार कैलि निरवी शागिई करी रंजती सरसति सरसति शुभ मानि देवी य देवीय जमि सार रे नील कमल बल सामल जिनवर धरणई नेमिकुमार रे जा रेजण मारणि मयण विडय मंडम गिरि गिरनार रे सुरनर बिरर भितरित कभित फल सकार प्रारम्भ में कवि ने नेमिमार अवतार का वर्णन किया है। रानी शिवादेवी ४ प्रकार के स्वप्न देखती है। कवि ने भिवंबर के जन्म का जनमास काव्य में बड़ा उत्कृष्ट वर्णन करता है: सामी नैमिकुमार यादव जिसिइ, जाड सा सोभागीर आधी राति प्राई समहुई पूमि समी उमासी तीपई कालि कालि शिला फूल्या कति या पाल्या बामा की समीर बीर किरि अमिट न मानकर मानिकपुरषधि प्रहरी हिरे मामि बनम महोत्सव व परि करिवामलिला सादर परमिरि गरिबीर बालकि विनाहिरी सिंगार रे सा ही कवि ने भाविकामा बर्षन किया है। जरासिंधु तथा अन्य पों विरोध और इवारिकापुरी निवास तथा बारिका की छटा और मैमिनार का कप कवि ने सूख चारा है। कवि ने नेमिनाथ के शरीर के मॉग विविध उपमानों के बाद वन विr th Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६६ सामीय वयण अनेयम ओषम वंदन होइ, क्षीण कलंकीय दीसइस्टीस प तपइन सोई ममडी बेउली आयजी कमलिनी लोचनि जीत जीमडी जगतगउंजीवन सक्जिन बोरइ ए बींत काव्य देता दाडिम बीजडा अधर ने जावी प्रवाला नवी दीपs से जल अंखडी कमलीनी जैसी हुई पापडी नासा सा शुक चैवडी ममहड़ी दीसई बेउ बाकुडी जो कि बहुना, कुमार जमलं कोई अप नहीं १ कई नेम कुमार दीसई देवकुमार दिनि दीपता र रतिपति जीवता ए आगे कवि का वसंत वर्णन बड़ा उत्कुष्ट है। आयुशाला में नैमि का पराक्रम देखकर सभी ने उनका विवाह करने का उपाय सोचा। कृष्ण की रानियों ने उन्हें जलक्रीड़ा मैं विवाह कसे को वाध्य किया। ऐसे ही अवसर पर कविता मौलिक उपमानों से सुन्दर वर्णन करता है।दों की ब्टा, काव्य युवमा व प्रकृति का frai fage आलंकारिकवर्धन अत्यन्त प्रासादिक बन पड़ा है: इन बचन पनि हरि हरदीका बाईला वसंत रितु काल रे afraft tarf परी करि सिंह मम करवाल है मार मार कापती व मुरीद मोरीय चरई मानंद रे म किनई नगर न रति राम्रा माता मन मरे २ माता मन गवेद र बडि भवन नरिंद freferrerous निसिदिन नवि गमई प Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोबालि करई टहकरि रतिपाति दलि जयकार बनसवि गडिगड्याएं परिमल महिमया ए सौरम की मधुरता से प्राण रंग का परितृप्त होना बनश्री का फैलना, रति मधु माधवी का उल्लास, पाटल का परिमल और प्रमरोका मुंजार आदि का वर्णन अत्यन्त बहिकई ५ सोक्न केवडी केवड़ी सोइ वनमाहि, पहती व रति प्रा पायी माध्वी फाल न मा चंपकली दीसह ए कली नीकली पीलीय अगि, किरि प रयपि रपदीदीय नवीय करीय अनंगि दीपई ए राना कणयर दिनयर किरि अवतार पारणि पाउत पलि करइ मधुकार फोकली फलम बीजुरी व पुरीयहा सहकार बलवंग नारंग ना अंगमानई सहकार (काव्य) दीसह मुन्न बड़ा करि नवा माया ही बड़ा पुरमा र मन मला काहि बरवा बामला देसी कडिकडी मन की, भारी संती मिठी फूली वाडिन राबडी इषि माई बीमा राठी' अनेक विभिन्न वर्षों से कृति की अवमा कृषि ई है। वह रानियों का साथ वीड़ा, रानियों भागना मौका का वर्णन, यौवन मल्ल मोषियों का मधुमालमा भावि मी वर एक एक बहकर : मैपिवर बीमई बीपति सारे पोका माम मोपी राति सी विडं गाई रे - प्राचीन का :ग. बावरा। Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६८ पदमिनी नवयौवना नवरंगी अंगि मुरंगीय नारि रे कपि अनोपम जनम मोडई मोहई सह श्रृंगारि रे सोहई सयल सिंगारि बेणि उरग अनुकारि सिरिपरि राषडी ए रवन हीरे वही ए उरवरि हार एकावली कावठी कननी हाथि, रजन गण अणु मलाईए बलाई प मेला माथि रमिकिमि रमका नेउर देर रसिल प्रालि ने मिलर नवि पीजह ए कीजइ ए ते सहू मालि भरकलडे मन सोडई ए खोडई ए पुरनर ईव, लोपनि चि चमकावई प बदनि हराकई एड वेषवयन सबि बोलई प डोला र पुचतुर नरिव देगी परमेव मानिन मानिनिई चिणि हामी घोड़ो' बलई माधव मास, माधव की मोपी मिली वाली लोपी लाज सबै नये राति रमई कामी प्रतिई मूलबह बोलई बोल सकाम बाम नबनी ती निसरी काममी की लोक कहां सही अमिनबी ए देवनी मोहिनी कवि का बारता वर्षन मी अनूठा है। पदों का काम अगाडिक सहित काव्यों का उल्लासपूर्ण वर्षन इष्टस्य : बामा मानसिक पET मा गदिई भागला शराबा सिप विस्या दीसई ने रजता ही बर मीलडारीडा मंगाका मामला हे गायबरया परवरमा देवीकारे बदमा Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चालीय जान जादव बरकरी मेरी देव बजावई रे सिरिवरि छत्र चमर सोहावई आवई देवि बाबई रे और अन्त में कवि का गत रस वर्णन और राजुल का न दोनों ही बड़े पार्मिक है। पशुओं का वध होगा या बानकर नेमिनाथ प्रत्यावर्तन कर मप। राजुल का करुण 'विलाप अत्यन्त उत्कृष्ट बन पड़ा है. जाणीव जीव बध जिनवरि पदपरि धरिउ बाराग धिग पडउ एह सारनई सार नहीं निहा राग निज वर वलीउ ी गाणीव राणीय राजल देवि विरह करालीय बालीम दलीय घरणि वीपई वि शीतल पनि दानि करी करीय सभेत सा नारि दीन बचन अ जि बोलाए बोल एकति अवधारि नाइ सनेह दामिन दाखिन रामिन देव तुम बिन मा राजन रान पावई हेव रासी नैमि विवि बनी रोगामिनी कोडा कम बारबार मरी पूरइनवी नारी बीबई विकरी माइलिभरी रोकिदहीमावरी बाई पिक बारखी बोइप राजीनादि वित विमति रामवि विलबादि निपति कीय बारे बस वापि बिनबर बानि बरसाद बरसह ईनमन हरे बान कई बीमा प्रशिकीधी बीपी मापीरे नब म निक्षीय राजीमती राति मनि नापी रे Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७० इस प्रकार कवि ने सरस शैली में पूT काव्य लिखा है। छंदों का सर्वपूर्व परिचित है। माका के लिए भी यह स्पष्ट है कि कवि ने पुरानी राजस्थानी व गुजराती के ठेठ शब्द कहीं कहीं प्रयुक्त किए है। शेष सब शब्द तत्सम प्रधान है। कला और भाव दोनों दृष्टियों से धनदेवगण के इस फाग का विशेष महत्व है। इस प्रकार १५वीं सताब्दी के फागु काव्यों के पाका भाव और अभिव्यक्ति में एक अपेक्षाकृत स्थिरता है। हिन्दी साहित्य के आदिकाल में रसमय उर्मि काव्यों में फागु काव्यों का बड़ा महत्व है। Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउषा काव्य Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७१ 100 चपई काव्य -:: नेमिनाथ बरड :: हिन्दी साहित्य के आदिकाल की एक महत्वपूर्ण रचना श्री विनयचंयपूर कृत नेमिनाथ चतुष्पदिका है। यह रचना १४वीं शताब्दी की है और आदिकालीन हिन्दी जैन साहित्य में एक धारा विशेष की द्वयोतक है। प्रस्तुत रचना की भाषा प्राचीन राजस्थानी या पुरानी हिन्दी है। नेमिनाथ चपs या नेमिनाथ चतुष्पदिका का वृत्त धार्मिक है। इस रचना के पूर्व भी नेमिनाथ पर एक और रचना उपलध होती है जो तेरहवीं शताब्दी की एक अप्रसिद्ध राजस्थानी रास रचना है। जिसका नाम नेमिनाथ रास है और रचनाकार श्री सुमतिमनि है। इस रास रचना का प्रकाशित रूप हिन्दी संसार के समक्ष आ चुका है।' इसी प्रकार की कई महत्वपूर्ण रचनाओं का संग्रह हमारे सामने मुनि जिन विजय कृत जैन ऐतिहासिक गुर्जर काव्य संचय, अपभ्रंश काव्यजयी' तथा प्राचीन गुर्जर काव्य संग्रह आदि ग्रन्थ प्रस्तुत करते हैं। इन कृतियों के आलोचनात्मक अध्ययन पर यह सरलता से कहा जा सकता है कि भाषा, पाव, रस, छन्द, अलंकार काव्य if aथा पqथतियों में हिन्दी साहित्य इन राजस्थानी जादिकालीन हिन्दी खना का रिनी है। कालीन प्रत्येक कृति अपने ही प्रकार से साहित्य का विश्लेषण करती है। जिनमें साकिर है एक अपूर्व नमस्कार है मात्र धर्म या उपदेश ही नहीं। नेमिनाथ पर भी एक ऐसी ही अनूठी रचना है जिसमें श्रृंगार, कम और शान्त एक र व्याय है। १. हिन्दी सुन-देन तादी का एक अप्रसिद्ध राम-श्री मंवरलाल नास्टा वर्ष १० २- देखिए जैन एतिहासिक र काव्य संग्रह-श्री मुनि जिन विजय प्रकाशन श्री जैन जात्यानंद समा। ३- अपर काव्यानी द्वारा ला०म० याची सम्पादित Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७२ कवि श्री विनयचंद सूरि की इस रचना की नायिका राजुल ने अपने हृदय के राम को गा गा कर रोया है और रो रो कर गाया है। रचना को आद्योपान्त देखने पर ही इसकी मधुरता के आनन्द का अनुभव किया जा सकता है। इस ग्रन्थ का प्रकाशन भी श्री दलाल ने आज से तीन युग पूर्व ही कर दिया था। अभी एक और विश्लेषण ST० हरिबल्लम पायामी ने प्रकाशित किया है। इसमें उन्होंने इसका नाम भी नेमिनाथ चतुष्प दिका दिया है। कपड़ और चतुष्पदिका क्योंकि एक ही छेद के पर्याय है अतः इससे रचना के नाम में कोई अन्तर नहीं पड़ता है। डा० मायामी ने इसे प्राचीन गुजराती की प्रति माना है, पर प्राचीन गुजराती और प्राचीन राजस्थानी तो दोनों एक ही भाषा थी। गुजराती स्वतंत्र नाम की भाषा का जन्य तो बाद का है जिस पर हमने ऊपर प्रकाश डाला है। डा० मायाणी ने इसके पाठ का आधार प्राचीन गुर्जर काव्य संग्रह का पाठ ही रक्खा है। आपणा कवियों तथा जैन गुर्जर कवियों' नामक गुजराती ग्रन्थों में भी इस कृति पर संक्षिप्त टिप्पणियों का उल्लेख मिलता है पर विस्तृत पाठ इन्हीं उक्त दो स्त्रोतों से हमें उपलब्ध है। प्रस्तुत आलोच्य ग्रन्थ के रचनाकाल में भी थोड़ा अन्तर मिलता है स्थानों पर इसका रचनाकाल सं० १३५३ मिलता है, कहीं ० १३५८ मिलता है।" श्रीकाल भी इसका रचनाकाल २० १३५८ ही मानते हैं। श्री मुनिजनविजय जी का विचार है कि यह रचना ० १३३८ की है। श्री स्वामी नरोत्तमदास जी इसे १- कार्ड गुजराती सभा धावली- ६९ डेरमा बौदमा इतना प्राचीन गुजराती काव्यो- द्वारा श्री डाक मायाणी । १- आपना कवियो- श्री ठान्द भगवान थी। ३- जैमर्जर कवियो- श्री मोहनलाल वलीचंद देसाई पृ० ५ भाग १। ४ निताम्बर कान्स हेरलड- पुस्तक ९ ० २८२॥ ५- देखिए श्री बला का पाटन के दारों के साहित्य पर व पाचवी गुजराती साहित्य परिनिर्वाण संग्रह) ६- जैन गुर्जर कवि- श्री देवई। ७- देखिये डा० नावानी कृत कार्ड ००० ६१ पू० १३। Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७३ १३२५ की पानते है। जो भी हो इसकना हो निश्चित है कि यह कृति वीं शताब्दी पूर्वाद्ध की है अत: इसका काल ०१५ सं० १५८ के बीच ही कहीं हो सकता है। इसी कवि का एक दूसरा काव्य उपदेश माला कथानक समय मिलता है। श्री देसाई श्री विनयवेद मुरि को प्राचार्य मानते हैं और वे अपने ही ढंग से इसका काल निर्षय-जैन गुर्जर कलियों में करते है। इस काव्य की क्या बस्न विष में इस प्रकार है*गाल वर्ष परम सुन्दर श्री नेमिनाथ का स्मरण कर राजुकारामती) किस प्रकार सिद्धि को प्राप्त हुई - यह एक ही वाक्यकाव्य की मुख्य संवेदना है। इस काव्य में नेमिनाथ के माता पिता और राजन के माता पिता का वर्णन नहीं मिलता सिर्फ एक स्थान पर सेन नाम मिलता है पूरी चम्पदिक संवादात्मक रूप में ही है। पर नैमिनाथ का वृत्त अत्यन्त प्रसिदध सारीपुर के महाराणा द्रवियर और उनकी रानी शिवा दैवी उनके ने मिकुमार। उनसेन की कन्या राजमही दोनों का पाणिग्रहण ठहराया गया। विवाह के लिए धूम धाम से बात की। राजमती ने भी ऐसे परामवाली, बीर और सुन्दर पति को देखकर अपना बहोमाग्य माना। इधर जब निमार रथ पर चढ़कर पा रहे थे वो बाड़े में बंधे हुए अनेक पलों को देखा। निरीह पाल और माय कर रो पूरने पर यों ही बनेपा चला कि वारातियों को भी गिर ने ाि विवाह ही रख कोटा लिया। दो भाग दोन बीमा करन्य प्राया। इथर रानडी को भारी बोकगा। उसने भी मिश्विन महिमा किनेमिनाथ परीही जीवन विना है। अन्य नवयौवना वि मिशधा का मई गार नीरजा मिला और नमी देखो भावय उपस्थित हो गया। अपने सिसोदिय बनाउनेकी कठिनाई काटा। फूल फूल हो गए। wwe - - t-afनी री-बचाव स्वामी मरोरमबाम-प्रस्तावना Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७४ प्रत्येक महीने का वर्णन सभी के साथ संलाप सभी का उसे पुनर्विवाह के लिए सिलावन और राजुल का काव्य देश और उसकी एक निष्ठता सभी का इन्दर विवेचना है। अन्त में राजुल या राजमती नेमिनाथ को केवल-ज्ञान होने पर गिरनार जाकर स्वयं भी दीक्षित हो जाती है और अपना शेष जीवन साधना और मोक्ष प्राप्ति में उन्हीं के चरणों में काट देती है। ही मधुर वर्णन हुआ है। अतः इस काव्य की हम संवाद काव्य कह सकते कथा वस्तु मंडी है। इसी संक्षिप्त सी घटना को विवान कवि ने बड़े ही संमार से संजोया है। विप्रलंभ करुण और अंगार की त्रिवेणी बड़ी ही मार्मिक और विचित्रता की बुष्टि करती है। नायिका राजुल है और प्रतिवादक उसकी सी जो उसकी हर बात का प्रतिवाद प्रस्तुत करती है। दोनों के इस संलाप में वर्ष का प्रत्येक महीना इसका कारण बनता जाता है। अतः यह रचना बारहमासा है। वर्ष के बारह माह में किस प्रकार प्रकृति उसे विभिन्न विभिन्न रूपों में संवेदित करती हैं, बार पीड़ा पहुंचाता है, प्रकृति के अन्य उपादान उसे तड़पने को बाध्य करते हैं आदि सभी का बहुत है। बउपर काव्य की परंपरा अपभ्रंश से ही प्रारम्भ होती है। दोहा तुकान्त छन्द है। जय के दोहा और बौपाई छन्द बड़े लाइले है। दोहा ने हिन्दी को एक प्रदान की। दोहा मुक्तक काव्यों का प्रमुख था और चौपाई स्थानक प्रधान है। अतः कापड हंद की परंपरा का उद्भव है। में इस उम्द का खूब प्रयोग हुआ। अतः चढवई स्थानक प्रधान काव्यों के लिए प्रसिद्ध छन्द माना गया है। कब की परंपरा की भांति बारमाया की परम्परा भी महत्वपूर्ण है। Arcerer की परम्परा पर आने के अध्याय पर विस्तार में प्रकाश डाला गया है यहाँ से ही उसका परिचय दिया गया है। वास्तव में बारहमासी की है। सर्वप्रथम संस्कृत और प्राकृत में महरि यह परम्परा पी पी प्राचीन १- देवि प्रस्तुत ग्रन्थ का अध्याय ७ । Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७५ वर्णन के अप में इस बारहमासा की कल्पना कर सकते हैं। अपज में भी बारहमासा की एक बहुत ही प्राचीन रचना उपल हुई है। जिसका उल्लेख श्री अगरबन्द नाहटा ने श्री डा. नामवर सिंह के कथन का परिहार करते हुए किया था अपर की यह रचना प्रकाशित भी हो चुकी है।' डा. नामवर सिंह का विचार है कि बारहमासा हिन्दी की ही अपनी विशेषता है परन्तु ऐसी बात नहीं है। अपच की वीं साबुदी की एक महत्वपूर्ण रचना मिल चुकी है जिसमें बारहमाया का वर्णन हैली अगरबन्द नाहटा लिखते हैं कि वास्तव में इस बना का नाम बारमा है जो कि रचना के अन्त में लिझा मिलता है और कति की पहली पक्ति में भी जिसका निर्देश हैपिंडित लालन पाधी ने पी धर्मसूरि स्तुति के आगे बैक्ट में (बारह नाव द्वादर मास अप शब्द द्वारा स्पष्ट कर दिया है। अभी तक प्राप्त बारामारों में अपश की यह रचना सबसे प्राचीन है-- और इससे बारहमासा ज्ञक भाषा काव्यों की परंपरा ८०० वर्ष पुरानी सिद्ध हो जाती है। अतः पी नापनरसिंह की इस बात का सरलता से परिहार उक्त उद्धरण से हो जाता है। स्वयं श्री नाहटाजी के संग्रह 100 से अधिक जैन कवियों के बारहमास है जिनमें तीन बौथाई बारहमासे नैमिना और राजमती के स्थावर पर लिख गए है। यहीं बैन कवियों ने बारहमासे वीं वादी प्रारम्भ होकर ९वीं सताब्दी के उबराई कि जाते है। नेमिनाथ पद मा अम्पादिका इन बारहमासी है एक ऐसा ही बारामा यही एक और महत्वपूर्ण नाज का स्पष्टीकरण आवस्यक दिखाई पड़ता। और बह यह कि डा. नामवर सिंह ने इस नेमिनाथ परपर रबमा को अपांच की रखना कहा है और इसका रक्ला .. लिया है।जो दोनों ही पाय ठीक १० देखिए किसी भीलवक, परकी बगरचंद नाम्टा का-बारह-मामा की प्राचीन परंपराया ५ देखिए हिन्दी विकास अपरागोग-श्री डा. नामवर सिंह पु. ९ -हिन्दी शीम श्री भाण्टाका लेखा 1-बही...॥ Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७६ नहीं है। अपने कधन की प्रामाणिकता में वे लिखते है कि-नेमिनाथ के चरित पर जो इसरा अपश प्राप्त है वह है विनयचंद मूरि (१२०० ई.) की नेमिनाथ उपई। पर वास्तव में ऐसा नहीं है। ऐसी रचनाओं को घोर अपच नहीं कहा वा माता। उनकी भाषा का रूप परिवर्तन तो स्वयं उन्हीं में स्पष्ट रूम में विद्यमान है।यह रचना पुरानी हिन्दी या प्राचीन राजस्थानी है क्या आदिकाल के हिन्दी जैन साहित्य की एक अत्यन्त प्रसिद्ध ज्या महत्वपूर्ण कृति है। क्योंकि पाका के रूप स्था अन्य साहित्यिक प्रवृत्तियों के आधार पर यह सरलता से निर्णय किया जा सकता है कि यह आदिकाल की हिन्दी न राजस्थानी कृति है जो पती पूर्वाद्ध की है। गुजराती साहित्य के प्रसिद्ध विदवान श्री केशवराम कादीराम शास्त्री का मत है कि -पूर्व रचित बारहमासी काव्य नहीं मिलने से नेमिनाथ चतुष्पदिका को ही सर्वप्रथम बारहमासा माना ग सकता है। परन्तु उक्त रचना जो श्री नाटा जी ने प्रकाशित की है बारहमासा की परम्परा को पूर्णतया स्पष्ट क्या गत लगभग समस्त प्रमों को निर्मूल सिद्ध कर दिया है। अत: अब इस तभूय में कोई विड गा का करने की गुंजायश नहीं रह जाती। प्रस्तुत बारहमासा एक विरह काव्य है जिसमें राजुल या राजमती नायिका के चरित्र की परम निळा सिद्ध होती है। राजुक संतप्त होती है विरा उसे अनेक मों में पुराना है और नारी अपने मन की बात को अनेक प्रकार करने का प्रयत्न करसी पर बही उसे विविध मार्म की बा नारी का कल्प बमरण को माना है और वह पुनः उसी प्रकार विकल हो जाती , पर उसकी इस - देसिक चिन्दी विकास में अपांव का योग-नामवरसिंह १९ नवीन १. विष ने क्लिाय पविका-काई गुजराती प्रथमाला ६१ ST० भायापी ..देसि भाषा वियोश्री सवराम काशीराम शास्त्री . । ४- देखिए हिन्दी अनुशीलन- कश्री नाहटा जी का लेखyon Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्लता में संसोक है। बड़ी विचित्र स्थिति है उसकी पर ४.दों की इस रचना में जीवन का एक स्वस्थ दृष्टिकोण परिलक्षित होता है। यद्यपि सही राहुल को अन्यत्र विवाह का लोभ कारवार देती है, यौवन का उत्स राजुल में जन अव धारागों में राशि राशि उद्वेग के साथ प्रवाहित होता है पर नारी ने जिस एक पुन को एक बार मन में बरण कर लिया पुनः वह अन्य किसी की ओर आर उठाकर भी नहीं देखती। अपने संकल्प शिथिलता लाना भारतीय नारी आदों के विरुद्ध था। बारमासा बहुधा वर्ष के किसी भी महीने से प्रारम्भ हो जाता है। यों सामान्यत: पति के वियोग के पश्चात् ही इसका प्रारम्भ प्रत्येक महिने के आधार पर किया जाता है।संदेश-रासक का पड़रितु वर्णन प्रीष्म प्रारंभ होता है और बीसलदेव राम का बारहमासा कार्तिक के प्रारम्य होता है क्योंकि नायक पावर में प्रवास नहीं ही करते। पर हमारी आलोच्य रखना के नायक ने तो न भर्दी देवी न पावस। उसे तो शश्वत प्रवास करना था। नेमिनाथ के इस अप्रत्याशित प्रवास ने अभिन्न-यौवना राजल की पलकों में साक्न ही घोल दिया और यह बारहमासा श्रावण से ही प्रारम्भ होता - रिममि रिमझिम मेंह का बरना, मेनों की बडबडाहट और विगली का नयना कोमल नारी के कुमार बब को या देशा -विली राक्षसी है, काट बागी उसे: अवधि घरवाणि सर्व देव मन्या विरहरि मिड दे! विजु भयका रस्सासि वेब, नैमिति दिल मी बडियम मे।' और इसी प्रकार वा खारगेर बह विरह वर्णन ः पुनः मादी देशा पिलाय सम्पनि राती धमाला- श्री डा० भावानी ॥ Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नेमिनाथ चतुष्पादि का पूरा काव्य उत्तर प्रत्युत्तर शैली में चलता है। अतः कवि की यह नाटकीय सेवा योजना अत्यन्त सफल हुई है।राजुल का संवेदित होकर पूरना और सखी का उसे तत्काल सान्त्वना देकर प्रत्युत्तर देना किसी मधुर नाटकीय अभिय भंगिमा का परिचय देता है। दोनों अभिनेत्रियों का यह पारस्परिक संवाद और उसमें डूबा हुआ राजुल का मन किसी भी सहृदय नारी की मुख्य प्रवदना बन पाती है और उसके शोक, उसकी वेदना और आसनों का साधारणीकरण भव्य दर्शक वा श्रोत को स्वाभाविक रूप में ही हो मता है:- उत्तर प्रत्युत्तर का यह म किसी भी में देखा जा सकता है: कात्तिा क्षित्ति काइ संभ रजमति किमि हुई अति * रावि दिवसु आइ विलन्त, वलि वलि व्यकरि वयकरि at (कार्तिक में क्षितिज पर उगती दुई साफ (अभाव कतिकाएं) और राजमती का जीग होकर अत्यन्त माल हो जाना व दिन रात विलाप करना- हे प्रियतम, फिर मामो फिर माओ दया करो, क्या करो। तिक में क्षितिज परसामा का गना, बिजली का राक्षसी बन कर काट मा, तथा वृक्षों का ते हुए पल्हों के रूप में आसू बरखाना, आधुनिक काल वावदी प्रयोगों की याद दिलाता है। नै भिसणी अधिकिन मास, काक गूगल सो घरबास इमा इसी सनेक नारि गयो बि गिर नारि (सिसीनेमि की भाशा बोको बा तो कागर पामो हस्थाश्रम को छोड़कर काम कर गया। नहीं तो कोई इस प्रकार की स्नेहिल नारी को होड़कर मिरनार वा सका है। असम्भब) १- मैपिनाथ म्यविका-काई माती प्रथमाका-का-मायामी । Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७९ और राजुल पुनः प्रत्युत्तर देती है: कायक किम सचिन मिचिगई। गिनि रिपि मित्त सानु नरिंद पुरहि मासु वा अगालि नास बाब न मिलहर्ड ने मिहि बास (मसिसि ने रब अनेक नरेन्द्रों को जीता ऐसे नेमि जिनेन्द्रकाबरको सकते है। जब कनासिका बास बलती रहेगी तब तक में उनकीमाश नहीं होड़ सदी) और इसी प्रकार उत्तर प्रत्यार केली की मधुरता में सम्पूर्ण काव्य वर्षिया । नेमिनाथ बारहमासा विप्रम श्रृंगार का रंग-सौध है जिसकी नायिका में प्रियतम नेमि के पक्ष में पलक बिछा रही है। आसू पाद प्रक्षालन के लिए है म और यौवन सम्मोहन (chibanjarmy है कामनाएं और ल्य अध्य पर्व आत्मसमर्पण वटास और भूकता काम के गित है पलकों में बंद कर उसने प्रियाम को मारद परराव पथ पर अभियान करते बारा है उसे देखा है। बसा एक पटा की और मागे का वाकों में किया। नायिका बारहमास टकटकी बार देखती सी. निसामनिला मई मापौवन सूब गया। विरह न माना जीवन की पाक मेधा प्री की इन्टिवार का सम्मोन का पान । अमेठी और पोती माविका राना--पर -- पर राज मैं और सामान लिया था। उसके घर चरित्र में भी नहीं पातों के बाडू बागी बटके रा गए। न जाने Himatemवि विवस्था सब भूल गयी माद सा वल ने मि.- र भियान की कोर निर्मम कि राज्योला की मिनारदी हुई बीवन की सुबमामयी प्रेषणीय दो कोमल PhDP Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोमल सी सोई सोई थी नाकों में एक बार भी फाग तक नहीं। पशुओं का करुण वन नेमिनाथ को निर्वच निष्पन्न कराने में पर्याप्त था। साधक संजाल होड़कर भाग बला-अंगार होड़ गया, और निबंद है पवा और राजुल रोती रही रोती रही, बीवन और सौन्दर्य में बार के मोती पिरोती रही। वास्तव में राज का विश्लम ध विप्रलंभ है जिसमें एक अनूठी पात्विकता है उसके बावों में मावा की पुकान परित्र की बान और सौन्दर्य की गरिमा है। अधु और सदन, बस और अन्दन,यही विरासत में उसे मिले है।गरीर में कहीं अंगताप नहीं। बिहारी की नायिकाओं की भाति र चलना और गुलाब की वीडियों के जाने की मात्र भी शुक्ति नहीं, मुरदास की गोपियों की माहि- मधुबन तुम कर रखा हरे वह नहीं मानी। पदमाकर की विरह बालाओं की पारियो यह सूचो सो संदडो कहि दीजो गाय, बबके हमार बहीन बन है किसक गुलाब कचनार मी जनारन की डारन पे डोलत अंगारन के पुंज है. पी राजुल नहीं कहती, उसके विरा में तो भारतीय नारी के आदर्श की पावनता है,उत्कृष्टता है, सारी आग व उन्माद मन की पीड़ा में ही डूब गए है। उद्वेगों का सागर और आओं के स्त्रोता उसके विस तो प्रेम दीवानी और दरब दीवानी मीरा की वह राम नाई पड़ी। अंग व्याकुल भई मिय पिय मानियोअंबरखेवन विरह की वापीरन बाडी हो और कभी बिना मित, मिलन की कोई बाधा नहीं बारहमा गार के दिन का उत्कृष्ट वर्णन साल की यह बेदना विश्व मारियों का वर्ष कम की। रास्वामी यानी वा माया नैगि नेमि करती है तो सखी उसे पूड कर डोटी मिल करती प्रक्षित अब्बल माइन वापिसी हरित Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८१ रिस रकुमरिया संसre परवि भनेर कुई पत्ता (हे मुगृधे । तू व्यर्थ ही नैमि नेमि करके अपनी सुध होती है। यौवन बीता जा रहा है संसार पुरुष रत्नों से भरा पड़ा है और कोई बर कर ले) राजुल कितना सुन्दर उत्तर देती हैं: १ (हे सही बहुत भोली है, को प्राप्त कर क्यों संवेदित गंवार भी है लेकेि होते हुए किसी अन्य होऊंगी। क्या कोई मजवर प्राप्त कर मधे की सवारी कर सकता है ?) मोली का सबिरी मारि गरि अर्थत नेमि कुमारि अन्नु पुरिस कुम अम्य नढ? गववरु हिउ कु रासभि चढइ?? अतः स्पष्ट है कि विप्रलंभ का सकल निर्वीक है। श्रृंगार के वियोग पक्ष को कवि ने सफलता से संभाला है। कहीं कहीं स्थल बड़े ही करुणाजनक हो जाते है। राजुल के आंसू सबका हृदय हिला देते है: भादवि मरिया सर पिसकरून रोज रावल देवि arjeet गइ निरधार किम उदेतिति करुणावार (भावव में तात लहराने को राजू कापूर्ण हो न करने मी हाय बुक अकेली को बहीन छोड़, हे कमाडावर), इमने क्यों उपेक्षा की - मग सही राजक) भन रोड भीक नेमि न अप होइ सिंचित उपर पर उपनिरिव न क (१) राति डी कहती है- है राहुल रो मानिष्ठुर नेवि अपना नहीं हो सकता का विच करोगी हो सुन्दर यिनिक, परन्तु पर्वत तो उसे कहे की पड़ेगे)राजुल का विश्वास उत्तर सी को कितना संतुष्ट कर देता है १- मे विनाथ पदिका श्री मागावी० छंद १८३ २० बी ०३१९ Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८२ साच सहि बरि गिरि भिवंति क्विइ न मिज्जइ सामल कंति १ पण वरिसंत सर फुटंति सायक (१) प्रणु पणु ओड्डू लिंति (te सी पहाड़ पीछे तो भले ही भीजें पर श्यामल कीति कन्त कभी नहीं पसीज सकते। उनका निश्चय अटल है। मेघ बरसने पर ताल तो फूट जाते है पर समुद्र बादलों की बोटे लेते है)। इस प्रकार करुण रस का आत्यंतिक विरह नहीं होने से यह रस गौणरूप में ही निष्पन्न हुआ है। इस बारहमासा का नियामक विप्रलंभ श्रृंगार है सारी संवेदना afe नायिका के मुंह से स्पष्ट करता है। नायक निकट हो तो संयोग सुखद, पर वह तो दूर है बहुत ही दूर और इसी विरह संवेदन को कवि पूर्त रूप में संवारना चाहता है। उसमें राजुल के अयों का रंग भरना चाहता 1 प्रकृति वर्णन नेमिनाथ चतुष्पदिका में बड़ा ही सुन्दर हुआ है। प्रत्येक द मैं प्रकृति के वर्णन को कवि नै अर्थ के अलंकरण या अर्थान्तरन्यास द्वारा संपुष्ट किया है स्वाभावोक्तियां स्थान स्थान पर सुषमा लिए है। श्रावण में विद्युत का मक्क्क्ना मैचों का गर्जन, राक्षसी की भीति विद्युत का काटना, भादव में सरोवरों का लहराना आसोज में ओं का प्रवाह, चंद्र और चंदन की हिमानी गोव का दहकती भाग हो जाना, कार्तिक और मार्ग में कृतिकाओं का उतना और बालाओं की प्रियतम की प्रतीवा, पैक और माह में काम का उद्वेग और डेमन्स की तीव्रता और आक्रमण कागुण और चैत्र में के पत्तों से आंसू करना और रितुराज के आगमन पर कोयल की कूक (जिसकी नायिका ने यदि मि को टडका करs - कहा है वैसा में बमराज का फूलना, मलयानिल का चलना और ज्येष्ठ में सूर्य के प्रबंध का आय और नदियों का टूट जाना और पुनः आाबाद की गाज बीज, (गर्जन और विद्युत का चमकना) समी का सुन्दर वर्णन है। पृष्ठ-भूमि से लेकर आलंबन १० नेमिनाथ बहुपदिका डा० पायानी २०४३८-३९॥ Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८३ उद्दीपन यात प्रस्तुत अप्रस्तुत सब रूपों में प्रकृति का वर्णन हुआ है। प्रकृति का उपदेशात्मक स्वामी दर्शनीय है। कहीं कहीं मानवीय रूप में पी प्रकृति वर्षित है कहीं उसकी रूपकात्मक नियोजना है। कुछ उदाहरण प्रसव पर्याप्त होग:. (0) उद्दीपन व आलंबन रुप में: - विज्यु का रक्ससि जेव, नेमिवियु सहि पडियम म। २- कत्तिा सिविग उगइक ३. वणि वणि कोबल टहका Rs ४- माह मामि भाचा हिम-राखि ५- बासाहह विहसिय वगराइ भयक मित्तु मलयानिक बाय .. दहई चंदु वंदन हिम सीव ' (२) उपदेश म. एवं चित्रात्मक रूप में •- मासिरि माय पलोमा बाल इस परिपक्षण नयन विमान २. ससि मामठ मास वसंतु इणि शिलिज्जा, अइइइ केतु .. सखी दुक्ख बीसरिया पनड़ संमति प्रमरर किम सम माइ ४. परिसह सर Fera मोम सिदि (भानवी बार नामक - काम वापि कम पठान, राज इस किरोनिक -भावरिया हिरा देवि बिवली का रासी की गावि भामा, काकि वितिज पर पाक का उगना, बाराको का रोना और पत्तों बार करना मावि मत - मेमिनाय सम्पविका : श्री मागावी. पद ३, ११, ११, २०, २१, ८ Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८४ रूपों में प्रकृति का सफल वर्णन है। प्रकृति के किस प्रकार सरल सरल चित्र चिते बले जाते है यह दर्शनीय है। काव्य समाप्ति पर कवि ने शान्त रम्र की सृष्टि की है यद्यपि पृष्ठभूमि के रूप में निर्वेद का आद्योपान्त कथन होता है पर अंतिम में ही शान्त स्पष्ट रूप में परिलक्षित होता है। कवि को शान्त और निर्वेद में सारा विप्रलंभ बदलना भी था और बारहमासा काव्यों की परम्परा के अनुसार समाप्ति पर नायक और नायिका को मिलाना भी था और अपने लक्ष्य धर्मोपदेश की पूर्ति भी करनी थी अतः इन्हीं उद्देश्यों से उसने राम की सफल व्यंजना की है। राजुल का सारा सौन्दर्य वहां और भी सार्थक हो जाता है जहां उसके बिरह चरम परिणति नैमि के चरणों में जाकर दीक्षा लेने में होती है और इस वर्णन को कवि ने अधिक मा नाम देकर पूरा किया है। अधिक मासु सवि मासहि फिरइ छह रितु-केरा गुण अणुहर मिलिया प्रिय ऊबाडुली हूस उ मुकला विउ उप्रसेण-धूय 豐 मैच सखी सइ जसु परिवार प्रिय उपाडी गइ गिरिनारि सम्री सहित राजल गुण राति लेइ दिवक परमेसर पासि निम्मल केवल-ना विविध सामणि राज-वैवि carfs सूरि मदि बाय बारह मास गणिया कह पाय नैमिकुमार सुमरवि मिरवारि fast as a कुमारि इस प्रकार राजुल का अंर्मिलन कवि मे निर्वेद से कराया है। उग्रसेन की पुत्री ने प्रियमिलन को उत्कंठित हो पिता से अनुक्षा मांगी और ५०० सरियों सहित राजुल ने गिरनार जाकर दीवा दी और इस प्रकार स्वामिनी राजुल देवी निर्मल ज्ञान प्राप्त कर सिव हो गई। यही नेमिनाथ जैन समाज के पूजनीय २२ तीर्थकर हुए। ast तक निर्धारण का अपन है ग्रन्थ के नाम से ही स्पष्ट है कि वह १- नेमिनाथ पक्का - डा० मायामी ० ४ पद ३८-३९१ ॐ वही पृ० १०४॥ Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८५ चौपाई छेद है। अपभ्रंश के इस छंद को कवि ने राजस्थानी सफलता से संभाला है। डा० हजारी प्रसाद द्विववेदी ने तो आज से बहुत पूर्व ही चौबाई का सम्बन्ध अपभ्रंश के अडिल्ला छेद से स्पष्ट किया था। अतः यह यथार्थ है कि चौपई का सम्बन्ध उक्त छंद से है। इस छन्द के एक चरण में १५ मात्राएं होती है और तक के अन्त में क्रमशः लघु (51) जाते हैं। यह चउपई व चौधई परस्पर पर्याप्त समानता रखते है। नेमिनाथ चतुब्धदिका की इसी चउपड़ को हिन्दी मैजायसी तुलसी आदि ने अपनाया है। ज्ञात होता है कि यह छन्द पहले चौपई रहा हो और इसके गेम स्वरूप ने ही इसे चौपई से चौपाई कर दिया हो। अनुमानतः इसके लघु के गुरु हो जाने अधिक गाया जाना ही कारण हो सकता है। जो भी हो, चौपई छंद स्पष्ट है। चतुरूपदिका चौपई का शुद्ध रूप है और यह मात्रिक न्द है। डा० भायाणी ने इसके छंद बंच में गणों की कल्पना इस प्रकार की है- वे लिखते हैं- संद का नाम शीर्षक से जाना हुआ चौपई है। उसकी १४ मात्राओं की हरेक पक्ति में सामान्यतः ४+४+४, बर कदाचित ६ ६ इस प्रमाण से होप्रस्तुत कृति के संदों की स्थिति स्पष्ट है। एक उदाहरण देखिए सही पण सामिणि मन भूरि इज्जन तथा न वंशित पूरि गयनेमि, तर विठ काइ, गइ भनेश वरुड सगाई ॥३॥ अलंकारों की योजना भी प्राकृतिक है। उपमा, उपक, स्वाभावोक्ति के अत्यन्त उदाहरण मिलते है कहीं कहीं विरोधाना भी वर्णित है। दृष्टान्त और उदाहरणों का नियोजन मी अत्यन्त उपयुक्त है कुछ उदाहरण देते जा रम्याच सकते है: उपमा १- विष्णु व रक्तव २० नहिं नेमि सम वर र ३ सिरिक जीवय-मर १- हिन्दी की भूमिका- डा० हजारी प्रसाद हिक्वेदी | Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) स्वाभावोक्ति अलंकार तो रचना में स्थल स्थल पर है यथा - १- श्रावणि सरवणि कडूयं पेड़, गजई विरहि रिकि देह बिज्ड मक्कड़ एक्ससि जेव, नैमिति विणु सहि सहिय म सच भी है- सावन के मेघों का श्रवण में कटु गर्जन, विरह में देह का वी होना और राक्षसी की भांति बिजली का चमकना कितनी स्वाभाविक उक्तियाँ है। २० माह मासि माचइ डिमरासि, देवि भगइ मइ, प्रिन पास as विषु सामिय वह सारू, नव नव पारिहिं मारइ मारु (३) यमक ४८६ १- रानि गति मइ मयणह पाह २- नव नव मारिहिं मारह मारं (४) अर्थान्तरन्यास के अनेक उदाहरण उपलब्ध होते है: १- बोलइ राजल तउ ड्डु वयणु नत्थि नैमि सम वर रय घरs तेज़ गहगण सवितान मयषि न उग्गs विश्व जाय (राजु बोली- हे सति निमि के समान दूसरा वर रत्न नहीं दी है। में तेज तभी तक रहता है जब तक गयम में पूर्व नहीं निकलवा )कितनी अनूठी उक्ति है (५) विशेषाभाव १- बहई चंद्र चंदन हिम सीउ (६) बीमा (0) INT 1 १- बति विकरि दवकरि स १- दिभि रिपि वित्त लक् गरिर्द २. जीवि णु जल जलमि , मिनाथ चतुष्पेदिका डा०यायाणी १०२१२- वही, १०४ ३- वहीं, ५०३१ Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसी तरह अन्य कई अलंकारों को स्पष्ट किया जासकता है। नेमिनाथ चतुभ्पादिका के नायक नेमिनाथ है जो एक चरित नायक है। इस पर औक क्या लिखी गई है। रामायण और महाभारत जिस तरह बरित नायकों को प्रसिद्धि में लाने का श्रेय रखती है, उसी मावि पुष्पदंत का महापुराण में पी नेमिनाथ चरित मिलता है। अपने कवियों के लिए तीर्थकर नेमिनाथ और स्थूलिम, चक्रवर्ती मरत और बाहुबली, ब स्वामी या मास्मि से ही परित है: नेमिनाथ की कथा अत्यन्त प्रसिद्ध क्या है। कथा की यह कदि बड़ी की प्रचलित रही है। प्राकृत में ... श्लोकों में लिखा हुआ एक बहुत ही प्रसिद्ध काव्य नेमिनाथ वरिख मिलता है इसका रचनाकाल सन् १९५५ और रचनाकार हरिभवसूरि है और उसके बाद यह हमारा आलोच्य मध है। पुम निगम का नेमिनाथ रास भी इसी अन्य के पूर्व लिखा हुआ है और इसके बाद तो मिना बरित पर मा काव्यों और चरित काव्यों की झड़ी सी लग जाती है। अत: या में अव्याहत परम्पराओं का निर्वाह सर्वत्र परिलक्षित होता है। इन परम्परागों में चक्राकार वृत्त की पाति नेमिनाथ की कथा उलझी हुई है और यह वृत्तान्त भनेक दम है बर्षित पर है। परंपराएं भी बड़ी ही महत्वपूर्ण है। मुमतिग पि के नेमिनाथ राम या बाप और बलराम के साथ नेमिनाथ पराम का वर्णन उनके परिवारिक सम्बन्ध के साथ चलना है। जिसमें विभिन्न मोड़ दिखाई पड़ोमिनाब विवाहपूर्व का सब घटना वर्षन उसमें बा गाई पर हमारे बालो की पक मौलिकता बदी अपूर्व। इसमें तुलनात्मक दृष्टि से देखने पर मेमिनाभ और राजुल का विवाह होने के समय से पूर्व का नहीं मिला और दोनों के निवास उत्सबकी काय प्रारम्भ हो पाया की मोककी पालिसा उसके विस्त होने और पूर्व tom Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८८ करावधाओं से भिन्न होने है। प्राचीन याकदि की द्रष्टि से इसमें कवि ने उत्तर प्रत्युत्तर की शैली का निवाह किया है। अत: कथा चलकर जो नेमिनाथ और राजुल के जीवन पर मेक राम कागु और चरित काव्य मिलते हैं उनकी क्या परम्परा में तो कोई अन्तर नहीं आता वह अव्याहत मिलती है पर कथा-सादिया अवश्यबदल सी जाती है जिन पर हम यथा अवसर प्रकाश डाला। नेमिनाथ चतुष्पविका की भाषा का अध्ययन भी अत्यन्त आवश्यक है। जैसा कि हमने उपर्युक्त विवेचन में देखा है कि यह एक 'विप्रलमगार का विरह मूलक कोमल काव्य है अतः शब्दों का चयन अत्यन्त मधुर है और पदावली अत्यन्त सरस है। कवि श्री विनयचन्द इरि स्वयं एक माचार्य होते हुए भी उनकी भाषा योजना क्लिष्ट नहीं है। उसका सरल और सुसंबद्ध एवं सुगठित स्वम कहीं पी काध्य को शिक्षित नहीं होने देता। कवि की पाका एकदम हल्की फुल्की और अभिव्यक्ति में अत्यन्त सादापन है मार्मिक और रस प्रधान अनुभूतियों को सरल अभिव्यक्ति देना मी एक कला है। मुक्तियां और कहान प्रस्तुत रचना में कषि ने सुन्दर मूक्तिया और कहावतों का भी प्रयोग किया है। ये कम इस प्रकार है:.. परइ मह गप सनि ताब, मयाणि न उमगा दिया जाब ल दद सवि इक्क बना लि मिलने पर सब इस पल हो जाते है। मला Ter बडा। अनु मरिदिक जड नयि हुँनि, एटिब मुहाली किन सहि (हे माथि यदि मोबक न हो बोयो मनुष्य को क्या हाली नहीं बनी। पन-विन पिया कि बाल नीर मात नान के बिना क्या जल पीना" पाषा की दृष्टि कृति एक विकास म स्पष्टतया देखा जा सकता है। नानी बसावीपूर्वीइ ग तत्कालीन साहित्यिक स्वरूप मिया wो पुराने ज्योवो मिली है। परन्तु उनके साथ पाश उनमें हिन्दी ma -- - . देखिए प्रमुख सच का अध्याय या परंपराएं और क्या दिया। Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८९ तत्सम स्वरूपों की ओर तेजी से बढ़ने की क्रिया सर्वत्र दृष्टिगोचर होती है। यथा- सकाम, श्रावण, समी, हिम-रासि, निधरि, प्रिय, अधिक, सहित, प्रवाह, कमा, सिदिध, तक, चैत्र, कोयल, प्रभु मावि इसके साथ कई बबूद तो मचिनूतन आ गए है तथा जिनके सभी नये नये हैयथा- सवि, परिया, हय, लेड, नीर भाउ, विष, बोल्ड, कलादिङ, मिलिया, सकलड़ी, रोड, बरिसर आदि उक्त उदाहरणों यह निम्का मरकता निकाला जा सकता है कि अपक्ष माग की प्रथमा विपक्ति के एक बचन का जो उकार प्रधान लक्षण था वह धीरे धीरे इस कृति कृप्त होता दिखाई पड़ता है। प्राचीन रावस्थानी या प्राचीन गजराबी - अनेक राजस्थानी शब्द कृति की प्रादेशिक भाषा की सूचना है उनमें है उदाहरण स्वरूप देखे जासकते है यथा- धम, बारमास, कुमरु,पेड़, भगड, चंद बंदण, सीर, पंडि, डियदा, धीय, बाण, माडी, इणि, सुमि,टहका, तु, मंड,आदि। कुछ दियाएं देखिए- सुमरवि, भणड, काइ घरइ, उग्रगड, रोजइ, भरिया, सिंचिय, होड, मिम्बा, दहड, गइ, धादि। प्रस्तुत अन्य अपांड के उत्तरकालीन स्वम भी दिखाई पड़ते है पर बस मा अपार धीरे धीरे कम होती गई और हिन्दी का स्वरूप निखरता गया है फिर भी उत्तर अपशब्दों के बाहर बहा दिए जाते है:उत्तर अपार - का, मामल-म सि , अप्प, ram, हिल्ली, Tre , मामि, परिणTB सिावे. लिम्बई, भिन्नति, टमविनि, , जुका, कुट्टि पिस्सिा, बलि, पवि मादि आदि आदि। - उसपी गो ग्वारक-मेमिनाथ चतुष्पषिका से दिए गए है विन्तत विवेचन देवर भावापी संस्करण चतुष्पं विका का पाठ.. ॥ Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस प्रकार उक्त स्वस्मों से माषा की स्थिति पर विचार क्यिा जा सकता है और राजस्थानी कतिगों को हिन्दी के प्राचीन स्वरूपों को पूर्णतया सुरक्षित रखने का श्रेय प्रदान किया जासकता है। उक्त विश्लेषण में हमने इस कृति के माध्यम से विषय पर किंचित प्रकाश डालने का प्रयास किया है। आदिकालीन हिन्दी जैन साहित्य की राजस्थान में उपलब्ध होने वाली इन कसियों का मूल्याकन होने पर इस प्रकार मा बधा साहित्य के सम्बन्ध में अनेक नातव्य हमारे सामने स्पष्ट हो सका। इनकी पर्याप्त शोध शावश्यक है। बपी वादिकाल की मुख्य प्रवृत्तियों का सम्यक विश्लेषण सम्भव है। - Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ LAभद्रा सती चम्पदिका। 388ठकठळक १वीं शताब्दी से लेकर १५वीं शताब्दी का कई राम और चरपईसंशक ऐसी कई रचनाएं मिलती है जिनमें सतियों के चरित को प्रमुख विषय बनाया गया है। ऐसी रचनाओं में मुभवाती चतुम्पविका एक महत्वपूर्ण रचना है। सतियों के सम्बन्ध में यो पर्याप्त माहित्य लिखा गया है।पर इसकी परंपरा प्राकृत और अपश से ही चली आ रही है। सुभद्रामती बम्पविका वीं शताब्दी के उत्तराई की रचना है। यह भी संभव है कि इसका रचना काल वीं शताब्दी के प्रथम दक्षक का उत्तराईध हो। उपद नाम से अभिहित अब तक जितनी रचनाएं मिली है उनका प्रमुख चौपाई ही रहा है। ठीक उसी प्रकार सुमद्रासती बतुभ्यादिका में चौपाई छन्द है। चतुष्पादिका मा उपइ की परंपरा पर पहले विचार किया बाबुका है। सुभद्रासती चतुभ्यदिका की मूल प्रति माहटा की ग्राम विद्यमान है जो उन्ने जिनप्रभसूरि की परंपरा संग्रह पुस्तिका में से प्राप्त हुई। यह रचना उन्होंने प्रकाशित की कर दी है। पूरी चतुष्पदिका Riदों में पूरी हुई है। मतियों का उत्कृष्टशील इन कवियों के लिए पी एक आ रहा है और जीवन के उत्थान में धर्म के प्रचार में और भी निर्माण में महत्वपूर्ण बल्ब समय कर ही इन काव्यकारों ने इन अनी रमाओं का विस्य बनाया है। रक्षा का विषय वार्षिक मा साभाविक है। प्रस्तुत बाप्पदिका में कवि ने सुभद्रा पारित की महत्ता का स्पष्टीकरण किया है। बाद सती सुभद्रा को अनेक कष्ट और साध्वानों ने साध्य करने को कडा गया वीस और धर्म निष्टा और प्रभाव के कारण उसने सब कर दिखाया। रखना का सबसे बड़ा महत्व किस अनेक तयार और क्या सूत्रों तथा इष्टान्तों का था वि ।कवि था को माध्यम बनाकर धर्म के सिद्धान्तों से भी सामने सना गाया विविध इष्टान्तों इवारा शील तय की रक्षा का m eme देवि दी अनुवीन वर्ष .. .... . बही। Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९२ महत्व बतलाता है। जैनियों के समाज में धर्मवील-आचरण और तप वितिक्षा को बढ़ा उच्च स्थान प्राप्त है। कवि ने सुभद्रा के नाम से इत सत्य का प्रतिपादन क्यिा। रचनाकार ने पूर्व भव त्या कर्मा के प्रभाव का विस्तार से विवेचन स्पष्ट किया है। सुभद्रा सती की पूजा भाग पी जैन समाज करता है। जैन साहित्य में सोलन मतियों के वरित मिलते है जिनमें सुभद्रा का चरित बहुत महत्व का है।कृति के रचनाकार का नाम अमान है क्या प्रवाह की दृष्टि से रचना में पर्याप्त सरसता विद्यमान है। कमि ने सुभद्रा के इस वरित काव्य को श्रवण करने का फल नवकारमंत्र की प्राति भाग लिक और उत्कृष्टतम बताया है 11-01 था की सरसता का निर्वाह करने में कवि ने अमेक सुन्दर दृष्टान्तों का सहारा लिया है तथा विभिन्न अन्याओं का सहारा लिया है । रचना की क्या का संक्षिप्त धार इस प्रकार : सुभद्रापा नगरी के जैन श्रावक की पुत्री थी उसकी साम नारायण की उपासना करती थी और सुभद्रा पार्श्वनाथ को मानती थी। सास ने उसको जैन धर्म शलाकर नारायण की उपासना करने की बाध्य किया। पर वह अडिग रही। दोनों में इसी बाब को लेकर अनबन रहने लगी।एक बार सुभद्रा के यही पक जैन मुनि भाये। उनकी बार दिनका इस बाने से पानी कर राति भावरिक हो सुभद्रा ने पुनि की बाल मन को निकाल दिया। बार को यह अच्छा नहीं लमा उसने उस पर बारित सम्बन्धी लिया दोषारोपण किया। सुभद्रा में इसी कलंक मालतीन उपवास करके रखा मकार मंत्र का जाप किया। शमन देवी प्रक्ट हुई शासकहने पर उसने अपने सतीत्व का परिचय निका देवी की कृपा से नगर के बन्द प्रचीती वारों को बोलनरमा बने सूबर से चलनी में भर कर कूर के पानी निकर दिया और अपने सतीत्व को सिदध कर दिखाया। राजा ने नसको बसम्मान दिया। बाद में भी अत्यन्त उसको पुनः घर में स्थान दिया। या का सार यही है। कवि ने इसी क्या इस को रोपाई में विकसित Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तुत काव्य एकवरित काय है जिसमें कवि ने सुभद्रा के चरितका फल तथा सरस्वती वंदना को प्रारम्भ में ही स्पष्ट कर दिया है: कर होड नया गिरनारे का दीन्हइ सोना पारे अंक लवि नवकारिहि मिहि त फल सुमदा परिवि पुर्णि दिया दाना परिसन प्रा. सुभम महा मा लासप कमाइ पहिली सरबती बी मा लगी बसणा तह देख मममी बासु पसाइ कवितु पर पाना चरित सुमदास चेपा नगरिय का विचारो, मद महासह निव मनाओ (1) सुभद्रा की पार्श्वनाथ की उपासना ने सास की कोपाधिन में धुत का काम किया। पुनि आगमन पर सुभद्रा का पक्ति भाव से उसके पक्ष में से दिनका निकलने का अवसर पाते ही उसने से का िकरना चाहा। कवि ने इस घटना को मालंकारिक प्रवाह में लोकोक्तियों और मुहावरों का प्रयोग सरस भाषा में प्रस्तुत किया है। पापा की सरलता, अभिव्यक्ति का प्रवाह तथा शव भयन देखिए: संभ कि पाडू अखर एहो जिणवर सग म अच्छा देखो को विहि शान पर बला वामन बिबारि डका माता शनि परिव रोख पाहोवि बढाबिस बोसो पिका पारामा, अविना वा अनुगड हर ननिस, बीए विस्वा बहाव पर * इन्द्रिय विवि मलियन पाव, गया कि अप्पा समिति यानि का बेड भाग पाबाबो पारेर बार बार बार पियर पिडिय इणि सोनविल कर ख दुख शिव पुरए इणि गरमा नबरिय विरहन गाएं मरिका पारिंशी सुषबा वीर असा माना निबंटी बाकि धनिया बह विरंची की बिरयो, अपना विभिषि सिम Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सासू इती जीमत बैठी, त्रिम लियंती सुभद्रा दीठी विकलप बधिया पन्नड माहिं बड़ी रहिसिक पीहरि गहे सुभद्रा ए मा मापति मार नीठक वयण कि सागर जाए कवाषि का जि तुम्ड कीन्ह रोमो अहह कार चढाकिड दोसो बबा देव गुणा नवकारा नीर गलती त्रिनि ने वारा महाइ महसइ कह न मार, पाछिम लेवि देहरि जाए अम्ति दीठा तुम्हारउ बरिउ धमियउ मोनउ फूकह हरित तर महमा निर्दड अप्पा ताकिम पडविधि गइ (९-१९) साकित मुहावरे व अद सौन्टब दृष्टव्य है। कवि मागे अपनी सरस शैली में सुभद्रा को दिए गए कष्टों की चित्र शींचता है। जिससे यह क्या प्रवाह गति आती है। कमि विविध अन्तर्वधाओं का प्रयोग करता नगर के प्रतीली द्वार का उद्घाटन और बच्चे सूत के धागों से कुप में चलनी में पानी निकाल लाती है। कवि की पापा की सरसता तथा प्रासादिकता स्पष्ट है: सुभद भई बी जालो एक्वार जा उपर आलो प्रा निकली बम हर रोतो नवरी वामियम उठा पाती मविपापति पाठी मी बारा र माविक मका बहाब रेमिति राव भाला रोबकि पा मारे पालि म विहाको विहि बोकि मिजोय प्राय सत्यपि माह पनि कारों पाबा गुपक्षिय बात विकार बोये विवि माह नवरी माह होन कराड बलिपीक सरिया बार भाव नहि भवनि पून शादियां का नाही पाइको होमई को इहि मेरी साकार पाहु विवाह नगरह मारे शिवि शारिवाज गरल पा पारित साठी करत Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९५ कर कोड अम्हार काजा नरवइ भणइ दियउ अधराजी सुमदा जइ छीतर प्रागुर नरवई राज धर्मकरउ करउ अवर सिद्धा ले धंधोले सील प्रभावि उपाडि पनले (२६-३३) महासती के प्रभाव का कवि ने अपूर्व वर्णन द्वारा उसका स्वागत महत्सव सम्पन्न अन्त में सुभद्रा की विजय का वर्णन है। किया है।वार आदि विविध वाच होता है और उसके शील की विजय होती है। कथा प्रवाह का एक उदाहरण ही अलग होगा : धरि थक्की सासू कर करइ, विजय पवडित सुभदा करइ उगी आम बोलिसि मार, ड वयनिर्हि मह हियइइ वाहे सात वरीमी तेडिय बाला, सूत कतावण लागी ताला काes areणि बाधी चालीम सुभदा वा ऊप बमी चालवियह जर पाणी उधरए तिनिउ पउलि उघाडी करए लक्क्षण कवित न लंगी घड़ी सुभदा तसिहि पउली पड़ी araft राउ रoियात भर तिथि वह आउि ह थियठ यावर उपरि तबियत पाठ, आपण पात्र बलियो रामो geer सती बोल्ड वहि ठाम बी पारहि काम राउ बुल मदा मलर अगर महाराति बिन तुल पार्डवर परिafs छत्त मामइ नाचत माहिति पत् करहि कथा भाट नगरी सूध बालू व सुका पढी frica सुवास मंगल वाहि, धवल दिमता बहुबाजहि इन उच्छ नगरी बकरि घुमदा महती बीड डुबारे (३२-४०) रचना में प्रथम दों की भरमार है।मयबर विकल्प, चंपा सुभद्रा वृदि विहान, पेपार्डवर चवत, वारे, धूम, बाला मादि अनेक उदाहरण लिए जा सकते है अधिक कभग सभी शब्द राजस्थानी है। कहीं कहीं अपने केश मिलते है। रचना Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में कथा का पूरा विकास हुआ है। अन्त में कवि रचना निर्माण का लाय बतलाता है. पढहि पुणहिजे जिणहरि देह है 'निच्छा सारतरवि मुपहा सती चरितु संपला मसिद्ध पुम्सु लीला ते लही ) वस्तुतः सुभद्रा सती बम्पदिका काव्य भाषा तथा व्या तीनों मों में मात्वपूर्ण सिद्ध होती है। Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मातका चउपाइ वीं अताब्दी की रचनाओं में मातुका बउपई रचना भी उपई संजक रचनाओं की परंपरा में है परन्तु इस बना का विषय इसरा होने से इसपर कक्क मातृका संशक रचनामों के अन्तर्गत विचार किया जा चुका है।मना की कुछ पंक्तिया इस प्रकार है. रचना प्रगति है।' जा ससि सुरु भूया ज्याप्पंति या प्रा नक्षत्र ताराति वा वरना बह व्यापा नासिबलकि करर मंगलाचार' सम्यकत्वमाइपई भातुका चउपर की ही माति का कड़ी की एक रचना सभ्यकत्वमाइ चापा मिलती है। रचयिता जगल कवि १४वीं जवाबी के है। रचनाकार जगड्ड ने इसमें सम्यक्त्व पर लिया है। बना कापई कन्द में है या साम्प्रदायिक दृष्टि को तिकी गई है।सम्यक्त्व की खामो या उसके क्या क्या है इन सबो का जथे लेकर मारना स्पष्ट कला है। इसरवना पर भी कमक पातका परंपरा के अन्तर्गत विचार मिाा पुग क वि स्वयं अपना परिचय देवा की दृष्टि से शरमा अकि परकार परिलक्षित नहीं होता। यापिति का किया - जागतिक राम पवार -एकका प्रबन्ध्या --प्रमुख काश्य परम्पराई १. प्राचीन.का. -सी ही.कारू.. -बही। ४- बही .., या केक का प्रस्तुत अध्याय-. Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह रचना भी प्रकाशित है।' - मंगलकलम चउपह.. १४वी इताब्दी की एक महत्वपूर्ण कृति है मंगलकलस कपडारचनाकार है सर्वानन्द सूरि। रचना का दो की दृष्टि से पर्याप्त महत्व है। रचना अधिक लोकप्रिय हुई हो यह नहीं कहा जा सकता क्यों कि सहायक सामग्री में इसका उल्लेख नहीं मिलता। भाषा की दृष्टि से भी रचना उल्लेखनीय है। रचनाकार ने प्रारम्भ में एक वस्तु हद दिया है फिर दोडों का गम है और फिर वउपई का। पूरी रचना एक चरित काम है परन्तु पूरी कृति के उपलब्ध नहीं होने से इसके सम्बन्ध में अधिक विचार नहीं किया जा सकता। रमाकार का अपना परिचय रमा में मिल जाता है। रचना एक वरित काव्य है इसकी पी कवि ने प्रारम्य ही स्पष्टीकरण कर दों की दृष्टि से भाषा की दृष्टि से, तशा विषय की दृष्टि से रचना का भूल्यांकन करने के लिए कुछ उद्धरणों को देखा जा सकता है। रचनाकार पहले दोहा द में श्रोताओं को सावधान करता है: (दूना) रलिय रसात निष्ठा मंगलकसम चरित्व पक्षिा पाविद मा करी पुनित चिन्तु (1) रचनाकार ने स्वयं अपना परिचय भी काम किया है। यह मानन्द इरि कौन है, यह बात निश्चयपूर्वक ही नहीं कहा जा सकता क्योंकि बस्त भी एक पानाथ चरितकाव्य धाम मे शो और एक सानदरि के चन्द्राम काव्य रचना है।' पर एक बाद पूरि ीं पताइबी के बारंग मी पो मी . am थक सामन्द मुरि उल्लेख मिलता है। १-बढ़ी। नवरात्री भाग ...श्रीमोहनलाल दुलीचंद देसाई। Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९९ अतः कवि के सम्बन्ध में विस्तृत जानकारी प्राप्त नहीं होने से कुछ भी निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता। रचना में कवि ने शुभ कामनाएं करते हुए चित्व की निश्चलता से इस मैगलकलश चरित जैसी सुललित वाणी सुनने को कहा है: निश्चल चित्त पसाउला विधन विलीजइ बुरि सुललित वाणी इव भवइ श्री सर्वानन्द सूरि । (३) रचना का विषय मंगलसूचक भावनाओं का उद्बोधन होगा तथा किसी मंगल सूचक पुरुष के जीवन चरित को लेकर ही कवि ने जन समाज के लिए यह काव्य रचना की होगी पैसा परिलवित होता है। रचना के प्रारम्भ ही कवि अनेक देवताओं की बंदना करता है। स्वयं कवि इस रचना को चरित तथा रलिय रसाल काव्य कहता है। इस रचना की माया में अपभ्रंश की उकार बहुला प्रवृत्ति कहीं दिखाई नहीं देती। अनेक समय का भी प्रयोग दृष्टव्य है। एक उद्धरण देखिए: ( वस्त) सयल मंगल सबल मंगल मूल मुणिनाव आगिरि आदिजिन पायपरम पणमेव भाविन कछौली व पावना उरवार परे विणु वामुवानी सुप करणा के अनतरी बवर माल परित गरिन रात 11011 इस प्रकार रचना पूरी प्राप्त नहीं होने से इस सम्बन्ध में अधिक प्रकाश नहीं डाला या सकता। परन्तु उक्त उद्धरणों से यह कहा जा सकता है कि यह अवश्य ही एक are चरित काव्य होगा। 21 विना कपड े :: निन्द्र नेमिनाथ चतुम्पदिका के पश्चात् एक पर्याप्त महत्वपूर्ण प्रबंध रचना चिवई उपलध हुई है। यह रचना जयपुर के दिगम्बर जैन मन्दिर पाटोदी के भंडार से मिली। रचना ८६० इन्च के आकार के गुटके में Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०० लिखी हुई है जिसका एक और दीमकों ने काट कर विनष्ट कर डाला जिससे कहीं वहींपाठीशों में भी हानि पहुंची है। जिनera चउपई के सविता कविरल्ड थे जो जैसवाल कुल में उत्पन्न हुए थे। कवि ने अपने वंश का परिचय विस्तार में दिया है। कवि रल्ड अपने माता पिता के परम भक्त थे। कवि ने माता पिता को बड़ी ही श्रद्धा से नमन किया है:माता पाइ नग जंबो दिन लियउ हि मत लोग उवरि मास दस रहि घराइ । वम्बुधि हुइ सिरिया माइ पुण पुणु पणवइ मातापाइले उ पाल्हि करुणा माइ म वारण इस उरपुडा हा माइ मधु जिण सरण (२७-२८ ) farera चपs अप्रकावित है। रचना के कुछ अंश अभी हाल ही प्रकाशित किए गए हैं।' जिनसे रचना की सम्पन्नता पर विचार किया जा सकता है प्रस्तुत रचना ० १३५४ में लिखी गई और इसकी प्रतिलिपि ० १७५२ में हुई रचनाकाल के विषय में स्वयं लेखक द्वारा संकेत मिल जाता है1 संवत् तेरह से चरवपूर्ण मादव सुदि पंचम गुरु दिपुणे स्वाति नवचंडी हती। मइ रल्हू पणव सुरसुती (२९) चिनव पूरी रक्ता ४४ दों में लिही गई है ऐसा कवि का प्रमाण है: farera पूरी भई पड़ी। छप्पन हीमनियम कहीं परन्तु छन्दों का ठीक नहीं मिलते से संस्था कुछ बढ़ जाती है। अद्यावधि पाटन बीकानेर, बैसलमेर नागौर, अजमेर आदि के भंडारों की सम्यक शोध नहीं हो सकी है अन्यथा जिनदत्व चडपड की दूसरी प्रति या प्रतिलिपि प्राप्त होने की संभावना थी । वस्तुतः एक डी प्रतिलिपि बाधार पर भी अनुमान पर ही बाधारित रहना पड़ता है। १. देवि हिन्दुस्तानी भाग १९ बैंक ४ पृ० २०-२१ हिन्दी साहित्य के की प्राचीन क्या कृति- जिनदत्त पर्व- श्री कस्तूरचंद का या काल का Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०१ कवि रह ही प्रस्तुत कृति के रचयिता थे यह तय निन्त है क्योंकि रचना में अनेक स्थानों पर रल्ह नाम मिल जाता है।रल्ड ने इस काव्य के अनेक नाम दिए है कहीं कथा, कहीं वउपर, कहीं चरिनु -यथा (१) जिनदत्त पूरी नई चउपडी (५५३) (२) कवइ रडु जिनदत्तु वरि - ( २६) (३) जो यह कथा पविड रालि (५५१) (४) यह जिनदत्त चरित निय क ि (५५२) * १- पुचिका इस प्रकार है: - परन्तु पूरी रचना एक स्थात्मक प्रबन्ध होने से था पूरा ग्रन्थ प्रमुखतः चउपड़ छन्द में लिखा होने से इसका नामकरण "जिनदत्त कापड ही उपयुक्त जान पड़ता है। कथा के सूत्र इस रचना में बड़े प्रौढ़ है। यों पूरा काव्य जिनदत्त का चरित मूलक आख्यान ही है। पूरी रचना में विभक्त नहीं है।परन्तु कहीं कहीं वर्ग सूचक सूचना मिल जाती है। कवि ने प्रस्तुत रचना लिखने के पूर्व पर्याप्त अध्ययन किया है प्रतीक्ष होता है T जैन समाज में जिनवत्व एक बहुत ही प्रसिद्ध व्यक्ति रहा होगा, ऐसा दत्त पर अप में रखे गए पं० लागू के जिनदत्त चरित से स्वष्ट होता है जिसका रचना काल सं० १२७५ है। कवि र के लिए प्रस्तुत चरित रक्षा के लावू डी 華 चरित ग्रन्थ प्रेरणा के में रहा, ऐसा उसने स्वयं स्पष्ट कर दिया:काबू विराम पा म यो विपत् पुरा देखि विक र पड़ हत्या ह की जय के उपलक्ष में की १०५ की लिपि दिल्ली के किसी ऐसा ग्रन्थ के में पुष्पिका से स्पष्ट होता है।' १७५१ वर्षे कार्तिगदी वासरे लिखित महानंद पालम निवासी पुस्करणाम बार्क इष्टर डालिटि गया व मम दोषो न दीयते । ॥१॥ मायाको: श्री रस्तु पंचमी व्रतोपना निर्मितं । । ।। (प्रति-निदत्व चरपर) जैन शोधसंस्थान जयपुर) । Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०२ जिनदत्त वउपर एक कथा प्रधान कृति है। रचना में घटना सूत्रों को कवि ने इस प्रकार संजोया है कि पूरी रचना में कुतूहल आद्योपान्त विद्यमान रहता है। काव्य की दृष्टि से, छंद, क्या, तथा वर्णन विधान की दृष्टि से रचना का महत्व अविस्मरणीय है। क्थातत्व का क्रमिक विकास रचनाकार की प्रध दक्षता का परिचायक है। विविध घटनाओं का समावेश, अति प्राकृतिक तत्वों के द्वारा रचना में कौतूहल वृधि तथा रचना का वर्णन शिल्प बौपन्यासिक आनन्द का जिनदत्त कापड में जिनदत्व के सम्बन्ध में एक चरितमूलक लम्बी कहानी है जिसमें जिनवत्त के जीवन का अथ से इति तक का वर्णन विवरण है। रचना के क्या माम के अति सारंग का अध्ययन कर लेने पर ही साहित्य की दृष्टि से प्रस्तुत कृति का सम्यक मूल्यांकन किया जासकता है। विधायक है। लंबू देवीय के परत क्षेत्र के मगध देश में स्थित वसंतपुर के राजा द्रवेयर के जीव देव नगर सेठ थे। उनकी पत्नी जीवंजसा के जिनेन्द्र की आराधना से जिनवन्त उत्पन्न हुए। जिनदत्त बचपन से ही विद्याव्यसनी थे। अतः विलास की ओर उनका ध्यान युवा होने पर भी नहीं गया। वह उदासीन न रह जाय इसके लिए farera को लौकिक राम रंग में डुबोने के लिए उसके माता पिताओं ने उसे मारिज की संगति में छोड़ दिया। उनकी संगति से एक दिन काठ की बनी एक स्त्री को देखकर जिमदत्य के मन में विवाह की कामना जागी मीर माता पिताकों मे असीम प्रसन्नता है जिनदत्व का विवाह सम्बापुरी के बैठ बिमल की पुत्री विमसमती से कर दिया। कुमारियों की संगति में पड़कर जिमत्व विवाह के पश्चातु ११ करोड़ रुपये हार गए। यहां तक कि मिठी केक ने दिए। यह देख जिनस को बड़ी चिन्ता हुई कमाने के लिए बम्पापुरी के नाम से वशपुर धनिक सेठ के साथ विदेश में कान के लिए जहाज पर चढ़ गए। वहीं से ने fe के धनबाद की पत्नी विजयादेवी की पुत्री श्रीमती एक भयानक व्याधि से पीड़ित थी।मध्य रात्रि होते ही उसके पेट से एक भयंकर के एक निकलता था जो राजकुमारी के पत्र जो भी होता उसे सा जाता था । अतः राजा Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०३ ने प्रत्येक घर से एक दिन एक एक पुल भेजने का आदेश निकाल दिया।एक दिन जिनदत्त ने एक मालिन से फूल लेते समय उसे रोते तड़कते देखा ।पूछने पर उसने सारी घटना सुनाई। जिनदत स्वयं जाने को तैयार हुए राजा और राजकुमारी जिनदत्त के सौन्दर्य पर अराध थे पर अन्य कोई रास्ता भी नहीं था।जिनदत्त एक मुर्दै का काल और तलवार लेकर राजकुमारी के पास ही रिपगया। अध रात्रि में सर्प ने कंकाल को मनुष्य समझ कर उस पर अनेक फम भार इतने ही में मौका देख जिनदत ने उसके टुकड़े टुकड़े कर दिए। राजा ने राजमारी का विवाह उससे कर अटूट । धनराशि दी। दोनों पुनः वसंतपुर बले । सागरदत्त को धन देवकर पाप आ गया। उसनेराजकुमारी को भी हधियाना चाहा। माल में कीमती पत्थर बाधकर उसने समुद्र में डाल दिए और विस्त के सामने रत्न गिरजाने के व्याज से कृत्रिम डंग से रोने लगा। जिनदरत रत्न निकालने समुद्र में कूद पड़ा। सागरवस्त ने सलकर के डोरी काट दी। जहाज आगे बढ़ गया सागरदत्त ने जिनदत्त की पत्नी राजकुमारी का शील हरम करना चाहा जिनेन्द्र के स्मरण तथा राजकुमारी के शील के प्रभाव थे जहाज हबशा देख सक्ने रामकुमारी रे क्षमा याचना की। सिंहलकुमारी ने चम्पापुरी के जिन मंदिर में विमलपदी को देखा वो जिनदत विरह में व्यास धीवर जिनदत्त भी जिनेन्द्र के स्मरण में निारे लगा और विड्यारों में पना राजा शोक और रानी अशोक भी थे। राव रानियां पी थी जिनके नाम विभिन्म बड़े को प्रदेशों के अनुसार थे। यहां के राजा ने इस भविष्य वापी शुमार कि वह उनकी पुत्री का विवाह उसी अखि करेंगे जो सर्वप्रथम समुद्र पार कर मामेगा-निबार विवाह कर दिया वित्त ने बहा रहार विदयारों विमार पीसी और प्रसन्नता से अपनी पत्नी को लेकर विमान इवारा बम्पापुरी करे। चम्पापुरी में उसने अपना शरीर विकृत बौने का बना लिया और उसने रापमा बाल स्वयं को जिनवा शोषित किया। किसी ने इस बात का विश्वास नहीं किया और उसकेर में उसकी दोनों पत्नियों ने भी उसे प्रहम करने Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०४ से मना कर दिया। फिर चातुर्य से जिनदत्त ने अपने असली रूप को प्रकट कर दिया । राजा बनने पर जिनदत्त बड़ी पारी सेना लेकर अपने नगर बसंतपुर को चला। वहां का राजा इससे युद्ध करने को तैयार हो गया। नगर के लोग घर छोड़ छोड़ कर भागने लगे अन्त में दोनों में मित्रता हो गई और दोनों मिलकर नगर का शासन करने लगे। अनेक वर्षों तक राज्य सुख भोग, जिनदत्त ने अन्त में दीक्षा ग्रहण करली और कैवल्य पद को प्राप्त किया। विप में रचना का कथा सार यही है। कथा के इन सूत्रों को जोड़ने में कवि ने अनेक स्थानों पर वर्णन कौशल और काव्यात्मक दाविश्य दिखाया है। रचना के कई वर्णन बड़े बेजोड़ है। कथा के तत्वों का क्रमिक विकास दिखाने में कवि ने अपनी प्रतिमा का पूरा परिचय घटना परिवर्तन द्वद्वारा प्रस्तुत करता है। शैली के लिए भी रचना उल्लेखनीय है पाव और कला दोनों पक्षों की दृष्टि से रचना पर्याप्त महत्व की है। भाषा की दृष्टि से रचना का मूल्यांकन करने पर यह स्पष्ट होता है कि यह कथा काव्य जनमाया में लिखा गया है जो कथा काव्य के रूप में अपने कथा तत्व के सौष्टव तथा सौन्दर्य के कारण उस समय बनता में खूब प्रचलित रहा होगा। क्योंकि प्रसिद्ध जिनदत्य के चरित को अनुकरणीय क्षमतेचे वर्णन क्रम में एक धारावाहिकता है। क्यानमा चलता है। पूरा काव्य जिन के जीवन चरित की सुन्दर कन्या सिक रुप रेखा प्रस्तुत करती है। प्रबन्ध काव्य की दृष्टिसे विचार करने के लिए दिन चउचर के साहित्यिक सौन्दर्य का मूल्यांकन आवश्यक है। रक्मा के विविध वर्तनों द्वारा ही काव्य की ऊंचाई अध्ययन किया जा सकता हैना में अनेक रस प्रधान स्थल है जिनका मन रमा है किवि ने काव्य का प्रारम्भ जिनवर नमन से किया है। कवि ने क्या का प्रारम्भ वत्क सरस ढंग से किया है। क्या सत्य के विकास मैं इससे आगे जाकर बड़ा मोनिका है। सरलता सरसता और नकली विविध घटनाओं हमारा पुष्ट हुआ कुकूल क्या के आरोप से लेकर चरण तक में योग देता है। Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०५ कथा परम्परा और क्यादि यपि अत्यन्त अधिक पौलिकता तो नहीं है परन्तु फिर रचनाकार ने काव्य में कई काल्पनिक तथा अति नूतन घटनाओं का आयोजन किया है। तथा विविध घटनाओं को क्या सूत्र में पिरोकर तत्कालीन समाज का एकदम सही चित्र प्रस्तुत किया है। प्रस्तुत काव्य का नायक जिनदत्त है भिसे हम प्रारम्भ में वीर प्रगत के ममें देखते है परन्तु आगे चलकर उसमें धीरोदत्त के गुणों का विकास भी दीख पड़ता है।रचना में नायक द्वारा प्रणीत विविध कार्य कलापों ने काव्य-शिल्प के मन में बड़ा योग दिया है। काव्यकार रह पर वीणापाणि प्रसन्न है।अपने साधक को वह तुष्ट होकर वरदान देती हैरता उसे जिनदत्त चरित ला का बर मागता है औरसरस्वती का म चित्रण सा है: जाहि संभव जिपवर मह कमल सित्त मग तापी जसु अमल आगम हद तच्चवर वापिसारद सद अत्य पय साणि गुणणि बहु विजागम सारठि मरास सहइ अविवार बमारियर कला पावडी र पवा भरती करिता का महा पाइरनी शसार माइ मह पसाउ स्वामिनि करि वाणिवत्ता पारिख का मोम सुगविवयन भारद जो कोमिस न कोई ली विमा का पारा मोमानि मामि मंडी बोकि अपर मुका करि मुठ मारमानि अन्न यि उपचार ब पसाइ भाव मा विना बलिक काल मा भारती पुगाइपि देविपकी वादे पायेवि मुक कामासह सिरि र दिममइडत्यु (M-10 कवि रचना प्रारम्भ करते समय अपनी मा अथा मशान स्वीकार करता है। उसकी रचना बीमा पर प्र (मर मात्रा दोष) या दोष पूर्ण है। वह Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८६ बुद्धिहीन है कवित्त रचना कैसे करे उससे विवध ज्ञानिकों का अनुरंजन कैसे होगा यह धर्म क्या कहते वह सज्जन और दुर्जन दोनों से क्षमा याचना करता है। वर्णन की। परम्पराओं से काव्यकार की क्षमता, काव्यात्मकता तथा रकमा की प्रबन्धात्मकता का पूरा पूरा परिचय मिलता है।वर्णन की आलंकारिकता रसात्मकता और सौन्दर्य देखिए: हा असर जिदत्त पुराणाप डिउ न लवन द वका असर मत्त हीण जइ होइमहुजिप वो दे कवि कोर हीण इधि किम करत कविस्तार जिण मका बिनुह जप चित्त धम्म कथा पयतह दोसुदुजा सयण करहि जिदोसु भुवण कई म अतीते घणे ।बहुले अत्यहि गइ आयुषे कइ त कुरा विवहु म पेखि पा. पसारर भाचल देखि बइ अइरावइ मत्स गईदुजोयण ला सरीरह बिंदु तास गाज जइ धुवण समाप गइयर रइयर प्रापुणे भाष मोडस कला पुन ससि मा आहिसवा समिठ सीयलक सबकाहि वा किरण तिहुक्म जइ विपइआप पमा पि जोगणा पड़ हाथ जोडि जिनवर पण परवीयाराव सामिय भमि पर बल्ल होउ सबइत्व विणत र सपा (१-५) भाव पवा की दृष्टि से यदि इस रचना का भूत्यांकन किया जाय तो वह स्पष्ट परिचित होगा कि यद्यपि जिनदत्त पापा में रसायक माधुर्व प्रधान स्थल मन पर फिर भी दिन स्थलों के वर्षन । कवि का मन रमा है उनमें अपेक्षाकृत पक वैविध्य और विमान रचनाकार में काव्य में जिन विविध वर्णनों का समावेश किया है, वर्ष इस प्रकार है: बाल वर्णन (१) बीन्दर्य और मशिख वन Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०७ (द) प्रकृति वर्णन (4) विविध विड्याओं के वर्णन (क) बरात वर्णन, नगर वर्णन (स) न्याय विनोद वर्णन (ग) मा वर्णन (प) व्यापार वर्षन (30) सेना वर्षन इन विविध वर्णनों में प्रयुक्त काव्यात्मक स्थलों के अध्ययन करने पर रखना के सौन्दर्य का मूल्याकन किया जा सकता है। बाल वर्मन की पृष्ठभूमि में पुत्र प्राप्ति के जन्मोत्सव और हर्षोल्लास का वर्णन यिा है।कुटुम्ब में बसाय माय गर नामिकाओं के मृत्यहुए मोतियों से चौक पुराए गए, विविध दान दिए गए, मादि भी सामाजिक प्रशाओं की और कवि की इष्टि गई है। जन्म वर्णन के पश्चात् कवि ने बालक जिनदत्त की शिक्षा दीया पर प्रकाश डाला है। कुशाइदिध जिनदत्त ने १ कलाओं में थोड़े ही समय में बता प्राप्त की। यही नहीं उसने युध कला, व्याकरण छंद ज्यो सिम आदिपी निपुणता प्राप्त कर ली। बाल वर्मन की बारीकियों का सूक्ष्म विश्लेषण कवि ने कहीं नहीं किया। पूरे वनको कवि बारक परक पारा और भावों में बर्षित कर बेटा है। बालक कीमा भाग पिताओं का उल्लास ज्या मानहीन होने पर उनकी शेक पूर्व दोनों स्थितियोंका सरल सा बर्मन कर कवि जाम कर जाना है। वर्षन के मापी उसा कर अधिक नहीं रममा। उसको लगता है कि क्या किया पटनाओं प्रस्तुत मात्र करना TT इन्ही कारणोरा वा प्रधान वर्षनात्मक बन गई है, क्या भूब कही भी व्यक्ति नहीं बाने पावा प्रारम्भ से लेकर अन्त तक पूरी था नाबक जिनदार अत्यतिन प्रवनशील परिलक्षित होती है इससे स्पष्ट होता है कि रचनाकार काम निर्मित करने की शक्ति सब विद्यमान थी। विविध वनों में इस बया काज की सरसता मनपूर्व योग दिया है। Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०८ जिनदत्त का कपोत्सव और कढिगत शिक्षा वर्णन के उदाहरण देखिए:राज करत दिन कैसे गए। सठिणि गव्यु मास दुइ भए जीव देव परि मंदण मय पर घर कुटंब बधार गया गावहि मी नाइका सच पूछि मोतिकु देहि बोल aफोफल पाम । दीने बार पटोले दान पूत बधार नाही होरि । दीने बेठि दाम दुइ कोडि बाढउपूत कला जिमूबंद । जाइ विहार किया आनंद जिनवरु पूज मुषिह पर पड़ी। रिकि जिनदत्व नाउ तिम्रधरी are दिवस वाढइ जे तड । दिन दिन विरध कर ते सड उकार लथ मधु जाणिल ईदतक्क परिवाणि मुनि व्याकरण विरति का जायु मरहर भाव महापुरामु लिखतु पढत सीसित अराजति तु तु बार ही सक्छु अरु संडासीसी सब वहतिर कला क्या के को याद बना रखने के लिए कहीं कवि ने बचपन का (५६-६४) भी देवा या सकता है। मन से जोड़कर क्या प्रवाह को आगे बढ़ाया है: कर बाइक सवा कुल फिरइ । मिक्य उपरि भाउ न पर विवाच। मम देठि कुल यू डा विधि देखि (६५-६६) पूत विषम मनु बस्तु छेद में कवि ने समय देव के बदपुर नगर का अत्यन्त सुन्दर वर्णन किया है। के वर्णन बड़े सत्कारपूर्ण है। भावा की सरलता और बकार, कार और मकार के स्वानुजायथा का अलंकार के सुन्दर उदाहरण ष्टव्य है: Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माह देसु पीवरि मुहिसार वासव सुरह अहि सोचारु पण कप कंचम सन्ध विसूर बर तुंग पिहिय कसूर । (३६) (1) वामिक भग बइद बासीट, वाढइ बेसावरुड बंदरा विवारी विहारई वायु वाडेवारी दुरु बहु विहार जीव रस व विहारिवारिदिया वृह विवाह अणियार नहि बसंतपुरि रह कई ___छह बउवीस वकार (10) (३) र सामीय साहु मोळियहि सरि सरवर सावयाँ सव्वल अस्थि भारंग साहमा सिह सोडा सहियमई सिरि वसंत साहिया समाण दसम बीमा सत्यवर सत्य सवण सुइसार मुन्नस सील बसंतपुर हि कबीस सकार 10 मोह पार भानु मायारू भउमरि मार परविषु पशि मत कति कोषि सीबई महमंच पयासह उहि माबि का उन वीमई मान मंगल पोक सहित मा जलपीय भवाइ लाख र बीच मकार विडी- (1) उक्त तीनों सवारों ने बकार, सकार और मकार की बालित नागर मनुस्यों का वर्णन किया था बनिन पदवीस कारों नगरी को रविच बनाया है। कवि की मगर वर्णन की इस ली मौलिकता स्पष्ट परिलक्षित होडी बी पति माय की भूजन है। गार वर्गम का सौम्य कवि स और नाशिक वनों में देखा जा सकता विहान सन्या और मशिस का वर्णन किया है वही उसके उपमानों की मौलिकता पक्या बापाविक या प्रतिमा रहि विमलमती सौन्दर्य वर्णन प, विवावर मारी ज्या रामारियों के माति कवि का गार वर्णन Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उल्लेखनीय है | देखिये ५६० सोजि सुंदरि पयण पुत्वा रारांती यह संगड़ कीलमाण सरवर वइठी सेलेवीजलपग्रह परासि मइ बैठि दिठिय as माणित हो मणिय इम उपs सुत धारि तासु स्व गुण वनिबट का रस सुविचार jets a कस मोहइ पाठ चालत हँस देइ त माइ जानू थाबू विहि वहिवाहि उपरि नेउर बाज ees व सोहई पिडरीज छहिते पिंडरी जंप जुयल कदली ऊपर। तासु लोक मूठि माइयइ जणु इति अगवणी सह रंग वह तहि धणी मीले चिर उज्जल कारव जव सुबइ दीसह कारव तिमिण जणु रेह चंपा वणी मोहड़ देहगल कंवल पीत्यणि जोधण मयसार उपपोटी कडियल वित्थार १ हाथि सरिस मोहहि भागुली २ महत दियहि कुंद की कली, ३ द्वाणि सुरेश कवि से कहे। हे ४ व वल तु काटि इलोनी अक गाठी लीवहरु पट्टिया सोइय गीव arfe कुंडल इक सोनुभवी नाक कापू ज बातमी मुडमंडल जोवइ मसि वय दीड वडू गावह मिय पनि aft केहो वपचा किमान हीरामणि चिरम पड गयण धणु बचिन घरी । दिवड लिलाट तिलक कुँवरी विरह मोम मोम परिचय पीठनलि बिंषी कलड़ नाव विनोद क्या मायली पहिरन जड़ी करी इकु हि गरि देह की किरवि अवर रल्ड पहिर आमरण जिस यु बाss वि पसारि काम वाम हु चाल मारि हि को न वब देवि सरीर मन कुलाई (८६-१००) Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तुत कृति का प्रकृति वर्णन सामान्य है। कवि ने उदयान,उपवन करने. विद्गारों के देश की रानियों का बर्मन तथा विविध विद्याओं के वर्णन में कि में नाम परिगणन शैली का बहुत उपयोग किया है अत: नामों की इस परिगणना के कारण कवि का यह प्रकृतिवर्णन रस तथा पुम्दर नहीं बन सका। प्रकृति वर्षन, रानियों के नाम तथा विद्यावों के वर्णन के मन उदाहरण अलम होगे:(1) जो अनेक करि थविक्कर सोचमन पर परिणति वीउ भान जो यहूसिर हिब केवढाविचिउ वीरगयो र के नालियर को करिठियातिन्हइ हारपदा के लिए नारिंग जेड हारी दास, पिंडबूर फोकली असंच जातीफल इलायची लवंग, करमा परमा कीए रंग काधु कपिल्य वीर पीपली, हर बउ बिरी आविली सिरि अगर गलीदी धूप मरहि नारितहि ठाइ सम्म जाई ही वेल शेवती, दवमो पस्य अरु मालती पर राइ पउ पब कुंद, र कासिरी पाखण्ड बाला ने बाल मंदारू, सिंदुवार सुरही मदार (१५-७०) पाडल पालन न परवर क्या बात केला अंबपुर की रानियों के नामों की मापावली की सबसे बड़ी विशेषता यह कि विभिन्न प्रदेशों को मार विष नि नामों की मा राज्योंकी विहासिकता स्पष्ट होती है:( रा राषि, बिनके नाम कवियान कावाडि बरि अमरटीशी बोडि बाली औरठी पुरविली गरिमाल, बाकिर्मिय पुरचारित बबडी पाली मापीमादे परदे धवी ( 1) बाणावधि वीर रापी पाकि गावरापी मन मणि कमला दे मागमणि (Rev) Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१२ विविध विद्याओं के नामों में भी कवि ने परिगणन शैली का ही प्रयोग किया है: गगन गामिनी बहुरुपी पति पोरवणी व करेगी हिम लोकमी सह देह आमिर्थम मणिउ लयमेड सम्वसिदूध बिज्जावाणी पायाल गरिवी अ मोडणी चिंतामणि गुटिका सिधि लब पति निहाणु जमीकes मामिक देइ रथम वरक्षिणी । सुमदर सिमी भुवथगामिनी कामी रण अमेथमेव र देव अवर चन्न लई तहि पली । तिमिर दिठि विषजात मिली अमी बंध धारावंधणी सब्बो सही ताहि वहि मणी afo विरजड जिणदत्व लिलारू सोलह विज्बा लइय विचार कवि ने समाजिक वर्णनों में बहु विवाह, आभूषण पहनने की प्रथा वैश्या, तथा जुआ वर्णन आदि पर भी प्रकाश डाला है। सांसारिकता में घुलाने के लिए माता पिता अपने पुत्रों को जुआरियों की संगति में भी मेज देना पसन्त करते थे। वर्णन के इन्हीं सूत्रों द्वारा पुष्ट स्था तत्व की रस्ता देषि: (१) या गोरया वर्तमः as सेठि मंड परिवारोई कारग मटभट जे म नहि गह काम बहु बैठि इलाब बाग बार बार वैसा पर जाहिम खेलत न बधाइ काट अंतरात चरs बोरी करत न आल कर जिनके दन्यमय विन्दु पीठी किवा बाजूनी मुठि गंग व भारि जि सही । तिथि तु बेठिया बहुकडी अहो मी इन्द्र पर कि मर मर जो विवि मनु ढावे । निध्य ठाव दामुमो पावे हि बोलतो परिमारी बोल वारित ब ब रम गयर नर नारि तुम पाछे सकहु सवारि (६६३७०) Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) बहु विवाह और आभूषण वर्णनः बहु विवाह की प्रथा पर भी कवि ने प्रकाश डाला है। हीरा मोती माणिक और रतन पदार्थों से जड़े कपडे तथा आभूषण स्त्रियों पहनती थी। स्त्रियों में पर्याप्त स्वतंत्रता थी। अतः इस काव्य के आधार से यह कहा जा सकता है कि उस समय में स्त्रियों में पदी प्रथा नहीं रही होगी। सांस्कृतिक स्थिति पर भी रचना में पर्याप्त विवरण मिल जाता है। बा वर्णन fears के तत्कालीन रीति रिवाज मंगल कलवों द्वारा बरात का स्वागत, लगूम, चैगरी, मंडप तथा विविध वैवाहिक लोक गान आदि सभी बातें तत्कालीन सांस्कृतिक जागल की पृष्ठ भूमि को स्पष्ट करते हैं। यही नहीं लोक कलाओं में नटों की कला बड़ी प्रसिध थी जिन्हें राज सभा में प्रदर्शन कर बड़े पुरस्कार प्राप्त होते थे। संगीत में भी ये लोग पहुंचे हुए थे लय, ताल राम नृत्य द्वारा वे लोग मनोरंजन और नाद विनोद किया करते थे इस प्रकार संगीत नृत्य, लोकोत्सव आदि सभी कलाएं प्रगति पर थीं। ऐसा स्पष्ट होता है कि कवि ने यह सब वर्णन बड़ी प्रासादिक शैली में किए है। निम्नांकित उद्धरण देखिए: (1) पंच समय बाजेवि तुरंतु । न परियणु वाले बराव wafa जा न बड़े एक बारवर भीडे हरे पक्नु साजिति गरि परीवाज मलामी वरी डाडी डोला जा (२) ५१३ *** #1: ### 222 उकड बुक देव विवार । पुनि हो होडल की बार चरी रवी परि बास अरु थापे बुम कलाव गावहि मी नाइका कु । कारी पृष्ठि मोठी नउकु (१२०-१२१) बढे विवाह (११६-११८) ### Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माद विनोद उंद बहुकरउ ।पविरूप कला अणुसरउ छोड पाव मुब्धि दीसह पाइनट मउ मेला वावरण धरा तार हि हार वयण विधइ किरनि ममा पुगणन विपरित रोड एक वारिया राजा ही बावस भय (३२४-३२५) इसी प्रकार बराच वर्णन, व्यंग्य वर्णन, बा, वैश्या वर्णन आदि पर कवि मे थोड़ा प्रकाश डाला है। कण विप्रलम के कुछ स्थल अत्यन्त मार्मिक है जिनमें जिनदत्त के प्रमुन्द्र में गिर जाने पर विमलमती का विलाप अत्यन्त प्रसिद्ध है। कवि ने रचना में चौपाई छन्दों के अतिरिक्त नाराच अईध नाराब छन्दों में विलाप वर्णन बड़े ही स्पृहणीय किए है। एक करून विप्रलंभ की स्थिति देखिए: हसा गवणी चंदा वहणी करह पलाव मोही आगइ देखत पेसन क्स गयउ नाह आय पर पाही सरभू कहा कराया कठी रोहण वालि हुवास मा देश पराउ काल कीयउ सबीका पिम विव हि हाइ बाइ सह सीढि कति पयल कमोहि चौ विसि धामी रोबइ कहा कियो कतार देति बती बाडिपति मासामी राक (५४-१५) ऋषि की माताजिनबल्ल सपई बनाकर की बनता का परिचय मिल मावि ने विविध वनों मारा जाम का परिचय दिया रवनाकार र बड़ा हीबार मुवि पासा प्रतीत होता है। रचना विविध वर्णनों को देखते महमा का बया करने सत्कालीन समाज का सही चित्रण प्रस्तुत किया नाव आयन बही सरकवि ने प्रस्तुत कृति की रचना की दिने नामाविक बत्वों का सही त्यान करके माने या सून को पुष्ट किया है। विकी गणना स्था बकालीन आर्थिक, समाजिक और सास्कृतिक स्थितियों Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का परिचय निम्नांकित वर्षनों दवारा मिल जाता है:. व्यापार वर्णनः कवि ने तत्कालीन आर्थिक स्थिति तथा व्यापार का सुन्दर चित्रण सींचा है। व्यापार का बढ़ा चढ़ा होना, विदेश से यथा सिंहल * इवीप व्यापारिक संबंध, माल का गाड़ियों द्वारा पहुंचाना, वणवारों द्वारा व्यापार आदि का सही वर्णन मिलता है। सिंहल द्वीप व्यापार का महत्वपूर्ण केन्द्र था। गाड़ी बैलों पर माल लादकर ले जाने की प्रथा थी। जिनदत्त का १२०. व्यापारियों को लेकर व्यापार पर विजारों के साथ गाना तथा सिंहल जाकर व्यापार करना आर्थिक स्थिति पर प्रकाश डालता है। इससे सिद्ध होता है कि हमारे आर्थिक सम्बन्ध विवेतों सनु बणजारे पर इकठाइ कोस पंच दस मिलिए जाइ सख विणबारे चतुर इल, बारह सहस चले परि बल्ल जो पतिही अबूझ मजाक सबमहि उवहिदत्त परधान (१८-१८४) मुनि राइ सिहि कइन्तु माइ, संथल इवीप पहूते चाइ बनीवारा हि बाहरि सद, कय विकेण दीपि पर परति पोल मधी बाबर देखि, आधु सांधी बारिवि हि काहि पण वाहन पर गमवाद, गो सराह दीप भोगवा नवनिहि सत्रबह रसव हार, विजया देरापी पिवार (२-01) भाषिक रतन पदारथ बड़ी विवि बिपि हीरा खोने पडी को पानि मुस्ताहरू जोडि, लाहा मोलि पुणवचन कोटि (06-101) रचना कहीं कहीं हास्य रसपी नियन्म मा है। कहीं कहीं बलव रस (१२०-१०) कापी बर्ष कवि ने रना को बालीन बनाने के लिए अभुत तथा महल पूर्ण घटनाओं का बी निवत्व का बौना कमकर राजबमा में जाना शरीर परिवहन करना आदि सभी मार दिया है।कही कहीं अति प्राकृतिक सत्व भी विमा का पार करके गाना कलाओं में प्रवीन होना। रामारी Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१६ के पेट में साप का होना त विद्याधरों की राजकुमारी से विवाह कर विमान द्वारा चम्पापुरी आना सिंघल की राजकुमारी के झील के प्रभाव से जहाज का डूबने लगना आदि सभी घटनाएं अति प्राकृतिक अथवा काल्पनिक है। जिनदत्त का विमान में बैठकर आना हमारे भारतीय कला कौशल की सम्पन्नता का प्रतीक है। क्या प्रवाह अव्याहत है रचना में इन अवान्तरघटनाओं का समाहार करके कवि ने स्थात्मकता, प्रवाह और रचना के पद लालित्य में पर्याप्त योग दिया है। कथा के आरोह अवरोह चरम और विविध घटनाओं द्वारा कथानक पूर्णता की ओर अग्रसर होता है।रचना की प्रबन्धात्मकता निर्मान्त है प्रारम्भ से लेकर अन्त तक कवि विविध वर्धनों से कथा को पुष्ट किया है, ताकि उसमें उत्साह अनवरत बना रह सके। पूरा काम चौपाई छन्द पैलिखा है परन्तु यत्र तत्र वस्तू नाराज, अध नाराव आदि भी मिलते हैं। नाराच का एक उदाहरण देखिए: पताहिहि ताला गरुलह भाला मुंह मई ते नीसरs काल उदारण विहरू वास्यु तहि फौकर fies कपास वीह सहासीह काल भत कहि गड सो पहिर जसु होवइरित छूट जसु कह अंतु । (१२७) हास्य और अद्भुत का एक समन्वित चित्र देखिe: पाहाड लोग इस मो वर कंठि किसोर कहा कुमरि बुडि ही दिन मत लेइ कोइ छीनि पालीबाट आरुमादह गले रयम की माल अ डी कवि का ही मुह माह (३००) वन विवरणों के बाधार पर वह कहा जा सकता है कि रचना की प्रबन्धात्मकता याच प्रस्तुत काव्य काव्य की सीमाओं से ऊपर उठ जाता है त्या महा काव्य की सीमाओं को स्वई करता है इससे इसे पकार्य काव्य कहा जा सकता है। अन्त में कवि में सर्ववजात जनवरत को राजा बनाकर मोक्ष की ओर उम्र होता विद्याया है। अतः रचना का निर्वेद प्रधान है। इनवर्णनों के आधार पर रचना की कारिक शैलीमा तथा प्रबन्धात्मकता और चरित मूलक क्यात्मक Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का सफल निकाह परिलक्षित होता है। भाषा की दृष्टि से भी यह कहा कृति पर्यन्त प्राचीन लगती है पर की उकार बहुला प्रवृत्ति, अपांच के विविध उब्दों में मिल जाती है या ही कवि ने अनेक विशुद्ध तत्सम शब्दों का प्रयोग किया है। रचना प्राचीन होने से भाषा विकास काम को समझाने में योग देती है।रचना शैली वर्णनात्मक है। जिनदत्त का जन्म से लेकर मोक्ष तक आदशोपान्त चरित वर्णन है। कवि ने सागरदस बैंड बनाया की पुष्टि कर रसना की कथा वस्तु में उत्कटता का समावेश किया है। रचना का क्या कृति और चरित आसान होने के माथ साथ ऐतिहासिक दृष्टि से भी पूरा पूरा महत्व है। पूरी रचना उपद संध में लिखी होने से छन्द प्रधान है अलंकारों में उपमा, मक,अनुप्रास, कम वर्णन, इष्टान्त आदि का प्रयोग किया है। नारियों के क्षेत्र में पी पातिव्रत्य या जीत के आवों पर चलने के रूप में इस रचना का योग स्पष्ट होता है।इस प्रकार उपद संज्ञक रचनाओं में मिदत्त पापड़ का महत्व क्निगद भूरि की मेमिनाथ चतुष्पदिका के बाद भुलाया नहीं जा सकता। ऐसे परिमूलक क्या आख्यान राजस्थान के अहगावधि बंद भंडारों में कई मिलने की आशा है। चउपड़ संज्ञक कुरा और रचनाओं का संक्षिप्त परिचय अशाक्ति है। Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१८ पद्मावतीची अमराजैन ग्रन्थालय बीकानेर से १४वीं शताब्दी के उत्तराध में जिनप्रसूरि द्वारा लिखित एक छोटी सी रचना पक्वावती चौवई मिलती है। रचना जन साधारण में धर्म प्रचार और शील निर्माण की दृष्टि से लिखी गई है। रचना ३७ छंदों में लिखी गई है। पद्मावती बीपोटी रचना होते हुए भी बड़ी सरस तथा कोमल की पदावली से पूर्ण प्रासात्मक रचना है। रचना में पद्मावती देवि का गुणगान है। पद्मावती देवी चक्रेसरी देवि, अम्बिकादेवी आदि देवियों का वर्णन कई चनाओं में काव्य प्रारम्भ करने के पहले मिल जाता है। अम्बिकादेवि की मीति पद्मावती देवी मी जैन समाज में पूजी जाने बाली देवियों में है है। रचना में कवि ने चौपई हद का प्रयोग किया अत: यह चउes हद प्रधान कृति है। कवि प्रारम्भ में ही पद्मावती देवी की तथा पार्श्वनाथ के पद कमलों की वंदना करके पद्मावती देवी को प्रसन्न करता है: feft for are अवधारि करि कावहु सिरि मावइ देवि (1) मासमा यस पैक मसलि संघ विच किनारण इसलि कर निम्मल म भगवन, परमरवि मह होहि पन || वालवरल ड लोवन विविन्न इव वनइनि · ft सय बस्ती हर विहत्यि वारस विश्व हि हत्थ फुल्का पक्कि बाल दिति दिसि पसरति ककराल (२-४) पदमावती देवी के स्वरूप वर्णन में कवि ने उसके आभूषणों और परिधानों -प्रति कि नाइटा सा अभय जैन ग्रन्थालय, बीकानेर। Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१९ के सुन्दर चित्र प्रस्तुत किए है। पद्मावती की शक्ति से कवि सभी को परिचित कराना चाहता है। वह खंडक दन्ड से दुष्टों का दमन करने वाली है तथा धरती पर नारियों में सबसे उत्तम, असाधारण एवं पूजनीय नारी है। वर्णन क्रम का सौन्दर्य देखिए: कुन्डल मंडल मंडिय गंड, अरि सन् य वन् परान्ड धम धन चोरिल निम्मल हार, परमावर नंदउ जगिटार नेर कुणि विहारि दिति चक्क, गुग दन्ड इंडिय दिउ वर वनक मणिकंकण विचइय पट्ट पउमा होहि भवियह अंतुव tre सुहलिय सो विषरसि, अरिकुल कोमल दीड करसि जय घरविंदह उत्तम रमणि, पमउ पवि तह मयगल गमवि पास वर पहिरण पाणि, तंग चूड कर विसहर वर जाण पउम पत्त समयन्न सरीर, परमपवि मा गई अवहीरि कति नर्मति सुरापुर रमणि, मणि किरीकरि रंजिय ऋषि कि पणियति नरमत्व वराम, भाराहहि सुरवर हुह पाय (५-९) eoraft जे नर सुरति वार्ड, वियस कामिनि बस इंट daure पर मिनि चार मि. वारस सरनुयहर क्लविंड पदम पउम कहिनी नम अंठ, सल काम पूर जम म मोहे चमयन्ति, जब अपराजय विजयनयंति बडी पर बोल डाल सद्र इकञ्चि विविपयार इस प्रकार पूरा काव्य पद्मावती के यह वर्णन में लिखा गया है। क्षेत्रपाल चक्रेसरी देवी तथा विकादेवी की मीति वीर्यकों के साथ जैन समाज में पद्मावती देवी की भी पूजा होती है। तथा जैन तीर्थकरों के साथ पद्मावती देवी का चित्र भी मिलता है। बड़मावती वाणी का प्रतिस है मयः काव्य प्रारम्भ करते समय भी कवियों मे इसकी अभ्यर्थना की है। में कवि मनोकामना पूर्ण करने वाली देवी पद्मा की Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूजा का सार प्रस्तुत करता हुआ, काव्य समाप्त करता है। पापा की सरलता कोमलकान्त पदावली, अनुप्रासात्मिकता क्या वर्णन की प्रमादिकता इम्बव्य है: समहर कल बारस सरजुत्त, पावर जंगम विसहर तत्व हसहार हर समर ति, नाम महमि तुह दयाल ति नारि दुश्य पार्वति पुरखुमरोबर पुत्व सांति निइ नंदण अगइ चिराउ दुइव पावह बल्ल राउ चिंतिय कल चिंतामणि मंतितुक पसाई फलई नियंत व्यवंति मोहगिग निहाय, निवपश्यपय अपिलिय पाप कवि बाइसाइ ईति घाम, जाई पर मि तु होहि पमम पउमावइ बउपद पटव होइ पुरिस वि हुयन सिरिकेत रम्म मा निम्बस्स कम्पूरि, सरदीयमवण जिपम्पह मूरि रमा प्रकाशित है अथा देवियों के चरित पर लिखी गई अपने प्रकार की रचना है। चरपई सैमक रचनाओं में नारी पात्रों पर लिकी एक ऐसी ही रचना अपबासठी बम्पादिका है जो सही पहावती पर लिखी है। जिस पर भी प्रकार डाला गया है। बना शिव की दृष्टिपी रमा पौधिक षड्मावती करपई पानी की उपासना प्रधान कायम है। यह रचना याच प्राचीन मासादिक है : वह कहा जाता है कि अपने समय में सब कोणीय रही होगी। - १५ साली पाहा हिवतीय पाक में कवि विष्णु रचित एक - - गुजराती साहित्य परिगड़ की भी रिपोर्ट पू. १३-१४ पर स्वर्गीय बीसीडी-वळालका निबन्ध Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रचना ज्ञान पैवमी चउपइ मिलती है। रचना कार जिनोदयमूरि के शिष्य थे । कवि ने अपने पिता आदि का परिचय रचना के प्रारंभ में दिया है। इस कृति का ू ५२१ 100 रचनाकाल सं० १४२३ है । ५ ने इस रचना की सूचना दी है। साहित्य परिषद् की रिपोर्ट में स्वर्गीय श्री दलाल परन्तु रचना प्रकाशित नहीं होने तथा भंडारों मैं इसकी प्रति अद्यावधि उपलब्ध नहीं होने से इसके सम्बन्ध में अधिक कुछ भी नहीं कहा जा सकता। उपलब्ध एक दो पदों के आधार पर ही इसका परीक्षण किया जा सकता है। ज्ञान पंचमी जैन श्रमण संस्कृतिक की लेखन कला का सबसे बड़ा पर्व माना जाता है। इस दिन लिहावट के उपादानों की पूजा होती है। कवि ने उसी पर्व को दृष्टि में रखकर इस पर पूरा धार्मिक काव्य लिखा है। यह रचना बहुत बड़ी है तथा ५४८ कड़ियों में समाप्त हुई है। यदि किसी भी जैन मंहार में इसकी प्रति उपलब्ध हुई तो इसके अर्थ गौरव और पदलालित्य का मूल्यांकन किया जा सकेगा तथा आदिकालीन कृतियों में इसका स्थान पर्याप्त महत्व पूर्ण होगा । रचना के प्रारम्भ में ही कवि अपना वंश पारंपरिक परिचय देता है: १- बढी । ठक्कर वाल्हे तु विष्णु पमणह सुधमणी हरसिंह लागत भी करा देवी सम fee मानय इत्यास गुरु वावरि इह अपनर नगर बिहार मकारि पंचमि इन गाइस्ट ३३ (५४६) मावा में नवीनता परिलक्षित होती है। तत्सम रूपों का बाहुल्य है।धन्द की दृष्टि से भी इसका पर्याप्त महत्व है।देशी बालों में प्रयुक्त सोरठा और रोला दृष्टव्य है । यो पूरी रचना में चौथाई तो सर्वत्र प्रयुक्त हुआ ही है अतः रचना छन्द प्रधान है। इस मद का एक उद्धरण देखिए: arus इस बार मंडल नगर बिहार ear कवि हरिये आपने, बहु होय पंचमी हुने Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२२ यह पूरा काव्य महात्म्य का ही परिलक्षित होता है।रचना की उपलब्धि पर इस सम्बन्ध में नये ज्ञातव्यों पर प्रकाश डाला जा सकेगा। १ -: बिडंगति चौपई : ********ETE संवत् १४६२ में कवि वास्ति विरचित एक सुन्दर वढर्मिक काव्य चिडंगति बस्ती नाम से भी प्रसिद्ध थे | अद्यावधि चपद उपलब्ध होती है। कवि वास्ति इस रचना के अलावा कवि वास्ति की अन्य कोई रचना उपलब्ध नहीं होती । रचना १५वीं शताब्दी के उत्तराध की है। तथा कुल ९५ कड़ियों में लिखी गई है और प्रकाशित है। करके किया है: चिगति चउपई में कवि ने संसारिक इसों का सजीव वर्णन किया है। विविध वर्षों के विविध फल और विविध जीव योनियों में मनुष्य किस प्रकार मटकता है। इसका रोमांचकारी वर्णन प्रस्तुत रचना में मिल जाता है। जीव की विविध स्थितियों और कर्म के सिद्धान्त पर कवि का यथार्थ वर्णन और चित्रण दोनों उल्लेखनीय है। रचनाकार ने सहज जीव, समकित आदि सिद्धान्तों पर सुन्दर प्रकाश डाला है। रचना का प्रारम्भ ही कवि मेन सीर्थराज तथा गौतमगणधर का नमन बैन मंदि तीरथराउ गुरुमा गणहर करउ पसाउ बाग वाणि समर देवि चिहुं गति गमन कहउ वि (१) और अन्त में अज्ञान पवई आसान काय, वस्तिम लागइ श्री संघ पाथ- मैं अपना नाम स्वष्ट कर दिया है। जीव की स्थिति का मालंकारिक प्रवाहपूर्ण १- देखिए- गायकवाड ओरिफ्ट सीरीज सी० १८ पृ० ७६॥ Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२३ और सरल पावा में वर्णन दुष्टव्य है। कवि ने बुढापे का अत्यन्त रोमांचकारी वर्णन प्रस्तुत किया है। वर्णन की स्वाभाविकता देखिए: परधंधा पडिउ सह कोइ कुटुंब मैलावर वाइवा होइ • चत्र अक्षत्र कीधा अविचार, काका करिसइ सार जरा पणs fee पर व सावि, पहिला दात करs जिम पलाति सिणा माडी रही हंसि, डोकरू पागइ हिव लापसी धवल मा देह जाजरी, वाकर वास कुल लालरी घर उ ते किही न जाइ, कुटैब सपला उवीळ थाइ वाडि कुची कीड कइ सोइ काकानी सुधीन करइ कोइ आक बहुद्धी मणि करउ माइ, मुह मुचकोडी पाछी नाइ रीसाविड ते मेल्डर फाल, सिर धूमइ मुनि पढइ लाल सूरणs पडिउ सूंड करइ, बजीस डोकर कही अमरइ चिगति माहि नत्थी सार दीसह बुक्स तमउ भंडार सुख सणी जड़ वाल करउ पंचमगति ऊपरि सांवरउ (५५-६१ ) कवि संसार को दुख का भंडार कहता है। संसार की वह कर्म भूमि मनुष्य को जैसे चाहते हैं वैसे नवाते है। इसको तो समकित का पालन करने वाले व्यक्ति ही पार १८ सकते है। अनैकाल रहट की घटियां और चक्र की मीति जीवको फिराता है और अन्त में उसे अपना ग्रास बना लेता है बिमति माह कोई नत्थी बार, दीस इक्स पर भंडार चिगति व सीई नहीं कोई गं, जिहि निसि एक वह जिण धनु (२) ---- estat ata निर्मल मलकति आठ पहर एंई कर्म बाथति अरहटि घटिका जिम इ माल तिम जीव फिरड अमेत काल चद राज कीधी रंगभूमि अनेक रुचि नचाकि करमि नव नव सुहरा नव नववेस, भगइ वेस भइ बनारिव मावि देस मर नहीं जीव छाड देह पाचचकित छ पह जिम फिर चकार जिम जीव माहि फिर इस संसार (५-७) Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२४ चिहुंगति चरपई अद्यावधि उपलब्ध रचनाओं में अपने ही प्रकार की रचना है।निससाहित्य के माध्यम से कवि जन साधारण को संसार की नश्वरता का कर्म के का का, तथा अनेक योनियों में प्रमण करने तथा इक्ति आदि का ज्ञान कराया है। अत: काम में जैन दर्शन के सिद्धान्तों का भी सम्यक् प्रतिपादन हुआ है।काव्य की दृष्टि में चिहुर्गति उपई पक सरस रचना है जिसको पढ़ने में और मनने में मन लगा रहता है।कवि ने विविध आलंकारिक दृष्टान्तों मारार चना को परस बनाया है। वालो ने प्रस्तुत काम में गर्भ मास से लेकर मृत्यु तक जीवन का सबीव चित्र खींचा है। नरक का ऐसा सजीव और रोमांचक चिन अन्यत्र उपलब्ध नहीं हो सगाापाप करने के बाद नरक में आने वाले जीव का काव्यात्मक तथा रोमांचकारी वर्णन देखिए: जइ उपजाई कूमी पफारि, नाघड देह न माइ बारि परमाधापी किलकिलवरी, धाई, खंडो डि करहं तिषि का पारानी परि देह वली मिलइ पडि भूमि गाउ बलवला आरडा नारणी पाड ब, आव पक्सिया सिरि दिइ चूब अनेक परिछई ते विनडंत, वीणवथम जीव बिलवंत नरमा भनी मिडाति, वे मेल्हई करवत माति त्रिमित करालि मागद नीर, बाबर करी पाई धीर TRE जिम मगनि धूलि, पहा धाई ना लई त्रिसूति अब भूखि मलबा पागि करई महत्व के बालई मामि बहरे परधन बा कीन साठी ओडी पवारई ईम ताप पीडित विलबा बाड, मे काही करीय पसाउ है मल्हा माहि बन बंड, पडई पत्र हुई पल मंड सील मंगरेकरई नरवारि, पणन काल से नरम ममारि मणिम वर्ष पूल पूर्वक बा इन्च ते नव नव मि पाप की रख लिबाढी र मालई तेल की करप नवि के बाद माडी घालावे लइ माडि (४-११) Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२५ सिर पर करोत रखना, कोल्हू में पेरना, तप्त स्त्री पुतलियों से संभोग कथाना कुंभी पाक में डाल गगन में धूलकी भाति उहाल कर त्रिसूलों की धरती पर गिराना, आग में जलाना, खंड बढकरना, ढंडा पानी मागने पर तप्त क्थीर पिलाना, गर्म खेल के कड़ाह में उबालना आदि वर्णन कितने सजीव और यथार्थ में परन्तु इन वर्णनों के वर्णन क्रम में वही परंपराज्य विवादिता है। कवि ने इन वनों के अतिरिक्त मालंकारिक शैली में दर्शन के सिद्धान्तों पर पी प्रकाश डाला है। माता पिता भाई, बेटा कोई किसी का साथ नहीं देते। तुम्मा विनाश का कारण है। इन्द्रियों की प्यास मनुष्य को प्रमण करती है।इगल की पाति मनुष्य भ्रमण करता है। मह संसार देश इखों की शान है त: मनुश्य को सहकर्म जिनवर ध्यान, समक्ति का पालन कर जन्म को सफल बनाना चाहिए। बारह ब्रत, अष्ट कर्म, सम्यक् दर्शन, चरबीस जिनेश्वर का ध्यान करना चाहिए ताकि ४ लाख योनियों में मनुष्य कब जाय। भाषा की सरलता वर्णन का प्रवाह और दार्शनिक सिद्धान्तों का कम भाषा में प्रचार करने के लिए इस बना की उपयोगिता दृष्टव्य है। भाषा सरल हिन्दी है जिस पर यत्र तत्र पुरानी राजस्थानी और सूनी गुजराती के गड्दों का प्रभाव परिलक्षित होता है।कुट दार्शनिक सिद्धान्तों का विवेचन देखिए:र पुदमल तीन अन्या गाणि, 'फिरवाई नीति न कीधी भाषि अनेक बार जीवि कीची काग, ना परमि पूरिया बऊद राज गर्नश एबमल नउ भाषिउ, हता पामिन बीतराग देत एकाना है बाराषई मिड, पखडा मेरा सूटई बिमइ (४९-५०) पक राज गरि विस्तारि, सिद्ध शिला याकरि अनेक मु सिय विन, मुबह पार न लहति भाग बी सरिता काय, हे कीपर वीतराम कबरा नी मोडी लि, गिया इथि सिदिशा पैलाके चरबीचमा विसर देव, विहिं बारवा आपिठ पेठ पोय मामि इन परिवार, मवि बीगा ये श्रावक थाई Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३) सिद्धान्त सूत्र कीपई सुविचार, गुना गोअम जोउ गणधार जाइ पाप जस लीघई नामि करउ पसाउ प्रप गोतम सामि (६२-६५) कल्पम धर्म निहालि इस समाकित मूल गिउ पालि बारहवत डालि पसरी जोड़ तप नी कूपल मलाईसोइ सीतल छाया विसमउ भावना नीरिहि सीविड धरत फुल पत्रबार देवलोक जाणि, पह वृष मउं फलमुकरि निवाणि निश्चई तरिसिई से संसार के पुण ले सह संजम पार पंच महाबत सूची पर गति सिरी ते जाई नय वरई चरित्र भणी खडाह धारु पुण्यवंत पालह सविवार महाव्रत नउ न धरइ मार बार, व्रत नउकरउ अंगीकार बारहंत धरि सम क्ति पालि, इसी सामग्री मनीगामि मालि कूड कपट नइ काइ लागउ साथि, इसा त कल नहीं बडा हाधि विरला पुन्यक्त कोइ साह, वेटा रिदिन तपउ समदाय धर्मवंत विनयवंत होइ भक्यि, कुटुंबउ भणीई सोइ धन कृतारथ नरनारि जे वरतइ जिणधर्म ममारि समोसर पि प्रभ कई वाम तीई नी प्रसंसा महाविवेकान आगेतीह न बक्क वृत्ति रिदिय बउद रयण छइ अनय नव निधि रारिधि सडू समुदाय जोहबसि एक्वसई जिमनार कामधेनु सहि बाधी बारि, चिंतामणि तीह धरह ममारि मोर मयन मउ नहीं कोड, लापु जीहि चित्ति एक वसइ अरिह (-) इस प्रकार पूरी रबमा सरस बरपा इस्ट में लिपी गई है।रमा अब प्रधान था आध्यात्मिक संवत्र पूर्फ जम काव्य है। जिसका प्रचार जन सामाख में खुब रण गेगा। बसपा शक बनामों की परंपरा यस्तो कुत चिईगति बरपाका स्थान महत्वपूर्ण कृतियों में सदैव बना रहेगा। Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२७ इस प्रकार उक्त शिवा बरपा संज्ञक समी रचनाओं में उप छन्द का प्राधान्य है। साथ ही इन रचनाओं के विषयों को देखकर यह कहा जा सकता है कि इसमें बारह मासों से लेकर आध्यात्मिक काव्य, चरित, कथा, प्रबन्ध, प्रशस्तिमान तक का विस्तार मिलता है।था की ये विविध परंपराएं इन रचनाओं के द्वारा स्पष्ट होती है। कवि ने उपद छन्द में वरित, बारहमासा क्या प्रशस्ति दार्शनिक काव्यों तशा प्रबन्ध काव्यों को भी ज्या परंपरा में सूत्र-मध किया है वस्तुत: चरपई संज्ञक रचनाओं के विषय अलग अलग होते हुए भी मद की .ष्टि से समी रचनाएं हन्द प्रधान है। अतः काव्यमों की दष्टि से इन्हें प्रद प्रधान रचनाओं में ही स्थान दिया गया है। - - Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 141 चर्चरी काव्य Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२८ 14 | चर्चरी wwwwwwww काव्य द प्रधान रचनाओं का अध्ययन प्रस्तुत करते समय वर्वी संज्ञक रचनाओं की नहीं मुलाया जा सकता। चर्चरी शब्द इतना अधिक प्रयुक्त हुआ है कि प्राचीन काल से लेकर अमाधि इसके विभिन्न अर्थ तथा रूप देखने को मिल जाते है। वर्ची नाम से अभिहित की गई रचनाओं का साहित्यिक मूल्यांकन करते समय वर्वरी शब्द के विभिन्न अर्थ, उसके उद्भव और विकास पर प्रकाश डालना भी आवश्यक प्रतीत होता है। सच तो यह है कि पर्याप्त प्राचीन काल से वर्चरी शब्द इतना प्रसिद्ध और लोकप्रिय हुआ कि विभिन्न कालों में इसके विभिन्न अर्थ होने लगे और इस प्रकार अकेली बरी जद कई अर्थों का योतक बना रहा। वस्तुतः यह चर्चरी शब्द ही इतना अधिक सरस प्रतीत होता है कि इस पर चिंतन करते समय मस्तिष्क में इसके अनेक अर्थ स्पष्ट होते है। यह शब्द ऐतिहासिक होने के साथ साथ सास्कृतिक और अनुभूति प्रधान साहित्यिक शब्द है और इसीलिए इसका सम्यक विश्लेषण चर्चरी शब्द की परम्परा के विशेष प्रकाश में किया जा सकता है। संस्कृत, प्राकृत अपज और हिन्दी के कोन ग्रन्थों में भी बर्बरी शब्द के विभिन्न अर्थ मिलते है कुछ में एक साम्य मिलता है तो कुछ में पर्याप्त भवाम्य स्थिति इस शब्द के लिए मतैक्य वाली नहीं है।वास्तव में इस शब्द की परम्परा का इसके विकास के लिए विश्लेषण मावश्यक प्रतीत होता है। इस सम्बन्ध क्योंकि चच्चरी, चर्चरी, चर्चरिका बाजार, वायरिका जादि शब्द एक ही साथ प्रयुक्त हुए . मिलते हैं अतः चच्चरी शक का सम्यक् परिवीन कला और अधिक आवश्यक है। विभिन्न प्रमाणों के आधार पर वर्चरिका शब्द का विश्लेकन आगे किया जायगा । चर्जरी का जो प्राचीनतम उल्लेख है, उसी से बर्चरी का उद्दभव स्पष्ट हो सकता है का प्राचीन प्राचीनतम उल्लेख हरिभद्रसूरि की प्राकृत कार्डवरी नामक समराइब्ब कहा (स्मरादित्यकथा) में मिलता है।उसमें सर्वरी विषयक चार उल्लेख उपलब्ध हुए है उसमें उनका अर्थ यह स्पष्ट होता है कि गायकों की टोली Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२९ जो बास बसन्तके समय में बड़ी रहती है और चौक में वाद्य बाती है, नाचती है.पोष करती है और लोगों का अनुरंजन करती है।इन उल्लेखों के प्राचीनकाल में अपिहित शिल्प पर प्रकार पड़ता है। ये उल्लेख अत्यन्त महत्वपूर्ण है जो इस प्रकार है:- भगवया पषित सुष, रत्व वैवान्तर जन्मै पत्ते प्रथम महसवे निगया विचित वेवास नगर बन्दरीस तम जम बढे परिगएम वसंतकीस मामबन्न दिन समासन्नवारिणी बत्य सोहग बच्चरितिक्णिय अन्नाव बोन बाइकुलाइ गादिपक कई नीय रबरी अडाप बच्चरीए समासन्न परिव्ययइ तित क्यारिय सा बत्य सोगा. इंस्टाया भगवता पवित-अप, अत्र वान्तर जन्मनि प्रवृत्ति मदन महोत्सव निर्गता विचित्रवेवास नगर चत्वरी (चन्चरी) इतरू जनवद परिगोन बहुजन प्रशंसनीया वसंत क्रीडामनुभवता दृष्ट्वा समासन्न चारिणी वस्त्र शोधक चचरी इति दृष्ट्वा च अज्ञान दोन जाति कुला दिगवितैन बंधनीय गरी अमावस्या (चर्चयों) मान्न परिणति इति दर्षिता वस्त्र शोधका) भगवान ने कहा- सुनी। ही वान्तर उन्म मद-महोत्सव कराए विचित्र वे बाली नगर की गायक टोलियां बाहर निकलकर बन जब समूहों के भ्याई व कीड़ा देशकर पास टी ई भाग लेती हुई शोपियों की मायक टोली को देखकर, बात दोष में, गातिल मादि से मर्यवाणी इसे देखकर कहा- • क लिय या नीव वरी मायक होती हमारी टोती। पास बैठकर किरती है. इस बानों से पोषियों का अपमान किया)' .- मराइब कहाः मोहन कोबी पापित पृ. ५३॥ Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उक्त उद्धरण से स्पष्ट होता है कि लेखक ने चर्चरी शब्द का जिस रूप में प्रयोग किया है वह निम्न श्रेणी वर्ग द्वारा गाये जाने वाले गीत के लिए या संगीत के किसी घटिया किस्म के प्रकार विशेष के लिए प्रयुक्त हुआ प्रतीत होता है, परन्तु इसी ग्रन्थ में यही शब्द विभिन्न अर्थों के रूप में भी प्रयुक्त किया गया है उदारहणार्थ : 3 सओ सत्येव चिट्ठमानस्थ आगज समओ वियम्भ मलय मारो फुल्लिवाई काममुजपई उच्छलियो परड्यासी पयत्ताजा नयरि बच्चरी ओ ५३० ड संस्कृतः ततः तत्रैव विष्टत आगतो वसन्त समयः विमितो मलय भारत: फुल्लितानि काननोमानानि उच्छलितः पर वास: प्रवृत्ता नगर चर्चय: (फिर वही रहते वसन्त समय जमा मलयपवन विस्तार को प्राप्त हुआ, कानन अरण्यक उद्यान तथा बाग प्रफुल्ल हुए कोयल की आवाज उछली और नगर की वर्चरियों प्रवृत्ती)" इस उद्धरण में वर्चरी शब्द गायक टोलियों या उत्सव मंडलियों के लिए प्रयुक्त हुआ है। इसी प्रकार शेष दो उद्धरण देखे जा सकते है: ३-४ अन्नवार्य समाज वसन्त समजो |---- हुइ सुर सुबन्त चञ्चरी तूर महुर निमुधोसो । संस्कृत कन्या व समागतो व समय::--- वृद्धि व मान वर्वरी सूर्य मधुर निर्धाst. 1 ( इसके बाद बहुत समय आ पहुंचा।-- कैसा? अनेक विशेषणों में से एक विशेषण प्राप्त करता जिसमें वर्वरी और पूर्व वाम को सुनाकर मधुर निर्दोष श्रुतिसुख देने वाला । ऐसा ) २ १- समाइच्य कहा : प्रो० हर्मनकोबी संपादित पृ० ३६८। वहीं, पु० ६२६ । Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एवं गुणा हिराम य पबते वसन्त समय सो सेष कुमारी किलानिमित्त मेव विशेसज्जनेवण संगो परियषणं पयट्टो अमरनन्दर्ण उवाण। दिठोय---- पबजमाणे बसन्त बच्चरी रेण नच्च भाषी किंकरगति परावणमोविय तियसकुमार परियरित्रो वैवरामोक्ति एवं गुणाभिराम र प्रवृत्ते वसन्त समये सनकुमारः कीड़ा निमित्त मेक विशेषोज्जवल नेपयन संगतः परिजनेन प्रवृत्ती अमरनन्दर अयानम् इष्ट शव--- प्रवाइय मानेन बसन्त पर्चरी पूर्णी नृत्य मिः किंकरमणे ऐरावबगत इन त्रिकुमार परिकरितो देवराज इति। (इस प्रकार के गुणों सुन्दर वाव समय के आने पर वे ऐनकुमार कीड़ा के लिए ही विशेष उम्मबल नेपथ्यबाले परिजनों सहित बमरनंदन उद्यान में प्रवृत्त हुए और उन्होंने देखा (क्या माने )वसन्त की चर्चरी गायक टोलियों के बजते हुए पूर्व वाद्यों पर नाचते हुए किंकरगण के साथ ऐरावत हाथी पर बैठा हुआ निदर अर्थात देव के कुमारों के परिकर वाला देवराज अथात इन्द्र होय ऐसा)' इस प्रकार इस विवेचन ढीव उधरम में री कार्य सुन्दर बाइबयान करके उसे मधुर निरवियर कैनवाला कहा गया है।तिन या चतुर्थ उद्धरण चरी मे गन्ध गान बबाबा ने टोलियां नो मन्च में वरी प्रस्तुत करती है, जिनके साथ सूर्य आदि बाय बाय बात है। पर ये टोलिया किर मे निम्नस्थ वर्ष की होती थी। बरी कधी मन्यनमाप जो उत्कालीन सहायक ग्रन्थों में उपलब्ध हो सके गले में इस प्रकार इन उल्लेखों में गरी सम्बन्धी सों में भी परिवर्तन भी मिले। वरी ग बरा गई एक प्रकार का गीत विशेष श्री बन्द्र वा अभियान विद्याम िलिखने :- माल्या करी वर्मी समे १- मराइच कहा: प्रो. जेकोबी, पृ. - अभिधान चिंतामणि (२-100) नवाचार्य। Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ये वस्त्र प्राप्त कर उसकी इल्ति में चामत अनया -( यो बड़े चार से सुन्दर बोलों वाली इभ वाणी पर्चरी) अपक्ष काव्यगी में चचरी पर बहुत विस्तार से विचार यिा गया है क्या उसमें जिन जिन विपिन बिद्वानों ने बरी का प्रयोग किया गया है उनका भी उल्लेख है। अप काव्यावी के साथ साथ कुवलपमाला याया में भी परी को सम्बोधित करते हुए उल्लेख मिल जाता है।' ... प्राकुवापशादि भाषाया चञ्चरी, चाचार, इतिनाम्ना संस्कृत भाषाया य वर्चरी इति सेवा प्रसिधाया मीनत्य पूर्व गानकीडन-गम्फनादि पद्धतिः प्राचीन परिज्ञायते यतः कवि कालिदासो विक्रमोर्वश्याच-तुर्थ प्रभूतानि चरी पद्यान्यपश माकाया व्यरचयता हरिपसारिः सारा दित्यकथादो दाक्षिण्य चिन्होयनाचार्य: कुललयमाला धाडदी, शीलागवार्यश्चतष्पचासम्महाब चरिते कविः श्रीरलावली नाटिकावा: प्रारम्भचान्या स्मरन्ति स्मवर्चरी मॉपिंगलनाग हेमचन्द्रोदय: प्रतिपादयन्ति स्मपर्चरी लक्षणानि निजन्य: शास्त्रान्बो नुशासनादी) प्रसिद्धयत् बल कवि मोलणकता चरी इस प्रकाशित प्राचीन गुर्जर काव्य संग्रह । उपलभ्यते चान्यापत्तनीय जन भान्डागरादाबेलाउली रामेण गीयमाना ग्वजय माउनादि जिन स्तुतिपाचत्रिदेशगाथा प्रमाणाम्रायो विक्रमीय बतदेव शताब्दी सम्भवा इतरा र पूरी रामेष गीयमाना गुरुस्तुति मा संक्षिप्ता पंचदगाधा परिमिता। यमकालंकारा दुयलकता प्रस्तुत चरीद सप्तचत्वारिवत्पद्य प्रमिता जिन बल्लभरि स्तुति पा चैत्यविधि प्रधाना संस्कृतवृत्ति समन्वितावृत्ति कृत्सुचनानुसारेण पढ (ट) मंजरी भाषया नुत्पषिमीयमानाचायो। पटमंजरी रागो असुचि बल नारद कुते इस श्व प्रकाक्ति गीत मकरंदादी दृश्यन्ते प्रभूतानि पटरी पड़यो नि विम्पाष सप्तम साब्दी सम्ब ईपाद प्रतिषि विरचिता पर्चवर्य विनिश्चयाबिक श्रीदत महामहोपाध्याय हरिप्रसाद शास्त्री महाश्यः सम्पादित अंगीक साहित्य परिषदा काशित बौदयमाने मी बोगस पुस्तके मि००८ को परमंजरी पाया रचित गौतम बरि कपालम्बो परखनीय नपाडामारोबनेन पट(३) मंजरी रामस्य चिरान प्रतिष्ठासीन अपशगव्ययी पु. ११४ीडी बलाक २-जहान कैवलिया अपए निगम जोर सबाई रामणव्यक्त महामोह मह महिवाईअक्सिविन माय बच्चरीरसंबोडियाई। अर्षियत बुफा लिप गुरविर विनाकिवि मुना करिबकरियव्यवहारिन्ययाविदये। कसिमकालबनेकाममबसबिरीपषिलवण कडिल पार वितर बालबाकि बावलिबलमा रामम्मि जइलयमा जुबद्रीसत्वर बुड बिपापो (कुजल्याला यायो) (मtar) Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३३ इस प्रकार प्राचीनकाल में बरी का स्वस्य जिस प्रकार का गीतिशिल्प लिए था उसकी प्राचीनता और बबरी- चारि इस नाम की सार्थकता के प्रमाण प्राकृत अपप्रेश पाका में बच्चरी-बारि और संस्कृत भाषा में चर्चरी शादों आदि के स्म में मिल जाते है। ये नाम अत्यन्त प्रसिद्धि प्राप्त गीत, नृत्यपूर्वक गान कीड़ा गुदना दि पद्धति की पाति प्राचीन है। महाकवि का लिबास ने विक्रम उर्वशी के चौथै अंक में बहुत से चर्चरी पदयों की रचना अपप्रंश पाषा में की। हरिमा सूर ने मी समरादित्य कथा के आदि में दाविण्य किह ऐसे उद्योतन आचार्य ने मलयाला क्था की आदि में जालंगाचार्य ने चतुष्पंवा पमहापुरुष चरितमों सर्व श्री हर्ष ने रत्नावली नाटिकाके प्रारम्भ में और भी अन्य कइयों ने बरी का वर्णन किया है। हेमचन्द्राचार्य के पहले के प्राकृत और अपशकताओं ने भी चर्चरी का वर्णन मिया है। यह गीत बहुत ही प्रसिद्ध पीत है।' विक्रम की दसवीं वाइवी में लिखी नपाल धरि परि मंगलइ पयोसियाई, परि धरि मिहणइ परि ओम आई घरिघरि तोरई पसारियाई.घरिघरिसर्यमई अप्पाहिया धरि धरि बर्चदन हण्डय दिन्न, महदयरगयन्दवणय पहाम्न धरिपरि सरपरई पिंजरीउ मोहति व्यतरमंजरीउ चरिपरि बच्चरि से उकसाई धरि परि अंदोलय सोहा धरि धरि गवत्था एकता सोहे, धरि धरि आधषि महाजीसोड घटता- रिअरिस मंगलकास किय.वरिपरि घर वय अभयारिय धरि परि सिंगार बेतु परिपि नारिमि पर जीवाशी उत्थरिवि (पवियतका-८-१) पर पर मंगल का प्रयोग थापर पर बर बधू की जोड़ी परितुष्ट थी पर घरोरण बीजेपर पर मनुधावहित नाचबरपरदन का दिन होता थाचंबल छीटेंबरखेडदान होने वाले दवा से फूल है । स्वसडित विवररहने वाली माता की पचरी ओषांपाठी थी घर पर बर्चरी कौतुहल। परपर डोलेशातर पुलोरोला मावे घर पर बस्त्र और आभूषणों की घोषाएकबीरापरपर महान धरके भोष करे पर परम रंजित मनबाहीविया वसतिदेवबीबी घर पर मंगल कलश लिए हुए वरपर देवता पारित वीर पर पर अंगार वेश धारण करती हुमी उत्तम वतियों ने नाबबारम्ब किए - अविसरत हा नपालकृत (८-९) Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३४ विरचित मविषयक्ष कहा में भी इस गीत का उल्लेख मिल जाता है।इन उन्लेखों अतिरिक्त और भी कई सूचनाएं वर्चरी अब्द की विभिन्न स्यों में माता स्पष्ट करने को व्यवहृत हुए है। ___ अपर की वर्चरी अन्धों के भायों में चरी शब्द का अर्थ खेल बताया गया है। जिनदत्त सूरि की एक परी में उसके टीकाकार श्री जिनपाल उपाध्याय ने लिखा है कि यह पाया निबंध गान नाच नाच कर पाया जाता है। बर्बरी का प्रथम पद इस प्रकार है: कद अउछ जुक्खिा नवरस भर सहित लन्ध पसिधिहि सुकाहिं सायर जो महिल मुकद माहुति पसंसहि मे तहसुड पुरुह पाहु न पुणइ अवाश्य पापिय मुरगुरूह चर्चरी उब्द की व्युत्पत्ति का अनुमान (प्रा. चन्चर ) चोरट्टा- चौटुं नौंपी किया जा सकता है।(जही लोग इक्ठे होकर नृत्य सहित गान करते हैं आः नृत्य सहित गाने वालों के समूह को बरी कहते हैं) संस्कृत चर्वरी जो कहने में आता है उसका अर्थ है हाथ की बाली की आधार, और इसी कारण उसका संभवतः या नाम पड़ा है। संस्कृत शब्दार्थ कौस्तुम में परीकई मुक्त हुए है। पात्रमाणको में चरी ओक प्राचीन अर्थ स्पष्ट होने की हिन्दी भव बागर ने भी इन्हीं ..देखिय अपच काव्यत्रयी- श्री पी.डी. बहाल- प्रस्तावना भामा स्कृत स्वार्थ कौस्तुम-संग्राहक इवारका प्रसाद मा बबी बरिका-स्त्री.गीत विशेष बाल देना बरी-पंडितों का पाठ उत्सव के समय का डेल उत्सव का उल्लास -उत्स्वपापसी..पराले बाला - देखिए पासवद मानो - मोबिन्द बाग मेठ कृत-पू. १९७॥ बच्च-4(वर्ष) समालम्पन, चयन "गैरह का शरीर में उपलय बब्बर (वरपरकीया,बौरास्तावीक बबरिया बानिरिकामत्य विशेष (रमा) बच्चरी वी.वरीमीत विशेष एक प्रकार का मान-वितरिय बन्चरीर व (ब) उचापपाने , ) (ब) पारमिय बबरीगीवा सपा ५५) माने वाले रोकी,माने वालों का (क)पोमवण मासेव निगवास विचित्रवेखाउनबर चचरीकीय चचरी बहाथ चचरीएसमान परिब्बई ( R) (कमन्द विशेष (पिंग) बाब कीवाली की आवाज। Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रन्धों के अों का समर्थन किया है। वास्तव में इन वर्षों से यह स्पष्ट होता है कि पर्चरी एक प्रकार का गीत विशेष था जो समूह के रूप गाया जाता था।यह गान इतना अधिक लोक प्रचलित था कि इसे लोकगीत की संज्ञा सरलता से दी जासकती है। वास्तव में इसकी पुष्टि १वीं शताब्दी के जिनदत्त मूरि नामक जैन संत कवि ने लोक प्रचालित बरी और रामक जाति के गीतों का सहारा लिया था, इस तथ्य में होती हैारी उन दिनों जनता में बड़े चाव से गाई जाती रही होगी। श्री हदिव की रत्नावलीतथा बाम भट्ट की रचनाओं से भी चर्चरी पीत की सूचना प्राप्त होती है।वी ताब्दी में सोमाय ने वसन्त काल में वरी गान ना था।' वीं शताब्दी के लक्षण नामक कविने यमुना नदी के पास पास बरे रायबडिय नगर का वर्णन किया है। आगरे के पास स्थित संभवत: इसमें कवि ने नगर के चौराहे का वर्णन किया है जो चर्चर ध्वनि से उइदाम था। श्री अगरचंद नाहटा का मत है कि रास की पाति चंचल एवं नृत्य के साथ विशेषतः उत्सव आदि में गाई जाने वाली रचना को बर्चरी संज्ञा दी गई है। इन सब उल्लेखों के अतिरिक्त परी का एक छद विशेष के म में भी वर्णन मिलता है।यदि वार्षिकोत्त का एक भेद है। मानु के छन्द प्रभाकर में इस पर्वरी का का लापरब र के योग बनता है जिसका न SIS, IISISI, SI, SIS) प्रा में इसका नाम बरी मिलता है। छंदोगासन उम्मबल, सदसून (C) विष प्रिया आदि नाम मिली है। १.चरी-संज्ञा स्त्री (से..प्रमर,भंवरीबावरिहोली गाने का यह पीड -हरिप्रिया छंद-एकवर्गावराचली।विष निवाबीसमानामों का पदवि हिन्दी वृद सापुर-रामचन्द्रवी पु.४०i पर बारबरिय मापनपदबर्षकgot-21 ..जगणावह उत्तर इडित्वडिव बही। देखिए, नागरी प्रचारिणी पत्रिका ५८,४०१०१.०४.१ पर श्री अगरबदमाटा लिमि-प्राचीन भाषाकाव्यों की विविज्ञाप-लेख। -दोन-डेमद (R:-) Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आलोचकों ने इस बरी न्द का शिल्प इस प्रकार माना है- इस लव मैं ०.८ वर्गों पर यति होती है पर पिंगल में ८, १० वर्णों पर यति मानी है।इसका मात्रिक म गीति का छन्द है। उक्त प्रमाणों के अतिरिक्त प्राचीन प्रपों में उपलब्ध गरी सम्बन्धी और मी जितने प्रमाण त्या विभिन्न अर्थसूचक विवरण एवं वर्णन मिलते है ये इस प्रकार है:. (1) ० ९०९४ में चन्द्रावती में धनेश्वर सूरि इवारा विरचित प्राव मुर सुन्दरी बरिया पन्ध में बच्चरी का उल्लेस देखिए: तो ओरिसे वसते दिति दिसि पसरत परहुया सबै वित्वरिय बन्चरी- समुहरिय उज्जाप भूपागो , ५४ इस प्रकार की वसत रितु में दिश दिशा में कोयल के शबद प्रसारित है और विस्तार प्राप्त हुए चरी के रव से मुखरित उद्यान के उस भू भाग में आवाज करते थे) कीसंत-कामिपि-यम रत-नेउर सैण तरू-नियरो(तमीनियरो) पवण-महूस्व-तुटो गाय इव चारि जत्थ 11, १०८ उदान-बन्वंत्र-बर-बर-मदर्स परवर कामिनिरपक्व-मुंबmarn (कीड़ा करवी कामिनियों के कार को भूपुर या पाभर के वार से नवयुवतियों का समूह पहन पोन तुष्ट होकर मानों चारी की धादि गान माया पाया था पैगा उमान उइदाम मा गोर से करने वाले अत्यन्त म मावल या बैग वाला स्वर परत हुए कामिनियों के संघ में मुंबल ऐसी मानन्द की मुबान करने वाले परीके अब्दो माकर्षित हुए कामुकका पटिका बड्दो सहित मारने वाले शब्दों सहित नाच हुए भने बालों वाले (बदली प्रहा • मणमपि इबारा विरक्ति भुपासनाा बारिय में भी बारी कारल्ला स्पष्ट होता है: Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३७ तवणीय-वह- सिय-चीर्णस्य च सहस्य रमणीया रमणीय रमणी - सहरिस-पारंमिय चञ्चरी - गीया । २३-५५१ तपा कर शुद्ध किए हुए सोने के दंड ऊपर ऊंचे किए हुए चिनाई कपड़े के सहस्त्रों सहस्य रमणीय चय और सहर्ष चर्चरी गीतों को प्रारम्भ करने वाली रमणीय रमणियों वाली (वाराणसी नगरी) (३) ० १२११ मा स्वर्गीय जिनयत्तरि ने अपने गुरु श्री जिनवल्लपतुरि के लिए गुरु स्तुति के रूप मेंअप और तत्कालीन देशी भाषा में की है। उस पर संस्कृत में सं० १२९४ में निपाल उपाध्याय ने उस पर एक भाष्य लिखा है। उन्होंने १ उस स्तुति का नाम चर्चरी रक्ता है। यह प्रथम मंजरी भावा में तथा नृत्य के सहित गाई जाती है उन्हीं जिनयाल उपाध्याय ने जिनदत्सरि के अपारं काव्य नाम से उपदेश धर्म रसायन रास नामक संस्कृत टीका रची है उसके प्रारम्भ में बताया गया हैचरी - रासक-प्रख्ये प्रबन्धे प्राकृते किलः वृत्ति प्रवृत्ति माधत्ते प्राय: कावृषि विचक्षणः || (४) प्राकृत पिंगल में चर्चरी नामक एक हल्द विशेष है। प्राकृत पिंगल सूत्र मैं तथा हेमचन्द्र अपने ग्रन्थ दोनुशासन में २३१ में पद्म में चर्वरी का लक्षण इस प्रकार स्पष्ट करते है- मादि में रम (गाला ) फिर सगण (लगा) फिर एक लघु फिर ताल आदि र निक्क मध्यमें हो। फिर एक मूरु। फिर एक और एक गुरु दो लपक गुरु, एक लघु और एक गुरु- उ पद को देखिए आइ रग्गम रत्थ कारल ताल दिन्न मत्ववा सहार पत विपूणवि सम्यलोज विशा ये विहार रहन मोहना १- पटमंजरी नामक राम नारद कृर्व संगीत मकरंद में बताई गई है। विकी ७वीं शताब्दी हुए अनेक पटमंजरी काव्य क्या लडपाद आदि विरचित चमचर्य आदि का महामहो० हर प्रमान शास्त्री दुवारा सम्पादिता बंगीय परिषद द्वारा प्रकाशित बौद्ध मान और वोडा ग्रन्थ में मिल जाते है।पटमंजरी पावा में सं० १३५८ में रखा हुआ एक अपोश का काव्य है उससे स्पष्ट होता है कि पढ मंजरी मावा में प्रमीय राग की प्रविष्ठा रही प्रतीत होती है। Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३८ म अराज भणन्त सुन्दरि चव्वरी भणपोहणा ||२३१ ॥ उक्त पद्म की संस्कृत टीका भूषण में प्रकारान्तर से इस प्रकार मिलती है कायुक्त सुवर्ण कुन्डल पाणि स विराजिता पाद नूपुर संगता सुपयोधरद्वय भूषिता atter वलन पन्नगराज पिंगलवर्णिता चर्चरी तरुणीय चेतसि चाकसीति सुसंगता || (५) प्राकृत पिंगल सूत्र में वर्चरी छंद का उदाहरण इस प्रकार दिया हुआ है पाजमा पक्कs हंस-सद- सुसोडणा थोस थोस भणगूग बच्चई मोल्तिदाम मनोहरा वाम-दाहिण वाण धावड तिक्ख चक्ड कडक्स काहि पूरिस-मंह सुंदरि पसिना । । २३२॥ (जिसके पैरों में नूपुर हंस शब्द जैसा सुबोधन फनकार करता है, जिसके थोड़े थोड़े नवीन उभरे हुए स्तनों के ऊपर पनोहर मुक्ताहार नाचता है जिसके दाहिनी बाई और तीक्ष्ण आंख के कटाव बाप की भाति दते है। ऐसी सुन्दरी किस पुरुष के घर की शोभा बढ़ाती है तो तू देव)। (६) महाचारी अपने दोनुशासन के अध्याय (०४६) में रखुमा वर्णक छन्द का एक सूत्र दिया है कि ताजैः वृत्ति-पात्रः तुमीक विमानश्च रावक जैरिति वारिष्टभिश्व यति: । इस प्रकार एक ६ मात्रा, सात बार मात्रा और पक त्रिमात्रा व क २७ मात्रा का रश्यावक है कि जिसमें १वीं और फिर वाढवी और बी मात्रा पर यति जाती है। इसके पश्चा (०, ४७) मैं बच्चरी जैः जेरिति नतु भिरष्टभिश्व यतिश्चेत तदा तदेव रावक बम्बरी जिसमें वीं और रवीं मात्रा पर यति आती है वह रश्यावर्धक परी कहलाती 1 (0) स्वयंभू में (४.१९५ तथा १९६) में मी यावर्णक का उदाहरण मिल जाता है। उदाहरण दोनों का असर देखिए विरह रहक्कई सुइय न जबइ न उस भाव केवल पिमयच्चासइ Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहवा किन्ति रत्यावरुणा करिसह निश्चई मसिसई (राइ) द्वा जसु नासह(४१) (विरह के मुख से वह न तो देखती है न हंसती है परन्तु केवल प्रियतम की प्रत्याश का ध्यान करती है या कितनी रथ्यावर्णन कई वह तो शून्य वर्णन होगा, वह निश्चय ही मरेगा और उसका या नाश को प्राप्त होगा)। गरी द का उदाहरण देखिए:___ चर्च्चरि चाचवाहि अम्लर 'किविराम प्रेस्सहि विविकिवि गायहि वर धवन रचहि रवन-सविकिवि दहि अक्सय गिणहहिं की विसयि ह जिनकला। ( जिन क जन्मोत्सने कोई अप्सरा मुन्दर चरी बोलती है, कोई राम खेलती है, कोई उत्तम ज्वलपोल गाती है, कोई रत्न के साथी रखती है कोई दही अक्षत लेती है। () ११४ में मोमप्रभ मूरि रवित कुमारपाल प्रतिबोध में भी री का उल्लेख मिलता है अइ पतु कुयाह वसंत समाजो, संजणिय सयलजण चित्तपमओ उल्लासिम-सक्स-पवाल-ज पसरत चार चच्चरि च मा (किर एक बार वसंत समय आया वह समस्त शेकों से मन को मुक्त करने (प्रदित) वाला, या यों के पल्लव समूह को प्रतित करनेवाला था जि वेल (लता) समान अदर वर्चरी गीत प्रसारित होते है।) (९) दक्ष राम नाम अांश काव्य री संतक ही देखिए सम्बजि मे पुषि करिषि तार नारिखमा बन्य बर्मत काल अपानि विहार परिस्लिीहि, - .- देवि मारपाल प्रतियोग- सोमप्रसूरि . ५४। १- जैन पूर्वर कवियो- प्रस्तावना . Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (संवृत्ति-बब्बरे-हद्द मार्ग गीत नृत्या ताल ध्वनि कृत्वा अपूर्वी वसन्त कालोनृत्यते । धन सिबिड हाराभिः परिखेलन्ती मिः मेशला किंकिणी मिः गण स (चरी गाकर ताल सहति नृत्य करके अपूर्व वसन्त काल नृत्य करता आता है धम निविड़ हारवाली तती स्त्रियों से उनके मेखला की किंकिणी बड़ी स्याम शब्द करती थी। (१०) ढोला मार रा दोहा - पी बरी का प्रसंग मिल जाता है. फागुण मा सि वसंत त आया जइन सपोर चाचरिउड मिस खेलती होली पंपावरु (१४५) (वसंत रितु के फागुन मास में यदि तुम्हारी आना पुन सुनाई दे तो बरी के बहाने में होली में खेलंगा) इसमें सम्पादक चर्चरी सम्बन्धी टिप्पणी लिखते है कि फागुण में होलिकोत्सव के उपलक्ष्य में होने वाले गीत नृत्य आदि से चाचारि बर्चरी होली में गाये जाने वाले एक राग विशेष को कहते है। (1) हिन्दी साहित्य में कबीर दास की रचनाओं में बीजक में बाबर नामक एक अध्याय है। इस बाबर चरी प्राचीन शिल्प के अंकुर विद्यमान है। इसका एक उदाहरण इस प्रकार दिया जा सकता : चलती माया मोसी जिन को दियो संसार रच्यो रंगहे चूनरी कोदरि परिवार नारद को मुखमा डिके कीन्हो वम हिनाय मरव नती गरम है उसटि, बही पुसकाय एक ओर पुर नर मुनि बार एक अकेली बाब दिष्टि परेन काहुन छोडे केलीन्हों एक धाय (1) जायसी और कुलसी में भी बरी रामगुण प्राम का उल्लेख किया है .- मिति नहिं किन बावरि होइ नाव कूद मूहा सब कोई . (जायधी) Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. तुलसीदास चावरि मिस, कहे रामगुणग्राम (तुलसी) (1) हिन्दी भाषा कोश में चाचर, चाररि और चाचर, चाचरी वसंत रित एक राग होली में गवातुं गीत, चर्चरी राग, होली के खेल तमाशे धमाल उपद्रव हलच, हल्लागुल्ला, शेर आदि मिलते है। हन्दी में चाचरी चाचर, चावरि, चाचरी आदि प्रधणावर अनुस्वार जिना व सहित रूप वाले शब्द है। यह तो हुई बन्चरी शबूद के विविध अर्थों में प्रयुक्त हुए स्वरूप के प्रमाण अब आदिकालीन हिन्दी जैन साहित्य में प्रयुक्त चरी की भी थोड़ी सी बची करली जाए। गुजराती साहित्य में चरी के लिए कहा जाता है कि जहा दो दो से अधिक मार्ग मिलते है। बत्वर(संस्कृत) प्रा. चच्चर और पुरा ' हिन्दी में चाचर। • १२८५बसेंड में रखे हुए आबूरास की , पक्ति देखिपः गजर देसह मयि पहवणं, चंद्रावती नयरि बसा त्रिग वाचरि अउहह घिरा पढमदिर धवल हर पगारा उक्त पद गरि देश के मध्य में चन्द्रावती नामक नगरों का वर्णन प्रस्तुत करता हूँ। उसमें तीन रास्ते जही मिलते हों ऐसा निक्, पाचर- चार रास्ता मिले ऐसा चौक, का हट- चौहटों का विस्तार हो, तथा विद्यामन्दिरों का विस्तार हो, पहल स्था बड़ी बड़ी इवे लिया है। एक अन्य कोश में चाबर मद का अर्थ Y०( चत्वर) मन्डम के बाहर जो जुला चौक होता है वह, चलो अर्थ भी दिया है जो अनेक प्रमाणों से भरसगुजराती शब्द कोश में भी मिलता है-यह चाचर के आधार से बगा- चाचरियां शब्द का पूनम चरी गीत ही है। यह पावर में बोला जाने वाला, गामासाने गला गीत ही है । एक कोर में इसका अर्थ कल्वी ने उसको जैसा भी लगा, विस्तार से उदाहरण प्रस्तुत करके ऐसा स्पष्ट किया है- न चलाकी देवी के गप लगन के चौधे आठ दिन चकला की रक्षा करने वाली देवी का पूजन कर बलिदान करते थे फिर उसके गों की पूजा करते थे नारो विवाओं को बार उपहार रखे जाते थे और फिर एक के पीछे एक पानी की धार करके पूछने थे- बावरिया वाचरिया) तुम कौन सी Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४२ गत करने के लिए आई हो तो पास में खड़ा कोई गणों का प्रतिनिधि बोल उठता था- कि अमुक व्यक्ति के लिए- उनमें कोई सम्बन्धी का नाम ही होता था। फिर उनसे पूछा गता था कि इस अपुक ने क्या किया है तो उत्तर होता था कि इसने सारी जाति को तो खूब भोजन कराया पर घर के अनुसार दक्षिणा नहीं दी। हंसो रे पाई हाहा हाहा। इस प्रकार के चार प्रश्न होते है। इस प्रकार चावरिया में अधिकतर उपहास-हास्य होता है। वाचर- चौक में गाने वाले पर्चरी गायकों की टोली या उनका प्रमुख गायक भर चाबरीया कहलाता था। उसके सम्बन्ध पुरातन प्रबन्ध ग्रह राधा वस्तुपाल प्रबंध प्रमशः ५०.०, ११९ और पृ० १८ तथा १७६ में प्रयुक्त हुए है उनका सारा इस बक्त एक रात्रि में पाठशाला में रहने वाले श्री विजयसेन सूरि को नमस्कार करके मंत्री वस्तुपा दूसरे भाग में रहने वाले श्री उदयाभरि को वंदन करने गए परन्तु वे वही नहीं थे। इस प्रकार तीन दिन तक उनकी प्रतीक्षा करके पौधे दिन विनय पूर्वक बड़े गुरुत्री से घटा- तो उन्होंने उत्तर दिया मंत्री आजकल इस नगर में एक बावरीक महाविदवान आया है। उसके विशेष वचनों को सुनने के लिए प्रतिदिन वेश परिवर्तन करके मूरि जादै । यह जानकर मैत्री वस्तुपाल वही गए और भूरि को प्रमान रूममें देखा। प्रात: मंत्री ने उस वरीगाक को बुलाकर २०७०) स्पया देकर कहा। तुम्हारी पोशाला के द्वार के पास के बम्पर पीक चन्चर माडोइस प्रकार महीने तक वह माडता रहा फिर उसका उचित सत्कार करके उसको दिवाई दी। ( वीरधवल राज के बारे में क्या है कि उसके प्रदेश नाउदी(नादोब) में रहनेवाला महारदीयो बहुआ हरदेव यावा बझा गावरीयाचक का शिष्य था वह एक बार बारामती आमATIATE दिन बाद उनके परिवार का साना समाप्त हो गवाह चाचर प्रदान करो। उसने कहा- वे धारण करो। संदेवनार के मनुष्यों ग मनोभिप्राय वैशबा रहता है। इतने में ही महाराष्ट्र का गोविंद बाबरीयाका पांचा वारस राम ..मालन बौपाई में ठस्थ थे। उसने उसको बम्पर बी वो फिर हरदेव ने चाचरीमा को अपने साथियों द्वारा प्रोत्साहित होने Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४३ से साथ साथ चलते स्वाभाविक रूप से बातें करते सीताराम प्रबन्ध को कथा रूप में कहना प्रारम्भ किया पहले १० बार मनुष्य इकट्ठे हुए धीरे धीरे और अधिक हुए। मध्य रात्रि में सुखासन में स्थित मंत्री आदि भी सुनते थे। यहां से उठकर श्रोताओं की ज्ञात न हो ऐसा प्रयास करता हुआ वह सावरमती नदी के किनारे गया। फिर विशेष गान हा ठंड से आक्रान्त मनुष्यों ने उसे कहा कि आप सबके सुख के लिए नगर मैं चलिए। फिर उसने पुनः उत्तर रामचरित का गान प्रारम्भ किया। फिर सर्व रस में निमग्न श्रोताओं को लेकर चौक में आया। फिर लोगों ने अंगूठी कर्णकूल आदि के दान से ३ लक्ष ७० दिया । २ उक्त उद्धरण से स्पष्ट है कि गुजरात में काव्य में कथा प्रबन्ध कहने वाले, चार रास्ते जहां मिलें ऐसे बौरास्ते या चौक में बैठकर जनता के मन का अनुरंजन करते थे उनको दुव्य मिलता था और संस्कृतकि की उन्नति में पर्याप्त सहायता करते थे। अतः इससे चर्चरीयाक और वर्वरी शब्द के महत्व पर प्रकाश पड़ता है। सं० ०४८० में विरक्ति जयमागर विरचित जिनकुशल सूरि चतुष्पदिका में निजी की दीक्षा समय के वर्णन में चर्चरी का उल्लेख आता है नारि दिवह तव चाचरी प, गुरु गरुमा डिग दहा दिसि संवरी प सरल मiter sfta fरप फिर कुंठिर्हि कोइल अवतरीर अतः इसका सम्बन्ध किसी राम विवेक से स्पष्ट होता है। उक्त वर्णन त्या प्रसंगों द्वारा री के विविध प्रसंगों में विविध अर्थ की सूचना मिलती है।वास्तव में चचरी क्या थी यह इन्हीं उद्धरणों के आधार पर जाना जा सकता है। निष्कर्षयः यह कहा जा सकता है कि बर्बरी छोटी जाँत की टोली का एक मासन्तिक मान विशेष था जो प्राचीनकाल से बीहट्ट आदि आदि पर गाया जाता था। यह चर्चरी स्त्री और पुरुष दोनों गाते थे। इन यों के आधार पर चर्चरी के शिल्प सम्बन्धी निष्कर्षो या आवश्यक तथ्यों पर इस प्रकार विचार किया जा सकता है: ހ १- देखिए पुरान प्रबंध : मुनि निजी ० ७६ और वस्तुपाल प्रबंध ०१६९ २. वडी, ५०७८, वही पृ० १७६ । Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४४ १. यह पक गीत विशेष है जो उल्लास प्रधान वषों की अनुभूति है। यह निम्न वर्ग की गायक टोलियों और उनके गीतों के लिए भी प्रयुक्त है। ताली बजाकर विशेष ध्वनि उत्पन्न करके वाले वाइय को भी चर्चरी कहते है। चर्चरी एक प्रकार का गान विशेष है जिसमें मृत्य ताल समन्वित फागुन की वासती सुषमा का समावेश होता है। प्रानन्द प्रधान मनमोहक नगर के स्थानों पर उत्पन्न होने वाली ची ध्वनि। वरत में गाया जाने वाला विशुध वसंत गीत। मंगल पाँ पर आनंदोत्पत्ति करने वाला मनोहारो गान। चर्चरी एक प्रकार का बैल विशेष होता है। ५- एक ऐसा भाषा निबध मान जो नृत्य विशेष के साथ गाया जाता है। ___ यह एक प्रकार कान्द विशेष है जो विभिन्न अन्धों में शास्त्रीय छन्द के ज्य में प्रयुक्त हुआ है। यह एक लोक गोत का प्रकार विशेष था। १२. चर्चरी एक प्रकार का राग धा निसको परवर्ती साहित्य में चर्चरी राग नाम मै अपिहित किया गया। तुलसीदास जी ने भी वर्वरी राग को अपनाया था। इस प्रकार वर्चरी के शिल्प पर विचार किया जा सकता है।वस्तुतः डा. हजारी प्रसाद पी दिववेदी के सबों में चरी में केवल गान का सही नहीं लिया गया है। आध्यात्मिक उपदेश में चर्चरी शोक प्रिय गान के प्रिय विषय भंगार रस का आभास देने का भी प्रयत्न है। बीजक में यह आभास हो जाता है कि चाचर मात्रा समय है फिर बीज में दो पद बाबर के दोनों के छक अलग अलग है इससे भी मुक्ति होता है कि इसके लिए कोई एक ही नियत नहीं था। 1. जनपद- वर्व, अंक ३.५-८ देखिएमा हजारी प्रसाद दिववेदी का लोक साहित्य का अध्ययनका 1.बीजक की दारी बाबर ठीक इस पद तो नहीं है पर मिलते जलते व में अवश्य है बान पाता कि पर्चरीबाघर की दीर्घ परंपरा रही होगी ।इन दो बार शहरोबह प्रभावित हो जाता है कि बीजक जिन काव्यमों का प्रयोग दिया गया है उनकी परंपरा बहत पुरानी है और आलोचना काल में विभिन्न सम्प्रदाय के गुब्बों ने धर्म प्रचार के लिए इन काय माँ को अपनाया धास्वयं बलवी नेचरी राग को अपनाया था. जनपद वर्ष , अंक ३ पु. ५-८1 ओष आगे पृष्ठ पर देखिए-- Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतः यह तो स्पष्ट है कि चरी का प्रचल्न लोक गीतों के विशिष्ट प्रकार के रूप 4वीं सताब्दी में ही हो गया होगा क्योंकि जिनदत्त सूरि ने बञ्चरी का प्रयोग किया है। गस्त्रीय दृष्टि से इसन्द के लक्षणों का वर्णन मिलता है जो विविध मामों में प्रचलित रहा होगा पस्तु फिर मी वरी को हम कोई निश्चित छन्द विशेष नहीं कह सकते। ही लोक प्रचलित रूपों में आगरा और उसके आस पास यह लोक गान ब गाता रहा हो ऐसा प्रतीत होता है। वो कोई भी सहदय इस बात का मी अमान लगा सकता है कि यह गीत कबीर के बीजक में मार्चर बना बैठा है साथ ही जायसी में भी कागुन और होली के संग में चाचरि या चाचर का उल्लेख मिलता है। कालिदास और हर्ष के माटकों में इस गीत का शिल्प अधिक स्पष्ट तो नहीं है परन्तु उनमें चर्वरी का वर्णन अवश्य मिलता है। अतः इतने प्रसिद्ध गीत मे यह निधार से कहा जा सका है कि चरी लोक प्रिय यता प्रधान मान रहा होगा जो चाचर से भिन्न, किसी सामूहिक उत्सव या क्रीडा या खेल नहीं होकर सरल सम्मोहन पूर्ण बसन्त में नाव नाच कर उल्लास के द्वारा प्रकट की हुई मायक गीत शैली विशेष है। यह भी सम्भव है कि लोक साहित्य की सरल तथा मोहक लोकप्रिय गीत ली या गान ली होने के कारण ही जैन कवि श्री जिनवत्वरि ने इसको अपने ग्रन्थों में अपनाया हो। एक विशिष्ट बात यह भी है कि जनरुचि का हार बनने और लोक प्रिय होने के कारण इस वरी गीत की ध्वन्यात्मकया ने सबका मनाथ कर दिया हो और यह सब वा गीत प्रत्येक मनुष्य - दूसरी बाबर के बुधव इस प्रकार हैचार जन के नेहरा मन बीरा हो जामसोम वापसमा मन बीरा हो अननोका गवंडी मन बौराहो मान किरिम बाकी साज समापन बौराहो बिना का देवरा मन बराहो हिगिलकी ईट सामनबीराहो काढाकीस्विनी मनबौराहो शिव रच्यो जगदी मापन बौरा हो Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४६ का लोक प्रिय गीत या छद बने यही बात इसके मूल में रही हो और इसका शिल्प अनेक बार सफलता से प्रयुक्त होने के कारण ही इसे विभिन्न प्रकार से विषय बनाया गया हो। इस प्रकार उक्त चर्च संज्ञक प्रमाण, शब्द क्यों तथा अन्य बातों के आधार पर चर्चरी का शिल्प पर्याप्त स्पष्ट हो जाता है। चर्चरी की यह परंपरा संस्कृत प्राकृत और अपभ्रंश से अवश्य रूप से चली जा रही है। जिसके प्रमुख स्थलों का विवेचन ऊपर किया जा चुका है। वस्तुतः अद्यावधि प्राचीन प्राप्त साहित्य में वर्चरी सम्बन्धी जितने उल्लेख तथा प्रमाण उपलब्ध होते हैं उनका परिचय यहीं दिया गया है। चर्चरी का इस समय राजस्थान में जो स्वरूपहै वह आज में मली माति देखने को मिल जाता है। चर्वरी गान यहां उल्लास प्रधान लोक गीत के रूप में आज भी माना जाता है। इसका सही वार्थ स्वस्थ फाल्गुन के दिनों में गाये जाने वाले रंग के गीतों में देखा जा सकता है । सँग गीत जिस तरह आदि काल के साहित्यिक काव्य रूप फागु का प्रतिनिधित्व करते है ठीक इसी प्रकार उसमें चर्वरी का रूप भी देखा जा सकता है। चंग के गीत फागुन में ही गाये जाते हैं मधुमास के उल्लास प्रधान वातावरण को मुखरित करने वाले ये लोक मान व रूपों में रात्रि राशि संगीत की मधुर ध्वनियों पैकूट पड़ता है ये बर्बरी गीत चंग वाय पर गाये जाते हैं जो वर्षद की होना कही जा सकती है । प्राचीन काल की भाँति बर्बरी गान की इन टोलियों में मध्यमवर्ग तथा निम्न वर्ग की ही टोली रहती है जो नाच नाच कर अपने दवे अथच अबोले उल्लास को वामी प्रदान करती है। अतः जंग के इन गावों में इस समय वर्वरि का सम्यकू तथा क्रमिक विकास देखा जा सकता है। जहां तक चीवर शद का प्रश्न है वह कहा जासकता है कि इस समय इस में थोड़ा कर परिचित होता है। चाचर इन दिनों राजस्थान के नृत्य प्रधान, वाय प्रधान, उल्लासमय अभिव्यक्ति को तो कहते ही है पर विवाह के मैं नृत्य करती करती गान गाती विविध वाद्यों सहित नारियां पर बर है। यह एक प्रकार का उल्लास प्रधान टोना या क्रिया विशेष होती है जिसे Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४७ वे हागों की उंगलियों से सिर से लेकर पैर तक और पैर से सिर तक पूजा के सामान का प्रयोग करती हुई करती है शेष स्त्रियों वायों पर नृत्य करती तथा गाती रहती है। इस क्रिया को चाचर करना कहते है। इसके मूल मेंक्या बात है यह तो निश्चित कहीं कहा जा सकता क्योंकि पूछने पर वे बतलाती है कि यह एक रुदि है पुरातन नियम है अत: आस मींच कर इसे पूरा करना ही पड़ता है ऐसा उनका दृष्टिकोण है । परन्तु इसके मूल में वर वधू के उल्लास पूर्ण सुखी जीवन और भविष्य की शुभकामना करने के लिए ही यह सब कुछ किया जाता होगा। जो भी हो, चर्वरी या वाचर के साजस्थान में जो अद्यावधि जो भी प देखने को मिलते है उन पर प्रकाश डाल का प्रयास किया गया है। बहुत संभव है कि लोक प्रथा या रिवाज होने से इस चरी ने अब तक सबसे अधिक लोकप्रियता पाई हो । चर्जरी के शिल्प पर विस्तार में और भी विवानों ने हमारे सामने विचार रखे है जिनसे वर्वरी के शिल्प को सपने में सहायता होती है। वस्तुतः इस सम्बन्ध में आज तक चर्चरी का जो भी सत्य है उसको स्पष्ट किया गया है। यह भी बहुत संभव है कि बोध होने पर इसके शिल्प प्रेर और भी नये ज्ञातव्य प्राप्त हो । चर्नरी सेशक रचनाओं की सरक्षता, काव्यात्मकता, उल्लास और भाव का अध्ययन आदिकालीन हिन्दी जैन साहित्य में उपलब्ध कुछ प्रसिद्ध रचनाओं के साहित्यिक मूल्याकन पर हो सकेगा। यहां एक दो प्रमुख रचनाओं का आलोचनात्मक विश्लेषण दिया जा रहा है: वरी 3 चर्चरीक रचनाओं में एक कवि सोलन रचित एक कृति उपलब्ध होती है। रचना बहुत पहले ही प्रकाशित हो चुकी है। यह चम्बरी मेय है और इसका रचनाकाल व ताइदी का उत्तराय है। रचनाकार का नाम आरम्भ में ही मिल जाता है: १० विशेष विस्तार के लिए देखिए जैन सत्यप्रकाश वर्ष १२ अंक ६ में प्रकाशित श्री हीरा लाल कापड़िया का चर्चरी शीर्षक लेख | २- जैन गुर्जर कवियो भाग १ पृ० १२-१३ और प्राचीन गुर्जर काव्य संग्रह पृ०७१-७४ | Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४८ कर जोडिउ सोला भगइ जीविउ सफल रेसु अम्हि अवधारह धमियउ बच्चरी गाए ' इसके अतिरिक्त अन्य सहायक ग्रन्थों और समकालीन कृतियों में सोलप के सम्बन्ध में विशेक वर्मन उपलबध नहीं है। ___ काव्य का विषय गिरनार तीर्थ पर स्थित नेमिनाथ का वैभव वर्णन '। नेमिनाथ का दीपा वर्षन केवल ज्ञान और उनके भव्य मंदिर का बच्चरी में वर्णन है। काव्य की दृष्टि से यद्यपि इस रचना में कोई चमत्कार विशेष दिखाई नहीं पड़ता परन्तु कहीं कहीं प्रकृति का रंजक वर्णन किया गया है। साथ ही पूरा काव्य गत्रा परक है। गिरनार और उन्जयत के लिए संघ यात्रा करता है कवि ग्रीष्म में लू के पेटों में साहसिक और कायरों की पहिचान करता हुआ कहताहै: पाइ बहुइ कक्करीउ उन्हालइ लूवाइ जे कायर तेवलिया साहसिय से जाड उस समय यात्रा में होने वाले चोरों आदि का वर्णन भी कवि कर देता है साधना और प्रधा में निकाले हुए संघों में कष्ट होना स्वाभाविक है। चोरों आदि के इस वर्णन में तत्कालीन सामाजिक स्थिति का पता चलता है: नालिवरी गरि बडिहिं बहु चोरा उलिलाई चम्मिमा बोलि मिया अतुल पाइसहाई रचना में एक सुभापित भी मिलता : के पति मला पहिबड़ा है माला मारने पाबमली पहलिया है पहलाइ पुणे वस्तुतः रचना की भाषा में उत्सब भब्दों का प्रयोग है। यह काव्य एक ऐतिहासिक काव्य है। कवि बनस्थली गिरनार के महात्म्य पर पूर्ण बरस ढंग से प्रकाश डालता है। 1. प्रा०पू० का...ar - प्राणू का• •y. १ - वही। . वही, पृ. २७॥ ४ Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४९ संघ वर्णन जैन कवियों के काव्य का प्रमुख विषय रहा है। कवि ने तीर्थ समय गिरनार की वनस्पति का उल्लेखनीय वर्णन किया है। कुछ अंश नीमहपाणिउ सलहलइ वानर कर चुकार कोइल मदद मुहाव तहि ढुंगरि गिरिनारि 5 मई दिदिठी पावडी उंच दिदा चटाउ तळ धमिठ आम दियउ ला सिवपुरिगाउ (-1) रचना दोहा छंदों में लिखी है कवि ने कुल १८ छंदों में इसे समाप्त किया है।मिरिनार का कुछ सरस वर्णन भाषा की सरलता तथा अनुप्रासात्मिकता की दृष्टि में उल्लेखनीय है: डियढ़ा बंघउ चे बहता अजिति बडेवे पापिउ पीढ़गईबबइ इजलंजलि देने गिरिवाई मोडिया पाम थाहर न लहति कडिनोडइ कडि धवकी डियड सोसह जंत गव न धंधलि थलिलया लपत्ती पाप गावकि लर्जी बिंदिया हियडा अगवान इंगरडा भयो फरि करि लगाउ सीवशिवार सम पूर्व मम देण्डी पुति स्विट पसार' इस प्रकार रचना के कुछ स्थल महत्वपूर्ण है। वरी गीत महापुलों की प्रशस्ति में भी मिलते हैं। जैसे सोममूर्तिकृत जिन प्रबोधहि बरी धनु रबरी आदि। जन परियों में पडापुत्रों के साप के प्रशस्त होने के लिए शुक्मान किया गया है। काव्य की दृष्टि से इनका साधारण महत्व है। धन्न परी और जिनप्रबोध थरि बबरी बोनों रमा बामणीय मंडार बैसलमेर झा की है तथा अप्रकाशित है। होती संबंधी बम्बारियों उपलब रमनानों में अभी तक नहीं उपलब्ध हुई । बाव १- वही...t- Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मम्मत्र है कालान्तर में इन स्थान भक्ति प्रधा। बच्चरियों ने ले लिIT हो।परन्तु राजस्थान में होली के आस पास के उल्लास प्रधान गीत, जो टोलियों में गाए जाते है, बच्चरी का सही प्रतिनिधित्व करते है। चाचरी' जिनेश्वर सूरि विर बिज चावरी नामक है काव्य उपलब्ध हुआ है।रचना की हस्तलिखित प्रति अभय जैन अन्धालय बीकानेर में पुरक्षित है। पूरी रचग ..दों में लिखी गई है। कृति के रचयिता श्री निश्वर मूरि भरतरगच्छ के थे। पूरी रचना अध्ययन करने पर यह कहा का पता है कि कदि ने समान की रक्षा के लिए लगभग प्रमुख प्रमुख सभी तीर्थंकरों से विनय की है। यह उमा चरी गान मात्र के क्लक विवारण, दलितों की प्रगति तथा भक्तिपूर और अद्यशील व्यक्तियों की रखा हो उस लक्ष्य में कवि ने यह चर्चरी निर्मित की है। प्रारम्भ मेंही कविने रिभ जिलेश्वर और महावीर के इन 'बनमाणियों का स्मरण करके त सरसाती देवी के पदकमल में प्रणाम करके मस्ति पूर्वक नैमिनाय और जय की महिमा गाई है। मगति करवि पड रिसह शिष, वीरह वलण ममे वि इन चालित पाणि भाउ धरि हामि पनि अपरेवि परसह सामिमि सबकम मध्यमगति पणमे वि उचिस नेमि रिसइ, पण मिस अंबामवि प्रार्थना और वंदना कवि प्रारम्प से लेकर तक एक सकती और तीर्थंकर और प्रदेशों की महिमा का गुणगान क्खा है और परम श्रधा से काव्यांजली वारा नैमिजिनेन्द्र की प्रार्थना । 1- रचना अपय जैनापुरक्षित है देसिए हस्तलिखित प्रति पत्र २३१-२॥ Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५० सम्भव है कालान्तर में इनका स्थान भक्ति मधा चच्चरियों ने ले लिए हो। परन्तु राजन में होली के आस पास के उल्लास प्रधान गीत, जो टोलियों में गाए जाते हैं, बच्चरी का सही प्रतिनिधित्व करते है। बावरी १ जिनेश्वर सूरि विरचित चावरी नामक ग्रह काव्य उपलब्ध हुआ है। रचना की हस्तलिखित प्रति अभय जैन प्रन्थालय बीकानेर में सुरक्षित है। पूरी रचना ३० द में लिखी गई है। कृति के रचयिता श्री निश्वर सूरि सरतरगच्छ के थे। पूरी रचना अध्ययन करने पर यह कहा जाता है कि दिने समान की रक्षा के लिए लगभग प्रमुख प्रमुख सभी तीर्थंकरों से विनय की है। यह उबरी गान पार के क्लष विवारण, दलितों की प्रगति तथा भक्तिपूर्ण और अशील व्यक्तियों की रखा हो उस लक्ष्य से कवि ने यह चर्चरी निर्मित की है। प्रारम्भ में ही कवि ने रिप जिवेश्वर और महावीर के इन 'जनमणियों का स्मरण करके व सरस्वती देवी के पथकमल में प्रणाम करके भक्ति पूर्वक नेमिनाथ और जय की महिमा गाई है: - भगति करवि पडु रिवह जिन, वीरह चलनवि चालित भषि भाउ धरि इषि पनि सुमरे वि aces a कमल मध्य भगति पणमे वि उस नेमि सेतु रिसडु, पन मिस गंगापवि प्रार्थना और वंदना में कवि प्रारम्भ से लेकर तक एक एक तीर्थ और तीर्थंकर और प्रदेशों की महिमा का गुणगान करता है और परम श्रद्धा से काव्यांजली द्वारा नेमिजिनेन्द्र की प्रार्थना करता है। १- रचना अमय जैन ग्रन्था में सुरक्षित है देखिए हस्तलिखित प्रति पत्र २३१-२३२ | Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ad उस सोरठ देश को धन्य है जिसमें गिरनार है। जिसके शिखर पर प्रभु ने मि आसीन है शिखर को देखकर मनुष्यों के मन में उन्माद छा गया। वह शिखर कैसा होगा। जहाँ अतुल वाले इन्द्रियजीत जिन विश्वास करते है उस पर्वत को कम है। गह मनुष्यों का गिरनार समूह के शिखर पर चढ़कर अद्भुत गार करके परिजन पुत्र कला सहित यादव कुल के आभूषण तिलारूप नेमिनाथ को प्रणाम करेंगे जो दुखों का विनाश करने वाले है और क्लेश पी मल को हरण करने वाले है: धन्नु सोरठ देस प्रिय धनु गिरिहि गिरनार जासु सिहरि पढ़ ने मि जिणु सामिड मोडग-8TV महु मखुण्ड महिमा विसउ सुगड़ गिरनार जहि निवसह जिणु अतुल बल सो डुंगरु जगि साड रैक्य गिरिवर सिहर चढि अवजुद कह सिणगार परियणि-पुस्ति कत्तम पाभि ने मिकुमार गादव कुल मंडप तिलक, पमिस नेमि जिकिंदु जिण मण वारि सपंडइ, तोडइभव-इह देख - (१०) सम्पूर्ण संघ जिनेन्द्र की प्रार्थना करता है कि संसार का कल्याण डोनुत्य गान होवा है विधिवत पूना गान और श्रद्धा से स्तवन पाठ होता है कवि ने बीवन को मुखमय करने कातिप्राप्त करने और पापों को दूर करने के लिए ही इस बावरि की रचना की है। कवि ने इस रमा को दोहा में भी किया । अन्य कवि सभी को चावरि पढ़ने के लिए निर्देश करता है जो सार मुक्ति दिलाने वाली है: साक्य माविस भवति इह पारि सुह भावि सवि पूरितवारंड टिी कलिमा पावि मावि नबरि परि जिन मणि जे वाचरि पति नयणि 'जिसर मूरि शुक्र है सिव मुहू पार्वति (२९-३०) इस प्रकार ययापि काय की दृष्टि से इस रचना का अधिक महत्व है परन्तु रचना प्रकार मेय नृत्य गान सूचक गीत विशेष के आप में बरी के शिल्प को समझने में पात्र पहायता मिलती है।वरी का यह प्रति के चित्र को देखने पर और स्पष्ट हो सकता है। Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 基地地鐵A: Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रजन्ध संज्ञक काव्य रास और फागु काम्यों की परम्परा और कृतियों पर विचार करने के पश्चात हम हिन्दी जैन साहित्य के प्रबन्धों पर विचार करेंगे। यो प्रत्येक रचना अपने में एक प्रबन्ध होती है परन्तु जैन काव्यों में प्रबन्ध एक बैली के उप में भी व्यवहत होने लगा था और फलतः प्रबन्ध नाम से काव्य लिखे जाने लगे। यद्यपि प्रबन्ध नाम से अधिक काव्य नहीं लिखे गए। अद्यावधि इस प्रकार की प्रवृत्तियों व नामों के दो ही प्रध रचनाएं प्राप्त हुई है। प्रबन्ध काव्यों की परंपरा बहुत ही प्राचीन रही है।संस्कृत अपप्रेश आदि भाषाओं में बहुत पहले से प्रबन्ध मिलने लगते है।हबईधन के बाद चौहान, चंदेल, प्रतिहार, परमार, सोलंकी आदि राजपूतों के परस्पर संषों से वीर रसालक वातावरण की सृष्टि हुई और वीर गाथात्मक काय लिखे जाने लगे।इस काल में इस प्रकार के वीर गाथात्मक काव्य दो प्रकार के मिलते है: (२) प्रबन्ध सन इन प्रब का विषय अध और मेन था। अंग्रेजी के प्रसिद्ध विद्धवान काल में अपने में 'धनमा पर्याप्त वर्णन किया है। बीर रखपुस्तकों के उदाहरण डेमबन्ने विष है। इसी प्रकार के कुछ प्रम में वीरता व प्रेम,ौर्य या रोमांस में डूबे हुए मिलो - बाबा के गीत, बीसलदेवराम, पृथ्वीराज राय मादि एसी ही रचना है। गुजराती का काम दे प्रबन्ध 'या आकिल का समराराब" Men imamsa -Hore and Agri-worship : hty Burlyle Page 152 - देखिए पमनाथ रविकान्हदे प्रबंध। ४. आपणा कवियो।बी०का आस्त्री पु०२१-२२॥ Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदि इसी प्रर के प्रबन्ध है। पुरानी राजस्थानी प्रबन्धसंज्ञक रचनामों की परंपरा बहुत सुरक्षित रही है। वीं शताब्दी में इस प्रकार के विमल प्रबंध (सं० १५६८) माधवानलकाम-कन्वला प्रजन्ध, सदय वत्सवीर प्रबन्ध गादि अन्ध इसी प्रकार के है। प्रबन्ध रचनाओं के शिल्पके निश्चित तत्व नहीं है। यो मानव कल्याण और जीवन को प्रेरणा तथा आनंद की ओर ले जाने का उद्देश्य तो प्रलोक सतकामा का होना चाहिए पर मोटे रूप में जो प्रमुख नात प्रबन्ध काव्य के शिल्प मैविक्षाई पड़ती है उन बचन इस प्रकार है:(.) प्रबन्ध गदः, अपना पदरा में की हुई सार्थ रचना को कहते है। विक्रम संवत् h ०० से १५०० तक अनेक रचनाएं हमें प्रबंध नाम से मिलती है यथा- कुमारपाल प्रबन्ध, प्रबंध चिन्तामणि. मोज प्रबन्ध आदि। (a) इन प्रबन्धों में नीर पुज्यों के चरित वर्णन होते है।अत: इन काव्यों में सधवीर दानवीर दयावीर और धर्मवीर तथा ऐतिहासिक व्यक्तियों का चरित्र चित्रण होता है। . (1) उत्साह वर्णन भी इन काव्यों में होता है। (४) प्रबन्ध काम-वरित, पवाड़ी, प्रबन्ध, रासो, छंद, मलोकों आदि अनेक नामों से बर्षित होते है जिनमें द वैविध्य होता है। (५) प्रबन्ध काय विशेष रस मधान रहना होती है जिसकी रैली भोजपूर्ण या प्रवाह पूर्ण होती है। (8) प्रबन्ध काव्य का बुटत ज्यात या ऐतिहासिक होता है और वह एक श्रृंखलाबद्ध रचना होती है। (७) परिवनायक धीरोदात होता है उसमें श्रेष्ठ पुरूषों के सब गुण विद्यमानब होते है। 10 में अनेक बार और काल्पनिक कथाएं भी होती है। (९) प्र काव्यों में विविध वर्णन होते है। (..) उसमें जीवन के प्रति एक संदेश होता है। - - - _.. देखिए गुजराती साहित्य ना स्वम्पो- म०र० मजमूदार पृ०७१। Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वस्तुतः ये सामान्य बाते प्रबन्ध कायों में होती है। पस्तु रचनाओं का नाम ही प्रबन्ध हो गया। जिस तरह का बंध कृतियां हमें उपलब्ध होती है उसी प्रकार प्रबन्ध संशक रचनाएं भी। इन स्वनाओं में उक्त प्रबन्धमूलक प्रवृत्तियां का मिाह कहाँ तक है यह ठीक ठीक नहीं कहा जा सकता पर इतना अवश्य है कि प्रबन्ध शैली में रचे हुए कुछ रा और फागु काव्यों में गथा- भरतेश्वरबाहुबली रास, संवधान्डब वरित राम, नेमिनाथ गए समरारा, जिन पर इम पहले विचार कर चुके है, इस प्रकार की माल्लियां पूर्णतया देखने को मिलती है। इस प्रकार परवर्ती कायों में प्रबन्ध किन्हीं विशेष सीमाओं में नहीं बंधा हुआ दीख पड़ता है। प्रबन्ध अब्द किसी भी पट्य रचना या विशिष्ट प्रकार की पत रा के लिए प्रयुक्त हो सकता है। स्वयं मानीत या स्तवन भी अपने में प्रबन्ध होता है।वास्तव में रखनाओं को सुलनात्मक दृष्टि से देखने पर ऐसा लगता है कि इनके लिए कोईलबाणिक तत्वविशेष नहीं मिलते। साधारणतः ऐसी रचनाओं में कुछ इस प्रकार के जीवन्त तत्यों का समावेश अपने आप हो जाता है। प्रबन्ध शैली पर लिी गई, रचना में अपेक्षाकृत एक विस्तार भी होता है। उसमें कवि को अपना काव्य कौशल प्रस्तुत करने और अपनी अनुभूतियों की वधार्थ अभियना करने का प्रा पूरा अवसर रहता है। वैविध्य की दृष्टि से भी इस प्रबन्धों का महत्व है।दी के स इस सानों का विस मिलता है। भाष ही काब्य माँ तथा लियों के ममें भी इन प्रबन्ध श्यों की सार्थकता स्पष्ट होती है। कुए मन्थों में ऐतिहासिकता, दान वर्णन ग वर्णन चरित वर्णन माविका विवेचन मिलवाया बबली या अन्य मों में प्रबन्ध सक्षक रचनाओं का भाव दिखाई पडा है। इस प्रकार के शिल्प लिएकवि किसी निश्चित संदेश आदर्य तथा अन्य जीव सातव्यमा पल्ट को जुनता है प्रबन्ध की सबसे बड़ी विशेषता यही है कि वह सब प्रकार से अपने में पूर्ण हो तथा किसी निश्चित उद्देश्य से मानव मबाण का संदेशदे सके। Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिकाल की इन हिन्दी जैन रचनाओं में के शिल्प सम्बन्धी कई रचनाएं मिलती है परन्तु प्रबन्ध सजक रचनाएँ बहुत ही कम संख्या में मिलती है। अद्यावधि इस दिशा में सिर्फ तीन ही रचनाएं उपलब्ध हो सकी है जिनमें (.) त्रिभुवन दीपक प्रधनुध ( सुदन मेठजील प्रबन्ध (6) परत बाहुनही प्रबन्ध प्रमुख है। त्रितन पर प्रबंध इस परंपरा की महत्वपूर्ण कही है। यह रबमा मयावधि उपलब्ध लामम ममी रचनाओं मौलिक तथा अतिनुतन है। परतबाहुबली प्रबंध की प्रति प्राध्य है। इतिहास प्रथों तथा प्राप्त टिप्पणियों के आधार पर आदि के धरनों दुबारा ही हम कृषि की माग कापारिचय प्राप्त कर सकते है। प्रबंधक कृति (त्रिभुवन दीपक प्रबन्ध एक वृहत रक्षा )जिसमें कवि का महा काव्यत्य, विवादानिकता. आचार्य-जीवन-बारिल आदि धमी का वर्णन निखर उठा है। यो प्रबन्ध हामान्य बत्वों का निरीक्षण करने पर लगभग सभी सत्वों का इस रचना में हमें सम्मानित मिलता है। त्रिभुवन दीपक प्रबंध के रचयिता किसी जयवर मूरि सूरि जी अपने समय के प्रतिष्ठित कवियों के थे। संस्कृत और प्रात मी कवि की प्रतिमा असाधारणसी। कविने और प्राईबहिर हि मोहन्दसूरिाि अंचल म पट्टर की पत्नी प्राप्त करने के बाद करियर में वि. RHIT मगर स्कृ न विवामि की रमा वि में स्वयं अपना परिणय दिया है। प्रकृया और १- वैशिष नाब प्रबनाता (२) मिनदीपकप्रपाकामालक भगवान माधी - -पुरात्व दिर जयपुर प्रहपुरविड - पूर्वर कवियोःमोहनलाह देखाईभाग प्र . -२| ४. कमियरधीमान रिः श्री बार नापि वा विषय मला विमा पीरोष रियापषियका : पिपुवनदीपकप्रबंध-पु.॥ Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत साहित्य में सूरि जी की सेवाएं अधिक है। कवि का महाकवित्व उन्हीं प्रथों के आधार पर देखा जा सकता है। कवि के संस्कृत अन्धों में १२ हजार श्लोकों का प्रसिद्ध मन्न्ध उपदेश चिन्तामणि (सं० १॥२) है। इसके पश्वाह कवि ने सं० २ में धम्मिलचरित महाकाव्य और जैन कुमार संभव नामक दो महाकाव्य लिले। जैन कुमार संभव महाकाव्य के अन्तिम श्लोक में तो कवि को घरस्वती इवारा बरदान देने की सूचना भी मिलती है। इन ग्रन्थों अतिरिक्त खंजय तीर्थ इवा विशिका, गिरनार गिरि इवात्रिंशिका महावीर निवा िविका (म संस्कृत) आत्मा व बोधकुलक (प्राकृत) धर्म सर्वस्व आदि कृतियों के अतिरिक्त उपर चिंतामण्यवरि, उपवेश माला व चूरि, पुष्प मालावरि, क्रियागुप्त स्तोत्र, छन्द शेखर नवतत्व कुलक अजित शान्ति स्तवन आदि ग्रन्थ भी कवि ने बनाए है। इस तरह कवि अपने समय के विद्वान व्यक्तित्वों में से थे गह स्पष्ट है। जयशेखरपारि मे विक्रम में संस्कृत में प्रबोध चिन्तामपि काव्य रचना यह काव्य मक काव्य है। अत: इसी काव्य प्रभावित होकर कवि ने प्रस्तुत कृति त्रिभुवन दीपक प्रबम्थ की रचना की है। त्रिभुवन वीपक प्रबन्ध की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वह एक उपक काव्य है। जिसके पकत्व पर हम भागे विचार करेंगे। कवि का प्रश्न का वा का है कि सम्भवतः उनका बस वीं और १५वीं खानी की स ही दिली मा होगा क्योकि उनके कमाई का बीया समय - met मिलन दीपक प्रबन्ध कर लिटा गया यह बात निश्चय पूर्व की नहीं कहा जा सक्दा पन्त क्योंकि ४९ कवि प्रपोष मियामपि काय लिया और क्योकि प्रमोध किन्बामनि एक प्रकार त्रिभुवन दीपक प्रबन्ध पी सकत पक १-बापीवस्तबरविरं विनवीन स्वर्व निर्मित गों नमार सयब महाका प्रबकाया:- त्रिभुवनदीपक प्रबन्छ । Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्य है अतः यह काव्य सं० १४१५ के बाद में ही लिखा गया होगा। इस काव्य के शिल्प पर प्रबोध चिन्तामणि की छाया भी स्पष्ट परिलक्षित होती है। कवि ने इसे उसी आधार पर ही लिखा है। अत: कवि का रचना काल १५वीं शताब्दी के उत्तराईघ का प्रथम चरण ही रहा होगा। जयशेखर के सम्बन्ध में जाति, स्थान आदि गत सूचनाएं कुछ मिलती नहीं। वो यह अनुमानतः कहा जासकता है कि कवि का जन्म गुजरात में ही हुआ होगा। जयशेखर की शिष्य परंपरा भी बड़ी सम्पन्न थी जिसमें धर्मशवर सूरि की जैनकुमार संभव काव्य की भाषा टीका और माणिक्य अन्दर मूरि की उत्कृष्ट गमकृति-पृथ्वीचन्द चरित अत्यन्त प्रसिद्ध हैलो हिन्दी म साहित्य में गद्य काव्य के पद्धव की सूचक है। कृति का नाम त्रिभुवन दीपक प्रबन्ध या परपईस प्रबन्ध भी मिलता है। श्री मोहनलाल देसाई ने भी इसका नाम परमहंस प्रबन्ध दिया है। कवि ने त्रिभुवन दीपक के साथ प्रबन्ध बन्द क्यों लिखा है इसका कारण बहुत स्पष्ट हो नहीं बताया जा सकता परन्तु यह अनुमान किया जा सकता है कि सम्भवतः प्रबंध शैली में लिसा गाने, या विस्तार में लिखने अथवा प्रबन्ध कम में मक काव्य का सफल निवड करने के लिए ही रखा हो। वैसा कि पहले कहा जा चुका है। गों प्रबन्ध नाम से कोई काव्य प अथवा इस सम्बन्ध में कोई विशेषता स्वतंत्र में नहीं मिलती। स्वयं कब ने पी अन्त में से प्र हा है। प्रारंभ कवि जब सब बोताओं या पाठकों को सावधान करता है वह अन्धका भाष सविवार लिखा पल इस नाम से अधिक संगत माम मिभुवन दीपक प्रबन्ध या परमहंस प्रबन्ध ही लगता है क्योंकि एक को कृषि या काव्य है। दूसरे इसी त्रिभुवन एक राज्य वर्णित मा इसके अतिरिक्त कवि ने प mama १-भाषण कवियो। श्रीकामावी-2011 जैनबरायो-प्रथमपाम.१४-श्री मोहनलाल देखाई। ४. मिसनबीपकपट प्रबन्ध पाप पर समुहहन मंच-सिवन-दीपक-प्रबंध. T४८ श्री माची। 4- सावधान बरस बरडि विवा-बहीबड़ी Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमहंस नामक नायक का चरित्र वर्णन किया है अत: यह काव्य का परमहंस प्रबन्ध नामकरण भी सार्थक ही लगता है। त्रिभुवन दीपक भी उतना ही सार्थक है जितना परम हैस हंस प्रबन्ध। क्योंकि इसमें भी तमसान्न त्रिभुवन में कवि ने दीपक जलाया है। निस्संदेह यह काव्य मानव जीवन को माया रानी के फेरे से बचा कर भास्मोन्नति को बहुत प्रशस्त कर दिया है। त्रिभुवन दीपक प्रबन्ध माह भटके प्राणी को सत्पथ की ओर सर करता है।यह मत की असत पर विजय है। शरीर की प्रवृत्तियों के फेर में पड़कर मन कितना गिर जाता है पर सत्प्रवृत्तियों मे वा पुनः रास्ते पर आ जाता है। रूपक यो पर विवार करने से पूर्व यही म काव्यों की परंपरा पर संक्षेप में विनार करना आवश्यक प्रतीत होता है। किसी बात को माने दृष्टान्तो वारा पुष्ट करने के लिए ही कवि मक पद्धति का सहारा लेता है। इस रूपक का सफल नियोजन एवं निगह उत्कृष्ट कला है। उपक अन्ध हिन्दी साहित्य में बहुत ही कम संख्या में उपलब्ध है। उपर काव्यों की परंपरा का उभव संस्कृत काव्यों सेही हुआ है। संस्कृत भाषा में इस प्रकार के काव्यों का श्री गणेश नाटकों में अधिक देखने को मिलता है।संस्कृत में मिलने वाले काव्यों की नामावली इस प्रकार है. संत साहित्य में- १०वीं बवाब्दी की उपपिनि भव प्रपंच था। कृष्ण मिश का • प्रबोध चंद्रोदय नाटक। यापाल का • मोडपराजय नाटक। बटनाव का . मन्य धोदय। अनंतनारायण रिका-माया विजय। बादिचन्द्र का • भान पूर्वोदय। पदर का . मान चन्द्रोदय । भानंदराम भी का. विद्या परिपान और बीवानंदन नाटक जयदेवर का . प्रबोध चिन्तामणि? आदि संस्कृत की Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३९ प्रमुख रूपक कृतियां है। प्रावृत में रूपक काव्यों का प्रायः अभाव है सिर्फ प्राकृत गाथा में कवि जयराम ने धर्म परिक्ता की रचना की। अपभ्रंश में सं० १०४४ में हरिण की धम्मपरिक्ता, सोम प्रभाचार्य कुरा सं० १२४१ का जीवनकरण संलापकथा, कुमार पाठ का प्रति बोध नामक प्राकृत प्रन्थ का अंश है जो धार्मिक कथावदुध रूपक काव्य है हरिदेव कृत मदन पराजय रूपक काव्य है। इसके अतिरिक्त नृत्यास्थान, तथा ज्ञान सर्वो नाटक भी प्रमुख रूपक काव्य है । हिन्दी साहित्य में रूपक काव्यों की परंपरा जैन कवि पैया भगवती दास (वीं शतादी) के चैतन चरित्र से ही प्रारम्भ होना श्री परमानंद शास्त्री जी ने लिखा है। परन्तु उससे बहुत पूर्व १५वीं शताब्दी में जो जयशेखर सूरी का प्रस्तुत काव्य उपलब्ध हुआ है वह पुरानी हिन्दी का है। अतः शास्त्री जी के कथन का परिहार इससे हो जाता है और इस इष्टि से हिन्दी रूपक काव्यों की परंपरा ३०० वर्ष और पुरानी सिद्ध हो जाती है। इस प्रकार यदि आधुनिक हिन्दी रूपक काव्यों के से यदि एक वीरा बींची गय तो उसमें आदि काल का त्रिभुवन दीपक प्रबन्ध, पैयूया भगवतीदास का चैतन चरित, तुलसी का राम चरित मानस और प्रसाद की कामायनी वादि रचनाएं एक ही डी में बाधी जासकती है। वस्तुत: आदिकाल में रूपक काव्यों की परंपरा का प्रारम्भ करने का श्रेय त्रिभुवन दीपक प्रबन्ध को ही है। यह प्राचीन राजस्थानी की भाषा की सुन्दर रचना है। १५वीं शताब्दी के चरित काव्यों मैं भी इसी प्रकार ब्राजिनवास का लिल एक काव्य परमहंस बरित मिलता है और इसी प्रकार यह परंपरा व रवीं शताब्दी में मोहविवेक रास, ज्ञान कलश चपई आदि ग्रन्थों के रूपमें रवि मिलती है। निर्गतः ११वीं शताब्दी से पूर्व की कोई यक कृति उपलब्ध नहीं है। ग्रेजी में भी इस प्रकार की रूपक तत्व प्रधान रचनाओं का उल्लेख मिल जाता है। यह परंपरा विदेश में भी थी। यूरोप के मध्यकालीन ब्रिस्ट भक्तों ने भी रूपक काव्य की रचना की थी कवि वैनियन का पिलीम्स Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६० प्रोग्रेस इसी प्रकार का प्रसिद्ध प्लेगरी काव्य है। १वीं शताब्दी के बाद गुजराती भाषा में भी इस प्रकार के कुछ काव्य मिल जाते हैं। जीवराम पट्ट कृत जीवराज बैठ नी मुसाफरी और प्रेमानन्द कृत विवेक बणजारा आदि ग्रन्थ उदाहरणार्थ लिये जा सकते है। वस्तुतः ड्रेस प्रकार के छोटे छोटे रूपक काव्य आदिकालीन हिन्दी साहित्य में मिलते हैं। रूपक काव्यों की शिल्पगत विशेषताएं संक्षेप में रूपक काव्य की मुख्य प्रवृत्तियों व विशेषताओं का विवेचन इस प्रकार किया जा सकता है: १० 3 ३ ४ ५० रूपक ग्रन्थ मनुष्य के गुण स्वभाव माचार विचार आदि अदृश्य और निराकार माव सजीव भारोपण करके उनका देहधारी पात्रों की भाँति वर्णन होता है उसमें उनका वर्णन लक्षण कार्य आदि वैसे ही सजीव होते हैं। इस प्रकार आद्योपान्त रूपकों की इस श्रृंखला को उपक ग्रंथी कहा जा सकता है रूपक को बलाबद्ध करने में कदि का काव्य कौशल दर्शन ज्ञान और वाग्वैदगुथ सभी का परिचय मिल जाता है। इन काव्यों में कवि का व अवलोकन और बारीक तथा परिमाणात्मक दृष्टि की अपेक्षा है। बायोपान्त पूरे रूमक का शिल्प निमाना बड़ा कठिन कार्य है। स्मक काव्य में रस की निष्पत्ति भी सफलता से होती है। श्री मजबूदार लिखते हैं कि गमे देवा स्पाला पत्र निर्जीव मुडदा करता कांइक बदशक्ल पण मारो ने भी भरपूर को बेहरो वधारे मनोहर लगे के तेमज भा महा में पन है जो मरस रूपी जीव नथी तो तत्व ज्ञान आपला erstreet केवल fagaा ने स्टालो उपजावनारी है। इस प्रकार उपक काव्य में विविध विल्यम बाहों का ध्यान रखना पड़ता है। त्रिभुवन दीपक में कवि ने इन सभी बातों को लगभग सुरक्षित रक्खा है। sos area में अमूर्त भाव मूर्त रूप में चित्रित किए जाते है। हृदयस्थ मनोवेगों Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का इन्द्रियों द्वारा साक्षात्कार या तादात्म्य कराने के लिए कवि इन रुपक कानों में रूपक और उपमा का सहारा लेता है। रूपक काव्यों की रचना का उद्देश्य पाठक और श्रोताओं को अन्तभावों और मनोवेगों की ओर आकृष्ट करते हुए उन्हें आध्यात्म की ओर उन्मुख करना है। क्योंकि रागी और विषय वासनाओं में रख आत्माओं पर वैस कोई प्रमाव अंकित नहीं होता|अत: उन्हें अनेक रूपों एवं उपमानों का लोभ दिसाकर त्वं हित की ओर लगाने का उपक्रम किया जाता है। मक काव्यों की पुष्टि परंपरा प्राचीन काल से ही आई हुई जान पड़ती है परन्तु वर्तमान में जो उपमान उपमेय म साहित्य उपलब्ध है उससे उसकी प्राचीनता का स्पष्ट आमास मिल जाता है। नाट्य शास्त्र की इस उक्ति-अवस्थानुकृतिनी-ट्य समं दृश्यातयोग्यवे इस सूत्र के अनुसार म अथवा अक की व्याख्या के आधार पर कवि रूपको इवारा पानाओं का मूर्त स्वम प्रस्तुत करता है। परन्तु क्यों कि सका औचित्य श्रव्य क्या में अधिक होने से विशाल रूप वाले ससक काव्य लोक प्रिय नहीं हो सके। क्योंकि सपा तत्व रंगमंच पर कम ही जमता है और आध्यारोपों के अंगों आरोपित वास्तविकता प्रयोग की सलता बाधा पवाजी पूर्वभाव अफ्निबत पात्रों का कार्य करने में असमर्थ हो जाते है। अत की घटना इम्ब की अपेक्षा अन्य और क्या विश्व अनुकूल पड़ती है। इसे देखकर कवि जबर भूरि ने प्रयोग बंध का मार्ग छोड़कर काव्य बंध का मार्ग लिया जो अधिक मत बन पाया है। +- अनेकान- ४ किल औल, ११५ सक काव्य परंपरा-श्री परमानन्द , जी . १५९-२५॥ २ नहीं - गुजराती साहित्यमा स्वमो. इवारा मजमूदार: पू. १९८६ Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पार काठगों का दूसरा नाम प्रतीक काव्य भी है। कवि कुछ निश्चित मनोवेगों गा मनोभायों को पात्र मान लेता है और वे मनोभाव आद्योपान्त पानों का प्रतिनिधित्व करते है। इस तरह पूरे काव्य की ख्य संवेदना इन्हीं प्रतीकों के आधार पर पूरी होती है।वस्तुतः इन प्रतीकों का म मनुभ्य के हाव पात्र, गुण अवगुण, प्रवृत्तिमा, शारीरिक अंग, आदि अनेक तत्वों को दिया जासकता है और ये प्रवृत्तियां जीवित पात्रों की भाति वस्तु का वहन करती है। इन मोवृत्तिमूलक पात्रों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि ये स्वभाविक होते है तथा लौकिक अर अलौकिक दोनों स्मों में इनका निवाड होता है तथा के असत् तत्वों का पराभव दिला पानवता को विजगिनी बनाने का संदेश देते है। इस प्रकार इन रुपक काव्यों का बड़ा महत्व है। उपक काव्यों पर प्रकाश डालते हुए श्री रमणलाल शाह ने लिया है कि आमा रुपक कारे महत्वच नी प्रस्तु ए ख्याल मा राखबानी होय हे के बरेक पात्र न वर्तन अनी भाषिक खासियते प्रमाणे ज बतावत्रामा आठ होय अटले के आचित्य पूर्ण मालेतन मेज मेनी मोटा मा मोटी सूजी, मोटा मा मोटी सिद्धि अने मोटा मा मोटी मोटी होय है। उसक औचित्य पूर्ण झालेखन परावई नश्री होत ते वायकाफी वाजक ने रस पडतो मधी होठोमिक प्रभी भी धारे पात्रो अने म अनी क्या वधार लंबाती जाय, सेम तेना कविनी सौटी यथारे। अरनेज वी सावत्यवाली पर अंथीयोन बन कर है क कपई कार्य मनाय है। सामान्य व्यवहार मा संसार सागर मानब अहेरामण, जीवन वाय, काल गंगा इत्यादि अब्द उपको आपने प्रयोजीन सीमा परन्तु जैक माली स्यक, ग्रंथीनी वाडी कृष्टि क्वी होय है बिभुवन दीपक प्रबन्ध नी क्या पर भी बधारे स्पष्ट रीत समार। Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६३ जो भी हो, रुपा काव्यों की परम्परा में त्रिभुवन दीपक प्रबन्ध एक महत्वपूर्ण सोपान है जो परवर्ती उपक काव्यों का उद्गम कहा जा सकता है। पिन दीपक प्रबंध: क्या और विश्लेषण - संस्कृत भाषा में जब विद्वानों एवं इविधवादी लोगों के लिए इसी कवि ने जब प्रबोध चिन्तामणि लिखा तो उसे जन साधारण के लिए भी संभवतः एक मुन्दर काव्य प्रस्तुत करने की इT हुई होगी और उसी भावना सुधार और आध्यात्म प्रचार के लक्ष्य से प्रोत्साहित होकर कवि ने यह काव्य जन भाषा या पुरानी हिन्दी में लिखा है। काव्य में कती- ने संस्कृत म्फा काव्य की लगभग समी जीयार विधाओं TT किया है। इस काव्य के स्पक तत्व और क्या तत्व का विश्लेषण इस प्रकार किया जा सत्ता है। क्या का लौक्किम में सफल नितीह है।भुिन एक विशाल राज्य जिसका राजा परमईस । परम ईस के अत्यन्त सुन्दरी रानी। नाम येतना।दोनों अपना समय जीवन आनंद से बिताते है। एक बार राजा परमहंस माया नामकी सुन्दरी पर मुग्ध हो गया। चेतना को जब यह ज्ञात हुआ तो उनको रोका और उसका कारण बताया कि माया से जीवन और राज्य की हानि होगी।परन्तु राजा जी मन गए, माने नहीं। राजा ने यहा तक कि माया के सौन्दर्य के पीछे ना की उपेक्षा कर उसका त्याग की कर दिया। फलतः राया संकट में पड़ गया मावा केसाथ भटकने से उसका सबस्त त्रिभुवन का राज्य बला गया।राजा विवश होगा और पकोटा राज्य काबा नगरी बसाकर रहने लगा। इस काया नगरी का समस्त कार्यपार मन मंत्री पर छोड़ कर विश्वस्त हो गया है परन्तु मन दो दुष्टता का प्रतिरूप है। मन अमात्य की बात मानने से राजा पर भारी व्याघात और सैक्ट आ जाते है। उसने राजा पर मानक करके उसको कारागार में डाल दिया, राज्य का स्वामी स्वयं बन बैठा। समस्त राज्य का विनाश कर दिया। राषा परपस को अब अपनी प्रियरानी वेतना की सारी बाते स्मरण होती है। राजा को बड़ी मात्मगलानि और पश्चाताप होने लगता है। Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६४ पन अमात्य का परिवार भी बहुत बड़ा है। उसकी दो सवती पत्नियों का नाम प्रवृत्ति और निवृत्ति है प्रवृत्ति का पुत्र मोह और निवृत्ति का विवेक । दोनों घोसे से निवृत्ति और विवेक को बाहर भेज देती है और अपने पुत्र मोह को राजसिंहासन दे देती है। मोह अविदयानगरी का शमन कसे लगता है । अविल्या नगरी मोड स्वयं की ही बसाई होती है। मोह की रानी गीली दुमति होती है और उसके तीन पुत्र और तीन पुत्रियों होती है काम, दुवेक और राग पुत्र और मारि (हिंसा) अधृति और निद्रा ये तीन पुत्रियो। अपने उपयुक्त आवास खोजते निवृत्ति और उसका विवेक प्रवचन पुरी में आ जाते है और इभ और दम नामक वृक्षों की पीतल हाया में जाकर बंदना करते है और अपने भविष्य के मुष दुख को पाये है। कुलपति अपनी पुत्री पुपति के साथ विवेक का विवाह करना चाहता है उसने प्रबचनपुरि के स्वामी अरिहंतराय को प्रसन्नर लिया और उससे कार्य में योग देने की प्रार्थना की। उसके आदेश दोनों का विवाह हो जाता है और विवेक के कार्यों से प्रसन्न होकर अरिहंत राय उसे पुन्य रंग-पाटम का अधिष्ठाता बना देते हैं। साथ ही विवेक को यह भी समझाते है कि यदि तुम उनकी पुत्री संयम श्री के साथ भी विवाह करको दो रओं का पूर्ण निार कर सकोगे। परन्त विवेक दो पत्नियों के परिणय कला नहीं जा पीर धीरे विवेक वैभवशाली होने लगा। उस राज्य विस्तृत और व्यक्तित्व मक होने लगा तो प्रवृत्ति का मोरईची करने लगा और उसे अपने अनुचर बैं इबारा यह ज्ञात हो जाता है कि अब संभवतः विवेक मेरे राज्यपर मानव करेगा वो बहस हो जाता है और अपने बड़े कई मकान को अन्य रंग पाटक पर आमण करके विकको अध में हराने का मादेशवे देखा है। काम का प्रयाम HTS मानकारी सबको काम बना डाला। सब कामुक हो गए।विवेक को पी मा पाइने उसी समय निश्चित यिा कि काम (वाना ) बचने नवल एक ही मार्ग है और वह संबन श्री का बरमा विवेक रबी समय प्रवचन पुरी लीवरम को पांच माना है। पर शायरंग नारी को काम जीव लेता पर विवेक निकल जाना , विवेका काम की विजय अपूर्ण रही। Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उघर त्रिक प्रक्चन नगरी में संयमत्री का पाणिग्रहण कर लेता हैसियमत्री के वरण में विजेक को तप एवं संयम से अजेय अस्त्र शस्त्र मिले। साथ ही उनकी बड़ी असाधारण सेना भी। मैन्य की सहायता से वह मोह पर आक्रमण र देता है दोनों में भारी यइथ होता है। मोह बुरी तरह घायल होकर परास्त होकर मारा जाता है प्रवृत्ति पुत्र शोक विह्वला हो जाती है और मन को भी पुत्र प्रत्य की बड़ी पीड़ा होती है पर अपने दूसरे शुभ विवेक के समकाने से वह ध्यानरूपी रा सरोवर में निमगन हो जाती है और विजितेन्द्रिया बन कर मुख प्राप्त करती है। विवेक स्वयंअपने पिता मनको पीउण्देश देते है। इधर चेतना रानी का कार्य भी उल्लेखनीय होता है।वह परमहंस रागा को कायानगरी और माया के मोह बंधनों से मुक्त करा पुन: उन्ने त्रिभुवन का राजा बनाती है। चेतना रानी अनेक बों तक अज्ञात वासिनी बन कर रहती है और अब उसे यह जान हो जाता है कि मोह पर विवेक की विजय हुई तो वह पुनः विवेक से सहायता मागती है और इस प्रकार महाराज परमहंस पुनः त्रिभुवन का सानन्द शासन करने लगते है। अन्त में कवि भरत वाक्य कहकर काव्य समाप्त करता है। संविष त्रिभुवन दीपक का था और मक बत्व यही प्रस्तुत कम काव्य में स्पक तत्वों का निर्वाह कवि ने बहुत ही अलता से किया है। प्रत्येक पाली किक प में भी क्या सूत्र को पूर्णतया पुष्ट करते है। मध्युगीन हिन्दी साहित्य में तुलसी ने रामचरित मानस में कवि ने मानस पक को स्पष्ट किया है कि मी बाध्यात्मिक निर्वाह और मनोवृत्तियों के प्रतीक बहुत सफल नही बनो। परन्तु कवि ने की कोलि की कि बलोकिक मावि ठिाकर काम या सत्य सत्य को परम पुष्ट किया है। आधुनिक काव्य में जाकर प्रयाद की कावामी भी हो सकतत्व की पुष्टि मिलती है दुधा यनु, मानव या पानों साथ मा लण्या काय, निवेद, संधर्व, मानन्द नादि मों मानही मनोगों की प्रतीक बोना स्पष्ट होती है। कास्य को देखकर या लाना कि वह कवि ने बैन कवियों के संस्कृत में लिइन्हीं ग्रन्थों प्रभाव से पक पति को अपनाया होमा। Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६६ जयशेखरसूरि ने परमहंस, चेतना, माया, मोह, प्रवृत्ति, निवृत्ति, सुमति, संयम, श्री, अरिहंत, काम, राग, द्वेष, आदि सभी प्रतीकों का सुन्दर निर्वाह किया है। कवि का यह औचित्य और पात्र-संगति उल्लेखनीय है। लौकिक रूप में क्या तत्व का परीक्षण करने पर भी यह बहुत स्पष्ट हो जाता है कि कवि ने कथा सत्य के माध्यम से ही इतनी आध्यात्मिक सरस कथा बनाई है। कथा तत्व के इस विकास को हम आगे के पृष्ठ पर रेखा चित्र दुवारा स्पष्ट कर रहे है। रेखा चित्र द्वारा कथा का क्रमिक विकास देखा जा सकता है कि किस प्रकार नायक अधिकार रेखा से दूर होता गया और कितने प्रयासों के पश्चात् उसे पुनः त्रिभुवन पुर का राज्य प्राप्त हुआ । रूपक के रूप में भी यह स्पष्ट किया जा सकता है कि किस प्रकार परमहंस दुष्प्रवृत्तियों से प्रेरित होकर कष्टपाता है और जब तक संयमश्री विवेक और चेतना की सहायता नहीं पा लेता उसका त्रिभुवन राज्य विनाश की ओर अग्रसर हो जाता है। उक्त रेखा चित्र द्वारा स्थिति बहुत स्पष्ट हो जाती है। प्रारम्भ में कवि ने मंगलाचरण में परमेश्वर व सरस्वती की वंदना की है। काव्य स्तवन से ही प्रारम्भ आसंगीत में डूबकर कवि ने राग धन्यासी में यह मंगल लिया है: पहिल पर नमी अलि अविचल विवि समर समरसि भीलवी इंसानि सरसत्ति मानस पर जो निर्मल, करड कुतुहल स वा सरहति रंगि कहर, जोगी जावई ईस पानी पानि सामिनी मन सरसति पारि इमी, मीठे मन वारि दीव १. त्रिभुवन दीपक प्रबन्धः श्री गांधी पृ० १ पद १-२-३। Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्रेसि माया का प्रवेश माया व परमहंस का प्रेम विध्वंस परमहंस का छोटा राज्य काया नगरी काम विवेक युद्ध पुत्रियां हंसी विध्वंस (मन की मन का साम्राज्य प्रवृति (पत्नी) निवृति (पत्नी) मोह (पुत्र) विवेक (पुत्र) दुर्ति (पत्नी) अमात्य मन का प्रवेश चेतना का प्रवेश परमहंस की सहायता विवेकी की सहायता से पुनः राज्य प्राप्ति ५६७ विजय) विध्वंस काम की मृत्यु प्रवृति व मन को विवेक की सान्त्वना पुत्र रोग दुवैष कोर्या म परमहंस राजा चेतना रानी त्रिभुवन विवेक का काम पर आक्रमण प्रवचनपुरी शम दम वृक्षद्वय काम के अनुचर दंग का प्रवेश विवेक निवृति संयमश्री विवेक परमहंस Pagaनपुर जूभूमि काम का विवेक आक्रमण निष्कासन विवेक व संयम श्री विवाह राजा अरिहंत राय पुत्री (संयमत्री) कुलपति त्रिमलबोध का आवास सुमति (पुत्री - विवाह प्रप्यरंग-पाटण नगरी (राज्य) fade का afteतराय के पास काम से डर कर पलायन पुन: राज्य प्राप्ति Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६८ कवि ने नवम रस की महिमा सरस्वती का आधार और रसज्ञ श्रीता सबका उल्लेख प्रारम्भ में कर दिया है.. देवी दीदी सरिस मई दिदा दसम-नारि करिसि विस्त मोहामण सा सरसति आधारि से घट-मुन्धि अजाणता, करई क्या कन्लोल पांघर ते परहरी, गिरिसिरि मंडई टोल नवमा रसबमरिसम परि आठि आणिउहि गुरुगा गुणि अगला मुडव डि मैडिउ तेहि सेवीता कवि रस विरस इकाइकिक जोड नवमउ शिम जिम मेवीइ 'तिम तियमी होडर कवि ने श्रोताओं को शान वर्णन करने की सूचना देकर मोह निद्रा से सावधान किया है: पुण्य पाप ते भइ टलई दीसइ शुक्ल-द्यार सावधान ते संभला हरमिस विचारकविने राजा परमहंस का स्वम वर्णन और मावा का सुन्दर चित्र दिया है। परमहंस के और रानी पैठना के मुखमय जीवन और आनन्द प्रमोद साध माया के मोहक स राजा को देखना का सिवान देसिपः. भयडी रे रममी मस्त मयगमनी देषी भूलर त्रिभवन धणी अमृत इंडि किम बिE TORY समुद्र की न नीला सरवर पाहन दय पर जला, परपि भारि क न सलसलाइ रवि पि वारसा पोरधारा पर धार किम अंगार १- वही पद। Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६९ नारि-भरिया राई सघला देस चंचल चमकई सवे सुबे ठामिठामि जइ माडिसि प्रेम, जाने दिवसि न देकडे मु आमे छोह भीति जावतरी, बेटी धन भोजनि बागरी गार त्रैह असतीन नेड, दैव देखाउइ पहिला ले माड बोलावइ पिनारउ मर्म प पूरड छइ गणिका धर्म वे जे आमइ पहन ई मिलया, रंक राव जिभते सति भन्था म करि अजाणि स्त्री वीमास स्त्री कहीइ दारी विक पास दिवसा दिसइ ए सीबली पुष ताप पिसिइ जिम सीयली मउ कि माणि हुं न कह स्वामी, बीया वार तुम्हारइ नाभि रानी की इस सिखाग्न पर भी परमहंस न माने। माया ने उन्हें नष्ट कर दिया, और राजा की मन अमात्य से रान पहिचान हुई। धन का कधि ने बड़ा ही चित्रात्मक वर्णन किया है जो विविध दृष्टालों और उदाहरणों से किया है। मन रहिइ दीघउ तर व्यापार, आपणच उतारित भार मनम हि संउ भईल भूलि, राज काज विणिकीधा लि चंचल बहुदिसि सपट फिरड, बीड कोहि नहीई करइ *त्रिम पूती है विसि धाड, मास विडी ने बाइ मुहि मीठळ मा विणल चीडि, मावासि नित माडा प्रीति আনতে মই জীী কাহী বং বালতি খন্থ चडित बींचायत बरडा हावि चूडर मिलि भारि माथि वेशानर नइ बार विवाह विवर मी कि विरलाल पुल मानिउ रानी बलई पबई मेरर उ सफलइ -(पद १९-३२) मन की रानी Altra मोर ने अविद्यानगरी की स्थापना कीवि ने असी अविद्या नगरी का पूरा वर्णन यिा है। वर्षन की मालकारिक्ता और विवात्मक्या दांनी है। जिसमें कवि ने अपने दार्शनिक विश्लेबल का प्रतीकात्मक परिवा दिया। 1- त्रिभुवन दीपक प्रबन्धः श्री गोपी पदका - - Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७० माडी मोहि अविधा नामि नगरी नियुवरा हियड़ा ठ अविद्या-नगरी गढ़ अज्ञान तुष्णा बाइ मीठु मान कदाचा कोसीसाठल प्यारि इगर्ति बहिती पोलि विषय व्याय वा आराम मंदिर अनुमा मन परिणाम कामासन जे कडियां पुरानि बउरावी बटा ते जावि भूरि भवंतर मेरी हुई रूढ बुधिते परि घरि ममता पाणी वालि कुमत सरोवर मियापालि निर्विचार निवet विहा लोक, थोडई उत्त्व थोडई शोक तिमि नगरी इकि धाई यस इकि तालो टेड टैक् स इकि गाइ इकि वाह दूर इकि जाफलइ रनणि सूर इfe नाव इकि कई माल वात करई के ठोकी माल (पद ६०) इस प्रकार अविद्या नगरी में मिथुया दर्शन मंत्री • व्यसन • अंग • निर्गुण संगति समा, नास्तिक बाल मित्र, अमई छत्रवर, जालस सेनापति, छदम् पुरोहित, कुकवि रसोया इस प्रकार मोहराज के असाधारण परिवार का क्रमशः वर्णन किया है। प्रवचन पुरी में अरिहंतराय का वर्णन सुमति और विवेक का विवाह होने पर कवि का नगर वर्णन करने में डूब मन रमा है। वर्मन में भाषा की वरलता, व गौरव और पदलालित्य इष्ट है: इन नगरि रितु राम नवरी सिरि दिई डाकपा स इन्द्र करई त सेव कोड से मई देव लाइन लामा पार अणि त्र सिरि धारिया ता मुक्ति मिट से बावार वनिमय त्रिगड हमर वा अनया बाजड़ भी हाथ का गलन पुन गयम प्रमाण धर्मच मह महल इति विचि नाम जिटलs काटा थाई यो सब कनक कमल ते पाली ब पीड़ पौवारी जागा डर, वह विवेक तक पाम असर (पद ८१-८४) Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७१ इस प्रकार कवि ने विरोधाभास में अरिहंत राय का नगर वर्णन किया है। त्रिभुवन दीपक प्रबन्ध में कवि ने काम का प्रभाव उसकी सर्वत्र विजय और अजेय स्थिति का बड़ा पार्मिक वर्णन किया है। पर साथ ही संभवन का वर्णन भी अत्यन्त उत्कृष्ट है: सिजल रक्बइ सविठु कालि, बंध-सरोवर नव सरपालि संगम-वन अति रुoियाम, पाद्रह देव विजयमा मण्ड सुकृत-महागटि पोलि बियारि, दान सील तप पाव विचार विरति न ars आवs कोठि सदाचरण को सीसा को डि मन परिणामास साहू वसई तिहो लील विलास श्रुतरस-कूचडी घर घर बारि, सदगुरु वाणी पायी हारि (पद १६४ ) विवेक की पत्नी सुमति का सौन्दर्य उसका आवास वर्णन कवि ने बड़ी कुवलता के साथ form है। कवि का आध्यात्मिक वर्णन माया की वरलता और प्रासाकिता अत्यन्त मनोहारी वन पड़ी है। सुमति रानी के परिवार का प्रतीकात्मक वर्णन देखिए: राणी सुमति करण अनुराग जेल बेटर तसु बबराय संवर समरस लक्ष्य कुमार बाल विबु पुन निवार मैत्री करुना इदित उस बेटी बढय स्पनी रेक मुहता वढि समकित लेखि, मस्वकार वा बल देखि उपशम विनय सरल संतोष, बिहु महाचर सधर प्रथोम बार पेद प्रतिमा नारही र केलि विवा बरत रही प्रायश्वित पुन पानी हरड शुभ ध्यान बरु छानउ फिरs ज्ञान- हार न बावरे पर सिरि गुरु उपदे सामाइक वारी वार, कर्म विवर नाहिं पडिहार किथा कलम सक्ल कोठार are अर्थ बहुत मंडा वाति व जमीर हा गुण ही Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७२ नाचई पात्र तिमान बार अविकत गुण गाई उदार बुछ दर्शन बसु सेवई बार वेनी ओक न लाभ पार (पद १७६) और इसके बाद विवेक के राज्य का समूल विनाश करने के लिए काम अपने परिवार के साथ चढ़ आया। दल बल सबल होकर काम ने सर्वत्र त्रिलोकी में विजय प्राप्त कर ली। ब्रह्मलोक में सावित्री की भीनता स्वीकार कर ली, गोपिका ने विष्णु को पराजित कर लिया, कैलाशपति को पार्वती के साथ बंधना पड़ा और गौतम भादि रिकियों को काम प्रभाव से उनकी स्त्रियों के बस में होना पड़ा। यहीं नहीं उसने चर अचर सबको काम पीड़ित कर दिया। कवि ने बड़े ही उल्लास में डूबकर इस वसंत रितु का चिन हमारे सामने खींचा है। कुछ आलंकारिक उदाहरण दृष्टव्य है: ईम कहता पहा रितु वसंत उल मनमा धमत सई हत्यि वधाइ जण मिसेस, आधी विवि बहिनर असेस पापात कलरव करई मट बरिज जय सिरि अरिध (इट) पय अगुडिय गार वरंग परकरिय पंच ईदिन तुरंग कृषि कल्प-महारथ बेमि बंग, सात व्यसन-पाया अभंग विस्था पियान रि-निनाद, दल मिलिय विद जब मरवारिक विषमभुत आसण पर इत्वि उन्माव-पितु किसन इत्वि मिल्लिक सर मल्ल पि विविभा, विपि करयलि कि शिम अमुमनात पतिरिव पुरुष शिपि विक्टवीरि, गाडिब नारि कोमल वरीरि ती सपाच मिरि, बिरामि, पट्टउसी पहर स्वर मामि मगध मन बावी, बधिर जिम कील करि घरति निय पती मिमि सीम, क -बापावली मन पावविवार किल्ब, रमिपि टोडर पायबद्ध शक्ति प सिंकबलुबारी अमरसि कति का नागिणी कर यि, यारं विलम मरी-त्वि नारी रवि नर पास, बल्ली परिवडिय रहिय मस Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७३ रमतूर व जीडं सवम सुक्त मार्गगई डीलि जे लई लक् जी बीस पुरंदर न ममाई से कई रंग जिम रमणि पाइ ते पढाई देवा बागम पुराण जे कला बहुत्तरि चरई जान जे सिधि वध करता वृद्ध गंग, ती गोरी कीधा भब्य भंग (पद २२५) इस प्रकार काम का पराक्रम, सकता, और शौर्य का वर्णन कवि ने किया है। काम ने यही नहीं समस्त ब्रहमांड में इलबल मनादी । कवि ने बीच बीच में नारियों का are fasa stee faलाप का वर्णन गीत पद्धति से किया है: कथरीयड़ा रे काई तुम्हे पलउरे पल मदमकुमार किन जावी मिलठ वयरियड़ा रे . कवि ने दोहा का वहा प्रयोग किया है। उक्ति का अनूठापन और काम का वर्णन करने वाले कवि के कुछ उत्कृष्ट दोहे देखिए - पाटू साठी कावडा अन नवरंग घाट, ए अम्ह कन्हई मागि प्रेम नितु उचाट दीव जड पोवई हुई पोकळं वह काधि, काही करी लागा परडा साथि कम हय कम वूडला, नामोदर का ए अम्ह कह (इ) समगिरि स्त्री लोग न पार बाल बालि कि डालने त परच चोल कन्ड मागिति नितु उस मोठ जिवि बाई रंपी हुई विवि माई राडि, बरि वाहिनि हामी महीन एम डि (पद २५८) कवि ने विवेक का संयमी के साथ विवेक का दाविग्रह कराया है। विवाह की तत्कालीन रीति रिवाज, नारियों का मंगल मान, उत्साह और उल्लास का प्रायाकि वर्मन करता है। विवेक को परी तथा में अत सिंह दमन, अग्नि ज्यायान राचावेव मादि कार्य सम्पन्न करता है: ...... Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७४ वाजि अडा दूर अनेक, नारिकरई जवारणी प परिणीति रे वीर विवेक, साजन हुआा उतावला ए कहि कदम वाघ विकराल कर्हि व पि हुताशन जाल गिरि उपार्ट दिन आधार कडि चालते करवत चार डील पंचदल कर निषेध, कहा व साथ राधावेव व्रत राजा मनावर कुमारि सभा परी जब जेवन हारि राम दुवे उर मरता बीड ने उठाया त अक्ल अवी पांच महाव्रत पाचर मेरु, बेड वातनउ म करिति रु भुज बलिवीह उपाहि भार तप करवतनी बाळ धार गावीय परिवह उपसर्ग बोल मोटा ववरी करई क्लोल साहस लाइ ते सीमई हनुवा राउत पायक रवि महा ---- हेठी दृष्टि जीवन ध्यान, उरथ मुक्ति मी संधान तत्व कला विधी मन वाणि ईम परि राखावेच वरवानि देवी उमाही बाल बायु केहि चक बरमाल पीहरि बृहती कथा बलीवाडी मनि पूगी की। (३२८) विन विर म प जण दीवई बीड़ा जब ए लेड लगन वाधावि पनि तेहा बहू भाि प्रवचन-पुनि वचामीप, माई का प वेलिडि मोरडी ए पकवाने परिई ओरडी ए फिर एबम अमीर नितु करई जिन इली जिसकी मुमनिधि हमीर (२२४) कवि ने इन वर्मनों के अतिरिक्त वर्ष भी बड़ी कला के साथ किया है। Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७५ युद्ध वर्णन के स्थलों में पदलालित्य भाषा सौष्ठव और अर्थ गापीय आदि इन्टियों मेबड़ा उत्कृष्ट है। कवि का भाका प्रवाह उल्लेखनीय है वि निर्वेद और आध्यात्म वर्णन में ही बल नहीं है अपितु विवेक और मोह के युद्ध के श्री रि ने बड़े प्रभावशाली चित्र बी :. असिवर मलकावई दल समहावा मुमति कता भावह कीया कटकटच अरिहंत कुरा बाजि मान लईति पोर अभिप्रह कारक किरई योग अंग गयबर गुडिधाई पुमा भाव उठई सवार, रथ सहस्त्र मीसँग अदार (४०) साला जिम दल माफल्या गयवर गयबरि मरिसा मिलिया रथि रख पाबक पायकि बडई छोडळ सरिस मिडइ रळि लोहन पहबई कोसि राउत पुरई रोपि पाहा फलकई बीज निसिया, मुरमा मन तीण इसिया पायक पुढई सबी ग. ती उपरि अपरना हेज धिर पूरि रम साश्या गाई तिर पुटा पापा-ममधाइ ली दुरंग मन शाहिना राई, परवा नाईटी बहा (0) बाई मिडई पेडबई बम, चाईबई विषई अंग ईमा पई नई मा पाई रोबिई विकक्किा बोलई बबई mms हथियार मोड पाठवा रति-नियेक पुरवि गालवा ब्रहम इषि बलका नाम मोर नरिद विवेकि इपिउ पानी बिपि नीर बर्ष कई बीर समय मैदा पर उम्परावृष्टि मिटि गोलगर (1) विककी विजय पर मोर की प्रड पर उसकी की प्रवृत्ति अनेक प्रकार से बच होकर विलाप मती है। काम ने उसकी बनीय वा को भी बड़ी क्सम वापी Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७६ प्रदान की है। वर्णन का वैचित्र्य इष्टव्य है: मोहा ओई की किया गयुग प्रवृत्ति लेइ संपत्ति मोहा कृषि कारपि अहि टालिया य बाप vaई मेटउ मरइ विडा र गमि वास बापण बास पाई किम होइ बाद का केसर भूम चरई र रमि तिमिर पुति बरि भड मेगन तू गबर, पदरत हिव परवि (४.५) और अन्त में कवि प्रवृत्ति को बनाता है। बेतना विक की सहायता से परमांक सेज को पुनः त्रिभुवन का राज्य दिलाती है। कवि के प्रवृत्ति को विवेक के दो भरत बाक्य के भने कान्य की समाप्ति इन ब्दों के साथ करते है:- मोर का बंदोह होड़कर परमेश्वर का अनुबरण बरो, सब मत्व ग्रहण करो, गारमायो का विनाश कर पाच इन्द्रियों को जीतकर समरस प्रहम करो, और एक कार में मम की स्थिर कर परमानंद की प्राप्ति करी: पाइ लागिय पाइ लामिय बलि मुविवेक शिक्षा दि इसी तुम्ही वासापरिधि मैडिर परमेसर अबरत मोह र अदोड नि, समता स्थळी पावरल, पमना स इरि प्यारि मी पाबा जिला बेला मारत पूरि लिपि at बिर बारा पा परमानंद (16) न कवि की कुन्दर माग ने जिनो कवि की अनुमय प्रौदडा और माशा स्पष्ट होती है। इसियों बारण निम्नाति है। (1) बेगार नइमार विकराल मिस भिबार लाल - (४२) ON बिग्निबहावाबाईनिम विष शिडळ धाड मारि विजोडबोडी वारि - (2010) (प्रिय विमारी रात चारीली काजि निवारी -बीवर माला, म दीवाली रितुद - (११.) ४ नीपि गुम वारि वसा, करि कुल मेरय , बाकि सिवाल विहीबाजीह नही है बाल- (१-९९) Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७७ (५) बलथर बुडई जलण न दाइ मड वाइ मर डा मिल रहा रवि उग्रगामि अंधार टलई पास पनी न साहिषि छलइ मेवारि(स) द्विध गयंद पलाह, घट किम नाद धन ने पाइ हिम पडवइ जिम बापड माक, मफ भाग कि बराक इस प्रकार कवि ने उपमा पक, उत्प्रेक्षा, उदाहरण, दृष्टान्न, म वर्णन, मपन्ति विरोधाभास संदेड, यमक लिव आदि अनेक मलबारों का सफल वर्षन दिया है जिनके उदाहरण अपर दिए जा चुके है। काय ली और दो की दृष्टि से इस रचना का पर्याप्त महत्व है। कवि ने इस वैविध्य को की लता से स्नोया वास्तव में प्रबन्ध चिंतामभि का पहा भाग मात्रा दौर तयध इन दो कमों में विभक्त है। मानात्मक में अबीर, वउपर और दहा है और उनके अतिरिक्त पद्धरि बरमा, मरम्ट दुर्मिला और गीति नाम के छव दिखाई पड़ते है वो प्रख्या में अधिक नहीं है। और अपन में जूनी गुबराती या प्राचीन राजस्थानी में आने वाले छंदों में वस्तु छंद प्रमुख है। इसके अतिरिक्त सम्पब, सरस्वती पवल, तलद्वारा पक और मित्र मात्रा का प्रयोग भी कवि ने क्यिा है। योग भाग में बोरों जैसे सभी दुपद या कई कड़ियों पद तथा काण्ट और पक का मिय मिलता है। हायबंध पूरे काय ' भामही है। मम भाम' बो बोली बार है।' प्रस्तुत काव्य में सरस्वती धवल और पवल के देवीद है। बोहा भी इसी बस मिलो है। विकासको अन्वत बहुधा उपजातिय मिलता है। पहली का उल्लेख भी की बला' पडली बनाने की विधि कुछ परवीना और प्रवत्रा होती है।जिस प्रकार प्रस्तुत काम के १८.. और बरगी .. ५.. ... ... .. इन परमो बित्य मन्त्र का प्रबना है। १- प्राचीन कामालाला की दीपा...ब, •n-10 माम वियोश्रीमाली,.. Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस कवि ने अक्षर मैल में काव्य रचना की है। परन्तु यह स्वमसि उपजाति से ही स्पष्ट होती है। कृति प्रबन्ध है अतः सामान्यसा में मात्रा मेल द, इहा, "पाई घरमाल, पदमी सवैया आदि देशी छदों का प्रयोग है। जयशेवर सूरि क्यो कि असाधारण कवि थे अत: बहाने अवरमेल दो म प्रयोग किया है जो साधारण कवियों के का की बात नहीं है।नयों पर विस्तार से विवेचन प्रस्तुत प्रन्ध आगे छेद सम्बन्धी अध्याय में किया जायगा। कहीं कहीं कवि हिवबोली के अन्तर्गत गत्व डी का भी प्रयोग किया है। कवि की इस गद्ध शैली का वह उदाहरण इस प्रकार है: तिवार पूठि मोक्साकिर, स्वामी, स्वामी तर आयसपामी, बालिग विवेकरा विस्तारि विश्व भस्याउ तत्व चिंतन पट्ट हस्ति दूर आसपि पीयाइ पीवाई बाधा परिवार। ये जि काड प्रायड वेह रईबह बस्न दान बनिबार, तत्व क्या अंबाबाई का बलंब लालाई, माधुषा इदम गहगाइ इष्टदोषी तर दोडण, पापि पुश्य रंग पाटन।' इस प्रकार द, भाषा, पान, ली, काय, अर्थ गौरव और पदलालित्य ज्या संगीत लामम ममी इन्टियों से त्रिभुवन दीपक प्रबन्ध उत्कृष्ध काव्य है। कृति प्रसादा है और निर्वेद उसके मूल में कुल १दों में कवि ने इस प्रको लिखा आदिकालीन हिन्दी जैन साहित्य में ऐसी कृतिया अपना पूर्व शिष्ट्य रखी। - परसबागबली प्रबन्ध: 385 Hiमादी एक प्रकारबाइबली-प्रबन्ध मिला है। यह काव्य पी प्रवन्ध लीलिया गया है। श्री स्वर्गीय देशाई मोहनलाल ने भी इसकी सूचना दी। या अन्य सा होगा यह तो क्या कठिन है परन्तु की भाषा पाव और उपलय उदयरमों के आधार पर इसकी परीक्षा की जा - 1-मिगुवन दीपक प्रबन्ध पब १२९.१५ मुझकवियोः श्रीमोहनलाल देसाई-भाग प्रथम-१०३०-३२॥ Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सकती है। इस कृति की प्रति कुछ वर्षों पूर्व श्री देसाई को पाटण मंडार से उपलब्ध हुई थी परन्तु इस समय इस कृति की पति प्राप्त नहीं है। अतः इसके रचनागल लेखक समय स्थान आदि के विषय में बताना बहुत कठिन है।वस्तुतः इसके आदि भाग और अंत के कुछ उद्धरण यही प्रस्तुत है: उताल बौपाई पढय जिपेयर पायन नित से अंब केरो स्वामि बहनीस भादित नाम अपना इरगति नाति नामि परमादेई वर बीच अनोपम, नायल गछि गुमाय श्रीगुण समुद्र पूरि गुरु गिम्या गहि अलि अपयशवाय नास पाटि अप जि दिवाकर शाबर जिमगंभीर श्री गुपदव सूरि गुमि पूरित समरथ साडसचीर वास सीस वीर रस पि श्री गुप रवगह मूरि रिसवर जर अंक माना पाप पलाइ इरि मादि गरि काबीनवी, ब्राझी बमवर बीपि भरडवाहु वली लो पबाटो पुक पानि कीजि (-) उमस उद्धरण से स्पष्ट है कि कवि ने इसे पवाडो का म बिया खाली के इस रित प्रध को कवि ने लोक पापा अम प्रचार के लिए लिया होगा। छचों का विध्य भी इसमें होगा, ऐसा स्पष्ट होता है। बाहुबली और परत का करिव कवि ने बरपावाली शिक्षा है। कृतिस बिडीव बारकबापती देशप और उसके बही बनने का वर्णन विwी बन जाकर भी उसे हाथी से उतरने व अई त्याग का उपदेश करती की या कई और क्या परम्परा में कवि ने भरतश्वर बाहुबली रा ) बाने का म लिया है। वनपाशी परमता बीर Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सती भषा सामि सार्नु बीरा गयवर मान कहिनि एह का उतरो अनुलिवल जिम सवि कर्म दहिनि बिहिनि तपउ प्रतिबोध मुगीन डिई उपमन बसि जात जुगार बंधव गाइ बाइ ५ हूंब बसामिल मान बग्य तब मान उपतु अभरे कीर उETE मयी सरपि नलनी पाति मिठो बहुली नाड नाभि परदेव्या रिक्स वियर पुनंदा मुर्मगला राणी भरत बाहुनाति भी बारि, मती शिरोममि बापी ए ममता अमि पाप न लागि अनिल सुक्ष अनंत श्रीवरत्न मूरि ईम बोलिश्री आदि नाथ जयवंत (१९७) इस प्रकार कुल १० बों में लिखी यह कृतिभरत और बाकी के जीवन का एक उत्कृष्ट बरिख काबपामा प्राचीन राजस्थानी है। इस प्रकार इन प्रबन्धों में क्या का सत्वही अधिक है। क्योंकि ये असायरता मिटाने और धर्म प्रचार की दृष्टि में लिये गए। परन्तु त्रिभुवन दीपक प्रबन्ध बस काव्य ऐसी स्थितियों में अपवाद ही को शा। वस्तुतः धर्म के दार्शनिक पक्ष पर लिये ग्रन्थों के अतिरिक्त और धर्म के मूल तत्वों के वर्षन के अतिरिक्त तानि विषयों पर देवी प्रमों की संख्या कम है परन्तु यह कहना संपवत: बहुत ही नहीं देने जैन मंडार भी बंद जिनमें मारी चक है। दोष होने पर लौकिक रमली किक दोनों विषयों पर जैन काय उपाध होग। इस प्रकार में प्रबन्ध काव्यों कीका में आने वाले काय हो बनेक उबारमा सवारिस, प्रनवरित, विद्याविकास पवाड़ी आदि पुराण विराट कामपंपी गई मावि पर उनका विवमन विभिन्न काम मों केस किया वाया। पररवर बाहुबली रास. नेमिनाथ का गौर सारा राज सकायों के स उपसोडे। चिन पर पिरले पृष्ठों प्रकार डाला वा बुम होने पर और अधिक प्रकरना अवश्य प्राप्त होगी। - Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८१ पुदर्शन से जल प्रबन्ध प्रबन्धो की इसी श्रृंखला में वो बतादी के उत्तराईध के अन्तिम दक में एक महत्वपूर्ण की गुवन सेठ शील प्रबन्ध है। रचना १५०१ की है तथा रचनाकार श्री चन्द्रभूरि के कोई शिम्य है। पाटन मंडार की प्रति से लिपिबन्ध की गई इसकी एक प्रतिलिपि (सं० १५७t) की राजस्थान पुरातत्य मंदिर जयपुर में सुरक्षित है। अद्यावधि, यह प्रबन्ध प्रकाशि है। स्वर्गीय देसाई ने इस कृति की सूचना कई प्रतियों की सूचना गुजरात के पंडारों लिए दी है।' प्रस्तुत प्रबन्ध ४. कड़ियों में पूरा हुआ है और जैसा कि इसके नाम से ही स्पष्ट है यह काम्य भुदर्शन मेठ के शीत की उत्कृष्ट कहानी है क्या चरितमूलक क्या प्रधान काव्य है। रील का जीवन में क्या महत्व है। शील मनुष्य में उत्कृष्ट गुणों का समावेश करता है और यही भाव जीवन की कुन्ची है। यह एक ऐसा तत्व जिसकी साना मनुष्य को देवत्व प्राप्त करा देती है और सुदर्शन सेठ ऐसे ही परित नायक है जिसकी परिव जैन समाज में मान भी बाद माना जाता है और उसे शील का देवता माना जाता। मुबीन पेशी की या परम्परा अपच मन्त्रों में भी मिल जाती है। लोष कापावा काब्य पान प्रविधि प्राप्त कर चुका है। काब्यका सा बाम का सरस वस्तुतः काव्य की दृष्टि रकमा इनी पात्यपूर्व नहीं लगी । कवि का मम स्वत मात्र या भाग को अधिकाधिक विकशित किया। परि मूलक भास्वान काव्यों की दृष्टि से मारना बड़ी महत्वपूर्ण वस्तुतः यह काम कवनात्मक या न्य। अपनीलमबन्ध पाप गोंकित किया गया है।इस गलों कविनेगुनीक की या प्रस्तुत की और शेष दो डालों को सुन - सिविल प्रमिला विमाप-राजस्थान पुरातत्व बिर जयपुर। नगर कवियो:भीमलालदेखाई। Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८२ की पहिमा, उसका तथा उसकी दीक्षा और संसार त्याग। कवि ने पहले ४जिनवरों की वंदना की है और फिर शासन देवताओं की और पश्चात् शारदा का स्मरण किया है। सरस्वती की कृपा के बिना वह नी मुदर्शन केशील का दर रेखा चित्रकार समा अत: यह उसने प्रारम्भ में ही स्वीकार किया : पाडिलू प्रपनीय अनुमिइ विवर अवीर पाइ शमना देवताए ती नाईटीस समरीय मामिपि भारदारा निधि सामाख्य भाग पान प्रति पए कवि हिकार उठा सरसति ममार गा वि सुबगिई मन्दिर बिक रास रवि जो मन रेमिह (1-2) विष में दर्शन सेठजील की क्या इस प्रकार : भरत के बीच की चम्पा नगरी में दधिवाहन नामक राजा और अपमादेवी उसकी रानी राज करो उस नगरी अवास नामक धनिक मठ के मुदर्शन मा पुत्र नरम मा बीरे धीरे धुर्कन सकल कला सम्पन्न होता गया और उसके बीवन में करते ही उसे पिता ने मनोरमा नाम पीलबदी सड़की पाणिग्रहमा दिया और उसे तीन गुन्दर और रूबी हुई। पैसे भी या परिधान अति के साथ राजपुरोहिला कपिल ने मिटा गाडी और प्रतिदिन न दोनों को मिलता निम्टवा परिवर्तित होडी गई। दोनों कि सबाटो विवा। कि इसी कारण विलम्ब पर पहुंचा। कपिल की पत्नी ने से इसका गरब पूछा गुणी मित्र की या न कर मारिणी उस पर शव हो गई और उसे गम भाव बाडने लगी।सुदर्शन खूब जिनवर मा बसेर पीलवान का जीवन बिताते। एक दिन पुरोहितलाके मार गाने पर पारिपीने से पर बुला करपात में काम मावमा प्रस्ट की। पुर्वन की डिमा। ने अपने गे नवीन कर उसके प्रति पाई। पनि नगर बाहर महोत्सव थापित की पत्नी ने न पुर्शन की पत्नी Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८३ मनोरमा तथा उसके सुन्दर पुओं को देखा और पन्ने पर उसको सुदर्शन की इस बाल का पता लगा। उसने दधिवाइन की रानी को यह सब बता दिया। रानी का गर्व जाग उठा उसने भी उसको भाने की प्रतिज्ञा कर ली। राणा को एक नगर के बाहर उत्सव करा कर स्वयं पर रह गई और पुदर्शन को घर बुलाया तथा सून गार करके उससे भोग की याचना की। पुदर्शन उस समय शीलात का पालन कर रोने किंचित भी विचलित नहीं हुए। रानी ने सय बदला और स्लिाई कि यह इष्ट व्यक्ति उसके अमापुर में धुम मामा । राजा ने उसे कारागार में डाल दिया, मृत्युदंड दिया और उसका काला मुंह करके गधे पर बिठा कर सारे नगर में चरित्रहीन कहकर घुमाया। पर कुली पर बढ़ाने का ज्यों ही उपक्रम हुआ, जिनवर की कृपा से ली सुन्दर पदम के सिंहासन में बदल गई। पुष्प दृष्टि होने लगी और सुर्वन के पीक का यह स्वर्ग कल गया। इस प्रकार सेठ मुईन ने अपने गीत को अन्ड बनाए रखा। वेष में बडी याकवि ने तीन सालों में क्या का विभाजन किया है और शेष दो बालों में साधना, याला महत्व तथा सुदन की दीक्षा का महत्व स्पष्ट किया है। रचना प्र की में लिखी गई है तथा कवि ने राज्य नगर, स्त्री, म, जन्म, प्रकृति, पुर, स्थाबील आदिबर वन विकास की इस्टि के रचना साधारण है परन्तु भाषा तथा वर्णन की प्रबन्धात्ममा पर्याप्त महत्वपूर्ण है। कवि ने धिा, कर्मवाव, अत, तथा वितिया आदि का महत्व पाया है। स्था का सून बायोपान्त काव्य में प्रबाह बनाए रखा है। खमा में वर्णित क्सिबा भी अपना महत्व रखती है। इस तरह इन विविध माँ कवि ने गुर्कन शीत प्रन्धको योगा। प्रवास था पापा के स्वरूप के लिए कुछ अन्दर स्थलोग उसे किया या प्रारंभ में ही कवि ने सुन के मोरवा दिया the माधी या निधनावी परि मारि निवारी नवरमाहि जिन धर्म सविई परि Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८४ जिन मंदिर जिन वरती, गुण माई गोरी मदास उत्सव करि पुरि मंडलिधोरी सुम वेला सुत जनमीउ जागि जड जडकार तेज धवन तेतनि, अश्वनी कुमार ।। (६-७) कवि के वाहन के नगरी काचित्रात्मक वर्णन प्रस्तुत किया है जिससे और तत्कालीन सांस्कृतिक तथा सामाजिक जीवन पर प्रकाश डाला है। भाषा सरल, age चयन लोक बाबा मूलक तथा प्रवाह पूर्व है। अप का प्रभाव एकदम हटा हुआ प्रतीत होता है। एक उदाहरण देवियः विप्र वेद बडू उच्चरईप वेदमिति बोलि सोना कि पीए, कुपन पनि डोल पैच शब्द निनाद कर निपोष निरंतर लोक सम वढि करड, नवि दीसि अंतर aftere जावा सहि,जस्थान ल्याबइ मंगल करणी कार ठरवि वो कुमर बंधावि परी वटा परिवाहि दी है अबला बाल सवर सुरंगी वा गडी चाल सुदर्शन का विवाह वर्णन मी कवि की शैलीगत सरलता तथा प्रवाह का परिचय देवी है। वसंत का वर्णन क्रीड़ा, पाणिग्रहण उत्सव मीर कथा के रूप का वर्णन कवि ने संगार के साथ किया है: चैत्र व कुलीयार, उम करि चार gars ने बाल पीर जिहां मवि राइ कुमा यो दिन बेसकीय मनि बीहावी afठकमा बोझ जन जनि जानी देठित बेटी गुण सागर समय नागरमा अति बंग agवर्धन परerator मीबाइ रंग इ परमीडिये परि मानीटर की गति र मर्म दिन कन्या जोइप जान उ Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८५ पुड उगूमि सुणी ससुर बाजइ दूर चटुटल लानित पालटइए, भोजन कूर कपूर विलि बढी सलीय वाढीव विविध ब रमई राम तू रमइव डीवडा माहि त विलसित वसुही विवहपुरे, सुख संपति संयोग कपिल की स्त्री को कवि ने किस प्रकार वृक्तियों इद्वारा तथा नीति पूर्ण उक्तियों द्वारा समवाया है। सुदर्शन की मित्रता में डूबे कपिल और उसकी स्त्री की नाटकीय संवाद योजना उल्लेशनीय है। पूक्तियों का प्रयोग कवि की इस वर्ष शैली ही रही है। एकादाहरण देखिए: १० २. वीडय विग्रह लागी बार मंदिर मोड कवि क पूछि घरनिई सामति स्वामी वात fafe नमतीन पोर्ट न हीय हिव हु बोलि विधा मूरख मुमुच मकार कह गडली गाय नमरि जस जा गति मानव न हीय अवरन इषि संसारि स्त्री की काल विम वाथि लंगि विकराल काम मुमृधा पारिमी का एक सरस चित्र देखिए:नारि वक्म सेठिs नीम, गोल कर जोडि पोत पुस्वार का ही अंगि अम्हार को ठि retas मोटर पण, नर निई मुवति काम बाहिर बोला पाठि जाइति माडरी मागढ arfafe afed मान ही उपान करि अमेरिकी वह इन कपिला करवस चार गर हरजन का नाजिर महिला जागर मर्म ठिन किसलय, कपिला माणु पत ( ५२-५५) 4 (३२-३५) fee का व्याये वरवीया, नारि स्वामी ई नीरव Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८६ अगा ने सभी नारी तिमुनि, पुहविई पुरुष ततंग तु माया पासित पाठीउप सई लजान्या अनंग तु तुता हरि बहिनडीय विहितु वालि सवीरत नही दावानल दहिसि रिसाव करे इणि परि मारग चालवीय, वावि वन उद्यान काम केलि गज रथ करइय, तेह नंदन उपमान (७४-७७) कवि का रूप वर्णन पारंपरिक है यद्यपि उसमें कोई नवीनता तथा मौलिकता परिलक्षित नहीं होती परन्तु फिर भी कवि ने सरल उपमानों के साथ नः शिव वर्णन किया है: अयारुपि किवि कवि भाति, जा मलि अवरन डीजे दाव ईन्द्रनि इन ही हवी इंद्र महिवी, नाग लोकि नहीं नारी सरिती Pagareरी नहीं वैतादि, विडी अधिक अपया उगाडी पहिरी रमि फली, कंबू इकु सिफाके माली ती परि उपहार पाए नेचर रपत्यणकार कंठ निमावर निष्टनि रेड साड सोनू जिसि उदेह पण ठीक बइठा भक, करि सोनानी वाटी मलकि माजी जाडी, अपर अमरी कीजि पाठी काने कुंडल फालि क्यूकि देवी सीतंबूकि मस्तक वा वेणी देह पाठठ पन्न जिमित प्रचंड # सिर .... दूर पत्र बाम सरप ★ हरिबोल बनाना, बाव गाव विकावावि वह माया मीठी मारs, निपुण नयण मेल्हि नीली बार धारा धोरण धारन बेठ, तेह भागलि कडु नरकिय मंडि (१००-१०४) कवि मेन की ली को सिंहासन में परिवर्तित होने की बात कह कर तीन डा समाप्त की है: Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८७ आमइ मेल्डमा अगि प्रहार, दरिसिन सोहि विगार सूली फीटी टू सिंहासन, तिही वह पूरी पदमासन शीलवंत सुदर्शन को श्रृंगारा गया और कवि ने असदृट्टत्तियों पर (काम पर) कील की विजय कराई है।सुदर्शन की विजय का वर्णन देखिए: महि पट हस्ती श्रृंगार जे पे राजन हाथी जाइ तेह ऊपरि सद्दरिति चढीउ, जागकि राजा चिठकी गडित मस्त कि मेवाडंबर हम पेंच शब्द वाजई वाजित्र पर्वत नाचि नचाबी भरहा मद जाणि सठि हावी फूल पर परा व्याराइ, अगर कपूरा तिही बहु उमेवार परि परि गूडी गांधीवारि, बधावई वाकू नरनइ नारि रगड़ी बड़ी निरक्षिई मनवणी, घन घन जा जेनई जननी अन्त में निर्वेद में काव्य समाप्त होता है और स्वयं सुदर्शन क्षेत्र निकाल कर दीक्षा ग्रहण कर लेते हैं कवि ने अहिंसा कर्मवाद और कील तप की सफल अभिव्यंजना और मुख्य संवेदना पर काव्यवड़ा किया है: ठामिठामि मंडप महाना, मेढा सोहि गया वापाणि कवि सविध समसप दिवा षि मान मिली नाग मारई मल सठीया रब्बी रंगि महू आनंमा <<« धर्म घोष दिदी, सर्व व्रत सामाइक की काम सवारी सिनह दीवा उत्सव की माहि नविमार रंगि जंग म कवि में डाल में लोक गीतों की ढालों के आधार पर एक टेक विशेष का Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रयोग काव्य को गैय तथा सरस बनाने के लिए किया है। कवि ने -मातडेऔर-बूझवि जाप अजाम-नादि टेकों का प्रयोग करके काव्य में लोक गान की संगीतात्मक नों का प्रयोग किया है जो काम को संगीत प्रथान बनाने में सहायता करती है। एक उदाहरण देसिप:. राई सवि बोलावीयाए, भारतडे कोई मालिसिट पाउ वा रीता विचि बाहिसिई एमालतडे तेहनी डिसिकार जितन करी निई जानीउपमाहतडे राजा जोइ अगि और शील की महिमा में कवि परत वाक्य के साथ काव्य समाप्त करता है: शील तनु महिमा अप, मालहतो चोर पृथ्वीपति कीध नुवारा इतकीन बइए, मा मई कीधा अपराध शील प्रमाणिई आपरिउए मा. लीपट श्री समक्ति विरति वारा इत अति करइए, मा. वे अभयात्रीव शील महा पाए मा० ६. विषइ अमूल्या कर बास तमि वाकि रविउध, मा. राम डउ रती रमि माउल महामए मातडे अर्नव मचिमि इस प्रकार कवि ने दोहा चौपाई और रास छन्द में पूरी रकना समाप्त की है। रमा का नाम से पुन धीर प्रशान्त वर्षमों की विविधता, होरपीबों की डाले और मामा की सरलता रमा की १५वीं शादी के उत्तराईका स्वस प्र ती पर है भाका रिक्या अधिक नहीं है, पर ा मन उपमा मक आदि अलंकारों का प्रयोग मा है। प्रति प्रतिलिपिकार ने पुम्पिका दे दी है: रिलिहिशीला समाप्त || ५.याँ काष वि पड लोत्री पत्ने लिखित Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८९ कवि ने प्रारम्भ में रचना को रास लिखा है परन्तु शिल्प के अनुसार इसका प्रबन्ध नाम ही अधिक सार्थक लगता है। १५वीं शताब्दी के उत्तराईध की कृति होने से भाषा की दृष्टि रचना का अध्ययन पर्याप्त महत्व का है। उक्त विलियम इवारा रचना का सापेधिक महत्व स्पष्ट किया जा सकता है। Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ II a II fa • काव्य Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरित काव्य जैन विद्वानों और कवियों ने जिस प्रकार संस्कृत साहित्य में विभिन्न काव्यों की सृष्टि की है उसी प्रकार अपने साहित्य की भी बड़ी सेवा की है। अपक्ष में रचित महापुराण, वरित य, स्तोत्र स्तवन की यही परंपरा अपारेत्तर काल में भी सुरक्षित मिलती है। दरित-काव्य उनमें से एक प्रशन प्रकार है। ये काव्य जैनाबायौँ ने जन सेवा, आवकों की प्रार्थना और धर्म प्रचार के लिए लिखे है। किसी आ पुरुष, महापुरुष तीर्थकर या १३ लाका पुरुष आदि के जीवन पर काव्य लिखना जन समाज को उसके आवों से परिचित कराना है अतः परित काव्यों की अपात्र में बहुलता दीर पड़ती है। अपज की ही भाति पुरानी हिन्दी (पुरानी राजस्थानी या प्राचीन गुजराती) में इस प्रकार की चरित्र या चरित संज्ञक रचनाएं अनेक मिलती है जिन पर हम इस अध्याय में प्रकाश डाली। इन कृतियों में किसी प्रसिद्ध पुरुष ऐतिहासिक व्यक्तित्व राजा, संचाधिप या राजमंत्री की प्रेरणा या उनका इने लिखाने में पूरा आग्रह स्पष्ट दिखाई पड़ता है। अतः उन्हीं के लिए इसमें किसी मंगल कामना से या किसी संचाथिप दान वर्णन या किसी अत्याती का मत वर्षन गा किसी महापुल का चरित वर्णन किया गया क्योकि जैन मुनि निष्कान पाचना करते थे। साथ ही अपने आश्रयदाताओं का अतिरंगना से वन करना ठीक नहीं समझते है, परन्तु फिर भी समरा रा. जिन बल्ल पूरि पुराण बन, बड़ राय, प्रादूराम मादि इस प्रकार की अनेक रचनाएं मिलती है जो इस व का अपवाद नहीं कही जा सकती। यड्यपि जैन कवियों ने पौराणिक मामानों मापार पर व्या संस्कृत काव्यों मापार पर पी लिया है परन्तु उनमें परित मास्यान रखना बसिरमा पन्द्रका कुमार पात परित, मीनदी का परिवरित, आदिनाथ पारित आदि अनेक मच नीकरों और महायों के बीवन पति है। इन ग्रन्थों में कवि ने क्या को माध्यम बनाया किलो बीकन की मिी उबात मावना मा नैतिक और सदाचार सम्बन्धी किटी उत्कृष्ट बात का जनता प्रचार कर सके। साथ ही यह भी स्पष्ट है कि Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९१ जिस प्रकार सिद्धों और नाथ कवियों ने गुरु महिमा, आध्यात्मिक प्रचार , रहस्यवाद और नदियों के विनाश के लिए अपने अपने मतमतान्तरों और धर्म के प्रचार के लिए माध्यात्मिक साहित्य लिखा ठीक उसी प्रकार इन जैन कवियों ने धर्म प्रचार, नैतिक निष्ठा और उपदेश प्रबार की दृष्टि से ही इन क्या का यों या चरित काव्यों की रचना की है। भी हो, इन काव्यों की भूमि में संस्कृत और प्राकृत की परंपरा अवश्य रही है। संस्कृत और प्राकृत की इसी परंपरा को अपश में कवियों में पूरा पूरा निभाया है। अधिकतर इन कामों में मास्याम मूलक, चरित्र वर्णनात्मक और उपदेश प्रधान काव्य ही अधिक है। अपर में इस प्रकार के चरित प्रधान व चरित मंजक कई काम्य मिलते हैं परम चरिउ, रिमे मि बरिर महापुराण भविष्यत्त-कहा, पाव पुराण, वयकुमार बरिउ, जसहर बरिउ, जबूस्वामी वलि, मुदसण परिस, आदि अनेक बरित काव्य उपलब्ध है। अपाशितरकाल में भी इस प्रकार की परितमूलक रचनाएं उपलब्ध हुई है।प्राविकाल में इस प्रकार की अनेक कवियो अभी जैन पंडार में देवी पड़ी है। जिनकी गेध होने पर परित अंशक अनेक कृतियों के उपलब्ध होने की संभावना है। चरित मा ति काव्य ऊम की इमोतक नहीं है। यह नाम संभवतः इन कवियों ने विषय के आधार पर दिया है। किसी महापुन या तीर्थकर वा विी ग्दात्मण-सम्पन्न रागा का पार्थ चरित वर्णन करने के लिय की इन कवियों में मा नाम दिया है। इन गव्यों की प्रवृत्थियों पर विचार करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि इनमें कथा बत्य की प्रधानता है। नायक के पुषों का वर्णन, उसका आई वरित, उसकेमा साप, उसके बौर्य और वीरता आदि का वर्णन क्ले में कवियों मे विविध प्रभावशाली घटनाओं और क्या पूर्ती की महावा ली है। इन यो वि व सभी पाकि, उनके कर्म सिधान्तों का सिवान है बस्तुका विध प्रकार काव्यों का मूल उदेश्य धर्म प्रचार था, ठीक वैसी ही गुड मिस बनानों की है। इस दृष्टि के जैन वनाएं धर्म प्रचारक रमा पर ही उनमें बस स्थल पर निरा। इन सरित मूलक बाबानों का मोका योग जीवन निमाल की इष्टि जो साहित्य मानव mstem afRT गाय या साहित्य मन प्रकार और भाषा निमाग Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरित मूलक ग्रन्थ वर्षमात्मक अधिक होते है। इन रचनाओं में घटना बत्व की प्रधानता है। कवियों ने कहीं कहींअवान्तर घटनाओं का या काव्य को उत्कृष्ट बनाने के लिए कुछ काल्पनिक आर्व-कल्पित घटनाओं का भी वर्णन किया है। प्रकृति वर्षन प्रधान रूप से न मिलकर गौष में उपलब्ध होता है। फागु काव्यों और बारहमासा काव्यों को तोड़कर अन्यत्र सा लगता है कि इन कवियों को प्रकृति वर्षन का अवसर ही नहीं ITI RAः बहुधा प्रकृति वर्णन जिवना मी वा है वा सब पारंपरिक व साधारण है। प्रकृतिवर्णन में इन कवियों में शो की नाम गला व वसंत वर्णन ही अधिक किया है। नाम परिगणनात्मक प्रकृति वर्षन बहुत ही साधारण माना जाता है। इस तरह इन कायों में महापुरुष वर्णन, संघ वर्णन, भक्ति वर्णन, तीर्थ वर्णन, उन्लास वर्णन, कीर्ति वर्णन, उपदेश वर्णन प्रधान म्म में और प्रकृति वर्णन त्या अंगारादि वर्णन गौष में हुए है। इसका कारण जैन कवियों व सामों की धार्मिक पर्यादाएं। परित काव्यों में कुछ चमत्कार मूलक तत्वों मप्राकृतिक तत्वों (सुपरनेचुरल पलिमेन्ट्स) का भी बन देखने को मिलता है। अपप्रचरित मूलक ग्रन्थों में भी इस प्रकार की परंपरा मिली है। इन घटनाओं को प्रत्याशित घटनाएं ही का गा कता है। उदाहरणार्थ स्थान के प्रड्यन परिव प्रहम इवारा अनेक सों प्रकट होना, विद्याधरों का उपस्थित होना, आकाशमान, काम करना, हराना,बक लेन विभिन्न देश में एकदम प्रक्ट होना आदि तत्वोंका निवार मिलता है। विदयाधरों और गानों पर विस्तार में वर्णन मिलता है। इन पति को कवियों ने बाद मालिका चरित विस्तार में वर्षिय होता है। बवापि मावा हक्ने निकायों पर प्रभाव डाला तिमी पर कवियों ने उनका मान राम, गु मावि दिवा और तिमी माता है कि दोनों नामों बकायमों . : सरकाररित काव्य, क्या प्रभान या परित प्रधान हो। और हदीसम्म कि इनों पार्मिक वनों का प्रा मिलता है या जमा रहदाय ही धर्म प्रचार होता है। निकायों में क्या का प्राधान्य है Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१३ में इन कृतियों का महत्व स्पष्ट हो जाता है।साथ ही कृतियों की संख्या और विश्य व काव्य स्मो का वैविध्य इनमें बहुत अधिक है। चरित मूलक काव्यों का कोई विशिष्ट शिल्प नहीं है। शिल्प के इन लाक्षणिक तत्वों का अध्ययन करने पर हमें इन काव्यों की वर्णन पद्धति अर्थ गौरव क्था लाघव और काव्य के सौन्दर्य आदि पर विचार करने पर लगभग वही बातें मिलती है जिनका हमने अन्य संड काव्यों और प्रबन्ध काव्यों में प्रचार किया है। इन काव्यों में एक बात विशिष्ट रूप में देखी जा सकती है। कि कवि नायक के उत्कर्ष अपकर्ष का पूर्ण ध्यान रख उसके उदात्त गुणों को चरम पर पहुंचाता है। यही इन काव्यों की मुख्य संवेदना भी है। अपात्र साहित्य की भाति इन चरित ग्रन्थों में चरित महापुराण पक स्थात्मक, मध पर्वबादि अन्ध भी आ जाते है। तीर्थकरों में नैमिनाप आदिनाथ, बार चक्रवर्ती, नौ बलदेव वासुदेव और प्रतिवासुदेव आदि चरितों के साथ साथ कवियों ने त्रिकठिक इलाका पुरुषों को भी रक्सा है। कालान्तर में शिल्प व विषय में परिवर्तन होने के कारण काव्य का नायक धीरोदात्त गुणों से सम्पन्न नायक भी बनने लगा और इस प्रकार इन चरित काव्यमों के क्या नायक महान पुक बौर्य प्रधान राजा आदि भी होने लगे। वृत्त तोड़े मरोड़े जाने लगे। इतिहास के सिद्धान्तों को भी ये जैन कवि अपने ही सिद्धान्तों के अनुसार निर्मित करने लगे। ऐसा करने से कहीं कहीं अमेवर ऐतिहासिक इतिवृत्त की उपेक्षा मी हो गई है। रामक्या, पंच पान्डव चरित, और महाभारत तथा कृम्म क्या में इस प्रकार के अनेक स्थल देखे जा सकते है। चरित मूलक ग्रंथों को सफल काव्य बनाने के लिप और जनता के समीप लाने के लिए इन कवियों ने क्या को ही माध्यम जुना। सरल भाषा और क्या प्रवाह काव्य को लोकप्रिय व्या सरन बनाने में योग देते थे अतः यदि इन काव्यों में घुमर्जन्म के कर्म-विषाक के कठिन से कठिन सिद्धान्त भी हो तो उनको सदाचार की दृष्टि से महत्व देकर मा साधारण ग्रहण करने को तत्पर रहते थे। डा. विन्टरनिस मे म चरित कायों के इस प्रकार के उद्देश्य का वर्णन किया है। इन जैन कवियों में शास्त्रीय पालों के अतिरिक्त जन भाषा और देशी भाषा में साधारण, असाक्षर Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९४ उनमें प्रेम कथाओं और प्रेमहत्वका भी समावेश होता है। इन प्रेम कथाओं में कवि ने अवान्तर घटनाओं और कल्पनाओं का रंग भर कर इन्हें सदाचार, उपदेश नीति तथा धर्म के लायनिक तत्वों से ओतप्रोत कर जन सुलभ बनाने का पूरा पूरा प्रयास किया है। वस्तुतः अपभ्रंक में भी बरित काव्यों में इसी प्रकार की धर्म क्थाओं का प्रणयन मिलता है वसुदेव हिंडी और समराइब्य कहा, पविश्यत्स-कहा, पड- कहा स्थूलिप कहा आदि अनेक उदाहरण दिए जा सकते है। चरित काव्यों में कवि को अलनायक की रक्षा भी करनी पड़ती है नायक के जीवन में जीवट डालने वाला एक प्रमुख तत्व प्रति नायक होता है । बयपि अपभ्रंश के इन प्रेम कथात्मक चरित काव्यों में नायक की प्रगति में बाधा उपस्थित करने, वस्तु में गति भरने तथा शिल्प को आकर्षक बनाने में स्थान स्थान पर प्रतिनायक का कार्य देखने को मिलता है परन्तु आदिकालीन हिन्दी जैन साहित्य के उपलव्ध इन चरित भाख्यानों में बहुधा बल नायक नहीं मिलता। जंबू-स्वामी चरित, नैमिश्वर चरित, प्रद्युम्न चरित तथा विराट पर्व जैसी कृतियों में (विराट पर्व को छोड़कर) स्पष्ट रूप से बल नायक तीन कृतियों में नहीं मिलते। विराट पर्व * नायक के कार्यों का विवरण है। प्रद्युम्न-चरित में भी क नायक तो नहीं परन्तु ऐसी प्रतिकूल घटनाओं का वर्णन अवश्य है जिनसे प्रति वस्तु का पूजन हो जाता है। स्थान स्थान पर विद्याधर, किन्नर आदि उपस्थित होकर वस्तु में चमत्कार व व सत्य की दृष्टि करते हैं। यमपि इनका अचानक प्रस्तुत होना और अदृश्य होना बहुत स्वाभाविक नहीं लगता। परन्तु उन परिकार पूर्व पूर्ववर्ण या पूर्व से जोड़ कर कवियों ने उन्हें स्पष्ट अस्पष्ट रूपों में बरित नायकों के जीवन से सम्बद्ध या कर दिया है। गतः वे कथा प्रवाह में अधिक अवरोह प्रस्तुत नहीं करते। eft काव्यों का प्रारंभ संपलाचरण से लेता है जिसमें बहुधा कवियों मैं निद या सरस्वती-कर किया है। इन काव्यों का विभाजन व में नहीं है, परन्तु हीं कहीं मा बादि विभाजन सूचक पद हैं। इन चार काव्यों में रस की इष्टि से बहुधा श्रृंगार, वीर करुण Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ही मिली है।यह इस कवियों की प्रतियों की बड़ी महत्वपूर्ण विशेषता है। अंगार रस व वीर रस अप्रधान स में वर्णित है। कवियों का मन इन श्रृंगार रस के बर्फी में केवल का काव्यों में ही रमा है अन्यत्र वीर और श्रृंगार गौण रूप से बर्षित हुए है। श्रृंगार व वीर का पर्यवसान गन्त में हो जाता है। शन्तु रस ही अंगी पाषा की दृष्टि से भी इस चरित प्रधान कान्गों की महत्वपूर्ण बात यह है कि पाषा बहुत सरल है क्या शब्दों के प्रयोग नावात्मक मा मात्मक है जो भाषा को सरस बनाते है। मामा भावों का अनुगमन करती हुई या अब्द योजना अर्थ की अभिव्यंजना व पदलालित्य में वृद्धि करती है। बरित प्रधान कागों में विशेषकर वस्तु एवों के अन्तर्गत अगदों व वाक्यों की बार बार आवृति भी मिलती है। जिससे भाषा में सरलता और प्रवास दृष्टव्य है प्रधान चरित में इस प्रकार के अनेक उदाहरण है जिन पर भागे प्रकाश बाला बागा। पूक्तियों का प्रयोग एवं सुभाक्तिों का प्रयोग भी मिलता है अत: भाषा और भाव अधिक सरस और चामत्कारिक हो जाते है यद्यपि धर्म निरपेक्ष मा लौकिक क्या वस्तु पर बहुत ही कम न काय मिलते है परन्तु इस सम्बन्ध में मंडारों की शेष अत्यनिवार्य है। इन काव्यों की भाषा साहित्यिक और लोक भाषा जब दोनों स मिलते है ठीक इसी प्रकार शैली की त मरत कौर गोड बाल या सर्व साधारण की है। बोललात की भाषा विपिन मूक्तियों के वर्णन की पति को परवी भाषा कवियो और कामों में नहीं विाईती। इस चरित काव्योल घस्नी, बों का आगाणे मान में विश्वास दीपा वर्मन, स्वप्न बन अपन बत्याहीम वार्षिक रीति रिवार मन्दिरों स्थानों, या वीर्ण माविका बन की बने में भावा । प्रारगियों की सामान्यप्रवृत्तियों और विशेषताएं पूर्ववती की परंपराओं का निTE करती है। वस्तुतः बरित नाम ग्रिी की शिकाव्य क म नहीं है। बामे मी साबीही ५वी बाइबी किन तक की कुरित क प्रमुख रचनाओं का विश्लेषण किया जायगा। Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९६ : जम्न स्वामी चरित। वीं उताब्दी में चरित काव्यों में सर्वप्रथम बंदू स्वामी चरित कृति उपलब्ध होती है। यह रचना बंदू स्वामी का परित आल्यान है जिसकी वस्तु में अनेक अन्तर्वथाएं और विभिन्न मोह मिली है। रचना प्रकाशित है। हिन्दी जैन साहित्य में चरित काव्यों का प्रारम्भ करने वाली सबसे पहली कृति है।) रचना का महत्व इसकी प्राचीनता की दृष्टि है। ययापि वीं शताब्दी की अन्य भाषा कृतियों की पाति इसमें भी अपारदों का पर्याप्त प्रभाव मिलता है फिर भी इस चरित मक परंपरा के श्री गणेश का श्रेय इसी रचना को है। काव्य की दृष्टि में कृति में बहुत का स्थल से है जिनका विश्लेषण किया जा सके। परन्तु विविध वर्षन, अचाएं और दो की दृष्टि से इस रचना का स्थान है। कृतिका रमा काल नी ताब्दी या १२॥ है। स्वामी गरिब (चरित) का रचनाकाल वर्ष कवि सिने कति के वीरया में अपना उल्लेख किया है: काइ धम्म सो अपि वान टु वयप पोई' पजिद पूरि मुवीस पब पवा हो शापीका गि रात दिवापि ये विविध माटीमा बारह वरमा कवितु नौपई छाप सोलह पिण्याविइरिय वामन मल Vबवधि पूरा का स्वामी गरिवी परन्तु कवि ने गाल र पुग्धिकारा लि है। अभय जैन बालब की इसकी प्रतिलिपि । रासही - -प्रारीवालीबीडी.का - पु.॥ ४.बडी. Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिलता है। परन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं कि रास चरित काव्य नहीं होते। कई राम चरित मूलक आस्थान मात्र होते है और कई चरित मूलक आख्यान राम, पर्व, पवाड़ो आदि शामिडित किए जा सकते है। कवि ने रखना का प्रारम्भ चौबीस जिनेन्द्रों और गुरु चरणों की बना करके की है। * स्वामी चरित पर अपत्र में भी मन्ध मिलते है। ईराम तथा का इस प्रसिद्ध नायक पर लिखे गए है।जयपुर के आमेर मंडार में बम्बू स्वामी बरित सं० १०० की अपक्ष की कृति प्राप्त है। जिसका उल्लेख कई विद्वानों ने किया है। यह कृति अप है या ११ धियों में इसका वर्णन है। इस रमा का लेखक बीर कविहै। अपच की इसी परंपरा में व बरित गव्यों की इसी श्रृंखला में अपाशतर रचनाओं कविधर्म व यह छोटी सी रचना भी उल्लेखनीय है। खनाल ४. छंदों में लिखी गई है। जहा तक सम्वृ स्वामी चरित के स्थान का प्रश्न है थानक अपने में उसमा हुआ है और नायक के पूर्व भवान्तर से सम्बन्धित राह षिक नरेश द्वारा महावीर वईधमान न स्वामी पूर्व जन्म स्पष्ट करते है कि किस प्रकार वह पदमरथ के यही शिवकुमार केस फिर विमाली केस में और फिर रिमोसी को मार नाम से उत्पन्न ना। बीपी कवि ने कई अन्यानों का वर्णन किया है। कवि ने बाडिक मोइस पर प्रकार बाला.. पुण्यावर मी सागर पुषि पद्ध भावीर व मिनार का परिसर बाझ प्रति मादीम पर पास शिपाय - - -- - भार डा sotor- + नी अभिनया m .m- परमानन्द म का । Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१८ उहापोह करोहि जाम पालि पव देवइ जा मँह कूमी सुरह रिधि या कीवई लेखाई इ चिंता कि सिवकुमार अधिरज संसारो भव निन्नास लेइसिट अम्हि संजय भारी (५० ४३ पद १२) ---- उसपदत्त सेहिहिं धरवि धारणि उरिनंदन होसि नाभि जंबुस्वामी तिहयण जापान उठी देव अलि डर विई नाचेई धन धनु महरा कुल एस पुत्त होस इस प्रकार कुमार का क्रम धारिणी और रिश्मदत्त के यही हुआ। बड़े उत्सव मनाथ गए। जन्म के पश्चात् डी जम्मू कुमार के विवार, पारवाएं जादि सब विभिन्न थे, अलौकिक में एक दिन वह गुरु के पास उपदेश सुमने पहुंचा। उसके मन में वैराग्य हो आया : अठवा इस जाम गुस्मासि प अहमचारि सो लिइ नीम भववास बिरा बोनस तु जान कम्मा मनुमबह जीवा घूया पाठवर तख विवारावय (१८) वाढ कयामों के साथउनका पाणिग्रहण हुआ। जम्बू स्वामी ने माता पितानों के आदेश पालन के लिए इस पर्व पर विवाह किया कि वह विवाह के दूसरे ही दिन दीवा ले लेना। लड़कियों के माता पिता को भी यह सूचित कर दिया गया। लड़कियों ने अपने श्रृंगार स्म और प्रथम मिलन के सुख के दंभ में जम्मू स्वामी को चुका लेना बाडा पर जम्मू स्वामी संयम की प्रति पूर्ति होकर बैठ गए। आठो कथाएं भी थक कर सो गई। ऐसे ही समय में प्रमय नाम का एक बोर ft और तालोदृवाटिनी विड्या लेकर वहां आया। उसने सबको विद्वया के प्रभाव से ला दिया और आठो क्यायों का इब्य हरण कर लिया। प्रभव के साथ उसले ५०० शिष्य थे। पर उसकी विशा का जम्बू स्वामी पर जो कि अभी Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१९ जाग रहे थे, व ध्यान मुद्रा में थे, कोई असर नहीं हुआ। चोर उनके प्रभाव से स्तंभित हो गए। ऐसी स्थिति में प्रभव उनसे बड़ा प्रभावित हुआ और प्रभव ने उनसे अनेक प्रश्न किए । प्रभव और जम्बू स्वामी का यह विवाद कवि के काव्य कौशल का उत्कृष्ट उदाहरण है: बाइ परणी मनयमि वन मडठ चोरे प्रभवउ चरि प मी अनमीय सोयणीय आमरणलीयंता ते सदिई धनीया टगमग जोवंता प्रभक्त गण हो जम्बू स्वामि एक साठिज कीजइ बिहुँ विज्जावह एक बिज्ज थंमणीय ज दीवह (२१) और उसके स्तम्भ व विदुवा मागने पर कवि ने जम्बू स्वामी के मुंह से निर्देड और असार संसार का बहुत वर्जन कराया है। जम्बू स्वामी का नारियों से विरक्ति arr श्रृंगार से परामृत होना और बेसार त्याग का वर्णन कवि ने विविध कहानियों, इष्टान्तों आदि से किया है: हिद हूं कहि गवि व लेवि पुष किस करेसो आठ परिणी सवियत्री नीछई व्रत लेसी पर्वत पुरस्त रमपि ए एम वि जनता सुमीय भाव भी करे सि एव अंतर नरई हो भव वि संरक्षिका बन प्रभवत पूछेई ब्रिट्टिव रवि माहीम इन्डिजलेटि करुनई दिलवाई बाइ बध्य किन किन डेस्टि दिवाल नदि बाबी ए को क्मि होइसि आढार नात्री एक मनि जन्द्र स्वामी कोई चितरा इम्हारा बम् स्वामि किम पति फिर पड़ लोबन मा जोि Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाप भरवि पईसुपुत्र बन्मि इणीजह इमपरि प्रभव पितर तृप्ति तिनि धीबेरि कीजइ अपडूजा मुहतणी य आस है तब छोडे मिठ इन अन्तर्वथानों और इम्टान्त्रों से प्रभव को वैराग हो आया। प्रभव की ही मावि आठों कन्याओं को भी बम्बू स्वामी ने अनेक अंतधाओं और दृष्टान्नों इवारा समझाकर संसार की नश्वरता बताई है। और इस प्रकार मागे पलिया और प्रभव और उसके ५.. शिष्यों के साथ बम्बू स्वामी प्रवग्या प्राण कर ली है तथा सब निवाण की प्राप्ति करते हैं। अन्तर्वधार: प्रस्तुत पारित काय या प्रधान है कवि को कहीं भी प्रकृति वर्णन, रितुवर्णम, मासि वर्षन और सौन्दर्य वर्णन का अवसर नहीं मिला। : काम साधारण या वर्णनात्मक हो गया है। क्याओं में मी तथाओं का अवश्य बन है। इसका भी कवि ने इंगित मात्र किया है।राजा श्रेमिक को बर्षमान का जम्बू स्वामी के पर्व भव का वर्णन, भवदत्त सामरवता शिवकुमार आदि के रूप में विविध स्थानों का वर्णन है। इसके बाद कवि प्रभाव बोर को भी जय स्वामी वारा विविध इष्टान्तों और धाओं मनुष्ट करता है और आगे निकल रात्रि में आठौं बाबोंप्रत्यको कवि एक एक पूर्व भव का इन्टा व क्या ना महिशी बना कर दीया पयास के लिए उन्मुख कर देता है। अन्याय बचा जैन वर्ष की प्रवाहित क्या है जिनका बीच सम्बन्ध जय स्वामी जीवन माण कन्यानों : निम्नति सवार : दिन कामि कि कला या अवरता करे विउ द शी मर्डकोष करत कि मगहर स्याउ हरिव कडेवर काग जिय पवायर निब-हाथी और कौर का दृष्टान्छ) बीजी बलम विना खि तिवि वानरि जिप पनवान बनि घरे मिल-लोभी वानर का दृष्टान्त) Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०१ बिदु समाउ बिसय मुख आदर किम कीजह ईमाल वाडा न तुम्हि सकिन न छीबई -वित बंदर की स्था) पीजी बला भगइविं नाह बाडेसिड तिमि बुकि जिम माणहार बहु खेद करे -सियार की क्या) उबर पडि तर बाग रवि कहीबई विली गई साब बात चंदू शामिन इमाई आसातवर सुचक जाम अम्हि इक करे मिति सिराइभइ जिम क्या हबकरे -लमिनाथ राजमती की क्या) आठइ कलबह बमवीय पंच मयाबि प्रमवर । माइ माप बेट मा बाम अन साधु सरीस (२८) इसी प्रकार विन्माली, कुलपुत्र, इविविध मधुर आदि का इष्टान्त तथा बीन मित्रों की क्या इन्टव्य है। ये सब क्याएं जैन समाज में प्रचलित है। कृति में शत रस ही प्रमुख रूप से निम्पन्न हुमा विरामय व रानियों सहित प्रभव के५०० शिष्यों का चरित प्रब करना मादि स्थल इसी प्रकार है:. जस भय प्रकइराउ जब भबनी नवयरीय ए यह प्रथा गाइ नर नारी बोबब मितीय माणे संपन्न राबरमषिमन गोरख को चौडा पूमिमन्द बहाव कोनी प्रमपीर मूक बदवसीय शरीर बह कोड पीजाइन म टु मीर बैग बलहरि रिलि किम कारन बाराम कारन मोठी पेन्टी मामा कोहि नवापार मा रिषि शिष पार न बानीवर (मन्यू स्वामी बसिबी तिरी) Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इणि कारणि वयराग तप जिप दीठ मेहता को अह मोर पिसामि नम्ह मलई अजिउ को मोह नरिवजा कित्ति श िओ दव परवमिहि दाम चिम पम पर सह पाद्रवर स्यता र ईड गोलोक पविय जन बम करो पूरी कृषि में प्रकार अर्थ माम्भीर्य, पदलालित्य, कोमलका पदाक्ली आदि का सौष्ठव नहीं मिलता। परन्तु पावाब दो दोनों दृष्टियों में कृति का महत्व स्पष्ट हैदोस में जम्बू स्यामि चरित में विशेषता है।कवि ने पूरे परित काध को ज्वनि के बर्मन ५ अपियों में वित्त किया है। प्रस्तुत काम रोठा दो लिया गया है और दूसरे भारत में रोला ब स्पष्ट है। लापम च ४ बरक परन्तु नी ही चरण मिलते है। असः इन दो कड़ियों का म सोरठा की भाति लगता है। परवेश्वर बाहुबली रास में भी इसी प्रकार विकस पद अनुप्रासमय कड़ियां मिलती। परन्तु र सोरी नहीं इन कड़ियों के विषम पदों में मनुप्रास नहीं लि मी पंक्तियों सोरठों की ही। सम्भवतः य कविता इस प्रकार की कड़िया मिल सकती है । म .mबोरगीमा माना। उबाहरण देखिए अग एक पडबारवि राम मोक्ताव पाठीव गुड मविपई पत्याई बसपा राज मीन बारीबई एव प्रावर गार नरनारी गोयब मिलीय पा राव झारि पडिारिई मोहावीर देविरार पेटाविधि उपाय मावि बी टिकावट गय नहीं है परन्तु मास की दृष्टि की रक्षा और उपयोगिता उतनीय है। मी मादी के जन भाषा Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०३ स्वरूप यह रचना प्रस्तुत करती है। भरतेश्वर बाहुबली रास की पति पुरान रूपों के साथ नूतन लाक्षणिक रूपों वाले शब्द भी इसमें मिलते है। • एतदर्थ रचना का उदाहरण उस्लेसनीय है : सोss पूनिमचंद जह अब कोणी प्रणमील तु भवसीय शरीर जइ कोइ जणणी जा नने नीर संवेग जलहरि वरि सामी अपराध अहे लोक संवावीया ए पठिक बोलाइ राय कोणी मनि आर्य दिय धनपती माह इति पुत्र जिमि जाइ ए तो मोक्लावी राज बोर पल्ली या संदर बजगह, कहीईस्ट संज इस प्रकार अपभ्रंश की प्रथमा एक वचन, प्राकृत का न तथा संयुक्ताक्षर के पूर्व स्थ स्वर सोस आदि प्रवृत्तियां धीरे धीरे कम होती जाती है। माषा के रूपों में प्राचीन राजस्थानी या चुनी गुजराती की बहुलता स्पष्ट है। १वीं शताब्दी के इस चरित काव्य मैघटनाओं का माइत्यअधिक नहीं है। अत: काव्य की क्या में ही बाहुल्य परिलवित होता है। वस्तुतः पूरा काव्य माना की परलता, छन्दों का प्रयोग और कूदों में क्रमिक परिवर्तन, काव्य स स्वात्य काव्य की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०४ :: प्रद्युम्न चरित सधारू-०४ चरित काव्यों की श्रृंखला में अब तक उपलब्ध काव्यों में १५वीं सताब्दी के पूर्वाद्ध की एक बहुत ही महत्वपूर्ण कड़ी प्रसन बारित है। प्रस्तुत रचना अपने में एक सुन्दर प्रबन्ध है और अदबावधि उपलब्ध आदिकालीन हिन्दी जैन साहित्य की लगभग सभी कृतियों में सबसे बड़ी गो लगमम र दो लिखी गई है।) प्रद्युम्न चरित की रैली में भी स्त्रीय गुणों व लामिक बत्वों का समावेश है। इस प्रकार की कृतियों में प्राकृत और अपच की प्रबन्धन बरित परम्परा का सम्म निर्वाह किया है। अन्यपि यह स्पष्ट है अपश भी प्राति सम्पन्न काय वर्णन इन वादिकालीन प्रबन्ध कायों में नहीं मिलता परन्तु जो कुछ भी मिलता है वा अपने ही प्रकार का है। पर्यकर म्यागों और कानी वातावरण में भी इस कासिकात गुम्न बरित जैसी रमा का मिलना की पहत्वपूर्ण घटना है। मो प्रसन्न चरित का रचना काल विद्वानों द्वारा निश्चित हो जुका है। पस्त सहायक ग्रन्थों या अतरंग वालों की रोध होने पर इसक को सम्भवतः और भी प्राचीन कहा जा सकता है। यद्यपि प्राकृत और अपांच अन्यों की वर्णन ती शास्त्रीय व साक्षणिक बाब या काय निबंधन प्रसम्म चरित में पता दिखाई पड़ते है परन्तु ऐसा होना स्वाभाविकपी। क्योंकि यह रचना स्वयोव्यापातों बात काल की है। प्रधान चरित का शाइयोपान्त शीलन करने पर मा स्पष्ट होता है किया कि एक और को पहा काय की सीमाओं का आतिम स्वयं करती और दूसरी और राज्य की दीवानों का भी अपि कर गाती माह प्रबन्धी सिमा बरित मा गयको कार्य काधका बाबा। .- मारामार, असियाकोटी, श्री महावीर जी महावीर मन बीड़ा Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस ग्रन्थ की मूल प्रति दीवान चीनी के मन्दिर में सुरक्षित है। इस प्रतिशत तथा वही सबसे प्राचीन है। इस प्रति का लेखन काल अवतु १० है। प्रद्युम्न पारित की एक दूसरी प्रति कामा (भरतपुर) के डिलबाल के जैन पंचायती मन्दिर के वास्त पंडार है जिसमें कुल २ पृष्ठ है। पत्रकार ...|| है क्या उसके पदों की संख्या लगाम है।' तीसरी प्रति देहली के सेठ के पूर्व के जैन मन्दिर भंडार उपलब्ध है। यह प्रति वहा के शोध विवान श्री क्नालाल जी ने श्री बारचन्द नाटा को प्रेषित की थी और उनके पन्नों के गुटके में संग्रहीत है तथा इसकी पद संख्या वीथी और मन्तिम प्रति प्रोरिएन्टल इन्स्टीट्यूट उज्जैन के संग्रहालय की है। इसमें है तथा इसका सन 20 है। अड्यावधि का ग्रन्थ प्रकाशित है जो की ही साहित्य संसार के समय पर प्रकाशित होमा।विभिन्न स्थानों पर इस ग्रन्च की जो इतनी प्रथम प्रवियाँ उपलब्ध होती है इस भाषार पर यह कहने में कोई आपत्ति नहीं है कि उस समय या काव्य जन समाज में अत्यत अधिक प्रचलित रहा होगा। प्रतियों के अब और वो मानिक मध्यन पर इसके पाठ संबंधी आडियो अबश्य दूर ___ भामेर र डार की वियों का अध्ययन बने समय प्रधान पति की प्रति मा प्रेस कापी श्री कालीवासीय में प्राप्त निके लिस का उनका नापारी है। प्रम परिम-गड़ब की ही स्वना मानी जाती रही थी। पर नास्व रना बाकी है यह स्पष्ट कर दिया गया है। - बामेरडारबी -बाम श्री बार जब काळीवाल या न दास द्वारा सम्पादित प्रद्युम्न चरित कायका पाडवं प्रस्तावनामामा अप्रकाशित) हिन्दी जैववाहित्यका विविहानश्री कामता प्रसाद जैन ४. हिन्दी सीलवक-भीमगरदमाटाकाला। Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तुत रखना प्रद्युम्न के चरित्र का एक विस्तार पूर्ण व्योरा है। जहां खक प्रयम्न के उदात्त व्यक्तित्व और चरित नायक के ख्यात वृत्त का प्रश्न है, संस्कृत और प्राकृत तथा अपज में इसे अनेक कवियों ने नायक जा है जो प्रस्तुत रचना की अष्ठभूमि में सहायक है। एक आवश्यक बात यह भी है कि प्राकृत और अपच काव्यों में उदाहरणार्थ पठम गरिरहरिवंशपुराण, रिठो मि चरित आदि भन्यो । अब तक नायक या दो ऐतिहासिक पुम ही सेवा शिठिलाग पुलों में से ही कोई। परन्तु प्रस्तुत रचना के नाक प्रयम्न एक से बरित नायक है जिनका स्थान न तो जैन तीर्थकरों में है और न त्रिसहि बलाका पुखों में। अतः ऐसी स्थिति में किसी साधारण व्या उदास्त वीर पुल वा राजकुमार को खना का नाक बनाने वाली यह कृति परंपरा की सीमा में न आने वाली अपवाद स्वस ही कही जायगी। इसका कारण यह है कि अपादिवर काल में परंपरा चन पीले हो गए हमें और सम्भवतः इन नियमों की शिथिलता से आदिकाल हिन्दी और कवि किसी भी धीरोदात्त सुन-समन्वित पुन को चरित नायक बना ली। कठिनाई नहीं शुभव करते हो। यो प्रद्युम्न एक परितवान और धीरोदात्त गुगों में किसी भी वीर पुन से कम नहींधा नहीं हो बाक्षिकात की पति * उपलब्ध होने वाले प्रश्नम्न मधी प्रा और अपईया के इस ध क र बाजे यह भी संभव है कि न होने से या पिना प्राव होने में प्रधान को बरिस नामक बुनने योग्य पान सबका मया हो सबको इस इस्टि उसका महत्व और अधिक बनाता है। संस्कृत प्राव व मोर मावि अन्यों प्रशन पर लिखने की परंपरा मरः प्राचीन मिस बरिख ना पर विवानों की कमियो उपलाची परंपरा विकास को स्पष्ट करने के लिए प्रो लगकर ने पी - - प्रिन परितः सन्यासी मस्तूरबन्ध गालीवाल-प्रस्तावना Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०७ प्रद्युम्न सम्बन्धी काव्यों की एक विस्तृत सूची दी है। प्राकृत में ऐसे प्रसिध वरित पर प्रद्युम्न संबंधी संस्कृत में सबसे प्राचीन विवेचन जैन महापुराण (उत्तर) मैं उपलब्ध होता है। आमेर मंडार में वीं शताब्दी में बहा देनाचार्य कृत प्रद्युम्न चरित्र मिलता है, माकृत में इस सम्बन्ध में अद्यावधि कोई उल्लेखनीय कृति प्राप्त नहीं है। जो के अभाव के कारण ही है अव उत्कृष्ट कृतियां मिलने की संभावना है। अप में प्रद्युम्न काव्यों की लम्बी श्रृंखला है जिनमें प्रमुख प्रमुख व शताब्दी में स्वयं रचित हरिवंश पुराण में वर्णित स्थल वीं शताब्दी महाकवि सिद्ध द्वारा विरचित रचना, पट्टारक सकलकीर्ति और सोमकीर्ति की १५वीं शताब्दी की रचनाएँ महा कवि रधू का प्रद्युम्न वरित, आदि ग्रन्थों के साथ महाकवि पुष्पदस्त का अपभ्रंश पुराण में भी वर्णन मिलता है। हिन्दी में वीं शताब्दी के उत्तराध से लेकर १७वीं तक कई रचनाएं प्राप्त है यथा- रविसागर कृत प्रद्युम्न चरित (० १६४५९ वीं सदी का यशोधर कुरा प्रद्युम्न चरित, सं० १६२८ का अहमरायमल कृत प्रद्युम्न रास तथा देवेन्द्र कीर्ति रचित प्रयुन प्रबन्ध और प्रबंध और प्रद्युम्न चरित भाषा आदि ग्रन्थ लिये गए है इस तरह परवर्ती काल में भी वह परम्परा सुरक्षित विकसित हुई है। रचना में महाकाव्य के कई बढ़ते है पद वे किस दे होने से तथा बंद काव्य की सीमाओं से ऊपर उठे हुए होने के कारण ही इसको पका काव्य की कर दी गई है । इसप्रकार की कुछ लायनिक बाटों का विवेचन इस प्रकार है। विरत्न कोश: प्रो० बेलकर। उत्तर पुराय: जिनसेनाचार्य कृत ५० ४१० ज्ञानपीठ काही संस्करण। 3- प्रतुष्य वरिवः श्री काकीबात-प्रस्तावना । ४- वहीं - मानेर भंडारथ सूची बाग ३ विषय सूची । ६. वही । Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०८ मंगला चरण:- रचना के प्रारम्भ में कवि शारदा वंदना करता है और फिर जिन को। सरस्वती के बिना उसके लिए काव्य रचना असम्भव है साथ ही कवि ने पद्मावती देवी, चकेसरी देवी ज्वाला देवी आदि अनेक शासन देवियों को भी नमन किया है और इसके पश्चात् २४ जिनेन्द्रों की वंदना की है : सारवविणु गति कवितन होइ, सरु आवरण वि बुइ कोइ सीधार पण सुरसती, सीन्हि कई बुधि होड कवडी aast सारद सारद करड, तिम्रकडु अंत न कोई ब feat gas fogमयवाणि वा सारद पणव परिवारि अठवल कमल सरोवर वालु, कासमीर पुरल निकास चड़ी कर देइ, कवि सधार सरस' सेत वस्त्र पदमवतीण, करई मलावणि बाजडिवीन v पदमावती वन्ड कर लेड, जाला मुवी चकेसरी दे अब रोहिणि जो साफ सारण देवी नव वधार १ * aate स्वामी इह हरण, चरबीस उनके जरमरण for water उपरि होउ, कर कवि जड होइ पसार रचना का संदेष में अध्ययन इस प्रकार प्रस्तुत किया जा सकता है। प्रभु चरित की क्या का gra धार्मिक त्या स्यात है। क्या घटना या वर्णन प्रधान है उसमें अनेक कुडल प्रधान अवान्तर घटनाओं व कथाओं का समावेश है जो प्रधान स्थानक के साथ गौ स्थानक को काती है। प्रसन्न चरित का नायक सर्व जात त्रिय कृष्ण के पुत्र में अतः उसमें वर्ष बीरता पुरुषत्व, शौर्य दया उदारवा स्नेह, क्रोधादित्यमान है। नायक धीरोदात्व है। है १- प्रद्युम्न परिक- श्री चैनसुखदास त्या श्री कस्तूरचंद कासलीवाल द्वारा सम्पादित बानेर मंडार (१-४) (अप्रकाशित) वही । पद ५१ Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०९ क्या वस्तु पौराणिक है तथा व्यावृत्ववाली है, जो कृष्ण के जीवन व परिवार से सम्बन्धित है। कथा वस्तु अधिकतर घटना प्रधान और वर्णनात्मक है। साथ ही उसमें अन्य घटनाएं व प्रद्युम्न सम्बन्धी कौतुकों और विद्याओं से कवि ने उसको अधिक आकर्षक बनाया है। कवि ने कथा का विभाजन सम में नहीं किया है। अद्यावधि सर्ग विभाजन के लिए प्रयुक्त, पास, कडुबक व्वणि आदियों को न ले एक मौलिक ढंग प्रयुक्त किया है- अब यह क्या द्वारिका जाय, बाहुरि कथा वीर पायआदि पदों को लिखकर किया है।वर्याय स्वतंत्र वर्ग कहीं नहीं है पर कवि के संकेतों के आधार पर इसे झंडों में विभाजित किया जा सकता है ये है स्तुति प्रद्युम्न जन्म बैंड े, प्रद्युम्न हरण बैंड, प्रदूयुम्न जब सेबर बुध से दवा रिका और अंतिम है जिनमेवम ५ • पुनरागमन सँड, श्री कृष्ण प्रयुम्न युद्ध बंड पूर्वभव बंड या (मोध) डंड कृति में वीर रस प्रधान है उत्साह की निष्पत्ति युद्धों में सर्वत्र होती रूप में निष्पन्न हुए है। इसी अंगी है। प्रधान रूप से वीर रस क्या वे रस रस के क्रोड में वीमरस (४८८-९०) व (सत्यभामा करुण रस, (पद १३७, १३८, १३९ व्या विविध विवाओं के प्रयोग पर र निम्न होते है। करता है। (५) कि रूप से श्रृंगार ft) आदि के प्रसंग में प्रद्युम्न के रौद्र स्वरूप के मन में रौद्र कवि शान्त रस की नियोजना में काव्य का समाहार १. प्रद्युम्न वरिवः श्री चैनसुखदास क्या श्री कस्तूरचंद कासलीवाल द्वारा सम्पादित पद- १-११। २- वही पद ११-१२५। ३- वही, पद १३६-१५९॥ ६० वही पद ४४१०५७२ १० वडी, पद १८६-४० 4-487; 48 #34-1900 / ड- वही, पद- १६०-२८५ ७- वही, पद ५७३-६३८ Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१० afat की दृष्टि से कवि ने अनेक स्थल जुटाए है। वर्णन वैविध्य में नगर, द्वार तोरण, रनिवास, रात्रि, संध्या, प्रकृति वर्णन युद्ध सज्जा तथा रथ वर्णम सेना वर्णन न वर्णन, युद्ध तथा कार्य वर्णन, अनेक प्रकार की विद्याओं का वर्मन, सूक्ति वर्मन, सामाजिक तथा राजनैतिक बहनों आदि अनेक वर्णन मिलते हैं जिनपर आगे प्रकाश डाला जायेगा । 3 कवि सधा ने पूरा काव्य दोहा चौबाई छंदों में लिया है।पर वस्तु टक, gas और गाथा' आदि छंदों का प्रयोग भी किया गया है। प्रत्येक सर्ग के साथ छंद परिवर्तन के नियम का निर्वाह कवि ने नहीं किया है। 'ब्दों के साथ साथ अनेक अलंकारों का वर्णन भी मिल जाता है। अलंकारों में प्रमुख उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, उदाहरण, इष्टान्त, अपन्हुति, अर्थान्तरन्यास आदि प्रमुख है। अलंकरण प्राकृतिक या स्वाभाविक है। जहां तक काव्य की लक्ष्य प्राप्ति का सम्बन्ध है, अर्थ धर्म काम और मोव में से प्रद्युम्न को चारों सुखों की प्राप्ति कवि ने कराई है। साथ ही संस्कृत नाटकों की मावि प्रस्तुत काव्य की सबसे बड़ी विशेषता है कि यह संत के साथ साथ निर्वदा है। काव्य रचना का उद्देश्य जन मावा में धर्म प्रचार, वरित वर्मन कट्टियों व परम्पराजों का निर्वाह अहिंसा और कर्मवाद तथा पूर्वभव आदि सिद्धान्तों की पुष्टि में भी पूर्ण सफलता मिली है। इन्हीं तत्वों के आधार पर वह कृति खंड काव्य की सीमाओं से उपर उठ जाती है और महा काव्य भी नहीं बन पाती स्वत: साहित्य दर्पणकार ने. परित ऐसी कृतियों को पकार्थ काव्य कहा है वस्तुतः न फेंक सक्ल एका काव्य है। जहा तक प्रस्तुत रचना के रचना काल का प्रश्न है यह स्वष्ट है कि वह ० १४९१ में पी गई है। इस सम्बन्ध में प्रतियां दीनों प्रतियों के विभिन्न १- प्रसन्नतिका काठ मागेर भंडार पद १६९ का पाठीवर १७७ २. वह पद १६९। ३- हिन्दी ९ बैंक १-३०१३-२३॥ Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रचना कालो- "विक्रम, विक्रम, तथा 1 विक्रम के काल हुई थी। परन्तु परीक्षण में यह बात हो जाता है कि वि० mm की प्रति की भाका अधिक परिमार्जित है। उज्वन वाली प्रति में मिला है। और तिथिया मास नक्षत्र आदि सब समान है। पर उज्जैन वाली प्रति का पाठ पूर्ण प्रमाणिक नहीं कहा जासकता अब रेसी स्थिति में कृति का रचना काल सं० विम' मानना ही अधिक उरित प्रतीत होता है। - - - -पंचायती मन्दिर कामा (भरतपुर) ज्या रीवा की प्रतियों में यह पाठ मिलता सैवत तेरा सौ बह गये पर अधिक इगवारा पये, पावो इदि पंचमी विनयार, स्वाविनवा जानि सनिवास २. जयपुर दीवान मंदिर, मामा, बेहती या बाराकी वाली दियो । पापा। मरस क्या रस उपाइ पर, निमुबह परित पख सबउ संवह चौबह से हुए मये, पर अधिक इसबारा भए (जयपुर की प्रति) पाव दिन पंचन सो बारु स्वाति नक्षत्र मनीचर मारु वह बाइ इबारः परि अधिक पाए मगार (दीवनाची का मंदिर कामा व प्रतिमाह मिली माराकी बाली प्रतियों में भी पापा - उन्नबाली प्रति जिसमें पा संबह पंचमहईया मरोबरपि मापबा मायबबादि चामि विधिबार स्वाति न सनियर नामा -हिन्दी शीन- क-.-.मी माझ्टा का ले। Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१२ -PUT प्रद्युम्न वरित की कथा अनेक घटनाओं का संयुम्न है। कवि ने क्या का आधार जैन पुराणों से ही लिया है। रामायन औरमहाभारत की स्थाओं के वर्णेन की परंपरा अपच में पर्याप्त मिलती है।' आचार्य गुणसेन के उत्तर पुराण र तथा जिनसेनाचार्य ने अपने हरिवंश पुराण में प्रद्युम्न वरित वर्णन किया है ।११वीं ग्रन्थ शताबदी में महासेनाचार्य ने प्रद्युम्न पर स्वतंत्र लिखा और इसके पश्चात् महाकवि 1 सिंह का लिखा प्रद्युम्न बरित हमे उपलब्ध है। पध्इस ग्रन्थ अद्यावधि अप्रकाeिa है। इसी तरह के अन्य काव्यों पर पूर्वपृष्ठों में प्रकाश डाला जा चुका है। इन सबके पश्चात् कवि सधाक ने इस रचना को हिन्दी में प्रस्तुत किया है। कवि ने क्या का आधार उक्त ग्रन्थों की ही रक्या है फिर भी धाक ने इसमें अनेक अवान्तर घटनाओं, अंतर्कथाओं और भौतिक तत्वों का प्रजन किया है। क्या सार इस प्रकार है: एक बार नारद के आने पर सत्यमामा ने उन्हें प्रणाम नहीं किया ।इस अभिमान का फल हुआ प्रतिशोध नारद ने स्कमणी को खोज कर कृष्ण से विवाह करा दिया था सत्यभामा को उसके सौन्दर्य से अनेक बार तिरस्कृत होना पड़ा। विवाह में शिशुपाल मारा गया व भयंकर युद्ध हुवा। सत्यवाना स्वमन से ईवी रहने लगी। कनकमणी के प्रद्युम्न पुत्र हुआ। पूर्व भव की शत्रुता से धूमकेतु विड्यापर उतर कर ले गया और उसे एक पारी जिला के नीचे बना दिया। विद्याधर कालर्सवर और उसकी पत्नि कामाला ने उसे बड़े प्यार से पाला । पुत्र वियुक्ता स्वमपि विदित की रही। न बढ़ा होकर अनेकों में विजयी हुआ क्या -साहित्य डा० हरिवंश को ० ४९ भारतीय साहित्य मंदिर, दिल्ली । १- देवि उत्तर पुरानः माचार्य मुमसेनः भारतीय ज्ञान पीठ काही ५० ४१० । ३- हरिपुरा: बाबारी जिनसेन, वर्ग ४७-४८ पद २० से ३१। ४- आमेर पंढार की महाकवि सिंह रचित प्रम्न बरित (१३वी भंडार, जयपुर। यादी अशविरचित) भामेर Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१३ उसने विभिन्न देवी देवताओं को प्रसन्न कर अनेक विद्याएं, कुंडल, अस्त्र शस्त्र आदि प्राप्त किए। कुल उसने १६ विद्याएं जीती व प्राप्त की । जवसंवर के लड़कों ने पी ईष्याव अनेक षड्यन्त्र किए पर वे प्रद्युम्न से एक एक कर हारे। मदन का अपार बल कुमारों के सारे अहंकारों का विजेता बन गया। विद्याएं जीतकर उसने जयवर व कनकपाला (मने कृत्रिम माता पिता) को प्रणाम किया । रविनास मैं कनकमाला उसके सौन्दर्य पर शुध हो गई और उसे काम पाव से वाहने लगी। काम विमोहित कनकमाला ने उसे अपने स्तनों में छुपाना चाहा पर प्रद्युम्न वहां से उद्यान में दो मुनिवरों के पास गया उन्होंने उसका व कनकमाला का पूर्व भव बताया। रिवियों ने प्रद्युम्न को विसार्थ कनकमाला से मांगने को कहा। काम विमोहिता ने उसकी स्वीकृति पाकर उसे तीनों विद्याएं दे दी पर इसके बाद प्रद्युम्न ने उसके काम प्रस्ताव को भी पुत्र का सम्बन्ध वटा ठुकरा दिया कमाता की कामुक नारी क्रोध में भड़क उठी। उसने जवसंबर से प्रद्युम्न को अपने साथ की हुई कुवेष्टाओं की मूंठी शिकायते की । दृदि वनर्सवर से प्रद्युम्न के अपने साथ की हुई कुचेष्टाओं की कूठी शिकायते की । वृद्ध जनसेवर ने ५०० पुत्रों को उसे मारने की आज्ञा दी पर प्रद्युम्न ने विद्वया के बल से सबकी मूर्च्छित कर दिया। सबको हराकर उनको आधिपत्य स्वीकार करा पुनः जीवित कर दिया। फिर नारद के कहने से वारका आया। रास्ते में सत्यभामा की पत्नी बनने वाली लड़की को मील बनकर उससे टीम लिया। उदधिमाला का सम्बन्ध पहले प्रद्यु के साथ ही fafted हुआ था । भतः कन्या का बलपूर्वक हरण कर विवाह कर लिया |वारका आने पर अपनी विदुवाओं के से अनेक रूप बनाकर सत्यभामा व महल के परिवारकों को अनेक प्रकार से म सँग किया । ब्राहमण जनकर सब अन्न पैटू की भांति डा जाना, नौकरों को उल्टा लटका देना जादि अनेक कौतुक इस कामदेव (प्रद्युम्न) ने किए अनेक वर्षों के बाद पुत्र को पाकर वात्सल्य में निहाल हो गई। प्रद्युम्न में कृष्ण बलराम के शौर्य की परीक्षा करने के लिए माया की अपनी बनाकर उसका हरण कर लिया प्रयुम्न का कृष्ण और बलराम के साथ भयंकर युद्ध हुआ । उसने अपनी सिध विवादों से उन्हें स्तंभित कर दिया। पान्डवों को इतवर्ष कर Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१४ दिया। अनेक वाणों से कृष्ण की सारी सेना को विस्मित व्यामोहित और स्तम्भित कर दिया। दोनों जब प्रद्युम्न को मारने लगे, तो नारद ने वास्तविक स्थिति बताई। पिता पुत्र गले मिले। नगरवासियों ने दोनों का भव्य स्वागत किया और प्रद्युम्न व सत्यभामा के पुत्र भानुकुमार का धूम धाम से विवाह हो गया। इसके पश्चातु काव्य के उत्तराध में हेमंधर मुनि प्रद्युम्न को पूर्व पन वर्णन करते है। प्रद्युम्न को ज्ञात हुआ कि उसका पूर्व जन्म का भाई शीघ्र ही अवतार लेने वाला है तो उसने विद्या के प्रभाव से जाती को नकली सत्यभामा काममुद्रित पहिला कर बना दिया और पुत्र जान्वेवंती को मिल गया । पुत्र का नाम शान कुमार रक्षा गया। फिर उसका पारिग्रहण हुआ। जयसंवर व कनकमाला मी वहीं जा गए । सब प्रेम से रहने लगे। छप्पन करोड़ यादवों ने असाधारण उत्सव किया । में जिन वंदना करने कैलाष गए। धर्म की भावना हो गई और अनेक वर्षों तक जिनमेदना कर के समक्ष माये । केवली उन्होंने यादवों का संहार पूछा और गणधर से उनको नश्वर जान दीक्षा प्रथम कर ली। नाराम कृष्ण और मणि विलाप करने लगे, पर प्रद्युम्न ने सबको कर दिया और केवल में कैवल्य (निर्वाण) प्राप्त किया। संक्षेप में काव्य की कथा वस्तु नही है। वस्तुतः इस अधिकारिक स्था वस्तु के साथ अनेक छोटी छोटी घटनाएं चलती रहती है। जो प्रति नायक की भाँति ही कथा के उत्सर्ग में योग देती है। इनसे नायक के कई प्रतिवन्दी होते हैं जिनसे उसके शौर्य को गति मिलती है। अस्तु संपूर्ण काव्य में एक ऐतिहासिक सर्वत्र होता बाटा के अनेक मौलिक घटनाओं के वर्णन के था काव्य की प्रीत व कवि प्रतिमा का परिचय मिलता है। पूरा काव्य घटना प्रधान है जिसमें विविध वनों की कड़ियों का उम्मे # पादप और कला की दृष्टि से विचार करने पर प्रस्तुत चरित्र काव्य वरिय काव्य बहुत बड़ी संख्या में से कवियों की एक विशेषता यह भी रही है कि का महत्व स्पष्ट हो जाता है। मिलने लगते है। यही नहीं, के Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१५ इन्होंने काव्य का नायक उच्च वर्ग का ही नहीं, किसी भी कुलीन पुरुष को पी जुनना प्रारम्भ कर दिया। किसी शुदध वीर दानवीर, धर्मवीर और कर्मवीर को चरित नायक बनाकर उसे जन साधारण और अशिक्षत वर्ग के लिए सरस काव्य मे मुलम कर दिया है। इस सम्बन्ध में अंग्रेजी के प्रसिद्ध विद्वान विन्टर निट्न का इतिहास दृष्टव्य है। क्या को माध्यम जुन इन चरित काव्यों या वा काव्यों द्वारा जैन दर्शन व उसके कठिन साध्य सिद्धान्तों पर प्रकाश डाला गया है। रचनाकार: रचनाकाल की माति प्रशन्न थरित के कती का प्रश्न पी उमा इजा था। और श्री कामता प्रसाद न मे पयरछ नगर संत नगर वर्षद जापित इस पयरच्छ मगर को रापकर कवि का नाम राबरक लि दिया। इसी तरह नागरी प्रचारिणी की खोज रिपोर्ट का भी इसी सम्बन्ध में निराकरण किया गया था बोज रिपोर्ट में इस प्रन्थ के रमिता का नाम अग्रवाल बागरा निवासी बवाया है जो एक दम असंगत व प्रभावित है। रचयिता का नाम कवि ने प्रारंभ में ही दे दिया है। निम्न ररकों में उक्त भूलों का भी परिहार हो जाता - कवि बागरे का वा बता रमना स्थान या तो आगरा.राजस्थान या पायरे का भी कोई सम्धि स्थल सा होगा: पारद शिशु मदि कवितु न होई ना कोड हो सबार पर्व सरसती, नि इधि होइ कबहुदी' हिरही बाइन्डियन मारपरी स. विन्टर निदर,माग १ . 0४-७॥ हिदी भाका वि श्री कामता प्रसाद न पृ.१५॥ -अप परिता प्रामेर अंडार, बबपुर, पथ ।। Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१६ अठवल कमल सरोवर वासु कासमीर पुरि लिउ निवास हंसि वही कर लेखन हेड, कवि सचा सरस पणनेड . न माइ, रोहिनी जो सामान देवी नवइ सघाउ जिन विधि हरि मर कर साधा अगरवाल की मेरी जाति, पुर अगरोवर उहि उपाति अतः स्पष्ट है कि कवि सस्था था उसकी जाति अग्रवाल जैन थी और निवास स्थान क्या चित आगरा रचना के त में कवि तुलसी दास की पाति-कवि में होउ नहिं चतुर प्रवीन और कवित विवेक एक नहीं मोरे आदि सूमों की तरह बधा भी वानी की समय अपनी लघुता को स्वीकार करता है:बुधि डीन बानों के भवर मावह गुन पेठ पडित जगह नमूनमूकर जोडि, डीन अधिक जण लावहु खोि इस प्रकार ग्रन्थ के रचना काल और कती आदि के सम्बन्ध में तक फैल समस्त ग्रम निर्मूल सिध हो जाते हैं। इस प्रकार के तथ्यों को स्वतंत्र रूप से प्रकाश में लाने के प्रयत्न भी हुए है। -काल्पनिक घटनाओं और अवान्तर व्यायों का विवेचन कीं मूल कथा से इतर जिन मौलिक घटनाओं और काल्पनिक कथाओं को अपने जैन सिद्धान्तों में डाला है वे इस प्रकार है: प्रारम्भ में कवि द्ववारा बौबी विकेन्द्रों का वंदन १० व पद ३| १- वही पद ११ २- वही, पद ६० ४- नही प १० हिन्दी अनुशीलन ९ अंक १४० १३-२०१ Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मारद का आना, सत्यभामा का उनको नमन न करना,नारद का कुमण से सम्मावि का सत्यभामा के भान भंग के लिए विवाह करना, रुक्मानि के भाई से इध व्या हिपाल वध। वैष्णव ग्रन्थों में शिवपाल का वध स्पषि-परिषय में नहीं होता। युधिष्ठिर के राजस्य बन में होता है। इसके अतिरिक्त कृष्ण समामि विवाह का कारण पी वैष्णव ग्रन्थों में सलमामा की नारद की उपेक्षा नहीं है। पूर्व जन्म के वैर के कारण विड्याधर धूमकेतु का प्रतिशोष। शिला के नीचे से जमवर का उच पर लाल पुत्र की तरह पालन कला जबकि वैष्यबन्ध हमछली के पेट से निकला था और मानों ने जाकर उसे राजा को मैट दिया था। पूर्व पब का लगभग सभी वर्णन। प्रद्युम्न को नमसंबर के लड़कों द्वारा अश्नि कुण्ड वे भवानक स्थानों में कुदाना और पुरवित लौट आना। दुध प्रदान कासमीपवर्ती राजाओं को पराजित करना।कनमाला का उसे काम भावना में देखना और प्रेम करना तथा आचल में सिपाने की रेष्टा, प्रज्ञान का निश्वर के पास जाकर उसका कारण पूछना या कामाला से तीन विद्या मागना व जबर के इगों को अपनी । विमानों से पराजित करना। प्रशन का विद्वानों का जलवान, अमिनवान, बाय बाप, आदि अनेक स्त्रों को प्राप्त करना। झाका मन ड राने में प्रन का पीठ ग बेग बनाना, रामारी का प बरना, हमारका बाकर बानर का कम बनाकर नामा माग को स्वाना, ये ब्राहमण का वेश बमार सब मन को शाबाना, स्व का इवार पर रेट बाना, इत्यों को उल्टा टॉम देना, अपनी किसानों से पथ में लव निकों को ति करना। Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१८ कुमार की उत्पत्ति तथा पूर्व भव वर्णन और प्रद्युम्न का दीक्षा लेना पी कवि की अपनी ही मौलिक तथा काल्पनिक देन है। अंतिम तथा नवीन भात कवि की ली गत विशेषता है। वर्णन पद्धति तथा मर्ग की सूचना अपने ही प्रकार से देता है। स्तुति मंड के बाद कवि दूसरे पेड के परिवर्तन की सूचना इस प्रकार देता है: १) तुति खेड। (२) निणसासण माहि कहिय भार हरिसुव चरिड करइ साधारपद) (1) काल संवर घर,इदिश कराड,माहुरि क्या वारिका पाय(पद ) (४) पाबमास दिन वरिसगवाय, बाहुरि था वीर पहंजाइ (१५५) (५) बहुत बरत बरस्यो मिली, पाउ वियाग सुवारिका बली (२८) (0 हर वात बचे इ रही,बाहुरि कथा कपिमी पह मई (6) (0) इ अवस बातर पर पूर्व विदेश जाइ मवर (1) C. कुंडलपुर सो राग कराइ बाहुरि क्या इवारिका गाइ (५९) वस्तुतः इन वनों में कवि ने पर्याप्त मौलिकता रखी है। स्वयं कवि समाने प्रद्युम्न की क्या को सरस क्या कहा है। परवेयर बागवली राम की भाति प्रदूराम चरित मी वीर रस का काब्य है। बीर रस अंगी भाव और अंग पाव में है। बीर सके अइप वर्णन कवि के काव्य कौषल के प्रतीक । श्रीन धिपाल का समावि हरण के अवसर पर अपन, महान और सिंह रथ का अध कासंबर और प्रदूपन्न सुध वा श्रीमान महिम पश्च मनी वर्षन उत्कृष्ट शिपाल कीमारियों देरिया या रामा लिइ पिली वरि चोरी हरीला मा कोपि मोतिया नरेश परियपकास देमि और का मन को पिर भीम का ये निसावा पार Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तरीय पलामा गयर गुडहु कालम हुइ राम्बत चना रहिवर साजहु गयवर गुरह सज पुड आज रणवभिडड रावत कर साजहु करवाल, पाणुक कर पशुह टकार सपाल अभीषणराउ दुइबल पुइनन सुपा ठाउ घोळ पुर लइ उछल बेह, जिमि गाजहि मादो केम मेह 'चिन्ह बार दीसह वरंत, जापी दावानल कर (डि) निमर्जत चतुरम दल भयो सनुत, पण बैग रण अइ पहुँत आवत दढ़ दी अथवा डीह लोपी ससि भार हा विया वारि पिडा दावीर, वरमा वाण सधण जापी नीर वह सहच्यारिवाय पहरेइ, 15 से आठ संघाण करे। वह सोलह परि मैलइ चाउ वह बत्तीसन मुभा गाउ बोरवीर सरे समराक मे दुश कर संभाण इसी माति श्री कृष्ण और प्रधम्म बुध के वर्षों में कवि का मन खूब रमा है। हाधियों की गर्जना घोड़ों की हिनहिनाहट, तलवार धनुष गदा व आदि वस्त्रों के प्रयोम आदि वर्णन प्रभावशाली है। प्रत्येक अध में कवि ने रहिवर साग गम्बर गरा, नाह मुहंड माजा रण मिडउ- पक्तिनों से बुध का भी गमेश किया कवि की श्री कृष्ण प्रद्युम्न अध में उत्साह की भूमिकादेशिए: आयड भय मुडर र चलइ, बाल के विलक्षाती करइ के कर पाया करवा साजिल विया और माथे मेवर पुढी, पुटर मारिप बहा के तुरीन पारालि, मे मुहर साजिरव बढा टाटना ) मा टोपा देह कोर गेड के कर बार कोर अविर नीका मानि कोर सम्हारा की कोर करिमा बाहरी Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युद्ध के कुछ उदाहरण देखिय: ६२० दोउ दल सय महार सुनु साजि धनुक कर ल‍ इन साजि लप करवाल, जामिक जीप पवारी काल ममगलसिं मैमल र मिरइ, हैदर हयो हैदर आमिर राजत पाइक मिरे पनारि, पढाइ उठइ जिमवर की वारि केउ हाकड़ के लर के मारमार प्रमण के मिरइ स्मरि रमाजि कायर निक्लइ भाजि 100 d ---- --- कोपा पंथ तब यह बात चढाइ हाथ करिलर चरंग बभिड पचारि कोरण पथ न सकइ सहारि सहड्यो हाथ केंद्र करवाल, निकुल कौवले कर प्रहा हलधर जुक न पूजइ कोइ अलावा लद पहर सोड (मद ४७-४८९ ) युद्ध में प्रद्युम्न द्वारा विद्याओं का प्रयोग (२२३) तथा सबको स्तंभित करना आश्चर्य की पुष्टि करता है। ऐसे स्थलों पर अद्भुत रस की फ्रीकी मिलती है मोहे सण सवल र पट्टे देख बुड विमाणा चढे ठा का रश्विर इयवर पडे, छूटे छत्र जि यमिनि गरे का का मैल पढे अनंत जे संग्राम आहि यमंत्र • सैना कि परी रम बाम, विलस वदन मा केस साम बलियो वीर भाइ यह कवणु (४८६) हा हा काहु कटै महमदपु परस्पर भयंकर युद्ध होने से कहीं कहीं मत्स का भी वर्णन हुआ है। मियों का महराना चारो ओर रक्त की धारा और नरसुड ही नरकुण्ड या यमराज का दुध का भोजन का नियंत्रण देना ature का वर्णन करता है: रहिवर पड़े वर्गव, डाय हाय भयमल नयतु ठाठा बिहार बरार, हाइ ठाइ क्लिक नेवाल गीधीची स्वार करइ पुकार, अनु बगराय जनावहिवार बेगि सा पढ़ी सोड, प्रस आह बिन fara ets Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२१ इसी प्रकार वात्सल्य (५३४) (प्रत्युन्न स्क्मणि के मिलन पर) स्क्मणी के पुत्र वियोग पर (१३६, १३८, १३९ ) करुण, नक्षशिस वर्णन रनिवास वर्णन और सज्जा वर्ष में अंशिक रूप में श्रृंगार, प्रद्युम्न का क्रोध में कृष्ण बलराम को ललकारना, उदित वचनों से युद्ध के लिए उत्तेजित करना (४५६-४५७), क्रोध मैं आकर अग्निबाण, जल बाण, वायुवाय आदि छोड़ना (५०१-५१५) आदि स्थलों पर रौद्र का वर्णन हुआ है। इतना सब कुछ होते हुए भी कृति की समाप्ति निर्वेद से हुई है। स्वयं प्रद्युम्न नेमिनाथ के पास जाकर दीक्षा ग्रहण करते है। कृति का पर्यवसान प्रयन का समवसरण में कर दीक्षित होने में होता है: fafe कुवेत, महा भयउ डिडि नेमिश्वर संजमु ल • बाहुरियन गरिका मोग विलास चरित बिलers अगरचंदन बहु परिमलवास, सरसद बोल कुसम सर दास ऐसी रीति कालगत गयउ कुणि र नेमि जिन केवल भट समवसरण त आइ सुदि जनवासी अवर सुर रिडं (६४२-६५०) यादवों के विनाश के वर्धन से प्रद्युम्न संन्याल ले बैठते है: बस दिसार बहुजाव भए करि संजम जिनवर पाठ दीवा लेइ कुमर परदव चिंतावत्यु भयर नारायण (१५६) और नारायण के यह पूने पर कि "कवन बुधि ले उपनी तो आज जिन लैइ पू पर प्रद्युम्न- प्रद्युम्न संसार की नश्वरता पर प्रकाश डालता कुमा कहता है: का का राज मोगु चरवाक विनंतक बस संचा ree माल जिम यह जाड फिरs, स्वर्ग पढाल हमि भवतरक दम तुम सम पुबह जम्मू सोहर आणि चटाउ कम्म प्रकृति वन साधारण है। प्रस्तुत अप्रस्तुत दोनों मों में प्रकृति का स्कूल की कवि नै कुना है। बनमाया काव्य होने से उसका मन भी इसमें कम ही स्वा है ऐसा लगता है। मकार तथा नरिमननात्मक रूप में ही प्रकृति चित्रण मिलता है। Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्यभामा के उद्यान का वर्णन करते समय कवि ने कई क्यों एवं फलों के नाम गिनाये है। वर्णन में कोई सौन्दर्य विशेष नहीं है केवल कवि ने वर्मन परंपरा की रक्षा मात्र की है: जाह जुही पाडल कचनारू, वाल सिरि बेतु तिहि साल जउ महका अक कणवीरू, राग चपड़ केवर उग ही कैड टगर मैदास सिंदूर पहिचे महइ सरीक दम्बाणा मम्वा केहि भाव मिवली महमाइ अनंत माम जमीर सदाफल धणे बहुत निरसतह वा डिम्बतने केला दास विजउरे चा नारिंग करूण की पि अपार नीबू पिंड खरी संस बिरणी लवंग गुहारीवाल नारि केल को बहुफले मेल कइम यो आवले (बही ! विविध वन: विविध वर्षों में कवि का मन सूब रमा है। सम्जा वर्णन, विवाह बन नगर इवार सोरण शकुन अपशकुन वर्णन आदि देखिए:न वर्मन बाइ दिसा करका गए, वाट काटिनो कालो ना महुवर दाहिनी अंदु परिहार दक्षिण विस का रिवाल गणमा दीसा जीव अमिषा पट्टा सिम वै सह पंधि पारधि ममा कहे पति पास न वी पार प्रस्तुत चरित कवि ने परम्परानुसार अनेक वर्णन किए है। नगर, प्रभ्य बार बोरण, रनिवास वर्षन के साथ कवि ने विवाह वर्षन नसशिसवर्णन मज्जा बन मादि अनेक वर्णन लिय-धारका का - देखिय: बाबर माह इवारिकापुरी, पर जब जो रविकार धरी बारा को सविस्तार कंचप कलम ति दीसह बार हाय बार पनि ध फटिक दीश सिm बीवन धवलहर अबास मा मन्दिर देवल यास Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२३ चौरासी बोटे अपार बहुत पाति दीस सुविचार नई दिस राहर गाहिर गंभीर, चहुँ दिसि लहर कोइ नीक ---- ---- ब्रहृमण स्त्री सहि तिथवर वैस सूद तर्हि निवसहि अवर कुली बली सत ट्रमes ठाइ, तिहि पुरि सामित जाय राज वलसाड गणत अनंत करहि गर्ज मोदनी विल तीन संह चक्केसरि राउ, अरियन वल मानव परिवार (पद २०) कवि ने १६ विद्याओं का चामत्कारिक वर्मन तथा प्रद्युम्न का विभिन्न देवी देवताओं से अनेक अस्त्र वस्त्रों की प्राप्ति का स्थल वर्णन किया है: राजु छाडि गट तपकरण सोलह विइया बाकी धरण हरि घरनाह होइ अवतरणु तुहि निरति लेड पर दव यह थोडी तु राजा तमी ले सम्हाली वस्तु आपणी fse आलोक अरु मोडवी, जल सोबणी र दरसणी गगन बन पाताल गामिनी क दरिक्षण सुधाकारणी अगिनी थंम विद्या वारणी बहु रूपिणी पाणी वैधनी गुटिका सिधि पयार होइ सब सिवि जानइ सबु कोड चारा बंचमी नंबर धार सोलह विद्या नही बनार (१८९) विमा बोल का विचार बम्बर सिर मुस्ट पार नाम से वो रानी वरी असीमी कपट दीना पावडी विजय कोere जवार चंद्र सचासन सेवन डाल dres हाथ काम सुंदरी पडून सायकर कडिदा दूरी कुसुम जान कर डाह के कुंडल वल सम्बल पहरेइ (२२४-११५) पूरा चरित काव्य दोढा बोचाई में है। परन्तु साथ ही वस्तु कूटक और युवक का प्रयोग भी कवि ने किया है, जो जैन कवियों का प्रसिद्ध छेद ही रहा है कुछ संयों के उदाहरण देवि after stoe अलिक चल, निमि छोडड अव भोगवइ Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२४ तिरियहि साहस गो हो, तिरिय चरित जिण कुलह कोइ (२५६) गाथा का भी कहीं कहीं प्रयोग मिलता है:दधति गुमा विचलं. बलहा सज्जनाहि वर्ड ति विवसाय माथि सिधी परि सम्स परंमुहादिम्वहा (२६८) एक स्थान पर मरबर का प्रयोग भी मिलता है:केदपु पय नयर मझरि भयण किरग रवि लोषिक बढि अवास वरंगिणी नारि तिनका मनु अविल सिबर धन रुपिणी मन धरित रहाइ नारायण घर अवतरित सुरनर अवर जयजयकार जिहि आगे कलयर मयउ घर घर तोरण उमेवार सम्पन को डि उच्च प्रयउ (५४) मलकार का स्वाभाविक वर्णन रचना की भाषा को और अधिक सबक बना देता है उपमा, रुपक, उत्प्रेदा, मक इस्टान्त, वह, अान्तरन्यास अपन्हुति अतिशयोक्ति या स्वामावोक्ति आदि अनेक अलकार बर्षित हुए है। कवि में सबसे अधिक उत्प्रेवाओं का ही प्रयोग किया है जो बहुत अनूठी .. " टि सून भइ दडी बन कुषि मरहट पपड़ी ( चौड़ा पुरला उध्वी रोड, गनु पाहि भावी किम मेह " बिना मगर वीसह समरंत, जागो दावानलवर लह) 'निमय रही खेह होपी हसि पाइ अतिश्योक्ति) कीब परिश विटोही नारि, की दम्बदाली वह ममा रि की लाल, पूत संवा स्व गुण परा (४) स्मरन कर र माग पहाडार, पण सह दीपड वारि या मारिने रे, दिसा निम्पल पाणी भरे और विक सब दीया, बावला हो पियरे पगार उक्त बी बीयो आवड मास पीक (१५८) Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२५ उदाहरण तथा अर्थान्तरन्यास10 बाला सूर मागासह होइ तिनको जूम सह पर कोई वाल वंड सहसर आइ, नाके 'विसमणि मंतु न आदि वह हाडि गए वप डाउ, ता कहकोण कई परिवार (१) विसहर मुह पाले हाथ, मो मोसह जुझ गह समथ (1) उत्प्रधा मूलक अतिश्योक्ति: विड्याबल तह रच्यो विमाशु, अहि बयोत टोपि ससि भानु मीधीणी स्याउ कर पुकार, जनु जमराय जणबहिसार इनर साजि लप करवाल, माणिक जीम पक्षारी काल (४) महमहन को पिड बडइ, अनु गिरिवर पन्च उखर हा गन्हा पहिया सलकित सेस, यम ग्राम चलित हरि इस प्रकार अलंकारों का वर्णन जन भाषा काव्य को धर्म या नीति, उपदेश प्रचार एवं ग्था को आगे बढ़ाने के लिए काव्य को प्रवाहमय बनाने में योग देता है। प्रद्युम्न चरित की भाषा मरत हिन्दी है, जिसमें स्थान स्थान पर राजस्थानी का प्रवाह स्पष्ट परिलक्षित होता है। कहीं कहीं अवधी कमी देखने को मिलते है जिसका कारण कवि का निवास स्थान आगरा होना ही लगता है। प्रद्युम्न करित की भाषा को आदिकाल के हिन्दी जैन साहित्य की भाषा सम्बन्धी कई उसकी बातों का प्रस्तुत करती है सवय गुलसी मादि कवियों में से ही कवियों से अपने अन्य की रचना करने की प्रेरणा ली होगी। परम्परामा अपच भादों का पी प्रयोग मिलता वस्तुस: कृषि की पारा विमान के सामों के लिए अत्यपयोगी है। उक्त धरण से भाषा व अबों की पूरी जानकारी की जा सकती है। - कृति में कवि ने अनेक गौ नीति वाक्यों मस्तियों और मुभाषिनी' Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का वर्णन किया है नो पाषाको सरस बनाते है। जहां कवि अपने वर्णनों में अधिक उपदेशात्मक हो जाता है वही अनेक विक्षया आ जाती है:(.) गे विधि लिख्यो न मेटइ कोड (0) (२) नहि राज भोग महि होइ, पुन्ना नरु उपना मुर लोई (२२२) ७) नीची इधि शिम्बरस निहरड, उत्तिम ओडि नीच सँगइ (१५८) ४) तिरिय विसास करइ जो पपर, जिहि नि सोप्यो राजा र पूर्व ररित न मेटन कब (0 चरी मागत भोजन करइ असुह मे नह भेटइ कोइ। 0 बापन उ लालची होग, बहुत साइ जाप सा कोई (७) नाटकीय गिमा संधिया ज्या अर्थ प्रकृतिया प्रशम्न बरित में पारस्परिक वाद- जबसवर प्रयन संवाद, कृप समणी व कृय प्रद्युम संवाद में एक नाटकीय लाप की पुष्टि होती है, जिसमें नाटकीय गिमा पा सकते है। साथ ही क्या में एक अम बीज, किन्द, पताका, प्रकरी और कार्य त्या भारम्भ प्रयत्न प्राप्त्याग, नियवामित और लागन माथि का क्रम मिल पाया है। मनुः था बस्तु ने इन लायषिक बत्यों का समाहार भी कवि ने इस कार्य काव्य में किया है। अति प्राव था मौलिक सत्य: ____जन पास काम की अभिव्यक्ति को तीव्रतर व प्रभावशाली बनाने के लिए काम थाक में अति प्रा शा ी किक दैवीय शक्तियों का भी काम सारा लिया है। सब खगों गे नायक मंत्र पुगध की मावि क्सभित कर विजय प्रान करता है। कानुशार र बनाकर ही गो वही प्रक्ट होना, अडाम होगा, मकवानों के विभिन्न प्रकार की दृष्टि होमा, अनेक विमानों या मंत्र व भादि के प्रभाव के सबका मूर्छित होना, विद्याधरो का भनी भावापीक प्रस्तुत कला, झिा के नीचे दबाने पर भी नायक प्रद्युम्न Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का जीवित निकलना आदि घटनाओं में कवि ने निश्चित रूप से वैवीय तत्व का सहारा लिया है जो क्या में वैविध्य व कौतूहल उत्पन्न करती है। पाश्चात्य साहित्य में शेक्सपियर ने नाटकों में भी वस्तुतत्व में इस प्रकार के अप्राकृत वर्णन मिलते है। सामाजिक तत्व कति में कई पसे स्थल है जिनमें कवि सामाजिक तत्वों व स्थितियों पर प्रकाश डालता स्त्रियों का चरित्र, पुलों का दर्ष, स्वार्थ आदि का जुलकर वर्णन है। जनसंबर को कनमाला के धोखा देने पर जबसबर स्त्रियों के स्वार्थ, विश्वासहीन रूप तथा कृष्ण पक्ष पर विस्तार में विवेचन किया है।वर्णन भाषा की सरलता सरसता और भाव प्रवमता देसिप: देसि चरित जब बोला राउ, अब यो पया भर के ठार विरियह सपउ जुपति गठ करइ, मो भाषा अणसुटइ भरड सिरियहि साहस यो होइ, तिरिय बरित जिण कुलह कोड नीची बुधि तिम्वरम् निहरड, उतिम छोडि नीच संगइ पगडी नीच देइ सो पाउ, एसो निवड व सहार तिरिय बियास करइ जो पर, जिहि जीउ सोयो रामा इइजे राज अमोधर मबउ, अमइ महा देशो मालयन विस लाड वा मारयो राउ, पुषि कुवा सम्यो करि मार अमया राणी किए विनाम, मुड दस लागि गए परान मिलिपि महा हो यो, लइ तप चरण शुस गया राम राम बाटी राडि, विग्रड पया पनका लागि या इडइ, संका पर सी, लाइ स्यो पहया रावण संघरइ कौरों पाडो भारत भया निस्कुिललेत महाहन व्यउ भवर पोल्मी पारि बेइ बल बोलइ दोवड नारि (२५५-२६५) सार इन विविध दृष्टान्तों कवि स्त्री परित पर कीर्विपूर्ण प्रभाव डालता है। Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२८ कथा परंपरार्य, कथा रूढि अवान्तर घटना: वस्तु में पूर्व वर्णित मौलिक घटनाओं का सुन्दर कुतूहल व घात प्रतिपात प्रस्तुत किए है। जहां तक क्या रूढ़ि और परम्परा का प्रश्न है कवि ने वन पद्धतियों प्राचीन ही रक्खी है। छंद त्या वस्तु शैली आदि में अपभ्रंश की परम्पराओं का ही अनुगमन किया है साथ ही कथा परम्पराओं में भी कवि ने पूर्वरचित संस्कृत प्राकृत और अपभ्रंश के काव्यों की कथा को मूल आधार मान कर अपने मनोवांछित प्रयोग इन अवान्तर क्या प्रसंगों के रूप में किया है। ये सब घटनाएं मूल कथा के साथ प्रासंगिक कथाओं का कार्य करती है। यद्यपि प्रयम्म के विवाह के बाद आगे की घटनाओं की संगति आधिकारिक कथा से ठीक से नहीं बैठ सकी है परन्तु फिर भी उनको क्या वस्तु की वृद्धि तथा क्था में प्रगति हेतु माना जा सकता है । घटनाओं में युद्ध की चाले, विमानों के प्रयोग राजनैतिक मन्त्रों तथा नीति प्रधान वार्यो का वर्णन कवि के बहुश होने का प्रमाण प्रस्तुत करते हैं। अनेक प्राचीन विद्याओं का वर्णन प्राचीन युद्ध विज्ञान व पौराणिक युद्ध कौशल व अस्त्र शस्त्रों की विविधता का परिचायक है। अहिंसा इतना बड़ा वृद्ध काव्य होने पर मी, खून की नदियां बहने पर भी भयंकर युद्ध करने पर भी झुम्न वरित द्वारा कवि ने अहिंसा का प्रचार किया है। नायक प्रद्युम्न अपनी विवादों के प्रभाव से सबको स्वमित कर अचेत कर देवा हैं पर किसी भी व्यक्ति की हत्या नहीं करता। अपनी विया के प्रभाव से उन efeatine भावना काव्य के मूल में है। वीर काव्य होते हुए भी यह काव्य सबसे बड़ा विरोधाere प्रस्तुत करता है। लोक काव्य: ate कायों की परम्परा में प्रद्युम्न चरित का महत्व पूर्ण स्थान है। का भाषा कवियों में अद्यावधि उपलध लगभग सभी जन भाषा काव्यों में यह सम्म सिद्ध हुआ है। व्यवहारिक जीका की छोटी छोटी घटनाओं के होते हुए भी इसकी मुख्य संवेदना ठोकोपकारक है। सरल भाषा प्रवाह, सुष्ठक्तियाँ Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२९ शब्दों का सौन्दर्य, सामाजिक तत्व, भाव की उत्कृष्टता तथा गहनता दुवारा कवि जन जीवन का रहस्य प्रस्तुत करता है इससे कृति का महत्व और भी अधिक बढ़ जाता 1 मुख्य संवेदना: * प्रद्युम्न चरित की मुख्य संवेदना जन भाषा में नायक के शौर्य, चरित तथा धर्मोन्नति का प्रचार करना है। पूरी कृति में स्थान स्थान पर कवि उपदेश प्रधान हो जाता है। जन भाषा काव्य होने से कवि ने नायक को बहुत ही विस्तार दिया है। ताकि उसके बल पराक्रम और शक्तिशाली व्यक्तित्व से जन साधारण परिचित हो सकें। कवि ने कहीं भी नायक का पराभव नहीं दिखाया है नायक के व्यक्तित्व के सफल विकास के साथ कवि ने जैन धर्म व दर्शन के महत्व पूर्ण सिद्धान्त कवाद का भी पूर्वतया प्रेतिपादन किया है। प्रारम्भ में चौबीस तीर्थकरों की वंदना, जिनमन्दिरों व मुनियों को नायक का नमन, स्थान स्थान पर मुनियों का पूर्व कर्म व पूर्व पव कथाओं का वर्णन सब इस बात के प्रतीक है। वस्तुतः ५वीं शताब्दी के प्रारम्भ में सधार की कृति अपना विशेष स्थान रखती है । सधार दिगम्बर कवि थे अतः उनकी भाषा पृथ्वीराज रासो की भाषा की ही माति है।पताम्बर कृतियों से सधार की भाषा में पर्याप्त अन्तर है जो मी हो कृति बड़ी महत्वपूर्ण है और आदिकालीन सरल हिन्दी की महत्वपूर्ण कही है। चरित काव्यों में उपलब्ध कृतियों में सबसे बड़ी कृति प्रयम् वरित ही है। Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३० ह ने मिश्वर चरित। मणिक्य सुंदर मरि (सं० १४७०) विक्रम की १५वीं शताब्दी में माणिक्य सुन्दर सूरि ने नैमिश्वर चरित काव्य की रचना की है। कवि श्री माणिक्य सुन्दर सूरि अचल ग के मेस्तुंग मूरि के शिष्य थे। माणिक्य सुन्दर सूरि ने इस कृति के साथ साथ और कई अन्ध लिखे है जिनमें चतुः पर्वीचम्पू, श्रीधर चरित (सं० १४६३) धर्मवन्त स्थानक, जुक राज क्या, मलय सुन्दरी कधा, संविभागवत क्या,सत्तर भेदी पूजा, गुणवमा चरित (t० १४८३) आदि क्था ऐन्ध संस्कृत में रचे है इसके अतिरिक्त अनेक टीकाएं भी लिखी है।' १५वीं शताब्दी में पृथ्वीचन्द्र चरित्र जैसा उत्कृष्ट गठ्य प्रन्थ लिखा है। पदय में कवि का यह चरित काव्य उपलब्ध है जो भाषा शैली और पद लालित्य की दृष्टि से बहुत उत्कृष्ट है। कृति का रचना काल व रचनाकार कासमय दोनों ही स्पष्ट है तथा कवि का जीवन काल भी विस्तार में उपलब्ध है। रचना बहुत पडले गुजराती पाषा में प्रकाशित हुई थी परन्तु इसका पाठ कई अंओं पर अटित था, जो हिन्दी साहित्य के लिए अप्रकाशित सा ही है। वस्तुतः कृति प्राचीन राजस्थानी या जूनी गुजराती है। प्रति की प्रतिलिपि अभय जैन ग्रन्थालय बीकानेर में सुरक्षित है। यों इसकी मूल प्रति पाटण के मंडार में, या दूसरी बम्बई के रायल एशियाटिक सोसायटी में डाक्टर पाई दाजी के चंग्रह में है। रचना के नाम के बामे फाग बंध बबब मिलता है जो सम्भवतः काव्य के फागु औली में लिखे जाने का सूचक है। प्रस्तुत कृति जन भाग या बोली में लिखी १० देगिय मात्माराम प्रसादी - मिश्वर चरित काम बंध वीर्षक : १-वाल्व नियक्ति अवीर, बाबायर्क विक्सि वीषिका, पिंड नियुक्ति दीपिका, बोपनिकिताबीपिकापानका सिबी पिका, उत्तराध्ययन दीपिका, आचराग दीपिका. पिंढ नियमित दीपिका.और मवतत्वं विचरण बादि। 1-जैन सर्वर कवियो।बीवाई चौडनलाल भाग २ पृ. ७७२) -भावानंद बादी galrst Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गई है। यों बोली सब प्रकार के शास्त्रीय नियमों से बंधन सीमा नहीं रहती। प्रस्तुत कृति की वर्णन शैली से इस काव्य की जन भाववत विशेषताएं तथा पद माधुर्य स्पष्ट है। यह कृति ठीक वैसी ही सरस है जैसी अनुप्रासबद्ध गद्य रचना पृथ्वीचन्द्र चरित्र समस्त कृति १५वीं शताब्दी के उत्तरार्दूध का व्योरा प्रस्तुत करती है। ___ जहा तक रचना की कथा वस्तु का प्रेस है इसमें अदयावधि नेमिनाथ के जीवन सम्बन्धी उपलब्ध होने वाले काव्यों में कोई नवीनता नहीं है परन्तु कवि ने ओक वर्णनों में बड्डी मौलिकता प्रस्तुत की है। जिसका अर्थ गाम्भीर्यपद लालित्य, ली गत सौन्दर्य आदि रूपों में आगे के पृष्ठों में विवेचन किया जायगा। कृति का प्रारम्भ कवि ने जीरापल्ली के पार्श्वनाथ और सरस्वती देवी का मंगलाचरण करके क्यिा है। कवि की शब्दावली, छंद वैविध्य तथा आलंकारिक अनुप्रासात्मक वर्णन पधति का परिचय प्रारम्भिक पति से ही मिल पाया है: नम निरंजन विमल समाविहिं भाविहिं महिम निवास रे देव जीरापल्लि वाहिलय नवधन, विधन हरइ प्रा पासरे नामि-कमा ति कुंडलिनि निवसति, मरसति साच रूप रे समर सामिपि सुजिउ परंपर परमग्राम स्वरूप रे परम ब्रहम स्वरूप, उप पुरापुर भूग, बधिमा बवियत ए, निम मिरमलय अगर अमर अनंत, भवर्मजन भगवत, जनमन रंजन ए, नम निरंजन ए अंगारित गिरिनार, गाइनु मे मिकमार, मार-विकारण्य, त्रिभुवन मारपुर गबन शुरू मेहब, दीई परमार्षद, शिव सुखकारभए, मोह निवारण ए कवि का नेमिनाथ का बाळ वर्षन, ब ब्रह्मवारी स्वरूप, कृष्ण के धनुष का चलाना स बजावा आदि बनी खोस में उल्लेखनीय है:मंचन मैपिलमार स्पा हार, बास ब्रहमचारी पन, स्वइ नारी ए - सारंग धनक घरे वि, स्वामी छ रेवि, Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाडिया पाहरिए, मनि चमकिउ हरि ए हारि उपरोधिई नेमि, तसु बालि सेमि, सुरनर सवि मिली ए, जोइ मन रली र हेला हलावी बाह, हरि हीडोलइ नाह, मल्ला -साडइ ए, बल देखाडइ २ (११-१२) प्रकृति वर्णन और वसत वर्णन के रूप में कवि का मन खून रमा है। अब्दो की सरलता ध्वन्यात्मकता, अनुप्रासात्मकता तथा कोमलकात सुषमा वर्णनीय है। राम कैद में वर्णित वसंत-गमन देखिए: ईणि वरनि रही आम दीअला, रितुवसत अवसर आइला, वाइला दक्षिण वाय तु जिन जिन कुसुमि मुभि भमरा रमणीया, भयपराय हयवर इणहषीया, भूयपि भयु भडवाय तु (पद) यगिरि मिली रमल करतो गति रमणी हीइधरंवो सले मास वसंतु जिन जिन ..... रमे रंग जावन भूपाला, शिवयमी साथै वरवाला, भाला कुसमची हाधितु जिन जिन.... पारधि पाडल के बडीर, कायर करणी केवडीए ए, बदली करे भाषद जिन जिन .... फोफळी लस फली बीमारी, बनस्पति वी मोरी, मोरीया भुगकुंव तु जिन पिन .... कुंदकली महिनहीमा मा गडीया सहकार, राब नारंग ना जंगना रंग अपार (३१-३४) गाइ बाइ वर किंवा बिक बदन सेवन, रिखन-जन-मानंदन, वंदन बपक कुछ मार के रूप में aajster और कृष्ण की स्त्रियों का वर्णन मी सुन्दर क्यिा कवि Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३३ किया है। कृष्ण और नेमिनाथ का शारीरिक रूप व जलक्रीड़ा का साथ ही चित्रण किया गया है। वर्णन सरस तथा चित्रात्मक है: अंजनवान शरीर, बेई गिख्या गंभीर इकु नेमीसरूप बीजइ सारंग घर प हरि हरिणाक्षी साथि, स्वामी सिउँ जगनाथि, खेलई खड़ो अलीए जलि पहई उकली प फीलई सुललित अंग नेमि अनइ, श्रीरंग, सींगी जलि परीप, रमई अंतउरी ए हरि सनकारी गोपी देहि मिली लाज लोपी नैमि पारवलि फिरी ए, भ्रमकई नेउरी त्रिभुवन पति घर पर रमतु नारि मकारि, ते बोलई विवेक तूं एक जण अवधारि प्रभु । परिणेकडे मानिन मानिनी मनह वार्लम, तरुणीय जनमन जीवन यौवन अतिहि दुर्लम (३८-४२) कवि ने राजमती के उल्लास का वर्णन, उसके रूप सौन्दर्य का आलेखन क्या नैमिकी अलंकार सब्जा, छत्र, चमर, लूण उतारना, धवलमंगल गीतों का उपक्रम, समस्त देवों का बरात में आकर शामिल होना, संगीत वाद्यों का अलाप, नारद का गीत गान आदि सभी सुन्दर चित्र उरहे। ही एक दो उदाहरण अलम् हो: चकोर लोचनी मिली, निज निज मनि रली बली वली अलंकरइना हरे चतुर ऐरावणि प्रभु यदि चालि कालिज पूयमि उच्छाह रे काने कुंडल पलकt जिम सक्षि रवि-मंडल, मंडल वह सवि जोवई रे उरिवार हरु fatवरि मणिमुकुट, कटक कैकणि करि सोहई रे ---- 4 Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३४ बहिन उतारह ठूण स्वामी साच सलूण, पूठिई धूलही ए गाई धउलहीए आविउ अमरह राउ, वलि निसामे छडि राजा वासुकिए,आविउ आस गिए ग्रह तारा रवि चंद, आवइ अप्सरवूद आप दिउ मनुए, मिलिउ त्रिभुवनु ए वर्णन की अलंका रिकता स्पष्ट है। लूप उतारना एक राजस्थानी प्रथा है जिसमें वर के विवाह करने पर नजर न लगे इसलिए बहिन उस पर ममक उतार कर अग्रिन में डाल देती है। ____ वस्तुतः कृति में पशुओं का दन सुनकर नेमि के विरक्त होकर चले जाने पर राजमतीबद्वारा किया विलाप बड़ा हवयकारी व करम है- राजमती ने नेमि को कड़ी देर से एकटक निहारा था सहसा इस मयानक अप्रेत्याशित विधून को कोमल नारी नहीं सह सकी। व्याकुल होकर धरती पर गिर पड़ी, पछाड़े खाने लगी। सखियों ने बदन जल छिड़का, कवली दल से व्यजन किया, चैबना आने पर राजुल विलाप करने लगी, कंकण तोड़ दिए, साती पर का हार उतार कर *क दिया. हे मेरे जीवन आओ। आओ) मे भार तुम ---- है पपीहे --- पि पिउ न बोलो, क्यो कि पिठ तो स्वयं ही मेघ के पास चला गया है, अदृश्य हो गया अब तो बिजली मी निश्वास निकल रही है। आसुनों से सरोवर भर गए है. हे इंस) (जीव) अब उड़ जाओ। प्रियतम दो सिद्धि रमणी में रम गये और अपनी प्रीत भूल गए हे प्रियतम माठ मवान्तरों का नेड भन आकर क्यों तोड़ते हो। राजमती जल विहीन मछली की पाति तड़पने लगी।वर्षन का पद लालित्य, कसम विप्रलम कवि के विविध पकों और उत्तवाओं के टूवारा निखर उठा है। देखिए: राजमती बाला विविह परि विलपति पति वियोगे अपार रे फोड़ा कण विरह-कराठी रालीय उरतणो हार रे धार चार गाइ जीवन मोरडा मोरहा वासिम वासि रे प्रीय प्रीय का करिव पापीयड़ाग्रीयड मेहनइ पासि रे खसी बीच चबम बलि काली दल की वार बलि बेखन जाषिउ वलिल यादवराउ Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३५ बीता सरनर इंद, पणित नेमि जिपिदं, मयमिन छाहीउर नारि न वाहि ए देव पण तूं देव धर्म प्रकटि प्रमुदैिव पवियण जिणि तरंइ रे भव वनिनवि फिरई ए (04-00) गत मत्सर हिव जिनवर नव मइ रसि सलीन खेड संजम आदरइ करइ विहार अदीन दिवस पंचावन पामीय स्वामीय केवल ज्ञान (७९-९०) विरes मिलिय देवासुर समोसरण प्रधान और इस प्रकार अन्त में कवि काव्य का अद्देश्य, चरित वर्णन का परिचय तथा अपना नाम स्पष्ट करता है। कृति निर्वेदात समाप्त होती है। पूरी कृति प्रबन्ध शैली मैं लिखी गई है और कुल ९१ छंदों में काव्य समाप्त होता है। अन्त में कवि परत वाक्य की भांति शांति वचन कह कर काव्य समाप्त करता है: श्री जिनपति भारतीय प्रसादिवि अंतरंग करि केसरि नादिहिं चरितुरचितं मनरंगि लच्छि विलासह लीला कवले ars मोह सामलता विमल, छेद कलि मल मंमि (चरण-कमलि तुम्ह मुंग नैमीसर atederer माणिकसुम्दर सुललित गुण भंडार) श्री यादव कुल भूषण हीरो मेह जैम गाजइ गंमीरी दूध कुसुम सर वीरो तूं बन्द स्वामी सामल धीरो गज जिम सब सहजि बैठीरो, इरिज सा मातु वरीय रिy अंतर की निरजनीया विषम मोह मद जिरिणि दनिया नेमिवर संवाद कुल मा सा राजल राणी मा तू सुभट करता बगि जापी विश्वल शिव प्रासादि Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वय अवर जिम के तिहि मिलीया, सुंदर परम ब्रह्मासि मिलीया इस वर्जित विलसति रसि जु मनि जिण बरिय मु/दिहि, कुन मति पुणइ सुणई आदिति का मंगल नित इति (९१) वस्तुतः कृति में कवि ने रासु, अउ, फाग रास या रामो आदि छंदों में रचना की है। साथ ही बीच बीच में कवि ने संस्कृत श्लोकों में अनुष्टप, माया, शार्दूलविक्री ड़ित, शिखरिणी आदि संस्कृत छदों को भी प्रयुक्त किया है। कृति की भाषा प्राचीन राजस्थानी है बीच बीच में अपच के पी अब्द माये है। पदावली सरल है। साथ ही कवि ने अलंकारों का स्पृहणीय वर्णन क्यिा है। आतर यमक प्रमुख अलंकार कृति की क्या वस्तु सरल है नायक राजवंशी है जिसका मन्तब्य आध्यात्मिक संदेश है। मुख्य उद्देश्य कवि का नेमिनाथ का चरित सरस रागों वा डालों में संगीतबद्ध करके जन मात्रा में उनके उत्तम आवरों का प्रचार करना है। क्था काव्य अहंडित रूप से समाप्त होता है। कवि ने वर्णनों में यथार्थता का प्रयोग किया है। ली भित्र है तथा पदावली कोमल कात है। भाषा में अपूर्व प्रवाह है। कवि ने बीत की बहारों से लेकर निद का जीवन्त वर्णन किया है। १५वीं शताब्दी के चरित काव्यों में मेमिनाथ चरित फाणु बंध जैली में हिल गए कायों में उत्कृष्ट काव्य है। कवि मे मुन्दर रूमक, उत्प्रेवाएं, उपमाएं, और विविध अलंकारों का स्वाभाविक वर्णन किया है। कहना न होगा, माणिक्य सुन्दर पूरि का विस प्रकार का स्पृहणीय काव्य पशवीन्द्र वाबिकास है वैसा ही षड्यात्मक कृतियों में मेमिमा चरित फागुबंध Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३७ विराट पर्व': (शालि सूरि) सं० १४७८ से पूर्व विराट पर्व पान्डवों की बरित कथा है जिसमें बनवास भोगने के बाद पान्धवों का १ वर्ष तक अज्ञातवास का वर्णन है। यइयपि कवि ने कृति में चरित नाम कहीं नहीं दिया। पर्व नाम से महाभारत के पर्व का स्मरण हो उठता है। अतः पर्व सर्ग विभाजन के लिए शब्द है। अतः काव्य की कथा वस्तु के आधार पर यह कहा जा सकता है कि यह विराट पर्वपान्डवों के जीवन का एक छोटा सा पर्व है, जिसे उन्होंने विराट के यहां रहकर बिताया था। पूर्णिभगच्छ के गुरु मेरि के शिष्य श्री शलिसूरि में इस कृति की रचना की है। कृति अहमदाबाद के पास सनंद नामक ग्राम में लिखी गई है। इसकी प्रति में पत्र है जिसकी प्रतिलिमि वि० १६०४की मिलती है। कवि ने अपना नाम स्पष्ट कर दिया है. आणि विराट चिटु पाण्डव हवं पूरि कीधर कवित्त इह कृति मि शालिमसूरि अतः यह स्पष्ट है कि कृति हर्षपुर में लिखी गई है। कृति का काल निर्धारण इसके समकालीन लेखकों द्वारा विराट पर्व के उद्धरणों को उधत क से से निश्चित हो जाता है कि १५वीं शताइदी का उत्तराईध ही अर्थात १४७५-७८ के पूर्व ही रहा होगा। क्योंकि मा मिल्म सुन्दर सूरि ने इसके उधरण दिए है जिसका समय सं० १४७८ है। विराट पर्व प्रबन्ध शैली पर लिखा हुआ एक बहुत बड़ा काव्य है जो १२ कड़ियों में लिया हुआ है क्या बस्तु पौराणिक है या जैमेवर शालिमा मूरि के प्रसिद्ध चरितमूलक रामथ पैच पंडव बरित राम के पश्चात् यही एक ऐसी कृति है जिस शालिमूरि ने बड़ी क्षमता 'समाला ति को भाइयोपान्त अनुशीलन करने 1-र राबावीपीयो०षस सी-१८ ० ४.४। Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३८ पर यह स्पष्ट हो जाता है कि कवि ने कहीं भी जैन परंपराओं का वर्णन और पालन नहीं किया है। सिर्फ एक पंक्ति में जैन प्रभाव स्पष्ट होता है: जैणि देखि जिण माणस मोहइ १ कवि का लिहूरि नै विराट पर्व को दो भागों में विभक्त किया है: १- दक्षिण गोग्रह २- उत्तरगोग्रह | पान्डव कवि ने महाभारत के विरष्ट पर्व की कहानी को चुना है उसके नायक पाच | रचना जैन सिद्धान्तों, परम्पराओं और अन्य किसी भी जैन प्रभाव से एकदम कुत है। पूरी कृति एक प्रकार का युद्ध काव्य है। विराट पान्डवीं व कौरवों का युद्ध अत्यन्त प्रभावशाली काव्य कौशल प्रस्तुत करता है। पान्डवों का अज्ञातवास और अज्ञात्वैश में युद्ध करना और फिर सारा मेद मुलना इसके उत्तराईच मैं है तथा पूर्वाध में पांचों पान्डवों का वेश बदलकर अपने शस्त्रों को बाहर खेजड़े मैं छिपाकर विराट के पास द्रौपदी को साथ में लेकर जाना तथा पांचोंका दूत, ब्राहृमण, बाल और अश्व विद्या प्रवीण, तथा नट (नूतक) आदि विभिन्न नामों से कार्य करना, और द्रौपदी का सैरन्ध्री बनकर विराट के अंतपुर में वृत्ति स्वीकार करना, कीचक का उस पर प्रवृध होना और मारा जाना आदि वर्णन है। नीच बीच में अवान्तर कथाओं का वर्णन चरित में माख्यान की कथा वस्तु में तीब्रता प्रस्तुत करता है। यह पूरी कहानी ११वे वर्ष की है जिसमें पान्डवों ने अज्ञात वास किया । को पान्डव अपनी वास्तविक स्थिति का स्पष्टीकरण करते है। प में यही कथा का सार है। पान्डवों की बारित्रिक विवेक्ताओं, शौर्य सम्बन्धी गुणों तथा मेरन्ध्री का सेवा भाव आदि अनेक रूपों में कवि ने इस महाभारत के सुन्दर स्थळ विराट पर्व में चुना है। कवि प्रारम्भ में भारती का मंगलाचरण करके वरदान मागता है और अपनी काव्य रचना की क्या वस्तु का भी स्पष्ट उल्लेख कर देता है: - १- वहीं पृ० ३६४१ (The collumalry Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३९ कासमीर मुख मंडण माडी, तू समी जगि न कोई पिराडी गीतनाहि जिम कोइल कूजइ तू पसाई सवि कुतिग पूजइ भारती भगवती एक मागू चित्त पाढव तणे गुणि लागउ आपि मू वचन Î रसवाणि हूँ करउं जिसि प्राकृत वाणी पंच पंडवि बर्नहरि विमासि तेरिवरस कैमि गमेसि नारद ने पान्डवों को मध्यप्रदेश में रहने को समझाया। बेजड़ी में वस्त्रों को छिपाकर देव रूप को त्याग कर सब विराट के यहां पहुंचे तथा पाचौं पान्डवों व द्रौपदी ने अपना वेश नाम व कार्य छिपाकर कृत्रिम कार्य व देश तथा नामों का स्पष्टीकरण किया है वर्णन की सरलता देखिए: खेजड़ी सिहिरि शस्त्र नियुंज्या, देवरूप बलि मंत्र प्रयुज्वा हुपदी रहई ते मति आलीग्या विराट नृप मंदिर चाली पाणि पुस्तक सुबर्ण जनोई रूपर्वत पह बंधण कोई जी विराट नृप चित्ति विभास, विप्ररूप नृप वा इम पासइ हूं युधिष्ठिर सभासद विन, तूं यधिष्ठिर नरेश्वर मित्र पाच पान्डव वनासरि माठा, वा हरई सरणि तु अच्छे पठा दूत लक्षण कला सबि जाई, मूं हरई इसि राज पराज प युधिष्ठिर नरेन्द्र बूयार नामि वल्लम भुजाबलि द्वार हपदी तु चनावण हार, ए बृहन्नट कला सिणगार reads vs वीर नकीज, अपव विदूय सथली हरइ डईइ trend you गोरवाल, पात्र घरि यह गोवाल पंच र पुरुष लोक प्रसिधा मान्डुपुत्र रिदि समुद्धा पत्र कषि हिंदी ते व पार्थ पुरंद्री कवि ने हैरन्ध्री बनी द्रौपदी का सौन्दर्य वर्णन किया है। कीचक उस पर मुगु हो जाता है। उसके बसाधारण सौन्दर्य को ने सबको चकित कर दिया उसके सौन्दर्य की महकिकता देखिय: Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४० नागलो कि वसपाहर काली, मानवी घटिसि तू निहमाली तिर्य लोक कोइ देव न दीसई ताहर जनम जैणि कहीसइ अहह रूप असंभव भूवलइ, कवण कामिनि एह सभी तुलह डिव हाठि मुझ मन्मध पारिवा, एड जिऊण अंग ऊगारिवा वदन चैव महारस लैइ छाडिउ, अभिय पहतपी रसना जडिळ पवन चंदन गंध हरावतउ, वदनि वासि वसइ दिसि वासन नयण ला मृगनी उपमा किसी, हईइ हारिउ बेडि गई वसी चरण चारिहि हंस हरावती, वच नि जीपइ जीती भारती निरूपम कुलवाली पनी चित्रसाली, अबिकुल गुणवल्ली काम भूपाल मल्ली कइ हुइ सुरराणी मानवी मईन जाणी, अहव हुइ जि नारी को इतु हुइ गंधारी वस्तुतः कवि ने द्रौपदी का रूप वर्मन उत्कृष्ट उपमानो से किया है। चन्द महारस लेकर बनाया हुआ मंड, अमृत मयी रसमा, बसों दिशाओं उसके अंगों की सुरभि तथा सौन्दर्यममी नायिका के यौवन व रूप का चित्रण कवि मे अपन्हुति अलंकार द्वारा किया है। कीचक में अपने प्रेम में द्रौपदी को कैसाना चाहा, द्रौपदी जैसी महासती का प्रभाव यद्यपि विराट की पत्नी, कीचक की बहिन को लग गया पर कीचक ने उसे उलझाने के उपाय किए। कवि ने सुभावितों और इम्ति निति प्रधान उक्तियों द्वारा द्रौपदी की स्थिति का चित्रात्मक वर्णन किया है: पगंधकारी मिति सदासी, रही बछ उत्तम नारि बासी किमान पापिल का वैब बागइ मनवापतु अंध उगाडिदाइ ग्वाला ज्यालखी कहि न पइड, जल नी धारहि कुम बहसइ Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महासति सिले कुन हास्य कीजड, तु जीविया कीचक नीर दीजइ मैत्ति बात पर ही सवि बाइ स्त्री तळे सवि हई जा' माई । नारि नीरस न शाणि न राचई अश्यहीन पति पद्म बंबइ (पद २६-२८) द्रौपदी के कारण कामुक कीचक की हुई स्थिति का आलंकारिक वर्णन देखिए: भमरठ मरिवा अणबीहतर, पसरि पइ केतकिई हता कठिन कंटक को डि कटी रडइ, पडिउ बेधि पुरा पुणि भारढाइ गहाउ मेहि कीचक नीच थिउ मनिसु मन्मथ मार्गगण नेमिधिल भरति अंगि अनंग ती पणी, हृदय मा सुटकइ मुगलोयणी टलवलइ जिम निर्जल मछिली, वल वलइ अति अंग बली वली मलाइ लामइ लावर पाकुर, विरहि विहवल वावर वाउला (३१) कामुक कीचक को पी पतिव्रता प्रौपदी ने बहुत समझाया। हर तरह से उसने अपने शरीर ब सतीत्व की रक्षा करना चाहा। अन्ततोगत्वा भीम ही स्वयं द्रौपदी बनकर चला गया और कीचक का वध किया। कवि की उपदेशात्मकता नी निवा और विविध उदाहरणों तथा दृष्टान्तों द्वारा किए हुए विविध वर्णन उल्लेखनीय : मकरि कीचक कूड निकालिजा मरी बमू करि मूढ म जालिजा अक्ल अंबुधि माहिम कापदइ, मुडि इलाडल ल म बला वदन निम वानर वा पिणी काम पाहिसि मीलन मागिणी बदनि 'सिलं विसवेलिन टीड, गुण्ड पांच नसे नावि इंटियइ भरि मालनि जेम विरोलियइ तिन न केवकि केलि धोलिया खणड कापि न इंगर डोलिया, बडह का करी कुल गोलिया करि धरी धूबड़ धाइ बाइ, मादती दूपति बूंब पाडा चार घरामायक राशि राशि, ए पपीमा मईफल दासि दावि (४१) रोपवी रमपि भी मिनिवारी, दिक्षाडि पुषि जीपई तूं मारी काहि लोक करी असीगाठी आणि विकुन अनि शाला हुपदी गई गामि बिहार पगि मिसि कीचक आपइ Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४२ आजि आविज निश छइकाली, जीह हो नड नचावई बाली हुईंय का मिनी म निरुपमी रहिउ भीम तमी मुख बीसनी बहुल मक्ष मनुक्ष मरे करी, गयउ सोडि कीचक सुंदरी भक्ष्य भोज्य सवि भी मि निहालि, खाय साससि करा मुखि बाली चाहि माहि मुहा मलिउ प्रीमि सीच कीचक कर मढ़ पीमि (५७) कवि ने पान्डवों के इस अज्ञातवास को नियति के बड के कारण ही स्वीकार किया है।अपनी इस कष्टजनक स्थिति को राम लक्षमण, हरिश्चन्द्र और कृष्ण की भील के हाथ मृत्यु आदि अन्तर्वथाओं द्वारा स्पष्ट किया है: पाच पान्डव रहया इम नासी, हुपदी रही थाईय दासी देव वाणव न राय न राउ, देव भागलि न कोइ सपरापठ राम लक्ष्मण मही इति पाडया, पाच पान्डब विदेसि भाड्या डूंब नईधरि जल बहिरिचं दिई, भालडी मरण लाच मर्कदिई उत्तराध में कवि ने युइधों का वर्णन किया है और इन पान्डवों के अज्ञातवास का भेद खोला है। कवि ने युद्ध की तैयारियों का वर्णन बड़े ही कौशल के साथ किया है। कवि ने अपने लोक अनुभवों को पीसाथ साथ उपदेशात्मक नीति वाक्यों के रूप में रक्सा है: एक बार परिसी जलजाइसात बार गुण जाणि पाइ जीमि पूड सदाफल होवई जेमि देसि जिण माणस मोडा जीह दाम हरिद्र म फेडइ राग शेक जीह लोक न पीडा पीमि देसि नृप हुइ सपरापर, तीपि देसि इहिब पान्डव बार अधों के वर्णन में, सैनिकों की सजा, वस्त्रों की सनसनाहट, योधाओं का शौर्य हाथी घोड़ों और सवारों का प्रतियोक्तिपूर्ण वर्णन कवि के कौशल का प्रतीक है: व बह मिली पार कापी, कल सीम पुरनी पु झापी रोभिराउ भक्ती परिगाड़, आज रे मई विराट कम ताजा इन्द्र भावण दोड असाहरी, सीह रहाई क्वा होइपारी सेक नाग फल कुंग कंपाबा भीम मैक्यम अश्व टपावर Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४३ धम घमिउ पुरि नाद नीसाम नउ, गहगहिउ सुर वर्ग समाणनउ कल कली बहली रिण काहली टलबइ प्रज हुई माली दड दडी द्रमकी द्रमक्या अरी, इटहुडाट दुर हुडकी करी कल कलइ जिमि वारि निधि पलइ किमि भूधर कैपिटल टलइ विसम ढाक्स दूक्स ढमढमी, परहरी परमेरि बिहामणी मुहड़ नी महिली रिण साभली, प्रिय कहइ सवि ते मन नीरली 'प्रिय मुबिई मर मंदिरड लही, मकरिजे कइy विष वालही वीर कंकण भले भाडि बाध्या, राय हाथि तई बीडा लाध्या जोउ जीण मड भीषण माला, बीर ना सयर केसर याला चपल तुंग तरंगम पाखरिया, गुड गुडया असवार ते साचरिया नृप विराट 'बिनागज पाडवो, सहि गया समरामाणि माडवे कवि ने वीर रस के प्रतीक उत्साह की सफल अभिव्यक्ति अब्दों की मिठास, ध्वन्यात्मकता तथा अनुप्रासात्मकता विविध उत्प्रेधाओं में ढाल कर प्रस्तुत की है। उदाहरण दृष्टव्य है: पतलाइ शुभमा दलि ढोल वाजई, जामे असा किरि मेह गाड हीया धसूकई सर शेष सूकई मय बीहता कायर जीव धुंबई तवल नै घबके थर धूबबइ, अरितका मन में मद छूटबई किल किलाट करी हबकी करई घड पडइ भड राक रडी मरइ बाण धोरणि बिहुँ पथि घटई नाद सी गिणि तो गुणि सूकई बीर बी सिमडी माजह, गूढ गयभर तपी गुडी गावह अहह धाक धारणुक धानुक मि जडा, खडग धार कि कोडि खडखडइ समरि दूर बसा विचि मीभली, धसमस्या सुभट ते रिण साभली दुरपायक मायक सरियां हड चर्मति फोडई सुसरा यण मवि रथ यूं रखना धनी, तुरन सितुरमै रध माडमी पर षडई घर परि नाचता, रडबड शिर संगारि वा (८४-८९) Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४४ तर सैन्य छाडी रथ वाम डिउ, गोर्बुद बाली मनसाल फैडिउ तउ बाउ वेगि कुरु राउ उधर, अगस्ति भो मिधि ओमपीधर जाणे फिरिया सीह रहई सीयाल, मातंग नई जैम मसा माल चिह्न पसे अर्जन बाण छूटइ, सन्नाह माहिई सर सीघ्र फटूई तुरंग मातंग स्थलि पाला, ते पार्थ ने वारिया पंसाला बापबली कौरव नीबि खेड करई शुरले बलबड चंड (६५) एकि ना रथ हया शव बैंड, बेलि बाढी रहिया बलखंड एकिना रथ तगा हब प्राग, तीह ना मिस करी एकिनाठा (७१) गजेन्द्र कुमास्थल सीस डोड, कोइ हिंडोला जिम सीस डोलाई तुरंग मातंग तिं नीद्र घोरई न पक्षया नीलडी बगोरई (७८) पकि ना घड पडयां इकि जोई धारता घड़ नरेन्द्र बिगोई 3 राउ इमोशन एवि भासद, हार हसी पडिड विरवासद ५ नारि कपि मर राज कोई काई सपिइ इह पार्य होई (1) इस प्रकार । वर्ष की इस अवधि में कवि ने विराट पर्व को युद्ध स्थल ही बना दिया है और अमावासी व माती पान्डवों को योधाओं के रूप में चित्रित किया है। कवि को प्रकृति वर्षम तथा अन्य कोमल अनुभूतियों की अभिव्यक्ति का जैसे कोई स्थल ही नहीं मिला ऐसा लगता है। बीच बीच में कवि ने पार्थ चिन्ता, पार्थ उवाच, मामेव उवाब, उत्तरो उक्ति, अर्थम रक्सि, बृहन्महावाक्य, वृहन्नड़ा सवाच, दुर्गाचा पाय उत्तरवाक्य, अर्जुन गिता आदि शीर्षकों के अन्तर्गत अन्टाक्तियों का उपदेश और नीति प्रधान वाक्यों के रूप में उपदेश देकर कृति के कई मामी वर्णन चातुर्व भाषा सारल्य और पदलालित्य का परिचय दिया है। कृषि बीर भाबि रसों का निवास है। पान्डवों की विजय होती इसी ईमानन्द कवि ने ऋति को समाप्त किया है। यह कृति अद्यावधि Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४५ उपलब्ध सब निर्वेदात कृतियों में अपवाद है। • विराट पर्व जन भाषा काव्य है। इष्टानुतौ अर्थान्तरन्यासों, उदाहरण, अनुप्रासों और सुन्दर रूपकों के द्वारा कवि नै कति को उत्कृष्ट बनाया है। छंदों के रूप में इसकी देन असाधारण व अनूठी है। जन भाषा काव्य होने से कृति के उदाहरण अनेक तत्कालीन लेखकों ने उद्वत किए है और कई पंक्तियों में इसकी हाया है- कुछ उदाहरण दृष्टव्य है (१) माणिक्य चंद्र ने अपनी झुकराज कथा में इस उद्धरण को दिया है: इससे विराट पर्व को मिलाइए: देव दानव राउत राम देव ममलि न को सबराणउ डब नइ धरि जल वहि हरिचन्द भीलडी भरण लाघुमुकुन्दइ विराट पर्व : पाच पाण्डव रम्या इम द्रूपदी रही थाईय दासी देव दानव न राय न राग देव आगलि नकोइ सपराणउ राम लक्ष्मण महि पाडया, पाच पांडव विदेसि भमाडया ers घरिजल afsd हरचदिई, मालडि मरण लाच मुकुंदई १५वीं शताब्दी के श्रृंगार शतक में देखिए: श्रृंगारशतक! कमलने दलि सीतल साथरउ, कवि कोमल पत्रम पाथरज म करि सुकडि मूकडि, दूकडी, दवितु पेलि न डेलिन बापडी विराट पर्वः सथम सूकडि सहरि सीची पवण पूरिहिं बीजणी वीजीइ कमलने दलि साधर पाथरउ, मरड़ कीचक मम्मथ आफरत १- भारतीय विद्वयाः वर्ष ३ अंक १, पृ० २१०-२२३ तथा जी०ओ०ए०सी० १८४० ४ २. रूप सुंदर कथा: डा० पोमीलाल जी साडेसरा: भूमिका भाग पृ० ७ की पादटिप्पणी । Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४६ वस्तुतः कौन एक दूसरे से प्रभावित है निश्चित नहीं कहा जा सकता। अदिध रासः अणजाषिउं फल किमई म कार' विराट पर्व:- किमइ न जापिठ फल नैव साजइ इस प्रकार कृतिमें तत्कालीन, समकालीन कवियों के काव्य से साम्य स्पष्ट है। दों के रूप में इस कति ने नया स्थान बनाया है। यद्यपि कवि ने इस रचना को कवित कहा है।परन्तु कवित तंद आझ्योपान्त कहीं भी प्रयुक्त नहीं है। समवत: कबिल्त से उसका अभिधा में अर्थ कविता से ही है। भवः इस दृष्टि से इसे कविस्त रूम के अन्तर्गत लेना ठीक नहीं है। गुर्जर रासावली के सम्पादकों ने इसे इसी कवित्त माम के कारण कवित्त काव्य स्म में स्थान दिया है जो सम्भवतः बहुत संगत नहीं कहा जासकता। कवि ने रचना में शुद्ध वार्षिक वृत्तों का प्रयोग किया है। त्रिभुवन दीपक प्रबन्ध की भाति इस कृति में भी वार्षिक संद है। कवि ने इन छंदों का स्वम्म अनशास्त्रीय रक्खा है इनमें विसी भी प्रकार का पात्रा या देशी दो का पुट नहीं है।वस्तुत: इन छदो औरभाषा दोनों दृष्टियों से स्वा का अपना स्थान है। कुछ शास्त्रीय बार्षिक छंदों के उद्धरण देखिरः- विलंबित माह प असंगम भुवाइ, क्वष कामिनि एह सभी लड़ हिब हठित म मन्मथ मारिबा, एइ जिउडक अंग मारिवा (२०(१) (२५),आदि (२) स्वागता बाद वाजत गई कर मेहि वाश्य हुन पडिउ गति देहि ए इक्षित क न पाडव टाली कूड कापि बहम यह हीवाली (६५) १- मारणीय बियाः वर्ष १ . पू. २५॥ Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४७ (३) वसंत तिलका वयराट उत्तर पसई कुरु राउ पाउ अघोहिणी दळवणी रज सूर छायउ नीसाग ने सहसि अंबर घोर गाजइ ५ पाच पाडव तणउ किरि भेजु भाइ (१०२ पृ० ५० (४) उपजाति ए गंधकारी मिसि रूम वासी, रही अड़ उत्तममारि नासी किम इन जा पिउं फल नैव साजइ, अण जाणतु अंघ भवाडि वाश (५) मालिकी. निरूपम कुल बाली, उपनी चित्रसाली अविकुल गुण वाली काम भूपाल मल्ली कह हुइ पुर राणी मानवी मईन जाणी अहत हुइ चिनारी वो इतु हुइ गधारी (२५) इसकेसाथ ही कवि ने इन्द्रवत्रा (पाग १ पद ३, भाग २ पद ५) तथा उपेन्द्रवजा (भाग १, छंद , भाग २, मंद में भी प्रयुक्त किया है। पूरी कृति का प्रमुख छंद स्वागता है। साथ ही कवि ने बीच बीच में दो का मिश्रित समपी प्रवक्ता किया है जिनमें रथोधता, इन्द्रवत्रा, रथोड्यता-स्वागता, स्वामता रथोइधता, इतिविलंबित-स्वागता आदि ' इस कंद के शिल्प तथा पुरानी गुजराती के उच्चारण से इन बी के सम्बन्ध पर गुर्जर रामावती के संपादकों में पर्याप्त - 1.4.0.8.OXVIII Page (8-00) the analysis of the mixed stanga 18symptomaticsathem.Poetryaaloinolined to useixed atan as of gyllable setres just as we find here in 00 Poetry. 2. Ibid. Another point which draws the attention th. Vaxation be tween the spelling and the exact prosedie prenanalation of words Th. wetreal for being e yllabie metre, the stanza is governed by the length, ahortness and number of theullables. The 12.1.0. Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४८ प्रकाश डाला है। भाषा की दृष्टि से भी प्रस्तुत रचना पर्याप्त महत्वपूर्ण है। भाषा सरल हिन्दी के शुद्ध तत्सम स्वरूप प्रस्तुत करती है। कहना न होगा कृति इस प्रकार काव्य कौशल, छंद तथा अलंकार आदि सभी रूपों में महत्वपूर्ण है। बरित काव्यों में इसका स्थान पर्याप्त महत्व का है।कृति का सम्पादित पाठ उपलब्ध है। spelling convention of 04. is not us exact as the skt. convention. Thus an OG. stanza, when spoken holds a different form which is is approximato symbol. Hence it would give us some 88 assment or morgue of how the written oG. word represented thespoken OG. words......xxx Thors are a few lines which show the prosodic contamination. This 13 due to a great gap that come into being between the actual ug song and the song transcribed. The transcription We always a 11ttle inexxct and had only & fragmatie Talne. The poem was meant for singing and that was the dominating idea. (0.0.S.OXVIIT-page9-11). Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४९ : आदिनाथ पुराणः 88880000 यह ग्रन्थ अप्रकाशित है तथा आमेर भंडार जयपुर में सुरक्षित है। प्रति परिचय इसप्रकार है- पत्र सं० २१५ साइज हिन्दी में लिखी है।प्रति साइज १०।६ इन्च प्रति पृष्ठ पर १३ पत्तियां है और प्रत्येक में ३-1 अक्षर है। प्रति आमेर शास्त्र पडार जयपुर, वेस्टन ने० ९३। __ प्रस्तुत प्रति की प्रतिलिपि राजस्थान के ग्राम मैतवाला में पार्श्वनाथ के उपाश्रय में की गई। प्रन्धकार ब्रह्म जिनवास ने और भी कई प्रसिद्ध ग्रन्थ लिखे है। जिनदास भट्टारक श्री सवल कीर्ति के प्रशिष्य के प्रशिष्य तथा भुवनकीर्ति के शिष्य थे। प्रस्तुत काव्य, मगवान आदिनाथ का चरित आख्यान है। कवि ने विशाल मम में सारा चरित वर्णन किया है। विस्तार में पुराण में कवि ने आदिनाथ के जीवन चरित के पूर्व भवों का वर्णन किया है। पुराण में आदिनाथ के पाच कल्यापकों का विस्तार में वर्णन है। आदिनाथ के दोनों पुत्र भरत और बाहुबली के चरित पर भी कवि ने विस्तार में प्रकाश डाला है।आदि पुराण में प्रारंभ में ही कविने . श्रीसरस्वती माताये नमः- अब भाविपुराण रास लिख्यते-से रचना कारास नाम स्पष्ट होता है परन्तु रास का शिल्प नहीं होने और पूरा काव्य ही चरित मालक होने से, तथा क्या प्राधान्य के कारण इसे चरित संज्ञक काव्यों के वर्मत ही स्थान दिया है। प्रस्तुत रचना के कस्ता विमम्बर है अतः दिगम्बर और श्वेताम्बर लेखकों की भाषा का स्तर हाटब्य है। कृति का प्रारम्भ कवि ने मंगलाचरण से किया है। कवि नेवादि जिनेश्वर और सरस्वती की वंदना करइस चरित बाख्यान की रचना की है। १- आमेर शास्त्र मंडार-पत्र - ११५ Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५० रचना पर्याप्त बड़ी है तथा २१५ पत्रों में लिखी गई है:वस्त:- आदि जिनेश्वर आदि जिनेश्वर आदपिस सरसती सामी ने बलीसाव इघि सारु माग निरमल, श्रीसकलकीर्ति पाय प्रणमीने मुनि भुवन कीर्ति गुरु वाहु सोडजल, रासकरी सीडू वडो' तम परसादे सार श्री आदि जिणंत गुण वर्षई चारित्र जोड भवतरि कवि इस प्रकार अपने लिए सरस्वती से सुधि मागकर श्रोताओं और पाक श्रावकों को सावधान करता है:मास जशोधरबि भवियण पावे सुगौ आज रास कई मनोहार आदि पुराण जोइ करी कवित्त कममोहार बाल गोपाल जिम पढे पुणे जाणे बामदे जिन सासम गुण नीरमला मिश्याम ते छ। कविने स्थल स्थल पर संसार की नश्वरता और कर्म विपाक विमर्श किया है। अनादि और लोकालोक तथा संसार रचना वर्णन देखिए अनादी नो धनसार, रचियो नहीं म विचार त्रिलोक तमो कई हुवे भेद, जिम कुमति पो हाये छेद भातोका कार अनंत परदेव केवल मान गोचरनरेश बेड मध्या के कावास सावरक को गुणवास " उक्त उइधरण में नो, आदि विपक्सिया जूनी गुजराती की है। वर्मनों में कमि ने विविध स्थानों की पति रखी है या गहन बन को ही सरल वर्षों में स्पष्ट यिा है। इन स्थानों से वर्णन में प्रवाह आ जाता है तथा पाका सरल और बरस बम बाची स्थावत्व के कारण ही चरित आस्थानों १.भामेर शास्त्र भंडार-पत्र.१५ १. आमेर शास्त्र मंडार पत्र-बादिनाथ पुराण, पत्र४॥ Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का प्रचार प्रसार बढ़ता है: बैंड सेन राजा बलवंत, धन जोगयो तेणे बलवंत थन उपरे मोह कीयो पोर मरता अति ध्यान हुवो थोर आर्तध्यान परी करी जाप,अजगर सर्प हुवो इस बाण भंडार माहि अति ही अपार, कोप करे ते अतीह वीसार ' इस प्रकार पूर्व जन्मों का वर्णन करके पापकर्मों के निराकरण से कवि ने मनुष्यों की मह इत्तियों को जाग्रत कर उनका मुकाव धर्म की और बनाये रखने का सतत प्रयत्न क्यिा है। बधा परिवर्तम और सपरिवर्तन की सूचना प्रद्युम्न चरित की ही भावि इहा छंदों में दी है उदाहरणार्थहा . ए क्या है। इही रही, अवर सुणी गुणवंत ब्रह्म जीनदास ईम वीन,भवीयण तुम्हे जयवंत कवि के वर्णन सरल अंतधाभों से युक्त है।भाषा में प्रवाह और चरित गुणों के लेखन में एक चित्रात्मकता के दर्शन होते है। क्या तत्व पाठकों की रूचि को क्या नामक की ओर खींचता है। वर्षन की चित्रात्मकता अतथाओं का मिठास भाका की सरलता और प्रवाह देखिए। पास रासनी. वानर नी क्या हवे कहा रायसुमो मुजाणतो मामा कर्म तेणं करयोर मप्रत्याख्यान इस जाणतो सुधन मगर एक गापीबेर, कुवेरबत्त बेड़ा सा तो पाया सुबत्ता बानी छ, म सो मागनो टीम दो ब्रेड मेडू करने उपनो ए, नागबल्स पुत्र जाणतो माया टीक बात धोए पूर्व पपो बसामतो' १. बही, पत्र २१ २. वही पत्र ४। *बादिनाथ पुराण- आमेर शस्त्र मंडार. पत्र ५९॥ Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवीय पुझे मारीय वापि, कही राणी तु मुगाप पुख्योत्तम क्वप संसार, हे माता तुमी कहो विचार अर्थ धर्म साध्यो जिणे काम, ते कोड़वी मुमति गुण प्राम हे पुस्बोत्तम कहीए माय के कहो जिम लागु पाय' ए चारे पदारथ सार, साधि सके को पुरुष ममार प्रस्तुत रचना कवि ने मुन्थर पूक्तियां और सुभाषित लिखे है। मुन्दर सुन्दर नीतिप्रद बातें जो मानव जीवन के लिए विशेष उपयोगी है तथा विविध आख्यानों से बीत प्रोत नीतिमूलक वर्णन कवि की काव्य दक्षता को प्रस्तुत करता है।दुष्प्रवृत्तियों का प्रभाव वर्णन भी पर्याप्त स्पृहणीय बन पड़ा है। मस्तियों का वर्णन दोहा बों में देखिए: जिदान घटे रहो मितिम परमानंद वासं मने निपजे बाघो घरमा बथल देव परमादीया मंडरीक्ष्य रखा गुमवंत समष्टि करेमिली रत्नपुष्टी जयवंत मि सबद बोहरममा मधोकवनिवार मलयाति मह को ही पुर्णध अतिहि अपार - - मास रासनी. काला सूट दीर बीस बरस नर जातो बोय गय भरीर कौर धूम वर्षे दी काय दो भवर पाटन धका बेम बार पर मंदिर नवि होगते मागे ही बाब बाप पाए, पवरिति विम जोयतो माय मय बीधार नहीं , पाप करे नि राज को मावि मोती मावि परिसी एमवी पूम नबी कारो) साना राबहीबारामादिनाथ पुराण पत्र पा Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५३ इस प्रकार उक्त वर्णन में एक चित्रात्मकता तथा स्वाभाविकता है कलियुगी वर्णन की पाति कवि ने अमया दित कृत्यों का पूरा रेसा चित्र प्रस्तुत कर दिया है। कहीं कहीं नारियों का वर्णन भी कवि ने पर्याप्त प्रभावशाली किया है। मारी के पास किन उत्कृष्ट मासूमों को होना चाहिए उनका कवि ने क्रमशः वर्णन किया है। कवि की उपमाएंव स्पक उल्लेखनीय है: दहा: सील बरीरह भाभरण सोभे नारी अंग मुख मंडण चासो बयण, वि तंबोलह रंग परिमल विण फूल जिम ससि विपी रयणीजाप तिम सील विषु नरनारी मोहे नहीं इस बाण । इस प्रकार कवि ने शील की महिमा स्पष्ट की है। वस्तुतः कवि ने इसी प्रकार की नीति, उपदेश, पूर्वभव वर्णन क्या कर्मवाद पर प्रकाश डालते हुए आदिनाथ का चरित चित्रण किया है। स्थल पर अनेक अन्तर्वथाएं और दृष्टान्त काव्य को लोकप्रिय बनाने में सहायक है। कवि की भाषा सरल है।छेद वैविध्य अनेक रूपों में मिलता है जिनमै, वस्तु, भास दूहा, भास चौपईनी, भास रासनी, हरा, भाम नरेसुवानी पास बीनती -इस प्रकार शीर्षकों के अन्तर्गत कवि ने दो और भासों का उल्लेख किया है। कवि ने प्रकृति वन, चरिबियक गुण वर्णन भरतेश्वर बाहुबली संघर्ष वर्धन तथा आदिनाथ हैवल्य तक का वर्णन क्यिा है। इस प्रकार कृति लोक भाका काव्यों की एक महत्वपूर्ण कड़ी है। ब्रमजिनदास १५वीं शताब्दी के उत्तराईध व अतिम अतक में आते है। भाषा एक दम सरत तथा बोल चाल की हिन्दी है। जिनमें पुरानी राजस्थानी व गुजराती के शब्दों का प्रभाव है। १-आदिनाथपुरापपत्र २०० Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५४ प्रस्तुत पुराण में पर्याप्त विस्तार है। काव्य समाप्ति पर कवि कुछ भरत वाक्यों का चयन दोहों में करता है: बहाने जे कवड़ा सभा मीहि गुणवंत, रूचि सहित जे सामले तेह ने पुश्य महंत समकीत गुण उपजे करम नीम वलीसार तत्व पदारथ जाणीये ज्ञान उपजे भवतार। इस प्रकार आदिनाथ का यह चरित काव्य भाषा और काव्यप्रवाह तथा कथा तत्व की दृष्टि से अपना एक विशिष्ट स्थान रखती है। Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ W 1⁄2- विवाहली काव्य : ******** Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( विवाइलोकाव्य) रास, फागु और अन्य काव्य रूपों की भाति विवाहलो शक रचनाएं भी मिलती है। विवाहलो या विवाहला, वैलि तथा मंगल शब्द विवाह सूचक रचनाओं के लिए सामान्यतः प्रयुक्त हुए मिलते है। विवाह जीवन का उल्लासपूर्ण पर्व है। जब कि मनुष्य अपनी समस्त प्रसन्नता को, आनन्दोको साकार भय में एक ही साथ संजोकर एक अभूतपूर्व भानन्द का अनुभव करता है।संस्कृतिक रूप में पी यह पर्वबड़े ही आनन्द और मंगल का प्रतीक है। अपनी मांगलिकता के फल स्वस्य ही इस महान संस्कार को वर्गीय विषय बनाने वाली कृतियां मंगल नाम से अभिहित की गई है। सामान्यतः विवाह एक उत्कृष्य सामाजिक प्रथा है जिसमें वर और वा अपने विशेष ब्रह्मचर्य जीवन को समाप्त कर गार्हस्थ में प्रवेश करते है। दोनो के नये सम्बन्ध होते है, नई आत्मीयता और नया साज भार जीवन का एक नया पहलू लेकर सामने आ जाते है। विवाह के लिए वर और बधू दोनों पक्षों की ओर से हुई तैयारियां, साज सज्जा और नारियों के मागलिक मान, धवल मंगल गीत स्था अन्य अनेक प्रसंग इस संस्कार की पवित्रता और उल्लास या मानन्द के द्योतक है। इस पवित्र प्रसग को लेकर इसे अपना वर्य विषय बनाने वाली जोड़ियां मिलती है उनके 'विवाहला, विवाहलो, धवल, मंगल आदि अनेक नाम मिलते है। इनमें धवल और मंगल काव्यों की परंपरा तो बहुत बाद की (१७वी तादी) की मिलती है परन्तु विवाहला संक्षक रचनाओं की परंपरा पर्याप्त प्राचीन है। विवाह का प्रारम्प ती मानव जीवन के आदि काल से ही निश्चित ईपरन्तु इस नाम से लिखी जाने वाली कृतियों की परम्परा अपभ्रश से ही मिलने लगती है। भाविकात में उपलब्ध विवाहला संज्ञक रचनाओं के शिल्प, वस्तु तथा अन्य प्रवृत्तियों का मिलती है उनकी मुख्य संवेदना में एक वैचित्र्य है जो बीवन को अनुपम संदेश देता है। बाधा यों प्रकारान्तर से विवाह के वर्षन हो भगम कपी गरिह बायोबा या गव्यों में मिल ही जाते है। साथ ही चरित Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायक का विवाह प्रसंग लगभग सभी चरित काव्यों में एक विशेष तथा महत्वपूर्ण अंश रहता है जो बहुधा अन्य रचनाओं में देखने को नहीं मिलता। सामान्यतः प्रत्येक भाषा में विवाह का वर्णन करने वाली अनेक रचना उपलब्ध हो जाती है। प्रादेशिक भाषाओं में भी इस साहित्य का पर्याप्त प्रजन हो चुका है तथा हो रहा है। बंगला, मराठी, तामिल, तेलगू, आध्र, कन्नड़ आदि भाषाओं में विवाह मंगल संज्ञक अनेक रचनाएं मिल जाती है। विवाहला सशक रचनाओं की परंपरा अपश से ही मिलती है।विवाहला शन्दै यो प्रकारान्तर से तत्कालीन उपलब्ध बारहमासा सज्ञक रचनाओं से जुड़े हुए है। अपय की एक रचना जिनप्रभसूरि विरचित अंतरंग विवाह है। यह छोटा सा विवाह काव्य एक अनूठे विवाह का प्रारम्भ करता है। यह विवाह माध्यात्मिक रुपप है। इस काव्य में वसत राम का भी निर्देश है। अत: विवाह धवल और विवाहला नामक रचनाओं का मूलोइमव अपभ्रंश की ऐसी ही रचनाओं में निहित है। यह रचना १३वीं शताब्दी की है। इसके पश्चात् विवाह संज्ञक रचनाओं की परंपरा आदिकाल की हिन्दी जैन कृतियों द्वारा परिवर्दिधत हुई है। इन विवाहलों में तीर्थकरों के नाम पर अनेक विवाहले मिलते हैं। बहुत से विवाहले जैनाचार्यों के नाम पर भी उपलब्ध होते है। प्रादेशिक भाषाओं में भी १४वीं शताब्दी से विवाहले त्या मंगल संक्षक रचनाएं मिलती है। जिनमें से. १४८१ का कृष्ण विजय काव्य भालाधार बा का है जिसकी प्रसिद्धि कृष्ण-मंगल के नाम से हुई है। इसी प्रकार मनसा मंगल मंडीमल -See preceddings and transactions of the all India Oriental Cent erence serventaenth session Ahamdabad October November 1953-Saetion XIV RajasthanHistory and culture *अन्तर्गत श्री अगरचंद नाहटा लिखित विवाहलो और मंगल काव्यों की परम्परा बीर्षक १० ४११-४२४॥ २. भारतीय साहित्य अनवरी १९५६ पू. ४. मंगल काव्य शीर्षक लेख । Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५७ शीतला मंगल आदि अनेक रचनाएं १८वीं शताब्दी तक मिलती है और इसी प्रकार मराठी तेलगू आन्ध्र, कम्म्नड़, गुजराती आदि भाषाओं में मंगल काव्य मिलते हैं परन्तु उनका प्रारम्भ १७वीं १८वीं शताब्दी ही है। इधर प्राचीन राजस्थानी या जूनी गुजराती में अनेक रचनाएं मिली है जिनकी परंपरा बड़ी लम्बी है। इन रचनाओं में जैन और जैतर दोनों प्रकार के काव्य हैं जिनकी संख्या १५० तक है और उनमें से अनेक जैसलमेर ग्रन्थ भंडार पाटन भंडार, श्री अभक्जैन प्रन्थालय, बीकानेर में सुरक्षित है। इनकी भाषा पुररानी हिन्दी ( पुरानी राजस्थानी या जूनी गुजराती है) है यह काव्य परंपरा २०वीं aarबूदी तक सुरक्षित मिलती है। गुजरात में अधिकतर विवाह काव्य ही लिखे गए हैं। मंगल नहीं धवल संज्ञक रचनाएं १३वीं शताब्दी से प्रारम्भ होकर १७वीं तक उपलब्ध हैं। धवल या चौल रूप गुजरात की ही देन है। कुछ धवल नामक प्राचीन रचनाएं भी मिलती है। विवाह के अवसर पर मांगलिक गान, तथा उल्लासपूर्ण गीतों के लिए यह शब्द प्रयुक्त होता है। मंगल काव्यों का प्रारम्भ १६वीं बताब्दी से ही मिलता है। ये काव्य मराठी मावि प्रादेशिक भाषाओं में खूब लिखे गए जो २०वी शताब्दी तक उपलब्ध होता है। राजस्थानी में १६वीं शताब्दी के बाद भी श्री मंगल संज्ञक काव्य मिलते है। जिनकी सख्या बहुत बड़ी है। इन काव्यों का विषय वैष्णव धर्म से सम्बन्धित terest आदि तथा जैनैतर अन्य सामाजिक स्पों में भी मिलता है। इस प्रकार मंगल और घवल सैशक जितनी भी रचनाएं मिलती है मे बहत पुरानी नहीं है। जहां इन रचनाओं के वर्य विषय और विश्व का प्रश्न है ये रचनाएं एकदम बेलि या fareer in रचनाओं से मिलती जुलती है। काव्य रूप में वैभिन्य प्रस्तुत करने के लिए ही इनका नाम अलम रक्खा गया है। १- भारतीय साहित्यः जनवरी १९५३ ० २३९-१३१/ Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५८ विवाहलो परम्परा के विकास में अपभ्रंशितर काल या पुरानी हिन्दी की कृतियों का भी बड़ा हाथ है। हिन्दी जैन साहित्य में इस रूप में मिलने वाली जो रचनाएं है उनका प्रारम्भ १थ्वीं शताब्दी से ही हो जाता है। मंगल शब्द १७वीं शताब्दी के पूर्व व्यवहृत नहीं हुआ । अदुवावधि इस काल में जो विवाहलो संज्ञक रचनाएं मिली है उनमें दो प्रकार की रचनाएं मिलती है: १- ऐतिहासिक विवाइले २. रुपक काव्य राजस्थान गुजरात में विवाहलो काव्य अधिक उपलब्ध होते है । यो बेलि और मंगल की संज्ञाओं से भी काव्य अजन हुआ है। १६वीं शताब्दी की वेलि क्रिसन saणी और रूकमणी मंगल आदि प्रसिद्ध है। वेलि काव्यों के रूप में लगभग छोटे छोटे १५ काव्य उपलब्ध हुए हैं, जो यद्यपि काव्य की दृष्टि से महत्वपूर्ण नहीं है परन्तु संख्या की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। लेकिन बेलि काव्यों का प्रतिनिधित्व करने वाला सबसे प्राचीन और महत्व पूर्ण ग्रन्थ वैलिकिसन रुक्मणी है जो १६वीं शताब्दी से ही प्रारम्भ होता है। बेलि और विवाहलो संज्ञक रचनाओं का शिल्प, कथा कट्टियों की वर्णन पद्धति तथा काव्य रूप दोनों में एक ही है। वेलि रचनाएं विवाहको से पहले की नहीं मिलती। आदिकाल के हिन्दी जैन साहित्य की विवाहलो सेवक रचनाओं का विल्प उक्त दो प्रकारों के आधार पर ही वर्णित है। एक में महापुरुषों या तीर्थकरी के क्रियाकलापों को एतिहासिक सूत्रों में बांधकर विवाह वर्णन किया गया है और दूसरे प्रकार के अन्तर्गत रूपक विवाहका काव्य है। इन विवाहों को भी बा और द्रब्य दो उपविभागों में वर्गीकृत किया जा सकता है। रुपक विवाहले बही मौलिकता की सृष्टि करते हैं। इन्य विवाह का सम्बन्ध लौकिक रूप में पति पत्नी का वर्णन मिलता है और माय विवाद में रूपक बांधा जाता है। जैन समाज मैं दीक्षा ग्रहण करते समय वाचायों का विधिवत संत्री से विवाह होता है। Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीवा को दीक्षा कुमारी तक कहा गया है। संयमश्री या दीक्षाकुमारी के साथ दीक्षित होने वाले का विधिवत विवाह होता है।ऐसे विवाह आत्मा का आभ्यंतरिक गुणों से सम्बन्ध स्पष्ट करते है। अपभ्रंश का जो अतरंग विवाह उसमें अंतरंग विवाह का रुपक बाधा गया है। आध्यात्मिक विवाह का हिन्दी साहित्य में भी वर्णन मिलता है।रूपकात्मक विवाह परम्परा में कबीर का दुलहिन बनकर मंगलगान करना और आध्यात्मिकता में डब कर प्रियतम से तन मन एक करने को मिलने व श्रृंगार करने का पद प्रसिद्ध है। अत: कबीर के ऐसे उपक, मीरा के सखी री मैं तो पुरमुट खेलने जाती जैसे पदों व आध्यात्मिक विवाहों के मल मैं अपशके अंतरंग विवाह जैसी ही रचनाएं रही होंगी। आदिकालीन इन काव्यों में प्राचीन राजस्थानी या प्राचीन गुजराती की ऐसी ही एक सुन्दर रचना जिनेश्वर सूरि संयमत्री विवाह वर्णन राम है। भारतीय साहित्य में विवाहलो परक रचनाओं में मंगल तथा शिवतरवतवे आदर्श को स्पष्ट किया है। इसी पूत भावना को प्रश्रय(साहित्य में स्थान) इन्हीं 'विवाहलो धवल या मंगल संक्षक रचनाओं इवारा मिला है। मंगल भावना से जीवन का मंगल सूत्र विवाह की प्रेरित होता है और उस मंगल भावना में मंगलाचरण, नावी अशीवाद आदि प्रशस्तियां भारतीय काव्यों १ मिली है। विवाहलो संशक रचनाएं भी ठीक इसी प्रकार की है। विवाह परंपरा पर इस प्रकार की अनेक रचनाएं मिलती है। इनमें आध्यात्मिक विवाहकीमाडि आनन्द मिलने लगता है। जो भी हो, बड्यावधि इस परंपरा में जितनी शरियां जैन कवियों द्वारा विरचित हुए है उनमें से कुछ प्रमुख रचनाओं का अनुशील बागे हों में प्रस्तुत किया गया है। धवल शक रचना मी शिवों का वर्णन आगे स्तोत्र स्तवन और गीय शक रचनामी के अध्याय में किया जायगा। विवाहला संज्ञक रचनामों की परम्परा और कुतिया स्वत्र ग्रन्थ व रोध का विषय है। यहा कतिपय रलाओं का ही परिचय दिया जा रहा है। Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । जिनेश्वर मरि विवाइलो व रास : इस कृति के रचनाकार सोममूर्ति है, और इसका रचनाकाल सं० १३१ के पश्चात ही लगता है। कवि ने इस विवाहलो काव्य की रचना अपने गुरु भाई जिनेश्वर सूरि के शिष्य संयम या दीक्षा वर्णन के लिए की है।सोममूर्ति का जीवन चरित्र, कवि एवं ऐतिहासिक पुरुष के रूप में कई स्थलों पर विस्तार से मिलता है। अन्य प्रन्धों में भी संक्षिप्त संकेत मिलते है। प्रस्तुत रचना प्रकाशित है। मुनि जिन विजय जी ने पहले इसे अपने ऐतिहासिक ग्रन्ध जैन ऐतिहासिक गुर्जर काव्य संचय में प्रकाशित किया और इसके पश्चात श्री अगरचन्द नाहटा ने इसे अपने अन्ध ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह में स्थान दिया है। इसकी एक प्रति श्री अभयजैन ग्रन्थालय में सुरक्षित है। कृषि का ऐतिहासिक दृष्टि में अध्ययन क से पर भी महत्व स्पष्ट हो जाता है। जैसा कि प्रस्तुत रचना के नाम से ही बात हो जाता है कि यह दीवा के समय पर रची हुई जिनेश्वर मरि के सम्बन्ध की कृति है नि मिच द पडारी के पुत्र ने जिसका दीक्षा का नाम जिनेश्वरसूरि व बचपन कानाम अंबड था, वात्यावस्था में ही संबधी विवाह करने का मासे निवेदन किया। मा ने तपस्या के कष्ट समभाये, पर बालक अडिग रहा और अन्त मैचूमधाम संयमश्री से नायक का विवाह सम्पन्न हुआ। बीचोत्सब की पंडारी ने सोत्साह पूरा किया। संयमश्री के विवाह की परम्परा आज भी मर धित मिलती है। वीतरामी और निस्पृह जैन मुनियों के दीवा प्रान करने पर श्रावक लय ताल नृत्य क्रीडा रास आवि करते थे। संयमत्री से विवाह करने पर शनि काम क्रोध मोहादि पर विजय १. देखिए. के ऐतिहासिक पुर्वर गव्य संचयः श्रीनिजिनपिय २२४-२२० । २.जैन युग बर्ष ३ . ४! -देविहासिक चैन काव्यग्रहश्री अमर चन्द भवरलाल नाहटा० १०८1 Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राप्त करते थे। क्या वस्तु और शिल्प की दृष्टि से रचना में मौलिकता मिलती है।कृति कलात्मक है और होटी होते हुए भी अपने में रसपूर्ण है। वैष्णव सम्प्रदाय के किसी कवि ने अंगार और शम का इस प्रकार समन्वय उपस्थित नहीं किया। प्रारम्भ में ही कवि भक्ति से गुरु का चिन्तन करके पिता श्री नेमिचन्द और माता लखिमादेवी का कलात्मक परिचय देता है: कंत सण कला कैलि भावामु महरवाणी अभियं भरती रेहए तस्थ भण्डारिको पुन्नि मा चंद जिम नै मिर्वदो सयल जण नयण आषद अमिय-उड़ा स्प लावण्य सोहाग चंद पणइपी लखमिणी तासु वक्सपि पवर गुण गण रयण राग रयाणि पदयार की अलकारिता में यमक लिक और रूपकों का आयोजन उल्लेखनीय है। बालक अंबड का मा का संयमत्री से विवाह के लिए हठ तथा मा का उसको संयम व तप की दुर्दरता और उसकी अवस्था की शवता समाना अत्यन्त सरस और काव्यात्मक बन पड़ा है और बालक का संयम की कठिनाइयों को जानते हुए भी पुनः इढ़ता से उत्तर देना आदि स्थल दृष्टव्य है:अंबंड- इह संसार दुइ मंडार वा इ मेन्हिसु अतिहि असार परपितु संगम सििरवर नारी माइ माइए मा मह पियारी मा की उक्ति तुहु नबि जापड़ बाला मोला, हुनत होइसर सरउ हिला मेरुघरे विशु निय भूय दंडिडि जलाहि तसेउ अप्पणि वाहत हिंडेबउ असिधारह उबारि लोहचपा चाववा इणि परि मा तुह रहि घर कहियइ हामि, जंतुहु भावद व तु मामि किपि न मावा विशु मंजम सिरि, माइ पपइ स करि अवर पषा हुस्करह बिना लिया कलिकाल - १- मैतिहासिक जैन काव्य संग्रह श्री अमरकन्द मंवरलाल नाटा पू. ३७७॥ Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और बारात चढ़ चली, लोगों ने आध्यात्मिक संयमदेवी को श्रृंगारा। गीत और दधरावे होने लगे। भाषा की सरलता प्रवाह अब्द चयन और अनुप्रासात्मक छटा के कतिपय उदाहरण स्मृतव्य है:(1) आवहि आवहि रंगमारि पंच महव्वय राय, गायहि गायहि महुस्सर अठ्ठय पवयव माय। (२) कुमर चल्लित कुमर चल्लिड गस्य विडि। (३) कुसलिहि महि जान उत्त पडुतिउ खेउ मन्मरि। (४) अह सयल नाप समद्ध अवगाइए वीर प्रमु गणि (निय) गुरु पसाये (५) नाण चरण दसण जुबइ केलि विलासु पहा ___ साउ राउ सोबन्तियइ जिनेश्वरसूरि जगि मात्र इस प्रकार नायक निर्वेद का उपभोक्ता बन जाता है। रमा दोहा, चौपाई वस्तु, और मूलना दो में लिखी गई है।वस्तु हद तो पूर्व परिचित छद है पर भूलगा जैन साहित्य में कभी कभी ही प्रयुक्त होता है। मूलगा के प्रत्येक चरण में ३७ मात्राएं होती है तथा २०, १७ पर यति होती है। वस्तु छंद रास रचनाओं में अधिकतर इससे पूर्व भी प्रयुक्त हुआ है। क्या का विभाजन धत्ता में हुआ है। अलंकारों की दृष्टि से एक नई बात इसरचना में यह है कि संमपदान में प्रत्यानुप्रसा नहीं है इसका प्रयोग सम्भवतः आगे जाकर ही हुआ है। रास की भाषा सरल, काव्यमयता तथा जन भाषा के गुणों से युक्त है। सुनिजिनविजयणी लिखते है कि इस धार्मिक विवाह की मनोहर कृति की रका चरित नायक सूरि के शिष्य श्री सोममूर्ति गाणि ने उनके निर्माण के पश्चात की है। यह १४वीं शताब्दी के प्रारम्भ की भाषा का सम्पूर्ण चित्र उपस्थित करती है। भरतश्वर बाबाली रामाशाति सम्पादित संस्करण श्री लालचंद बगबानी युक्त छन्दा १० देखिशासक वैन पूर्वर काम संचयः मुनि जिनविजय- पृ० ११५॥ Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६३ कवि की यह रचना विवाहले के अन्तर्गत आती है। विवाहले शीर्षक से हिन्दी जैन साहित्य में आदिकालीन अनेक स्थाएं मिलती है। कवि ने यह रास रमण और क्रीडा के लिए लिखा है। रेवतगिरि रास की भाति अन्त में सोममूर्ति ने अपना मंतव्य स्पष्ट किया है। एह विवाहला ले पढहि दियहि खेलाबेलिय रंग परि ताह जिणेसर सूरि सुपसन्न इम पगइ मावि गघि सोममुनी इस प्रकार जिनेश्वर सूरि का परित वर्णन इस कृति में रास रूप में वर्णित किया गया है। खना छोटी और सरस है और प्रवृत्तियों की दृष्टि से अपने ही प्रकार की है। me Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६४ : जिनोदयमूरि विवाहलाः' विवाहलो संज्ञक रचनाओं की परम्परा के पश्चात् प्राप्त प्रतियो में से कुछ विवाहलो का परिचय ना भी आवश्यक है । यो अन्य काव्य रुपकों के स में वर्षित कुरा विवाहलों के शिल्प का विवेचन प्रस्तुत करने वाली कुछ रचनाओं पर पहले प्रकाश डाला जा चुका है जिनमें मैं० १३३१ का सोममूर्ति द्वारा विरचित जिनेश्वर सूरि विवाह वर्णन रास तथा सं० १३९० की सारमूर्ति की प्रसिद्ध रचना जिनोदयसूरि पट्टा भिकेक रास है।' रास रचनाओं का विश्लेषण प्रस्तुत करते हुए उस अध्याय में हमने इन रचनाओं पर विचार किया। साथ ही विवाहोत्सव मैं गाई गाने वाली रचनाओं में गीत या धवल मंगल संज्ञक रचनाओं पर भी आमे प्रकाश डाला जायगा। इन खनाओं में १३वीं शताब्दी के बाहरवण और मत्र द्वारा विरचित जिनपति सूरि घाल गीत है। ये सभी रचनाएं प्रकाशित है। विवाइलो में पट्टाभिषेक रास या दीक्षा विवाह वर्णन रास आदि संजक कृतियां भी आ जाती है क्योंकि इनमें पी कवि लौकिक अलौकिक रूप में बहुधा उन्हीं क्रिया कलापों पर प्रकाश डालता है जो विवाहलो संज्ञकरचनाओं में होता है आध्यात्मिक विवाह के रूपकात्मक चित्र इनमें प्रस्तुत किए जाने है। एक कृतियों में मार विजय के दृश्य तथा इसके उपरान्त नायक का संयम कुमारी से विधिवत पा विग्रहण आदि वर्णनों के चित्र प्रस्तुत किए गए है। ऐसे काव्यो में काव्य की दृष्टि से भी विशेष निखार आ गया है, उदाहरणार्थ का शक रचनाओं के अध्याय में देवरत्न मूरि ग इसी प्रकार की रखना है। उक्त रचनाओं के शिल्प में तथा बिवाहलो - - meme १. देखिए ऐतिहासिक जैम काव्य संग्रह ० ३९०-वारा श्री आरचन्द पंवरलाल नाटा। बही थप. ..॥ Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६५ संज्ञक रचनाओं के शिल्प में बहुत अधिक साम्य है परन्तु केवल नाम में अन्तर है बहुत सम्भव है कि कवियों ने विविधता प्रस्तुत करने के लिएजथवा इन आध्यात्मिक विवाहों को रास का रूप देने या गीत का रूप देने और अधिक व्यापक बनाने केउद्देश्य से भी अन्य काव्य रूपों की संज्ञा से अभिहित किया हो। जो भी हो, इस सम्बन्ध में स्थिति संदिग्ध नहीं है। विवाहलो संशक रचनाओं के नाम से अभिहित की जाने वाली कृतियों में जिनोदयसूरि विवाहला एक महत्वपूर्ण रचना है। कृति का रचनाकाल सं० १४३२ है और रचनाकार मेरुनन्दन । रचना जिनोदय सूरि के दीक्षा-विवाह जन्य-साधना को लेकर लिखी गई है। जैसा कि उसके नाम से ही स्पष्ट है। यह रचना प्रकाशित है। जिनोदय सूरि का पूर्व नाम सोमप्रथ था । पालनपुर में जिनकुल सूरि जैसे जैनाचार्य के आगमन पर बालक सोमप्रभ या समरा ने अपनी मां की गोद में बैठे मुनि जी से दीक्षा कुमारी से विवाह करने की प्रार्थना की। मी ने बहुत समझाया, संयम पालन की दुष्करता और उसकी लध्यावस्था बताई, पर बालक न माना और अन्त में उसका आध्यात्मिक विवाह रवा दिया गया। उत्सव हुए लोगों ने जय जयकार किया। याचक लोग मंगलगान करने लगे, वजिम बजने लगे अनेक सुन्दर ररास हुए दुभाषिणी जिनीबय सूरि का दीक्षा कुमारी के संक्षेप में स्का की यही कथा वस्तु है। विवाहलों के प्रारम्भ में ही कवि अपने रचना उद्देश्य का परिचय देता है सयल मण वंछिय काम कुम्भोवनं पास पय कमलु पणमेव मत्ति । गुरू दियर करिए बीवाल सहिय उमाइल मुज्य चित्ति ॥ afa बालक सोमनभ के शैशव का वर्णन बड़ी कुशलता से करता है। भाषा शैली कुलगनाओं ने मंगल गीत गाए और इस प्रकार साथ पाणिग्रहण उत्सव विधिवत् सम्पन्न हुआ। • १- देखिए ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह पृ० ३९० २- वही, पृ० ३९० । Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६६ आलंकारिक और प्रासादिक है। एक उदाहरण देखिए: समरिगो पभर जिम रमइ निय सयण मणि, कमलवणि दिणि रयणिवहु पयार लाये लोयम दले अभिर वरसंतउ वलए अवध जिम बीय चन्दो निच नव नब कला घरइ गुण निम्मला ललिय लावन्न लोहगूग कंदो। मा के वात्सल्य भरे आग्रह, बाल हठ, दीया कुमारी की अलौकिक स्प लावण्य और दीक्षा की तितिक्षा मा दि सब के बड़े सुन्दर चित्र कवि ने उरी है। मा बार बार अपने प्रिय वत्स को सुन्दर राजकुमारी से विवाह कराने का लालन की है और पाचों प्रकार के भोग भोगने के लिए कहती है। कवि ने इन्हों वर्णनों को विविध उक्सियों से श्रृंखलाबद्ध क्यिा है। माइ भणइ निमुपि बच्छ भोलिम घणो, त नवि जापए तास सार कपि न रीजए, मोहिन मीजए, लेहिली जलवीजइ अपार ।। लोभि न राचए मबपि न माचए, काचए चित्ति सा परिवर। अवरनारि अवलोयणि रूसए, आपण पई सयि सस्त बर।। हसिय भनेरीय बात विपरीत, तासु लणी छंद थणी सन्छ । म कल कमल बल कोमल इघि, बाथ मनार लिसितम्। सपि अनोपर्म उत्तम वंश, परमाविस वर मारि ।। नव नब गिहि पंच पयार, मोगिवि मोग करता कुमार माध्यात्मिक विवाह का चित्रात्मक वर्णन कवि के भाषा-कौशल वापी की विधता,पद लालित्य, अर्थ गौरव और विच्छित्ति के साथ साथ आध्यात्मिक रख की पुष्टि करता है। निम्नाक्ति उद्धरण कबीर के इल्हिन गाकर मंगलाचार और मीरा के समिरी में तो गिरधर के रंगराती ---- पंचरंग बोला पहन सही में प्रमुट खेलन जाबी, गुट में मेरा पिया मिलेगा। सोल अडवर गाती असे पदों में विस आध्यात्मिक आनन्द का रहस्य छिपा है वैसा ही मधुर रस जिनोव्यसूरि विवाहकों के मावि उदवरण में निम्पन्न हुआ है। दीक्षामारी का Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६७ सौन्दर्य वर्णन, दूल्हा का पाणिग्रहण करने का उत्साह बरात की साज सज्जा आदि सभी चित्र दृष्टव्य : मैलिय साजण चालs नियपुरे, धवल धुरन्धर जोत्रिय रहवरे । चाल चालु रहन सही वेगहिं सामहि, धारल नन्दणवर परिणय महि ।। इम पमणतिय सुललिय सुन्दरी, गायई महुर सरि गीयह रिस मरि क्रमि क्रमि जान पहुतिय सुहदिषि, पीपपली परे गुर हर सिउ मणि अडा सिरि वीर जिनिदंह मंदरि, मंडिय वेहलि नदिवा सरि तरल तुरंगमि वडियउ लाडणु, मागण बंछिय दास वियइ धनु आविउ जिनहरि वरु मन हरवउ, दीस कुमारिय सर्व रूथ लेवउ । (पद २३-२६) पूरी रचना घात ( पत्ता) मास में विभक्त कर दी गई है। कवि ने वस्तु छेदका कईबार प्रयोग किया है। रचना की भाषा अलंकारिक वाक्य छोटे और सारपूर्ण है। शब्दावली कोमल है।जन माया काव्य होने से रचना में मिठास का समन्वय होना स्वाभाविक है। संघ वर्णन, दीक्षा समारोह, संयमत्री विवाह और संसार त्याग इस प्रकार की रचनाओं के विषय रहे है। कवि की अलंकारिक शैली तथा पद्धति उल्लेमी है: थात: after मुम्जर after गुजर देन विसा जहि पल्लव नगरो क्रूहि जैम नर स्यणिमंडिज ais निवसs साडु-वरो स्वपाठ गुण गणि गडिर तह मंदिर पारल उमरे उद्यम सुकुमारक areer सो समर जिन वदुधइ रूप अपार (८) रचना की उपयोगिता काव्य बंध की दृष्टि से स्पष्ट होती है। छंदों के प्रयोग का वैज्ञानिक वर्गीकरण इस प्रकार किया जा सकता है: पद से तक मूलया छेच कुल यात्रा ३७ (बुध) ११२३३१९३४ और ४० मात्र के अन्तर्गत वर्णित वस्तु रूंद | Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९ से २० तक मूलणा छंद । २४ से २८ तक - पादाकुल १६ मात्राओं का। ६६८ ३० से ४४- बुध ३७ मात्राओं का फूलना छंद वर्णित है। इस प्रकार भूखणा छंद का प्रयोग अवेदेव सूरि ने अपनी प्रसिद्ध रचना समरा रासु मैं भी किया है। गुजराती भाषा में १५वीं बताब्दी के उत्तराध में नरसी मेहता ने भी इस छेद का वर्णन किया है। भरत के जिनपति सूरिधवल गीत में भी यह छंदफ़िलता है। नन्दन के इस छंद का एक उदाहरण देखिए: अस्थि गुज्जर घरा सुन्दरी सुन्दरे, उखरे रयण हारो वमार्ग लच्छि केलि हरं नय पल्हमपुर, सुरपुर जेम सिधामिका (३) -- --- • माई पणइ निणि वच्हमोलिम घणी व नवि जानथ तासु सार कपि न ए मोडिन भीजय दोहिलि जाल बीजइ अपार लोभिन राजए मयमि न माचर, काचर चित्ति सा परिहरप अवर नारी अवलोaणी स्तर, आपण पई सर्यि सतवर (१४-१५) --- करि गुण संचियं कटरि इंविजय, कटरि संवेग निब्वेय रंग बापु देसम कला बापु मइ निम्बला, बापु ठीला कसायाम मंग dee ve गुण गवं जैम वाराय, कविउ क्मि सक्कर्ड एक जीड पाक न पावर सारखा देवया, सहस पुडिनगर जा रत्ति बीड(३९१ भाषा की दृष्टि से रचना में मध्यकालीन राजस्थानी की प्रवृत्ति स्पष्ट है। साथ डी उत्तर कालीन स्थिति परिलक्षित होती है। ऐतिहासिक दृष्टि से भी यह रचना महत्वपूर्ण है। कुल चवालीस बंदों में लिखी १- प्राचीन गुर्जर काव्य संग्रह- पृ० १४। २०० काव्य संग्रह ० ८०९। Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुई इस रचना में कवि ने भीमपल्लीपुर, गूजर, सिधू मेवाड़ आदि प्रमुख प्रदेशों और जिनोदयसूरि, जिनचन्द सूरि, सतपाल, पालनपुर आदि ऐतिहासिक स्थानों और व्यक्तियों का वर्णन किया है। समाजिक इष्टि से रचना में तत्कालीन विवाहों का वर्णन, बारत उसकी साज सज्जा वूल्हा भादि की सजा, तत्कालीन सामाजिक प्रथाएं उत्सवों में पर्याप्त अर्थव्यय करना, धार्मिक प्रवृत्ति, हाथ घोडे सैन्य आदि सभी का वर्णन मिल जाता है। रचना के अन्त में कवि के रूप में कृति की मुख्य संवेदना इस प्रकार स्पष्ट करता है:. पहुगुरु राम वीवाहला जे पढ़इ, जे मुणइ जे चुणइ जे दियति । उमय लोगे विलहई भण बाछियामेरुनंदन गणि इम भणति।। इस प्रकार रचना पर्याप्त सरल और तत्कालीन जन भाषा काव्य का प्रतिनिधत्व करती है। प्रस्तुत कृति का उक्त यो महत्व स्पष्ट हो जाता है। Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७० नेमिनाथ free F १५वीं शताब्दी के उत्तराध में विवाहलों संज्ञक रचनाओं में कवि जयसागर द्वारा लिखित एक रचना नेमिनाथ विवाहलत मिलती है। प्रस्तुत रचना अप्रकाशित है तथा अभयजैन ग्रन्थालय बीकानेर में संगृहीत है । जयसागर १५वीं शताब्दी के उत्तराध मैं बड़े प्रसिद्ध जैन कवि हुए है जिन्होंने विविध विषयक अनेक काव्य रूपों में रचनाए की है। प्रस्तुत विवाहले में कवि ने नेमिनाथ और राजुल के पाणिग्रहण विछोह का वर्णन किया है। प्रारम्भ में कवि नेमिनाथ के वंश परिवार का विस्तार में परिचय देता है। रचना की भाषा सरल तथा प्रवाहपूर्ण है। पूरी रचना २६ छंदों में पूरी हुई है। कविवेलि या विवाहलो की मंगल सूचक परम्परा का परिचय प्रारम्भ में ही दे देता है: जादव कुल सिर तिलाए, गंगाजल निरमल गुण निलार लोयण अमिय निवेसूर व गाइनु नेमि जिनेसूए सोरिय पुरि र सिरि समुद्र विजय नरनाडूए शिवा देवी वसु वर धरण घर मंडणि माण ठपण हरिणि (१-२) प वर्णन, after वर्णन आदि कवि ने साधारण ही किए हैं। रचना में काव्यात्मकता . अधिक नहीं है परन्तु पाका अत्यन्त सरल है तथा शब्द चयन माधुर्य पूर्ण है। कुछ उदाहरण पठव देखे जा सकते है: नेमिनाथ का रूप वर्षन नेमि नाम अभिरामू ए, सो बाधइ कुँवर कि कामू ए म मामतिरि वरिय, क्रमि यौवन वय वनि संचरि धवल व बहुपरे, मुडि लाट बोलइ बुहिर सरे हरि करि सामरि जो वसिय जमि सोइ सोहसिय रंग रंग रति बागल र बल बुद्विध कला जल वाढलउ प मुगमण मणि मंढा ए गंभीरिम धीरिम धारु ए (४-६) Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७१ दूल्हा तथा बारात की सजा का वर्णन - हिव चादव सविगह महिया , गुस्यइ रिसि धसमसि सामहीयाए गुडिया गयवर अति धपाए, गुण गायइ यण जिण तणार तिवल दूर तडयाडि ए पगि पगि पट नाटक पाटडिए वर सिंगारित रधि चाडिउए, परणेवा उछवि अति चढ़य इसी माति राजल के अंगार वर्णन में कवि का मन पर्याप्त रमा है। सरल भाषा में कवि ने राजुल के सौन्दर्य का वर्णन किया है। गार के कोड़ में कवि धीरे धीर शान्त रस का परिपाक करता है। विरक्त नेमिनाथ पशुओं की काश्य घटना से प्रभावित हो चले जाते है भाषा की सरलता और प्रवाह सुषमा राजुल के विलाप में सजल हो उठती है। कुछ पक्तिया देखिए: एड नेहि रसि राजलए, नवि माञ्चई राबइ साविलए अंस प्रति मन रीजूए, इस जाणे सरिवी जू र तहबिहू सो दुह मनि वसइए, बस नाम सुणीवन उल्हसइए जीहा तमु पूणि गुणि रमप, जवळ इकि मानिय भूद्धिमए सहिय तिवारिय बोलतिए, जम सगल बनमय देखनिय नेमि ध्यानि निश्चल डियर, राजीमति कर दिय दिन रलिए अहसावम सिय छट्टि जिए सो देव दयात्य ब्रत लियर आज अमावधि विजय कर केवल वरदेखण नामघर (१८-२ - जिन चंब सरि वीवाडा - जैसलमेर दुर्ग के बाड़पत्रीय पंडार से यह प्रति मिली है। रचना अप्रकाशित है। इसके रचयिता अनि सलमान है। रचना का मध्यपत्र अटित है। पूरी रचना ५ छंदों में समाप्त हुई है। कवि ने रचना का विभाजन मास और बस्न संजक शब्दों किया है। प्रारम्भ और द नहीं मिलते। प्रति १५वीं सताब्दी के उत्तराईच की ही लगती है। कवि का समय है। देधिः हाइपनीय मंडार जैसलमेर दुर्ग, पत्राक ३४४-४५-४ । Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७२ प्रस्तुत विवाह की कथा वस्तु संयमत्री सेविवाह करने की ही है जिसमें विशाल संघ निकालने का वर्णन मिलता है। संघ सज्जा और लोगों का उत्साद मुनिजनचन्द्रसूरि के संयमकुमारी परिषद का चित्र प्रस्तुत करते हैं। भाषा शब्द चयन सरल तथा प्रवाहपूर्ण है संघ सज्जा का वर्णन की अलंकारिकता देखिए: कमि कमि च विह संचट हल्लकल्लोलहि जंतु बहुत संवs aहिं नयरि कुसुमा विहतु जिम जिम केल्हर मंति वहिं पेराई संधु भवाड़ तिम तिम वाथ तालु मषि जात्र हरेसि उच्चा --- arts offs संघतडि, लोय मिलति अपार बाजsबाजs ढोल अनुबंध समद सविचार दीes दीसर पाइ जन, रडवर हयवर थाट कres कीus as fरमण अवह बढ़ावह बाट रचना शैली पूर्ण आलंकारिक है। बच्चे को मा संयमत्री की दुर्निवारता तथा कष्ट पूर्ण स्थिति और उसकी कोमलता का परिज्ञान कराती है विज पनि पास गंतून पमनेइ अवर वयव क्सो मोलि मार माइ वय महणु कंठ एमनिय नंदने अनि पवि जपेर माया भरत तुङ मुंह कमल वत्स उत्संग वइति बलि की तुह कोयमार्ण aaण सहा मोलिया वास भोलकर वयन इडु फिम कहे सि ममणि तुह जिम बहूडर बस होसि तं ब्रम्ह कुल रमणु दीवो fle जमणि वय स्वड़ा निपि वत्स देतु विविका कर्ज तुहफलाई jeast अनुदास विदाग देश्सु लाडवं विविs खूब डाई सीत सोम लावgथ गुम मालिया, चंद मुडी मृग लोयणीय मगर मोडिय स्वबर वालिया परमावि तह रंग भरे बंद feeds for अन कम्पूरि किउ अहव अमियेण किउ जमणिमणु ary किरि जैन सा मोलावइ बहुपरे विविह वयमेहि अय कोमले । हिं(१३-१८ Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७३ इस प्रकार रचनाकार ने भास और वस्तु मैं काव्य को विभक्त करके पुनर विवाह की क्या वस्तु लिखी है। रचना की भाषा सरस है। कवि ने वस्तु का प्रयोग किया है।काव्यात्मक प्रवाह पाषा-जन्य-सरलता और मालकारिता मेरचना का महत्व स्पष्ट हो जाता है। क्या शिल्प की दृष्टि से रचना साधारण है। शिल्प वही प्राचीन ही है।वर्णन पद्धति सरल और प्रेणीय है। : सुमतिसाधसरि वीवाहल्लो': यह रचना कवि लावण्य समय इवारा विरचित है।रचना में कवि ने पी रचना समय तथा स्थल का उल्लेख नहीं किया है। परन्तु इसकी भाषा और काव्य को देखते हुए ऐसा लगता है कि यह रचना १५वीं बताइदी के उत्तराई की है। मुमतिसाच दूरि की यह रचना भी पूर्व उल्लेखित रचनाओं की भाति विवाहला शिल्प की है तथा कवि ने इसका वार्म विषय - एक बालक का वैराग्य श्री की ओर आकर्षित होकर संयमत्री के साथ पाणिग्रहण ही रखा है। कवि ने रचना का प्रारम्भ एक अनूठे स्वप्न में किया है। जिसका वह संकेत करता है। रचना में मेवाड़ के गावर नगर के गजपतिशा तथा उसकी स्त्री संपूरी देवी का वर्णन है। प्रारम्भ में ही कवि ने शाह की पत्नी को आये हुए स्वप्न का वर्णन किया है: कहिय अपन खोडामा जागीर बीमाधि नारे वा ईनि गाइड कीजा निरमळ गावरे कवि ने स्वप्न आने का बात्पर्यपुत्र होना स्पष्ट किया और आमे पुत्र जन्म के वात्सल्य का दर वर्णन किया है। ५ वर्षका बालक अध्ययनशाला में प्रेषित १- ऐतिहासिक रास संग्रहः भाग १ संशोधक नियधर्म मूरि (१९२०) Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७४ कर दिया गया वही उसनेरत्नसर मूरि चैनाचार्य का दर्शन किया और उनके नित्य प्रति के उपदेशे के प्रभाव से बालक के हृदय में दीक्षा लेने का भाव जाग्रत हुआ और बार बार उसने दीक्षा कन्या भईवरी ए की रट लगा दी। __ बालक विजयी हुमा अनेक स्थानों से आये विविध संघों ने उसका स्वागत समारोह किया। नारियों के रासगान, अनेक बायों सहित हुए सथा मांगलिक उत्सव सम्पन्न किए गए कवि के काव्य का एक उदाहरण देखिए । कवि ने दीपा महोत्सव का एटादार वर्णन किया है।माकाकी सरसता तथा प्रवाहात्मकता देखिए। नपरावर परिमिसिइ ए, परिसिह संयम नारिन चउरी गुडर वाडिया ए, तकिया तोरण चंग तु पाहाजन महू जीमाडीइ ए मंदिर मोटउ जंग तु कुंवर हिब सिगारिइए मस्सक मरद पव गाहे बहिरसा ए, दीस अडलर रूप कडि नवरंग पछेवडउ ए, ओढणि आश बीर वं तत्कालीन सामाजिक प्रथाओं, वैवाहिक मागलिक उत्सवो, तथा संयमत्री के वरण में बालक का उत्साह चित्रात्मक रूम में दिखाई पड़ता है। भाषा की सरलता और पदों का चयन प्रवाहपूर्ण है। उधरम देखिए। सार तुरंगम आभिउ ए, बडित बावन बीर कामिनि मुलि मंगल भगइ र भट्ट भगा बाबत सूण उतारा बहिनडी ए, र अवि जामद हु वर पोसालइ माकिए,इरिय मया सवि इरि श्री रलवर हरि दिया ३, माह मनोरथ पूरि। कवि का वर्णन यासंकारिक है। विविध बालंकारिक वर्णनों में कवि की यमक की छटा भीष्टव्य वारस मा होमा: Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७५ नव नखिय वाणिहि, मति विनमिडिं डियर हरिष घणउधरी मई एक चित्तिहि करीब प्रतिहि अंगि आलस पडिहरी जा सात सायर वर दिवायर गयणि रोहिणी चंद ती ए अनुपम, सुगुर सरिसउ जयउ जगि वीवाइल वर्णन की अनुप्रासिकता स्पष्ट है। रचना आलंकारिक तथा गैय है। भाषा सरल है। रचना निर्वेदान्त है। इसी प्रकार की प्रवृत्तियों वाली और भी रचनाएं उपलब्ध होती है, जिनमें आध्यात्मिक विवाहलों का सफल वर्णन मिलता है। काव्य की दृष्टि से मी विवाहलो संज्ञक रचनाएंमहत्वपूर्ण है। Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवाड़ा काव्य Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७६ पवाड़ा काव्य पवाड़ों की परम्परा का इतिहास पर्याप्त प्राचीन लगता है। प्राचीन रचनाओं में जिस प्रकार रास फागु, चौपई मंधि पबन्ध संजक रचनाएं मिलती है, उनमें पवाड़ी भी वैसा ही एक काव्य प्रकार है। यो पवाडो चरितमूलक काव्यो लिए ही प्रयुक्त होता है परन्तु आगे चलकर इसमें प्रशस्तियों, प्रबन्ध काव्यों, वीरों के पराम तथा कौशल सूचक विषयों का भी समावेश हो गया। पवाड़ो की परम्परा का उद्भव आदिकाल ही है।यों संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश में चरितभूलक काव्य तो अनेक मिलते है परन्तु पवाड़ा नाम से स्वतंत्र रूप में कोई रचना नहीं मिलती। पवाड़ा संशक एक सबसे प्राचीन रचना सं० १४२७ की एक जैनतर कवि असाइत की मानी गई है। इसी प्रकार की एक रचना सदय बत्स चरित मिलती है जो पवाड़ो तो नहीं है परन्तु चरितमूलक रचना है पर इस रचना का भी पवाड़ी की परम्परा में विशेषयोग नही। वस्तुतः इन दोनों कृतियों के काल ही गैक से निर्धारित नहीं हो पाये है। ऐसी स्थिति में सं० १४८५ में रचित जैन कवि हीरानंदसूर इवारा विरचित रचना विद्या विलास पवाडो ही इस परम्परा की प्रारम्भिक रचना कही जा सकती है योस० १४५३ में विरचित हरिचन्द पुराणक्या के प्रारम्भ में दो बार पवडो वृद्ध का उल्लेख मिलता है। परन्तु यही सब कार्य प्रकट भी होता है या ऐसे ही कोईऔर नई मी विमा पा सकता है। पयडो सद पवाडो के एक दम निकट नहीं लगता है। इसी प्रकार का दे प्रध, वसी का राब, अपनी मंगल आदि में भी पवाडो अब मिलता है परन्तु इनसे पंवाडो मक रचनाओं की परम्परा के विकास में कोई योग महीं मिलता। - - -बापमा क्यिोः श्री का शास्त्री २.कल्पनाबस्त अक्बर १९५. .. 1 (अधिकिार कर मार (4) सद्ध हरबंद बवडो संसार। Page #719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७७ १५वीं शताइदी से हिन्दी में पवाडो की परम्परा में सर्व प्रथम रचना विड्या विलास पवाडो ही है यद्यपि १५वीं शताब्दी में अधिक संख्या वाली रचनाएं इस काल में नहीं मिलतीं, परन्तु इससे परवर्ती काल में इस परम्परा में पवाडो संज्ञक अनेक रचनाएं मिलती है। १६वीं शताब्दी में जैन कवि ज्ञानचन्द द्वारा रचित बंक्यूल पवाडो है, जिसकी रचना सं० १५६५ में काठियावाड़ में हुई। ___१०वीं उताब्दी में राजस्थानी में लिख पाबूजी के पवाडे प्रसिद्ध है।10वीं शताब्दी में पवाड़ी की परम्परा में असाधारण संख्या में योग देने वाला मराठी साहित्य है, जिसमें शिवाजी के समय में ही अनेकों पवाड़े लिखे गए जिनकी संख्या लगभग १०. है। इनमें अधिकार गेय वीर काव्य है। शिवाकाल से साहू काल तक के सात पेशवा काल के १५. और बाकी १४०. ई. के बाद मिलते हैं, जिनमें अज्ञान दास का अफजलसा बघ, और तुलसीदास का तानाजी मालचरे का पवाड़ा, बहुत प्रसिद्ध है। वस्तुतः मराठी भाषा में भी शिवाजी के पहले पवाड़े पाप्त नहीं थ। इस प्रकार प्राचीन राजस्थानी या जूनी गुजराती से पारम्भ कर यह परम्परा सम्पन्न रूप में सुरक्षित मिलती है। पवाडो के स्वरूप की रक्षा दवताओं की स्तुति प्रशस्ति के रूप में रिगवेद से ही प्रारम्भ हो जाती है परन्तु परवी प्रन्थों में पवाड़ा किसी विषय विशेष के रूम में नहीं थे। बस यह स्पष्ट कि पवाडो की परम्परा अत्यन्त प्राचीन है और उसके पूर्व विक्यों में भी अनेक सों में परिवर्तन परिलक्षित होता है। - १- कल्पना अमरेश अक्टूबर १९५०-यान अपहषिपर बाईपल्याडउ परचंद राविस कपनि परिसर "विकत बबाल दिव्याधिवि देवव्यावर कब्ध पथम * १. मराठी और मा साहित्य प्रमाल नाच • ५. राजकमल प्रकाशन दिल्ली * कल्पना वर्ष ९पर पवाठों कीप्राचीन परम्परा शीर्षक लेख श्री Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७८ पवाडों संज्ञक रचनाओं की परम्परा पर विचार करने के बाद पवाड़ा शब्द के अर्थ उसके प्रचलित प्रयोग और उसके उद्भव की संभावना पर भी विचार कर लेना चाहिए। भाषा शब्द कोश में पवाड़ा,पवाड़ा, पंवारा संज्ञा पुल्लिग, देराज (संस्कृत प्रवाद) लम्बा चौड़ा या विस्तृत इतिहास क्या वध विस्तार से कही हुई बात के गीत अर्थ में मिलता है। गुजराती जोडणी कोर में पवाडा संस्कृत प्रवध स व्युत्पन्न है। आप्टे के संस्कृत अंग्रेज़ी कोश में पवाडी का अर्थ सूचना, किमर्वदंती, कहावत अथवा लोक विश्वास बताया गया है। डा. सत्येन्द्र ने परमार शब्द से पवाडो की उत्पत्ति बताई है। विद्वान् डा. टर्नर ने इसकी व्युत्पत्ति "संस्कृत प्रवादक शव से बताई है। जो कुछ अंशों में ठीक भी लगती है।डा. टेसीटोरी ने अपने (Gandhe chrouse, * परवाडा राजस्थानी व गुजराती में प्रवाटा अब्दीका स्पष्ट किया है।यह भी संभव है कि संस्कृत प्रवाद की पवाडो के मूल में रहा हो यथा प्रवाद पवाम पवामडल अत: यह पवाडउ प्राचीन राजस्थानी या पुरानी हिन्दी का शब्द है। बंगाली लोग प्रवाड़ा की व्युत्पत्ति पयार से मानते है।अनेक विद्वान प्रवाइ, प्रबंध आदि अब भी इसके मूल में बसला की कहीं लोक माथा या लोक काव्य का भी योग पवाडो के रूप में मिलता है परन्तु अद्यावधि पवाडो भव की त्वरित के लिए की मई अनेक सम्भावनावों में कोई भी अब तीक पवाडा का अर्थ स्पष्ट नहीं करता। यो प्रवाद अद में इसकी कुछ संगति बैठखी है पर वह अर्थ भी किसी : वही 1० १११ जोडी ! ving or tallet. -R ४- लोमा का अध्याय ५- मझारखी ई . Page #721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७९ निश्चित तथ्य के बिना अपूर्ण सा ही लगता है।यों विद्वान् इसी अर्थ से सहमत है पवाडा शब्द निस्संदेह भाषा विज्ञान के शोधकर्ताओं के लिए एक महत्व पूर्ण शब्ब *। औजी कोश मैमी पवाड़ा शब्द की विभिन्न रूपों में व्याख्या की गई है। जिस प्रकार पवाडा शब्द की व्युत्पत्ति पर मत वैभिन्नय है ठीक वैस ही पवाडो के उद्भव पर भी मैतैक्य नहीं है। इस सम्बन्ध में स्वबंब चिन्तन ही आधार कहा जा सकता है।लोकमान के साथ पवाडो का अधिक प्रबन्ध स्पष्ट होता है। लोक गीत जीवन की उल्लास पूर्ण अभिव्यक्ति है उनमें पवाडे और अधिक सरस और स्पृहणीय लग तहै। यों पवाडो का शिल्प देखते हुए उसमे अनेक गुणों व तत्वों का समावेश होता है। लम्बा क्थानक, सरस संगीत, प्रवाहपूर्व अलंकरण रहित शैली, पक्तियों का आवर्तन, अलौकिकता,अति प्राकृत घटनाओं का आरोह अवरोह, नीति मयता व उपदेश प्रधानता रहती है।जहाँ बकवृत का धम्कन्छ है।पवाड़ी में अधिकतर वीरता मूलक या प्रेमाश्यान मूलक लोककथा हो होती है। प्रजन, निर्माण और मिलन ही इनकी लक्ष्य प्राप्ति होती है। इसप्रकार पवाणे संसार के हर प्रदेश में मिल जाते है। प्रो. प्रिम और गम्भीयर जैसेपाश्चात्य विद्वानों ने इस सम्बन्ध में विस्तार में लिखा है।वस्तुतः प्राचीन समय में स्वाभाविक अभिव्यक्ति के साथ चारण भाट भावि जिस काव्य की अयादि में गुना करकी के बा पवाड़ा ही था। पाश्चात्य विइबानों में इनकी इन्हीं विशेषवाओं के कारण इनको साहित्यिक, लोमाधात्मक परम्परागत और बारणी पवाडे ..... Literary Broadside Ballads, traditional ballads tatha Ministrel Balads.) 1. (a) tawada or Panwas H. & panegyria or exorniastie proc. in end of 1tentive poetry recounting the achive a varrher, the talents and attainments of . wohplay, or the power, virtues and excellencies of a Termometeomartha Marathisnglish Dictionary,18571 (11)Powad. &. (Babstantive) me (mas auline) opie pe on, 2 Satire, Slader 3 useless talk, babbling (Hetk' modern arati Englsh Diettenary, 1925.) Page #722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८० आदि मेद किए है।लोक काव्य होने से अनेक प्रकार के विषयों का समाहार इन रचनाओं में हुआ है। सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक लोक कथात्मक आदि अनेक क्षेत्र पवाड़ो के विषय है। उक्त वर्गीकरण से भी उपयुक्त वर्गीकरण राजस्थानी पवाड़ा साहित्य का किया जा सकता है।वीर क्याओं के अतिरिक्त प्राचीन बात और ख्यात साहित्य के रूप में राजस्थानी साहित्य विशालरहा है . इसमें लोक गाथात्मक पवाड़ो के अतिरिक्त प्रेम कथात्मक, वीर क्थात्मक, योगभूलक धार्मिक तथा जीवट से भरे साहसिक कथानक वाले पवाडे भी मिलते है। पाबूजी के पवाड़े अत्यन्त प्रसिद्ध है इसी प्रकार ढोला मारु रा दूहा भरथरी आख्यान आदि उल्लेखनीय है. वस्तुतः पवाडे लोक माध्यान के लिए न हो गए है। अनेक पवाड़ो की परम्परा तो चविषय मिलती है। बहुत प्रात्रीन परम्परा होने से पवाड़ा काव्यों के शिल्प से कई परम्परा अन्य काव्यों का माना जा मक्ता है। सबसे पहले मानव इसी तरह किसी वीर की प्रशस्ति या विशिष्ट कार्य को गीतात्मक स दिया होगा वही सम्भवतः पवाड़ा रहा होगा। पवाड़ा साहित्य यों भारत के हर एक प्रदेश में मिल जाते है। अन्य देशों की अपेक्षा हमारे भारतीय साहित्य की परम्परा अधिक प्राचीन पंजाबी पवाड़ा को बार महाराम पोवाड़ा, ब्रजभाषा में पारा, बंगाली में माथा अथवा काथा, मालवा तथा राजस्थान में पवाडो, कम्नड़ में लोबानी..पी. पवारे प्रावि अमेक अब मिल जाते है। पवाडो का आदि रचयिता कौन था या भानमा अत्यन्त कठिन है।यों अकिसिड साहित्य का सबसे बड़ा व रहस्थ उस कमिमीवाओं के मौन रहने में ही है परन्तु मायालय को न समुदायवाद और व्यक्तिवाद को लकर मुम्भेयर ग्रिम, रोल्पना पाण्ड, बिट वस बथा पर्षी मे पवाड़ो क रचयिताओं पर विस्तार में मार 1ि पाचात्य साहित्य में पवाडो शिल्प आदि - 1.a natar Balamge 38. Page #723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८१ पर वैज्ञानिक रूप में कई विचार करने वाले लेखक है। वस्तुतः इन विभिन्न मतों द्वारा यह स्पष्ट हो जाता है कि पवाड़े किसी जाति विषेत्र या व्यक्ति विशेष की रचना है परन्तु इनकी परम्परा अनुश्रुतिबद्ध परम्परा होने से तीनों ही तथ्य इनके उत्सव में आशिक रूप में कुछ योग देते है। लोक गीत कलाकारों में कोई भी को अपने को स्व से पर की सीमा में लीन कर देता है, वही सच्चा लोक कलाकार है। यों इसकी उद्भावना महाकाव्यों, रोमास काव्यों तथा स्तोत्र आदि से भी मानी गई है' पर इससे केवल विषय उलझता है।पवाड़ो की सबसे बड़ी विशेषता ही यह है कि वे लोक गान है तथा उनका रचयिता कोई प्राणी विशेष नहीं है। यह तो हुई पवाड़ों की शिल्प सम्बन्धी प्राचीन बात।अब परवर्ती साहित्य में जितने भी काव्य मिलते हैं वे विविध विषयक है। ज्यों ज्यों स्था में वैमिन्नय माता गया त्यों त्यों क्या वस्तु मैं भी वैमिन्न्य आता गया।यों लोक कथानक होते भी ये काव्य अत्यन्त सरस है अतः उनको शिष्ट साहित्य का ताना बाना पहिना कर प्रस्तुत करने के कालान्तर में अनेक प्रयत्न हुए है। वास्तव में ये किसी व्यक्ति विशेष के विशिष्टकार्यों का स्पष्टीकरण करने वाली रचनाएं है। यद्यपि प्रारम्भ में यह काव्य लोक आख्यानक कथा का प्रतीक था परन्तु परवीं काल में यह वीर माध्यानक काव्यों के लिए हो गया है।मामाला विरचित नागदमण में पवाड़ा पनमा त था १८वीं मादी में विरचित देवी विलास ग्रन्थ में भी पवाडा वृद्ध ही उल्लेख है।" उपयुक्त सब विवेचन को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि पवाड़ा एक १-मरभरती वर्ष ४ क ८ २-नागरी प्रबारिणी पत्रिका, बर्ष ५८ बैंक ४.४३१ . -मारिकेबराडे। आपकी साधन गाढे मगनादेन पवाडे एकलाचि और काराममाथामें अनन्तधोरी। मर्जताती पवाड़े तथा कृष्णे पवाड़ा काबला(प्रजराती हाहित्यम स्वामो०१४)। Page #724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकार का चरित काव्य है जिसमें कथा व गीत संगीत को महत्व दिया जाता है। ये काव्य वीर, सामाजिक अंगारिक से प्रेमादि किसी भी प्रकार के आख्यानक से सम्बन्धित हो सकते है।राजस्थान में कई स्थान पर पवाड़े पड) गाने वाले काव्य के नाक आदि का एक विस्तृत चित्रपट मी साथ में लेकर उनके विविध लिया कलापों का प्रदर्शन करते हुए गाते है। अतः प्रेणात्मक बीर गाथाओं के साथ साथ लोक आख्यानक व सामाजिक क्था वस्तु भी पवाड़ो में सवाभाविक रूप में मिल जाती है। वास्तव में ये काव्य वीरों की प्रशस्तियां, विवानों का मामध्य वर्णन, गुण कौशल आदि का काव्यात्मक वर्णन करते है। मराठी ज्ञानेश्वरी में पवाड़ा काव्यों का सम्बन्ध सामईयवान व्यक्ति के साथ जोड़ा गया है। १५वीं बताइव में विरचित त्रिभुवन दीपक • प्रबन्ध में भी पवाडा बब्ब तीन बार मिल जाता है। नागदमण मे पवाडो पनगासिरं जड़पति कीनो जाग में कृष्ण के नाग इमन की क्था को ही पवाड़ा का रूप दिया गया है। इस प्रकार परवर्ती काल मे पवाड़ा एक शैली विशेष और काव्य रुप विशेष ही हो गए। काव्य की शैली के अनुसार उसमें प्रधानतया च पाई बंद होता है और बीच बीच में पर्याप्त संख्या में दोहे तथा अन्य छव होउसमें विभिन्न रागों में गाये जाने वाले अनेक पद हों क्या जिसमें सर्ग विभाजन या विभाष सूचक बाद मेंवे काव्य रचना जैली की दृष्टि पवाड़ा कहे वा बने है। बानस से अमन में तो छंद का नाम ही पवा मिलता है।' की परम्परा स्वम्प उदभव तथा शिल्प आदि पर विचार करने पर यह कहा जा सकता है कि हिन्दी साहित्यमसबसे अधिक प्राचीन पवाडा संज्ञक रचना १५वीं बतादी की विमा विकास पवाडी ही है। आविकालीन कृतियों - १- त्रिभुवन दीपक प्रध-कालयद माधी. (क) पुत्र पवाड़ा सम्मकी बादिया मरना (4) भाषण कहर केला कि आगति पवाडा (8) यह पहिचहाड वाचडिय प्रवाई पर। - पुर्वर रासायी-माना Page #725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८३ मैं पुरानी हिन्दी में लिखी हुई यह रक्षा लोक आख्यानक *ह तथा जैनाचार्य श्री हीरानन्द रि द्वारा लिखी हुई है। अतः प्राप्त रचनाओं में सबसे अधिक प्रमाणित कृति विद्या विलास पवाडो ही है। जिदी साहित्य में वस्तुतः पवाड़ों संज्ञक रचनाओं का यदि श्री गणेश कोई रचना करती है तो यही हीरानंद विरचित विद्या विलास पवाडो हीरमा का अध्ययन हम आगे के पृष्ठों में प्रस्तुत कर रहे है। Page #726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८४ 0 विद्याविलास पवाडी विद्याविलास पवाडी की प्रतियां बहुत बड़ी संख्या में उपलब्ध है। पाटण मंडार में इसकी प्रतियां कई है। रचना का सम्पादित तथा प्रकाशित पाठ प्राप्त है। हीरानन्द सूरि का काल निश्चित है। इनकी कृति कलिकालरास पर रास अध्याय मैं प्रकाश डाला जा चुका है। वीरानन्द पिप्पल गच्छ के थे तथा इनका समय १५वीं शताब्दी का उत्तराध था। है। रचनाकार ने पवाडो को प्रवादकः प्रस्तुत कृति की रचना सं० १४८५ में की गई या प्रशस्ति काव्य कहा है:दिय डामिंतरी जाणी विद्या विलास नारद पवाड वस्तुतः इसी रचना की कुछ प्रतियों की पुष्पिका में इसे रास, चरित आदि कहा है परन्तु लोक कथा काव्य के रूप में यह काव्य लोक आख्यायन परम्परा को सुरक्षित रखने वाला उत्कृष्ट काव्य है। विद्या विलास पवाडी, कान्दे प्रबन्ध, माधवानल तथा त्रिभुवन दीपक प्रबन्ध के समान ही है। तुलना करने पर अनेक कड़ियों तथा दों में साम्य मिल जाता है। विद्याविलास पवाडी विद्या विलास का जीवन चरित वर्णित । विद्याविलास की कथा प्रेरणा मूल संस्कृत के विनय चन्द्र कुछ मल्लिनाथ काव्य (सं० १९८४ के समीप) है। इसके वितीय सकी या विनयचटकी कथा ही इस रचना का है क्या मैं उससे अन्तर स्पष्ट होता है। आगे भी स्वामल पट्ट ने गुजराती में विद्या विलासनी भी वाती काव्य लिखा है जिसमें विद्याविलासमी को नायिका के रूप में चित्रित किया है। १- विद्याविलास पवाडी के (१) लिखि गरि सुंदरि रे (१।२८१ - २९७) (२) उगी नमरी मी बरमारी है रंग धरेवि (११३७०-३८४) (३) tantura बरवानीक (१२४२९१४४०) आदि पद कान्हडदे प्रबन्ध, वीर त्रिभुवन दीपक प्रबन्ध में उभयनिष्ठ है। - इसी प्रकार का बूढा, प्रबन्ध तथा राम आदि रूपों में भी कृति विदमा विलास पवाड़ी उक्त तीनों समकालीन कृतियों सप्त साम्य रखती है। Page #727 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८५ प्रस्तुत काव्य ४४० कड़ियों में लिखा गया है। पवाड़ा शब्द को कवि ने चरित मूलक अर्थ डी में लिया है परमिहिं अचल बचामण्उ ए विद्या विलास चरीउ से यह बात स्पष्ट हो जाती है। विद्या विलास पवाडो की कथा वस्तु बड़ी रुचिकर है। कथा तत्व में घटनाओं की प्रधानता तथा वैचित्र्य है। पूरा काव्य घटना प्रधान है। कथा तत्व की सरसता काव्य का पदलालित्य बढ़ा देती है। कथा संप में इस प्रकार है: कथा सार उज्जयनी नगरी में धनवाह सेठ के चार पुत्र थे ।उस नगरी का राजा जगनीक था। धनावर सेठ के चार पुत्र थे। बारो पुत्रों को उसने बुलाकर धनोपार्जन की विधि पूछी तो प्रथम तीन ने रत्न परीक्षा, सोने चांदी के व्यापार, कपड़ों का विक्रय आदि के माध्यम को बताया पर छोटे श्रीवस्त ने कह दिया कि मैं वो राजा की मीति राज्य करूंगा। इस पर बिगड़ कर पिता ने उसे घर से निकाल दिया। श्रीवत्स या घनसागर रत्नपुर नगर में आकर एक पाठशाला में अध्ययनार्थ प्रविष्ट हो गया । पर पूर्व जन्मों के संस्कार से उसे कुछ भी याद नहीं रहता था । सब उसे मूर्खचट्ट या विनयचट्ट कहने लगे। इस प्रकार मूर्तच मे १५ वर्ष तक मुफ की सेवा की। इसी पाठवाला में नगर की राजकुमारी और प्रधान का पुत्र पढ़ता था दोनों मैं प्रेम हो गया। संजय मंजरी ने उसे विवाह का किया पर प्रधान का पुत्र नहीं कर सका। उसने एक युक्ति निकाली लिन स्थान पर प्रधान पुत्र ने विनयचट्ट को मेजा, उसे समझाकर कि वह फिर भावावेगा।रातों राम विला होकर ऊंटनी पर बिठाकर ले जाना। बिट राजी हो गया और जाकर उसी रात गुरु से आशा गांधी ने अपनी कृपा से सरस्वती को अभिभूत कर के अनेक गुणों को की सेवा कर वर दान दिए । बट्ट महान विद्वान हो गए। सरस्वती उस पर बड़ी जीत हो गई हो गया। अंधियारे में ऊंटनी पर बैठकर दोनों कि मागे। पर प्रातः जब संजम मंजरी ने पूर्वच को अपने साथ देवा तो महान हुई चैन में बार विमम्बट्ट महान काव्य बनाने लगा उसकी Page #728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८६ सरसता पर अनेकों एथ हो गए थे। विद्या से लोकानुरंजन करने वाले विनयचटूट को विद्वया किस नाम दे दिया गया। संजम मंजरी दुस में दिन निकालने लागी | सखी के यह कहने पर भी कि विनयचटुट महान विद्वान है उसे विश्वास नहीं हुआ। ऐसे ही समय में जमीर से एक सन्धि विग्रह का एक लिपि पत्र आया । उसे नगर का कोई व्यक्ति, किं विद्या विकास को छोड़ कर नहीं पढ़ का राजा ने उसे प्रचान बना लिया लिख से विद्या विलास की बड़ी प्रशंसा हुई । पति पत्नी की यह अमवस राजा को भी ज्ञात हुई उसने इसका कारण जाना व भैव लेना चाहा और उसके महा भोजन करे गया पर संयम मंजरी ने अनेक वस्त्र बदल बदल कर पहने । अतः राजा न जान सका ।थी बार राजा ने दूसरी युक्ति सोच नगर पालिका के सामने प्रधान को सपत् नृत्य मान करने की कुल रीति बताई | संजम मंजरी ने कहा कि यदि प्रधान गीव रोगा और स्वाद बजायेगा तो वह नृत्य जरूर करेगी। ऐसा ही हुआ। दोनों मिले। जीवन में आनन्द छा गया। दोनों पति पत्नी का वर्षों का मौन टूट कर दूर होया । दोनोंहाथी पर बैठे। पर इतने में राजपुत्री की अंगूठी गिर गई। विद्याति को उसने लाने को कहा वह नीचे उत्तर कर लाने गया तब तक सवारी आगे रक गया और बाम एक सौदर्य नगर में प्रवेश करते करते नगर के दरवाजाव छेद में से प्रविष्ट होने को गया तो उसे को एक बैक्या ने देखा तो उसे मंत्र इवारीयार करता बना कर पैर में काला डोरा बांधकर अपने पाव र छोड़ा। वो पंजरी के पास चला गया। राजकुमारी तड़प रही थी उसका उस सोल दिया विद्या विलास पुनः प्रधान बन गए। गविका में भी उसे उसकी पत्नी को सौप दिया। राजा ने दीक्षा लेकर प्रधान को रसोय विगा। विद्याविलास ने राजा बनकर अपने fear के नगर पर बढ़ाई की वहांके राजा को परास्त किया। फिर संधि करने के लिए नगर आये या विमा विलास ने पूछा क्या आप मुझे षडियानते हैं? पिता पुत्र गले हिन्द छा गया श्री पूर्वजन्म के f Page #729 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संचित तप के प्रभाव से राजा हुआ व में निर्वाण को प्राप्त हुआ। कथा संक्षेप में यही है। क्या को देखते हुए यह कहा जासकता है कि प्रस्तुत काव्य घटना प्रधान प्रेम काव्य है। काव्य में घटनाओं के तीन बड़े मोड़ है जो काव्य में कौतूहल का समावेश करते है वे है:.) राजकुमारी का लम्न श्रीवल्प के साथ अंधेरे में होना वट पर बैठकर 'निकलक्षा। काश्मीर के लेख का पढ़कर प्रधान बनना तथा ) राजकुमारी व कुमारी का नृत्य बाइय आयोजन ब राजा का मेव आदि लेना तथा दोनों का पुनर्मिलन आदि। कवि ने मंगलाचरण से ही काव्यप्रारम्भ किया है: पहिल पगामिय पढम जिलेसर सिजय अवतार हधिमा उरि श्री काति जिणेसर बलि नेमिकुमार जीराउली पुरि पास जिनेसर माउरि वद्धमान कामीर परि भरसति सामिपि छिम नि वरदान कवि की भाषा का प्रवाह व सरलता उल्लेखनीय है: सख परिनल म्यारि निरोषम परियार बीड बंधव नाम मरिख इदिन गुपयार बीस किन साबर बामर जिम मैमीर बात षब पि नसागर गरब बस धीर एक दिवस मारि मंद सालि खा रमि वापि गोगाव्या किम परिमार घरेमिक अंगि पटि का बोब्बई परि मांडिस हाट नीद मौजा प्रकाशन पूरीष बावित सोवान पाट श्रीस मोड़ पर मोक गायि बाड सामोसा सक्षित बानी युमि मा मोरी बात Page #730 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८८ ऊजेणी नउ जीपी राजा लेई सर्व राज इन परि बाप खमा हूँ सारि मन बाछित सवि काज (६-८) कवि ने संयम मंजरी का रूप वर्णन पर्याप्त सरस किया है। कवि की अलंकारिकता और प्रवाह दुष्टव्य है : तीषि नयरि सुरसुन्दर राजा वसु घरि कमला राणी arse सुन्दरी तातणी धून रुषिई रंग समाप सोल क्ला सुन्दरि ससि वयणी चंपकवन्नी बाल काजल सामल लहकइ वेणी चंचल नयम किसाल अधर सुरंग सजस्या परवाली सरल सुकोमल बाह पीण पयोहर अतिहिं पमेहर जाने अमिय पवाह ऊर युगल किरि कहली शंमा चरण कमल सुकुमाल मयगल जिम माहंती बाला बोल नयन रवाल (१७-१८) परम्परागत उपमानों की घटा तथा अनुप्रासात्मकता रचना में प्रवाह का मिठास बोल देते है। राजकुमारी का मंत्रि पुत्र पर मुग्ध हो जाना और मंत्री पुत्र का स्वामी की पुत्री पर हुए इस नीच मनोरथ के बचने के लिए अनेक संकल्प विकल्प करना दृष्ठ्य है। कवि विविध दृष्टान्तों और अन्तरन्यासों द्वारा कितना सुन्दर वर्णन करता है: विक उपरिई नीच मनोरथ काइ एह नाव जगती नही बाची वरम थाइ किही सायर कही खिलाफ किया पर किही पास किडी कायर किही वर छ किटी गम किकी सुरवाल fair पvिe for ने मिरि किही तर किही केकान किडी बाहर ही डार्क किडी व किही जान किडी क्यूरी किडी रूम, किडी मानव किही देव किडी काबी किडी अमिय रस, किवी राजिम किडी सेव किडा रोरी किडी वर काय कियां दीक किही माण Page #731 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामिणि मा तफ अंतर ए एवडउ प्रमाण राजकुंरि बलहुं पपइ म करिम घणउ विचार इण भवि पर मवि एक तु निश्चिई करितु भरतार रचनाकार ने अनेक वर्णन किए है जिनमें भोजन वर्णन नृत्य गीत वर्णन, विरह वर्णन आदि प्रमुख है कवि के काव्य कौशल के कुछ उदाहरण इष्टव्य है। राजा के अजम कुमारी के यहा भोजन करने आने पर कवि भोग्य सामग्री का वर्णन करता है: ताण सामडणी सवि करी,राणा डिउ ऊलट धरी भाविउ राजा मि परिवारि जिमवानइ मिति जोवा मारि क्या बासक नइ आडणी, पुर बइठउ आयपुर घणी 'क्या सोबन मय बहु थाल {क्या क्योल वि साल पहिरि जम समाषा देस निरुपम न क्यिा नववेस के सतह मोहामी बाल तिमि मंडपिआभ्या बत्काल पहिली मूंकी फलाहुल गली, की साकर इधई मिली क्यां सरस गविल पक्वान, क्या आणी उन्डा धान क्या नव नव परि साल, मुक्या सरही थी अति वर्ष मुंकी माडी पुरकी व ग बीर गाड एक हेव क्या सहा पुरता घोह जिमवाड वि छ निरोक बाब्या वास्या निरमल मीर आया कर लेवा बीर माव्या बीड़ा पाका मा बाब्या समझ घोड़ा पणा इपि परि राजा मावि धरि आwि (७१-८५) यही नहीं वृत्य और वाध्यों का वर्णन कवि के गीजन्य या लय वा सम्बन्धी जाम पर पीप्रणा गला । यात्मक है। अनुप्रासात्मक तथा अनुरणन मुक्त है जिनसे एक बाब कीट होती पापा की परलताऔर वर्षन का अत्रासात्मक-समस्कार हर साल्वी , हिव सुपई) Page #732 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१० नृप आयस लही वरवेक्षत्र रंगमणि कीघउ प्रवेस धा धा धा भार मुर्दम, चबम बचपट बाइ मुरंग संधुगनि घोंगनि धुंगा नादि, गाई नागड दोदो सादि मपधुनि र मपनि मन बीप, निनियुमि सपि भाउज लीप बाजी ओं ओं मंगल अंस, घिधिक्ट घंकट पाड असंख फागढ दिगि दिगि सिरि बालरी, गण गण पाउ मेरी दो दो दिहि सिविल रसाल धुण धार धमकार रिमि भिभि रिमि मिमि मिझिम साल, कररि ररि करिघटपटतात भरर मरर गिरि मेरिम साद पायडीउ बालवीउ नाद निसणी एवं विह बहुवाल मनि चमकी ते नवरंग बाल माची अति धन उल्लट घरी राजकुमारि सोबासुंदरी (२०११) कवि के इन सब बर्मनों के अतिरिक्त बिरह वर्णन बड़ा मार्मिक बन पड़ा है। विप्रलंभ का वर्णन सोडगसुन्दरी विविध विलापों और वियोग सूचक उद्दीपनों से स्पष्ट करती है। श्रृंगार का यह 'वियोग पक्ष वर्णन की यथार्थता और सरसता से अत्यन्त उत्कृष्ट बन पड़ा है। मौमाभ्य मंजरी विद्या विकास के बिना बड़पती है। उसका प्रतीक्षा वर्णन , आडों में नींब म बाना, चंदन, बाद, बीड बाइ आदि सबका भयानक लगना भी वन स्थानीय : (राजा-+ ) निवि करि सोडग कुन्दर रे बोइ वाम बाट नीम भाव नवमलेरे, मिरर बाट दृषि कापी बो मिलाय, बाल बालन विमा विकास म लिभीय मार, प्रहपूरिन मन की भाव इस विती विस बोलासीसी समापी बडी रे, बदन वाली भाल दावानल मिन बीमडारे, जिस्या करवात कम माद बाबा रे, गा बिस वरसंति Page #733 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सीतल वाउ लोहामणु रे, प्रियविण ताप करवि बासी डाहिम आपणीरे, रंजी मुफ मन मोर छयल पंबई छानउ रहुरे, हीवडा करी कठोर एका दीडन जाणीया रे, मिरगुण जाणी कंस हिव शिण बाळ बरसमा रे, बाद मुझ विलवंत जह करवत सिर बाहर रे, वीज चिरणहार वर कोच्या पाजण रे,सल उजाणत पार (११५- विवाह का प्रासादिक वर्णन कवि ने विवाहला ढाल में किया है। संगीत की दृष्टि से भी प्रस्तुत काव्य बड़ा महत्वपूर्ण है। विवाह का उल्लास, नारियों का श्रृंगार और मंगलगान आदि सबकी राजस्थानी परम्पराओं के वर्णन तथा तत्कालीन स्थानीय रंगो (लोकल कलक) का स्पर्म करते है। अब की आवृति उसे रागमय बनाती है: (हिव वीवाडला नउदास) सुंदर लगन गणवीउंए, मणि माती रणि बधावीउ ए, बल्लह सज्जन बेहावीर ए, बरमंडप तिहा मंडावीर ए काडम बानि बढ़ाकिर, परिवा दोरण बाकि र बाढी नि नि नारी ए, बर पीबी बेडरवारीइए परिनि गजबड काली र, मोठी मवरंभ छाटी र कर अखि झी बलकती पगिरि मोकन राबडी बी ए हाडी सावि घोडामणी ए, सी योजह मंगल कापिणी प हाथ कामदाबाद र, बर राहवारी वेवरी गरि मन बरतीमा ए, बर बस की बात दिवा ए वैश्वानर शबई की र, इन परिषी जिन गुण मैदरी ए रचना वीर समापी परिवार देखने को मिलता है। विद्या विलास का राजा बनने के बाद अपने पिता के नगर के राषा पर शाम्मल करमा, नागों का पिना, वस्त्रों की कार, सवारों, वो घोड़ों, गथियों क्या तलवारों Page #734 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदि का उत्साह पूर्ण वर्णन बीररस की निष्पत्ति करता है।वर्णन ध्वनात्मक है: (भीमपलासी) मयवर मयवरि रथ रथि विं, अमवारि असवार इबई परि भई थला पुषग अवि नसरंगाणि तिषिवार बिहुँ बालि ढो ढौं टोल टमक्की मा भोरिनन्द विरसरवि सरमई बबइ ढमढमढवक सुखद * मटि गटि दह दह नादि, वाजीय मुहिरनी साग रख काली मुनी मनरंगणि, कायर घडइ पराव मुड हलि पनीयाला आयुध सूरकिरक मलकति देखी मुहड सबल रोमच्या नीसन नासीति मयवर मुडिया रख पाबरिया, गुडलीया माह माहो माई बाई भाटक बाइघिर प्रवाह भारि मारि काता इक अहंकंपकि करवात रोसिव डिबा राउत भई जिम हा विकराल (१४५-१५०) एक तणा घडड चूजई एक हीडई मुललिताई गिर पाइ एक सी गुण्डा प्राधिकरण फोडा पार वरव अपीयर, बीरइ बीर पडत नाना एक नर भारीड, परवा इस किनईति ऐसा मयबर गढि गाई पाबमा बोकार डाडि माडी ना, हाइ अखबार और मन बना निदान है। निमाविलास अपना पूर्व मब पूछता है तथा दीवाना - (राग वसंत) इवलीपूरमय देखा गाती समर मरिकों भी मिलाब बरावि वापी पामी परमानंदो Page #735 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ए संसार असार सुणीजइ दुक्ख तमउ भंडार आप सवारथ सहूई मिलीउं पुत्र कलत्र परिवार लच्छी चंचल पवन ती परि यौवन संध्याराग नीर बिंदु जिम जीवी जाणीई आणी मनि वइराम संजम लेई शिवपुरी पहुछ धन धन विद्याविलास मग हीरानंद श्री संघ पूरत मन मंछित सवि आम प्रस्तुत रचना का लोक कथा काव्यों की दृष्टि से तो महत्व है ही साथ ही छंदों और रागों की दृष्टि से भी इसका बड़ा योग है। पूरी रचना में देवी सवैया और दूहा चथइ में काव्य लिखा गया है। वस्तु छंद, गीत राग और दाल आदि सभी का विश्लेषण इस प्रकार है: · 女 १ २१ २२ से २७ २८ से ९४ ९५ से ९९ १०० से ११९ १२०-१५२ १५३-२४७ २४८-१८० २८१० ११० २९८-३९१ ३२-३३८ ६९३ ३३९-३६९ राग सवैया देवी पवाड़- मात्रा १६ १२ वहा मात्रा १३ ११ दूहा, अंत में ए का प्रयोग वाला देशी सवैया (जयदेव द्वारा आयोजित) · बस्तु सवैया देवी भवा *ए की आवृत्वि(रान देवान) हिम चुबड, मानवी बस्तु तथा दुवा चप ( १५ मात्राओं का हरेक पद) तथा दूढा wes, हराम मालवी व ) तथा वस्तु गीय, (रा) बूढा (१३ ११) कप ( १५ मात्रा राम रामगिरि ) - १५ १३ अंत में रमन अंड में संगीतात्मक विवाला डाल- प्रथम पद की पुनरावृत्ति दूसरी बार (१४ १४ मात्राएं तथा ए का थाना हरेक पंक्ति के अन्त में ए तथा वस्तु छेद। पवाडु (देवी) मात्रा १६ १२ राग भीमपलासी वस्तु • Page #736 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७०- ४२४ ६०४ डिव बधाननान ढाल राग देवाय । यह पद भी १३, १३ मात्राओं का दूसरा रूप है। पढावु मात्रा १६, १२ ( राग वसंत) ४२९- ४४० पद मात्रा १४, १४ (राम वसंत) ढाल विवाहला, इस प्रकार विविध रागों में कवि ने इन कड़ियों को गाने का निर्देशन भी साथ ही दे दिया है इससे स्पष्टहोता है कि कवि का संगीत ज्ञान भी वास्त्रीय तथा असाधारण था । छंदों के रूप में प्रस्तुत कृति बड़ी महत्वपूर्ण है कवि ने इसी प्रकार कई मौलिक छेदों व विभिन्न राग के साथ उन्हें गाने का सुझाव दिया है। वस्तुत: जो भी छेद हमें इस रचना में उपलब्ध हुए है, उन पर पर्याप्त प्रकाष डाला गया है। भाषा की दृष्टि से यहरचना भी त्रिभुवन दीपक प्रबन्ध, पंच पंडव चरित राजु क्या नेमिनाथ फायु की ही मातवीं शताब्दी की सरल हिन्दी है। तत्सम पदों का प्राधान्य है। प्राचीन राजस्थानी या गुजराती के विविध शब्द मिल जाते हैं जो साधारण भाषा प्रवाहपूर्ण और प्रासादिक है। वर्तमान गुजराती की प्रारम्भिक भूमिका इस कृति की भाषा से मिल सकती है। अप की लाथमिकता इन कृतियों में कभी कठिनाई से मिलती है और उसके बाथ तत्सम प्रयोगों ने सम इच्छता को समाप्त कर दिया है। एवर्ग अनेक उदाहरण उपर दिए गए है। समस्याएं:- ठोक या काव्य होने के साथ साथ रचना में एक महत्व गुम उसमें 1. The detailed analyis of the metrical form used in this poem is of great immprtant in painting out how at the basis there were matra metres which becaneseose as the musical considerations began to enter its form. The syllables of one matra or two matras did not remain rigidly so and were lengthened eut short ened aecording to the oal or giving requirements. Even the pads has originally at the basis the well known matra forms. The musical syllables are added and then the peetie narrations were composed by taking Yals and Deshi w.th out any consideration of Matra metre basis. All these matters concerning the ohages of metrical forms through AP... to g. Akhyan Poona and Pads are of great Importance 6.0.8.0 XVLLI PAG-371. Page #737 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१५ वर्णित समस्याओं और प्रहेलिकाओंका है। ज्ञान परीक्षा करने की कुछ कठिन समस्याएं देखिए : राजा बोल की बोक निमुष्ठ नयरमा सवि लोक मुफ बेटी द गुणसुंदरी कपि रंभावर अवतरी पसारी इसकी पति दी दो मि हे छोडी नइ नास्कर जाम विद्याविलास कूट हम आलिंगन देई नर नाह दीधी वैश्या पनि उहि अरवराज सिंह राजकुंआरि परिणावी नृपवई आचार ३९वे पद में बुध ( Son of the sun ) तथा पिठ में बप्पी चिड़िया की ध्वनि भी है। प्रहेलिका- ४०, ४१ और ४२ कड़ियों में कवि नै प्रहेलिकाओं का वर्णन किया है जो इस प्रकार है: (१) स्त्री परणी किडी जाइ जीवन का सार क्या है?- (उत्तर) सास (श्वास) (५) प्रिय के मिलने पर क्या होता है- (उत्तर) रह (रति (२) फूलों में क्या है- (उत्तर)- बाइ(वात) संस्कृ सर्वोल्ट इसको यदि मिला दें- बासरवाडी स्त्री परवी किही बाइ का उत्तर १- वही, ३० ३०२ प १२५-१३४ This 39 at. is a stanza addressing "oh intelligent (Budh) the son of the Sun) dear one (Piu 1. e. the sound of Bapphi bird alse):01 you who can be known by the name w ich the Bappiha bird utters with its mount,01 you for whose name there is the name of the son of the sun, telli/me, to my satisfaction, you will knowing one.0.0.8. CXVIII PAGE 373 Page #738 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९६ निकल आता है। कुल लाभ माधवानल क्या में भी यह प्रहेलिका मिल जाती है कुम आधार जीवित उने काम घरनि कुणि बाइ १ भवन पुरि पुल स्त्री परमी किही जाई ४१वीं कड़ी में भी एक प्रहेलिका एक स्त्री के लिए है बौपानी में रहती है बहुत काली है तथा जो उसे देखना नहीं चाहती: एक नारि अति सामली पानी माहि वर्षति ते तुम दरसण देवा अलजउ अतिहि करंति १२४१।। इस पहेली का उत्तर है - (अति) ४स्वी नहीं में भी इसी प्रकार की पहेली है: श्रीषति सू अरि मंडणह भेजण नंदन नाह १ aft बंधन मल्लडी त ऊपर उखाड इस पहेली का उत्तर है -नाद सम्पादकों नेइसकी पर्याप्त व्याख्या की है। इसी पति पहेलियों में निम्नति कड़ियाँ इष्टव्य हैं: बार किसिट जीबी व प्रिय संगम सिर थाइ फूलमा मूग स्वी परणी किही जाइ आदि पर प्रभु मामति भंवर प्रिय दाहि (४०) काम गाथा क्या। 36.0.5. XCIII Page 406. The ornament of the son of the consert of Laxmi(i.e. the son of Krishna 1.8. Pradanan er Kandeo) and Ratigi.e. Chandra) the lord of the son of earth 91.0. Nangalpati 4.0. Grshpati 1.8.Chandra) Its brother who is in its heart (1.e.Haria is in in the heart of Chandra and dear to Harin is Sarang or I Lute. I have a seat for some thing on it(it i.e. the Naa er tase of Sarangi) The answer of this Prahelika is Nad er a musical tune, 6.0.8. OXVIII P. 373. Page #739 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९७ सा कमलंतरि कामिनी, काइ रडिज प्रभु साहि १ (४३) इस प्रकार इस लोक कथा को इन पहेलिकाओं ने और भी सरस बना दिया है सामाजिक तत्वों, स्थानीयरंगों तथा सामाजिक रिवाजों विवाह की परम्पराओं वाणिज्य की नीतियों, राज दरबार डान पान, स्त्रियों के लिए हुआ कलह, राजकीय फेटों और विवाह के धूमधाम पूर्ण वर्णनों ने रचना के वर्णन विल्प तथा सरासादिक शैली की सुबमा और बढ़ा दी है। ठोक-कथा-काव्यों में पवाड़ा नाम से परवर्ती काल में अस्कृतियां उपलब्ध होती है। वस्तुतः हिन्दी साहित्य में पवाडो का प्रारम्भ करने वाली प्राभाषिक रचनाओं में विद्याविलास पवाडी सर्व प्रथम महत्व पूर्व रचना है। 1. The first letter is theletter in front of Prabhu(i...) dear one the last letter is found in fire(i.e. Agni 1.1. Ni that loving women is in Kamal(1.e.Padan) who to you, of Lord torment her? (The answer: Padanni Padmini The first of the three types of the women 1. e. Fadmani Chitrani and Sankhand. Page #740 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MALALAMA told Page #741 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -संधिकाम्यठळकठठ संधि काव्य नाम से अपप्रंश में कई रचनाएं उपलब्ध होती है। इसके पूर्व प्राकृत में सन्धि संज्ञक कोई रचना उपलब्ध नहीं होती। यह कहा जा सकता है कि संधि कायों की परम्परा का प्रारम्भ अपांश पापा से ही होता है बिधि नाम से कई बाई ध्यान में आ जाती है कि या तो संधि काव्य संक्रांति काल में लिखे गए काव्य होने या दो प्रान्तों की सीमा पर लिखे गए होंगे अथवा दो भाषाओं के सम्मेलन से निर्मित हुप होंगे। आदि आदि परन्तु वास्तव में ऐसी बात नहीं है। संधि को ईकाव्य रुप भी नहीं है। इसका कोईशास्त्रीय शिल्प भी अद्यावधि उपलब्ध नहीं होता पर फिर भी संधि संज्ञक रचनाएं मिलती है वस्तुतः इन संधि काव्यों में संचि उब्द का विशेषमहत्व है। सन्धि द की परम्परा पर विचार करने पर इस वर्ग की रचनामों का स्वरूम स्पष्ट हो जाता है।बहुत सम्भव है कि इस काव्यों की पूर्ववर्ती परम्परा में दो भाषाओं का सम्मिलन अथवा अन्य कोई संगतिकालीन स्थिति रही हो पर इस सम्बन्ध में अब तक कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं होता। काव्य मों, कैलियों ज्या विभिन्न छन्दों की दृष्टि से विचार करने पर भी संधि न कोई विशेष काव्य काही है और न कोई विभिन्न ब विष ही। तथा कोई की विशेष भी नहीं है। ऐसी स्थिति में सन्धि का पारिभाषिक अमिधामूलक पर मंटोर करना सम्धि शब्द अपात काव्यों में अधिक मिलता है। जिस प्रकार संस्कृत में वर्ग विभाजन मा अध्याय के अर्थ में सन्धि का स्पष्टीकरण होता है ठीक बैंक ही सम्धि वर्ग मिाजन के लिए अप काव्यों में प्रयुक्त होता है। बाधा अपक्ष के कईमहाकाय धियों विभक्त है। वह यह कहा जा सकता है कि संधि क्सिी विभाजित कर्म का माहो,या किसी बर्म का अथवा यह शब्द अध्याय का समानार्थ पोका मर्म अब समाप्त होता है और नये वर्ग का प्रारम्भ गिया जाता है तो Page #742 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्धि उस स्थान पर प्रयुक्त होती है। वस्तुतः इसका प्रारम्भ हेमन्द में ही मिलता है हेिमचन्द्र ने सन्धि को अपर मर्ग विभाजक शब्द का नाम दिया है। पद्य प्रायः संस्कृत मावापभ्रंश ग्राम्य भाषा निबद्ध-भिन्नास्त्यवृत सगा रवास सन्ध्यवस्कबंध- सत्यधि बब्दार्थ -वैचित्र्योट महामाव्यम्- इस प्रकार इस सून से स्पष्ट होता है कि संस्कृत के महाकाव्यों का विभाजन सर्गों मैं, प्राकृत के महाकाव्यों का भारवासा में अवश के महाकाव्य इंथियों में और देशी भाषा के महाकाव्य अवस्कन्धों में विभक्त होते थे। इस प्रकार अब तक अपांड के महाकाव्यों में सन्धि बाद कड़वक, व्याणि, आवि सवों की पाति वर्ग विभाजन के लिए ही प्रयुक्त होता था। यही नहीं अपनवेतर काव्यों में भी यह सब्द मिलता है। ____ अपात्र में कड़वक समूहात्मक सन्धि अर्थात बहुत मे बड़वक मिलकर एक संधि की रचना करते थे। सन्धि काव्यों को हम कोई विशेष या विशेष कर सकते है। इन काव्यों में सन्धि किसी नड विशेष के लिए ही प्रयुक्त हुआ है। यो इन सन्धि काव्यों में कई काव्यों का विभाजन कडवकों में किया गया है परन्तु यह आवश्यक नहीं है कि ऐसा हो ही। अनेक काव्यों में कड़वक नहीं ही मिलनेक अतः स्पष्ट है कि अयाज काव्य परम्परा में जिस प्रकार कड़वकों के समूहों के म में मर्म विभाजन के न्धि का प्रयोग मिला। पुरानी हिदी में वही मद उसी वर्ष में प्रयुक्त है परन्तु रमागरों में पत्रिकाब देकर सन्डकाव्य की मांदि इन काम्यों की रमना मन से कर दी है। वस्तुतः मम इन्धि अब्द किसी धारा विशेष का इबोला न होकर अपच काव्यों की सन्धि काव्य परम्परा का निवाई करने वाला है। यह का वा सकता है कि सन्धि काव्य महाकाव्य के माँ बीमा सामान कई वन्धि कायों के द्वारा महाकाव्य का प्रभाव किया गया । प्रत्येक काव्य अपने में स्वतंत्र है। Aadme m e १० देखि रामवाली Page #743 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतः इन कवियों ने एक संधि वाले इन मन्ड काव्यों को या प्रबन्धों में सम्धि नाम दिया है। विषय के आधार पर विवेचन करने पर भी स्पष्ट होता है कि सन्धि काव्यों के वर्णय 'विश्य नहीं है इनमें से कोईभी विषय सामाजिक, धार्मिक, ऐतिहासिक, साहित्यिक, चारित्रियक आदि अने जा सकते है। असः साधारण रूप में सम्धि का स्वरूप एक सर्ग की ही भाति स्पष्ट होता है। ये काव्य अपने में पूरे होते है। सन्धि काव्ययद्यपि आदिकालीन हिन्दी जैन साहित्य में अधिक संख्या में उपलब्ध नहीं होते है परन्तु यह शोध का अभाव ही कहा जा सकता है। भनेक जैन भंडार अभी बन्द पड़े है। वीं शताब्दी से ही सन्धि संज्ञक काव्य मिलते हैं जिनमें भावना संधि आनन्द प्रथमोपासक सन्धि, चील सन्धि, देवी गौतम सन्धि, तषसन्धि, उपदेन सन्धि का रंग सन्धि- आदि रखना है इनमें से तप सन्धि, उपदेश सन्धि, चउरंग सन्धि आदि में तो अपभ्रंश वब्दों कीबहुलता है उन्हें अपनेवर काव्यो में स्थान नहीं किया जा सकता। फिर भी इन काथ्यों के उदाहरणों में भाषा में विकास के अंकुर अवश्य परिलक्षित होते है। उन काव्यों के कुछ उदाहरण पृष्ठ भूमि के रूप में देश का सकते है। कामों में भी अधिक अपांच बाकी है। परन्तु सवीं शताब्दी की भावना सन्धि, सामन्य सन्धि और सीमीयम सन्धि प्राचीन हिन्दी के काम है जिन पर इम मागे विचार करेंगे। वही भूमि के म में कुछ अपांच बालमन्यि माव्यों के धरण है अपमानि -मंडन इरिव किंग जग डन बिग सिविठिय पि-काय रसायन शुगक कानुन पुगि सन्धि बिय बाय पाइपब मार पाणु बह-जीव-गाय विसयामिराम बीवियास्ट्रिकको बा-रोग-सोम दुइ जोय मेह (पाटन भंडार) Page #744 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०१ तप सन्धि- राज राजसूरि शिष्य सिरि मोम सुन्दर गुरु पुरन्दर पाय पंक्य ईसओ सिरि-विसाल-राया गरिराया-बन्द गच्छ सो पय नमीय सीसई तासु सीसह अस सन्धि विनिम्मिमा सिव सुक्स कारण इह निवारण तव उपसिइ कम्मिमा (पाटष मंडार) उपदेश सन्धि- गाथा १४, हेमसार उबऐस सन्धि निरमल बंधि, हेमसार इमरिसि करए जो पढइपढावह मुहमपि भावइ बसुद्ध सिविध वृघि लाए अभय जैन ग्रन्थालय से उपलब्ध पक रचना शील मन्धि मिलती है। यह कृति भी अपमंत्र शब्द बहुला है परन्तु इसमें भी भाषागत परिवर्तन परिलवत होता है। इसमें कवि ने शीलवान पुरषों, देवियों और सती नारियोंका वर्णन कर उनको नमन दिया है। कुछ उदाहरण दृष्टव्य है: विथवर चक्मियत बासुदेव पुर बयर निरिंदहि विडिय सेव भन्ने वि बियम शिरि निहाल, ग्रीव कप्पकाम जागि पंधि सुरनर अपर मोम बाम काल मय रोग बोम अखंड जीव माहिय सरीर, निक मुक्याला धीर १- गुर्जर कमियो- मौन काल देखा नाम ... - वही.. *• PATRA, बीगमेर-सं० १४१५ में सिमिच हटके से प्राप्त । Page #745 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०२ (२) सयल सुर विषय चं तेण इस थल्लिया,मयण मल्लेग इक्छुब संपिलिलया राज गह गहिम पुष विस्ममित्तइमो, लोय पय वि अंबा पडिसेविणी (३) रहने मि पराजब बिसय समिम, पडिबोडवि ठाविय जीड मगिम __सा सीलबंत उग सेण धूय सीलिय विहं भवपाहि पाहून (४) मुभवारय मुन्दरि जव सुन्दरि दोबइ यादेती पमुख गुण रयण समिघिय भुवण परिदिय जपइ महापइ सीलथर ' (५) रोग जल जल्य विस भुक्मह मगगया,सीड करि मध्य चोरि उनसगगया भरि उभरारि भय करण ने देखई, मील ताण नामेणले नास इन कृतियों के उद्धरणों से स्पष्ट है कि भाषा में तत्सम अब्दों के प्रयोग मशः बढ़ने लगे थे। (१मी -१४वीं) ताब्दी की कुछ पुरानी हिन्दी की अंपिक कृतियां है: (१) पावना सन्धि सं० १३०. . जयदेव । (२) आनन्द प्रथमोपासक सन्धि-सं० १५२ के पूर्व विनयन्द्रसूरि। (a) सी मौतम सन्धि- अशाच कविकृत - १४. इसमें भावना सन्धि प्रकाशित है। प्रथा व दो इलियां प्रकाशित है। मावना सन्धि एक उपदेशात्मक मड काव्य है। जिसको कवि ने सम्मा 1. किम के पास पासरा होगा। इस रचना को सक्कों में पूरी की है। प्रत्येक सहक बस कड़िया और अन्तिम कामा ११ काडिया है।इस रचना के रमिता इमि देवी को पनि विदेवपूरि शिष्यों में थे। १. अन अन्धालय बीकानेर-सं. १९ किसित मुटके से प्राप्त। + बः -४ ११-१५.३१४॥ Page #746 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०३ जहां तक काव्य की वस्तु का सम्बन्ध है इसमें कवि ने मुंज और विलासवती की प्रेम कथा का उल्लेख किया है । सम्भवतः यह काव्य कवि ने मुंज (२०५४) की मृत्यु के पश्चात् ही लिखा है। काव्य भाव प्रवम है। भाषा सरल है। यह काव्य कवि ने वस्तुतः जन साधारण में धर्म प्रचारार्थ ही लिखा है । अत: प्रस्तुत काव्य में लोक उपदेश और नीतिमयता है। कवि ने कथा के अतिरिक्त संसार की नश्वरता, ऐडिक जीवन के सुख दुखों का सम्बन्ध और उससे उत्पन्न हुई घृणा, नरकों का अत्य इस और जन्म के बाद मृत्यु और मृत्यु के पश्चात कमीनुसार पुनः जन्म ही इस काव्य का वय विषय है। पूरा काव्य उपदेव प्रधान है। कृति शैली आलंकारिक है जिसमें विविध दृष्टान्त उदाहरण औरउत्प्रेक्षादि अलंकारों की प्रमुखता है। मावना नाम को कवि ने अनेकमावनाओं का वर्णन करके सार्थक किया है। कृति भी भाषा में शब्दों का चयन उत्तम है परन्तु अपशब्दों की बहुलता है। कवि ने रचना का प्रारम्भ मंगलाचरण से किया है और पाचवी कड़ी में मालवन रिव मुंज की प्रेम क्या पर प्रकाश डाला है। कवि प्रारम्भ में ही जीव को प्रतिबोधन देता हुआ काव्य प्रस्तुत करता है: रे जीव) नियुमि चैचल सहाय, निलडेविन गयलवि बज्छ पान nate fere fवह बात, संवारि मत्थि बह इंडिया (पद) मुंज और विलासवती के प्रेम मीन का चित्रण देखिय: मरन्यि मनि रमनीय देह, बहिर देवि मान नरिदं गवरन्व बाग बंद (५) मुल्य सम्बन्धी इसी गाथा का उल्लेख कर मनुष्यों को कर्मी की ओर तर्क कहने के लिए कवि ने दिए है विजय कामनवि संवरेवि --- विहावर पध, जिनवण महिम्न पण लय मणि सिद्धईडि वि हच्छि बाच्छे ते द्वारवि Page #747 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०४ विषय विषधरों की चर्चा के पश्चात कवि ने बारह भावनाओं का भावन करने का उपदेश दिया है। पूरा काव्य संसार की नश्वरता, आवागमन के बंधन और मक वर्षन आदि में ही समाप्त हो जाता है। कुछ उत्कृष्ट उदाहरण देखिए: ईय बारह भावण सुवण सुझावण, भषावि वजीवई परिणत दुलहु मयत्तण धम्मपवित्तष दस दिविहि मरिसु कवि की भाषा का प्रवाह विविध दृष्टान्त्रों औरउवारों की सुबमा, शब्दो पित्व प्रधानता, धवन्यात्मकता तथा आलंकारिकता और नादि काव्य कौल इस्टव्य है। कुछ चुने हुए उदारम इस प्रकार है जिनमें जीव, कर्म ज्ञान, संसार व नरक के वर्णन है(1) जिम तुह मधु रविधा बिसय समृधिहि, 'तिम जइ मिनि होई जीय बा शिव उक्कणिय करयकठिन पुरनर मुह अगु अनि हय, सो धान कन्नड बाहिद (२) (२) मजन करणे स्वत, पईमारिय निघण बंतु इंच रोग मोग इह विदुर देड, अक्कासवि वचसि मुच्चगेहिं (२७) (३) आरम्भ करे बिणु जीव बिहेविण विविह वा हि किम सहसि बीय सलसता संपई हिगड कंपड, का पडिशिद ढंभ कु () (४) सम्ममाहार नीहार कमवली, जुमन कुमास मीनार विम्बर * निगमोषान्नुम पब मीडिवो, आमिरे जीव, बीववावरिपीडियो (1) पतले और बड़ों का साथ बार की मयखा, और कर्म की स्थिति आदि जनका वर्णन करने के मधुर भन्यों में किया है। दो का प्रवाह बाकारिता माथि का वर्णन सम्टन (1) होम बोय गयो, बिटवासीय वगमो बोगीकोनो मतो गाव म मन अकाली बठनों (4) भिवा पौकिय पति कोको, बानि मनि रयम हरियाल हय हिंगुली कहा यन्मियो, सपर सत्येक शिकवेति थियो (७) मीर नीरव मिलबारेख बा. हा साप विम महुरेण शिशिर उम्मेब महावि विसिव का पवन पवमेण निहिणिज्ज बलमवा। Page #748 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०५ (C) अनुढंकहि भुस्कळ तडफत, बी निपीडिय ज्योत रहि जुत्ता इट्टर सहयडंतु बचावलि पक्का कढ कमंतु (९) कत्थय पण गगर मारि ओपि र सिबति सूलिय विधोसि त्यय नियम बाइ मोहि, मन्नत्य हो पाइमोसि (१०) मऐमुवि दीहर रोग सोग, दालिद पराभवाविप्पजोम चहरण परम चारय 'निरोह सडियाई परवधि विवह दोड' इस प्रकार पूरा काव्य इन्ही नीति प्रधान भावनाओं के आवरण की शिक्षा में पूरा हुआ है।इंज की गाथा के काम को प्रारम्भ कर कवि ने संसार की नश्वरता और कर्म विपाक का स्पष्टीकरण किया है। कवि ने यह काव्य क्यों लिखा यह कठिन है। कवि ने १२ भावनाओं- भसरण, संसारो, एगया, अन्नतंअसुइतं, आसव, सैवरो, निन्धरा, नवमा, लोमहामो, बोधिस्य दुतमा,धर्म स्वभावो महंतः का भी विस्तार में वर्षन कर कैतिक परिचम दिया है। १- पकडियः प्रस्तुत रचना में कवि ने कड़वक (... और ५) में एक प्रकार का २,४ और ५ में दूसरा छंद अाह -पपडिय - करमत करह ममचारि ठाई बबि बंद बोडर मागाई बड पदिक मत्त बाद एम पारि पाय पन्धयिक इस प्रकार इस मैच में ४ बरमहर बलम, और हरएक मण में चार पामार है। बल्सिन मा योपर है की स्थिति .. बा... और ५ में यह बारा गाव कि महा मादि। +मिति बार बरपरएक चरण में ४ गण और समान मात्रा कम मन की स्थिति - अतःइस छंद के मिdिimageमिल है : सम्भवतः यह / वही है। शास्त्रीय मक विशिक विवि परि सिम्ममा Page #749 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०६ पञ्च गुरु इपण लहु कुरु ममणा एत्थ सहि चन्दपुहि वीस लहु मालणा कम्बबर सप्प पण छन्द गिसिपालमा _(काव्य काल-प्राकृत पिंगल सूत्राणि) इसके अनुसार विक्षिपाल छद में हरपक चरण में २० मात्रा तथा ५ पाच मात्राओं के ४ गण होते है। पहले गण में स्थिति - और अंतिम में . . होती है। सन्धि का छन्द देखिए: इस अभो । यभित । सार तमे । पाइयो आमि गो। लेखक । मेडिनु । छाओ (१) .-पता- 1 यह द प्रत्येक कड़बक की अन्तिम कड़ी में है। स्तुति और काव्यारम्भ इसी छंद से हुआ है। इसके लक्षण इस प्रकार है पिंगल कइ बिछड छ रक्दिन परत मल्व बारादि कर का मत्व बत्त मण मेवि पाज म तिमि तिषि बरि पदम दस वीसामो बीए बताई अछाई तीए तेरह विरई पत्ता मत्ताई बासहित इस मद में दो चरम है पर के दोनों छंदों में चार चरण होते है अतः पत्ता दिवपदी का प्रकार है। सर के अन्य लपवी प्रकार । एक बरण में ४ मात्रामों के मन लामामा मैं। इस बाधार पर Reी कौर पूरी कड़ी में १२ मावार्य होगी शादी बीन गति भी। रबारम देखिए: पनि गुमाया विशावर जीपकरबीबा पद ममि * ॥ अध्न पडियोमा मोड निरोगोर भव्य पार विस (1) इस प्रकार की दृष्टि से इसकी का महत्व स्पष्ट है। जी तक पाषा का प्रश्न आलोकों में से एक वा अपांव की कति ठहराया है। परन्तु वास्तव में ऐसी बात नहीच बों का बाहुल्य बस्यापि मिलता है परन्तु फिर भी गईमवीन दयों का समावेश होना पी प्रारम्प हो जाता हैातिकालीन रचना होने से अपच का प्रमावअधिक है। कृति काव्य व साहित्य की दृष्टि सेसाधारण Page #750 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०७ -- केशी गौतम सन्धि -- यह कृति अप्रकाशित है तथा रमा की प्रति अभय जैन ग्रन्थालय में सुरक्षित है। प्रस्तुत कृति का समय १५वीं शताब्दी का उत्तराईध है।रचना का वृत्त धार्मिक है। या दर्शन के सिद्धान्तों पर रचनाकार ने प्रकार डाला है।इस कृति में महावीर के विम्य गौतम गणधर और पार्श्वनाथ के सिद्धान्त्रों के अनुगामी श्री वी कुमार का बाद है। दोनों के प्रबों तथा अन्य सिद्धान्डो ग पर ही इनके पारस्परिक संबाद का कारण है। रचना साधारण है तथा प्रारम्भिक वो कृतियों की अपेक्षा इसमें राजस्थानी का प्रभाव तथा राजस्थानी इवें की अधिकता है। दोनों भोर के शिष्य मंडल एक सभा करते है जिसमें केवीकुमार के पूछे प्रश्नों का समाधान मणधर करते है और दोनों में सन्धि हो जाती है। विचारों की गधि में पार्श्वनाथ विधान्तों का महावीर के सिद्धान्तों में परिवार हो जाना है। दोनों परस्पर सहमत हो जाते है और इस प्रकार पार्वनाथ के प्रतादि सिद्धान्त महावीर के सिद्धान्तों से समन्वय कर लेते हैं। उदाहरणार्थ कुछ मतमेव सम्बन्धी प्रश्न इस प्रकार है:I" साधु समुदाय को श्वेव जत्रों की मात्रा महावीर ने दी थी और पार्श्वनाथ में बनी प्रयोग में लेकर बीधी- इसका क्या काम (Vौन कौन से " या बंधन कौन कौन " ( के मारे माग मी जमीन में एक वेळ उगी है और उस मेल में तो बारीकों का होगा सिर मिा बाया उarh-माकेका विनाश। (4को ब हीबासमा न हो? . लाय ही अग्नि है। (0.मी पका का में को । उत्तर - धर्म विधा मी लमान दुवारा बत्र में क्रो (6) मुख्य का स्थान बमति क्या है। Page #751 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८) प्राणियों को प्रकाश कौन देगा? उत्तर है:- ब्रह्मचर्य, सतू अहिंसा का साधन करो तभी जीवन उन्नयन की ओर बढ़ सकेगा। प्रस्तुत रचना में कवि ने दोनों के इन्हीं प्रश्नों का सफलतापूर्वक समाधान किया है। रचना बड़ी सरस है। काव्य तथा भाषा प्रवाह के अध्ययन के लिए कुछ उदाहरण दिन जासकते हैं। (१) (२) (*) ७०८ Near विष अक्सहि निय निय गुरुह भसेसु तो नाम यमाणी कारण जाणी सीसह संसय हरण कर गोयम सी संघ संजुत्तठ केशी, पेलेबिगु भावंड कुसु तिम भाषण आवरि देइ, विनयकरी मोयम वडबे (६) --- ---- बसि रवि तेय सरिस ते मोहइ निम्भल नाण गुणे जग मोहइ बिहु पावि मिलिय पिक्सि विणु लोय कोऊ हलि आवइ सपमोय यो पुषि संसय भंजण रेखी कर जोडे विणु पभबड़ कैसी जो --- प्यारि महब वाचि पयाविय, देहि जयवी जिन भाविक काच इ एक गुरु साचेव किपि कारवि विम free ara जिय रिजावा, मग रिजु महंता (१२) --- eer assfree विधेद्र, किनि कारने क्यि नि परिने दिने विवेचन कोइ जीक क्यूं मन निश्वको वे का चित्र कृपा विच नि स विदेस मि नियमन व राख विशु वृषि केसहि केवली जाऊ दिपाक, बेस विसेस देखि सो बलिया (१७) • Page #752 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०९ (५) पास बंध भइ मुलइ तोडिय, आपण पइ मापदं जिवि होडिउ मोह पास पसरंत मणे, वर व रगण रव मच्छि देह मोह बंध वापंत भूक बंदत्त जिम कियइ न बुज्ड बाहु साह गोयम तुहकमा ........ (२५) (१) दह भव विस बेलि मंडति विद्यम या विहरती विवाह विषता फल उलमूली, सा तइ गोयम किम जनमली मइ विस बेलि भूल साणि सौहिउ, तर इत सेविस माहिन मोहित बेलि किसी पूटा इस केसी तक गोयम गुरु कहइ सुईसी भव विम विस वेलि मामिम्बइ, विमाभूल सवेगि साणिज्यइ जंजगि विसय पिवास न डीया दोबि सुबन्नकार भव पडीया (३०) (७) यम तिणि तुर्रमम बढीउ, किहीउ माग न पडिड मास तुरंगनि दमि बसि की तु तिषिर भाग म लीया भासक्सिाउ केसि पूछेइ, तर वसू गोयम उत्तर देह । चंबल चित्त तुरंगम जाणउ, सोइ जए कुदपी विसी आफ्ठ रामदमी बनु तिमवासि कीपर जिम भी बन्द्रिय माग न पीपल साह माह गोयन तुइ बन्ना ......... (४) और इसी प्रकार सत्वर प्रत्युत्तर अती में पूरा काम बा । कवि मकर म मार्म, अंबर, सथा पेच ब्रों आदि की स्थिति समभावामाषा परत है क्या प्राबीम रावस्थानी भाषा के प्रयास की दृष्टि से रमा महत्वपूर्ण है।मामा मोया पन्ना-बम्बोधन गीड बैली में पूरा काम बसवा है। सैद्धानिक कायों में श्रीमोम सन्धि मात्वपूर्ण रचना है। जिसमें कवि ने मीत पनि इबारा धार्मिक, वर्गवार, ब्रम सम्बन्धी बाब दानिक बल्मों का स्पष्टीकरण किया है। सरायन सी और मौसम का बाद विस्तार से मिल जाता है। माय बापालयि रखा गया है भाषा में अपांव के इवों के साथ मा बोया की प्राचीन राजस्थानी ब्वों की ही बहुलता है। Page #753 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिक भाका काव्य Page #754 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१० क्क मातृका काव्य आदिकालीन हिन्दी जैन साहित्य में अनेक काव्य उपदेवप्रधान उपलब्ध होते हैं। कक्क और माका संज्ञक रचनाएं उपदेव प्रधान काव्यों की परम्परा के विकास में योग देती है। कक्क संज्ञक रचनाओं की परम्परा का उद्भव प्राकृत और अपभ्रंश में मिल जाता है परन्तु अवचितर रक्तावों में क्वक, मातृका शिक्षा की पद्धति प्रस्तुत की गई है। बालकों को जो आरम्भिक शिक्षा दी जाती है उसका प्रारम्भ कहां से हो, बालकों को सीखने में बरलता हो, तथा अवरों का साधारण ज्ञान उन्हें यथा सम्भव शीघ्र हो जाय इसी उद्देश्य को लेकर ये रचनाएं लिखी गई है। इस प्रकार की रचनाएं हमारे सामने तीन रूपों में आती है: (१) माका (२) कक्क (३) बावनी इन रचनाओं की एक शैली विशेष है। कक्क बावनी और मातृका काव्य रूप के रूप में भी रूढ़ शैली के काव्य कहे जा सकते हैं। परन्तु इन रचनाओं को वेसने पैर यह स्पष्ट हो जाता है कि काव्य क्यों का कोई भी प्रकार इनके अन्तर्गत प्रयुक्त किया जाता है। वास्तव में बावनी क्वक और माइका आदि एक ही शब्द के पर्याय है। महीन कृतियों का रम्य मिले है से इतर प्राचीन राजस्थानी या मी वराती में इस प्रकार की कई रचनाएं मिल बादी है। वही इन रचनाओं की शादि होने है।हिन्दी में मागे चलकर ऐसी होंगी नामों का नाम बहरावट के रूप में प्रचलित हो गया : के बाद से ही लिखी गई है। और नाम नवमी के पूर्व ही व्यक्त होता रहा होगा । देवो देवी रचनाओं का नाम स्पष्ट रूप में बावनी मिलने है। १- नागरी प्रकारिण पत्रिका: वर्ष ५८ अंक ४: सं० २०१० ५० ४२८ | Page #755 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७११ कवक मारका का दिल्य जहां तक इन रचनाओं के हिप का सम्बन्ध है ये कुछ निश्चित नियमों से ही बनाई जाती है। इनके विल्प सम्बन्धी कुछ आवश्यक तत्व हैं वे इस प्रकार है:१- मे रचनाएं वर्णमाला से प्रारम्भ होती है। २ इसमें स्वर और व्यंजन दोनों है ही विविध पदों का प्रारम्भ किया जाता है। ३- इन भारों में प्रत्येक अक्षर से प्रारम्भ होकर (अवर अनुक्रम से रखे हुए) ५१ वरों वाले ५१ पद लिखे जाते है। ४- ये रचनाएं विविध छन्दों में लिखी जाती है।पद का प्रारम्भ पहले से होता है जिनमें या तो से होता है या प्रथम स्वर ५- इन पदों को किसी भी क्या कि रास कथई, उपदेश तथा नीति प्रधान बस्तु में बांधा जा सकता है। ६- इनरचनामों के हिप में शाम उपवेद के साथ साथ नक्रोक्ति, कटाव तथा उम्र विचारों का प्रकाशन भी मिलता है। बालक के प्रारम्भिक क्षण की इसके शिल्प में पहले ध्यान रखा जाता है अतः बालक सामान्यत: पहला वर किस प्रकार याद रक्खे व क्या याद रक् उसी का पहले विवेचन करती है। ८- इनमें जावन अवरों का विस्तार होता है और डिरेक्वा मार परब्रम है। बावन कारों का दूसरा नाम माइका या बावली है। ९- इस प्रकार इन अक्षरों का ज्ञान कराने के लिए इन पदों में काव्यगत सरता क्या अथवा नीति का समावेव होता है, जिसे कठिन विषय भी तरल हो बाडा है। १०. इमरबनावों में पों को मगस्कार किया गया है वह नाम बहुधा क्लिक होता था जो आज भी बोला जाता है। ११- इस प्रकार है ॐ नमो ि t- nyre, वर्ष ५ अंक १९-२० ० ४९४ । Page #756 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१२ (स्वर)- अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, रि (m) री (O) लि, (क), ली (१) __ ए, ऐ, ओ, औ, अ, । (व्यजन)- क.स.ग.घ,ड०, ब..ज,फ, 1 . ट,०,5,6,ष, वथ,द.च,न, प,क, इस प्रकार बावनी में कुल ५१ अबरों का समावेश होता है १३. इन रचनाओं की शैली. अक्षरानाम से ही प्रारम्भ होती है अतः इस प्रकार कीरचनाओं का एक निश्चित काव्य स्म हो गया है जिनमें विविध छन्दो का समावेश हो सकता है। ___ इन नियमों में वस्तुत: कुछ अपवादों की मुष्टि भी हुई है।परवर्ती काव्यों में ५१ अक्षरों के स्थान पर ५६,५७ पद भी मिलते है तथा साथ ही कक्क मातुका के स्थान पर बावनी और इसके बाद बारह बड़ी' संज्ञक रचनाएं मिलती है। इसी प्रकार परवर्ती हिन्दी साहित्य में अपराक्ट' या करालक रमाएं मिलती है। गायत्री और कबीरमे भी इस प्रकार की रचनाओं का पूजन यिा परवर्ती रचनाओं में कई अक्षरों में भिन्नता भी मिलती है जिने तर रचनाओं में ॐ मन सिघं (* नमो सिद्धा) अवरों से प्रारम्भ होती है। बावनियों में ड. ज के स्थान पर न, के स्थान पर भय और बाके स्थान पर ज और ब (रचना में कठिनका कारण प्रयुक्त किए गए है। अनेक रचनाएं ऐसी भी है चिनो स्वर प्रयुक्त नहीं होर व्यंजन अवर ही शुक्र यो प्रादेशिक भावानों में बामिल माटक और महाराष्प में भी मंगलावरम और प्रारम्भ ममः सिद्धम् की है। परवी कृत्रियों में धीरे धीरे लेलगू में नमस्कार ज्ञक नमः शिवाय: विदयाय नमः मादि अब दिया और स्किन में सिविध रस्तु क्या महाराम श्री महाय नमः। ॐ नमः दिया जादि पद इस कार मंगळावरण में प्रयुक्त हुए है। इस प्रकार का माइका बावनी, बारड़ी और कनहरो सम्बन्धी १-मामरीवालपत्रिका बर्ष ८ ४ .२०११ पृ. ४३० २- मक्षिकपदबावड़ी दुवारा रचित अबरावट। कबीर का बीजककहरा *महीमकर वर्ष ११-१.४९४ में श्री अमरबन्दमाटाका कि-दीपापानबावनी साहित्यशीर्षक लेख। - Page #757 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१३ रचनाओं की परम्परा १९वीं और २०वीं शताब्दी तक सुरक्षित मिलती है। जैन में अंजैन लेखकों की हिन्दी राजस्थानी और गुजराती लेखकों की लगभग ५० बावनियां और कई बारसाड़ियां तथा बत्तीसिया आदि संग्रहीत है। जिस पर विवरण प्रकाशित हो चुका है। अतः यह कहा जा सकता है कि अपांच में जो इस स्म में रचनाएं मिलती है उनमें मक्क मातृका के नाशिक बत्न भी नहीं मिल पाते। अतः यह कहने में कोई आपत्ति परिलक्षित नहीं होती किक मातृका संशक रमावों की परम्परा के उद्भव का श्रेय आदिकालीन इनरचनाओं को ही है। अपर में यों स्पष्ट व्य में इस आशय की कोई कृति उपलब्ध नहीं होती ली नाहटा जी ने इसका प्रारम्भ करने वाली बर्णनमला शक रचना प्रथ्वीन्द्र रचित (सं० १३०० के लगभग) मातृका प्रथमावर देहक को ही कहा है में इस रचना को अपच गब्दी की बहुलता से अषय की ही मानते है परन्तु वास्तव में यह प्राचीन राजस्थानी की की। स भाषाओं में बहुत कम ही अन्तर है। इसलिए अद्यावधि उपलब्ध रचनाओं के आधार पर यह कह देने में आपत्ति नहीं है कि कक्क मातृका और बावनी साहित्य का श्री गणेश करने वाली रचनाएं प्राचीम राजस्थानी या जूनी गुजराती की यही मातृका प्रथमावर दोहक रचना है।इसा की महत्वपूर्ण कृत्रियों का विश्लेषण यही किया जा रहा है: माका प्रथमावर दोहा प्रब रकमा सतीय श्री प्रवीन बारा विरचित हैवीड अभयहि मिती रमा को कवि नरस विलास का विविध बदारनों बटान्दों इवारा कवि मे रख, बार, नर, मारी, कलियुग, काम और वानन्द मादिमिर पर कारों में सदर बाहरण दिध है। दोहा में होने का रस और प्रयास है। बड्यापि रखना अपांच सदों के - दिन - - - - Page #758 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधिक प्रभावित है परन्तु अनेक राजस्थानी शब्दों का आना अपभ्रंश की उत्तरवर्ती स्थिति का स्पष्ट चित्र प्रस्तुत करते है। रामसिंह शनि के ग्रन्थ पाहु दोहा की माति ही यह प्रन्ध उपदेश प्रधान है। कवि प्रारम्भ में ही रचना के रसविलास नाम के साथअपना नाम स्पष्ट कर देता है। रस का चित्रण करके कवि ने संसार की मेश्वरता कलियुग का प्रभाव आदि का स्पष्टीकरण किया है। मालका प्रथमावर दोहा को कवि ने ओ ना सिथ नमो सियम के रूप में प्रारम्भ की है। माषा, भाव, प्रबार, रक्षमा बल तथा उपदेश व नीति मादि सभी इम्टियों से रचना के कुछ उदाहरण दिए जा रो है. माई अक्सर पूरि परिवि वर दूजय देव रम विलास भारपिया पुरवि पुरवि देन बंधोला पण बल्ल जिम जिम मुहब अंशु तिम तिम बोलमजि जिम, नवल मवन्तर रंगु बासंधिया गिय वर्ष मण छंद वबहरह कवि ना मेही अपाय छ हगि हाधन पाविबड इच्छा बीमारि परि हो किम्य बाहिरि कार्ड अंगामि कहिया केलियामि बोएबीषणबाइ ईसक अब बाबा का विषय पर शामिल का अविवाहिन्लिा मा पालियात एि जिन विधि पारि पनि सबमरी कालिन मा परि विकस्विति मगइ रगबह पूरि मावत चित्तो लिपि दिन रविवा पाच बोई मोर लिनि गग्विवाद कि भारि पाक्यिा मना मनोरह पूरी कि कि टंकमाइ गुण वावरील या माज लोडर निवखा की बारि Page #759 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१५ पिपरघम लच्छ घणु जम इज्जपु थरवारि कलिगि बसु निविडइ परिपु मुलीड डड अंगो अंगि भिडहर मि सुम मुनाउं बहेड़ मवर्षगमि नारायण ख लाइ गर्णतु तिम मस्यई सम्जा तमई गुणा लामइ अन्तु धनुनरिसा बीया सलिल, सोहा मलाइ बन्न गल्या बुदइ जीवियइ स्ट्राइ विणसह कल बसु बनि जीकि दो अवरु कि काझं लापरत डसइ अहरू बाधमा मह पिक्निवि षियहविचार नह घट्ला घर बितिया अY दिशु विवीलीह अवलगने वितुम्ह गुण मूरि पूरीन सभीड मरि परि बास्य नर मामी मार विद्व मधिन स्मिा सारिया विजा मयम गुड अबवड परिस शालय शीतली पत्ति व शिव शिकिय जान पर रविराति कन्धिी मनु वा परवाना गिर अनुक दिन बारिया हम सिरका मी कि वरिषन मी वाशिी होई कमा दिन विना भी बाबा जी काम पियहि मियममा महिला जिया 1- हिन्दी अनुशीलन • वर्ष : अंक पु. ११६॥ Page #760 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१६ इस रचना में कवि ने अ से ह तक मातृका वर्णन किया है। श्री मोहनलाल देसाई ने प्रस्तुत रचना को १५वीं शताब्दी की लिखी है? परन्तु वास्तव में पृथ्वी चंद के गुरु का समय सं० १२७८ है अतः इस कृति का रचना संवत् १३०० के पूर्व ही कहा जा सकता है। रचना का प्रत्येक दोड़ा अपने में स्वतंत्र है। तथा मातृका के नियमों का frers किया गया है। अन्त में कृतिकार ने अपना नाम स्पष्ट कर दिया है। कुति की भाषा अपभ्रंश बहुला राजस्थानी है परन्तु अपभ्रंश का उत्तरवर्ती रूप स्पष्ट है । १२वीं शताब्दी की सभी रचनाओं में अपभ्रंश का प्रभाव इसी प्रकार मिलता है। २ : सम्यकत्वमाई चउपर : १४वीं शताब्दी में सम्यक्त्व माई चापइ रचना प्राप्त होती है। रचनाकार जगदू है । कृति का रचनाकाल सं० २३३१ के पूर्व है। जगदू जिनेश्वरसूरि के शिष्य थे। कृति में कवि ने स्वयं अपना परिचय दिया है: तासामिति चपई बंधु कियत, माइतणउ हेड मई नियउ जगडू भणइ बंधु जयतु समेळ • उपर आगला किंपि भ श्रीमंबर aser परि रद्द, गंव विहि मंदिर कवि क जिनेवर सूरि मिंड़ जा रवि उमड़ ऊगड रोड * रचना में पूरी वर्णमाला स्वर व्यन्जन सहित वर्णित है प्रस्तुत कृति का रचना शिल्प ठीक वैसा ही है जैसा सं० १३२७ में रखे हुए एक सप्तदेवी राइ के लेखक की कृति मातृका पह का । यह भी बहुत सम्भव है दोनों कवि एक दूसरे से प्रभावित रहे हों। कवि ने काव्य में ६२, ६३ ६४वी कड़ियों में अपना परिचय दिया है। माइका कायर और सम्यक्त्व माइ बीच दोनों कृतियों के प्रारम्भ में ग्राम्य मिल जाता है। १- बैग गर्न कवियो मोवाई ५० १४७७ भाग ३ बा० २ २०० का सी०डी००७८-८ ३- वही पद (६१-१३) । Page #761 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१७ सम्यक्त्व माई चउपर में कविने सम्यकत्व का मातृका शैली में विश्लेषण किया है। सम्यक्त्व माई कप में कवि जिनवचन को महत्व कम स्पष्ट करता है उसका उपदेश जन जीवन को सम्यकत्व द्वारा ही ऊपर उठाना स्पष्ट होता है। मातृका चढपर और सम्यक्रम माई चउचई दोनों की मूल भावनाओं का तत्वतः विरोध प्रारम्भ में ही देखा जा सकता है: सम्यक्त्व- मले मई माई पुरि जोड धम्मद मूलज समित होइ समतु विणु जो क्रिया करेइ ताराह लो हिमीक चोइ wards लोहि नीरु घाइ से सम्यकत्व का महत्वकवि प्रस्तुत करना वाढता है जबकि माता बउवड में कवि इस आधार को नहीं मान जिन वचन पर ही जोर देता है: भले भलेfor antas भ, तिहुयणं नाहि सारु एतां जिन निज बचन जगह आधार इतीउ मूक्लि अवर अस्पारु वस्तुतः दोनों कृतियोंका सैद्धान्तिक अन्तर पूर्णतया स्पष्ट है। रचनाकार ने ६४ कड़ियों में चरणइ छंद में पूरी सचना लिखी है। कवि ने ऊं से ही प्रारम्भ करके अ से लेकर 5 तक की वर्णमाला को पद्यों में बांधा है। काव्य की दृष्टि से रचना कोई महत्वपूर्ण नहीं है। पूरा काव्य उपदेश प्रधान है।कवि विविध इन्टान्तों और अंतर्कथाओं द्वारा उन धार्मिक सम्म जैनियों का धार्मिक सिव व वाचना की ऐसी स्थिति है जो अनेकों तक तप व विडिया द्वारा ही प्राप्त होती है। पूरे काव्य कवि इसी तरह दाम महिमा का वेद, पात्र कुपात्रका ईडरीक बजकुमार, खाने, बसरस्वामी जंबूस्वामी आदि की अन्तर्कथाओं द्वारा सम्यकत्व का महत्व स्पष्ट करता है। कविवान महिमा और पंच परमेश्वर तथा मात्र कुमान मेद प्रथा मम के मावि का स्वष्टीकरण नहीं ही सरल भाषा में है: करता है उदाहरण मातका: get मा चादह पुम्बद जो समुदूधक वाई कारबाही घड़ी हार गट काम पटे, पडिय माहि वाहने इस प्यातु करहि प्रसम्म बंद जिम विधिजिंति (४) Page #762 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१८ आगम क्या पंचमइ अरह, केवल ना प्रभव हुइपरह इसइ कालि समिकत इढ चित्त ते नर जाणे जगह पवित्त इण भवि परमवि सुरकु लेखक बतगुरु तर्णउ क्यणु पालेड ) वीतराम का वंदिसि पाय, उडइ पाप होइ निम्मल काय । सूघउं दान मुनिहि जो देइ, संगम तपउ लामु मोलेइ । 'रिधिहि त लाच जगि लेड, बस ने इम्हि धन वावह दीना दानह नाम जोइ सुपात्रि दीन्हइ बहु फल होइ रीतिहि दानह नथी निवार, उचित दान दोजइ सविवार लिहिय गामि लोडइ स कोइ, कुपात्र विमुहर साहसुस होइ खीर आणि जठ पुचि धातियइ पात्र विसेषिहि तमु विसुधिया कीडन संघ सहस्तणी क्रिया कार्ड जा आगमि पनी (१६) विधि मारय मान सविवार जाप जइ छूटउ संसार (११) कवि ने सम्यकत्व के पालन करनी श्रेष्ठ आप महापुरुष जम्बू स्वामी व प्रभव तस्कर संवाद को क्या का माध्यमक बनाकर रचना को प्रभावशाली बनाने का प्रयास किया है। मणइ प्रभव नव जोषण नारि परिणिय पुन्न बसिण संसारि काम मोम मोगवि इमि समइ, गोवम महब ले विगड पयशु चरह सोमई वलि कि, मोहरा पाटिल माधिसड मधुविंद साडस शसार, निपनि प्रभव गोइ विचार बगु पिंडाव सबलु बरे गुट विष पितरह पिंड कु वेड रविपति बापट नई बलि किया नाबा तक ना किन पिया महारा नाम क्या प्रति प्रायु पाभली ति (४९) कषि ने किमान वेष्टा के महत्व को स्पष्ट किया है। सेवन मिमा बोक्नु चिनसाठी रहा, जगह माह धूलिभलीइ लाइ Wड राखिन इपि वारि, अमप्रधान जोड सम्म विद्यारि मा भार जिम जाति मीर सीड जो पालो मर धीर Page #763 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१९ कवि ने अपनी रचना में तालारासु और लकुटा रासु का भी उल्लेख किया है परन्तु स्त्रियों के लिए यह रास वर्जित किया गया है:- कवि ने इस संबन्ध मैं सप्तक्षेत्री रास का विरोध किया है। सप्तक्षेत्री रास (सं० १३२७) में दोनों राम आनन्द सूचक है पर जगडू दोनों का विरोध करता है: सप्तक्षेत्री: पीछे वाला रास पठइ बहुमाट पढ़ता अन लकुटारस जीइई बेला नाचता सुललित वाणी मधुरि सारि जिन गुण गार्यता बाल मामु छंद गीत बेल, वाजिव वाजता सम्यक्त्वमाई: · ias fafe afafeडि जापति, मंदिर पठ निसिदिन करत वाला राहु रमणि कथन नहि देइ, उडा र मूलह वारेह वस्तुतः पूरी कृति में काव्यात्मक उत्कृष्टता नहीं है। कृति साधारण है तथा उपदेश व नीति प्रधान है। भाषा की दृष्टि से इस कृति का महत्व स्पष्ट होता है। जगहू ने रचना को सुबोध और सरल बनाने के लिए इसमें अनेक लोकोक्तियों, मुक्तियों नीतिवाक्यों और उपमाओं का प्रयोग किया है। विकृति में काव्य कौल व रचना चमत्कार नहीं के बराबर है परन्तु कई सूक्तियां काव्य को लोकप्रिय व सरस बनाने में योग दीत है: (१) वा कोहि मी पाछेह (२) सहियं जगि लोढइ स कोड, कृपालु बिसहर वा होइ बीमा (३) उगम र (४) गल जावु नि (५) श्रमिक जइ लाइ संसार जाने हुरी पट्टी भंडार (६) गुरु वानिता विसुठ सरेइ, सुगुरु वाणिक आम करे प्राविव पात्र विसेविति त बिसु थिय म किमइ गावडी भवि मवि लामह तिनह तिमी, बी पालइ सो नर धीर Page #764 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२० (७) मनु मयगल अम ध्यानकर ति, प्रसन्न चंद जिमसिधिहि जति (c) धन जि गुरु पारकर करति गुरु विण समका किमइन इंति (९) अच्छइ मोह चरणु इमि समइ, समक्ति न रयण न लाभइ किमा (१०) विधि मारण मान अविवार, गाउं जइ छूट संसार (११) ओया वीसई बहुत गमार मह तभी न पूछई पार वस्तुत: उक्त उदाहरणों से रचना की सरसता और लोकप्रियता का अनुमान लगाया जा सकता है। १४वीं शताब्दी में इसी प्रकार की कई कृतियां मिलती है जो काव्यकी इष्टि से साधारण महत्व की है पर भाषा और कक्क मातुका शैली तथा छंदों की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। ये कृतिया नीति प्रधान है तथा धर्म प्रचार के लिए ही लिखी गई है। वर्णमाला के ५२ अक्षरों का सम्यक् विनीड होने से इसरचना का नाम भातुका बावनी भी मिलता है।अत: मातृका बावनी व सम्बकत्व पाइ बाई दोनों एक ही रचना के दो पर्याय है। इस प्रकार सम्यक् दर्शन तत्य की प्रतीति, श्रद्ध, तथा वस्तु का सम्यक् बोध आदि सभी मो का दर्शन यह रका करती है। जैन धर्म के सिद्धान्तों का इन रचनाओं द्वारा पूरा पूरा प्रबार किया गया है। 'मिस्संदेह काम और धर्म दोनों ही इन्टियों में ऐसी रचनाचे महत्व पूर्ण है। - Page #765 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : मातृका: ७२१ मातृका चउपड़ -: ****** यह रचना प्रकाशित है। कृति का रचनाकार अज्ञात है। इसी की समकालीन एक रचना सम्यक्षेत्री राख्न मिलती है। दोनों कृतियों के आदि अन्त में पर्याप्त साम्य है अतः यह कहा जा सकता है कि संभवत: दोनों कृतियां एक ही लेखक की रही होंगी। सप्तक्षेत्री राहु और मातृका पs का परस्पर साम्य देखिए: सप्तक्षेत्री सवि अरिहंत नमेवी, सिद्धरि उनकाय पनर कर्म भूमि साडू तीइ पणमिय पाय सवि अरिहंत नमिवि सिद्ध सूरि उवज्झाय साडू गुण मूरि इसी प्रकार अन्त में भी पर्याप्त साम्य है। पूरी रचना चउपर छंद में है। रचना कक्क पद्धति या शैली में लिखी गई है। मातृका इसका मूल अक्षर है। हर एक मूलार से पद्म प्रारम्भ होकर क्ष तक गया है। इस रचना में नहीं है तथा ड०.जल की राजस्थानी रूप को कवि ने मान्यता दी है। ॐ नमो सिदूध से लेकर पूरी ६४ छंदों में लिखी गई है। मातृका चब भी व गाई बल की भांति नीति और उपदेश प्रधान है जिसमें कवि ने कर्मवाद के सिद्धान्त पर संसार की नश्वरता, मन की चंचलता एवं महों के जीवन जादि पर प्रकाश डाला है। रचना की भाषा वीर नाकारिकता तथा काव्यात्मकता के कुछ स्थल देखिए: (१) मन चंचल जे अविच करई, जिरह आप सिर ऊपर इम कसाय उदीय अंबरई, ते सिव नबरि ति संचर १- प्राचीन गुर्जर काव्य संग्रह- ०७४ - आपना कवियो : श्री के का० शास्त्री पृ० १८७ १८९ । Page #766 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) इणि संसारि दूष मंडारी, लइन जीवकाय धम गारि वीत रागि चं आगमि कहीउ, करेता जियण मावन सहीउ जोइड आगम तफल विचार पाच्छइ भारिन परत भंडारु उप्पल दस उपरि जिम नीक से उंचा जीव सरी उपर सिवे भावनानीरि वासरु नोही जिम बाहरइ सीरि सुगुरनी जान विलगीकरी, जान जीव पव साडसतरी अंतु न लामई इह संसार काई तु जीव हिइन विचार (८-१५) अनुप्रास का निर्वाह देखिये:(३) परि पर हिंडिसि जीव अपाहु जड़ न नमिति जिनु विडूअल नाइ जिन धम् विणू सा नहीं संसारि, अवर रमालि दीस मन हारि (४) जग गुरु जग रमण जग नाहु जग बंधन जग सथवा जग वारण जिउ जग आधार जिप विधु भरि नहीं भव पास (10 (1) थर थर पई कायर रिस्त, देवीर भूमिवर मात पीरा सत्व जै जाप, पालई बीच सीर जिन भाव (1) महानि मारई ते अमि दूर वे मारीयई महानि के भूर पीरा गुमट खस्टबह भारीर मा ना नीबई में कविरा बाय की पाति गरमान करके कति समाप्त करता है:मंगा र विपरित मई मिली * विविध करि उबकाय Page #767 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२३ मंगल कर साडुना पाय जा ससि सूरु भूयषु व्याप्पति जा ग्रह नक्षत्र तारा हुंति जा वरतइ वसुह व्यापाक ती सिव लच्कि करउ मंगलाचारू इस रचना के शब्दों में तत्समता स्पष्ट परिलक्षित होती है- महिमा, नाना विधि, जिनभवन रूप पक्ष पुस्तक क्षेत्र मूर्ति प्रसाद आदि अनेक शब्द है। पूरी कृति साधारण है और जन भाषा का एक नीतिपूर्ण उपदेश प्रधान काव्य है। Page #768 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२४ संवेगमा का -------- १४वीं शताब्दी की एक ऐसी ही रचना संवेग मातृका है। रचना ६१ कड़ियों की है और श्री दलाल ने सं० १३५० के ताड़पत्र द्वारा इस का पाठ प्राप्त किया था। संवेग मातृका भी मातृका बैली में ही लिखी गई है तथा पुनियों के लिए, धर्म प्रचारार्थ इसकी रचना हुई है। रचना साधारण है। भाषा में पूर्व प्राप्त कृतियों की भांति पत प्रवाह है परन्तु काव्यात्मकता का अभाव है। इस रचना की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि कवि ने इसमेंशून्य (०) का भी मूल्यांकन किया है। रचनाकार मातृका का प्रारम्भ विन्दु (०) से ही करता है। रचना चउप छंद में लिखी गई है। शून्य का महत्व प्रतिपादन देखिए: मी पणी किम कवि कहइ मींडा विणु संसार जु ममइ मींडा वणीअ ज एवड वक्ति २ मींड ध्याता हुअ ज मुक्ति इस प्रकार कवि ने शून्य को मुक्ति या साध्य बताया है कि किस प्रकार बिना शून्य की साधना के संसार प्रमण करता है। कुछ उदाहरण इसी तरह के इष्टव्य है, जिनसे स्पष्ट होता है कि कृषि का भाषा की दृष्टि से भी कोई बहुत परिवर्तन स्पष्ट नहीं है रचना साधारण है। भाषा में अन्य कृतियों की भांति नवीन रूपों का वागमन और तत्समता की ओर मुकाव मात्र लगता है। भले मग जात परमत्थ इक कवि संग्रह सत्यु १- प्राचीन जैन भाडागरीय ग्रन्थ सूची: श्री सी०डी० दलाल, पृ० १८९-९० २- वही । Page #769 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२५ एह जणे विण ला लिया निय विढत्यु घप धम्मि दिउ पूरी कृत्ति धर्म प्रचार की दृष्टि से लिखी गई है।रचना में अपक्ष के शब्दों का प्रभाव स्पष्ट लक्षित है परन्तु अधिकाश वत्सम तथा राजस्थानी है। अन्त में कषि मंगल गान करता है तथा रचना का श्रावकों के लिए रचने का अपना मंसव्य स्पष्ट करता है:. मंगल महासिरि सर संधु, जसु भाष देवह अलंड उवसमि स संवेगिहि रची, बहुयाली साबय मुणि रसि Page #770 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सालिपद्र कक्क। कवि पदम विरचित एक सुन्दर कृति सालिमा कक्क उपलब्ध होती है। जो अद्यावधि उपलब्ध कक्क मातृका संज्ञक काव्यों में उत्कृष्ट रचना है। प्रस्तुत कृति ने अब तक प्राप्त लगमग रचनाओं से यह शिल्प गत भौर वस्तुगत नवीनता प्रस्तुत की है। शिल्प गत वैभिन्मय से तात्पर्य रचना की मक्क पद्धति से है। कवि ने स्वर व्यंजन का क्रमशः वर्णन नहीं कियाहै। इसमें प्रत्येक व्यंजन को दो दो बार अकार आकार लगा लगा कर लिखा है।साथ ही कोई भी स्वर वर्णन पद्धति में ग्रहण नहीं किया गया। यथा क का, ससा, ग गा, घ घा .... आदि पद्धति से पूरा काव्य लिया है। दोनों और स एक ही स सा में चले है। रचनाकार पड्म का समय निश्चित नहीं मिलता परन्तु भाषा और अन्तरंग प्रमानों के आधार पर सं० १६५८ के आस पास ही निश्चित कियागया है। क्योंकि या रचना जिनप्रम की रचनाओं के साथ लिखी मिलती है।' पूरा काव्य वेदोहा छन्दों में लिखा गया है। रखना श्री दलाल के संग्रा में प्रकाशित है। ___रचना का क्या शिल्प काव्यात्मक है।पूरी रचना में शालिमा अपनी माता को संसार को छोड़ने का उपदेश देश मा रमे संयम और वैराय की विसिवा पूर्ण स्थितियों को बनाती है परन्तु उसका मु इयों से उत्तर ३ देखा है और न मा को उसे दीक्षा का आदेश देना पड़ता है। पारिभद्र बतही सरस दृष्टान्द्रों और बबाहरणों मे मा को सष्ट करता है और जीवन की मिस्सारखा समाता है। पूरा काम्ब उत्तर प्रत्युत्तर बेली में लिया गया है। पालिमा और उसकी भी पारस्परिक प्रश्नोत्तरों में कवि ने कर्म, सार, जीब, मत्व, कलादिमी का सुन्दर मिलेकन क्यिा है।बस्तु पूरे काव्य को संवादकाय कहा जा सकया। - - - - - - १. प्राचीन वर्ष सम्म । Page #771 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२७ मंगलाचरण कर कक्क पद्धति व अपने नाम का कवि प्रारम्भ में ही परिचय देता है: मलि मंजषु कम्मा रिबल वीरनाडु पणमेव use es कक्करकरिण लालिपद गुम केइ क का, खखा, ग, गा, घर आदि इसी नवीन कक्क पद्धति को इस प्रकार देखा जा सकता है: terrea वीरिथ पवर जे जाग पुरि समहान aroge reet es सो संजम सोताण गारव वज्जिउ विन्नव काइउ मग माइ as मौलs a प्रतलियां तुम्हह पाय पसाई चमकुंकुम चंदण र सिण तु तपु वासि उवच्छ are etes किम सहिषि भूमि गंगाजल बच्छ चानक पीलिया पंच सई संदम सूरिहि सीस साडु माइ दुस्सह सहई परिस धर्म्म जगीस रचना के माता पुत्र संवाद के सरस भाव पूर्व उपदेश तथा वैराग्य पूर्ण विचार तथा इस संसार की नश्वरता सम्बन्धी एवं संयम के महत्व का प्रतिपादन करने वाले कुछ स्थलों का परिचय दृष्टव्य है। जिसमें काव्य की उत्तर प्रत्युत्तर संवाद बैली का स्पष्ट प्रयोग मिलता है।पूरी रखमा दोहा दों में लिखी है। वर्णन आलंकारिक श्री स्पृहणीय है। उक्ति का अनूठापन कृति को सरस बनाने में पूर्णयोग देता है। बार समुद्रes भागल, माइति संस संजम वहम ही त किम् न मइ पास (5) मी कहती है । मनिवारी वर्ष की भांति यम गण भी प्राण हर लेती है प्राप्ति बड़ी कठिन है। विरिवि मुले व बहुमुल्लु या रिक्षा प्राणचर संजय भर स तुल्ल (४४) का इतर इष्टव्य :- हे मी ऐसे है कि करवट बेसिर कटवाले और कथीर की प्राप्ति हो : संसार के इस बड़े नारकीय है। ये सुख Page #772 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२८ फडिज्ज करवत सिरि पाइज्जइ कत्थीरू माइ दुक्ख नारय सुमिउ मह उदूधसई सरीफ (४५) इसी तरह सुष्ठुक्तियों में पूरा काव्य चलता है। कुछ सुन्दर काव्यात्मक उदाहरण और देखिए : न विवर लिज्जइ वस्णपणि सालिमद सुकुमाल मह कुल मंडण कुल तिलयकुल पईव कुल बाल नाई गव्विहिं कुल ताई पाविज्जइ भव छेड़ माइ मरीचि भव मिठ वदुधमाण जिणुदेउ छण मइ लक्ष्ण समवयण तुढ मज्जा बत्तीस ते विलवंती पेम भरि किम करिति कुल ईस छाऊ जेम उड्डइ सयलु अंत उरू घर सारु माइ जीव जड संचरइ छडे विणु ढंढारू sues पुत्त सु चित्ति महु पुत्त विहूषिय नारि विश्वs मुच्चर इह सहइ दीमी परचर बारि (प्रश्न) (२४) ठामिठामि जिन डिडिट मव वरासी लक्त --- (प्रश्न) (९) नम कप्यूरिति पूरिया datta या नारायन बंध निमि ats for a स (उत्तर) (१०) (प्रश्न) (१४) माइ जि सहिया मरय दुइ ब्राड कुजा संग (उत्तर) (१५) Sarfe वैभव का लोभ भी देती है। वर्णन की प्रसादिकता इष्टव्य है:des बगर वर पुत्व बीस घरीज्जड छ मणि सहासन बनतं किषि कारण व्यचित्तु are विलग माइ गड विपुरि रज्जहरे कि बोका वा कर वीर लि रहि न मवड किसि (उत्तर) (१५) कोमल केस, किम उद्धरिति अस हि दिवि दिकि बालु माइ सुगम सुकुमाल (४१) --- Page #773 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२९ tos पणोरह पूजि सहं, सज्जण होसिइ सोसु, नंदण तु थाइसिसम पड महुकम्म दोस् बास सासवेयण पमुहवाहि माइत मूल जीवतेहिं धंधोलियड उड्डइ जिम लहू तुल इस प्रकार पूरी रचना कथात्मक पद्धति में शालिभद्र के चरित्र से सम्बन्धित है। शालिभद्र संयम की उत्कृष्टता द्वारा अमर हो जाते है। पूरा काव्य सरस दोहा छंदों में संयम व आदर्श चरित्र की महत्त स्पष्ट करता है तथा जैन वर्शन के अनुसार कर्मों के बंधन नश्वर संसार और नरक के विविध दुखों का तथा कामिनी कांचन के स्पष्ट चित्र प्रस्तुत करता है। रचना कक्क पद्धति की होते हुए भी सवाय सरस है । Page #774 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३० हा मातृका इसी कवि पदम की एक दूसरी इसी प्रकार की रचना दूहा मातुका है। यह रचना कक्क ब भातुका शिल्प की दृष्टि से सालिमदद कक्क से भिन्न है। इसमें कवि ने परम्परानुसार ओंकार से प्रारम्भ करके व तक वर्णन किया है। रचना छोटी परन्तु सरस और आलंकारिक है।अनेक दृष्टान्तों को कवि ने माला की भाति पिरो दिया है। कवि ने अक्षरमाला का क्रम इस प्रकार रस्सा है:. ॐ नमो सिन्ध - अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, रि, री, लि, ली, ए, ऐ, ओ, और, , , क, ख, ग, घ, ड०, च, छ, ज, म . ट, ठ, ड, ब, प, ब, थ, द, ध, न, प, फ, ब, , म, ज (य), र, ल, व, स(ज), स. कवि ने ड०वि को नवि और को नह के रूप में रखा है। के स्थान पर कवि ने बत्य सका ही प्रयोग किया है। कृति की सबसे बड़ी विशेषता इसकी सरसता और आतंकारिक्ता अपयश गत काव्य सौन्दर्य इसमें ज्यों का त्यों परिलक्षित होता है। काव्य में चमत्कार सर्वत्र विद्यमान है। कवि ने इसे धर्म मातृका नाम भी दिया है। पूरा काव्य दोहा छेदों में लिखा गया है।कवि ने रचना का प्रारम्भ जगत गुरु प्रणाम में ही क्यिा : कारिणी उच्चरर, पर मिटिगी भवकास सिब मंगल सापकरो, वाइवि नाल्यास संसार की नश्वरता, मन को सिवान, विषय कसायों सेबचने को संयमत्री का महत्व स्था सांसारिक सुख वैभव विकास की नीरसता सम्बन्धी कुछ उम्टाम्ब का काव्यात्मक सरस स्थलों और भावपूर्ण नियों को देखिए(1) बवा परिका दोष परामा मूढ मिव बोल पा बरिस, बवि कारिस मूढ (७) - - - १- प्राचीन और गन्य मा श्री काल ०६७। Page #775 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३१ (२८) (२) ईसरु देक्सिट कोइ नरु नीणि मणि मेह, पर न जाणइ मूढ जिल, जगु बावियर्ड हुनेइ (१०) (३) उप्पल दल जल विंदु जिव, तिन च त कच्छि पण देवंता जाइसए वा मन मेलत आछि (११) (४) एकहि गावि वसंतड़ा, एका अंतक होइ अहि डंकि महिया मरए, मणि जीवइ सहकोड (१०) (५) चंदूपल किरणे हितहि, दूरहिया विसवि (२०) (8) अंघउ अंध ताणियए, कवणु कहेसइ माण केवति पर निम्बाणिगड, धम्म मतंतरि भगए (२१) (७) चंचल चित्त पर्वगु जिम, वय बंधन न धरेसि धम्मारामि विवासिया, मूढा इत्य मलेसि (e) नइ वडमाथि सषण जल, मुक्कह इमर बहाव वायर बढइ रिधिडी, भगूगण निघण थाइ (४२) (९) पढिउ गणित यत तविउ, संजमु विल चिरकाल लइ कसाय मवि वसि कर सि, डा सह इंडिय जाल (४) (१०)जसि पवतिय अमु बेशि पुषि, ना गावि दि कम्य हावि विडियमम, वाहन निर्वदि (४) (१)रे बाग मम्मेष बहि, ना गम्भूति पलाय कने का पक्कि सर, क्यण पराइ बास (४९) (१२)वन अमुक देह , बरि जिम कोड विद्या भाव न मुबह गिव मा नाव पुरस्का गाड (५६) इस प्रकार पार बोस की मासि यह रखना भी अपना आध्यात्मिक महत्व रखती हैवन गरिको थापामा अपर बहस राजस्थानी या जूनी गुजराती है। रखना बरस मा काम्बारक है। Page #776 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३२ 8 काकनचि चउपर १५वीं शताब्दी में देव सुन्दरसूरि शिष्य विरचित एक कक्क परम्परा की कृति काकवंधि चउपs उपलब्ध होती है। रचना चोपाई छंदों में है तथा पूरी कृति ६९ कड़ियों में लिखी गई है। कवि के विषय में कुछ भी प्रमाण नहीं मिलता। क्योंकि रचनाकार ने कृति के प्रारम्भ में ही देवसुन्दरसूरि का पद नमन करता है। अतः यह कहा जा सकता है कि रचनाकार कोई देवसुन्दर सूरि का शिष्य ही रहा होगा । पूरी रचना कक्क पद्धति में लिखी गई है। और इसकी पद्धति भी सालिम कक्क की मांति क का, ख खा, ग गा, आदि हरएक व्यंजन को दुबारा प्रस्तुत करने की ही है। काव्य की दृष्टि से १५वीं शताब्दी की रचना होने पर भी कृति बहुत महत्व पूर्ण नहीं लगती भाषा के क्षेत्र में इसका अवश्य महत्व परिलक्षित होता है। कक्क पद्धति का कवि ने फिल निर्वाह किया है। कुछ उदाहरण देखे जा सकते है: वर चित्ति नाम एवडा वित्ति अक्षुरसि पूरिय घड़ा परत जु चाभि पहन जिड़, चढइ सिखा नवि पड़ड़ इकु बिंदु बाet gefa उबर नवि होड़ दी पात्रि दान गरे वीर थाल दी संगम वालिद सोइ तिमद (४-५) प्रस्तुत रचना मी धर्म प्रचारार्थ किसी गई है जिसमें कीम जैसे संयमी पुरुषों क्या जिनवर, अरिहंत देव धर्म वादि पर प्रकाश डाला गया है। मूले मन को सिवावन 妻 धर्म करने की ओर प्रेरणा, संसार की स्थिरता तथा कर्मों की गति पर विविध दृष्टान्तों द्वारा प्रकाश डाला गया है। मन को सिखावन देखिए: करत धर्म मन मूला उमर मानस मन कोई बालि निगम दान की तपमान सार, गुरु वयण पाला सविचार १- आपण कवियो भी के०वा० शास्त्री पृ० २९३ १ नहीं। Page #777 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३३ काइ जु दीजह दान, विही 'चितवइ नवि अभिमान चित्वि विरित पति हि सबि अध, सो श्रेयं सई लीलइ लद्ध (२-1) गुरु का महत्व, धर्म की महता, कर्मों के दुख, और जिनवचन रत्नों का आख्यान विविध दृष्टान्तों तथा आलंकारिक उक्तियों इवारा स्पष्ट किया गया है विर्षन दृष्टव्य है: समरस रात्रि दिवस मनि धर्म, धर्म समउ मन छंडळ अम रामा धर्म चिहंगति इस धर्म लाइ पामी जइ मुख्य सायर मर्यादा पुम रहाइ चंदसूर गयपि संबह कुशल पंच ते दि आचार सोइ सहगुरु इभव विचार हिव गुरु जाप सो संसारि जेड गुरु पर विचार पाल मे पतावा गोड, पर गुरु बाबई भाको हाघि बनि विद्यमणि रत्न वह कामह जिण बर बचन जिनवर देव धर्म गुरु बाध. और सममि बराई मन सन एक मन का मार राइ, बिर निर्व तो मा विमर निकाल का पुमरि बहराण (४-६८) रबमा का महत्व मा की सरतमा की दृष्टि से स्पष्ट हो जाता है। अपभ्रंश की Page #778 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३४ उकार बहुला प्रवृत्ति लगभग समाप्त प्रायः है। उत्सम शब्द की अधिक प्रयुक्त हुए है। निष्कर्षतः ६८ कड़ियों का यह काव्य सावत: बहुत महत्व पूर्ण नहीं है। साधारण ही है। अन्टापद तीर्थ वावमी। भष्टापद दीर्थ बावनी बावनी संशक रचनाओं में सबसे पहली सं० १४८५ के आसपास की रचना है जो अप्रकाशित है।रचनाकार श्री जयसागर है।आदिकालीन हिन्दी जैन साहित्य को जयसागर ने लगभग ४० रचनाएं प्रदान की है। जिसमें अनेक स्तोत्र, स्तवन, कला, वीनंति, नमस्कार, रास, आदि काव्य स्म संशक रचनाएँ है। कक्क, मातृका परम्परा में यही एक ऐसी कृति है जो बावनी माम से लिखी मिलती है।यों अद्यावधि उपलब्ध कक्क मातृका संज्ञक रचनाओं में बावन अक्षरों का वर्षय विधान सो मिलता ही है परन्तु उनका नाम स्पष्ट रूप से बावनी नहीं मिलता। __अन्टापद तीर्थ बावनी ऐसी ही रचना है जिसमें कवि ने पूर्व विरचित रचनागों की परम्परा में नवीनता प्रस्तुत की है।कक्क शिल्प की भाति इसमें कवि ने कमा: भार (वर्णमाला) से प्रारम्भ नहीं करके कुल ५३ पद्यों में ही सारा वर्णन लिया है। रचना की प्रति व प्रतिलिपि अभय जैन ग्रन्थालय में सुरक्षित है। रमना धार्षिक उदेस्य से लिखी गई है। कवि ने अष्टापद तीर्थ पर यह मावनी लिखी है। पूरा गव्य धार्षिक और वर्ष प्रधान है। कृषिकार में प्रारम्भ में सरस्वती और २४ सिंडों की वन्दना की . एक सरसाद अतिम्य मुगावविय सवीबह महंत श्री स्टापद वीर बनी बार विचारतरलिया भणी प्रारम्भ ही कवि मरस वाक्यों मा विबालकों द्वारा अष्टापद तीर्थ का सजीव परिचय दिया th माम बरबर पति पुगिन्ध, मेवा मुर विदयारवर मिष विदि पाल की रिसोड, पुरि कियमणि धूम निवेस Page #779 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२५ गिरिवर सिरि बगाऊ दीह, पिडुलप्याणि दुइगा लीड सीह निमिज्जा मामिप्रसाद ऊं गाव त्रिवि प्रवाद सोलस तोरण माणिक त व भक सोहागणा अठ मंगल सोलस सोहति जे देखी रिविड मोर्हति च्यारि च्यारि विहु बारे भला बहुं दिसि मुख मंडप मोक्ला afe मागगलि मणिमय पीढिया मुल्क घाट व विडिवेढिया वहुवरि माणिक चाय धूम, सेवा सारई सुरनर कम (५-१०) (१५) वसु वरि इन्द्रवजा लहलहs कीरति भरततनी गह गहइ क व नामि वावड तोरण मंडित त्रिणि पावडी कवि ने प्रतिमा के सौन्दर्य का सुन्दर चित्र खींचा है। अष्टापक तीर्थ की शोभा और प्रतिमा का असाधारण सौन्दर्य श्रावक श्राविकाओं को तीर्थ के प्रति श्रच अनुभव कराने में योग देते है।वन शैली सरल व अत्यन्त सरस है । नाभि जीभ श्री बहबत पही, हाथ पाय सल ताठ्य सही अंत भूमि जो केसह वणी ते उपनिय मय सोतामणी नयन लोग लोचन अति थि की की कविलाइ नई वि ereft reas मूछ जवान रिष्ट रतन बढ़िया कुमा sto जिसी घरवाला वेति, वं क्ली कटि को ठि रगाडी सोवन भय राम, बीच यही वज्रमय तक ठाक रक्त रहन मय प्रतिरेक, निछेहे जाये कि एक विचि िलहूनी नइ सामती, इष्टिहि दृष्टि निरीमिली इन परिवरिका मई, कष्टापदविरि प्रतिमा हुई प्रतिमा प्रतिमा केरिति धान प्रतिमा इढ मूर्ति निपा के पावर ढोति रचन मइ दीसह भूम कोलि धार बढिमा ने बानि हेमरतन नी निश्चल ठापि -4 (२३-२७) Page #780 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नगर मगर सागर विछ, नर किनर वानर सरमच्छ हरि करि केसरि चामर चित्ररतन धम सय सहस विचित्र कंचषमय धय दंड विशाल, रयप पताका किंकिणमाल ऊपरि परम राउ भकुभ, कराई गयणि वहता रवि अंम एबई जिण हरु ताहि मन रमाइ संधिहि संधि मिली तिम किमह एक पिंड जिमि जाणइ सडू ठीक सिला सोवन थल अहू (३४-३७) जिमहर विज प्रतिष्ठा बंग हा भटापद तीरथ चंग तीरथ भगतिहि लायह पुदिध होइ सुभोदय संवा इद्धि इरिहि कलिमलकर मल जाइ काय वचन मम निर्मल थाइ इस प्रकार पूरी रचना में तीर्थ का महत्व, मूर्ति की प्रतिष्ठा करतेश्वर का प्रतिमा पूजन व उल्लास तथा प्रतिमा पूजन प्रभाव व अन्य का वर्णन है।रचना वर्णनात्मक अधिक है।काव्यप्रवाह गौण है। रचना साधारण है। अन्त में कवि ने बावन अक्षर का स्पष्टीकरण प्रस्तुत किया है:जिम बावन अवर पाठसार, नंदीसर बावन जिण विहार तिम पावन पावन नव विस्त, दुनियमक निमुना एक वित्त कृति की पाषा रमल है, जिसमें कहीं नहीं अपांच पदों का प्रभाव है और देव सब राजस्थानी शब्द है।कृति एक दम साधारन है। निष्कर्षः १३,१४वीं और १५वीं शताब्दी मैं इन बक्क माडका और बावनी मक रचनाओं में प्रतिनिधि रचनाओं का यही इतिहास है। Page #781 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ufgeta tenuta IN Page #782 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२७ आदिकालीन हिन्दी अन साहित्य(२) नीमकाव्य परम्पराएं। पिले अध्यायों में काव्य के जिन विविध व्यों की परम्परामों तथा खत्मक जिन इतियों का अध्ययन लिया गया है उनके अतिरिक्त भी विशिष्ट काव्य स तथा कृषि और मनोग है। उन पर विशिष्ट महत्व होने से रमा प्रकारों में वैविध्य की दृष्टि से स्वत्र से विवेचन बाछनीय है। ये रचनाएं अपने ही प्रकार की है। बपिने संस्था में कम है परन्तु फिर भी इसका अपना स्वतंत्र महत्व है इसीलिए इन्हे मौन काब्य परम्पराएं कहा गया है।इस कामों और काम कलियों में तो ऐसी है कि जिनकी परम्परा के प्रारम्भ का श्रेय की आदिकाल हिन्दी जैन साहित्यको विषय, कला, मर्ष गौरव और वैविध्य को इष्टि में रखते पर मौन का परम्परा के वर्ग इन काम स्पों पर संदेष विचार किया बाया सा है। इस प्रकार इस साहित्य में विविध काय परम्परागों का भीममेड या उन्नयन हुना है। काव्य की दृष्टि से रवनाएं * काव्य या पुस्तक दोनों मोष प्राप्त है। विषय की इष्टि में इनका अध्ययन करने पर इनों ब्रत, साधना, पक्तिमान, मल अभिनय, वीर्यवर्मन, तीर्थकर वर्षन भागों की दीवा महोत्सव वर्णन या नीति-कम बादि वर्गम मिला। जिनका अध्ययन रकमानों बिल झारा बना। इन माम माँग वर्गीकरण इस प्रकार रिया वा मना : () बान रखनार, और (a) वि प्रधान रखना। याब रहा। -योग Page #783 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२८ ६- माथा इन रचनावों पर क्रमशः भागे प्रकाश डाला जायगा। (20 विषय प्रधान:- दूसरा नापार है विषय के अनुसार कवियों के वर्गीकरण कााइनमें छन्दों से इतर केवल माना किसी भी छन्द विशेष में, विषय का विवेचन करने वाली अनेक रचनाएं लिखी गई है। जिनका नामकरण हान्दों के माधार पर नहीं होकर शिल्प के आधार पर किया गया है। ऐसी रमाओं का वर्गीकरण निम्नाकित वो किया जा सकता है: विषय प्रधान रचनाएं .. नीतिप्रधान पारस्परिक १-बारहमासा १.स्था परम्परामेबार हुए १- बीवन संबंधी - बाबा संबंधी - महात्म्य बन ४- महान वर्णन ५- बीवा बन .और वार्षिक बनानों नाबादी ५- मावि पति -बीमोड्वार वन ८- वैल्य परिपाठी गत व र्गक पाने वाले इन विविध रमा गरों में प्रतिनिधि नाएं जो साहित्य के संकल्प किसी कई बार मिलने काव्य सौष्ठव पर संदेष Page #784 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२९ में विचार किया जायगा, इस प्रकार है: १- बैत्य परिपाठी २- बारहमासा - पट्टावती ४- गुणवर्णन ५- बाव .. मिसाला ... लारा ११- भादो - गायक :- प्रधान रखना और उनका विश्लेनभन्यों को माधार मानकर किसी कई इन रसायों में भी किन र है। इन रचनाओं का मानरम हन्दी भाचार पर यिा मना है। प्रत्येक रचना कियर का प्रयोग कि वापरलस किन का बहुत गोरखा से नहीं बाल यिा गया है इसके अपवाद भी मिलते है। वह मी भावनि पूरी रमा बर्षियो। मावस्य हा बासी रमानों का प्रायः मिल जाता है और सम्म मामलोग की प्रग इन्टि रही होगी। मार गिरने पर न रखनागों भी पार्मिक मासिक वाले है। इनका अध्ययन नहीन मिला मान लिई रमाएं देसी Page #785 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनको कवि ने पूरा छन्द में लिखकर समाप्त किया है परन्तु कई इसके अपवाद भी है। हम्दों के आधार पर नामकरण की गई रचनाएं अपमंत्र से ही मिलने लगती है। यो इसके पूर्व प्राकृत में भी इसकी परम्परा का होना निर्मात ही कहा जायगा क्योंकि हम्दों की परम्परा संस्कृत से निर्वाच स में आगे बढ़ती एवं काव्य को गति प्रदान करती रही है। वस्तुतः इन काव्य रूपों का महत्ववरम्परा को पुष्ट करने के लिए भी सार्थक है। इन्दों के आधार पर मिलने वाली इन रचनाओं का संदिप्त अध्ययन इस प्रकार है: उपदेश प्रधान: ७४० दोहा एज्क्क्छ अत्यन्त लोकप्रियता को प्राप्त हुआ ठीक उसी प्रकार बोडा सन् अत्र का लोकप्रिय छन्द रहा है। इसका प्रारम्भ ठी शताब्दी के पश्चातु से ही मिलने लगता है। प्राकृत साहित्य में जिस तरह गाथा में भी दोहे का दोड़ों के मिलते है। नीरव के साथ साथ अन्य क वून प्रयोग हुआ। में तो मुक्तक महों के मी वियों ने भी दो का प्रयोग किया है। है। ग्रन्थ रचने वालों ने इस छन्द का खूब द) की रचनाओं में दोडा aftart और व्याकरण आदि प्रयोग किया है। केप सम् अव का परम लाता में भी दो का प्रयोग मिल जाता है। वह रहा है। को दूरान् केही कारण १)का स्वामी में के बाद भारतीय होता है प्रवेश तो इसका बहुत पहले ही हो चुका वापरावी सदी में इसमें मार को वीर को धर्म को और नीति को लोकविस में प्रवेश करने का व्रत किया धर्म के ब और राम के नर्मी उपदेशों को इसमें प्रचारित किया। बरन्ड किया बाद वृद्धों विद्दों की रहस्यवादी भावनाओं का वास्तू मना, गोरखनाथ जैसे जमाने वालों का सहायकहूआ और कबीर जैसे बद का संदेश वाक बना अंगार के में इसकी इंडमी बहुत पहले ही का Page #786 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ हा विद्या कहा जाता था। प्राकृत पैंगल (१९७८) में दोड़े के २३ भेद माने गए है। वर्ष के गुरु लघु आदि के विवेचन में भी दोडे का परिचय मिल जाता है। इन मेदों में विप्र, अमर, ग्रामरादि प्रसिद्ध है। मात्राओं की दृष्टि से भी दोहे में वैनिय मिलता है। हेमचन्द दोडे मैं १४ १२ मात्राएं मानते है। प्राकृत पैलम में दोड़े पहले और तीसरे पद में और ११ + ११ मात्राओं का विधान है। इसमें पद की समाधि पर यति मद में हो। मात्रिक गर्यो में १३ का नियम है। इस और का क्रम माना गया है। विष बरवों के प्रारम्भ में जगण नहीं हो, और अन्त में लघु हो। इस प्रकार वर्ष जिसमें होगें उसे विप्र कहा गया है। किया दोडा हद की व्युत्पत्ति कैसे हुई यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न है। परन्तु अनुमानतः इसकी व्युत्पत्ति पर विचार अन्त जा सकता है। हेमचन्द्र के व्याकरण में वि के नाम से मिलती है उसमें दोड़ों शब्द की व्युत्पत्ति दोष से मानी गई है। कुछ विद्वान दोहा की व्युत्पत्ति विषथा से भी मानते है विदेशी विद्वानों-वाकोवी, कार्य आदि ने भी दो की व्युत्पत्ति पर अपने अपने विचार उलट किए है • स्पष्ट नहीं हो पाता स्वावन में यदि म उनके बोदा के उद्भव का दोहा की सुत्केलाको बा यो नि होगा। का वही में दोवा बनता है। ७२१ (ब) मा कृपा की कृषि के वार 1- वही, वेद के व्याकरण में, किडामणि और ढोला दोहों में इसकी भाव वान योगमा अरूप में प्रभावित हो हिन्दी का भाविका डा० कारी प्रसाद दिववेदी पृ० १०३ की प्रकृतिवादी में और दोहा अप माषा स्वाद के रूम में है। वह नवी दसवीं शताब्दी मका में नई बात यह है कि इसमें एक मिलाए मिठाने की प्रथा नहीं थी । दोहा यह पहला ने का अवसर बौर आगे चलकर एक भी ऐसी अपय एक मिलाने की प्रथा न हो। वही ० ९३ । ० ९९। Page #787 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२२ अब बात सम्भव है कि यह विधा बन्द का ही दोहा के मूल में रहा होगा। विधा का वात्पर्य है दो प्रकार है। अयाद दोहा क्योंकि दो पक्तियों में लिया गामा अवउसका नाम दोहा कहा जाने लगा होगा। वस्तुनः उक्त सभी विचार किची ठोस प्रमाण की प्राप्ति के बिना अनुमान पर ही आधारित है। अपर में पुनि योगीन्द्र पनि रामसिंह देयोन ने खूब प्रयोग किया। वीं अबादी में नारेश्वरहरि की संखम बरी में भी इसका प्रयोग मिलता है। हिन्दी मे याय नपाको लिया। हिन्दी साहित्य के प्राध काव्यों, सतसई मादि मुक्तक काव्यों दोनों में वह द सफलता में प्रयुक्त हुया है। भाव भी दोहे की परम्परा प्रचलित है।वस्तुतः दोहा हिन्दी साहित्य की अनेक कृषियों में सफलता से प्रयुक्त मा प्रमुख सन्द है। माग दोहा यह उपदेश प्रधान काव्य है और दोहा में लिखा गया है। इसमें ५१ अक्षरों को लेकर पूरी रचना में भागार विचारों का, संसार, नर, नारी,लिग काम, मानन्द आदि का बर्मन सि रचना प्रकाशित है क्या लेक वारा इसका विस्त किन माका परम्परा और बारनामों सीन में पूर्व अध्यायों में किया था । इसी परम्परा र मिनार को विविध टानों और बसों मारा बार की नाबरता, कलियम जीव गम माविका किया है। नागर श्री भारतीय प्रतीकविमा खरा नाम राकिलास मी दिया। दोग होने वाला प्रवामपूर रस बन पड़ी है। सारी दी। इस मामा बोगी।रना महान्द्र इवारा रचित मानवी का उत्सराध है। प्रतिपरिणय इस प्रकार meme tी चीन बर्ष .. . Page #788 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है- पत्र संख्या ९माइन ५ इन्च भाषा उत्तर अपांच विषय- आधारमा रचनाकाल ४८ प्रतितिषि कार्य संवत् प्राप्ति स्थान- आमेर शस्त्र पंडार महावीर भवन बगपुर विष्टन • I विशेष:- लिपिकार ने बाबाहामाला का उन्ले दिया सापा की दृष्टि से रचना के आदि के सर उधरम दृष्टय : A नमो बीरामा ज्यत्व त्या प्रकाशि प्रथित त्रिय मोम्बाती निवि जान ज्योति विननि: I| ममोस्वाय जिनेवरराव बारह किया जिव मामि। किय बारा र मदिल माविया महो। मिमगई पिर मन थक्क। अव दुमा निस्विम एष वीरव सिम्सेण मक्यिा पाडियोहम क्या वोह जमिन। एक जुगामा किया सावीस शिपि पिरोहा are in बीमा मिसावी। बारामा विग काबीINII को वोटो बनाया बोरा बोषाहा दुषि मर्मनिमामि मिनिन कि परे । काममा माई समावि विनियर भाकिया । जिम विरेबीवी बार |९ Page #789 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन्तिमः देवनमाय नमाउ बाउ बहीवर पंच। वेब पुदिन बदाम ना माहि सुचmil होरिति हमेशानिय भाइबर अप्य परंसुद्धा शुरन सब पिता महर्षदिन भासिएRI ही मावि याविधि, मोहरित बावीसमेवा। तुम बारासी,जोपी मसि भिसाप IIII सरइ पोरे बाब होहिम परवम्यने गो इंच जोर मावि युदध विन्या सुर्वपउन८| हम पम कबदार नाम माती जोलने अने, नई पिनि हानी पुग्यो चन बह चारि मुर, बावलाई परिवरत। माबंदिव से हर वारसरिव सम्मत्सmom विभिदत पुरु तिमि परस्पर संपवि इलाममपि हुन पसिरिपिmmun दिय बाल दो। पनि बई पडियो मा विमान बोRAI को पाइपका चिािवह। मानुपाई को बिरामद बोल पराrml सीबोमई माया - बालिी रबि बाबरे ना उतर काल्गुन नकले। बाबारावर यानी की पारमा ल्याउरी भूरिझापाकीबाबान्को भहारकी बिलाटे पहारका बीटारकभी जिनकदेवा हदगाएकी माया गरिन लायकी देवा वा बाये मोतिहासकायाप निमितवार्विका विनयश्री Page #790 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेश माता कहापय एप्पब, वीं बाब्दी पूर्वाइप में काव्य छप्प छन्द प्रधान भी लिखे गए है। जिनमें उपदेश माला काय सप्पन अत्यन्त महत्वपूर्ण रचना है। प्य छन्द में काव्य लिले जाने की परम्परा पाचप्रादीन है। प्राव बौर अपांच में दम्पय छन्द का प्रयोग होठा माया है। न ही नहीं, सत्कालीन न काव्यों में भी छप्पय हाद का प्रयोग मा वीराब राबो को एसई माया ममता है। मादिकाल की इस जैन परम्परा में इस सन्दकतियाँमा कारनी होने लगे और उनमें उपदेश पाला हाय की पूरी रचना इस नाम का उत्कृष्ट प्रमाण यह रस्ना प्रकाशित है। पूरी रचना क्यों कि प्य सन्ध में लिपी गई है था प्य सन्द की इसमें बाइयोपान्त प्रधानना : इसका नामकरण इस छन्द के आधार पर ही ना है। सन्द के रूम में अध्यय एक संयुक्त सन्द है वो रोका (१. 0 बार पद और उल्लाला (१५. "दो पाद के योग बना यो उम्लाका मेवों हो इसके अन्तिम बरबों की मात्रावों का जमा १ और २८ तक बताया है और २८ मात्रामों में कवियों ने न लिया है। प्य छन्द के प्रस्तार की भा ने अपने MPE प्रमानों का दिया है। वो मी, मना सन्म य प्राचीन काल का प्रयोग होता रहा है। सुब रमा सिसी या इसडि रमागर श्री नाराका स्पष्टीकरण मावस्या प्री और सी.वी देवामानों are नारामा मेषमा सरिकातिय बरि meme t- प्राचीन पुर wasी का -- t-1 Page #791 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४६ लिखा । परन्तु वास्तव में ऐसी बात नहीं है। रचनाकार अनुमानवः उदयधर्म है जिन्होंने रचना की समाप्ति पर अपना नाम स्पष्ट कर दिया है: सिहभाष बदिन, उदय पान मूल मत्वा । मो पविय पत्ति समिति सहरू सबल लच्छिकीला लाल।। इसमें उबयधर्म कृति के रचयिता के लिए ही प्रयुक्त हुआ है। प्य में कोई विशेष क्या नहीं है। कवि उपदेव की दृष्टि से संचार की बारता उपदेश के अंगों का विश्लेषण, जैन धर्म के ब्रों आदि के सम्बन्ध में कर्तव्य पालम, गुरु मतिमा पूजा, धमा, हिंसा, बमा और तप बादि गुणों को पालन करने का उपदेश देता है। कविता में प्रत्येक पद विग्नि दृष्टान्त और अन्सयाका समावेश है पानो तुम मुनो। संसार को अपने मान मिनो, डोष बाकी बोड, समरसता धारच करो- इस प्रकार के उपदेश सर्वत्र विद्यमान है। छप्पय की भाषा में बदल पि अपोकदों का बाहुल्य अधिक किर भी काव्य का अपूर्व प्रकार है। उदाहरणों से कविता का यह प्रवाह स्पष्ट हो जामा: पक शाह इति गुड मुमत, पक जग अम्पसमा कोई विपरित परत समरस अपराक लिबिरिवीर, धीरणबारपर दार पेल दुव्याला निकर परहिरिवन समाससम गुलियर बना किन त मला की, जिसनमा की पुष्टि गावी वी का मिला कि भाषषी पाये गिरिरबीकषिता गुजराठी बायाची आये हैमा कायमचा बापाडीकाम्बोजना बारमासी मन भिमाचापाकाकीबाबतीयिका ऊपर की बनवाना पाये स्वपनाममा ( उमाका मानक बटपदमा पाकषिमागनदी। कीसिनो कितीपापाबवानामनाम्यबोसमकाब। Page #792 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४७ सब सुबइ विषयक नवमा, उल्हासिडि गोबम जागा गइ वि सुयत्व तहवि पुच्छ मह र किम पद कवित्त पवित्र पढम मबार सुनानी, म करइ गब्ध अपुब्ध वि पनि बन्ना वाली श्रीमान माना तन विष मि इस बापीर गुरु पारित कवि नवि मिनी अंथ को डिबड गापीई' दाधि वाहन, चंदवबाला और नेमिनाथ को कवि जन समाज के लिए मार्ग परित्र गराकर उनी उपदेश देता है। गव्य का प्रवाह इन अन्तर्वथाओं में न विकसित हुमा है। व्या इस प्रकार की धाओं में पूरा काव्य कवि में गूंथ सा दिया है।काम सौष्टब के मेमिनाथ और परमसम्बन्धी भादों के कुछ जालंकारिक अनुप्रसात्मक उदाहरण देषि: वापारसिनयरी मारिवना िसंवान पर अउर पवर अवर हय मय बा मारण कमा बहस पुरुष मा पुल पुत्त न इसका रामपत किया कि इस्य पिरिसक्यामि रामी बाहिर बालि पट्टिी बखि शिवि वीरभरि पानी पाकि यि दिवार बार बारीक रिका पानीपटी दी कि वर दिरा र भावारिपालिमा विरल परमर रानाre -the-meanीजी-मा-परखमाला मा सम्पय Page #793 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पड चक्कवटि विसयार सिद्धिं रमइ रंगि जनु इम गइ वसु अप्पकन्न पहि तरि किं परजन जागा वगइ (६-७) - ७४८ भरत सरि यल पुल्कि बुक् संजम जनसर कुम वंद लड्डु मा ठाय तिमि कासग क्यु इड जमीन नाम माम धरि बच्छर रक्ि ass पुरक बहु इरक बहनि न केवल ि निय बहिनि रिससरनंदन बाइबलि सवल कन् वरकवि सर (९) सुन्दरि क्यान मय भयगल जब परिहरड और इसके पश्चात कवि का काव्य चंपापुरी और कौशाम्बी की अमराइयों में डूबता हुआ जंतूस्वानकी को अपने उपदेश का विषय बनाता है वहा तक कि इन्हीं महापुरुषों के उत्कृष्ट आदर्शो और चारित्रिक गुणों से वह हृदय के समस्त मनोबल को उभारना तथा जीवननिर्माण कर दुष्प्रवृत्तियों का निराकरण कराना चाहता 1 चरित्र के की प्रतीक पुरुष स्थूलभद्र का चरित्र उठाने वाले गुरु वचनों की काव्यात्मक महिमा देखिए: धूम शुरु यदि कोटा हरि प विवाद र सविन निर पुरारि समरजि विि धारवरिपरि बीड विमइन्कमन ये बीमार मस्त मडी पीठ बाम मानव जीवन को या उठावा है तथा मानवता का पालन करना सलवार की चार में धानो हैऔर जीवन को स्वस्थ दृष्टिकोण और की और माहि करने वाला वही काव्य में कविता है जो मानव जीवन के बाहर बम बमको करके चला है। प्रस्तुत सध्यय का निर्माता कवि जनता का का है। और वास्तव में चरित्रं विना Page #794 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४९ कवि था जिसने बड़ीमानों में जनता की इत्तियों से रक्षा करने के लिए इस प्रकार के आदर्शवादी काव्य की सर्जना की है। जन जीवन में घुल कर समाज को उन्नयन की ओर ले जाना चाहता है। भाव और डीलवान प्राणी उसे प्रियहै जिससे वह समाज का नेतृत्व करना चाहता है उसने इन उपदेशों द्वारा समाज का प्रतिनिधि कार्य अपने हाथ में लिया है। अतः यही नहीं कि उसने केवळ पहापुरूषों के ही जीवन को अपने उपदेशों का विषय बनाया हो । इन महापुष्यों के अतिरिक्त छोटे परिवारों में जिन पुरुषों ने वान और सरियों से प्रेरित होकर उदात्त जीवन बनाया था बिताया है उन पर भी उसकी नजर गई है। ऐसा लगता है कि पूरा काव्य आद तथा चरित्रवान विविध महापुत्रों के विशिष्ट त्या निर्माणात्मक गुणों का एक इतिहास है। कुछ उदाहरण देखिए: वीर रोग सेवक सहमति परि कालसेन रिटराय जैन बिहू वाहिहि बधा विपि गुणि संग्रनरिटिं कि सामंत विदित्ता राम व्रत केवि तीन अरिदेखि पहा पाव पूरन मा कालो न इट्टा कि सन्द विधि सुरवर टिको वि (e) यही नहीं कवि ने स्वर महालों को परद्वराम, जमवदिन माधों की वा दी है: पर राम जनदगि मरना पाका मंद मररपि म केवि हरिवन पुरि र काहिहिं विविहित पनि भूम निक्कने एरिस डब के छोटे भाई गयसुकुमाल की असाधारण म डिविया पर भी प्रकाश डाला 1 Page #795 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५० अंगारों में किस प्रकार उसने अपने जीवन को रात बना दिया । एक कारुणिक उदाहरण दृष्टव्य है: यक्लप परिवति वर सुपन भूमि वि तिमि निवडीस सयम अनिठुर fafa संवह भंगार मनि भन्न प्रति मिति दूर करत वरकर परि fafe fat अव पुरुष जन्म तरकनि सरिउ (१०) तब अंगारयमदद सूरि से सीस सर्व निवपुत्त अंग चोर चंडाल चहिउ अपयहकरि कंपइ दामिनी सुविन भर इम सेमि उजड विनय विवब्जिय विज्जन्म करिव नवि जमृगइ सिंहासन बसारि पारि गुरु करि सो मगमइ जो कहइ विजय जो लहड फफ बिड्ड कन्ज तरकनि सरित इन कारन जिन सारामि विश्व गुरु ग्रीस किरि इस प्रकार कवि ने विविध व्यक्तित्वों के उपास्वानों इटावा वारा रक्षा की बीकत प्रतिष्ठा की है। संजय और निष्ठा के निर्माण में इस कवि ने पारस के इन उत्कृष्ट पूरा प्रयास किया है। साथ ही उम्पय में इसी प्रकार की काव्य बर है। व द्वारा उनका पूरा वो भी पूरा पूरा प्राय का है। कर एक है। कवि की की नाकारिक और पूरा Page #796 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५१ :- सरवर गुरुगुण वर्णन छप्पय : जैन समाज में जैन लेखकों और कवियों के अनेक सम्प्रदाय मिलते हैं। इनको जैन समाज में गच्छ कहते है। ये गन्छ सैकड़ों प्रकार के है। इनमें से ८४ प्रमुख रूप से जाने गए है। इन मछर में भी तीन या चार ऐसे हैं जिनमें अनेक लेखक और कवि हुए है। इनमें से प्रमुख है :- सरर गन्छ, त्याग, वन्य और बौधा लौका मच्छ। इनमें बरतरगच्छ के कों एवं आचायों की परम्परा नही बसाधारण रही है। इन तर गच्छ के लेवकों का जीवन बड़ा प्रवर ढंग से पलता है। इसीलिए इस गच्छका नाम बरतर है। ये चैत्य जीवन के घोर विरोध में है। वस्तुतः बदतर छ के इस सम्प्रदाय में गुरुमों के गुणों का वर्णन करने में एक रचना प्राप्त हुई है रचना जाव से कई वर्षों पूर्व ऐतिहासिक यह रचना अज्ञात लेखक दुवारा विरचित उनका नाम है बरवर गुरु गुण छप्पय । यह जैन काव्य संग्रह में प्रकाशित हो चुकी है। है तथा इसमें तरतर गच्छ में हुए कवियों तथा लेवकों का छन्दोबदल ऐतिहासिक परिचय दिया गया है। इस छप्पय में ऐतिहासिकता उयों का पूर्व समावेश है। जिन जिन वर्ष किया गया है ऐतिहासिक इन्डि है उनका बहुत महत्व है। वायु के पूर्व की है। गुरु गुम वर्णन परम्परा अधिकतर इसी मिलती है। मि उच्चों के गुर्गों, जीवनगत विडिष्ट बातों, दियों का इस यह कृषि व काव्य क्या करनाओं का वर्णन किया गया है उनमें प्रमुख है- निक्स, विनय निवड, किमक, मिराव और विनमद्र । गली का दीवाना अधिक लोकप्रिय हुआ है कि विकास के भेद है। में इन्हीं मुखों की पाचनश मोरया प्रवास आदि का काव्यात्मक वर्णन है। कवि १- काव्यसंग्रह प्रकायक अमरकन्द मंवरलाल नाइटा-५० २४:१८ | Page #797 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१२ ने इन गुणों की महिमा आदि को स्पष्ट यिा है। वास्तव में साहित्यिक सौन्दर्य की इष्टि से इस रचना में अधिक नहीं है परन्तु फिर भी इनका ऐतिहासिक महत्व है शिसमें रचनाकार ने विविध मुन्नों की पट्ट परम्परा से लेकर विविध सास्कृतिक क्या ऐतिहासिक स्थानों के साथ उनका महत्व स्पष्ट किया है। का प्रारम्भ कवि ने गुरु महिमा और बाद गुरु के गुणों द्वारा किया है: सो पुरविड जीव अध्यन सम गाइन हो मु सब्बर सिधान्त मानद मो पुरु अरु मील धम्म निम्मा परिपाल गौ गुरु गुरु दम्य संम विसन सम मनि टालइ ( मनु के साथ ही साथ कवि ने मर्म की महिमा का पीसान किया है: पम्प सुषम्न पडाप बत्य नहु गीय हमियह चम्म अचम्म पहाइ अत्यनाइ भपिया चम्म म पहाजत्य मह चोरी किम्बई चम्म धम्म पहाफ जत्य पत्थी न रमिया मोपम रथ को पुन डिवबान पीकपाल को सिर नि परसखि मरमानी () बामे प्रत्येक कवि विपन्न पनि की भाना, या प्रमाबना पर विवार या सिने पुनियोलोर स्थान, पब माविका विवाकि माय स्पष्ट बाबो ग्वार निरिऔर मिनी समाधी सपा मिपूर पटी पनि - - - - शाम र नवम | Page #798 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाह पट्टिा गुरु ठविय कावडम्य महोत्तर वैसलमेरह मार दमि पुह नागरि मर नारिवाइ मैंग का जि सामपि बक्स जिन चन्द थरि परिवार बस संघ दिया (1) (1) कुक को बंसार, इक पल जग पाडा अमाल मगल बारितछि अशी धरि भाव मुमति नवराति अलि धन धन रकम असलडि होर पाटि जाति पीरिम मुबानत परिसस नाम अमुक बम रतियामठ जिन इस दूरि मान प्रापि परिपरि होइ बधामा (३०) इन काम्बात्यक ऐतिहासिक वर्गों के साथ साथ प्रस्तुत कवि की बाकारिक की भी इष्टव्य है। प्रकृति के उपमानों इवारा कवि ने अकारों को सम्माक्यिा । और उनका पक और अन्दर दृष्टान्तौ दवारा कवि के इन गुरुनों के गुणों का विविध रूप में विश्लेषण मि जिनसे उसके वर्षमान पाका पिछी और कई माम्भीर्य पर प्रगा । भाषा बयस प्रबास मामिला और ऐतिहाकिमहल स्ट" मि व पौर विपि को tी हर ग्नाले कमा क्यिा मायने विकार माममपि मेरमा वि विविर विमाथि र विद mamimar का मामय () ७ जिला रबि बवाल परमपि बसमा सावि शिक्कर य गोवियु (११) Page #799 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३) (४) (५) (६) ७५४ सायक जिम क्लोल करइ जिन सीड गुंजाइ जिम फुल्लिह सहयार बिहार कोयल रह कार सघोष छंट जिन जम्मवनि वतिय जिम जिम पदम सूरि वित तिम बताये महगड जिम अन्तर गौइक इवि अंतक मणि रमनि जिम सुरतक पलास, जिम मुय केसरि जिम तक नग राम हंस, जिम दीव्य दिमयर जिम तक गो कामधेनु जिम अंत (क) सुरेश्वर उदय उदय कि 000 --- te in of गमि, सुवित्त विज्ञइ जिम सोडगह वत्सु मसिहरु वन्निज्जइ जिम तह बिंछित करू सुरतरु महिमा महमहड जिम सूरमकि जिनमदसूरि उगवहान गुरु गह गड (३१) (२२) संसार उदय सुरवर मरनंदय मनवमि, उदय सवय दमक रवि कन्य, रम्य किं प्रमाभइ अनुपम उम गतिवति कयाम (2x) इन उद्धरणों से कृति की लंकारिक प्रावारिष्टा स्पष्ट होती है। वस्तुतः पूरा काव्य इसी प्रकार गुच्छों की महिमा में लिया गया है।वारी ear प्रति मान मात्र है और मनकों के स्थान, उपदेश, पट्ट, आदि की तिरंजना काव्यात्मक प्रवाद, रेडिकारिता जालंकारिक कना आदि की दृष्टि पर विवेक है। पूरी रचना एक मुक्तक काव्य है तथा प्रत्येक पद में विभिन्न माचायों को अषा से नमन किया गया है और उनके गुणों का (२७) Page #800 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३५ व्याख्यान उपमानों के साथ तुलना करके एवं विविध इष्टान्तों में बाधकर किया गया है। पूरी रचना १७ उप्पयों में लिखी गई है। छप्पय वैक रचनाओं के १४ और ११वीं शताब्दी में और भी रचनाएं उदाहरणार्थ आत्मा बटपद, बटपदानि ज्ञान उप्पय मिलती है परन्तु इनमें उक्त दो ही अधिक प्रमुख है। मुक्तक काव्य की दृष्टि से यय सम्बन्धी इन रचनाओं का पर्याप्त महत्व स्पष्ट होता है साथ ही छन्द की दृष्टि से भी इन रचनाओं का अपना महत्व है। | Page #801 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रामद मन्द विषयक रचनावों में द मा अभिडिव की हुई कई छोटी दोटी रमाएं उपलब्ध होती है। इन रनामों के जाने छन्द द म्यमान हमारे इससे समान वा का पा सकता है कि विश्व में सिसी जाने के कारण हीद नाम का प्रयोग इनके आगे किया जाना होगा परन्तु सम्म प्रयोग की परम्परा पर्याप्त प्राचीन है। रचनायो बामे यह सब कामों में जैसे सद, मन्दागि बन्दानि आदि का यों में मिलता हारनामों को देखते पए या कहा जा सकमा है कालान्तर में छंद मामले कोई स्वर छंद विशेष भी बन गया हो।वस्तुतः इनरनाओं जो सन्द सम्बन्धी विविध नाम मिलते है उनी की स्पष्ट होता है कि कवि ने मुनियों के या गान, प्रशस्ति मीठ और उल्लास में बकर वेष में जिन लोटी छोटी वरित मूलक रनाओं की व्यास्या की है उसी इमका नामकरण छन्ब, बालि या पानि किया गया हो। बहुत सम्भव है कि इनमें छन्द द क्सिी विन्द के लिए भी प्रयुक्त ना हो। बों सामान्याः रचनाओं में छन्द शब्द का प्रयोग। महल पहले से होगा का मासा है। वन म रिणव में विकास विमा कमलामाबला हो या पादि काठीन न रखना Agra माया रस प्राय रखाको किरा होगा। यो भन्दा भावादी ािनी किमयको इसी मार होकार पर किसी मी किमान वा प्रसन्न करने की का विधान में मिलावा तारिक इष्टियों को विभाग Page #802 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३७ हुए है इसीलिए इनका नामकरण ऐसा कर दिया गया हो । यो वास्त्रीय दृष्टि लौकिक वर्ग के अन्तर्गत इन द प्रधान रचनाओं के लौकिक सम्दों का मूल्यांकन उनमें प्रयुक्त पक्षों के आयोजन से किया जा सकता है। कहीं कहीं इन् वरित वर्णन के लिए भी प्रयुक्त होता है। जो भी हो, लौकिक पक्ष को ही यदि इनके मूल में मानकर चला जाय तो समस्या कुछ हो जाती है और यह कहा जा सकता है कि लौकिक पद में अनुरंजन करने या प्रसन्न करने की दृष्टि सेडी इतरचनाओं के आगे इस पद का प्रयोग किया गया होगा। विभिन्न भंडारों से प्राप्त रचनाओं का विश्लेषण रसवर्ड किया जा सकता है: श्री गौतम स्वामी कंन्द १४वीं शताब्दी के पूर्वीदूध में कवि मेनका ने विविध हिन्दी जैन रचनाओं का वजन किया है।जीरापल्ली पार्श्वनाथ का सीमंधर स्तवन जनित शान्ति स्तवन और जिमोद रि विवाह आदि रचनाओं के प्रसिद्ध निर्माता कवि श्री की विश्लेशन पूर्व अध्यायों में किया गया है। इन रचनाओं के बरि में भी कई रचनाएं किसी है।जिनमें गौवन स्वामी श्री श्री विनोद र प्राकृत दानवादि प्रमुख > के प्रथम से ही प्रारम्भ होता नही किया जा रहा है। इसकी प्रतिया प्रतिविवि बीकानेर हैरों में है कुरमानों का कुवा भीमानी है था। इस के के लिए ही में कवि नेमका मास्थान प्रस्तुत किया हैली गौतम चर महावीर के पट्टति प्रकारविधि ठाम किया। साथ ही १- प्रति विभाग जमीन प्रस्थालय, बीकानेर । Page #803 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१८ कवि ने छन्द में उनके पुत्रों के प्रभाव का मुन्दर वर्षन दोहा चौपाई दो में किया है। रचना छोटी है या छन्दों में है जिससे एक वरित मूलक प्रशस्ति स्तवन कहा जा सकता है पापा बरस और सरल उधरम देखियः मंगल कमत विलास दिपिदंड, पाम सी बबीर लिनिया सबल संच मानवाहिय वा बग्निसुशिरि भोगनु मन ना नायक निहुँ पुवका बा बोबड वायु पसार इक्क बीड किन बनिया को गोयम गराउ -२) शिरि गोयम गुरु पय का हिबा बरोवर जा नालक जिम गिरिपा, नब निति अंगणि बारा कज्या मिशी से भक्यि गोयमु चिरित धरति वे गल हस्थिय इरिय मा इत्तक मतितरति १६) गोवन माफि माम मध्यम मुमचन्द्र * मेक बन बीपि स्य ) श्री मौन स्वापी विडीय) मारकरी पो. सी गई कमेल का काम इस रमा पूरा कार बारमा बीमौतम के वैभव, भान और मन मे सालwी गई। नाकाम की मार ज्या कारक एवं बाकारिक ली। Page #804 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७११ सुर भंडारि चिन्ता मणि दिव मपि जिम सोडइ मयपंगणि, विम जिग साममि सिरि गोयम गपि सा सिरि मो. गपि तिम जिण सामणि मोह जिम निषि चंद वर गुब्बर मामि महा मडिमंड लि बं बं बाड -1) कवि ने गौतम के स्वरूप की पी सुन्दर प्रतिष्ठा की है। मान प्रवीक तिम रूप , जिनको देवता लोग नधा किन्नर भी नमन करते थे जो गुरु के परम मक्स ये था बराबर के मेदों को जानने वाले सिध बुध त्या भान और मई के पद का जन कसे माले गौतम का मनि कवि ने प्रस्तुत किया है। वन की सजीवता और प्रवाहमा इष्टव्य है. जो क्षण कमल बिमल कोमल व्यु सत्त इत्य सुपमा 'तियण जमवायण नयन मन पोषण लवषिण स्वनिहाय जिपि दिई उपवापिति नितु पारंवा काहिषय समाधि अपार सो प्रमनि और धन गुरु मोय पनि समर सविवार यो का परम पनि बानि बहान मिरि र मपि गरि - यो जुना बिपिaam पनि यो मे मिलोम गावि aw मिरपि EिR विनय कन्धि माहिर र अपिल ग्म रिविध सिदिस जानामि पयासह रोम सोग दोहगूग इरिय पूरंवरि नाई Page #805 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 . गे वीर सीस सूरीस या महिन मरिम मुषि मेक गुरु सिरि गोया गगहा जयाविक या संच मान ( 0) इन बनारणों से स्पष्ट होता है जिाहोटी होने पर भी बरस है। पाषा प्रचारपूर्ण और अलंकारों की टा उसके सौरवर्य में इधि करती है। अम्बिका सद छन्द संबक रचनामों में अन्तिम रसा अम्बिका बन्द है। १५वीं शताब्दी के कवियों में छोटे छोटे ईगयों के रचयिता श्री कीर्तिमक की मह रचना. १४ की है। रमना यद्यपि पूरी उपलब्ध नहीं होती परन्तु मिला उसको देखने में स्पष्ट हो जाता है कि कवि ने छन्दों, प्राचारमा वर्णनों द्वारा काम को सरस बनाया है। रबमा का विस अधिका देवी का मा बम है। कवि वन में अन्दर कायम हो । प्राय कवि हरिवीकि की की दी। अम्बिा सी के प्रकारे कमि र मागे का प्रयोग किया। पर और कोलकामा पदाळीरिगीकिा प्रारम्भिक उदारण देता प्रशान मन्दिर अीि पर, सिर सिर शारिती कानि कपूर कील, ममावि पापिली अपि सालमा गाली रला नारकर क रमा प्रकार में उपलब्ध होने वाली मामा की दृष्टि सबम्बिका बन्द ष्टम्यइस प्रकार इंद Page #806 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६१ ::श्री स्थतिमानि दाप्रथा क्या दिवतीय) मेन इन सारा से इसी प्रकार के दो सदर मन्द और उपलध होते है। प्रथम द दों का था वितीय रकना बों में डिजी हई है।ये दोनों रचनाएं प्रकाशित की जा चुकी है। रमानों की मूल प्रति बीकानेर के समय केन अन्धालय में सुरक्षित है। दोनों सद बपोनिष्ठ पडीक श्री पुमि म्यूलिप पर तिल गई। इन दोनों पाली रमा गाय की इष्टि से बिल्कुल साधारण है परन्तु वन की मधुरता सर्वत्र विमान यात्री की प्रतिमूर्ति स्थलिन का अन्दर वर्ष देशिल: प्रथम- जिन शासपि सिव सासमिति मुणियाई बहुमपि सीर कविन पामिय सील पूणि धूलिमइद जिम लीक (० भयवली साया तरई अनुपम लि उडंडति धूलि माहिय ताधिय जना तिमिड ईति भूलि बब पुष मिन राबमिति एटामिन काम पुखमा नि नियमित भूमि मुकि बापान रकम निकाय भगा कर पीरिममा दिलबीच रास मी रमानों पर विने तिम मा कोठामार पूर्व विद्यावावि प्रारण की पीठ के बरण प्रसीव निराश्य का परिया:मिबीर मानकर रोष मेव रस मिन मिया महिरि, नाभि इपिचारि - - Page #807 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६२ जो बार बरस परि भोग पुरन्दक अमरजेम प्रयत्न नव जुम्वनि कोषा के बर कामिपि क्सलिपि रमरसि रत्न ता र विकास महारण सामरि माविका वि सिरिया गणि राउ पसार मावि राया पर भवि गमय जवितु वायपि विपि वाया मरतु सुगामि पनि चिन, चियि यह बाक अधिकार मार पर बप्पा मार लिया गम मा (1-1-) यमशील प्राय करने पर स्थमिद ने अपने गुरु से प्रार्म बानाय कौशाही भरने की स्वीकृति मांगी। वैश्या भी उनको पुनः प्राप्ति की कामना से अपाने आई। पुनि करने के लिए विशालागारी गई। वैश्या कोशा ने अनेक श्रृंगार किपाकवि ने यह वर्षन अत् प्रागसि ढंग से किया है। वैस्या कोश का उल्लास देखिए: बरसाता भिवर सिंह अभिगा पिक्सवि भव उहाधि वो मयनराय परिभ समरंदर इम पड मुरुपाधि पा करि पसार बार समप्पट रहिल पा उमावि मोम रस मिहिमवनव पंमिति कोस बेस आवारि (५-६) भावर रागिरि इणि नापि यनि विरोषसि विटि मिस भरवारि पापाप बानि एम कामि नम्बा बामवि सम्वीनामि कि भारत महा का प्रशिक्षिय मिलब, a fमारि नारि कनिमय बालबालिका (८-१) मेगामारी का निशा कोश का तिm तर पर पाप बि विविध शाम और परिधान और तिरीर सागरम भवानी विमिष बटायर वाटी मारा सलीका लागि बादिमी बन कवि ने सरळ भाषा मेमन या प्रासादिक वर्णन कम में गाये है भाषा की स्खलता और Page #808 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५३ आकारिकता में रचना को लोकप्रिय बनाने में बड़ा योग दिया है:visita नव कालिय नवणि विसा लिय, साविकज्जल रेड मरियम वयि वन आरक्षक मंडलिय देह अह अभट्ट कवि अमर गोंडंतिम को इंडिय मुनिवर र रंमा गरि गंगकमला, सनि जिविय तिविवार ar are मावि अगड कमर्कतिय बरि कोरि बारु चनद्रिय जिन विम सा गया गामिनि चल्लर नितिन गय व प ता भवनु छ बहु पनि बल्कि था कि तिमि मत्थानि मम विषय कसाब राम रोडवर वसमत अग्रवीण इषि अवसर मे हर हरि मन्च बज किरिजन ढक्क कालरव और मोर किंवा बहदुर सर म या पंच बापु ल वरवंत इतिय दिवस कहिन कि क तिमि दिवि डाय मरण मिसि नका, हिव किम छुटिटसिइत्थ पटुन (१०-१३) नारी कोडा प्रार्थना करती है। अनेक प्रकार से मार करके रिकाती है, विहाय करती है पर जब स्यूतिमद्र पर इसका कोई असर नहीं होता तो कामदेव अपनी १८ व स्त्री ना कर उससे करता है संगम के तीन वरों से बिंध कर मरा होता है: विरिविि होम गरिरहरि, कामिनि करिमय भाग (१४) इसी कि करि करि महार विनिक विधिबाट #* पान बार बार बरवार का संहा इविवि मधिल मनि मारत मारु पर रवि पति मुनि बंधिय नमन्यतिक्स सरसंधिय Page #809 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६४ तिविमि तिन्नि पुषण प्रारपिय नियति भयानि सीम विपिन नापिय सविधीमपिक्कि पञ्चालियर पुलिसइद पुषिमा रेरिडि समर समरि म इक्किर, करितीलिमा डिपि नियमित स्वरि प जिम रोपिय वीर जिपिया बाप अहार सहर र मर रिलि रक्खा मोडगाव (10) सिमा तिमि अंगों अमिति पामि धारविमरणिति परमि पछि मात्र ममि सिह माह पपीरह मम । भय बिमा रक ना मान रमि जोडि वापिदि मग हरिया कोस काविया कायक नद परिवार बाकि अमर कराई मामिडाक्सिकिय जयकार इन परि न मान पि विकिपडा सबति पनि गणि देखन करवि देस पडियोहिय, मनमोह शियित विवि (२१) और बस में कवि निर्वद रस काव्य की समाप्ति करता है। वैश्या हार मान माती परीकी दीवानी है की उम्मत किरणों से सबको भानन्द की मापी .. जिम उमारि मिरा मिल गयी इस प्रकार का मामा प्रयास का वोरा देता है।पूरी कि माझोपाया सभापों सगाव रसा Metों में मोर पापा ममा स्पष्ट होता माया सिमामान लिन Morry गरीमेडी मारकर बोध गैरक का परिचय दिया मागी टिपाचा पर है। Page #810 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६५ । जम्बुस्वामी सत्कवा सत्कवस्तु नाम से अभी कोई दूसरा काव्य नहीं मिलता है। मह रचना जेटलमेर कन्हार' में है तथा श्री नाटा बी ने इसे प्रकाशित कर दिया है। पूरी रचना मैं नाव माण गम्बू स्वामी के जीवन चरित्र का वर्णन है। बम्बू स्वामी अधा स्वामी के पट्ट विम्यों थे। और वर्ष असार यही गन्तिम केवली थे। दिगम्बर और श्वेताम्बर बोनों सम्प्रदायों के वियों ने यम्वृस्वामी के जीवन को अपने काव्यों का विषय बनाया है। भाव में बीर कवि का सम्मामी बारिव विशेष लेखीय है। प्रस्तुब रमना का नामकरण कवि ने - बम् स्वामि सत्यवस्तु- किया है। खत्मनस्तु पर विचार करने पर यही स्पष्ट होता है कि इस मद का क्या श माम अति की हुई रचनावों की परम्परा का अलग से विवाह नहीं मिलता। कवि बन्धु स्वामी के परिव वर्षन करने की पर्धा या नाम में नवीनता प्रत करने के लिए ही संभवतः रखना का यह नामकरण किया है। हरी प्रमुख बार इसके नामकरण के लिय यह भी कही जासकती है कि क्योंकि कवि ने पूरी रचना बना ज्यो सिसी : जम्बू स्वामी सत्यवस्तु उसका नाम दिया है में पूरी रखना न्यू मामी वील, ल, वीवा और गाना Tara मोषादि का बना। पूरी रचना की पहचकी कोणीया की बार बोरगी यानी बीको पी कवि सरका प्रमाण माना गया। रला कर स्वागास प्रति बामागमा यी मावी की होगी।मामा को MIT Tोती। परिकाम्या - - - बाकीप्रविकिपिलबम धाब्यपुरवित। Page #811 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६६ से एक जम्मू कमी विषय चरित काव्य पर पहले विचार किया जा चुका है। जम्बूसामित्व २१ वस्तु छन्दों में लिखी गई है। अतः पूरी रचना छेद प्रधान है। प्रारम्भ में कवि ने नमस्कार आदि की पद्धति का प्रयोग न कर एकदम काव्य प्रारम्भ कर दिया है। स्वान जम्बूकुमार विविध आभूषणों से इसब्जित विवाइ कर आ जाते है कवि ने यहीं से रचना का प्रारम्भ किया है। रचनाकार ने जम्बूस्वामी के इससे पूर्व के चरित पर आंशिक भी प्रकाश नहीं डाला। कवि केडी कुण्डलवर हार tige rate विविध मंग सिंगार पावहिं परिने गर क वहि अरु पवक मंगल यरिहिं नव नव कोडि कम व परिमित आकि बारि ar ाs us र गा (२) जम्बूस्वामी के आव जीवन के आधार पर कवि ने नश्वर संसार की कथा को विविध freeree great द्वारा स्पष्ट किया है।कथा सूत्र इन दृष्टान्तों में स्थल है। कथा के माध्यम से कवि ने जैन दर्शन के कठिन सिधान्तों को जन लम बताना है। जम्बूस्वामी राज के वेति भारत या पारिषि के पतियों की बात मानों दि के अनुरोध से इन्हें नगर के चमसेना, कनकसेना, नामला, ली, और मानती विवाह करना नामक चोर ने अपने ५०० शिष्यों पड़ा। उनके क्रेन में होने के द्वारा ११ कोटि स्वर्ग मिला जैसा कि पद है ट है को पर में चोरी करने को प्रवेश किया। पर faar और उसकी म्यू स्वामी के तप ने उसे कर हुई स्वामी के इस प्रभाव के कारण वह भी १०० बीवित हो गया। रचना में कवि ने प्रत्येक लीको प्रस्तुत किया है। भाषा की प्राचीनता, काव्य को दाना या सत्यका उपयोग और काव्य का प्रवाह रचना की विशेषता है। उदाहरणार्थ उत्कृष्ट पवों को मतदर्थ देखा जा सकता है: Page #812 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६७ यौवन की अस्थिरता पर देखिय: एड गोवा एड गोब अधिक माने मोलावा समपरिस, बदी पाहुण्य जुलाई विष्याम पु महरसिया, काइ ति पर Ires अपि दरि जम्बू मबा, जोबम विसमय हारि चंचल बोबा शुक्छ धम्मिावि किया नारि (6) पूरा गब बादली में लिया गया है। तर प्रत्युत्तर ली के कारण रमना के प्रवाह में अपूर्व वृद्धि हुई है।वर्णन के इस काम को नाटकीय हाय कहा जा सया. केत भी दिय के रीमिय सपा का पर जरमा पर पर मि, म विलास रस डाव भाविय सिंगार रस रंग विविड अंगरय मगमार पठानक अब शापियन इन दी गिध साह दुक्कर र करोड होकबीड ) बम्बू स्वामी का उत्र: बम कुमार पयहि कमि कयंता डन्धु काहि लेख वालिस नवि संबद्ध नविमा (१) अंगार बाबर है, विविध योनियों में बीब परिक्ति भी पा मामा वर्णन मोर माम वीमा पुल बनने के लिए परमाया । गौवन, म अब स्थिर, नुम्बको माया पति प्राप्त करनी चाहिय, वो बल्ब 1, भावि बाकि बातों को कवि प्रभारी मोया है विवि मोविविवाशिम पारि हिमta from बेवार संसार बोया बापियाको बाद पिया रिपरिका, माह 10 Page #813 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६८ दानिक पावनाजों का परिचय कराने के साथ कवि ने नारिया के नख शिव का भी मनोहर वर्णन किया है। जीवन का आनन्द और हास विलास सम्बन्धी अन्दर उक्तियों के काव्य को प्रभावोत्पादक बनाने में सहायक हुई है: कृडिल कुंतल, कुडिल कुशल, चंद समक्यापि खामोयरि सगइ कमल नयपि उन्नय पयोहरि युपमान वर पर नागसेपि जपा मनोहरि सरिसगुण संपत्त नहिं अत्यि न महिला सार सिद्विधर्हि कारणि कंत तुई सिजिम कारवार (1) मणि हुंदर सुमित गुन्दर हास विकास मत में जम्बू कुमार मागे रानियों को मार और बौवन की अस्थिरता ग विपिन दृष्टान्तों नदिबोध देकर क्या साथ ही प्रभव को ..षियों मि जान देकर स्वयं कैवल्य को प्राप्त करते हैं या धर्म की निर्मलता पर प्रकाश डालो हुए निर्वेद का वर्णन करते है। रचना शान्त रस में समाप्त होती है: धम्पु निम्मा वनिम्मत का संधारि चम्भेष विधिविध पुर पन्नु ल ब इत्व काप वारि पकड़ बबाहिर बन गया सारण भित्तिनि माया भोग विलासिता पन्च इनित पाठि बार (१९) रनाल प्रतिमा पर बरसा विचार यिाग शाहीय चिनेकी विनराज परि नाain बारपाकी स्वाध्याबपक्किासिता Page #814 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सकता है। वस्तुद जैन कवियों का प्रिय गंध रहा है।भाषा को देखते हुए रचना की प्राचीनता निधीत है। अपभ्रंश के पदों की अधिकता रचना को प्राचीन भाषाकृति कहलाने में सक्षम सिद्ध करती है। पूरी रचना में विविध बष्टान्तों मन्तर्कथानों, उत्तर प्रत्युत्तर शैली, क्यावत्व और प्रभव चोर मादि सभी की क्यायों आदि ने कृति को वर्जन की ठोस बातों को भी सरलता से प्रस्तुत कर जन लम बनाने में पर्याप्त योग दिया है। ७६९ कवि है या १वीं शताब्दी के उत्तराध में कवि ऐल्डू रचित एक छोटी ही रचना क्षेत्रपाल द्विपदिका उपलब्ध होती है। रचना का पाया में विपदियों में किसी हुई मिलती है। विपदी संज्ञक रचनाओं में यह अकेली रचना है। क्षेत्रपाल दिवपदिका कुछ ८ छंदों में समाप्त हुई है। विदियों में लिबी होने सेठी बहुत सम्भव कि कवि ने इसका नाम वा विपदिका र दिया हो। दिवपदी बंद विशेष भी हो सकता है क्योंकि कई हडियों मेंदों में पदों के नीचे विपी है। रा छन्द की कड़ियों को दे यह भी कहा जा है कि दो दो कड़ियों को एक साथ लिखने के कारण भी कवि में इसका नामकरण दिवयविका कर इस सम्बन्ध में अनुमान पर ही आधारित रहना पड़ता है। रचना के दिया हो। जैन ग्रन्थान में सुरि होता है वो ग्राम सेमावर होता है तथा यह थानों के पैर को भी पाल कहते है राजस्थान में भाज भाई कही है कि यदि कोई कार्य करने के लिग्राम छोड़कर बाहर एक क्षेत्र में पूजा जाता है। भीम : asure faufenा : Page #815 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७० जाते है तो क्षेत्रपाल की पूजा करते है। नपाल बेग विशेष के देवता को को है। लोगों का ऐसा विवास भी है कि क्षेत्रपात की पूजा न करने पर मावा में पत्थरों की वर्षा होती है, बी महीं आती, मास पढ़ पाता है।मामारी हो जाती है क्योंकि वेत्रणात मासी पूत, प्रेत, बैबाल, पिवार आदि रहते। और उसके दा होते ही पृथ्वी होने लगती पर्व सपने मते । म ममाव में भी येपालका का सम्मान है। गत बंग, बीना, वाइन सTS आदि यात्रिी द्वारा के क्षेत्रपाल का स्वागत करते है। प्राकृत में तो ऐसा न की मिला जिस सिल्व देवे आये निमित्त कम्पिकाउस क्षेत्र देवता के निमित्त कायोत्सर्ग करवाई अतः इससे यह कहा जा सकता है कि क्षेत्रपाल जनसमाज के सम्मानित देवता । विशेष प्रस्तुत विपदिका में कवि ने क्षेत्रपाल गुपों की स्तुति की पूरी रना में कवि क्षेत्रपाल के वैभव का व्यास्थान प्रस्तुब करता है। उसकी शक्ति का स्तन तथा प्रशस्ति गान इस रचना में शिक्षा वारस्य में अवि यह विज्ञाना वाहता है कि वह कितमा अस्तिवाली देव है जिसकी पूजा के बिना जीवन के साधना शान्ति पूर्वक होमा असम्भव है। इसरमा का काव्यात्मक दृष्टि महत्व पाधारण है पर भाषा का प्रवास या अब मन और दिवाक्यों की दृष्टि से १ीं खादी उरावली रनामों का महत्व उल्लेखनीय कवि का जन भाषा प्रवाह या कविता पुमा डम बास चुम्बा समोरील मा मात मायके पE Team लारमामय जुन्यको REETरी साने उनके प्रमुख मग त्या पैरव मावि वृत्त करो। पीक मोर निन्दिर पीपा बाम निरोकर बने विषात मावान कवितरपानामक व्यों करता है। भाषा का प्रवाह उल्लेखनीय Page #816 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७१ है। देवपाल का बल एवं विविध दृष्टान्दों से उसकी पुष्टि देसिए: जो अगदड बलिय बापब का मोडइ मा बोला पित्तावा के उबामिया जोबर पि लोलप यह भय, चंति पद डाइनि मा पिशायर रक्षा जा मइ उमति वैवाह पणा स भवन का विसहर बीह बोर अरिमय जे किवि मिश्ध कारवा वह भारत हुँति सित्ता हिव ते rew कारया जमु पयभार परिय घर कंपाइ का मेसु नियमों गिरिटलटला वहि उछल विभउ मस्ति पुरनणे करि करवाह गहिवि करियजल, मुणहा कि हिंडए सुपरिय भिस्त परणय वरिउ पूरा भरि विडए बहुलावन्न पुन तिय सालय रमणी बिल्ल मोडिजी विज्गार नरितु नारी गुण पय सय सस्ति नो हिओ (२-५) उक्त उधरण द्वारा वि की वर्णन शक्ति प्रवाह तथा भाषा का स्वाप आदि देखे जा सकते है। अन्त में कवि स्वयं अपना परिकादेकर रचना समाप्ति करता : लिस कवि परि सम होकर दिव्यामल दिव्य न मी पर यो पटा पड जिrarea व न ए ) - ।बापा मासिकाने वाली पनावों की उपाकिमल गावामी बराबर र मासा मागे मादिगालीन विकास में गिन्नी रमाएं उपलब होती है मारनामों के नाम के पी भाषा मा बोन्द सूचक है। Page #817 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७२ परन्तु कालान्तर में गाधा नाम से स्वतंत्र रचनाएं भी मिल जाती है इनके अध्यन में यह कहा जासकता है कि माथा पस्थ द विष ही बन गया है। बस्तुमा इस दृष्टि से माथा ऊंन्द की परम्परा पर विचार करना आवश्यक हो जाता है। माया द चिर प्राचीन है रिनवेद में गाथा पद मा पर माने के लिए प्रत होता था। रिमोद में माथा और गाधिन'द मिल जाते है। गावित उस गाने वाले के लिए प्रयुक्त होता था। वैदिक संस्कृय के पश्चात प्रा में हार की माथा सप्तशती जैसी सुप्रसिद्ध रचनाएं मिल जाती है। बौद्ध साहित्य में भी को रममा ग्लोबध हो उसे गाथा कहा गया है।इसके पश्चात अपक्ष में माता शब्द या के लिए प्रयुक्त मिलता है। यह गाहा संस्कृत गाथा का ही स्वस है। गामा शब्द का प्रयुक्त भयो को देखने पर मह कहा जा art किया अब भनेक ज्यों में प्रमुखमा मिला। बौदों की बेरी माथाएं, ग्राहमण अन्यो मैं मी माझ्या अंगों के बीच में प्रयुक्त पय त्या लोकी को गाथा का यावा । वस्तुतः वैदिक संस्कृत के पाबाद गाथा प्राकृत का प्रमुख छन्द बन गया था वैविक काल में पी के पदबद्ध रखनार यो यम के समय गान सुनाई जाती थी, गाथा कसानीसार प्राचीनकाल रविवाकिसानों और पौराषिक पाण्यानों को माया बाबा भाव " गाया और गाभा नारासी ग पिको। र रामानोकायिका म्यन मले पर उसने माया अब सिप मो मान्य प्रायो। मुशार माणा को लोक गायिका या पान या मा होगी तमामा बा | माथा में बोवा, गौरमा की प्रान दोनों का होना बाकी होता है। पाथR ध में माओकों का महत्व नहीं लाल मिानों के अनेक मा बल होते है उदारमा - मायामोहरा बा इन्द्रागिय पविनोद Page #818 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७३ स्टेन्थल इसे जनवादी कहते है विश्प पी चारणों द्वारा प्रणीतागिम गाथा को एक व्यक्ति की सम्पत्ति नहीं मानते समूह की उपज मानते है।रलेगल का इष्टिकोण सबसे अलग है वह गाथा की उत्पत्ति में व्यक्ति विशेष को उत्तरदायी ठहराता है। चाइन्ड गाथा के सर्व प्रथम निमान में व्यक्तिवाद को तो स्वीकार करता है परन्तु उसमें किसी व्यक्तित्व विशेष (परटीकुलर परसने लिटी) का अस्तित्व नहीं मानता। इसमें सत्य क्या है यह तो नहीं कहा जा सकता परन्तु आलोचकों ने गाधा कीउत्पत्ति में लगभग सभी सिद्धान्तों का सहयोग बताया है। जैन साहित्य की प्राचीन प्रतियों में प्रयुक्त गाथा शब्द भी आख्यान तथा छन्द के ही सूचक है। १५वीं शताब्दी में उपलब्ध होने वाली अनेक रचनाओं में वो गाथा छन्द के लिए ही प्रयुक्त हुई है। गाथा शब्द के शिल्प और इस चिरप्राचीन आधार पर यह कहा जा सकता है कि गाथाओं में जिस मास्यान का संकेत है, वही परवीं काल में क्या परित काव्यों के मूल में रहा होगा।गाथा ने परवर्ती हिन्दी साहित्य को भी पर्याप्त स्म में प्रभावित किया है।मुक्तक साहित्य और गाथा सप्तरती की भावि हिन्दी में लिखे गए सवसईबन्ध इसके उदाहरण को ना सको है। अत: लोक साहित्य तथा शिष्ट साहित्य दोनों में माथा बब्व इसना अधिक प्रचलित था कि इस नाम से स्वत्र ग्रन्थ ही उपलब्ध होते है। लोक गाशा बडी बनप्रिय होती इनकी परंपरा भी अनुश्च विवध दी। साथ ही इसमें मेला, क्यालय, अलंकरम रक्षितता, पदों की पुनरावृत्ति मूलक टेक पद, स्थानीय रंगों में बराबोर, नीतिमूलकवा, उपदेश तथा प्रवाहपूर्ण ने काव्यों की माथाएं होती है जिनका रविता संवैव ही बात राता था। राजस्थानी या बराबी काव्यों मा वातानों में इस बरा के का अमित मामक या प्रेमाम्मान गा माल का प्रबन्ध, महेन्द्र-भूमल, मणिमा, साविारमादि सिमा यो उत्कृष्ट गाथाएं कहीं जा सकती - दे वी साहित्यकोड ..४८ प्रकाशमान मंडल काशी, प्रधान सम्मान डा. धीरेन्द्र वर्मा। Page #819 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७४ है । पाश्चात्य साहित्य भी अंग्रेजी में बैठ को गाथा का रूप दिया जाने लगा है परन्तु लोकगीत को गाथा कहना बहुत समीचीन प्रतीत नहीं होता क्योंकि लोक गीत में सभी विशेषताएं नहीं होती जो गाथा में होती है। जो भी हो, उक्त विवेचन से गाथा की प्राचीन परम्परा और कि का परिचय मिल जाता है। गाथा संज्ञक उपलध हिन्दी जैन कृतियों में छोटी छोटी रचनाएँ उपलध होती है जिनका विल्व भी माथा की मेयता से ओमोद गाथा संजक छोटी छोटी तीन रचनाएं मिलती है। यों तो उपलब्ध जैसा तथा माख्यान मूलक लगभग सभी चरित्र अन्थों को गाथा कहा जा सकता है। परन्तु गाथा नाम समिति की जाने वाली निम्नांकित रचनाओं का साहित्यिक दृष्टि से कोई विशेष महत्व परिचित नहीं होता उपलध रचनाएं है: १- मंगल माथा १- आशकिमाथा ३० कम्म भूमि गाथा ये तीनोंरचनाएं जैसलमेर के बड़े मंहार की है। खनाएं अप्रकाशित है काव्य परिचय के होगा। इन रचनाओं में छन्द प्राधान्य है जान भी लिए एक उदाहरण गाँव है: जो गंग विरराव ना विहि किन जो मार देवि नर जो यह पावना बनाइवि सिम्ब जो गरम विकलाई दिन्च, बदनावर हि बोरिति दृष्टि से ही को ही होगी। इस रनामों में स्थावत्य नहीं के बराबर है। का नाम मात्र है। माथा की परम्परा सम्बन्धी विवरण को कथात्मक या रक्तायों के लिए बना जा सकता है।वह भी सम्भव है कि रचनाओं की ठीक से सोच नहीं हो पाई रक्तावों में याथा Page #820 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७५ होस्ट और शोच होने पर गाथा मूलक अनेक कथा प्रधान गेय रचनाएं उथलबुथ हो । रेल्या / teer क जो रचना उपलब्ध होती है उनके आधार पर वह कहा जा सकता है कि परम्परा की दृष्टि से रेवा बन्द बहुत प्राचीन नहीं लगता। अप मैं मी वास्त्रीय दृष्टि से रेवा के नाम पर कुछ भी नहीं मिलता है । परन्तु इस जैनकृतियों में रेवा नाम से अभिहित कईरचनाएं उपलब्ध होती है। वस्तुतः रेलआ शब्द का अर्थ रतिया या है।वह बैल जिससे मन को आनन्द प्राप्या हो, मन की रुचि हो । मनरली, रलियामा मादि द कहीं कहीं प्रयुक्त होते मिलते है इनके आधार पर यह कहा जा सकता है कि मन की कवि से परिपूर्ण को जो उल्लास प्रधान होता है रेलमा कहते हैं। एक दूसरी प्रमुख बात यह है कि राजस्थान के लोक area का अध्ययन करने पर रेलमा शब्द लोक गीत के लिए उद्धव हुआ मिलता है। अतः यह लोकमी का एक प्रकार था ।धीरे धीरे यह रेजाइना अधिक व किली कवियों का गाया काव्यकारों ने इसे काव्य में प्रयुक्त करना प्रारम्भ कर दिया। लोक साहित्य की वह बैठी धीरे धीरे इतनी अधिक प्रति हुई कि कालान्तर में हर रेकुमा एक प्रकार का विशेष ही का वारेना पर इससे अधिक जानकारी उपयुध नहीं हो सकी। सम्भव सके। है कि इसमें बोध होने पर रेवा के नये विकी दृष्टि से अध्ययन करने पर रेवा लक रचना भी महा के तिगान की होती है जिनमें उसके चरित्र की बाकर्षक या सर्व परिलक्षित मीठो गीतों की पर लिये जाते थे, जिनको उल्कार में आकर का बाता रहा होगा। वे रमार्थ मे या लोकतत्व को लिए होती है। रेतुना करनारे मिलती है उनमें अधिक तो नहीं मिलती पर जो है उनमें भी काव्य की दृष्टि से साधारण या की उपलब्ध होता है। लोक Page #821 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७६ गीतों के बत्वों का बाधार लेकर चलने वा इस बेटी को शिष्ट साहित्यमें प्रचलित करने के कारण ही रेल्बा महत्वपूर्व रना प्रकार कहा जा सकता है। माय कवियों के रेलमा काव्यों का रेखा के शिल्प को समने के लिए अध्ययन किया जा सकता है। बों की एक होटी सी रचना है जो सलमेर के भंडार उपलब्ध Tई है। रजनाकार भाव है। वि में प्रारम्भ में ही आपली मा टेक के रूप में बहु रतु मवि रलिया जाइए.- एक बड़ी दे दी है। काव्य की दृष्टि से रचना साधारण भाषा वीं बाइदी के बापान की है।रमा मेय और कम प्रचलित है। मानों के उपकल बरित को अपना बाबा बनाने के रूप में मिल गई है। भाषा का प्रवाह और बाद ममत्कार दृष्टव्य है: देसन र वि अश्यारित गल मावि कर दिय माहि मोड काजल बना सच था धम्म विउ वित नामा गावि गyिa लिामर नामिनि मिडिया माडि विपरि बाल बन्या नि माविकोहरा मिति सहित निकास यि सत्यक समान बाबा मामिल रहा बाममो इमि पर पशिक्पि संचाधिरि बाबा () मबरस केस मान समाचार रामबाण बाबा मरि विमरिया बस मुभिमा ) जीपालमा रेवा: हा सिसी यह रचना भाषा और काव्य की Page #822 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ও ও ও दृष्टि से यह रचना साधारण है पर लोक मीत की भाति गाये जाने के कारण यह एक प्रकार के पद की भाति प्रयुक्त होने लगी और प्रारम्भ में चली और फिर एक उसी झी को बार बार इहराया जाने क्रम मिलता है। गालियन के अनान कर देवलोक पहुंचने के सम्बन्ध रचना १ छंदों में समाप्त हुई है।रचना अझ्यावधिवप्रकाशि। मूल प्रति कलमेर भंडार में है Om की प्रति लिखी गई है। रचनाकार अशा रमा ४वीं शताब्दी की लोक पाषा मूलक : लन सोसिय गरीर अविर विडिल देहडिया दवे दड चना माइए सालिम अभद्राधरे पाता तक किपि न लघु जब देव मुनि मल मतिम गात्र के संचारिया पहना उडटर दकि सिरि विरवहनारि असीमि दीन सालिमा उरबसी पलोट प का उपE पारि णिधिन इस पर बीवियर भसमुपहिया गय मारिनेमारि कार समिति प्रमणि ठियवर भाषिक माता पब मारि मय दामपि न मार द्वारा पुड्क बहु सिगारि कारिवीर विवि इनि म मे रिवार (an का मिला मायामा मनात विरिया व होगी बोडियम बना . इस प्रकार पूरी रखना बरिस्का को मान । काय की दृष्टि में ऐसी रमानों का नामावam माटी व शा भाषा Page #823 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७८ मुराकळी रेया। ॥ गाधानों में किसी एक ब रमा पुरावली रेल्वा मिलती है। देवी रेलया में लिखी यह लोक गीति मुलक रखना चोममूर्ति की है। प्रति जैसलमेर के दुर्ग बंडार में पुरवित है। मुावती पटावठी की मावि जैन गुन्गों के का वर्णन है। वन माध तथा प्रवाहपूर्ण भाषा की दृष्टि से रखना सरत है। भाषा की परलबा और काव्य का पुरावलीन दृष्टस्य : मरजा पहाण गुजरियहा विव कि उ विय लोबमार ए मुक्ति रममि जिम मह बरे वाचली ) जब अंगई विवरण मिशेष अमि जिल बाचारिक नव किरि अभियाई जम परागण ममारि को गाय #ज र वार्षिक यो निम बडु इलाज हरि सिर ढक का निमाड स संग बह निम्मलन तिहुयन मबहरू वा नाभि इरिया नाद (४) बामा निमा नयाय बाय बर पर शापि नाति भूरि यो नि मायापति परिपुरि बह र मिति विनिमावि गोमन सब बा जिन पर रिवीह पाना भाव (0-60 कम पुरावळी को मनाth. सा पुरावाहिको पढायो मनि पारसी से वाया बोक्ष मारोबारा बाकि देर (10 इस अयमा परम्परा मान रेवा में होने से इस रचना का माल पुरानी या प्रकार रेखमा तक रखना होटी, बेय wrm ग निर्मित प्रधान है। कामी इष्टि मा बाधा की और की कई रकमा तिमी जिनमें के at ( चिरसि पुरावळी नियईधमान मणि विरचित Page #824 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७९ अपाममा पूर्वावली आदि प्रमुग है परन्तु काव्य की दृष्टि से रचनाएं साधारण है। चारायण शक रचनाएं पी प्रधान है। गहच मात्रिका रद का एक पेद है। इस मद में भानु ने गे सन बवार है उस नियम की प्राय: कवियों ने उपेक्षा की है। वीराज रासो में प्रमत इस छद का प्रयोग बन्द ने किया है। सूरदास में भी बान्द्रायण कि गावा है। इस छन्द का सामान्य लयम .. कुल २५ मार था , पर यति मात्रा जगण में मैं ( m, या "मात्रा रगम व्या अ मिलता वस्तुतः महन्द मालपम दिकवि प्लगबमिलता जुलता है। पुरवासने पदोंटेक के सय में इस छन्द का प्रयोग किया है। कवियों ने इस छन्द को इवनी अधिक प्रसिद्धी प्रदान की कि इसके नाम से उन्होंने रचनामों का नामकरण भी प्रारम्भ कर दिया। बस्तु चान्द्रायन की परम्परा प्राकृत से भी मिल जाती है। रचनाएं विलेपन बाक्ति: प्रस्तुत राना बनेर के माहारा गति । रखना । रमा जियोरिमा यी है। जियोषीय रामा कवि मी सस्या और या यिा । का र माविकी होता यो कठिन और विमा प्रधान होकिवि उपासना में इनकार चिनप्रबोष e morरला की नवीनता, .-भाली विमान कीषिक देशि भानु प्रभाकर पु.९५५-५६) + मारव वीर सागरण ब्यो-देखि रखामर-मब १५० Page #825 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८० अद्यावधि प्राप्त सभी रचनाओं भिन्नता प्रस्तुत करती है। रचना भाषा को देखते डर रवीं शताब्दी के उत्तराध की परिलक्षित होती है। पूरी रचना ६ गाथाओं मैं लिखी गई है। कुछ उदाहरण देखिय: पढन र पढमनाडु निरक्षण विहरं मरि पुरि संपत सामिकुमर परिपत्र कवि ज्ञान के साकार स्वस्थ जनप्रबोधिरि को भक्ति से नमन करता है। जिन प्रबोध चन्द्रमा की मावि सुषित होते है: बंद निम्बल नाम निहि जिन पोडणीसु लव गोषु वर सूरजनेसर सीसु ।" 11 सी विषि सरह सुरिस गुण सायरो लपिकिरि अवयरिय गोथ्यो मनहरी उल कविंद विवेन बंद पड़, नाम निहि ॥१॥ ates सायक चंद जिवि पवोह मुनिराज वि कुमय पढि बोडयर विहुवणि जो विक्साउ ||१|| जोय farera गुरु पद्म जिम बल्लहो, मंद पुत्राण जंत्सम जो इल्लहो । fare म्हाइ जो सब क्यु बोडर बंद समुर सोहर ||२|| इस प्रकार कवि ने के ज्ञान का बाद वे बाधकर ज्योत्सना भी बोच faeमों का प्रकाश किया है। अन्तिम पद में का यह मान और भी विवर उठाता है। जिसमें कवि ने सामर को बारा रवि को और कद्रमा को कलंकित कराया है घरों में वे विप्रो को विन मण मेड- कवि उपमानों की उपमेय के समय अपनी आलंकारिक रैली में कीका सिद्ध किया है। वन की स्वाभाविकता उल्ली : सामक वारस रवि किमि चरिक विषयम युग महगे | ॥१॥ नेउवभिन्न किम्मतक डुक्कर तब स बाबा का जल वायरी- (२ ।।चंद्रायना) Page #826 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८१ इस प्रकार कवि ने एक दोहा देकर उसके दिवतीय विषय चरण की पुनरावृत्ति करके मौलिक हद बनाने का प्रयास किया है।खमा भेटी, परस तथा अपच के शब्दों का आधिक्य लिप है वो उसकी प्राचीनवा सिद्ध करती है। पूरी रना भक्ति भाव में डूबकर गुरु दक्षिणा के ममें कणि ने लिखी है, ऐसा प्रतीत होता है। - श्रीजिनेश्वर सूरि चंद्रामा - १२ छन्दों की एक और रखना जिनावर पूरि चन्द्रायणा उपलब्ध हुई कवि प्रारम्भ में नमस्कार करके रचना प्रारम्भ करता है। इस स्का में भी जिन प्रबोपरि चन्द्रायया की भाति बिनेश्वर धरि की पूजा की गई है। पतु इसमें कवि ने क्या सम्पब दो परिवर्तन किया है। रचना गेय है तथा बार बार पुरे बद का प्रयोग बड़ा सुन्दर लगता है। माषा में अपज के शब्दों का बाहुल्य है। कवि रचना का प प्रारम्भ में ही स्पष्ट कर देता है. हहि पंच परि विक अमिम्बा करिघरवरपारंगो पनि मरि पिपिक पूरि दिन विहान मुबमी रामगड भवन नि बाब निति करा कोदो होम मिनि विप्पा चिपि पर हरि पडो (१) बामेरमा पनि प्रबर की मामा और प्रभाव का वर्णन किया मा खना से भाषा वा सादरीके स्वराध की परिकति होगी। रमा का कती माय गर, पाप, म. ममापि गानों समेत रहने वाले मारवे वाले विनयर रिलिए लिली मई : प र बायो रे बर बर Eि पुष मणि करंडो परेपदिय निवास पर बारी, मुबई किन रियर पुीि बीरो को तिन धन राशी विसईया भूमि तिवाया Page #827 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हे वित्त मह जस जसावडी, कहहि कामत्त जिमि सरमणीय उरेचन्द वर पन्छ उसख धीरो जुरे सयल अवय आगमगहीरो जुरेकाम धरि बडह जग मैक्दो किम्बाई वियप पुषिवरियो (५-) रचना में कवि ने व्या स्थान हान्य परिवर्तन भी किया है जिससे उसमें मेयता बनी रहती है: मुसधि विधान सभामुरे र मयण भगा मम बलम हरे पिडि पड़सि निगमर यूरिया नववा न मान चार से (१०) गय गुडिडय पक्सरि वरद मन करहि भयन मन चलडिवर्क वह वापिनेसर हि मुमत पर नहब न गुडिय गर्व इस प्रकार छोटी सी रबमा होने पर भी इसका अपना महत्व है।काव्य की दृष्टि से रचना का महत्व साधारण है। पर रचना प्रकार की इस्टि से बान्द्रायन का अपना स्वत्र महत्व है। विपकिका, सन्ततिका, आदि की भाति अष्टक तक रचना भी उपलब्ध होती है। इनरमानों के पी या कार्य करती है। माम्दों में यो रमा सम्पूर्ण होती हो सम्पवयः कवि ने उसी रचना को मटकामटकपी। स्त्राों की मालिक और मावाली मा होतीकवि उल्लारप्रधान आठ छन्दोबोकिने माल का पुन मान वाटक कालान्तर में कोई बन्द विममा होसी बीविय नहीं हो पाती। बस प्रामा रसमानापार पर बीमा पाकिमयों की ही प्रधानता Page #828 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८३ - जिनपरि अष्टक - काज्य यह रचना सलमेर हु बहार की एक अपूर्ण प्रति के उपाय विसकी प्रारम्भिक पलिया पंडित है। रचनाकार बात है। पूरी रचना में रचनाकार ने कामदेव की बिनभद्रसूरि लिए ईस्वी का वर्णन किया है।यन की प्रतिपूर्ति जिनमरि काम के साथ युद्ध में कभी नहीं हार सकते कवि इसी लाय से निभरि पर प्रस्तुत गटक सिता है। रक्षा में भाषा और काम की मरमा गया था जब मुनावि मयत मुहारमा मन्धिय र मार प्रान टका बब बजिय बरस बरस मार मार पपिदिय वापिस धवल पुरंधर राम नाग सिंमार समापिण हथियार पाव रह सय परिय मैति निश्व पुरंग दल तव मयन राम बोल सक्क परविमति बप्पा परमि भषा मुषित शभा अम्हारर, का माइमा डावा बाट बरबारमार मा सम्मिा wिas किस प्रकार शिवाने पर काम कर लिया अपनी बारी माकर प्रयोगा। और साकार काम कराया है। बाबा रामसी का समय किलोरियों की मोडitin होगी और ममत्व अष्टा निमा गरमाबार रवि इनि इनि र - लिपि मर मि बोलामा निनिय हुन पसमा बम पर। Page #829 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८४ मोड कोड उद पमुह मया राय पगड परपि भइ को कार महक्यापि न लगा सोमयण राव बल बल पति रिमा गुच रवि पाडिया खरतर मछि जिनपद मूरि जगि जस पडा बना विक (or) इस तरा जिनमा सरि बष्टक पूरि बी के साधन पथ में गाने वाले विकारों के निराकरण का काम करता है। एना प्रकाशित है। भाषा की दृष्टि मेरमा 1वीं बवादी उत्तराईब की ही की गा सकती है। इसीरवना की पाल एक अन्याष्टक तक रचना कमभूमि माथाष्टक और मिलती है पर शाकाव्य की दृष्टि से महत्वपूर्ण नहीं है। विषय प्रवान: विश्व प्रधान रखनामों विलय का वैविध्य मिलता है और कार्य विजय के आधार पर ही इनका अध्ययन प्रस्तुत किया गया है। यों तो परित, पनाया काव्य तथा प्रबन्ध संशक लगभग मी काव्य विषय प्रधान ही है लेकिन माक्ति रखनामों के विषय में वैया वैविध्य मिलता है या पूर्ववर्षिक रमानों में नहीं मिला। इसीलिए इसका सब स में शियन पेक्षित मा गगा है। •परिणाग वारिपाठी का मामा पालों पर ली है। मन्दिरों की विविध प्रकार की मामा मा विभिन्न नियों की परिमाडियों m मारवारी रमाबों का नामकरण मिाया। बापी- नवान्दोकीयाका बोष माने के लिए को पक सपी मिली री रकमानों में हो। चैत्य परिपाठी, व परिवागावापाडी वादिपिल गाजे जो सब एकी नाव परिणामी बावकों ग नमन, मैला व्या पाना आदि Page #830 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८५ सभी आ जाते है। उपलध चैत्य परिपाठी संज्ञक रचनाओं में जैन महास्त्रों तथा प्रसिद्ध तीर्थ स्थानों के चैत्यालयों और वहां के तप के प्रभाव वर्णन मिलता है। चैrय परिपाठी शक कई रचनाएँ मिलती है ये सब रचनाएं एक ही विषय चैत्य वर्णन सम्बन्ध रखती है। इनमें वैविध्य भी है परन्तु प्रधानया वस्तु वबैन की डी है अत: इन्हें विषय प्रधान कहा जा सकता है। कुछ प्रमुख रचनाओं का विषय उल्लेखनीय है - श्री चैत्वपरिवादी प्रका श्री जय चैत्य परिवाड़ी रचना जैसलमेर इर्म भंडार में सुरक्षित है। रचना है तथा कृतिकार है श्री सोमप्रभमनि। रचना श्वादी उत्तराय की है भाषा आदि को देखकर यह कहा जा सकता है कि प्रतिदिन गाये जाने के कारण में रचनाएँ बड़ी लोकप्रिय रही होगी। पूरी रचना १९ छेदों में ली गई है। प्रस्तुत रचना का विषय जय तीर्थ के वैत्यों क्या देवताओं का वर्णन है। रचनाकार ने रिवन की वंदना कर कृति को प्रारम्भ किया। कृति में आराधना और उपासना आदि के वर्णन है ताकीनी है: के सामने की मी वाद विनेरिडि नचाइ ठोक्न शनिवार भई नवराि कठिनाइ कुमार दिन पीक (१०४) कवि ने मन्दिर में स्थित भी नामों का स्थान क्या सम्भव वर्णन किया है पारा से नमन किया है। गाया वर तथा परिवाड़ी का प्रतिकि वैत्यालयों में पाठ होता है। कवि की। ते दोहों के पूरा काव्य लिए है। माया के प्रवाह कवि ने विभिन्न चैत्यकुलको देव वा क्या है। उदाहरण : Page #831 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८६ tea जग मोडियर लोयन अनित थाई तीरथ थोड़ा माहि बवि अवयव जहि ठाइ देव कुलिय वाजतरहिं बात बिनवर देव अट्ठावन सम्मेय मुड कर तीरथ सेन मह इयारिव भोरडिय गुरु र वडिठाइ गोवा मंडप जाइ करि गगहा निभिवई पान मंदीर वरि भाउमा दीदिन वेइय रम्म वार विमलगिरि वाद तो डिय कम्प निमावंड निय बरिय बति हि मम मा इन मंडप दिन बाइकरि रक्सि जिनवर विज्ञ वामिने नमा सावन स् पूज सब जुन स दीख किरि गिरनार (१९:२३) जन्त में कवि चैत्य प्रवाड़ी को सबसेपने को प्रबोधकर मंगल की कल्पना करता है: पहजि चैवाडिनर पढ मुमईनि सिरिया निपाति Rear are der वन है। काव्य की दृष्टि से अधिक चमत्कार उपलव्ध नहीं होताहै। : श्री पेय परिपाठी : भादराय में काँम अवतार विरचित परिवा हीरा के कवि थे और उनके द्वारा रचित विविध की रक्ना २१ दों में लिखी गई हैरत है। रचना में कवि ने लगचम १- पाटवार: विजय जी संग्रहः सत्क प्रति पा०२-१०। Page #832 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८७ सभी वीर्थ मन्दिरों और प्रसिद्ध स्थानों की चैत्य प्रतिभावों का वर्णन किया है। सागर १५ शताब्दी के कवि है अतः उनकी मरका प्रवाहपूर्ण वथा अत्यन्त सरल है। यह चैत्यपरिपाठ अप्रकाशित है रचना में पाटण बडल्लीपुर, रायपुर सेमुंजगिरि गिरनार तल्लोक, पालीताणा, नागढ़ बादि अनेक स्थानों के वर्णन है रचना afarers तथा सरल है। कवि ने वंदना से ही काव्य प्रारम्भ किया है: मनोरंगि भई आपण बुद्धिमानी व बार फिरीबंदियई चुंबनसामी # व बादि वे वंदिया भावसार बली ते जिने बंदिमा बार बार काव्य की दृष्टि से रचना के एक ही उदाहरण दृष्टव्य हैं: परमार्थद अपार बारबार मन उल्हसिय डिज गिरिसह सनि तर्हि उसीसम रायणि वलि प्रमुपाय त्रिणि प्रदक्षिण देकरे मयि सल्लोद्वार कर विमलमिरि वर हिरे समत गीकार, सार व्रत उरि आपण परि सिद्ध बेजि सुप्रेमि या संतान संचिता वा कुमविषय . समस्त देवून जागि -NTE - प्राय (4-6) हिडि डि मला पास देहिमाड डेवनी पूरी (१६) इस दौरान देविया महान क्रिमदेव मानत्वा देविया कागदाच समा महासागर बोधि लामा (११) Page #833 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८८ इसी प्रकार पूरी नामें कवि ने लगमन सभी प्रसिद्ध जैन तीर्थों और जैन रचनावों का बर्षन दिया है। गन्य की दृष्टि से रक्षा गाणार है। प्रस्तुत चैत्य परिपाठी सोरठा और बस में लिखी गई। - श्री नगरकोट ती त्यपरिपाठी मुनिजयसागर की दूसरी रखना श्री नगरकोटगी त्यपरिपाठी है रचना प्रकाशित है। कवि ने प्रस्तुत रचना मगर कोट के तीर्थों का बारकारिक वर्षम किया है। कवि ने मन्दिर में बिके नगर कोट वी मन्दिरों का भरस तथा चित्रात्मक प्रकार प्रधान वन निगव्य और पापा की दृष्टि से रखना के कुछ बरस स्थल उल्लेखनीय है।मन्दिर में स्थित देववानों का विभिन्न इन्टायों इवारा बन देशिप: बिमहरि बीमारी मनि माधिकरेट मनगर बोपनमा बिपदराबा विवि वी सोडवप मावि मारा बाबीड मारिवार राम बराल चिम माrane किलित (1) यावारिनिवासिाब गोगाMammam - - पाटर - Ant Page #834 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८९ नवपिबि पुषित बम बिनसर व जण नकोड या सणी पामा परमाद पाधि पर कोटिलय मामिल भी पिरामि महमन कोडात विमा शुष अंगाराम मारिरि नि भवनि र प्रविषिया य देवालय कोठी नारि र वीरजिण देव -" इस प्रकार न बैरवपरिपाठीक रखनाओं में वर्षों और मन्दिरों में स्थिर देवताबों के प्रभाव का वर्णन मिलवाने बनाए केवळ पास की दृष्टि से मात्यपूर्ण है। सिपी मोतिमा पर गाय की दृष्टि इनो उतनीय गों का मान पारितषिद्ध होता। . बाराबाया. पारामा काबर रगडबवाह बरस और बिगर बालाजामा नाकामियों को मारी की onld, ग पान मार रमन, रत्न माया पर गरगावापाशी परम्परा पर विचारले तिरमा वाम मालिकाना ही परमात साली गावधि मातीकों का पापण मी मी मुनि किस बीमारामाणिमाला -बिया- प्रा . Page #835 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२० उसमें बारामाने शक कुरा फुटकर वर्षमा प्रा में मिल जाते है। उपलथ होने वाली रमानों में पी डा.नामवर सिंह ने बारामा सर्व प्रथम रचना नियन्त्रपूरित नेमिनाथ विका-को अरावा साथ ही उसे अमल का भी कहा है परन्तु दोनों ही पीक नहीं है। नेमिनाथ बम्पविका अपांव की रखना नही होकर प्राचीन राजस्थानी का पुरानी दिी की रखना है। नेमिनाथ बम्पदिका काम पर विस्तार में विचार पिछले मरमा संजक रबमानों के अध्याय में किया गया है। मेक्मिा एक दिका एक तो मप की गति नहीं पुरानी हिन्दी की है। मां की खमानों में भी नारामामा सशक एक प्राचीनतम रचना उपलब्ध हुई है जिसका नाम :मारनाका-। यह रफ्ना श्री अमरबंद नाडा मे प्रगति की है। माया ओरिएन्टल सीरीज से प्रकाशित पनस्थ न माडरीब अन्य सूची का प्रमाण में वाइपीय प्रतियों का जो परिका ाि वा उसमें धरि साहिबार अपांच रचना की प्रारम्भिक की गाथाओं और अन्त की में उदयव १० गाथाओं का माम श्री गांधी ने पी- बारमा वादा मार पर दिया है। वस्तुतः अपार की भयावधि उपाय बारहमायरों में बा रसा प्राचीन अपनी बारहमाग पुरानी सीमाविकालीन रबमानों पीपरhिinान्य विमान विNिTE-पी निमारमा का for" - ma लामिण्या-माविषयी। वामियोमा गाभार TETam नवीन... :-सलमानावारीबी -वामा ओरिएन्टकरीब सारा Page #836 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७९१ जैन कवियों द्वारा लिये बारहमासे १वीं शताब्दी से प्रारम्भ हो जाते हैं तथा प्रत्येक शादी के उपलध होते है। १वीं से लेकर २०वीं शताब्दी तक जैन कवियों ने भारतमा की इस धारा को अव्याहत आगे बढ़ाया है। सी से भी अधिक बारहमासे नाहटा जी के संग्रह में विद्यमान है। इन कवियों में सामान्यतः चैत्र मसान्त से ही बारहमासा प्रारम्भ करने का नियम है परन्तु भिन्न भिन्न कवियों ने अपनी कवि के अनुसार किसी मी मfe को मुख्यमानकर उसी से वर्णन प्रारम्भ कर दिए है। Array or aमान्यत: विषय विरह वर्णन होता है। ग्रीन वर्षा शिविर आदिरियों में विरहिणी नायिकाओं का जीवन विप्रलंभ पूर्ण हो जाता है अतः बारहमासों में विप्रलंभ अंगार ही प्रमुख रस होता है। अन्त में मिलन द्वारा कवि रसनिष्पटिव में सहायक होता है कई बारहमासों में मिलन नहीं भी हो पाता। ऐसी स्थिति में पैसे बारहमासे विप्रलंभ में सराबोर विरह काव्य बन जाते हैं। संस्कृत का मेघदूत, अपच में सर्वेश रासक और पुरानी हिन्दी की विनयचन्द कृति नेमिनाथ चतुष्पदिका ऐसे काव्यों में से हैं जिनमें बिरइरस पूर्णतः छलकता है। areerat aafe को अपनी काव्यात्मकता और वर्णन erwear feear का पूरा पूरा मनसर लिया है। तो यह है कि यह व वर्मन ही ऐसा है, जिसका माविकाओं के माध्यम से रियों का जील पर प्रभाव स्पष्ट करता है। रिहन्द और उसके उत्प्रेरित रिगान, कोयल और पीछे की वावी, उबीच के उपादान आदि सभी ग्रत्य जीवन में एक और भी उत्पन्न करते हैं। हमारा के प्रकृति और मानव इस और प्रसिद्ध है। ठोको बिर भी अधिक उल्लास और बाद की वर्षा करती है। विभिन्नों में होनेवाली रिजनों के अनुसार उत्सव, व्रत तथा रिनाब बीकन को ति करते हैं। और उससे जीवन में एक महरा प्रभाव पड़ता है। इसके अतिरिक्त रितु जब हमारे बानपान विवाह भोजन Page #837 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१२ आदि को प्रभावित करती है, गनोत्सबधार्मिक क्यिा प्रक्रिया, आदि सब पर जब रितुषों का अनुभ्य प्रभाव पड़ता है वम रितु काव्य अपनी समस्त मधुरता मे अपिभूत होकर अनुस्यूत क्यों न होगा। रितु काय के नून अंकुर और किसलय को नहीं भूटेगी मेवों में रियों के सम्बन्ध में अनेक सूत्र मिल गाडे है। बस्तु रिकाम्य एक प्रकार से जीवन से समझौता करके चलने वाले मर्मगीत है जिनमें फूल भी है तो कभी पीन पी है दो पल भी, बामद मी है तो वर्ष भी, विरामी है तो मिलन भी। बारहमासे निवेश प्रति भौर मानब के शिस्तन प्रेम और अभिन्नता के प्रतीक काव्य मारहमारे लोक जीवन से सात लोक काम्य है। नरनाओं को आज पी राजस्थान में सूब गावा पाता है। जनता की कवि का बाबान करने में ये काव्य बड़े मनात और सवम है। अजैन विश्वामों ने की अनेक बारामा विपरन्तु जैन कवियों की मावि उममें लिखने की क्रिया और परंपरा का अभाव होने के कारण रसायं पुरवित नहीं सकी। उनतर रचनाएं प्राचीन नहीं मिलती।हिन्दी साहित्य में भी बारहमानों का वर्णन बम गायसी से पूर्व अध्यावधि नहीं मिलता था। वर रावस्थानी ग्रन्थों में भावानल कामवला बारहमासा मिला है। गलपि अधिकारवारमा काम तिा लिन और न पर कवियों हमारा हि बारहमास वस्तु के बाद को बायो। मारकमामानों ने पी माओरी पीगर मगर गावटी की प्रतिमा बारमा चिोप्राचीन रमाइलो पति और रीतिका वाय, ra हिारी वाविवारनामे किलो मानों m on 1.ma.nलीक, स्लोक 1-01 ..हिन्दी पोन वर्ष. .. पर श्री अमरबन्छ माटा का लेख। Page #838 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७९३ में बल्लामाह समद काली, महम्मद पुरमही अहमद सैरासाह आदि मे १९९ पदयों तक के बड़े बारहमासे लिखे है। नादिकालीन हिन्दी जैन काव्य में उपलब्ध मारहमासों में कु का विक परिचय यही किया जा रहा है: सेमिनाथ सुम्यादिका नेमिनाभ बम्पदिका ने ही हिन्दी साहित्य में सर्वप्रथम बारमामा को प्रारम्भ किया है। मे भिनाय बम्पदिका राजमती के विरह और विप्रलम का एक रंम चौध है जिसमें कवि ने राजुल के विरह को अपूर्व तल्लीनता क्या काव्यात्मता सेसंजीगर है। रचना के काव्य पर पूर्व बम्पविका संजक रवनाओं वा अध्याय में प्रकाश डालामा चुका है। - नेमिनाथ बारहमासा राम्रो । १४वीं वाइवी के उतराईघ में यह रमा मिली है।यह बारहमासा अपूर्ण है। रचयिता का नाम पालम है। प्रस्तुत रचना की प्रति १५वी ताब्दी की उप म त रचना १४वीं जवाबूदी की ही हो सकती है। रमा कि पीने साब पीantertam - भार मार पौष की मिसारमा की पाना परसबार बार का मामा है। क रन का यदि राय होता तो रखना काय ललित्य मार मारण्या लिपी गोपी परिया प्रानसागभयान और पापा परिवतिय पनि हो - + बीगर में पुरविता Page #839 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१४ कासमीर मुख मैडम देवी बारसरि पाल्नु पममेवी पद्मावतिय बक्सार नामि कि देवी कई बीनवउं परिल प्रयास मे पिम मे कवित्व गुण सम्म निवासी गिन राइमा यिोग पयो बारहमास पयाम रायो भगइ विजयप रायमर पाम धीर बामवचारे परिकरि देव न दोष दिनु गामि मया करि गिरनारे। साववि प्रथम का मेहो पावसि पर मैपि विडो खु मोर लाई अबगार बह विड बीज सिवई फवाह कोयल मार क्या भवरवइ विवीड उपाह कोई गाव मैमि निषिवं विशु पर मारि किम गमगड गाए रचना का नामकरण कवि ने राम किया गयषि प्रस्तुत षड़यों के रचना में राम की विशेषताएपरिलक्षित नहीं होती पर कविप्रारम्भिक को मर राम लिने के संकल्प से यह स्पष्ट है कि रचना अवश्य ही बारहमासे की वस्तु के रूप में राम में लिखी गई होगी। पूरी रचना के प्राप्त होने पर संभवतः रचना शिल्प का महत्व स्पष्ट हो गया भारबमा का प्रारम्भ कवि ने पद्मावती, वायरवरी, पनावडी, कौमारी या अविका गादि देवियों को मार दी है। रखना बारहमा वर्णन सामाविक नया सीख होता है। दीरारामन्य रसिला मारामाग मारोगा राय काय का प्रणयन किया है। - बारीगर कति प्रति विवाम *. १५९ Page #840 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूरी कवि कवि ने बारहमासा प्रारम्भ करने की अपनी ही मान्यता रक्सी कवि चैन से प्रारम्भ न कर बारहमासा मार्गशीर्ष से ही प्रारम्भ करता है। पूरी रचना कोश के विर का नुताय है। रखना में काव्यात्मक मरमता है।हीरामन्द पूरि की काव्य माना का परिचय उनकी विभिन्न प्रकार की अनेकों रनावों के विश्लेषण द्वारा पूर्व अध्यायों में दिया जा चुका है। बिरही कोश का परित बारमास लिए कर कवि ने अपने काव्य को विरह का लता स्त्रोत बनाकर प्रस्तुत किया है। कोश बास्य बारहमास के उपयुक्त नायिका है जिसका पारा मौवन और विकास यूक्तिमक की साना और विक्षिा प्राण दीवा की अगिन में पुलसकर रह गया। वस्तुतः प्रस्तुब बारामा में कवि ने बड़ी सफलता कोश के विरह अनुदाय का वर्णन किया है। पाषा सरस और प्रवाहपूर्ण है। महिमा बारमा की मालि की मे नेमिनाथ बारहमासा भी लिया है। रचनाका कि क्या सन अधालय बीकानेर में सुरक्षित है। प्रस्तुत रचना की पाक आदि के लिए एक बो उधरम इस प्रकार है। इसमें कई पाठ सम्बन्धी अटियां मिल जाती है: अरवि मसति श्रीमपि मरीईए बागीय पानीय गुरू पवार कि बोगी । पिट पिवर बरसात बीपि मरीश in अगरीमा बाकानी TMEETara पाखीपूर पानीको मरवारोबारी की मामालिनी मेरी मावरी सगरी ना किसान सा काम है। इस प्रकार बारमासा भानी चानीय, विरामान, रियों का वर्णन आदि भी मिलते है भासियों का सम्मा लिन भ्या मा। Page #841 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नेमिनाथ फाम बारहमासा। पारा की इस अपूर्व कृति के पाबा वीं शताब्दी में काग में लिली मई एक बारहमासा काव्य-नेमिनाथ काग बारहमासा- उपलब्ध होता है। इस बारामासा के रचयिता कमि है। पूरी रचना १ माथायों में पूरी ई है। कवि ने स्वयं अपना नाम में स्पष्ट कर दिया है. कान्ह ममा पनि राइमा मेलि तोर शामि माड पर्वर प्रीडी विविध उपरिणाम प्रस्तुत काम में गम में ही लिया गया है। इस राग और मारामामा दोनों काब्य प्रकारों गुण विद्यमानी। रचना काव्यात्मक स्या पर्याप्त सरस प्रतीत होती पा सक और जन साधारण की है।पूरा काय बड़ा ही बस का पड़ा है। कवि ने मेमिनाथ के तोरण से भाग जाने के प्रसंगी गाय प्रारम्भ किया है। माना की प्रामाविका इष्टव्य है हे बोरम वाम बावीर यादव के बंद पा देवी रथ बाली विश वमित विद ) अधिकारी राज, अकेली राल और मोरोंका मधुर बोस पब उसकी पीड़ा है मे। विरामीकमाया। पापी बिरामे बाव, से पुरी बस सवा सावन में रखको दूर किसान पारसक गरवार मरासिन्याट और मोका मिरा का बाप जोर देषि गिरिधारी पाटी पर वार मोर मिसबाह पापीर बाजीगर (0 और बागवान या पटानों की बरसा देश मौरी (A) मा सोराबोर हो गया। मोर भाई वाको मी मोटी पाणिगोर के मन मा करोमेष मस वरसो। -नादानीबार की प्रतिमा १५-१७॥ र कमियोपी मोनकासीमन्दधाई पाम पू. १४८२॥ Page #842 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७९७ और यदि बरसते हो तो अपनाया गरम गरकर लरको मत। इन्हीं भावों को कवि ने बापाड़ के महीने से ही प्रारम्भ किया है। बारहमासा फाग की मावि कीडनीय और मेव होते हुए भी विरह की मम्मीरगरिमा से मोमोत है। भाषा की सरलता प्रासादिकता और काव्य की परसवा दृष्टव्य है: पुरि बामा नयु मोरी नयो ना माई गपिस पापीउला परिका 0 मामे विविध मासों में काव्य की सरममा दुम्टव्य है।निप्रसंभ मार अपने चरम पर पर जाना है।वनराब फूल गई। पर राम सभ। पाटा परिमल से सारे कानम और बाबावन और पित हो गए शिव के सिर पर से उबर बहने वाली मंगा भी बाह का मन नहीं करती उसको और भी अधिक बढ़ा देती है। रचना के उत्तराईध में कवि ने बिरामी परम स्थिति को बबाग : चिन्न बाकदह, सबिली राइ पास परिमल बाकती,पूरब की गाइ कहीड ईयर बीरगंग वाइ सिरि बास पाने की सूचना देवा चार मिनाथ को नहीं मेयवा रस लिए कोई नहीं मिकी मनमानी की बीनमा देटि:बार भाजपा कोष बमाबारीमी- हार काव्य को बीर शिवा मावास्यु ब बारहमासा एक परस ग ति बिपूर्व वा योगा। Page #843 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१८ बरवरगच्छ पट्टावली। १५थीं तादी के उत्तराईच में अन्तिम वाक में छोपचर विरचित एक काव्य खरतरगच्छ पट्टाकली उपलब्ध होता है।पट्टाकळी संलक रचनाओं में यह रचना पर्याप्त मात्व की है। ऐतिहासिक दृष्टि से रचना में बरतरगच्छ का इतिहास प्रस्तुत किया गया है। प्रस्तुत बट्टाकली का बबसे बड़ा वैशिष्ट्य वह है कि यह विविध रामों में लिखी गई है। पाषा की दृष्टि से रचना परत कवि ने गनर के कवियों की षट्टाकळी प्रस्तुत की है। राग और सन्द का समन्वय र करम ने अपनी अपूर्व काब्य प्रतिमा का परिचय दिया है। -प्रथमश्री (चवल) राम धन धन जिन (TRY) पाउ नान त्रिभुवन गम मा गाय गायु ता यमुवार गंगाजल निरमल महिवले महनार श्रीक्यर स्वामी गुरु अनुक्रमि बिहंदिवे, चंद्रकुल कपट जापिइए मक कारागीय माहि अति गट सरतरम मसापिइए । इस तरह कवि ने विविध दो और रामों में बरबरगमा की सम्पन्नता पर प्रकाश डाला है।वो की इष्टि के इस काम कमात्य कवि ने बरत और राज्यों का प्रयोग किया तारा वनामक काय होने मालकी ने लोटी गेटी कड़ियों के पद देकर प्रत्येक रिपीडिया कन्द की ककड़ी का प्रयोग ना:पुरुष बल बार बार, कम पर परी काफी देखि मसानी मिला करो गैर मार देवपाक, प्रनि विनि प्रतिनीधिग it homसरि बन लोब न मोहिमा - -विहा कि जैन काम भी भारद नाष्टा-.॥ सामान्य .nl Page #844 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३९ श्री जिनदत्य सूरि गुनग अम्बिकादेवी आदेखि जानिय चिजुग जुग प्रधान १ संयमरी राबडइ जेहि, दीघ श्री जिन धर्मदान इस प्रकार पूरी रचना ३० छन्दों में समाप्त हुई है और विविध ढंग से कवि ने गल के महापुरुष का सुन्दर गुण गान किया है। रंगीत की दृष्टि से भी कवि आदि रामों का समावेश किया है। पद वाले पर्यो का शिल्प विशेक ने देवास, छाया, राजवल्लम, यात्री, रचना में यात्री के अन्तर्गत कवि के ट्रष्टव्य है: नव गए तप बटवानि श्री अभयदेवरि जुन परो प्राटिउप मण पास श्री जयति भनि जेनरी ? प्रत्येक पद में ए का बमत्कार पादपूर्ति के रूप में उल्लेखनीय है: कवि ने रचना प्रकार में नवीनता स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है मावा की तत्समता दृष्टव्य है । कवि के पदों का वर्णनक्रम पहले एक मेरा पद तथा फिर बुद्ध हरिगीतिका छन्द से चलता है। वर्मन क्रम की यह छन्द तथा पद पद्धति इसके पूर्व उपलब्ध नहीं होती। बरसता तथा मधुरता की दृष्टि से भी काव्य में कई सरस पद उपलध होते है|वर्मन मधु की दृष्टि से बाकी की पुनरुक्ति से बड़ा हुआ सौन्दर्य इष्टव्य है: साली नि नम सत्य बहार प जाने तक विचान्स बारी साली पर कपिल निरमल गुम मंढार बरेली योग्य हु कि नबर रो पति श्री विनमरिज (२८) १० * नहीं २०४५ Page #845 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૮૦૦ साहेली ए नगरि देउरि सुरतक, सुगुरुवर श्री जिनकुशल पूरे साली ए मिहिं प्रणमइ त भय भविवजन भगति उगति सूरे साली पवीत जावहि दोहन द्वरिय वालद इह सयल दूरे साडेली ए वी मंदिर विलसर संपति स वर भरि पूरे ।।२४) --- पट्टावली की ही भांति स्वावली रचनाएं की मिलती है जिनमें जैसलमेर भंडार की गुरावली गाथा ६, गुरावली गाथा २८ आदि रचनाएँ प्रस्तुत है। ये रचनाएं भी गुरु की परंपरा तथा क्रम पर प्रकाश डालती है। काव्य की दृष्टि से गुर्वावली संज्ञक रचनाएं साधारण है। # गुप वर्णन (जिन वल्लभ सूरि गुरु गुण वर्णन) श्वी शताब्दी की रचनाओं में श्री नेमिचन्द्र भंडारी द्वारा विरचित एक रचना श्री जिनवल्लभसूरि गुरु गुणवन मिलती है। गुरुगों का गुणगान करने की परम्परा बहुधा जैन और अजैन सभी प्रकार के साहित्य में मिल जाती है। रचनाकार मे दौडादों में भाषा में विसरि का यह मान किया है। पूरी रचना का उद्देश्य गुरु का युग वर्म है और कवि ने इरा का नामकरण भी तुम इसी के वर्णन की परम्परा का देश प्रतीत होता है। और की बीमारी है। विका माता का जुन मान मिल जाता है। पवन के विश्व और परम्परा को के बैनेवर विधवाहित्य में भी बुक की अतः नेमिचन्द्र भंडारी में प्रस्तुत रचना में इस रचना हमारा जाने बढ़ाया है रचना काम भाषा की दृष्टि है इसके का है की बात है। कु मी विपूर्ण दोडे केसों से छुटकारा विकाने वाले केवल संसार के परमिर है। भाग है। काल का मल बड़ा बूम है जो सबको वा जाता है। माया मोड़ से दूर रहकर मनुष्य यदि गुरु की शरण में चला जाय तो संसार उसका जीवन Page #846 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८०१ चो सकता है। सांसारिक रोम चोक सदैव उससे दूर रहेगें। इन्हीं आध्यात्मिक भावनाओं की ओर समाज को उन्मुख कर धर्म प्रचार करने के लिए कवि ने रचना लिखी है। मादा की अलंकारिकता लोकात्मक स्वरूप और प्रवाह को देखने के लिए कुछ उदाहरण दृष्टव्य है: (+) (२) मूढा मिन्डडु मूढपडू लागडु सुद्ध मन्त्रि जो मल सूरि कहियो गक्छ जिम रिंग अधिर माचिय बंधवह, अथिर रिषि गिव बासु जिणवल्लह दूरि पय नमो तोडइ भव दुइ पास (७-८) -40 जो जिह कुल गुरु आइय वहि ते मति कति विरला जोsवि निवयणु जहिंगुण तहिं रवंति हाडा इसम काल बहु तल बक्कत जोड़ Thus सुविडिय तपइ भित्तवि वयरित्रो होइ (१४) माया मोह बच्छ जण इलहलं जिन विधि जो जिन बल्ल सूरि को सिमु देव (ि१९) वे कमा चुकवत्थ भरा संसार ह वे दिन मिहिरे वहन्ति (१२) निरोगी डोक् पूरि काम हो व विडिव निका(२७) विनिमय (२३) रचना १५ किसी गई है की रचना में कवि ने इसी तरह संसार के इसों का वर्णन करके कीरा का मूल्यांकन किया है।अन्य में रक्नाकार : वारकरे, पालिसम्म विथ इन विदर गुण मम Page #847 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८०२ नंदा विहि जिप अन्दिरहिं म विहि समुदायो नळ जिमपत्तिमूरि गुरु, विहि विण चम्म पसाशो (४-१५) शुरु गुण वर्ष में एक इसी प्रकार की रचना छप्पय सन्दपी मिलती है। जिसका नाम परतरगुण गुण बर्षन छष्य है उसका उल्लेख सन्द प्रधान रचनाओं में किया गया है। काव्य की दृष्टि से यद्यपि इस रचना में अधिक मत्कार परिलक्षित नहीं होता पर आध्यात्मिकता और गुरु की महत्ता पर प्रकाश डालने में प्रभात रना का पूरा महत्व है। कृपाल नारी संवाद संवाद संशक रचनाओं का विषय पारस्परिक साप इवारा मिली बस विशेष का स्पष्टीकरण करना होता है। यह बना वीं शताब्दी के उत्तराईय की उपलब्ध होती है। यह अपने प्रकार की पहली ही रचना है जिसमें विषय भी मौलिक है। वथा जीवन की महत्वपूर्ण परिस्थिति का स्पष्टीकरण करता है। स्वनाकार आम है जिसने *. १९५७लाका रासी रमा की दी प्रस्तुत पूरा कान्य ग्र सरली हिल गया है कि पार की मारी पारस्परिक बाद नाराज की प्रकृति पर प्रकाश डाला गया है। रखना नीति प्रधान की इष्टिमापि वा बहुब मात्वपूर्ण नहीं है फिर भी सिम की नातिन भाषा की प्राचीन तिर पसी रमानों नपानाच भाषा था कि विधा की दृष्टि से रशारणों - hि . मा मुख्य मा हिलि सि म पनि पानी हवि म देसि लिए ना नि पशु बगिय शोडिलक्क कोरि निकाल पूचा नाव विशु वैरिया बिया नब हार बम " Page #848 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८०३ परिणिति वियर वीपरक बयावा करता ॐ दियह ऊपरइ मम्म थिया साल ३) सील मंस डि धनु क्यास कुलह उन्जालिम माउं जड़ मार तो मारि पिध किवा न पीहर जा किय बाल विज पर नारि गाविय तिथि परमि तिमिम गार मासेलिगमा नवलक्व द्रमा थविव गठि इक्कुच्या नवधर नयषिहि न पड़ा निकीय दा दिह कोयन कम्मु नवलच द्रबह सिगन किमणि पिढतन दम्भ (१) अन्त में कवि आणु के विषय में भी दो पतिया उपलब्ध होती है रचना बत्कालीन प्रचलित न भाषा शत: प्रयोग कुद कठिन हो गए है। भोज के गन्दों का भी प्रयोग अधिक है आम की भाषा वीं शताब्दी की होने से उस पर अपांव का प्रभाव अधिक सम में मिलता है काव्य की दृष्टि सेरचना साधारण है। निर्णय खास बना प्रकार होगा। गि समाव क म होकर दूसरे पीर मानव बोल रखना उपाभ होतीराम की प्टिला माचार। मारना न पनी विशेष गुणी को प्रस्तुत करती है।काव्या seरमा गधार में लिखी गई रचनाएं बयापि अधिक नहीपलदो टीमरमा मिली है उनमें से एक यो अव बाला है दूसरी Page #849 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८.४ काव्य की दृष्टि से साधारण 1 अनाथी कुलक पाटन भंडार में उपलब्ध एक अप्रकाशित रचना अनामी कुलक है। रचनाकार अज्ञात है या कड़ियों में पूरी हुई है। भावा और काव्य की दृष्टि से रचना १४वीं शताब्दी की लगती है। अनाथी कुलक के विषय वर्णन के आधार पर यह कहा जा सकता है इसमें संसार इस से मुक्ति प्राप्त होने के लिए साधना की विविध बताई गई है। रचना सामान्य है। आदि अन्य के उद्धरण देखिए:(1) पनि वामय वीर जिविंद ठोया लोय पयास दिविंदा अन्नचिय जान ममिति किंहि तुम्हा मी (२) केवलसरि सइवर भवेय क्रमिक्रमि सिधि सुख पामेइ चढइ गुणइ जो यह चरित्तो विधि उ त जनम पवित्व संसार इस परिवरी गई बसि ते शिवपुरी इस प्रकार रचना में कवि ने जाने वेदों का रहस्योद्घाटन किया है।वार से संवरण कैसे प्राप्त हो यह जानने के लिए धार्मिक और दार्शनिक इष्टि के रचना महत्वपूर्ण है। रचना की मावा १४ मादी की जन पाया है। मावा में प्रवाह तथा सरलता सर्वत्र परिलक्षित होती है। काव्य की दृष्टि से रचना में अधिक चमत्कार नहीं मिला। Page #850 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वी वादी (११ ग) जिनवल्लभपूरि सारा विरचित महात्म्य संज्ञक नवकारमहात्म्य मिलता है। रक्ना अत्यन्त प्राचीन तथा प्रकाशित है। यह रचना विषय प्रधान रमा छोटी नवकार मंत्र के महात्म्य के लिए विरचित वस्तुतः इसमें मवकार की पमना और महिमा पर प्रकाश डाला गया है। आध्यात्मिक दृष्टि से नवकार सम्बन्धी इस महात्म्य का महत्व स्पष्ट होता है प्रारम्भ में ही कवि अरिहंत का स्थान बनाता : निय सिर पर भाण मग चिव कमलनार कंचन सब बदल सहित जिंहा माहे नक्वार सिंहा का अरिस देव कामामन टिकमामि से बाल पारमि पम पमति नियमति पनर भये सिंहा सिइबीय पदमारा राठे विहम तो कान निय सोहम बारे राती धोती पहर बप मिर्धा पुबेदिति और हिमरमिर बक्षिण अवधि (1) मकार मंत्र को माध्यात्विकला प्रवास रबि गन्म प्रमा और काम मीसिमका पात्य विविध धाओं और दृष्टान्को पुति हो the के बैठो बोर क बागर भाषी टिमा बारा नानी पारावास बाल्यका कदीप्रमाणे बायो डी वापियो का माहे १- देखि- अमात्मारास अमन सन्यालय, बीकानेर Page #851 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चिंत्या का सबै सरे परत परत विकास पालित मूरिनी परे विद्या सिद्ध आकार अंत में कवि नवकार के प्रभाव से मरता वाक्यों की पुष्टि करता है और सबके लिए नवकार के पहात्म्ब को स्पष्ट करता है।कवि का नाम रचना के मन में स्पष्ट होता है।रचना की पाया अपांच प्रभावित प्राचीन राजस्थानी लोक भाषा है। यही कारण है कि यह पहात्म्य बाज भी रोक कोक निवारण करता मा जैन जनता के कन्ड का हार बना मा प्रत्येक दिन हर एक केन इसका एक पारायण करता है और इसके बस से उसके रोग शेक मष्ट होते है। गुरु जिमयसह सूरि भने सिव पुरका कारण परय विरम मम रोग सोग मह निवारण बलम महिवाल बन महर बार इक मिल्स पंच परमेष्टि मंघह तपी सेवा देन्यो नित्य इस प्रकार रचना लोक भाषा का प्रीति भाइयोपान्त विद्यमान है। Page #852 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - मरतेश्वर बाइनली चौर. विषय प्रधान रसामों में एक अपने ही प्रकार की रमा परमेश्वर बाहुबली पोर है जो अद्यावधि प्राप्त रखनाओं में पर्याप्त प्राचीनतम है। सं० १४विरचित शालिपारि विरचित मरतेश्वर बाहुबली रास ही अब तक सबसे प्राचीन इति समझ जाती रही है परन्तु महरचना इसमे भी पुरानी है।रचना की भूल प्रति बैसलमेर के सरवरगन्छीय पंचायती भंडार में • m की संग्रह प्रति में लिखी हुई है। यक रचना श्रीभंवर लाल नाहटा ने प्रकाशित कर दी है। रचना की पुम्पिका या अन्य विवरण को देखकर यहस्पष्ट हो जाता है कि यह पर्याप्त महत्वपूर्ण और प्राचीनतम है। घोर संज्ञक रचनाएं अयावधि एक से अधिक नहीं उपलब्ध हो सकी या पोर नाम के कोई मन्द विष वा रखना प्रकार का भी उल्लेख नहीं मिलता अपितु इसके विषय को देखकर यह कहा जा सकता है कि भरतेश्वर और बाहुबली की बुइप वन्य भयानकता के कारण ही कवि ने इसका नाम पर रख दिया है। __परदेश्वर और बाहुबली के साथ का प्रम नया नहीं है। प्राय और संस्कृत में इस क्या पर काबि स कितना है। साथ अनेक पन्बिों और दुर्मिकों की परत बारवाही की पूर्षिया कामको स्पष्ट करती है। प्रति में भी भी नाम नहीं मिलता पर क्योंकि इसका रमाका -वाबड़ी डार सलमेर-स्वाभ्याब अस्किा पत्र -पाक A rc बचपन- देवाला विनामपि बिल्वया माकू आविया बाया स्वाध्यापिका लिविता बाध्यबाना आचंद्राक ४-बीमान हरिपियामिाथ बसि (बसलमेरा। Page #853 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८०८ इसके रचना कार वान सूरि के गुरु देवसूरि का काल कथा अत: इसका रचनाकाल १२वीं पताइदी के उत्तराईध में अथवा वी के पूर्वाध के प्रथम दो दशकों में ही कहीं रहा होगा। स्वा प्राचीन है और युद्ध की भमैकरता को कवि ने कुल ४८ छंदों में संजोया है। वीं शताब्दी में गुजरात और राजस्थान में युद्ध चल ही रहे थे अतः कवियो की समयानुकूल प्रेरणा स्वाभाविक थी जिसके फलस्वरूप पोर और उसके प्रसम की परवर्ती रास दोनों रचनाएं लिखी गई। भोर की इस भाषा में प्राचीनता द्वष्टिगोचर होती है।ति में रखना स्थान भी कहीं नहीं मिलता पर बहुत सम्भव है कि यह राजस्थान में ही रखना गया होगा। क्योंकि नादिदेव मूरि के शिष्यों की प्रसिद्धि नागौर सहुई जो मारवाड़ का प्राचीन नगर रहा है। रचना नमस्कार से प्रारम्भ हुई है।काव्यात्मक दृष्टि से यह कृति वीर रस की सुन्दर बना है।यो कि पूरा काम अद्घ के प्रसंग को लेकर शान्त रस में जाकर समाप्त हुआ है। कथा में परतेश्वर की दिग्विजय ही प्रमुख प्रसंग है। प्रथम पक्ति से १० पदों तक पक छन्द और ये पद से अन्त तक दूसरा सन्द प्रra for है। परबर के मर्व पर बाहुबली का विनकवि प्रारम्भ की विधि पाहमरसर देव, बालीमा विस बाबा की दो प्रपया खामिति बच्या एका माब, बोशिश न बडिख को बाहुवाति बाब याaat भाषा की रा बाबा और गाय की महिमा का अध्ययन अध सोमावार का प्रबार र निष्परित में पूर्व योग देता कवि विविध इन्टायों मारा काम में युद्ध के वातावरण को मारा है। विविध वि देखिए: -परवर माइली पीर-पद-१yोष पत्रिका अंक। Page #854 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८०१ सतह गंगह वीरि दह जेव उच्छा लियउ चार म डोउ सरीर पडत उदय करिमा लियउ बीसरि आउ, परसर भय मिला as करिला राज तकि अन्ड से मना विस्थह गंग सिन्धु इइ राठ अनु वा नाइल साहिया प्रे सीनइ छह बीड जीतळं मानद भामरउ (१५-१७) कोबानल पञ्जलि साव, भरसक जैपड रे रे। दिवियाण ठाक, जिम पडियल कंप मुलत चालिया हाथ में गिरवर जंगम हिंसारवि जहिरिय दियंत हल्लिय तुरंमय पर डtes ares, हेतु विनियक छाहजह भरसक वालियउ कटकि क्सु ऊपम दीजs तं निर्माणे विषनाडु बलिष सीवह गय गुडिया र रहसि हि उरंग दलिहि में उपासा जुडिया अति वाकि पावर होड़ अति वाटि afafe होइ कालकूट मति मरिय कूट (२०-२४) इस प्रकार कवि की निविशता भी साथ साथ स्वष्ट होती है जिससे काव्य का अर्थ गाम्भीर्य का परिचय मिलता है। दोनों भाई म में अनक वेग की भाति मे और में दोनों के निश्चित पपर मरतेश्वर के जीवित होने पर बाहुबली को वैराग्य हो आया। वन्द म वम का प्रवास में देखिए: मि कार्ड मोडल नारिय यह कति पहरण पर मो मिति की जिस करि बोताद अतिहिं पाकिं माइका गाडि बोलतो मरथहि पडिक तक नहिं Page #855 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८१० वि पुनर्दडीह मल्ल मा निम्मिबं पूटिहिं बम्बड हि मरवणी बाबालि करिया लि चक्कु परेवि, गाल कुल्लंगा मेहता भूक बलि अन्वेषि, प्रवहा नाहई गोशियह (19) तो पावे लागेवि भर सरि माविमर बंधव मा मेहि बई जीळ भई बारिया उतक नाब न दे, बाहुबलि मरतहसरत रामै सरिसत नाय, भरसक परि आइयउ ४) भावन तिब माकेर, चिंब पावी परोसरिती ब केवल पावेहु (ए) राज करता वेगाजिव (४८) रचना की समाप्ति शान्त रस में हुई है। उक्त उद्धरणीं से रचना की काव्यात्मकता स्पस्टडो गावी है। बस्त: रचना पर्याप्त प्राचीन होने से इसका ऐतिहासिक और काव्यात्मक महत्व है। - Page #856 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८११ । अम्बिकादेवी पूर्वभव वर्षन बलहारा । शक्ति पूजा और शक्ति साधना की इन्टि सेजैन धर्म में भी कुछ ऐसी देवियों की पूजा होती है जिनका नाम शासन देवियों के नाम से प्रचलित है। न धर्म के प्रभाव के कारण ही यह देवी देवताओं की पूजा तीर्थकों के साथ साथ होने समी। २४ वीकरों के साथ साथ ४ बामन देववाओं और देवियों को प्रणय दिया गया जिनमें पक्षमावती देवी, अम्बिकादेवी, चक्रेसरी देवी आदि कई देकिया है जिनमें सर्व प्रथम स्थान अम्बिा देवी को ही मिला है। यद्यपि आगे चलकर वा मेमिनाथ की भक्त शासन देवी के स्म में कर दी गई है। वस्तुतः सभी सार्थकों के साथ साथ एक स्त्री मूर्ति भी मिलती है जो सम्भवतः इसी अम्बिकादेवी की ही है। प्रस्तुत रममा अम्बिकादेवी सम्बन्धी है। रचना के नाम से ही स्पष्ट है कि यह अम्बिकादेवी के पूर्वभव वर्णन सम्बन्धी वृक्ष से सम्बन्धित है। अम्बिकादेवी के सम्बन्ध में रखे जाने वाले साहित्य की परम्परा का प्रारम्भ प्राकृत से ही हुआ है अपप्रेस काव्यों में भी अम्बिकादेवी पर वर्षन कि बाते है। वीं साइटी के बैन बोव साहित्य में अधिकारी स्तुति पाई पाती है।वा दिने दो पूरा यिका रितही लिज दिया था वस्तुतः श्वेताम्बर और दिसम्बर कोनों सम्प्रदायों में अम्बिकादेवी सम्बन्धी या कि बाती है। स्वाम्बर विवान श्री प्रभावरि रचित प्रभावकारित में प्रसंग म बर्षित अम्बिकादेवी के पूर्व भव वर्णन को यामास प्रकाशिनीको चुका । इसके अतिरिक्त मी विकादेवी केबीन पर प्र ति बाले है। -हिन्दी शैल- rrrror रवीरवाणी में श्री भंवरलाल माटाका लेख। ४- पियान्चपास्कर पाम १ . श्री कामता प्रसाद जैन का लेखा Page #857 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तुत रचना अम्बिकादेवी हमरा प्रकाशित की जा चुकी है। इस रचना की मूल प्रति बीकानेर बड़े भान भंडार में सुरक्षित है।रचना का प्रारम्भिक अंक पंडित मिला है। प्रारम्भ की चार गाथाएं इस ख मा में प्रति का पता न मिलने से उपलध नहीं हो सकी है।मत कति छन्दसे ही प्रारम्भ हुई है।अम्बिका देवी का यह बलहारा लोकमाषा की १४वीं बनाइबी की मुबार काव्यात्मक रचना है। कृति में रविता का नाम कहीं पी स्पष्ट नहीं होगा पर कवि ने एक जगह उदय रिदिध' का नाम लिया है अत: बहुव सम्भव है कि इस क्ष्यारिका के कवि का नाप स्वयं के नाम से ही हो। रचना की प्रति क्यों कि सं . की ही है अत: बहुत सम्भव है कि यह कति ४वीं वादी के उत्तराईध के अन्तिम वाक में हुई होगी।रचना का नामकरण बारा क्यों कियागया है इस सम्बन्ध में कोई विश्लेवन नहीं मिलता तथासाम ही बगावधि किसी प्राचीन मंडार में भी इसकी कोई प्रति उपलब्ध नहीं हुई। सा लहरा की काय परम्परा का हुई इसके लिए निश्चयपूर्वक वा भी नहीं कहा जा सकतारमा के वृत्त को देखते हुए यह एक क्था प्रधान काव्य है जिसमें अम्बिकादेवी के पूर्व भव वर्णन का विश्लेषण कियागया है। साथ ही इसका बोया बंश भी सम्भवतः अम्बिकादेवी परिचय आदि प्रारम्य पवारों में होगा। कवि ने पूरी रचना को पदों में लिखा जिसमें प्रारम्भ के पदों अम्बिकादेवी चरित्र की तुलना करना प्रारम्भ करता बीतहिं आयु सीवा विरामी परी राना सोहम वैरि यह पापी गीपिति बिम्बल निम्मक्यिा। पूरी रखना अम्बिका पूर्व की कामय मा स्था है जिसका हिसार -अम्बिकान पावलंबी थी और वैदिक धर्मानुयावी के पर स्वारी के नियम वो पुत्र हुए। एक दिन उसके ससुराल .- हिन्दी अनुशीलन- वर्ष पर श्री अगरब नाटा का ले। Page #858 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८१३ में पितृ पक्ष श्राद्ध का दिन था अम्बिका ने बिना पूछे जैन मुनि को भोजन दे दिया। मा के कहने से उसके पति ने उसे बाहर निकाल दिया। पति की पर्सना से वह अपने बच्चों को लेकर चली गई पी से उसके प्रभाव से पत्तले सोने की हो गई। हीरा मोतियों से घर पर गया पति अम्बिका के प्रभाव से यह सब बागान पुन उमे ने दौड़ा पर वह बन्धों के साथ में मई और देवी हुई। इधर उसका पति सोग भी गिर गया और फिर यह सिंह मामाज पी अम्बिका की मूर्ति का सिंह बाहन है एक हाथी की उंगती एक बच्चा पदे है क्या सरा बच्चा अंक है। उसके सिर पर भाम का लंब उत्कीर्ण किया मिलता है क्योंकि उसने अपना प्रभाव से सूषिों में आप लगा दिए थे तथा शुष्क तालाब में पानी भर आया था। बाप भी विद्याम्मर समाज में अविका की पूषा कुछ देवी के रूम में होती है। कषि ने पूरे काब्य में इसी क्या का विस्तार किया हैमोम सामग्री और पिंडदाम क्रियादि का प्रसंग का वर्णनदेखिका - हणि परि सम बडनकताई मुश्वासि माया अपर पातु सोम निलिमा भाविनि कपि व पि बानु र सत्यपि वि या रहि कालादि कीया बार के कालिदाति पक्यान मार पीरिड पि विमा बरस पानि बीमन मार गाव बानि नापति (५) पास का मेन को माना और बोकाकोष वा पना करके उसे घर से मार निमा शादि पटना मायकी सा प्रवास और कामय का विकरि पोष्ट गावि भान विदिक पलोतु पूनिया विनाविन दिय बाय देसिविनियमपि मछरिय चौमी नामयो की पहाडिब खा भन्ड किया कोपि र सो वा मोर, दिए कई किया Page #859 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८१४ माउ न पूजिय बनि कुल देव, अजब न पण वेणिया । अज्जयि पिंड पराविम मेय,मत दिनिय पढम मिहा (४) काव्य की दृष्टि में उत्कृष्ट उदाहरण पसर्थ इष्टस्य बिका अपने दोनों बच्चों को लेकर जंगल में निकल जाती है तथा उसके पुण्य के प्रभाव को पूर्वभव का प्य देकर कवि मेदेवी के रूप में समाज में उसकी स्थापना की है: अदिमि दीन बर मणिग, सबमि पषि नियु अनुसारित तत्व पावर पाणवि धगि पुह भाषियी कि नजिउ सिणि बह माडि वि पि उपन्न सोहम बलि चतु जोयणि मोपात्र दानि प्रभाबि रफ्न, विक देशिय ना मिलन अविणि वनिय जिपातहिबि, मोबन ताल कबोल धिव हिहि कप प पडिब विकेविमोतियमामिक देवि साइव देसिवि विम्हिय ताम, 'विइ बहुम सलक्सकिय मण पछताविय यह सोम, अहि व्यालउ स कर (२०) साभिम नेमि जिनिवडfra, विक मामि देमिय मंध इत्व दापि सुपरिष निवड गिरि मिरनार सिरि सीसि बार मषि कुंडा का गेड मोबिय हार मग डिक करि कम इन्नि पाहि र मी वा वारा तोवर भैरव में बोस विना देवि दुई एक चि शिविपरि बाबा वह विडम्वधरा (४) इस प्रकार कवि ने अम्विका की देवी के इस में प्रभासा कर वी सामाजिक इटिपी विधार करने पर इस रचना के हत्कालीन समाज के पारिवारिक गोटे क्रूडो बारा कितने जमर्थ हो सकने में यह प्रतिपासित हो जाता है। पूरी रचना कटना प्रधान क्या काव्य है में कवि ममल वाक्यों में काम Page #860 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को निर्वेद निष्पन्न कर समाप्त करता है: बात तलब सुर कुमर समान वह पय मावति चिह नारि इटव पावहि पियह सम्मान बीवहि नंदन निवड बड़यण बयना किंपि सुवि, किंपि प्रणियनिय मावलिम चरित तुम्हारत वनिउदेवि परि मनोरह अम्ह अपड नेमि जिसर चरन पोय महरि अंबिका देविता संघह सानिधु करि मुह मोय, देहि मपछिय उदयरिधि (0) इस प्रकार पूरी रचना का शिल्प अपने ही प्रकार का है। बहुत सम्भव है कि कवि ने कम्म क्या होने से ही इसका नाम करण बलहरा किया हो। प्रस्तुत तालहरा घटना प्रधान है।पापा लोक भाषा है। बता पूरा काम अत्यन्त सरल ज्या प्रवाहपूर्ण है। - Page #861 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८१६ - नर नारी संबोध विषय प्रधान रचनाओं में ५वीं स्वाब्दी की एक सुन्दर एवं उपदेश प्रधान काव्य- नर नारी सम्बोध- मिलता है। रचना को श्रीलालबन्द्र भगवान गाधी में बहुत वर्षी पूर्व ही गुजराती भाषा में प्रकाशित कर दिया है।कृति के रचनाकार का नाम कहीं नहीं मिलता है। रचना का प्रारम भंगलाचरण से ही किया गया है। कवि मेरचना परिच्छेदों अथवा अब्दो के स्थान पर प्रबन्ध शबद प्रयुक्त वि । बोध नाम उपदेश के लिए प्रयुक्त किया है।क्यों कि पूरा काव्य ही उपदेश प्रधान ज्या संसार की नश्वरता एवंआध्यात्मिकता की और उन्मुश होने के कारण ही बोध नाम अपिडित किया है। रमा की प्रतियां जैसलमेर के तपागा उपाया के प्राचीन पुस्तक मंडार मा काठियावाड़ के कीडी मंडार में मिलती है। कृति के संग्राहक मुनि श्री सम्पदाविय तथा संशोधक क्या अनुवादक श्री लालबन्द्र भगवान वास गाधी है। बाज से २५ वर्ष पूर्व यह रना श्री गाधी में प्रकाशित की भी। मर मारी गोषमयावधि प्रान शनियों में अपने ही प्रकार का भूग काव्य।पूरी रखना है। प्रत्येक प्रवन्ध २५ पड़ा है। र मामा के साथ साथ कवि ने प्राकृत और कृषी कापी प्रयोग किया है। जिसमें पुरानी हिन्दी - प्रा . के. पदयों का प्रयोग मिला। गबीमामा सका पूर्वमा बाहित्यिक सरसता से युक्त कारनामेपोटेकवी भाग लिवा सकते है: मारी बोष me e - ma -man र भारी बोध: गायक पनि सम्पदवियोधक और अनुवाबा कालखंड र मवान माची, प्रकाशक सेठ नामकन्दमूलवेव कोठीपाल बडोदरा, Page #862 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८१७ पहले कवि ने मारी, संसार आदि की नवरता स्पष्ट की है पडले सम्बोध में कवि ने मनुष्यों को नारी से बचने का आदेश दिया है या दूसरे सम्बोध में मारी को अपने बीत चरित्र के रूप में सिधावन दिया है। पूरी रचना में दोहा हद ही प्रधान रूप में प्रयुक्त हुआ है। रचना की आलंकारिता आध्यात्मिकया, काव्यात्मक प्रवाह, पद लालित्य बथा साहित्यिक सौन्दर्य को समझने के लिए नीचे मर और नारी दोनों सम्बोधों से यही कुछ उद्धरण दिए जाते है। पूरी रखमाजाध्यात्मक विषय ज्या संसार की नाबरता का उपदेश दिया है। रचना के विविध पक और इम्टाला पुष्टस्य है: नरसम्बोध रे जीव रामिड लिं, जो मन रंगि पेखि बारमिपूतलीय सिख, बरस कोडि मति (रममि अपि न स्त्रीया व पुरम समारि नर नामिड मुह मे विरत्ता नर नारि (२०) (३सुन्दर बरिय बाये मोडक (दिववीय प्रबन्ध ) रधि बाक्लिो पाना सही मियो पब मालि 0ठी सीसीमा किन्या पूड वा बोर एक नई मात्रट मा, बीस्मन पावतोड ७ Wी बाल, भूख महर मोडका का सरिक काल, छाग मिचि पेहमी (वीय प्रबन्ध ३-४ बीबी जान, वारपया बाट पनि मोनालिबास सिरीयीकरि वति (0 प्रति विनइ शिरि रहियों दहिया न प्रक्यिो अनि मेरा डावीर बील थरइ मन रंग (1) Page #863 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नारी संबोध ८१८ (७) कामिणिकरण काई? विषय सौख्य नहीं खासत सुख संतोष मानि शील धम्म छइ सासवम पाणी प्रमि विषया मइ मिडिसि पन संसारि (दिव०प्र०४-१९) जोड भोग विषय नडिया नरमि बडइ नर मारि १- रे, जीव राग में डूबकर मन मत रंग। अन्यता वामरस की पुतली केसाथ करोड़ो वर्ष विनष्ट करना है। २- संसार में जो पुरुष रमनी के रूप से रंजित न हो विरक्त रहते हैं उनके नर नाम से शुद्ध होते हैं। ३- है सुन्दर पुरुष दरि को मोड़ की फाल समायदि इस रस में हवा तो यह समय कि तेरा संसार व्यर्थ गया । ४- मूढ मनुष्य मूढ आदमी को रो रो के रुलते देबले वह गंवार जूकता है तो भी उसमें नहीं। ५- पूर्व मनुष्य व्यर्थ ही मुंह मरोड़ के भूलता है। वह साया की भांति काया, के साथ में रहने वाले काल को देखा नहीं है निर्लब सिर पीला दाव गिर गया, स्वजनों ने मात्रा को दी है. शरीर विचित हो गया परन्तु फिर भी इ निव को लाज नहीं आती। ६- जो अग्नि शिवा के ऊपर रहा वह खुद aner कि जिसने कोशा के कटाव को ७- है कामिनी तर्फे और क्या करना है? में मानवी धर्म ही बात है । विदग्ध नहीं हो सका। परन्तु वह ऐसा बहाया और मन में शील धारण किया। विषय सुख वाश्वत नहीं है। सन्तोष पामिनी विषयों में पड़कर तुम संसार अनेक की नियों में चक्कर काटेrगी विषयों विरक्त हुए नरनारी इस विकयों नरक में पढ़ते है ऐसा तू जाम । (८) रीमध्ये जो देह का अनुभव करते है योनि में कीचड़ में असंख्य जीव मरते हैं जैसे साकार की पूर्ति पवन नहीं कर सकता सागर पानी से मरता नहीं। बाग ईंधन से होती नहीं वैसे ही है जीव विषय से नहीं सकता। (९) कामिनी के काम स्थूल के गुर्गों पर जैसे साचि पति को को तथा कला केहि रेलवे को (१०) बढी उत्तम स्त्री है वो पहले कदाचित मोड पाये पर फिर बोध विषय का परिनाम दे कर मन से नि हो जाता है। Page #864 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८१९ (८) रे मुमधिजं बचि देह सौख्य संपालि जीव असंख्य तिर्ह मर येनि तमइ जंबालि अंबर पनि पुरिई नवि सायर सलिलेग (१०) अनि न faces ईधनि तिम जीव विषय सुन (९) काम कुंम कामिनि तमो, सारथिपति जिन कवियो कला केलि लंतिय स्थूलभद्र गुण कवियो (चतुर्थ प्रबन्ध १४) (१०) तिम जे उत्तम नारि मूंद पण मुंबइ पछड देशी विषय विपाक मन कुडिधड विरभर पाई (१६) इन उद्धरणों से पूरी रचना की विषय वस्तु जानी जा सकती है। इसी तरह कवि में नर और नारी दोनों को संबोधा है तथा विषय समुद्र से संतरण करने की प्रत्येक विधि पर प्रकाश डाला है। पूरी रचना इसी प्रकार की पद्धति में लिखी गई हैमर नारी सम्बोध अपने आपमें एक महत्वपूर्ण कृति है। Page #865 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२० : आनंदा : wwwww विषय की दृष्टि से रजाओं में विचार करने पर एक अत्यन्त महत्वपूर्ण रचना "आनंद" उपलब्ध हुई है। रचना अप्रकाशित है तथा इसकी एक प्रति अतिशय क्षेत्र कमेटी महावीरजी भंडार जयपुर के अनुसंधान विभाग में सुरक्षित है और एक प्रति समय जैन ग्रन्थालय बीकानेर में। प्रस्तुत रचना का नाम कवि ने आनंदा रहा है।जो आनन्द शब्द का राजस्थानी स्म है। पूरी रचना में प्रत्येक के साथ साथ कवि ने आपका हृद का नियोजन किया है। रचना का विषय आध्यात्म है। द्वावधि प्राप्त वनाजों में आनंदा का विषय विवेचन मान में आनन्द का कुरण करना है।जीव और ब्रहम आत्मा परमात्मा तथा सइत्तियों का बाध्यात्म की ओर उन्नयन करना ही आनंदा की मुख्य संवेदना है। आविकास के अपश जैन साहित्य में fear प्रकार मुनि रामसिंह की कृति : पाठ दोहा मिलती है ठीक इसी प्रकार की आध्यात्मिक रचना वादा है। अप्पा बुक्का परमपर तो बरसा - अपनी आत्मा को भ्रमको आत्मा ही परमात्मा है उसका निवास घट घट 氨 अन्य नहीं। वीर्थयात्रा कसा कि ठीक है।आदि मान का कवि ने इस यात्मिक काव्य में डाला है। इस कृति रचनाकार का नाम पर मतभेद है।पर काव्य का अध्ययन करने पर यह प्रश्न हल हो जाता है। मादा चन्द का बहुत बार प्रयोग होने पर भी eye कालीवाल ने अपने देव' में कृति के रचनाकार का नाम मानन्द तिलक बताया है अपने मत की पुष्टि के लिए उन्होंने मदद के बार बार र प्रयोग तथा सुन मानन्द उत्तसई, मस्तक मागतिलक- आदि बाको डीह में रखकर वह नामकरण किया है । यो इस पंक्ति को पढ़कर तो इस किनान के स्थान पर कान तिलक (नाम तिलको नाम भी दिया १- देखिए वीरवामी वर्ष ३ अंक १४-१५० १९० १९८ श्री कस्तूरचन्य कासलीवाल का । Page #866 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२१ जा सकता है क्योंकि मानन्द तिलक से ज्ञान तिलक की संगीत ठीक बैठती है। पर इसका परिहार श्री अमरबन्ध नाहटा ने निम्न पदध से कर दिया है। भारम्भ- विवाद सामवाणिण सहसो () महादि सो पूजाया भादा मगन मंडल धिरहोड आया महादिवइ बामिया भादा जिणि बरसाविक भेउ भाषदा | ----- महापंबि बाका जाषिक पपइ महादि देव, जापिठ पात मेउ आदा ॥३॥ शनिष्कर्ष से उन्होंने इसके रचयिता का नाम- महाबंद देव बहानंद देव किया है नामकरण कहा तक सही है बात निश्चिम पूर्वक नहीं कहा बा सकता। परन्तु नाइटागे का यह मत बातम्भव है कि यथार्थ के निक्टये। जो भी हो, इस सम्बन्ध में रचयिता का नामकरम सम्वेद से परे नहीं कहा जा सकता। रचना के पिता की मावि इसकी भाषा और रचनाकाल मी मक्य बाला नहीं है लीमा इसकी भाषा को अमर कहा था इसका रचनाकावी वादी बवामा है। इसकी भाषा वास्तव में प्राचीन राजस्थानी है।' और रणना की नाम को देखकर यह कहा जा सका किया वी वादबी की रचना होगीको कि इसमें आपका जनभाषा के साथ सुन्दर समन्वय स्पष्ट होग है। wome - १-बी, 10..पर नाटा जी का लेख। बीरवानी • ९८॥ श्री बगरमा गया कि-इसकी भाषा को कासलीवाल जी ने अलावारिस प्राचीन राजस्थानी या प्राचीन शिबीकहनाषिक डिजीत होता है।बदमपि यह अपशबात मिटीबाही र मह प्रयोग परवर्ती ठोक भाषा के बनता पाये जाते Page #867 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२२ आत्मा का सुन्दर चित्र प्रस्तुत करता हुआ कवि प्रारम्भ में ही मनुष्य को उसकी ऊंचाई पहिचानने की प्रेरणा देता है। शरीर से वह निशान्त अलग है। पाप में लिप्त मनुष्य के लिए आत्मा की पवित्रता अत्यावश्यक, पाप कमक शरीर की आत्म ज्ञान के साबुन से ही धोकर स्वच्छ किया जा सकता है। अतः पायल को ज्ञानको ज्ञान सरोवर में अवगाहन करके छुड़ाना चाहिए: पितरि परि पाउमलु मूढा करहिं समूहा जेल or feeants आदा रे किम जाय समूहाणि ज्ञान सरोवर अभय जठ मुनिवर करइ सहानु भट्ठ कम्मल धोवfर्ड मार्गदा रे पियड़ा पाडु णिवाण ॥१ इन भावनाओं में पाइड दोहा से पर्याप्त भ्राम्य है। इनको देखकर यह कहा जा सकता है कि कवि पर सं० १००० में विरचित पाड्ड दोहा काव्य का पूरा पूरा प्रभाव पड़ा है और यह भी कहा जा सकता है कि पाइड बोडा ही इस रचना के मूल में रही हो। रचनाकार ने गुरु की महत्ता पर प्रकार ढाला है गुरु कही एक ऐसा वाचन है जो आत्मा से मिला सकता है।गुरु भी कैसा जो गुरु है कुरु में sant बना नहीं हो सकती। बच्चे गुरु की दृष्टि में सम्यक्त्व होता है और वह आत्मत्वस्य हो जाता है और उसी बच्चा नाद में रंग बाबा पाइ दोहा की इन पक्तियों को देखिए: ye fear गुरु व किरन, गुरु दी दे - अप्पा बुद्धि परम पर जो दरमा fast की कीमति मिलाप देतिर:- साथ ही चाकूड दोवा के उक्स दोडे से इन पों को मिठाइ: कविवर गुफ विष कि, गुरु रयमत्वय बा की दरियाव सेवक मादा भव जल पावइ पाक बिरन धीरथ का म जो दरिसावर मेव Page #868 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२३ सुनत आर्षद उल्लसह मस्तक पाणतिलकु मुक्टुमणि सिर सोडवई मार्गदा सा गुरु पाला जागु समरस भाव रंगिया गप्पा देव सोई अप्पा जागत परहणइ मानंदा कर निरालंब होई । वस्तुतः उगत रचना में जो आनंदा शब्द बार बार बाला है उसके लिए यह भी कहा जा सकता है कि आनंदा शहद के बार बार प्रयोग के लिए यह मीसम्भव हो कि कवि ने उसे मन या जीवन का प्रतीक माना हो आनन्द के कामी- मन अर्थात् है आनंदा) था है आनंद के प्रतीक - मन) या है साकार आनंद इस प्रकार रचना में आनंदा शब्द के बार बार सम्बोधन के लिए ये अर्थ भी लगाये जा सकते हैं। तीर्थों में कवि की श्रद्धा नहीं। तीर्थ करके व्यर्थ समय नष्ट करने सेपूर्व तो कवि मनुष्य को अपने घट की शोध करने को कहता है उसे कुदेवों पर भी विश्वास नहीं: म सकि तीरथ परि मई मूढा गर भ अध्यबिंदु व जाड दारे घट म देव देवों की पहचान नहीं करा सकतr te: घट में निवास करने वाले वह तो दर्शनों में ही इष्ट है उसकी दृष्टि ही मिया हैसुमराह मिडर कलमल, मस्तक उपवसूल अाज बहाव वह हि पर, आनंदा मिच्छा विट्ठी जो कवि का काव्य प्रवाद माधात्म के महानन्द जैसे तत्वों की व्याख्या करने में स्वष्ट होता है और रचनाकार स्वयं इस विषय में डूब कर उसका प्रतिपादन करता है। जिन कौन है विन्द्रानन्द की उपासना महाजानन्द की पूजा किला नहीं हो सकती चाहे कोई शरीर का कुंचन घोक्न, जाप, जप, कितनी ही तितिक्षा क्यों न दे, बटा क्यों न बढ़ाए, वर्षा, वर्दी, गर्मी, योग, आदि द्वारा Page #869 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२४ मंडली भी स्थिर हो सकता है की गुणों की सम्यक प्रकार के रखा हो, जप तप व्यर्व समक कर मन की इश्चि की जाय, चिदानंद जो सभी परीरों में स्थित हो उसे समा जाम: चिदानन्द सो रिपु मल सरी सोई महादि सो पूपियाई आदारे गगण मंडल धिर होड केह केस मुवावहि के सिर चट पार माप्चावि दुभ माहि जादारे 'कि भयावहि भवपाल विी काट बाहिब बहि, सहदि परीसह भारु देख्न पामह बाहिरस, आमदारे मारिसए जमकार पाणिमाधि पोयषु करहिं पाथिर गाइ निरा अध्य भान जापहि मादा विमा बम पुरिवा जाए जपइ बहु तव उपईतो विष काम हमेई एक समय बप्या मुगइ भाडा गइ पाकिर देई अम्बा संजनील पुष बच्चा बेसन मात्र का संगम व मुरुमादा तो पावहि पिवार और कवि स माध्यामिक्या को महामन्य के भिवास स्थान ले जाता है। भाषा की भरलता, रचना की मीडियवा लोक भाका मुलासा, मृद चयन या प्रासादिया इस्टव्य है। रकमा में पद साहित्य के साथ साथ गर्म मापी भी है। कवि ने निर्माण की प्राप्ति कराने वाले महानंद का निवास स्थान किसने कमान बाराम किया है जिवा मार हा परिभ होई णि बेडमा बस जिब बाबा विरला बूकह कोई हरित विधि वाडी माधि लक्षित गाह मध्य गरीरहे मौवाड, वादा ही गुजी बसाई Page #870 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूरी रचना हिंडोलाद में लिखी गई है।क्या अल न्व ४ है। कवि ने भाषा प्राचीन राजस्थानी उन बोली ही रक्खी है और वीं शताब्दी के पास पास की स्वना होने से उस पर अपद के शब्दों का प्रभावसर्वत्र परिलीज होता है। मान जैसे क्लिष्ट विषय को कवि ने बड़ी सरल शब्दावली, अनुप्रासात्मिक्ता बथा कोमल एवं प्रसादिक पदावली में समाया है। उपदेश का व्यक्तित्वस्थल स्थल पर स्पष्ट होता जाता है जो रचना का महत्वार भी अधिक बढ़ा देती है। इन बातों के साथ साथ मत में कों के दोषों को दलने के लिए रचना को रोज पाठ करने का आदेश दिया है: गढइ पढाबह अणचरह पर सिवारि जाई कम्माण मवाणियानि आपदा भवियप हिया माई उक्त पद परत वाक्य या फलश्रुति के यो प्रहल किया पा सकता है।मिकता यह कहा जा सकता है कि रचना सार सुन्दर और ज्ञानोन्मुख करने वाली है। - Page #871 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२६ मातम | विनय प्रधान रचनाओं में १ बादी के उत्तराध की एक सुन्दर सी रचना उपलब्ध होती है। विषय की दृष्टि से ययपि इसमें कोई नवीनता नहीं उपलव्ध होती परन्तु फिर भी गाया और वर्मन क्रम की इष्टि से रचना का पर्यान्त महत्व परिलक्षित होता है। प्रस्तुत रचना कालेवक अज्ञात मूल प्रति अवजैन ग्रन्थालय बीकानेर में सुरक्षित है। प्रस्तुत रचना का विषय मृगावती और उसके पुत्र का दीवा प्रश्न करने के लिए परस्पर विचार विनिमय है। साथ ही पुत्र के द्वारा कवि ने पूर्वभव वर्णन, संचार का क्लेश, विभिन्न योनियों में परिभ्रमण तप की उच्चता आदि का महत्व स्वष्ट कराया है। पूरी रक्षा संवादों के रूप में किसी हुई है। कवि ने नरकों का वर्मन बड़ा ही जीव किया है।रचना का विषय माध्यमिक जीवन से सम्बन्ध रखता है। वर्णन बैली सरस, वजूद चयन सुन्दर और रचना अर्थ गाम्भीर्य से परिपूर्ण है। विषय सूबों में डूबी हुई मृगावती के पुत्र को पूर्वभव का स्मरण होता है और उसको दीक्षा ग्रहण करने की प्रेरणा होती है।योपान्त रचना में निर्वेदात्मक areera का वर्णन होने से वान् र व्याय है।भाषा की सरलता, लुप्रासादिकता और कालिय दृष्टव्य है: इमदाद ि मावति परपि ररमन का बोडणी का मुख्य गुण गातीर विश्व विसिंह वालि काली मंद मंदिरे मनि विनो दिनकर पारि बबर निम निरादि ना क (१-४) १- प्रस्तुत रचना- कार्यदी-काव्य के साथ ही लिखी हुई मिली है। देखिए अभयजैन ग्रन्थालय बीकानेर | Page #872 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२७ बहि निहाले तय नियम संजमवर संजय सोल्गुण मंडिय पुणिवर बार समरे वि परिसने अक्सपे पुस्वभव कुमर बर समरए नियम विस्त संसार मुहकरइ उवर्म माय पिय पयामि बरत जम्पए मन पवि मा म भाव वापर (४५) और पुत्र के द्वारा दीक्षा प्राय करने का विचार पूर्वभव जान लेने पर अत्यन्त हो जाता है।लोगों और सांसारिक सुखों की नश्वरता का सुंदर वर्षन कवि प्रस्तुत करता है। मोग विपरीर स्त्री और यौवन चंचल है लावश्य स्वयं भी वपाल है वह जीव का साथ नहीं देखावा तो अकेला ही जाता है। विक्य मुखों का परिणाम मनोहर नहीं होता। ऐसे पथिक का पंथ धर्म को मोड़कर और कोईसबल नहीं बनता। वर्णन शैली सरस और शब्द चयन कोमल है: भोग भोगविय विस सरिस मा अपना मरहमद तिरिय गइ वेवमा कारना गोड बस र बमि जीव वि दुबाद बहह मह ममियम इकराड अपळ काश्न जीनी बरो शुधन म्यनुसार पृद्धि परे बीय एक बाइ बारे पत्यादि का पिन शाह मान्दरी वियप परिमाणमा मनहरी केटि विडिय निकली व विविध विष की ture) भी पुष के बीच प्रान करने पर होने वाली विक्षिा का चित्र जींचती है। पार महासकर मार्ग भूप प्यास सहना, शुक्माल देह, केशलोचन और माम बिहार के मारप है। और यहीं के उत्तर प्रत्युत्तर अली नरकों का Page #873 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२८ (१३-१४) सजीव वर्णन कवि प्रस्तुत करता है। वर्णन की प्रत्यादिकता इष्टव्य है: - सुत मिल्ने समतुल्लया संजमो, चित्त विवोदि ठावे समो पंद मुंडव्या भारु अहि इक्करो, बच्छ आजम्म बहेवर इक्करो डा का डाय नावीस परिसका युद्ध कुमाल देण तु दुस्सहा केस ठोय सिरे दुक्करो दाख्यो, गाम मासु विहार इतका पुनः मृगापुत्र समस्त नरकों इसों का और पूर्व भव में किए पापों द्वारा पाये हुए संकटों का स्त्री और रोमांचक वर्मन प्रस्तुत करता है। नरकों में लोहे में नाना पहाड़ से विराना, करोड़ों वर्षो तक की यातनाएं करवत से काठ की माडि चीरा जाना, कोल्हू में पील्डा जाना तन्त वयों से जलाना, गर्म स्त्रीपुतली से परस्त्रीगम का दन्द्र आदि सभी हृदयद्रावक है। वर्जन की अनुप्रासात्वि कया तथा सीतादेविए: देवकर सिर कह जिंग विदति, पण निधन पहि मोट लोड हि दिल म हूं पीलीउ, निवड नाराय नारवीयडू डिि पुव्यभव पाव पचारिक पीडिउ, बिलम बंधेहि बहु एहि मीडिय तत्व तथा नापा, सुरा नखाई वरिय पवारी मरा देवि परमणि परिरंभ, पुलीय करिति परिस पन नई बहिन इ नरम मिंतरे, पुढदि अप वाउ वना मितरे (११-३१) तिरिय प्रतिदिन कसि विडि उ रम सम्पन या पईि थाइ, निरर्हि निकरण नमो वाि ass विनय पारं मनुका, बेकुवा मंच मन्यनि विपूत पी, पूठि गान पछि पीडित कर गाँव भूरि मारेहि वयसेवक बारंग इममेव afe face वर्तत इंड नारिदं इसी पालित नवाये दामों परिय पीवरिडिविदारित अरी) ● Page #874 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ १९ मइ मई सहि दुक्ख गढ़ने गए, बालपण सहिय इह बहुत अन्नाप उठवणे व भगराइ रोली, मयम मल्लै भव जलहि यति बोलि (२७) वक्षण सत्र विन डिउ परधमा पहरणी, मारित विवि थापहि सकरणो कुप्पह च हि चाकि बच्चरे, नव्य नारगीय जिम नदीय नवीय परे पहिरोगेहिं इ डीउ, रंक जिम रोलीउ सयलगुण हंडी वल्लहाणं विदुमेहिं इवाउको, बिवरील विषय विक्ल जिम चंचलो मनुयगड ईम कमोहि ं विनहिड, ताय का सबसे पावईमयडि डीप देवति इद सहिय डुक्कर, माइझ चित्स इनि झुंड निकम (२९-३१) इस प्रकार पूरी रचना माता और पुत्र के संवाद के रूप में चलती है कि दृष्टि से भी रचना का महत्व स्पष्ट हो जाता है।असार संसार को छोड़कर मनुष्य को शिव गति या निर्वाण की ओर उन्मुख होना चाहिए संसार में अनेक जन्म होते है। पाप होते है तथा पूर्व के संविद क्यों का प्रति हमें यहां भाकर भोगना पड़ता है। वस्तुतः मोग सूस और रेडिक सही जीवन का चरम लक्ष्य नहीं है इससे परे भी लेक आध्यात्मिक आकर्षण है जिन्हें मनुष्य संसार के इन इन्द्रियजन्यों से ऊपर उठकर ही प्राप्त कर सकता है। इस तरह पूरी रचना में कवि ने मृगावती के पुत्र के पूर्वभवकी कथा का वर्णन किया है। पूरी रचना ४२दों में पूरी हुई है। भाषा की दृष्टि रचना पर्याप्त है। साथ ही की कर्म, पन, जन्म, नरक, विमति, पंच महाव्रत मनादि अनेक कठिन बातों पर सुन्दर इष्टान्तों और क्या सूत्रों में प्रकाश डाला है। . यह रचना एक बरित कथानक है जिसे पढ़ने से विश्व की प्राप्ति होगी ऐer afteा मठ है: Page #875 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८३० तिजग समविस्त रिसवरह सुपवित्व मिया प्रत्तस्स रे भगई सुचरित्वय विवह विपास विलसेवि विवापर लहहि सो सन्त रस्साक्यं सिवपुरे (R) प्री रचना सरस और जन पाया प्रधान है। पाषा में यद्यपि अपच के शब्दों का प्रभाव सर्वत्र है पल फिर भी अधिकतर पुरानी राजस्थानी के शब्दों की प्रभाव-सर्वत्र की भरमार मिलती है। रचना प्राचीन है तथा धात्मक संवानों में लिखी गई है। गापुनकम की प्रति का चित्र भी संग्रहीत कर दिया गया है। वीं ताब्दी के उत्तराईध के प्रमुख काव्यों में से एक मृगापुक्क भी है। इसी प्रकार उक्त अध्याय में जिनी रचनामों पर प्रकाश डाला गया है ये सब पाप्त पहत्य की है इसीलिए का गौष काब्य परंपरा जीर्षक के भन्नड मूल्यांकन प्रस्तुत किया गया है। Page #876 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28800000000002809002068028288002288888822050ccess Ibahbee (0 VIABERJIR Page #877 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८३१ आदिकालीन हिन्दी जैन साहित्य() स्ववन काव्य परंपराएं। 0 0 0 0 मीत, स्तोत्र और स्तवन साहित्य की परम्परा शिर प्राचीन संस्कृत साहित्य में मीवि काव्य पुस्तक और अन्य दोनों सियों में उपलब्ध होता है। मीत जीवन की रख पैजल अनुभूति होती है जो अपने में पूर्णतया मुक्त होती है। नीति रचनाओं में अपेक्षाकृत एक मधुरता होती है उसमें संगीत बन्च बिद्यमान रहता है। मधुर पदावली, और संक्षिप्त भावपूर्ण शब्दावली घरस सुबोध ली संगीत तथा अन्द में लार प्रस्तुत की जाती है। इनमें कोमलता मा जमा किसी भी मधुर भाव की उत्कुट अनुभूति होती है।गीत जीवन के मार्मिक अंश होते है जिनमें प्रायोपाल रसोद्रेक होता संस्कृत साहित्य में पुखक दो प्रकार के पाये जालौकिक वा धार्षिका लौकिक काव्यों में पीज मादि अनेक प्रकार हो सको और धार्मिक में स्तोत्र स्तवनादि। इस प्रकार के मुक्तक काव्यों की परम्परा स्कृत प्रकार और अपने सुरक्षित बली आ रही स्तवन कास्य परम्परा के अन्तर्गत आने वाले ये लौकिक और धार्मिक श्री क्षण, सम्पूर्ण और व्यक्तित्व प्रधान होइनमें व्यक्मिान भावारा और भक्षियों का पूरा होगा। साथ जीवन की बात भानानों का समापता है। त था प्राकृतिक सौन्दर्य पार अशा और भी बहाना बेटी । न मीयों में बना होती है। किन वन (डि बमेन्ट) हो सकी मार पावसानों की छाया (arte भासन कारण या अपिबतिर्मन मार फूट पड़ती । विगी और स्वरों का मालीमव होता । गली लिरिक) महभी किया गया है। पर वह पी गीत का wिal , कोमारानी दे सकता है। वस्तुतः इस विशाल पावसायों का होड़न करने वाले इन गीतों को हर Page #878 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उर्मि काव्यों या गीति काव्यों के ममें माविकालीन हिन्दी जैन साहित्य में धार्मिक स्तवन विशाल संख्या में पाये जाते है। धार्मिक पुस्तकों में स्तोत्र और स्ववन आदि का प्राधाना है। लौकिक और धार्षिक दोनों काव्यों में संस्कृत की प्राचीनता पर्याप्त सम में विद्यमान है।समा वैदिक संहितार्य देववानों की विशिष्ट स्तुतिया है। इस प्रकार इन कौकिक, धार्मिक तथा ऐतिहासिक मुक्तक काव्यों की स्या असाधारक है। स्वोत्र साहित्य संस्कृत में बड़े विद्यालपरिमाण में मिलता है। इन स्थलों बस्वोनों में हृदय की स्वाभाविक अभिव्यक्ति, भक्त का दैन्य, तथा साध्य के स्वरुप की क्षमता, कोमलता, दबाता और उदारता का वर्णन किया जाता है। इन देवताओं की महिमा वर्णन में भक्त अपने पक्ष की उदात्त भावनाओं के अभिव्यक्ति में हृदय की समस्त शक्ति लमा देखा है। भगवान का विकास व्य पापों का पब, जीवन बार की भावरता और स्वों का ध्यान उसे न बनाते है और साथ की महानता में साधक अपनी लघुता या उद्रता अनुभव कर स्व को उनमें को देता है। अपने इष्ट साध्य से भास निस्संकोच होकर सब भाग लेते है अतः सनी अपनी दीमक्षा बलीया, संगीतारमकवा, शिवा, कोमलता, ग्वारस अपिजना और मब्बी मा uar को प्रकट करने का पूरा अवसर मिलता है। इसी लावाषिक तत्वों के कारण सो स्तन और मीच मोहक ही होते है। अषबार मील का पुट लम पाने है इन मौत सोनों की ममता बीवी जाती है। प्रति मात्र के विकास में में स्वोत्र बो सहायक है इष्टदेव की स्तुति की बाबर पति भावना को प्रकट करने की यह परम्परा बों से ही मिल जाती है। दो मिन विमानों की नि किन प्रकार से जिया मिली।पीना अर्जुन की अनेक नकों में स्तुति करता है। महाभारत पीक खोप मिळाले। स्तोत्र स्खलियों का म पुराण साहित्य में और अधिक विशाल स्याने मला होता है मामयत और विष्य पुराण पार्क रय है। मानवत पुराण में ब्रहमा विन पोष, सन या विभिन्न रिकि Page #879 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनियों और अन्य अनेक देवताओं की स्तुतियां और स्तोत्रबथा अनेक गीता मावि मिल जाते है। प्राचीन स्तोत्रों का विशाल डडत स्तोत्र रत्नाकर नाम प्रसिद्ध है। पावन में अनेक मीत है जिनमें गोपी गीत सबसे प्रसिद्ध प्रादेशिक भाषाओं के साहित्य में भी भक्ति सम्बन्धी धार्मिक त्यो बाले भनेक मीत, पद, स्तोत्र या स्वबन उपलबध हो जाते हैाविड़ को बालि साहित्य में उपलब्ध स्तोम उल्लेखनीय है पिसे ही समय में मध्यकाल में भी महारानी करनी आदि प्रमों में मी अनेक प्रकार के गीत, स्तोत्र व स्तवन आदि स्तुति मूलक रचनाओं का निर्माण मा होगा पर के उपलब्ध नहीं होती है। अपक्ष में मीप परिख सूचक पुस्तक काय मिल बा है। इन स्तोत्र स्तवनों की विशेषवाओं पर और शिल्प पर पीय प्रकाश डाला गया है। स्तोत्र मीन वास्तव भक्ति परक, जान भूलक तथा वैराग्य की प्रधानता लिए है। हिन्दी साहित्य के आदिकाल में सर ११.० से १५०० तक इन रचनात्रों की पंखला बहुत विशाल सम में उपलब्ध होती है। इस साहित्य में स्वोत्र, स्तवन, मीर, भादि शशि भूलक रमानों की क्या हो भी भर है। मनः इनमें कीर्तन पछि ध्यान, उपासना, नुषि, ममिक, कार, सकाब वादि अनेक मोर मा साहित्य उपलध होबा माचीन राजस्थानी वा सूनी गुजराती होकापाका अनेक मीठ, स्मृति स्तोत्र स्तवन आदि किलो है। रमाएं की सलापूर्ण है। यपि इस खोज सन शक रमाओं का विधान साहित्यिक में महत्व पानामी सन्त भि भी इनकाठीन भाषा साहिल्य की ममता का परिचय nि frदी जैन साहित्य में इस प्रकार विवत जीनोग, गानो वागावी पियों आदि सम्बन्धी अनेक गीत स्तोत्र कसान कि बाझिमीदों व सोनों की व्यावस्तु धार्मिक है, पर लिपी वामप्रति कवियों के बारपाक के गीत है। इनमें श्रावक भासियों की मार्मिक अनुभूतियों ग सान उल्लास है। कार में आत्मोन्नति और पनि भावना को बबाम करते है। इन गीतों की लता, Page #880 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकों की दीनता और तीर्थों भावायों, महापुस्मो और तीर्थकों का गुण वर्णन तथा उनके उच्च आदों का स्तुति गान है। ये प्रशस्तियां अनेक सम में पाई जाती है। इनमें अनेक प्रकार में बैन दानिक सिद्धान्तों, कर्मों के भोगों व अन्य सिधान्द्रों पर प्रकाश डाला गगा है। इह लौकिक और पारलौकिक दोनों स्थितियों के चित्र कवियों ने इन स्तुतियों में सीचे है। आदिकालीन हिन्दी जैन साहित्य के गीतों, स्तोत्रों और स्तनों की सबसे बड़ी विशेषता उनकी विविधता है।इन रचनाओं का अकस्मों में वर्णन मिलता है। उन्में प्रमुख निम्नांकित है: ४. स्तवन ६- बोलिका -- स्तुति बीनदी ९- चम्पाय १- नमस्कार -प्रति मी और प्रशस्ति गान संतक ये रक्ताई उक्स विधि विधाल स्या उपलविय होती है इनका वर्गीकरण गीति, संगीत और वयं विषय के अन्वत दिया गया है।इन रयनामों को स्तवन या गीति कास्य की परम्परा । इस रेवा चित्र सारा स्पष्ट किया जा सकता है: ऐतिहासिक धार्मिक गीतिस्तवन रत्वो गांव स्तोत्र स्तन गोलिका नतिजामती सकार नमस्कार प्रशाल Page #881 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२५ इस विशाल स्तोत्र, गीति व स्तवन साहित्य के यथार्थ वर्णन के लिए स्वतंत्र अध्ययन व ग्रन्थ की आवश्यकता प्रतीत होती है। यवः यहां इनमें से कविपन रचनाओं का अध्ययन बहुत संदेष में परिचयात्मक रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। इन रचनाओं में क्योंकि सत्यपुरीय महावीर उत्साद धनपाल की सं० २०८१ की सबसे प्राचीन ऐतिहासिक गीति रचना है अतः इसका विस्तार में अध्ययन प्रस्तुत किया गया है। सब रचनाओं का केवल मात्र परिचय ही दिया गया है। हिन्दी साहित्य की सबसे प्राचीन आदिकालीन रचना -सत्यपुरीय महावीर उत्साह है, जो ऐतिहासिक गीत है तथा इस रचना का सबसे बड़ा महत्व इस दृष्टि से है कि इससे अप और पुरानी हिन्दी के बीच विभाजन रेखा बींची जा सकती है। गीति और स्ववन साहित्य की इन शेरचनाओं का अध्ययन भी सत्यपुरीय उत्पाद की माति विस्तार में किया जा सकता है, परन्तु बिस्वार भय से ऐसा अध्ययन केवल सबसे प्राचीन इसी उदवाह गीत का किया गया है। 糖 यपुरीय महावीर उत्साह हिन्दी में रवी बाद में उपलध होने बाली सर्व प्रथम और महत्वपूर्ण कृति सत्यपुरीय महावीर उत्साह है। यह रचना एक उस्ताव प्रधान गीत है। जिसे स्मृति भी कहा जा सकता है। मी मैं इस प्रकार की अनेक रचनाएं परवर्ती साहित्य में विवाई में उपल होती है। परन्तु प्रस्तुत रचना की भांति उत्पादक रचनाओं का लगभग मान ही है। सत्यराम महावीर उत्साह एक यूति प्रधान मीति रचना है faast for reg का सीधा इतिहास है है। गाँव खनामों में ऐतिहासिक करने वाली रचनाओं की कड़ी में महावीर उत्साह को वीर्य स्थान वा या सा है। कास चरवाह' नाम से रचना के नाम व विल्य का कोई विवेदसम्बन्ध नहीं है तथा न जाने की इस नाम की अन्य कोई रचनाएं पाई जाती है इसके Page #882 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८३६ अतिरिक्त इस प्रकार का कोई काव्य रूप मी परवर्ती रचनाओं में परिलवित नहीं होता। पूर्ववर्ती साहित्य में अर्थ संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश साहित्य मैं गीति प्रधान रचनाएं तो पर्याप्त मिल जाती है, परन्तु उत्साह वंज्ञा विशेष से किसी काव्य रूप का बोध कराने वाली कोई अन्य रखना नहीं मिलती। वस्तुतः अप से इतर पुरानी हिन्दी में सर्व प्रथम यही रचना उपलध होती है जिसका कई दृष्टियों से महत्व है। प्रस्तुत कृति का नाम "उत्साह है। उत्साह वीर रस का स्थायी पाव है अतः इसकी निष्पत्ति किसी उल्लास या आल्हादक महोत्सव अथवा न्य किसी घटना विशेष के कारण ही हो सकता है। यह भी सम्भावना हो सकती है कि feat चमत्कारिक दैवीय पटना के काल पक्ति का चरम आनन्द या उद्वेग डोने पर ही कवि के ये योमार फूट निकले हो । यो परम्परा का अध्ययन करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि राज्यत्रित जितने भी कवि होते हैं, वे राजा की स्तुति या प्रति स्वजन स्वस्म गीत रवा करते थे। तथा राजा की विजय या पराभव के पश्चात पुनः राज्यप्राप्ति के अवसर पर हर्षोल्लास और असीमित वानन्द में लिध स्तुति मूलक रक्ताओं का निर्माण किकाकरते थे। वस्तुतः उत्साह नाम इसीलिए सार्थक परिचित होता है। सुट है कि aare करनामों का वस्तु चिप किसी काव्य म विशेष के लिए नहीं है। तोति मूलक मीति रचना है जो कवि के बाद विशेष और उत्साह की सूचना प्रस्तुत करती है। यों सरलता के लिए उसे वीर रस प्रधान स्तवन या गीत कहा जा सकता है, परन्तु फिर भी संख्या में केवल एक होने से यह परिवादा नहीं कही जा सकी। जो भी हो, यह कहा जा सकता है कि इस प्रकार की रचनाओं में एक लाभाविक था आधार उत्पाद का उन्नयन होता है। विशिष्ट प्रकार की कोई भी आल्हादक स्तुति "साह" नाव से पुकारी जा सकती है। Page #883 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८३७ *सत्यपुरीय महावीर उत्साह का रचना काल सं० २०८९ के लगभग है तथा इसके रचनाकार धनपाल है। इस कृति का सम्पादन श्री निजिन विजय जी ने किया था और बहुत पहले यहरचना प्रकाशित भी हो गई थी । पर इस रचना को अपर तथा प्राचीन राजस्थानी की समझ कर इस पर विशेष ध्यान नहीं दिया गया। परिवीलन करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि यह कृति अपत्र और हिन्दी भाषा के बीच की एक कड़ी है और इसके हिन्दी के शब्द स्मों के बीच में एक विमाज्न रेखा खींची जा से इस रचना का महत्वऔर अधकि बढ़ जाता है। द्वारा अपग्रेड और सकती है। इस दृष्टि प्राप्ति स्थान प्रस्तुत कृति पाटन के भंडार उपलब्ध हुई तथा ० १३५७ में लिखी प्रति के स्तोत्रों में से निकाल कर मुनिजन विजय जी ने इसको प्रकाशित किया था, परन्तु गुजराती पत्र में प्रकाशित होने से वह कृति अप्रसिद्ध और अप्रकाशित की भांति ही बनी रही। पर कृति की पौराणिकता के कारण यह और भी आवश्यक हो जाता है। कि इसका सम्पर्क अनुशीलन प्रस्तुत किया जाय। धनपाल की एक कृति पाकृत सत्यपुरीय महावीर उत्साह के रचनाकार में पाइयलक्कीनाम माता *सं० २०१८ की भी उप होती है। करी की पूर्व ली को देखकर ही लेखक की रचना की वरना शक्ति का अनुमान सब ही किया जा सकता है। रचना स्थान: प्रस्तुत कृति का स्थान सत्यपुर है। महावीर की मूर्ति इसी स्थल पर वर्णित है। सत्यपुर मारवाद का साचोर नामक स्थान था। यह स्थान अब भी जोधपु - १९८३ ० २४४ सम्पादक बुनि जिन विजय । १० नही है। ३- देखिए भावना कवियो: के०का० शास्त्री, २०१५१ Page #884 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८३८ राज्य के दक्षिण भाग में है।सत्यपुर साचोर का संस्कृत रूप है और अम्बर प्राक्त है जिसका अपर साचौर हो गया। वहीं स्थान महावीर का एक अत्यन्त प्रसिध प्राचीन तीर्थ है। सत्यपुर केलिए जम निन्तामणि मन्थ में जय वीर सच्चरिमंडल उस मिलता है तथा जिनप्रभरि के विविध तीर्थ कल्प में भी सत्यपुर को विकल्प बताने का उल्लेख मिलता है।अतः यह स्पष्ट है कि सत्यपुर जैनियों का एक विशिष्ट तीर्थ था। IT: कृति की विषय वस्तु स्तुति परक या धार्मिक है तथा घटना ऐतिहासिक । स्तवन या उत्साह का विषय श्री सत्यपुरीय महावीर की प्रतिमा है मूर्ति का आक्रमणकारी के हाथ से बच जाना, मूर्ति के प्रभाव से आक्रमकता का पुन: लौट जाना आदि घटनाओं ने जो उल्काति और विध्वंस की प्रतीक है, प्रवा भक्तों को माने, नावने मूर्ति का यह वर्णन करने तथा किसी भी प्रकार अपनी effort भावनाओं के उद्वेग की उत्साहपूर्ण अभिव्यक्ति के लिए बाध्य किया और धनपाल का यह स्तवन उसी प्रतिक्रिया का प्रतिफल है। धर्म की अधर्म पर विजय, feast का पराभव धमी के लिए प्रसन्नता का विषय था । अतः धनमाल की प्रेरणा के यही सब कारण विषय रहे होंगे। क्योंकि महावीर के दैवीय साम के कारण व्याकुल होकर मजनीति चला गया और जैन से जब पूर्णतमा परितुष्ट इवा तो सब वीर भने पूजा, महिमा, गीत, नृत्य, बाकि बजा बजाकर इब्बों का दान आदि भावनाएं करने को। वस्तुतः इसी प्रभावना प्रसंग पर उप हो कवि धनमाल ने अपनी भक्ति और उल्लास में टूम कर वह उत्पाद गीत प्रस्तुत किया होगा, परित है। १५की छोटी सी कृति में क्या नहीं है कि किस प्रकार पूर्तिजाने कुवाहों से महाबीर की सत्यपुर स्थित प्रतिमा पर भाषात १- जैसाकि पृ० २९४ । विविध श्री जिननमारि ९०-९९ सत्यय महावीर उत्साह जैन-०-०-२४२ पद Page #885 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२९ किया वह घाव आज भी स्पष्ट दिखाई पड़ता है जिसको कवि ने स्पष्ट किया है:- पुणवि कुहाड़ा हत्थि लेवि जिन वरतन ताि चन्थवि कुहाडेहिं हो सिर बाहिर १ अजवि दीsि अंगि पाव सो हिय तसुधीरह चलन जयतु सरि-नयरि घम्म सुवीरह आक्रमणकवी ने कोरिंट, श्रीमाल, धार, नरान, अ डिलवाइपाटन विजयकोट, पालीताणा, कद्रावती, सोल और देलवाड़ा आदि मन्दिरों की मूर्तियों की प्रतिमाओं को भी ध्वस्त किया, अपार धन लूटा पर सत्यपुर या साबो के महावीर स्वामी की प्रतिमा का कुछ भी नहीं बिगाड़ सका।साथ ही सिद्धार्थ का वमकार arast की मोति नृत्य तथा उल्लासादि उत्सवों का उत्कृष्ट वर्णन कियागया है तथा कवि की इस संक्रातिकालीन रचना में भी शैली की उत्कृष्टवा परिलक्षित होती है। धनपाल अपनी तिलक-मंजरी के कारण बाग के समान ही प्रतिभाशाली कवि थे। संक्षेप में रचना के इस छन्दों का सही बार है। रचना साधारण है परन्तु संक्रातिकाल में अयमेव और पुरानी हिन्दी विभाजन रेखा-स्थल पर स्थित है अतः महत्वपूर्ण है। कृति का ऐतिहासिक महत्व: जहां तक इस रचना के ऐतिहासिक महत्व का प्रश्न है इसमें ऐतिहासिक कवि मे सत्यपुर की ऐतिहासिकता स्थot पात्रों तथा घटनाओं का उल्लेख है। को स्पष्ट किया है: विमानमा सो विनिमय द मान बिरिरि वीर विद १ श्री देवपाटन, द्रावकी, सोरठ देवाड़ा और मनुष्यों मनको बाबा सोमनाथ के मन्दिरों को मन किया पर सत्यपुर - त्रीय महावीर उत्साहः जैन सा०सं०० १४२ पद ७। * वही ० २४० पद ३३ Page #886 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४० या मोर के सिद्धार्थ महावीर को यान नहीं कर सका।इसके अतिरिक्त स्वयं कविधनपाल मालपाति ज और मोष की समा का विद्वान और अपनी पंडित था। भोज की माही धनपाल ने शिला मंत्री की रचना की थी। सत्यपुरीन महावीर उत्साह में किसी आपरती का वर्णन है। तिलक मंजरी रखने के बाद कवि भोर वेस्ट होकर सत्यपुर आ गया था। उस समय देश पर तुओं का शाम हो रहा था जिसमें मानवी की बोमनाथ बढ़ाईशत्यन्त प्रमिल है। इसके अतिरिक्त पोज का समय पी निश्चित कि०० से ११ है। अतः मुहम्मद गजनवी मामय का वर्णन मोज ही के शासनकाल में पड़ता है और यह भी स्पष्ट पाकि भोग के कहने पर ही मपाल में मिलक मंजरी की रक्ना की बीहिरंग प्रमाणों पीमात होता है कि धनपाल ने ही यह आल्हादक स्तुति की थी। यो इतिहास में यह प्रमाननीं मिलताकि बाराम महमूद गजनवी ने बायपुर पर भाग लिया। जिमय पूरि इवारा लिनी में भी यह वर्षन मिलता है कि पाणब ने सत्यपुर पर सौपनाथ की पाति आमण किया, पर वह सफल + नहीं आ प्रभावकारिज और प्रयोग चिन्तामणि अन्य मी माद को प्रसिद्ध बामणकरी पान व कवि वनपाल ने अपने स्तोत्र में पाक माम को स्पष्ट क्यिा है भूपिहिब got मारि- लिवद शहासिक होने के लिए भी समान किया जा सखा है कि सा गोधारी , जिस पर मतों का सम्मति साईबी, की और मामूब ही काम नहीं या हो। बाराम महावीर की Kam (पिता -प्रिपारि प्रकारकपेडियाटिक सोसाइटी कर Page #887 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतः यह स्पष्ट है कि रमाकार ने कृति में ऐतिहासिक सत्यों और व्यों का भी वर्णन किया है।रचना के विस्य में भी यह सिद्ध होता है कि बामण के समय स्वयं कवि भी वहीं प्रस्तुत था या उसने प्रतिमा की शक्ति का उत्साह यशोगान किया। यह दूसरी बात है कि आक्रमण करती महमूद हो, उसका सेनापति होगा कोई भय रहा हो। वस्तुतः धनपाल का समय १०. है और उसी में यह उत्साह -गीन घटनास्थल पर उपस्थित कर लिया है। उक्त प्रमाणों के आधार पर वह भी या जा सकता है कि तुर्क यूनिक और चनलोड्य बाम्पनी ने सत्यपुर पर चढ़ाई अवश्य की थी अतः बा अनुमान भवस्य ही भानूब गजनवी रहा होगा। इस प्रकार कृति का ऐतिहासिक दृष्टि से महत्व स्पष्ट हो जाता जिससे बत्कालीन समाज पर हुए सो के हिन्दुओं की पूर्तिया और शिल्प की मन क्ला को नष्ट करने से किए गए अत्याचारों का पी परिचय मिलता है। रचना के एक स्थल पर कविने भामणकारी का नाम जोग लिखा कमिपाणि चिरकालि आधि कुवि जोग नरेसक रव्य सियइ सच्चारि दि बडि बीस जिसक शारकि मादा रंग वापीकर बरस बर हुम दो रहि मिबि मरी बलिउड सम्भवः माह के पूर्व का पहब के बहिसित क्विी जय बोर नाम नाम या मोड़ने का प्रबल किया है। मोम नरेश का यह मिस गये जानकारी नहीं देता, पर अनुमानतः यह भी कोई समकालीन राजा रहा होगा। बाकरता मे हाथी और घोड़ों पर प्रषिको ही बाहर निकाला पाहा, इलाकों के प्रभार रि, रिस कि बार कमी स्पष्ट मिलते है। पेमा कवि में लिया। बस किन की इष्टि विचार करने पर हमें रचनाकार की कायतका परिवाहन ही क्लि बाबा है। धनवाल ने इस रचना का प्रारंभ - न . ० . ४२० Page #888 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रार्थना से किया है। कवि ने महावीर के यश की विशालता का वर्णन किया है। महाकवि की इस कृति में, यह स्पष्ट है कि विशाल पैमाने पर काव्यात अलंकारों, छन्दों तथा अन्य कलापक्षीय उपादानों का अभाव है। जो आदिकालीन अधिकांश रचनाओं में ही है, परन्तु फिर भी भाषा काव्यस्प तथा तत्कालीन समय में साहित्य की प्रामाणिक रचनाओं के रूप में सत्यपुरीय महावीर उत्साह जैसी छोटी कृतियों का भी पर्याप्त महत्व है। प्रस्तुत गीति मुक्तक में एक अजस्त्र धारावाहिकता है प्रत्येक पद में कवि का उल्लास है। वह उसका उत्पाद प्रधान गीत है। जिसमें अपभ्रंश की अनुरणनात्मकता त्या ध्वन्यात्मकता जैसी काव्य प्रवृतियाँ स्पष्ट होती है। कवि के स्वर में महतृ अनुभूति और मधुरता का समन्वय है अतः अनुरंजन की क्षमता होना स्वाभाविक है। कवि ने ऐतिहासिक तथूय को काव्य माध्यम से प्रदर में प्रभावोत्पादक बनाया है। प्रस्तुत गीव की सबसे बड़ी विशेषता इसके जनगीत के रूप में लोक प्रिय होने में है। जीवन के मनोवेगों और पावों को जगाने में ये जन काव्य बड़े प्रभावशाली है। जैन समाज में आज की सत्यपुरीय महावीर उत्साह जैसे आल्हादक गीत कंठस्थ करके प्रतिदिन पाठ किए जाते है ર काम में सत्यपुरीय जिनेन्द्र महावीर के शौर्य का वर्मन पर्याप्त इक्वा से किया है। वर्णन का प्रवाह स्पष्ट है: बहुपति तारायनेहि रवि किं निन्यइ बहुरडि बि बिसरे हि मिल विकिंग मिलिज, मह कुरंग आस्ट्स कहि किरि काय पूजिव ब क ( अनेक वारामण मिलकर जिस प्रकार सूर्य के प्रकार का भेदन नहीं कर सकते, जैसे अनेक मिनवर मिठकर भी क्या मरुद्र को निगल सकते है? जिस प्रकार १- वही च, वहीं पृ० ४२। ह र जिमिद Page #889 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४३ अनेक हिरणों का समूह भी मदोन्मत हाथी का कुछ नहीं कर सकते, उसी प्रकार अनेक तुर्क मिल कर भी सत्यपुर के जिनेन्द्र का कुछ नहीं बिगाड़ सकते ) । स्वाय कवि ने विविध दृष्टान्तों से उक्ति को पुष्ट किया है। प्रस्तुत उत्सा कवि की आवामयी अभिव्यक्ति ( स्पान्टेनस एक्सप्रेशन आफ डे) होने से अत्यन् स्वाभाविक बन पड़ा है। श्रद्धा भक्ति और भावावेश में कवि ने महावीर की महिमा की क्षमता को अनेक उपमानों में बांधा है। जिस प्रकार पहाड़ों में श्रेष्ठ सुमेक, तारागणों में दिवाकर तथा सुरलोक देवताओं में इन्द्र श्रेष्ठ है उसी प्रकार तीनों लोकों में जिनेन्द्र प्रत्यपुरीय श्रेष्ठ है: जिम परंतु गिरवरह मेरु महगह विधायक जिम महंतु सुरवरह मज़िक उवहिहिं रराणाय जिन महंतु सुरवरह कि सुरलोड सुरेश तिम तु वियलोय तिलक सम्बारि जिनेस' (वाद सूरज के प्रकार की भांति उज्जवल ( प्रकाशित), सागर की भांति गंभीर महावीर का अमृत बरसाने वाला प्रतिविम्व तीनों लोगों में अनुपमेय है * तिवणि पडिबिंदु नत्थि जसु उप्पम दिज्जई ऐसे अनुपमेय और अनिर्वचनीय मन्दिर के वर्णन करने को अनेक मुंड और देखने को अनेक नेत्र चाहिए जबकि कवि के पास तो सिर्फ एक ही जीभ व दो मात्र है: ब्रहस्तेन विलोम ferg न हो निर्वह war aes गुण निवि चक्क जts were yes इक्कू जं महनियतपू कि कम सम्बरि वीर इक्काम. प्रतिमा के स्वार्थ अनेकों के क्ों को बावरों, किन्नरों व २ १ १३. बैंक ३. ०२४३ पद ११३ १- वही ० पद १४। Page #890 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४४ की देव ध्वनियों और ईडमि पास के लिए इस पूजा गीत की अभिव्यक्ति देसिए: "कुसुम इदि कि किलिक बमर किनर देव पुणि इस चिंध बैंडहि नियोके ठिउसीहासार्षि' इसी प्रकार अपूर्व प्रवाह और छन्दों के अनुरणम में या पूजा गीत बढ़ता जाता हैजलकारों के स में उपपा, उप्रेया मालोपन, मकान्टाम्ब रयाहरण आदि का सफल वर्णन है। रम्ना सैविच है पर गीतिनवता से प्रोग्रौत है। मन काव्य होने से यह स्तोत्र इर जैन व्यक्ति का के गान बन गया है में कवि परस वाक्य या फलधि के रूप में प्रतिमा से यही माचना करता है कि स्वामी प्रसारित मोह से मुझे बचा। राम मा स्लेड को तोड़ासम्यग वन जान और चरण इन तीन रत्नों से कोचस्पी योद्धा का समूल किाश कर। है सस्थपुर केवीरमारे मन में यदि भाव हो तो अपनी कृपा का प्रसार कर। धनया कहना है कि इस लोक में जो मया वा पुनः नहीं लौटता: • रवि सामि पसरंतु मोह हय वोडहि सम्पर्दस पि नाथु चरनु भह कोड बिहारहि करि पसार मारि बीर बह वह मणि पाबा पाल बार बाहि गबन पाइ.. मीर की मंगल उभाना से गील भाषा पूरे खोर नित्यन्त हवन की अभिव्यक्ति एवं श्री महात्म्य है। रचना का उदेक तीर्थ का महात्म्य मान प्रतिमा की सुसिजो धर्म प्रचार ही का बागा पर उसकी अभिव्यक्ति कवि का वाक्चातुर्य और कौशल है जो इस लोटे से किालीन स्तुति मान की मा दिपक देशा है। रकमा मन बनने कवि बाय बमा बधुरसा बोरप्रसादात्मक्या है। पी रमारम। स निधारण का प्रश्न है, प्रधान रूम में भक्ति main- ram- na बैग साहित्य संशोधक खंड का पद १५॥ Page #891 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४५ रस ही सर्वत्र निष्पन्न होता है। यो उत्साह भाव का इसमें बायोपान्त संभार हैमर वाक्य के समय कवि का निर्वेद भाव निम्न हो जाता है। रक्ता गेय है arr ऐतिहासिक कथा वस्तु से सम्बन्धित होने हुए भी काव्यात्मक, तथा स्वडनीय है। संक्षिप्ता उसका गुण है। प्रत्येक पद अपने में स्वतंत्र है। रचना मुक्तक गीति है, जिसके प्रत्येक पद में अपना अपना स्वतंत्र भाव है। पूरी रचना रोला में रखी गई है। माँ रोठा अपमंत्र का अत्यन्त प्रसिद्ध है, जो अपके किसी भीगीति मुक्तक में देश जा सकता है। freen: रचना साधारण होते हुए भी अनेक कारणों से महत्वपूर्ण हो गई। | सत्यपुरीय महावीर उत्साह की भाषा ! "सत्यपुरीय महावीर उत्पाह की भाषा के विषय में विदवानों में परस्पर मैदा व तादी की होने से भाषा की जानकारी के लिए महत्वपूर्ण है। तत्कालीन भाषा का स्वम उसका पुरानी हिन्दी की ओर या तत्सम वदों की ओर बढ़ने का प्रयास, लोक भाकाके खुदों का उसमें समावेश तथा अपात्र की उत्तरवर्ती स्थिति आदि सभी महत्वपूर्ण तत्वों का समावेश धनपाल की इस रचना में उचित है। समपुरीय उसा एक ऐसी कही है जो परवर्ती अव को पुरानी हिन्दी या देशी पावा नाका वितान है। की दृष्टि से भी रचना महत्वपूर्ण लगती है। इस रचना की भाषा के विषय में बवानों में मतैक्य नहीं है श्री मुनिनि विजय जी * तथा श्री के का० शस्त्री* १- देविय भाषणा कवियो १०४५:श्री का स्त्री । २० नागरी प्रचारिणी पत्रिका वर्ष मंक में श्री नाइटा जी का लेख-वीरगाथाकाल का जैन माया ३- नाहियो ० २४४ । ४- माया कवियो १९०३ सत्यपुरीयमहावीर उत्साह परिचय पर श्री स्त्री जी लिखते है कि यहककि मालवपति रोज की वन सभा में अग्रणी था। इसी कवि गाथा का सत्यपुरीय महाबीरोसाइडन नामक अप काव्य रचना है। Page #892 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८३६ दोनों इसको अपभ्रंप की ही ठहराते है। पर श्री अगरबन्द नाइटा इसे उध जप की न मान, प्राचीन राजस्थानी से प्रभावित उत्तर अपत्र की ही मानते हैं तथा उन्होंने इसे वीरगाथा काल के भाषा काव्यों के अन्त ही रहा है। कई गुजराती विद्रवान इसे जूनी गुजराती की कृति समझते है स्वयं मुनिजी ने गुजराती समाज में जैन साहित्य की गुजराती की सबसे प्राचीन रचना ही मानकर इसका प्रकाशन किया है। 3 यद्यपि विवानों ने इस की मादा को अवथ विवादग्रस्त बना दिया ना है, पर रचना की मात्रा का अध्ययन करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि रचना प्राचीन राजस्थानी की है जिस पर अपभ्रंश के परवर्ती रूपों का प्रभाव है। साथ ही तत्कालीन प्रचलित कुछ विदेशी भी आ गए है। कुछ शब्दों की व्युत्पत्ति पर विचार करने पर इसमें पुरानी राजस्थानी और उत्तरा का स्पष्ट परिलक्षित होता है तथा कई शब्द तो एक दम संस्कृत के ही अपक रूप है यथा: पसरंत (सं०) प्रसरंत रक्ि (सं०) रक्षि सानि (सं०) स्वामिन् पसाउ कोह पचाउरि १ १- जैन सा०० ०२४१-२४४ पसाड़ सं प्रसाद (सं०) क्रोध (अपच) साबोर (प्रा०) सव विहोरडि (०) विस्फोटय उत्तर अपप्रेस के स्वस्य प्रस्तुत करने वाले शब्द देखिए: अप:- (१) इयरनर, मनुमरु, विज्ञान, जगडन, मवण, सिपत्थर, पन्छेवर, नयरि, माइ, गहनगड, दिवा, जनावर, मल्कि, वियलोय.. आदि (संज्ञा) (सं०) सायपुर (क्रिया)(२) विजय, डिम्ब, भ, मिलिज, उम्वसिया, पुच्छ्रत्थडवि feeves, vees, विज आदि। * ४६ बैंक श्री नाटा का लेख । Page #893 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८१७ के पी छाद मिल नाके :इदन्छ, कम्ब, इदछ, मान्, पाक्टिक, बहडावस्लि, सोरदा. अज्जयि, युडिडि, किंकिल्लि, असारसहि अणमबुदा, बरिथ, सिन्धु, नस्थि दह आदि। अनेक राजस्थानी चन्द की बलवा से परिलक्षित होने है:प्रा०राजस्थानी •-सा. ( म, किम, 9, बास, वरवरिकि, करण, रिस, गाय, बाब, २-सतनाम-विशेष- बोदेहि सिरि, कोड, जि. पुहाड़ा, भामंडल, सिरिमाल, जग, मण, आपदम पोडिय, विवोडिय, वोडहि, मोडहि, बलि काहि मिलि, रति, भापियो मंदामियो, निविदिम, मासि, बीसहि, मोक्षिय, महावि, नमक, उवहि, रवि सि, वीसड, पईसड, मगड, पावक, आवा आदि हत्सम शब्दों निम्नलिखित बत्सम रूपों में यह ज्ञात हो जाता है कि कृति की पाषा अपने पुराने मों को होड़ नम कर रही है:उन्मूल, वाय. पारंग, मषिक, सिरियाकस, सोने, च. गिरि, मिति , चिरकालि, मीवर, गरम, निमित, मि, म. मोबाना, गमन, मर -भर, गिरिवर पे किन मादि आदि। विदेशी विदेशी है। की कार का प्रति ययापि इनमदों में स्पष्ट है पना कित्सर विकास परिणति को गाता है। यदि इसी विकसित सकोस पापा के स्तर मश का विकसित स्वाना सोमवृक्ति नहीं होगी। गि मरे वि, मेवेवि, मावि बद अपक के परिवर्तन की मोर अंत और माल की बात ही लगी है।माया इन उदाहरणों Page #894 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४८ से ऐसा लगता है कि अब के दो म उस समय प्रालित रहे होगें एक स्वाभाविक और दूसरा कृत्रिम। साथ ही साथ इन पदों में सरलता आने का आग्रह है। उक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि वी ताब्दी में अपयश अपने अवसान पर धीमीर उसमें उत्तरोत्तर पुरानी हिन्दी के स्वरम का ढाचा निर्मित हो रहा था। अइयाविधि अन्य विभाषाओं में सत्यपुरीय महावीर उत्साह के अतिरिक्त तत्कालीन को प्रति नहीं मिलती बनः पुरानी हिन्दी के प्रारम्भिक स्यों की बीज रूप में इस कृति में देखा जा सकता है। निष्कर्ष: इन नयों पर विचार करते हुए सेवक इस निष्कर्ष पर पहुंचा है कि इस कृति की भाषा अमांड के परवर्ती मों से प्रभावित प्राचीन राजस्थानी राजस्थानी साहित्य के एक प्रसिद्ध विद्वान श्री नरोत्तमदास जी भी इसको प्राचीन राजस्थानी की ही स्वीकार करते है। इस प्रकार पापा, काव्य सौन्दर शिल्प तथा अन्य उपाबानों का अध्ययन कर हम इस निष्कर्ष पर पहुंच जाते है कि यह सर्व प्रथम रचना है जो आदिकालीन रचनाओं को ही स्थान पर पहुंचा देती है, या इसी में में परवर्ती अपव के मा पुरानी हिन्दी र म पुरवित है। मपाल की ५ माधानों का यह छोटा सा सोत्र साहित्यिक, रानैतिक, ऐतिहासिक, सास्कृतिक आदि भी इन्टियों अपना विषिष्टमहत्व सबीस त्यानबह स्पष्ट हो गया कि ययापि विद्वानों ने सपाल की इस रचना को अपग की मानी है परन्तु वास्तव में ऐसा नहीं है।इस रचना को किसी भी प्रकार विजय अपांव की रचना मी मा पा समास स्पष्ट है कि रमामों की ध्वनियों व प्वनि मूलक रियो प्रभाव परत यह भी स्पष्ट है कि रचना का ज्यालयमा ब मबों का । लोक भाषा का और किए पीपा प्राचाई मायामा कठिन है, और इसके लिए कोई निश्चित -लामारा वोडा-स्वावना काम.. (समास्वरयास्वामी नरोत्तमदास। Page #895 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सीमा रेखा भी नहीं खींची जा सकती क्योंकि इस संक्रान्ति काल में भाषा परिवर्तन में प्रवादियां लगी होगी। मत प्रस्तुत कृति को उत्तर अपच और पुरानी हिन्दी, पुरानी राजस्थानी या अनी गुजराती की परम्पराओं का स्पष्टीकरण करने का श्रेय दिया जा सक्या है। यह भी संभव हो सकता है कि शोधकरतानों को इस कृति से भी कोई पूर्व की प्राचीन कृति मिल वाय पर ज्ञान वशेष की वर्तमान स्थिति में धनपाल की यह कृति सत्वपुरीब महावीर उत्साह ही सबसे प्रथम कृति कही जा सकती है। इस उत्पाड प्रधान मीत के पश्चाह मीहि पयवा से युक्त और भी छोटी छोटी रचनाएं मिलती है। क्तक साहित्य के सादिकाल का यह जैन साहित्य पर्याप्त सम्पन्न है।नगीतों के विषय धार्षिक है तथा इनमें इसी प्रकार के वय विषय से मर है।मामे पुस्तक काव्य के इन विविध पीबों, योनों गया स्तनों का परिचय कराया गया है। जिनपशि भूरि पल मीड -ttel मारकम मीति रचनाओं में बाइकी की दो प्रविण रखना अपाय होगी। ये दोनोरमार एक ही बताया लिली मईया इम का रसा काही सक। पाली रमा ! और दूसरी पत्तावोनों की मायामा रमा का भी १८ । रमा पाठी मी मात्र बाध और विश्व शाम हो। दी। दोनों मीलों में प्राचार्य जिनपति के बीन की विविध घटनामों औरसामा लक स्थितियों का वर्णन किया गया है। शाकिबी अमरगन्य बरलाल नाहटा पु.. वही और ॥ Page #896 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दोनों रचनाएं बड़ी सरस और जन भावात्मक है। पदावली कोमल कांत, भाषा सरल और प्रासादिक है। रचनाओं का तुलनात्मक अध्ययन ही उचित प्रतीत होता है। दोनों रचना प्रकाशित है। ८५० चवल गीत का एक प्रकार विशेक कहा जा सकता है जो विशेषता मंगल काव्यों या उद्गारों का सूचक है। धवल गीत विशेषतया विवाहोत्सवों में गाये जाते है। विवाह और चवल को पर्यन्त माना जा सकता है।धवल संज्ञक रचनाओं में यही दोनों मीतियां सबसे अधिक प्राचीन | अतः चवल उ की परम्परा का श्री ममेव भवीं शताब्दी से ही होता है। विवाहों को भी after नवल ही कहा जाता है। यों विद्वानों ने पी विवहलो, धवल और मंगल संज्ञक को ही माना है। दोनों रचनाएं, गीत है। इनमीतों में कूति की तीव्रता, उल्लास, माया मत सरलता और बरसता है। कोमल वली तथा सुन्दर चयन है अलंकार प्रयाद यद्यपि दोनों वीं शताब्दी के काध की रचनाएं है। में अपूर्ण गति प्रदान करते है। पदन्यास प्रासादिक योजना सम्पन्न है। दोनों गुरु प्रार्थना से प्रारम्भ होते है। दोनों में पाठ साम्य भी मिलता है।प्रारम्भ ही देखिए: शाहरण: परछ: वीर जिनेसर ममइ सुरेवर निय युगवर निति सूरियण मायो, भक्ति पर हरसिद्धि परिम तिम तार व एक कारण देखि पूरण कथवरो नियम विनास पाय नाव इति विमिर मर सक मी वर मी अकबर निति दूरि सरस पनि म कम मेडन सुन कम माइसो मनि रमले विमान कारण मीडिय पूरन कल्पतरो दिवाना बनान, इरित तिमिर न (म) र सहसको * नागरी प्रवाहिनी पत्रिका: वर्ष ५८ अंक ४ ० २०११ ० ४१८-४६ २०० का ० ० ६ पद १-२ ३० वहीं, इ० ८१ Page #897 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दोनों की पत्तियां पाठों को होड़कर मिलती है। शायद दोनों समकालीन होने से प्रतियों का पाठ मिश्रण हो गया होगा। पर भामे का पाठ सब भिन्न है। बाहर की शब्दावली के विविध अलंकारिक स्थल इस्टर्न है: १- नयर नर मारि नवरंग परियायो २. बिहु अप बारव सिव मुह कारण पर बाछिय पूरक परो। - नान गुण चारण गुरु पयार बड अबर वासरे पट्टो परवरे - बाध पर पाप सासमा देवि, देवि नालंधरा रजिवीर - मयल भार सिधान्त अवमाहए, सजण मा नयम आवाए ' पदावली ने वापत्यारिता और मधुरता देखिए • पारवि करि सब लावन्म गुरु बायार, जण अम पड पनि घरीर सिर माय बुले काल दिवानर, बादीब गय पद केसरीष वरीय संबम गिरीय भीमपल्ली पुरे, मंदिवर वि पि बरे बह सयल मार सिद्धान्त अवमाए सजय मम नयम आदीर' भत्त के भी कलात्मक उदाहरण इस प्रकार है: सविन विमान पाय माग्न इरिख दिमिर ( भ) र सासरी (कानोरतम काम मोपण पूल मन्दिा रन मरर वारि धन पर मारे मूल नादि सारी (0 मरवर मारिव परि परे बाबा, (५) परपीब मानमतीय बनु श्री का बल करने वाले दिन पारगमन काप बनाम कामद, किमा रनों परिपूर्ण नासाठी, बीनों लोकों का अनुरंजन करने वाला या मंगा लिया । विवावळी बसपि निमुवन मोडीउए मोगा शुभ मावि मंदिर योडीय भाग गब रमावर वियप ना भावतो पहिले मोडहर पविक जन मोहाय, बालइप मोडतिमिर तो Page #898 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कामधेनोत्तम काम कुमोपन , पुरष जैम चिन्तारयण श्रीय जिप असिपि नब नब मी तुल प्रभाव प्रपटीयकरण जन रन प्रब दुह मंजर देखण नाम चरित जुनो सकल जिणागम खो गदर अभिनवर पोयम उदयवतो पुरवि पसिया भूरि पुरीसर कुवर कमल नयण मंगल कुल मंग अळवाए जस निरमाए इस गालिका लिहि अवनवि पिइर सिरि माल्ब लोहिरि तिष सोहन सिहि क्या सारित जिणवाइप मुरि महिमा निसाए इस प्रकार जम भाषा में रचे जाने से दोनों गीतों की भाषा सरल है।काव्य ख्य की दृष्टि से दोनों गीवियां सरस और लोकप्रिय है। माषा का पित्व राजस्थानी मिठास है। दोनों गीत छोटे और गेय है। मधु विन्दु गीत पद सवीं सदी की एक सरस और मेय रचना जिन प्रम मूरि रचित मा मिन्यु मी परवना बसि । प्रतिलिपि भवन न्याय में परति . . ना में प्रकार मार स्वामी का बाद है। इसमें विस पुषों को मा बिन्दु पदमा का है। बाप देखिनकोड परियाबी कि पान स्तिों को पील पाणि समति बगिर बील पीस बलि अनधि अतिर्षि वारि मुबंगा विर लिगवि मा माहिर मानि विलिमिति समन मा किरि मिला मारिका सिरि मिला इस कष्ट कि विरा बा भषि मह पहा मधु बिन्दुवा Page #899 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सात मुख मरि किपि सो लिव इस विषय सुख प्रभवा रचना में संसार कीनश्वरता का स्पक में डाली पकड़ कर गिरे हुए मनुष्य के साथ बाधा है जिसकी डाली को दिन रात मी बूढे काट से है और कुएं में असमर (मृत्यु) और डाली पर लगे अन्त में मधु मिन्ड (सुख विषय) गिर रहे है। बाहर मस्त गल दहाड़ रहा है। ब स्वामी ने इसी पक अन्या के भब चोर को स्पष्ट किया है। भाषा सरत राजस्थानी है। पद मरस बेली में लिया गया है या मेब है। म्यूलिप गीतम' स्थतिमा के सम्बन्ध में यह रचना है। रचनाकार बात कवि प्रकाशित है। रचना १४वीं शताब्दी की है। अषश से प्रभावित पर राजस्थानी है। उदाहरण दृष्टव्य:• परिस सम मान मनु टालिल बा अणि बरहि, कर जोडिवि पाहि पा कोसल गया था भाग शिणि पएिमास मुगविधान पुनियर faar - -- - बमिक व भावरिलबोन का विय परि एक मारा विकार समय मद का कप विण बानिया र कपासवास रिम मरि यि मामि रममा गपाला बिति सम्बन्धित है। Page #900 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८५४ श्री जयर स्वामी गीतम् वयर स्वामी के चरित्र पर प्रकाश डालने वाला यह छोटा सा गीत है। यह जन भाषा काव्य रचना ७ कड़ियों की है। रचना स्थूलिम गीत की ठी मंrति र लेखक की है। माषा में जय का प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित होता है। इनगीतों में कथा त पी मिल जाता है। भाषा का उदाहरण द्रष्टव्य है: पुनि सो वैदह बहर सामि मिलि सहि साथ इति संन्द्रिय चाड र मियो हंदु धारि राति दिवस रोवइ समास मुनि आनु घरि सुनंदा मग न देई वो जहले इन्ह धनगिरि पनइ इम्हि नाव दे होइसी बामनी पलिता नइ देर ह ना हेडर जिनि पढिन ग्यारह अंसूत वि यह वंदहो बदर सामि जो जगि पर्वतो वयर स्वामी नेमिनाथ, जम्बू स्वामी तथा अनेक तीर्थों के सम्बन्ध में अनेक गीत है जिनका नाम सूची में दे दिया गया है। इस प्रकार इनगीत काव्यों इनके ईद और परवप्रथम होने की प्रवृत्ति स्पष्ट काव्य की दृष्टि से में रचनाएं महत्व की है। संस्कृत स्तोत्रों की भांति इनमें वह बरसता नहीं है परन्तु काव्य रूपों के वैपिन्नय के कारण ही इनका महत्व है। स्तोत्र स्वसंरचना भी बहुत बड़ी संख्या में उपलब्ध होती है जिनमें ये कुछ रचनाओं का परिचयात्मक विवरण दिया जा रहा है। शताब्दी से ही इन नाओं का बाय मिलने लगता है। जयसागर (सं० १४८५ ) ने अनेक स्तोत्रों नहीं है जिनमें से कुछ इस प्रकार की रचना की है। वे स्वोन मीतों की भांति - अभय चैन ग्रन्थालय बीकानेर में सुरक्षिय Page #901 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बावीस जिन स्तोत्र यह स्तोत्र जयसागर विरचित कवि ने निन्द्रों का प्रशस्ति गान किया है। पूरी रचना वर्णनात्मक है। कुछ प्रवाहपूर्ण सदाहरण इस प्रकार है: *विमल महामति सुभ दातार, विमल जियेसर सेबसार जिण अर्णव पण मनाउ, पट बंचा दिय बा धरमनाथ जिम धरम गुमाल पावडं पाडर हुक्कात मंतिमी मि उमर भयकर करई सिन सेवर क्यवार डिव जिम जफिड वेवी सा पानाह तक्विान समज महावीर महिमा मंडार को सेवा यो जापड भार इस प्रकार सामान्य रूप में मरल भाषा में कवि ने चौबीर्थों जिनेन्द्रों को श्रद्धा स्निग्ध प्रणाम किया है। रचना का उद्देश्य धार्मिक है। मेमिनाथ भाव पूषा स्तोत्र पूरी रचना पाय प्राली बीम पाली मई मागे समानामा पूर्व सेना की शा को कवि ने ग्लास प्रधान बाली में अपित किया है। नालन्टन: "पुरमा पूर्वमा बाबा, वे गार गाव सोडवा बडीयोमादेव देवा, मावा ली येवा बनी बीरली हि पारेवि पूरी, मनोरंक घोडके मला पूरी मदेव बामि मा बाम, वा महामोड मत पहल नाम मानक भोलि य बापार कंक गुण धरने प्रषु पूरति अति म सक बी नई वाडि पि बी दुनिई मेवाडि, डोदर मा हुर्दम दिन बिदेविकडिणी गोडई सिम बिम बन गयण विमोड Page #902 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८१६ सिर गिलाल मचकुंद कैपिलिं, पाडत नइ अरविंद दमण्ऽ मन्या जूही कंदा, वाला केटल बंद जय जंगम पर बरु सरिसव, सेवक जन वंछिय करण देव वरनाण सरोवर राजहंस, पादन कुल कोमल कमक इंस लउ तियण तारक तरप पुर, बळ यह विधि पसरिय पूजस पूर इस प्रकार पूरी रचना भाव प्रवण है। भाषा सरल एवं सरस है। धार्मिक क्या उपासना सम्बन्धी है। पंचतीर्थकर नमस्कार स्तोत्र आदिनाथ, गतिनाथ पारनाथ मे भिमा आदि बार प्रमुख तीर्थकों को नमस्कार करने के रूप में तथा उनके गुण वर्णन करने के रूप में कवि जयसागर विरचित चवी नमस्कार स्तोत्र प्राप्त है। रचना उल्लास प्रधान गीति का है जो कुल "दों में लिखी गई है। भाषा उदाहरण देधिः * रोमानिस हिबा परमार मयष अभिय रस पीलमा, बील मादि निर्णय माव ताय गुरु देव कई हरि शुभाधार हुम मिण भवर कोई मा, मावि मा करि मार मा म जियार रक्त, पब विसंगन बीर पीरिण पुमि मिरिवार गिरि, जिण पामि भवबीर गौरव माविबा, मुषि मिस्त्री गिरिनार शिरि रमय माग गरिए. सोहा मेमिकमार कविरोषोक वाषिरीरिक व्याधियों से बचाने की मंगल कामना काम नाम रखा है। रमा की भाषा स्वस्ट सरत हिन्दी बसव: Page #903 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८१३७ १५वीं बताब्दी में इस प्रकार के अनेक स्तोत्र मिलते है। जिनका विस्तार भय से परिचय दिया जाना सम्भव नहीं है। स्तवन स्तवन संज्ञक रचनाओं में मेरनन्वन और जयसागर में अनेक रचनाएं लिपी भी ठीक वैसा ही है जैसा स्तोत्र संज्ञक रचनाओं का । स्तवन एक ही काव्य प्रकार के पर्याय है इस सम्बन्ध में है। इन स्वनाओं का वास्तव में स्तोत्र और कुछ स्तनों का परिचा अप्रति है: श्री चतुर्विति जिन स्तवन atra as की १४वीं शताब्दी की स्तवन संज्ञक रचना श्री चतुर्व जिन स्तवन है। इसमें भी २४ निन्द्रों का प्रशस्ति गान किया गया है माया पर अपभ्रंश प्रभाव परिलक्षित होता है। तीर्थकरों की स्तुति बड़े उत्साह से कवि में प्रस्तुत की है: -- " मोड महा मढ मय महन, रिसह विसर देव after for a ममिति तुम्ह ममसेव भूवन विमूवण मजिय विन, विजया देववि मल्हार निवर्तत मह रानि वियन सार सेवर सुग संवर वरिम, संकर कि मिहावु दिप मने, विहा यसरि पड, हवी नंदन देव क्यान दिन, सुरविरइय सेव हिरि करि बलि विमल जिन निज्जिय मोह गद णुन पण पाया वियण नयनावंद Page #904 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૮૮ ग्राम अर्थ अनंत गुण, सुबसा देखि मल्हार मसायर वोत्थिं सम मम जय जिनवार" इस प्रकार कवि ने जिनवंदन प्रशस्ति में ही पूरा स्वयम लिया है। रचनाकाव्य की दृष्टि से साधारण है। स्वंममेव परवर्वनाथ स्तवन ウクララクラク (प्रथम) FREE श्वर स्थित पार्श्वनाथ की प्रतिमा की प्रशस्ति रूप में प्रस्तुत स्तवन लिखा गया है। कवि का काव्य कौशल और माया की सरलता इष्ट हैं। रचनाकार जयवाग रहे । स्तवन का रचनाकाल १५वीं वाबुदी का उत्तराय है। उदाहरण देखिए: *निय महारस वीरखंड पय वक्कर पोलिय हवा ह तह जाणि वापि म मुद्रिदय बोलिय जं निसर्ग तवि भविग लोय तिस मुक्थन पागइ श्रीविव गवि पूरे ना जइ धन्य वक्यागड़ मपि सामल लिय काय, के गगवड वर बहु करियति कर ताछि, जिम सोबन सिरि सोवन्न राि पान चोकमय दो पद चोर मय संकरा, रोम भव सोम मय योग भय वरा निमय देवरी, वामन बाप मपि पास अवेस * रमा भावात्मक का रस है। रचना की प्रति जैन प्रथालय सुरक्षित है। Page #905 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वंपने पार्वनाथ स्तवन (दिवतीय) इसी नाम से एक दिवसीय प्रवन नी मिला जो इसरना के पक्ष व प्रासादिक है। वह मी जयसागर विरचित ही वर्णन सिात्मक और अनुप्रासात्मक है:* वणव भाभरबह माला, तिहि मना कर माता निरविमिर बिपि भानस परि जिमि स निवासी, जिम वर्मति बराइ विकायो, जिन उदयानल मा गर िगव्य विनावीय, भारिपुर सरगसरीमादीसह पास प्रकार होम र कपिणीका, महिमा पुगणावि मो शिव र पाना चितामवि मिति मापड, भापम जिम जग पुगतिहि थापा, कापड़ पापड़ के मामि बरोबर #टि यो नि उरवर भाकि पति मोलि g इस प्रकार दोनों रमाई बरस मीर मेव है। श्री बीमार स्वामी सम वीधर स्वाप बसि गाम को कवि ने इस स्तवन में जोया रचना ११ माथानों पूरी ई लाकार माति अभय जैन यालय है। भामा नोपान प्रभावित रस्मा पर और परिवमूलक जिसने चीन्ट भावों को प्ररित के स्म मेभारा गया है। भाषा का Page #906 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६० “धन्न हे नमर जाहि सामि सीमंघरो, विहरए भन्ध जम सब्द संस्यहरो कामघट देवमणि देव फलिया बीय परिणीय मामिलाई मिलियड नाव गुणि कान गुपि चरण गुणि मोडिया,सार उवगार संपार संबोडिया रयणि दिणि हरित वधि सुस्त मागरमणा, बाद मनान कार्यति विलयम जमा सिसि कर रिविकर क्षिर संकरा, विक्य विश अभियभर सामि सीमंधरा कर पुल जोडिकरि बानिमुणियो, बाल जिम हेल दे पाय बुह पयियो मोह पर मान पर लोप पर परियउ बमपर रागार काम भर पूरिमो इस प्रकार कवि जीवनोधर के लिए अनेक शुभ संकल्पों को याचना करता है।रचना साधारण है। इसी प्रकार स्तवन मंजक अनेक रचनाअई है जिनका उल्लेख परिशिष्ट मेकर वीकरों T महापुरुषों के मांगलिक पर्व, जनमोत्सव तथा संयमभी वरण के अवसर परउन्हें विविध तीर्थों के जज से कला द्वारा स्नान कराते है स्मान करते समय जिन भावनाओं का रक्य होता है उनको कला मा अभिषेक कहते हैं। तीर्थकर प्रतिमा को आनबिन हो मम खान कराने समय में रचनाएं प्रशस्ति स्तुति मादि के पास की जाती है।कला शक रखना मुक्तक है तथा संख्या में अनेकों प्राप्त है। एक दो का परिमय भी दिया जाता है। इनरवनावों में नावात्मक पद इनकी सबसे बड़ी विगवा है। रचनाएं १५वी प्रथा पी बादी वक मिलती है। - - नाम स्वापी मामा मापन की स्तुधि मूलक यह रचना है। भाषा भरसक बना रचना की काव्यात्मकता के उदाहरण दुष्टस्य। देवादि विपिरि मंबरे, देव बप्पड सामिपी बरे बम पड संग मा , डिया संडक्षण अहसा संडला Page #907 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६१ मय नई वन वित्थ जल पूरियां, दूर रव दूर पूरंत वर चूरिया मेरुमिवाविया देव को डिडि क्य क्लस कोडीयम महूर गायेति बहु किन्नरी समपुरा, लंकिया किन किन्नरवरा बेसरा विउल दल कमलकेल कोमला मलकरा. किरण रमणीय रमणीय रामणवरा इस प्रकार रचना अनुप्रासात्मक और सरस है। ानT के अभिषेक का प्रशस्ति गान है। रचना की भाषा और शब्दों की अरवानात्मकता और कन्यात्यकता दृष्टव्य है। लेखक प्रशाद है। रचनाकाल १५ दी है। वर्णन की नादात्मकता देखिए ● धन रवण रुन्य मिय कणमय क्लासिहि हवन करेवि लड़ पंच वन्न कुमिहि महिवि हरिसिय सुर नवंति मह gaf gगि पुगि पनि घोंग घोंघौ मिम मात कटटिम कटटिम टिटिम टिटिम बहु पढ किमि नि मि मा सम छलपल उपल कंसारमय बब्जिय इसी तरह रचनाकार ने गीत को संगीत व वाक्य प्रधान बनानेके लिए अनेक नृत्य safe asदों का प्रयोग किया है। रचना की अलंकारिकता इष्टव्य है। मादिनाथ चिय इस पद में भी उस रक्ना का ही अनुगमन है विलय संज्ञक रचनाएं समभव सभी एक ही प्रकार के लिखी गई है। प्रति मन प्रन्थालय में है। रचना मेय व संगीत सत्य प्रधान है। रचना ११वीं शती की व रचनाकार अज्ञात है। इसमें भी ध्वनिपूर्ण खुद का चक्न देखिए: Page #908 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६२ . मलविs Gous साल भर कर काहल वरखाल से कनक बुक मुगल संथा से वजति मनोहर दूर असैरवा सेबी दे विषु सिरिय सूत ते पण कठिन उनत वट, से हाव भावविभ्रम विलास इस प्रकार रचना जिन वयन की प्रशस्ति मात्र है। तति वायदि, वे किम्मर वर गंधर्व गाय सिमि, से अनि मिस रमनि नच भवाणी महरण, ते बनि सनि कर तिक जिम गुण गहन महावीर क्लव महावीर के अभिषेक पर अनेक वाद्यों के साथ उल्लासपूर्ण अभिव्यक्ति में गाई हुई यह सुन्दर रचना है। नृत्य और गान का सुन्दर वर्णन उल्लेखनीय है। रचना का लेवन काल १५०० के पूर्व व लेखक ज्ञात है: घुट घुट्ट डिदि हिप पड़ ग नाना कि रिङ रिड टि कि रिड रिड रिट करा कि डि दिन रिट वन्जय कट बोर्ड वाला कोई सदी वाला कोईति डालिया सर fegrets मंगute नियोंम्पर अम बीमा दे बच कहिके में कटरे मिडदि मड्डा व सेहि दिन इस प्रकार पूरा बाइयों व वालों का वर्णन सभी संरचनाओं में है। रचनाओं की संख्या बहुत विकास है। जिनमें वे में इन कविषय रचनाओं विश्व मा अवस्य स्पष्ट हो सकेगी। केही उदाहरणों से : कोला : ति तिवारी मनहरी बोलिका संरचनायें भी स्तवन की पर्याय ही है। इनमें कवियों के धार्मिक Page #909 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८.३ स्तवन प्रस्तुत करने के बोल है।उल्लास के इन बोलों द्वारा कवि अपने हृदय की श्रद्धा और भक्ति का प्रकाशन करता है। इन बोलिका संज्ञक रचनाओं में अधिकतर पूर्व रचनाओं की पाति साप्रदायिक या धर्म प्रशस्तियों तथा स्तवन है। इन रचनाओं मैं अधिक सं० १४३७ की प्रति से उपलब्ध है। प्रति पय जैन ग्रन्थालय में सुरक्षित है। भाषा में अपभ्रंश बकों का बाहुल्य है। बोलिका और बोली दोनों एक ही प्रकार की रचनाओं के लिए प्रयुक्त हुआ है। कुछ रचनाओं का परिचय निम्नांकित है: श्री बासु पूज्य बोली रचना अप्रकाशित है। इसका पाठ ० १४०० की हस्त लिखि प्रति (अभय जैन ग्रन्थालय से मान्य है।ना धार्मिक तथा देव अर्थ और उपाला आदि के लिए लिटीगई है। कृति मे है। इसमें न्यात्मक बदों और वादों का वर्णन है। बाइ पूज्य तीर्थ को नमन किया गया है। आराध्य की पूजा में साधक की पूजा विधि व उल्लासमय मोल इष्टव्य है- लेखक है: करि उ वाचा सुंदरि मणि नि वा महिवि अगक म्यूक न करी ग्राफ या यूज स्वावहि पावन पनि अंगि वि ताप रावने विवि का निव वादों की बहार निका नामानि पड्या या दोन ताकारी रिहानी डाल ता मदर पर कोरी या भाव या परिमार रिमायहि गायन सोहि म इस मौलिक रचनाओं में भी गीत तथा गाइयों की प्रधानता है तथा करि दिनमा पाठ बीम मे महरंग Page #910 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६४ भादिनाथ बोलिका आदिनाथ के स्तवन के लिए कवि ने मालिाथ पर उन्लासमय बोलो से यह कड़ियों का स्तोत्र प्रस्वत किया है। पापा सरल स्तोत्र सरस तथा मेय है। १४वीं शताब्दी कीरनामों में इसी प्रकार कीबोत्र रबमाएं उपलब्ध है एक उदाहरण देखिए: • बाबा दियावहि जीव रक्सवाहि लोया मिलिया रोक वा जमामिड कहहि मिला उमभूलहि दुह बंड ता कल सपिगारिणी मावय सारिहि मिनि रिसह विर्षिक ना करा गिइ सरह मुगाह पहिरावणी सुरंग डा मब भामा यहि रामा, मासिय मावि बा बन्धादि देवदि देवपुत्री, महाका माति का शिवकी हिदिति भण आनं दिहि रंगिहि भवहि बाल वा भाइ सन्जिरि मलि बन्या मदन भर साल. इस रचना में कवि ने लय aro, राम चूमर या पुरि भाबि का वर्णन किया है। माया स्मन्ट होता है कि इन भावामा स्वबनो बान के पास और धुम्मर आदि भी होते हो। जिन प्रकोप पुरि बोलिया बाबा जिन प्रयोष हरि के आमों, अब, प्रभाव और दीक्षाको बारची बई है। पूरी रचना माथानों में श्रिीमान व भाषा परत और स माय मणि मण्यात कटार रेजिम अगवा Tोब वर परिसिक सिमित गरिक कसोर कपि डकि का Page #911 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६५ मेठति तिष्य पुह बइय माल अगेसरा गायति पश्यण मायरो अ, पण वरजण सरा रण मणा प्रिय शुद्ध पाभिजिमि मोह निगल हापित जिण प्रबोध सूरि महुए मजद पर असुर भरसंपुष्ट वस्तुत: ये रखनाएं जिननयों पट्टोत्सब के काम में भी लिखी जाती थी। रमना में अपर प्राचीन राजस्थानी तशा तत्सम शब्दों का प्रयोग स्पष्ट स्तोत्र कारिक श्री जय मानिाथ बोली प्रस्तुत रमा वादिनाथ का गीत पाठ है। रबमा मालकारिक व मन भाषा से लिखी होने से पर्याप्त सरल है उदाहरण देसिए: • जा चंदकुंव समुत्ति दित्तिहि सगर तिय धवलिये बन पाय पंक्य हंस जिवसुर असुर राय सेविय मब कुंद बाप वेडल केकी वासीया सार पय बादशी यानि म इमरिया भी मार मम्मिर भालरि योनि का मानहाइस तरह बम तीर्थ के आदिनाथ वीकर पर माशो में पूरी बोलिका या मोडी लिपीबईमा कारमा का प्रति वर्गम वृन्टब्य है। - मैमिमा बोली यात्मक माय मा are मान आदि सभी का वर्णन कवि ने पार प्रस्तुत किया। उपासमा बा पचति व भक्ति गान का Page #912 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६६ काव्यात्मक वर्णन इस स्तोत्र में मिलेगा। माया प्रवाह पूर्ण व सरस है: बरकम कलम परि कुंड मइव महिम होबा मेमि कुमार मि कम्पूरी कधूरी दणि अंगि बिलेवा मारू रव पथ पड्डल बेल वाल, सिरि पुपडि परिव रागी निय निय निय बाडिती सूर नगा बह इस परि नव नब अंगी बहि दोदों विलि बन्या पौधों मृदंग सुम क्रिडिडि हिडिडि डि हिडिडिडि महरिडि र बागि यहि आयुब मुसरं रि बत्यक मुनक बाहिरि कटक्ट टिम क्ट 'टिम टिटिम टिटिम रिग षडाला उत्साल छल छल छल छप छपा साल मुबी बाल जति तक रुक गल मपहर महरि मगम करि ताहि नचाहिं नाटिगि धोंगिनि अपर भगभरिया कारि इस प्रकार इसी नावात्मक बन गाथाओं में यह बोठी समाप्त हुई है। स्तवन वर्ग वोतिका संसक बना विशेष सरस मे विविध बाइयों के समीर पूर्व तथा भाकारिक है। इसी पर कई अन्य बना विनका बाशिक परिक्य मोहो पाया। कि निधि हर किया वीनंती करमा गम होती है। समाई सिमानामा पक्की लगाम रसायन री प्रार्थना बनकर अभिव्यक्त हुए है। रमाएं की सामान गावपूर्व मन्यात्मक स्तोत्र । इनका उद्देश्य भी धार्मिक पुत्रों या निन्द्रोंग सलमानरमानों की भाषा प्राचीन राजस्थानी है। रिना मा लेखकों की प्रतिया जैसलमेर बैग भन्डार था अभय जैन Page #913 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२७ ग्रन्थालय में सुरक्षित है। स्तुति संज्ञक रचनाओं में सबसे प्राचीन रचना महरचित सं० १९७० की, जिनदत्त दूरि स्तुति तथा वादि देवसूरि विरचित १२०० की मुनि चंदगुरु स्तुति है। ये रचनाएं अपभ्रंश बहुलर है शिव रचनाओं में से कुछ के माका तथा माव जन्य पर्व काव्यात्मक उदाहरण अलम् होगें जिनदत्त सूरि स्तुति और मुनिगुरु चन्द्रसूरि स्तुति परम्परा में नेपिनाथ स्तुति और विरहमान स्तुति का परिचय दिया जाता है: नेमिनाथ स्तुति हरचना १५वीं बताब्दी की है। प्रकाशित है तथा अभय जैन ग्रन्थालय मै सुरक्षित है। रचनाकार है जयहागर, जिनकी कई कृतियों परवडले. प्रकाश डाला जा चुका है। मादा की दृष्टि से उदाहरण निम्नांकित है। कवि ने बहुत ही संवित रूप में नेमिनाथ का स्तवन पाठ किया है: • वण्ड रखि एक बाडा ते गाइयइ आज लगइ पवाडा जes जी राइमई महेला ने नेमि जोवा मुथ एडूवेला जाने जिम्मा उर मीठा जम जाना सानिय बाजीठा बीजी कहूंबात किसी विचारी, निश्वई वही कर्म इकामम्हारी तिमी नमाज, समधि संतोष क्ला चढावड aterent of anी जामी, बानी जसनाथी मानी विधि व्यायई है नितरी भाषा मार जावई पाहि बाग मे किताका से बसमाग पूरी ती प्रधान भारत राजस्थानी में लिही गई है। तत्सम शब्दों का प्रधान्य है रचना सरस और प्रासादिक है। Page #914 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६८ : विरहमान स्तुति : यह रचना भी जागर विरचित ही है। यह भी बहुत संक्षिप्त है। कवि ने विमान की भांति अनेक जिनेन्द्रों को नमस्कार किया है। भाषा उक्त स्तुति की ही भांति है उदाहरण दृष्टव्य है: जयवंत महंत भवन्त करा, कलिकाल कराल कुमोच हरा सीमंधर ग्रामी मुख जिमा महर्दितु समहि विडि परहेसर कारिय देव हरे अटठोवय व्यय सोड करे freeन्न पमाण सरीर परे परवीसई वेदर तित्थयरे विजय आदि जिदि वरं मिरि नारिहि नेपि तु तित्थयर साया वंद ताम मुंढ जीराउलि पास पन मुंड परहरे व जिजए सुबहा नर निम्बर निम्मिय जन्म महा विहरत र दुरंत पर्या, युवपेसर सत्तरि वेग स इस प्रकार यह स्तुति संस्कृत पद्धति से लिखी गई है। रचना में अप का प्रभाव मिलता है। स्तुति गीतिमय है 1 विनंती विनंती संज्ञक अनेक रचनाएं भी स्तुति की ही मांदि उपलध होती है रचनाएँ भी भक्ति का कै निवेदन करती है। इनका विल्य भी स्तुति की है। रचनाएं निश्व प्रति पाठ धर्म प्रचार और लोकप्रियता के लिए दिदी गई है: ही महावीर वीडी वाद की अज्ञात कवि कृत महावीर के जीवन चरित के योगान के लिए वह रचना लिखी गई है। पूरी वीनती तीन भावों में विभक्त है। रचनाकार जयसागर है। प्रति अभयजैन प्रथालय में सुरक्षित है Page #915 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • माम सोपाम संभाग स कारनी, विक्ट भव कोटि भय पीरूप बारसे नमन रवि विज जिम बिसम बम नाम अब सिरिवीर जिम सुगम भासासमों अथक दुइ नाप र पवर वरपरो भर्विय जण मोर मम पम पमोयंकरो. संसारका वर्णन देखिए • अपावरि मारि कागद फिरता सहिया दोष बसि इमाणे मई महा बिके कई आपली बार हीपी बट्टार्म नी भाडि मिन डीपी वन रामि रावळ वर्ष मणि मालग इवतात न मवि रित्ता बार मिली म भावर्ति पडिउ न को वहरि पली बीमार म देव बोसा, म के पाप पोसा, न मास सोचा, मते मर्म कोडा देव हे एक नई लगार भरे मोहणी कर्म करेउ विकार श्री बीवराम विनंती रचना प्रकाश्चित है। वीतराग महापुरुषों के आदर्शों की इसमें स्तुति की गई है। रचनाकार जयमागर है। १५ गाधाओं में कवि ने पूरी विनती समाप्त की है। बीनती, बिनति, विनति बीमंत्री बारों प्रकार की रचनाएं वास्तव में सी प्रकार की मारम देटिक • मुभा विजयण यम बाडा. सब को मिा नाटा क्नो पाकि माला भाग पूमा बबा कोहि परि तोटिनू पासिमित मच कान में भाग गी बन्न दिनी गाज जिम पदिमागी तको लाता मानुष बमबार,यापार बार करिम कारीबार पाप भाग बबर को भार कौलमा बपियो मनापासहनि आधार हूँ भाव मैत्र महापार र निवीन कुम्हारे बने मानिस मक्तिलीनर मा बिको न विना वितश्या नहीं मारी बात र बात भिवया पर देव भक्ति मोला न दावि मह राशि संसारि रोल Page #916 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८७० श्री गिरनार मन्डन नेमिनाथ बीनती यह रचना भी नही सरस है रचनाकार जयसागरहै। रचना अप्रकाशित है। पूरी रचना १५ गाथाओं में है। बीच में कवि ने घात लगाकर विभाजन कर दिया है। रचना आलंकारिक व है: " काम मद राज मद, रूप मद पूरियो, कवि परदोस पर ताति पूरियो विषय सुख विषय विष, वेग उन्मत्तत्र कहहि पत्र अनिय सरि पत्तो कारवि कृपा वेगी करि पारि करि सामिया जाणिक त्रिवि महमरियवर पामिया पड़त मव कूषि आर्लब मह दिज्जए एम राई उत्तमाचार पइिज्ज‍ वणि मार्क जहि नेमि अवयन सायचियमाय संबंध मुनि धन्नो जलदगल मज्जि जल बुधि सोहान नेमि जिन जन्म कल्यान गुम सोने ● 104 संसार तारण, दुरिय वारण, सुक्ल कारण संगमो, गिरिवार मंडण इरिय बैडण कव्यतुर वर जंगमो मोनिक नइ पुणिय जादव, राय नंबन, सुजई सायर मंदिनी सो नेमि जिनवर दिस्त मे इस प्रकार पूरी रचना मे है तथा कवि में गिरनार म नेमिनाथ को संसार की afa for a और पापों के प्रति वमा याचना की है। इसी भांति नमस्कार और अति संज्ञक रचनाएं भी स्तुति प्रधान है। इनर कामों में विरह नाम जिन नमस्कार तथा रिवि मंडळ नमस्कारो और प्रशस्ति सरकार मान सम्बन्धी रमा प्रसिद्ध है। सम्मान का भक उदहरण लिय: • वाद निम्म पयासकरं गमला महज व मु उपायमूले सहरमा ते जिवलोय धमान विदे का रि जिन महूद सूरि कमाण Page #917 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८७१ जे संसार अस मुति से इत्थ पवर मत्तीय सूरीस पायमूले चरण सेवंति निस्संक सफाय मूलक प्रतिगान "स्वाध्याय" से बने हैं ये रचनाएं नित प्रति पाठ की जाती है। उक्त सब रचनाएं जैसलमेर वृहद् ज्ञान भंडार की व अपयजैन ग्रन्थालय की है। इस प्रकrest स्तोत्र स्तवन संज्ञक रचनाओं का सबसे बड़ा वैविष्टय यह है कि वे विविध प्रकार की मिलती है। वैविध्य आविकालीन हिन्दी जैन रचनाओं की प्रमुख विशेषता है। काव्य स्मों में विविधता शिल्प वैशिष्ट, छन्द वैविध्य आदि सभी हिन्दी जैम रचनाओं में मिल जाता है। ये सब रचनाएं भक्ति और श्रद्धा से आज भी गीत नृत्य के साथ मन्दिरों में गाई जाती है। विविध बार्बी से इन स्तोत्र स्वरवनों व गीतों द्वारा आनन्द की पुष्टि होती है। काव्य की दृष्टि से बहुत कम रचनाएं ऐसी है जिनका काव्यात्मक महत्व हो, ये स्तवन साम्प्रदायिक दृष्टि, धर्म प्रचार, उपदेश तथा नीति रूप में बहुधा जन पाषा में लिखे गए हैं। अतः काव्य की दृष्टि से इनका महत्व साधारण है। Page #918 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PCITY 1 ● आदिकालीन हिन्दी जैन साहित्य (४) गढ़ब परम्परा । 오오오오오오오오오오오오오오오오오오오오오오오오오오오오오오오오오오오오오오오오 Page #919 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८७२ आदिकालीन हिन्दीजैन साहित्य(४) गद्य परंपरा 000 000 विषय प्रवेश गड्य और बड्य हिन्दी साहित्य की दो प्रसिद्ध विधा है जिनमें गय का उभय कब हुआ? यह एक बहुत ही महत्वपूर्ण प्रश्न है। संस्कृत और प्राकृत पाकानों के परिशीलन से यह विश्वास तो होता है कि गद्य हकना बहुत प्राचीन काल में होने लगी थी पर इसका निश्चित सूत्र क्या है यह बहुत निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सका। प्रायः ऐसा सर्व विदित है कि पदय ही गय के पूर्व बना था परन्तु संस्कृत और प्राकृत के अनेक प्रनय गहबों के जन्मदाता को जाते है, और इसीलि पद्य का उदभव गदय से पूर्व नहीं माना जा सकता। हिन्दी साहित्य के प्राचीनतम गद्य साहित्य को प्राप्त करने के लिए सभी की दृष्टि आदिकाल की ओर उठ जाती है। आदिकाल में उपलब्ध रचनाओं में हिन्दी साहित्य की अनेक प्राचीनतम गद्य रचनाएं प्राप्त हुई है। प्राचीनतम गा के स्वरूपों को सुरक्षित रखने वाली रनाओं को जन्म देने का समाविका को ही सीमिधा, नाथ जैन आदि अनेक स्वोत्र में उपलब्ध होते है। यह बहुत ही महत्वपूर्ण बात है कि हिन्दी साहित्य की प्राचीनतम यड्य और पद्य की अनेक रचनाओं को कम देने का और सुरक्षित रखने का श्रेय इसन बारम्भ को इस बात्पर्य बापी महीन्य प्रकार की मदद कृडिया मिल ही नहीं मिली। पर वे इस जैन बाइक्स से मस्या में बहुत कम मिलनी है मा सष्टि जैन साहित्य की इन कमियों का अध्ययन अत्याबाबक हो पानावाहित्य विशाल साहित्य है जो अनेक बाबाओं लिया गया है।मनी सापकों में अपने विचारों, अपनी मनोवृत्तियों गौर कोषारकन्टिकोष का प्रचार कस करने के लिए उत्कृष्ट साहित्यिक पारन भाषारम की गोलियों में लिखा है मानव मात्र को अपने Page #920 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८७१ विचार अभिव्यक्त करने का प्राकृतिक अधिकार होता है। अब आदिकालीन इन उपलब्ध न गइब कृतियों कृतियों में इन जैन साधकों और कवियों की बीव्रतम अनुभूतियों और अभिव्यक्ति का पूर्णतया ज्ञान प्राप्त होता है। जैन गइम परम्परा आदिकालीन हिन्दी साहित्य की जैन गइव परम्परा पर्याप्त प्राचीन है। गद्य की प्राचीनता का परिचय देने वाली वीं शताब्दी की एक जैन रचना जिनप्रभसूति की प्राप्त हुई है। जिसमें उन्होंने देशी भाषाओं में चार नायिकानों का संवाद दिया है। इनमें से तीन नायिका हिन्दी प्रदेश की है उसके सेवायों के उद्धरण मीचे दिए गा रहे है पहले गुजरी नायिका का संवाद देखिए:1- प्रथमा बानवा जरी नायिका पण: अहे बाई एह तुम्हारा देस कवण लेखा माहि गणियह किस देश मुजरा मापलि माहरी मार। एउजु लाघउ माणुस ओ जमार जो आदि मात्रि काइ हारउ, ए जि सम्यकत्व मूल वारह ब्रत पालियहि किसा किसा बारह ब्रत |---- १ दशा बारह व्रत पालियाहिं। आचालना टालिया। पूजियश्री आदिनाथ देवता। पापनासडि बढुंजव सेवता। अनी कि पण मणियह भारी माह एव पुरावाड़ी कार अनाइ अमेरइ देश किसी परि मन गाह। लिपि दैषि माला पॉगर सिविलक्षणा बोकार, कला पीकार । त्वमा समाचार बालबालभर ५ माजी ६ परायी , पटासी पाणी भूमलिया १० करडि " मलरी मम व पाया। जरी मी गाय का पारिया बाया बाई किसी ग्याने मुंह से नो अब्द गुजराची के मान के मान राजस्थानी कहा जा सकता है अथवा परती Page #921 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८७४ इसी प्रकार मालवी का सवाया देखिए:१. जब मालवा देश की पावली बोलण लामी, तब अवा देव की परि मागी। विका रे मोरी बहिनी। पि कृषि मौरा देख काहा वसावति। मोरा देश की बात म बाहिणिणि देशि मंडवगढ़ मेरा गर, जयविदिवराज। मसूर का थान। अवर देश का का भानु काटा सूचक इटगा। कोरा साडा अरु मणा। हाली अरु बानी। पेटिली अ नाचणी। विक्रे मोरी बहिणी। बलि बलि का बिल्लाहा तोरा बोल्या सवाइया। मालवा देश की परिनीकी सिरि की दीकी सेत चीर का साहाजिया आदिनाथ युगराज। दिहे बाइणि परिपूजियइ उक्त उद्धरण मालवी का है जो प्राचीव-राजस्थानी की एक बोली है। वह पी राजमानी से पर्याप्त माश्य रखती है। पुरानी हिन्दी की और इस बोली के रूप में बढ़ते दिखाई देते हैं। खेद है मालमी में लिखे हुए आदिकालीन जैन का साहित्य की कोई रचना उपलब्ध नहीं हुईनीतो बहुत सम्भव था कि आदिकालीन गद्य और पग के उसव में मालवी से भी पर्याप्त सहायता निक । अन पूर्वी वाद देविष: पूर्वी माविका का माल्या सुपी रे भाया। कृमि नामिक धीरे बिहुरे बोरी बहिनी पनि पुनि मोर देख किन बरति माह गोरे देस कोबार म भानगी देख से मानुस - इक्क धीरे धीरे विवेकिय। परम बाप के मोडन बाट माल का बान के पराम, क्या से बामा या हुमा याममा मा बडा तुम्ब के मानुस बरि गोटे, भारि मोटेविपि कोट। म के भानुमरि मान्छे परि नानो विवि महा । बइस दीसा जइस पूनम का चौड़ Page #922 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८७५ हथकोदव के चावर बाइयहिगीत गाइयइ सुठि नीके वानिए वसति। कइसे बानिए आपञ्चचा।' पूर्वी पापा के इस गयउदरण से हिन्दी का बहुत साभ्य स्पष्ट होता है। श्री नाहटा की लिखते है कि-" हिन्दी भाषा का विकास पूर्वी भाक से हुआ जान पड़ता है। परन्तु खड़ी बोली के बहुत निकटयह उद्धरण होने पर भी इस समभ का नाहित्य इस पापा का हमें उपलब्ध नहीं होता व ब्रज भाषा में भी गद्य रचनाओं के उद्धरण बहुत बाद के मिलते हैं अतः रवनाओं की अनुपलब्धि और शोध के अभाज में पूर्वी भाषा का उद्धरण अत्यन्त महत्वपूर्ण होने पर भी इस परंपरा को विकसित करने में अधिक योग नहीं देता । सम्भवतः इस दिशा में शेध होने पर आदिकालीन गइय की प्राचीनतम प्रतियां गद्य और पदय के रूप में उपलवृध हो सके। श्री अगरचन्द नाहटा हिन्दी के पूर्व प्रान्तीय सबसे प्राचीन गद्य का उदाहरण मी जैन लेखक द्वारा लिखा ही मानते हैं। वे लिखते है कि हिन्दी के पूर्व प्रान्तीय रुप का उदाहरण जैनाचार्य जिनप्रमसूरि के लिखित चार नायिका के संवाद मिलता है वही अब तक सबसे प्राचीन हिन्दी गद्म का उदाहरण समभिर।" परन्त नाहटा श्री की इस अक्तिका पीहार १०वी शताब्दी के एक प्रजेनतर शिलालखस होजाता? (कवि-प्रस्तुत ग्रंथका अध्याय-५) जिन प्रमारि की उपयक्त रबमा के अतिरिक्त हिन्दी के आदिकालकी रनामों का विभाजन दो कालों के अन्तर्गत किया जा सकता है: - प्रारम्भिक काल (००० - १४०) (a) प्रारम्भिक रचना (ब) परवी रचनाएं - .- राजस्थानी - नागरी प्रारिणी पत्रिका : ४ अ १० २० -- गुजराती गहन संश: मुनि विनाविजय जी। ४- राजस्थानी अंक (राजस्थानी रिसर्च सोसाइटी कलकला) Page #923 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८७६ 1 (२) विकास काल (सं० १४०० १- प्रौढ गय २- गदय काव्य प्रारम्भिक काल में प्रारम्भिक खानाओं के अन्तर्गत मानेवाली कृतियां है: १- आराधना सं० १३०० २- बालशिक्षा सं० १३३६ ३० अविवार सं० १३४० - ४- नवकार व्याख्यान सं० १३५८ ५. सर्वतीर्थ नमस्कार स्तवन संक १३५८ ६- अविचार से १३६-२ तथा परवर्ती रचनाओं की सीमा में आने वाली कृतियां है: ७- धनपाल क्या (सं० ११०० से १२०० के लगभग ) ८- तत्वविचार प्रकरण-सं० १४०० के लगभग अद्यावधि जैन गद्य परम्परा की जितनी भी प्रारम्भिक गद्य रचनाएं मिलती है उन सबकी प्रतिलिपियां भी दीं बतादी की ही मिलती है। अतः इनका जन्म काल यदि वि० ११०० से ही माना जाय तो कुछ असंगत नहीं कहा जा सकता। श्री अमरबन्ध नाटा का भी यही है प्रकार किया वा सकता है: (4) पाककृतियां काल १५००) उपलव्ध प्रारम्भिक काल की रचनाओं का विवयानुसार वर्गीकरण इस * उपामा परि क्य धार्मिक १- देखिए देवनागरी वर्ष अंक ३५० ५८ ॥ Page #924 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८७७ (ब) साहित्यिक (अ) बन्धात्मक (a) धार्मिक कृतियां "उपासना पद्धति जन्म उपलब्ध कृतियों में सबसे प्राचीन कृति अनाज लेखक कृति बाराधना है। इस कृति का दृष्टिकोण धार्मिक है और धर्म के प्रमुख स्लैम उपासना से यह सम्बन्धिा हैाराधना नाम से ही कृति का अनुमानतः उपासना मूलक होना स्पष्ट होता है।यह कृति पाटण के ताडपत्रीय प्रति से मिली थी इसका प्रकाशन सर्व प्रथम सन् १९२० में बड़ोदा सेप्रकाशित प्राचीन गुर्जर काव्य संग्रह के सम्पादक श्री सी.डी. दलाल ने इस अन्ध में क्यिाथा।' स्था इसके माठ ९ वर्ष बाद श्री पुनि जिन विषय जी ने अपने अन्य प्राचीन गुजराती गझ्य संदर्भ में 20 १९२५ में किया। इनदोनों अन्यों के द्वारा मध्य साहित्य के प्रारम्भिक काल की प्रथा , रमा विद्वानों के सामने पिछले कई वर्षों से आ चुकी है। शिल्प माना की वर्षन पात प्रथा भक्त के वय के विकारों के बिना व पश्चाताप की अभिव्यक्ति का स्पष्टीकरण करती है जिससे पाना समय मन में किसी भी प्रकार का मन रो। भाषिक स्वयं अपनी व् माराध्य के समय स्वीकार करता है तथा अपने पूर्ण समस्त पापों और मिष्णामों पर वह इस उपाला पधति में आत्म कानि अनुभव करता है। घरेपेष्टि का स्मरण, सर्व जीवों से धनागापना पर्व भारिक निमा और धर्म इन चार महानों में परम में गना की माराधना का बय। १० देटिए- प्राचीन पूर्वर गाडी प्राचीन मराठी चापाबक मुनि जिन विजय जी०१८-१९ -देवनावर Page #925 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय:- उपासना, आत्मग्लानि, पाप स्वीकृति, मानस विज्ञपि दुष्कृत्यों का परित्याग महापुरूषों के उच्चतम गुणों का स्मरण तथा अपनी बुता पर विचार और आराध्य की आत्म समर्पण की इक आराधना के प्रमुख वसूर्य विषय है। संभवतः यह भी कहा जा सकता है कि विवय ८७८ वस्तु के आधार पर ये गद्यात्मक संज्ञा कालान्तर में महय वर्णन की पद्धतियां हो गई होगी। विषय पर्व शिल्प की दृष्टि से आराधना और अतिचार संशक रचनाओं में पा साम्य दिसाई पड़ता है। माराधना के कु उदाहरण देखिए: ज्ञानाचारि पुस्तक पुस्तिका संपुट संपुटिका टीममा कक कमली उतरी ठवणी पाठा दोरी प्रभृति जानोपकरण अवका अकालि पठन अतिवार विपरीत कथन उत्सूत्र पुरुपण अप्रधान प्रकृतिकु आलोबहु । सम्यक्त्व प्रतिपत्तिकर, हरिहंतु देवता साधु गुरु जिन प्रणीत घ सम्यक्त्व दण्डकु उचरहु सागार प्रत्यासानु अवरह, चऊहु सरनि वयसरछु । परमेश्वर अरहंत सरणि सक्ल कर्म निर्मुक्ति सिद्ध सरणि संसार परिवार enary मान पात्र महासत्व साधु सरणि सक्ल कर्म निर्युक्त सिद्धसर वि Bure परिवार समुचरण यान पात्र महासत्य मा तरपि स पाप पटल क्वल नक्लक कलिद्ध केवल प्रथीद्ध धर्म बरनि विष संवि वृक्ष बाबापाच्या सर्वसा प्रतिणी श्रावक प्राविका इहज काइ काइ आला की विवाह मियानि टुक्कडं । २. I. पंच परमेष्टि नमस्कार रवि हि विशेष स्मरेका, जमर परमेश्वर होकर देवि इस वर्ष विकट छ नई संसार प्रतिम करिया, अनइ रुचि नमस्कार इहलोक परलोक संपादिवइ । आराधना समाप्रेति ।। • १- प्राचीन ईर काव्य संग्रह २- प्राचीन गुजर काव्य संग्रह ०८६ ० ८७ । Page #926 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८७९ भाषा शैली : उक्त चारों उद्धरणों से वीं बताब्दी की इस सर्व प्रथम कृति आराधना की भाषा शैली की विशेषताएं जानी जा सकती है। कृति की भाषा में संस्कृत शब्दों की बहुत प्रचुरता है पर बढ़ते हुए अयमंत्र के शब्दों की पी कमी नहीं है। गद्यांशों को देखने पर लगता है किवाक, अत्यन्त लम्बे और विरामह दूर दूर पर है अतः वर्णन की यह रैली पूर्णता समासप्रधान कही जायगी । अनेक शब्दों को एक साथ मिलाकर कहा गया है। जहां तक कृति में उसके विषय के विवेचन सम्बन्ध era दूसरे और तीसरे उदाहरण इस पर पर्याप्त प्रभाव डालते है। ममपि इनउदतहरणों की भाषा से यह स्पष्ट हो जाता है कि लेखक के पास वर्णन का सौन्दर्य तथा शब्दों की कोमलता नहीं है पदावली का चयन भी हुक सा है । परन्तु कवि की काव्यात्मकता से उसमें एक अभूतपूर्व प्रवाह अवश्य परिलक्षित होता है। अतः वनजन्य सौर्यमेति व बोलि बो सी जान पड़ती है। पर शैली की अनुप्रासात्मकता पदों का प्रवाह और बदों की नादात्मकता लोम विलोमता तथा अभूतपूर्व सन्तुलन देखिए: ● इष्ट अदृष्ट, ज्ञात अज्ञात श्रुत अश्रुत, स्वजन परिजन मित्र प्रत्यति परोक्ष के जीव चतुरासी लब गीनि अपना चतुर्मति की सद प्रमेता भई त्रिया वैचिया सीरीविया हंसिया निंदिया किला निया दानियस पाटिया किया विनारि भवति भवसि भवति मनकोटिनियन का ती सर्व पिच्छामि टुक्कई ।" सार्थक और विपरीतार्थक शब्दों की योजना कितनी असाधारण है शब्दों में संस्कृतमयता होते हुए भी अपच की प्रभाव सर्वत्र हेऔर साथ में प्राचीन राजस्थानी भाषा का भी । इन्हीं सब कारणों से कृति में एक सरसता और सरलता आ गई है। वीं शताबूत की गय की इन प्रवृत्तियों के आधार पर यह कहा जासकता है कि मनुवधि इस जुग में गम की प्रवृत्ति हुई परन्तु ये रचना अधिक मही प्रतीत होती। इनमें स्वतंत्र रूप में कया आदि नहीं है। माराधना अतिवार refer बादि कृतियों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि ये रचनाएं Page #927 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टीकाएं और टिप्पणिया मात्र है। परन्तु इन से भाषा का प्रत्कालीन स्वय सुरक्षित अवश्य है। वीं शताब्दी की काव्यकृतियों की भाति इन गड्य कृतियों के भी हम सत्कालीन मास के स्वम की जानकारी अधिक कर सकते है। कारण यह है कि यदि पदय में दो मामा के प्राचीन स्वख्यों की रखा जान मकर भी की जा सकती है परन्तु गम के द्वारा सल्कालीन पत्रों आदि के द्वारा क्या नि प्रचलित विचारों के द्वारा इन साधारण गद्य रचनानों गड्व के स्वरूप अधिक सुरक्षित मिलेंगे। अपर जो उदाहरण आराधना में से दिए गए हैं, उनसे स्पष्ट है कि लेखक ने समासान्त पदों का प्रयोग किया है तथा साथ ही अनुप्रामात्मिक या प्रासानुप्रास जैली का भी प्रयोग है। अत: इनसे यहनुमान लगाया जा सकता है कि लेखक ने प्रौढ गय लिखने का प्रयत्न किया है। इनमें संस्कृत के तत्सम शब्दों का आधिक्य है। तत्कालीन जन पाका के कुछ उदाहरणों का उदभव संस्कृत के आधार पर देखा जा सकता है या संका -किया- मिया-मिला। मै, तम्मे हिम० इष्कृत, दुक्कई । सं० येन जिणि। ये व्य पुरानी प्राकृत या अपक्ष के हैं। इसके पश्चात् प्रथमा और दिपतीया में प्रयुक्त उ प्रत्यय तथा डिया पदों मेंकृदन्त रूपों के छ तपाइ प्रत्यय प्रयुक्त किए गए है। अनेक को मदों में प्रयोग भी मिला है यथा- अमि, पाठ, बार, ईह, वड, निड, पनर, महार, ममि करावधि, इन्डि, माई, मादि नी का पा सकता है कि पापा के काति कालीन स जिनका यह विकसित प्राचीन राजस्थानी स्वस्य है। उक्त उधाण पतबर्ष देखा जा सया है। सरवना के यह शान होता है कि उस समय प्रौढ मत लिखने का भवी प्रचलन रहा होगा। बड्यपि आराधना टिप्पणी की माथि एक कोटी भी बना है परन्तु फिर पी गय को अपने बाले बीजों को रखने का श्रेय इसी को रहेमा। उपासना प्रधान रखना होने पर भी धार्मिक प्रचार के उदेश्य से लिखी हुई होने पर भी बावरण की पवित्रा में पूर्ण निळा सिद्ध करने वाली कृति है। ऋषि का लेखक माराधना की प्रति गुजरात प्रदेश में ही मिली जो वास्तव में प्राचीन राजस्थानी का ही प्रदेश पा। हिन्दी साहित्य में Page #928 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८१ गद्य का उत्सव करने वाली यह न कति की जा सकती है। कृति के वर्षय विषय, ताड पत्रीय पौराणिकता, आवारगत पवित्रता तथा उपासना की विधियों और वर्णन शैली के आधार पर यह अनुमानतः निर्णय किया जा सकता है कि इनका करती अवश्य ही कोई तपस्वी साधक विमान कवि और जनसेवी लोकोपकारक जैन साधु रहा होगा। जो भी हो, कृति साधारण होते हुए भी सावता महत्वपूर्ण है। २. धार्मिक सिद्धान्त मूलक: अध सैद्धान्तिक कही जाने वाली इसी काल की कृतियों में निम्नांकित तीन कृतियों को लिया जा सकता है। .- अतिचार' - ०.३४. २- अतिवारे . सं० १९ - तत्व विचार प्ररम जहा तक इन कृतियों के नामकरण का प्रश्न है अतिचार से इसका विषय स्पष्ट होता है। सम्भवतः अतिनार शब्द से दोषों का परिहार परिलक्षित होता है। मह पी आचरण सम्बन्धी वर्णन प्रस्तुत करने वाली ही कृतियां है। वोनों कृतिया सदशान्तिक है और इनके पूर्व विषय भी नैतिक मनोयों से सम्बनिभा होने कारण चार्मिक है। प्रथम अतिचार अरसा में लिखे जाने वाले हाइपत्र में से लिया गया है। तथा दूसरा अतिवार १९ में शिक्षित वाहन की रचना हो बी तक अतिवार संज्ञक रचनाओं के बस्तु शिल्प का प्रश्न है यह का या सवा है कि में बनाई धर्म के सिद्धान्तों का विधिवत् पालन करने के नियनों का प्रतिवाका करती ।माचार संकलन या किसी नियम का मालिनी अभिचार कलाविले नियम जति का स्थान प्रमुख होता है १. प्राचीन र मान्य ग्रह-श्री बलात-पू. ८८ मागर्म - मुनि जिकिय पू. २१९॥ Page #929 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८२ आराधना और अतिचार ये दोनों गय रचनाएं पर्याप्त समनार्थक है अतिवसर सं० १३४० में लिखी ताड़पत्रीय रचना है। समानार्थक ही नहीं, इनके वर्य विषय और शैली शिल्प में मी पर्याप्त साम्य है। अन्तर सिर्फ इतना ही है आराधना में उपासना की विधियों पर प्रधान रूप में विचार किया गया होता है और अतिचार में आराध्य व आराधना के सैद्धान्तिक तत्वों का। दोनों धार्मिक कृतियों है तथा ऐसी कृतियों का मन्तव्य स्पष्टतया धर्म प्रचार की कहा जायगा। इस विक प्रकार आराधना में साधना और आराधना की विविध क्रियाओं व उपकरणों आदि की विधियां स्पष्ट की गई होती है तथा धर्म की यह एक ऐसी स्थिति विशेष होती है जिसमें जवारों की श्रेष्ठता स्पष्ट की जाती है और ares को अतिचारों से एक दम दूर रहने का एक महत्वपूर्ण सुकाव होता है। पापों के १८ स्थानों, एवं हम रहस्यों का प्रकटीकरण, दुष्कार्यो पर पहचाताप त्या कार्यों आदि का विवेचन आदि आराधना में होता है। अतिवारों में ज्ञान दर्शन तप चारित्र्य और वीर्थ- इन पाव आचारों और बारह व्रत के दोनों की आलोचना की जाती है।श्री मास्टर जी लिखते है कि आज मी पाक्षिक agro draरिक प्रक्रिमण के समय यह अतिचार लोक पापा ने बोला जाता है जब कि प्रतिक्रमण के सूत्र अधिक है।" १ जहां तक अतिचार क दोनों कृतियों में वर्मित गदूम की भावा का प्रश्न है वह आराधना के समान ही है अविवार का एक उदाहरण देखिए: कालवेला पढ विनय हीन बहुमानही उपधान ही गुरुमिव - हामी चरण पाटी पोथी कमली साप पाला काग पढाइने मन्छ अंतरा अनेरा पहई पढ. - साडी भाडा १- माराधना प्रा० ० का० २०८६ - नगर वर्ष ५७ Page #930 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८३ हर की हुई तथा ज्ञान प्रक्यु भक्षित उपेक्षित प्रजापरिधि विपास्म विणासितां वेल्ब ती सक्ति सार संमान की धियइ, अनेरइ ज्ञाना बारित, कोई अनि मुल्मबाट पनि बचनि काइ, पदिवस माति तेह माहि मिशनि दुक्कई ।' उक्त उद्धरण में अपज का उकारात्मक प्रवृत्ति स्पष्ट है। उधरण में सत्सम शब्द अधिक है पढने (पढ़ा) व (देखा था करता, पढ़ता, शुभता आदि वर्तमान वृदन्त आज भी राजस्थानी प्रयुक्त है। शहदों के नये रुप भी उल्लेखनीय उदाहरणार्थ -सातमइ, लागठ, पानि, आगला, आजिल, कीथी, केरणा, सापुट, मोही पीचर प्रावि। मात्रि मद सानुनासिक है, जो आज भी प्रै तृतीया के एक्वचन में सानुनासिक है। इकार प्रवृत्ति प्राचीन है ए के स में प्रयुक्त अन्य नये है। इसी प्रकार १३६८ में विरचित अतिचार का उद्धरण उल्लेखनीय है। व्यंजनकूट, अपर कूट काना मात्र आग, मोठ देव बंबा, पडिस्कमाइ सन्मान करता पढता गुणता हुओ, इ, अर्थकूट बाय कूट ज्ञानोपकर मि पाटी पोधी ग्वाभि सापडा सापढी पति आवासना पालागर पड़ना शुषता प्रबेशु म बराई की मामा के मिछामि जय इसमें वो कार रिस के कालदों जैसे * स्वाध्यामागे और भूलोकवान राजस्थानी + माल्दिी स्वरूपहो मग । प्राचीन राजस्थानी के अनेक शब्द पाडोगि कोषह, मागि, मालीपी, forबा, राजिमीको उबल, मन मोक्लावित इटम की लावाणिक प्रgtee अगुवन काल में जाते जाने सवम पिस मारमा प्रबीच होगा। "प्राचीन राय - Page #931 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८४ दोनों कृतियों में अपांव के पाइभव व प्राचीन राजस्थानी ग पुरानी हिन्दी के शब्दों का बाहुल्य देखा जासकता है। दोनों कृतियों के दो उदाहरण यही पल पाच हो:. रसत्याग, काय कि तेजना कीधी नहि या प्रत्याख्यान एकासमा विपरिणड्ड साढयो रिसिपोरिसि भैगु अविचार मीनिमावलि उपवास की पर विराबई सचित्त पानी पी एबह प दिवसमाहित उक्त उदाहरण में अधिकार अब प्राचीन राजस्थानी है बारा रसारण बत. पुषावाद व्या विरमय के अतिवार से सम्बन्धित है। मुकावादि- सहसाबारि भालु अभ्याख्यान दीडं, रडसमन भेद कीया, पोपदेश दीघर, कूड लोड लेखि, दिसापि धापपि भोसल कुपड हट राडि मेडि का मिटा कोई अविचल वाविवृति भबसगाइमाहिदुर विविध विविध मिच्छामि इकाई इब हिया पाहि सम्यमत्य धरल, अरिवंत देवता मा गुरु जिन प्रणीत धर्म, सम्यकत्व दंडक अवरव, हिव अठार पाप स्थानक बो मिराक, बाराना की भाषा मे तुलना करने पर इन दोगों विवारों को की भाषा में बाबही तर स्पष्ट होने ज्यवा उक्त दोनों अस्विार जक रनामों में मार प्रधान ली कम होती गई है। माय छोटे, सरस और प्रवाह मिषा अधिकार प्राचीन राजस्थानी मागो प्रयास से ही परक पदव का वा माया बर्व विषय धार्षिक होने से भले ही गोड़ी कठिनाई उपस्थित हो सकती है परन्तु वा समय की बरसा और मी जी का प्रस्न वा परिलक्षित हो बाबा हिय की बरलवा और भूपति बायकोला या प्राचीन राजस्थानी मदों के बाहत्व कीष्टि है दोनों रसाप मावि समय बी जैन साहित्य की बात की महत्वपूर्ण रचना मानी शादी। •ाीमराज Ta की... ALL. - - बडी पृ०॥ Page #932 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८५ तत्वविचार प्रकरण प्रारम्भिक काल की परवर्ती रचनाओं के अन्तर्गत आने वाली धार्मिक सिद्धान्तों की पोषक गद्य साहित्य की एक बहुत ही र कृति-त्व विचार प्रकरण है। इस कृति का रचना काल सं० 1700 के लगभग है। इसप्रति को प्रकार में लाने का श्रेय श्री अगरबन्द नाहटा को है। लेखक को वकृति भी उन्हीं के सौजन्य से प्राप्त हुई। श्री नाटा को यह स्वना बीकानेर के बड़े ज्ञान भंडार की सूची बनाते हुए अभयसिंह मंडार में जिनप्रम मूरि परम्परा की २० पौं वाली एक प्रति में लिखी हुई मिली। सत्व-विचार इनगन कृतियों में एक अत्यन्त महत्वपूर्ण रचना है।इसका समय ०४ी शताब्दी निश्चित रूप से होना चाहिए क्योंकि यह रचना जिसमें मिली है का प्रशि १५वीं सताब्दी में लिखी है और इस प्रड में अधि : जिनामसूरि जी तक की ही रचनाएं उपलब्ध होती है जिनका स्का काल १४वीं सनानदी है। बत्व विचार प्रकरण संग्रह की प्रति के ११५ से ११८ पत्राको में लिसी हुई है।इस ग्रह में पी वी वादी की अनेक पदयबध रचनाएं राम, चतुयायिका, दिक्पादिका, पास, दोहक आदि महत्वपूर्ण रबमार मिली। त्य विवार में धर्म के महत्वपूर्ण भोंग प्रान मिलता भावकों के लिए नियम, साधकों के लिए अब प्रथा खा लामा पुन चरित या लोक भादिका वर्णन की माटा बी ने लिखा है कि अब मैं श्रावक के. जीव आदिनी पदार्थ, देव का पुरुष और तोक्य नापि का वर्णन है।" गड्य -विको के बाद इस क्ष के भाषा विषयक अनुदान मात्य पर विचार करना अत्यावश्यक है। नीचे इस शनि के गवार उशन meas - ---- .. रावधान भारती पाम ! - Tera Page #933 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८६ किए जा रहे है उनके आधार पर इसकी मदय के क्षेत्र में सरलता, स्पष्टता, और हिन्दी गद्य साहित्य में योग स्पष्ट होगा: एउ संसार असाल, रवण-मंगल, अपाय उगईछाकोर अपारु संसा। अगाइ जीव -- पु मनुष्य गति। च देव गति। ईभ परिपरि-ममता जीव जाति कुलावि पुण संपूर्ण इला भाट जनम् । सर्वही भव मधि महा प्रधानु-- प्रश्नवाचक शैली में कृति के उपदेशों की सरसतादेखिएखोइ किसउ माविमा दुर्गवि पड़ता प्रापिया घर सुधर्ष माणिवह सोर कवि विधु होय-दृषिध प्रक्षा पति । बीन श्रावक धर्म। यति किया भपि गति प्रतिमा चारिप्रिया महार सहस्त्र सीसाग धारक। पंच महाबत पालका पाक किस गति अवतीति का प्रतियापासि वर्ष सापति। बानु अनिवस्तु प्रवािर कावक पनि अहि। श्रावकों की परिभाषा बकायों के स्पष्टीकरण के बाव लेखक ने धर्म के पदों, पाच प्रो और जीव से हो आदि का विश्लेषण क्यिा है:- बाइक के दो बार मेदे। पांच बजाविम्नि गुपनता बारि खिान। जीव सिा हो पितु येसमा संशा गाई वि वीव पापिया। पुच अनेक विधी। इतो बिजु अधिकार- कोप्रिय इडिय, विई निन, रिद्रिय पर निद्रामा-- बाबर ति मोला निमाधिक बार। पनि बनि गहाना न हम भार सापरा मोक।w बीब 11-- उधर - न कर --- एक विध एक विधि सुनना सी पर पुरि पति पुजवा स्वदार मंडोर परवार पर कार मोर पारितोष माहार और भा और डिहंत देवता के विषय में गड्य के शाहीर सागरम देखने को मिलते है: Page #934 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८७ ४- मोग परिमोम ब्रतु दिवविध भोजनात कर्मत भोजनाताई इविध मोगा एक बार भोगक्यि । आहा. बोहरू, विलेपर्नु परिभोग व प्रभु मोगावियह। पवन बित्तयामरण वयाक्खि --- सहि परिभोग निमेष ५. 7 वारह विध श्रावक धर्म होइ। धर्म म्याच कि बरिईदेवी गुमी शाहको विणाय महापका • अरिहंत देवता किस होरर कमीज अतिशय संथास्तु अष्ट महाप्रतिहार्य कृत शोभु अष्टादश दोष रहितानीगानिदोशासर्वज्ञ और अंत में कृषि का उद्देश्य त उसी मुरुम संवदा निम्ना कित गइयांश द्वारा समाप्त होती है:. बारह पै ता कीजय। जसरी भेदै जमु पालिवइ । आप्रवचन मावा उपयोग दीजह। रजोवर। महती गोडापडिगाड पर I७।। एवं तत्त विवार रइयं मुय सागराइ परिय धोबक्सरं महत्थं पम्वाण मशगट्का ।। तत्व विचार प्रकरण समारतमिति ।।७।। उक्त सभी उद्धरणों में यह स्पष्ट हो जाता है कि अति धर्म प्रचार, चरित्र संवम और उपाचार के परिपालना सिखी गई साथ ही बान, बाबा ग्रा, मरिहंत आदि मूढ बातों की सरल र व्यक परिमापार भी मेक ने दी। अवः स्पष्ट है कि लेखक ने बह रचना जन साधारण के सिप लिदी है। साथ ही जैन धर्म व दर्शन की कठिन मानों को भी कवि ने जन सापार के लिय बनाने का उत्तम प्रवास प्रश्नोतर जैसी को अपना कर यिा है। प्रस्तुत रमा मान विक पार्मिक होने से ही इसमें विभिन्न तत्वों काले में विमा सकी पद्धति पहले प्रश्नसमें एक सून रख कर रकी माया करने की है। बाप विचार प्रकरण में हमें कोई भी क्या था खलाबद्ध वर्णन उपलब्ध नहीं होने और उपलब्ध गदा में एक उत्कृष्ट गझ्यात्मक साहित्य का अभाव है Page #935 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परन्तु वर्णैर्य विषय अत्यन्त अधिक कठिन होने पर भी लेखक ने बोलवाल की भाषा मैं उसे समझाकर जन साधारण के लिए सुलभ बनाया है। भाषा: ar तक तत्व विचार की माया निर्णय का प्रश्न है यह बहुत ही सरलता से कहा जा सकता है कि वह सरल गय है। उपलब्ध गद्य रचनाओं में एक क्रमिक विकास इन कृतियों से स्पष्ट कियाजाता है और यदि आराधना से निवार प्रकरण की भाषा का तुलनात्मक दृष्टि से अध्ययन प्रस्तुत किया जाय तो उसमें नही रुकता था इसमें सरलता की ओर आने का प्रयास परिचित होगा। इस रचना के पाठ को थोड़े से प्रयास के बाद हिन्दी के सरल गद्य की भांति पढ़ा जा सकता है। दों में समान संतुलन, दयुमों का सुन्दर निर्वाचन भाषा में प्राचीन मों और क्रियाओं के साथ नई उत्क्रांति, समय बूदों के साथ प्राचीन राजस्थानी या गुजराती शब्दों का बाहुल्य व प्रभाव आदि सभी गुण इस रचना में है। उक्त उद्धरणों में इन बातों सरलता से देखा जा सकता है। (ब) साहित्य मदय धनपाठ क्या' (११:९चणी द serers agम की परम्परा को पुष्ट करने वाली कृतियों में बीकानेर के पठार से उपयूष हुई एक छोटी सी कृति वनपाल क्यापि वैस्कृत प्राकृत तथा दोनों के अधिकारी विमान थे। इनके के मौलिक ग्रन्थ या टीकार्य प्रकाशित हो चुकी है। प्रस्तुत कृति को प्रकाश में जाने का देश की वरद नाष्टा को है लास्टा जी ने इसे राजस्थान भारती में प्रकाश किया। रचना की का क्यू अत्यन्त सरस और मौलिक है। इस कथा में वर्णि छोटी ही बनाने महाकवि धनपाल के जीवन में बसाधारण परिवर्तन उपस्थित दिया कि प्रकार उनकी तिलकमंजरी कथा को अदन की गेंद बढ़ा दिया धनपाल के स्वाभिमानी व्यक्तित्व पर राजा की असामयिक अप्रसन्नता ने Page #936 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारे अन्ध को अगिन परम कर दिया। प्रध अग्नि उरण हो जाने के बाद किस प्रकार वह पुनः लिखा गया, इसी सरस कहानी को प्रचालित जन भाग में कषि में प्रस्तुत किया है। अन्य वाली इस घटना के बाद कवि धनपाल रागभोज में उठकर सत्यपुर (सानोर) चले गए और वहीं उन्होंने महमूद गजनवी के महावीर की मूर्ति पर आक्रमण करने पर कधि ने परम उत्साह से -सत्यधरीय महावीर उत्साह (. लिखा। कहते है कि मोच का वरवार नपाल के बिना दरिद्र हो गया। पुनः धनपाल को शास्त्रार्थ के लिए बुलाया गया। बहुत संभव है कि नपा ने पुनः वहीं से लौटकर ही अपने ग्रन्थ नष्ट करने के मनस्ताप को गाय के रूप में आगी दी हो। रक्ना का समय अनुमानतः देवी १२वीं बवाब्दी का संकिाल रहा होगा।वीं एवीं शताब्दी की यह रचना तत्कालीन गदन की सम्पन्नता का अन्दर उदाहरण प्रस्तुत करने में सक्षम है गदद की सम्पन्नता के ग्वधरन एलर्क देखे जा सकले है। (.) उज्जयनी नामि नगरी तरिठे मोज्देव राणा। तीहि तपइ पंचा समा पंडितह माहि मुख्य धनपाल नामि पंडित। ती बप धरि अन्यदा कदाचित्र मा विरहिम निषिन्तु पापंडिसहमी भाग श्रीजा दिवसहनी बधि ले लीलीई काई तिषि प्राविधिया विराल पारी मेर नून प्रशिया पियामा विवामी शितिमि ब्राहमनी पिलं, जोगा दिवानी यषि । अनिमा का मीरा पंडित धनवाति मावि रविष्टि इस बीग विwिs far कारा मवावि उपविष्टि की। विवादित किरिबाला नीवरिया निवासी बधि बियइ छ। अममा महानि नीपि गावि महामुनि प्रतिया। मा बिपिन बिकामानिति माणिक वीग दिवाली me-mm - रावस्थान भारती-भाय : अक १ जनवरी,१५१.३.१- पर श्री सरवन्दनाबटाका धनपाल कथा-कीर्षक लेखा। Page #937 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दैधि न उपगरी पंडितपणा, यि बधि मा पुष पूरा गई। का महानि मा हिषि यह। (a) बहिवार धनपाल पंडित प्रतिबोध हुआ। परम पावक हु विधि श्रावक विधि कीधी बनाइ अमित की, तीर्थ गुरु देव किस। अनेरा इणि बीभ करित स्तबह नहीं मन्यदा परमेश्वर सपनाया चरितु कीया। ब्राहमण जाउ मोजदेव राजा धागा कहिया मोजदेव रह पुस्तक अमाविउ । बाचिकउँ । पाणियः, पंडितराज चरितु सख विशिधाओ। हिठे उपनाथ, पातियर छइ तिणि स्थानक महेश्वर पावि घगपाल पंडितु भाइ, तीर्थ गुरु देव किट अनेरर न स्तूव । भोजदेव राउ अति आमहि ला । धनपाल पंडित रीस बडी। सीयाला इतउ । सगड़ी बलती ईतीयहि माहि पातिया भोज देव राजा बना पुस्तक वालिया। बा ठिया राति का परिणामी प्रति, किसइ कारणि पमानिनि करउ धनपाल पंडिसि भणिया परमेश्वर हठ चरितु की यळ अनइवालिय। स कन्ट्रातिणि पापियंड, तुम्ह करता मो साहि एकि श्लोक आविया पंडितु मणइ कहाडियागी जेवला पद माक्यिा वा कहिया डिति तो एक बार मना की। Ta रन से रना की भाषा सरलता, सरबता या बात का नुमान लगाया जा सकता है। गिदी साहित्य की धारक रचनामों की परम्पराओं धनमाल क्या का स्थान सर्वप्रथम माना जा सका।साथ ही अद्यावधि प्राप्त हिरीजैन गय परंपरा की स्वनाभी में इस कृति को गवकी प्राचीनतम और सर्वप्रथम माना जा सकता है। महल के प्रारम्भिक उपलब्ध होने वाली इन रचनाओं के पश्चात मा गाहित्यका विकास काल हमारे समक्ष प्रस्तुत होता है।यह काल मा साहित्य का उत्कर्ष काल या स्वर्ण काल कहा जा सकता है। उत्कर्ष काल की याशिलखित मा कृतियों के अतिरिक्त इस काल में मौलिकम से गड्य की अनेक विधानों का स्फुरण होता है। माषा में भी एक अपेक्षाकृत स्थिरता मिलती है। Page #938 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ ११ गय का परिस्कार परिलक्षित होता है। शब्द चयन और पदच्छेदों में भी वैज्ञानिकता और arara का प्रयोग मिलने लगता है। गदय में अभूतपूर्व उत्कर्ष के दर्शन होते है। रैली में विभिन्न रूपों का विकास पाया जाता है अतः १४०० से सं० १५०० तक के इस काल को मय साहित्य का उवर्ष काल विकासकाल या अम्युक्ा काल की संज्ञा दी जा सकती है। इस काल में अनेक कृतियाँ उपलब्ध होती है। हिन्दी साहित्य में उकाल की रक्नाएं अपनी उत्कृष्टता और गम क्षेत्र में अपनी मौलिक प्रवृतियों का श्रीगणेश करती है। 1 इस काल में गय के प्रारम्भिक काल की कमियों में बहुत सुधार हुआ। भाषा व शब्द चयन में अपूर्व प्रयाह जाया गय के रूपों की अस्थिरता दूर हुई उनमें अपेक्षाकृत स्थिरता आ गई। जैन विद्वानों की लेखनी में भी परिवर्त साहित्य के इस उत्कर्ष काल में मिलने वाले लगभग सभी ग्रन्थ धार्मिक ही हैं, पर धार्मिक साहित्य की प्रधानता होते हुए भी स्फुट रूप में लिखा गया य भी मिलता है कहीं कहीं स्मृति लेखों के रूप में भी मिलता है। जैनियों साथ बालों ने भी दूय लिया। दोनों इलियों में से एक को हम चारमी डेली व दूसरी को जैन शैली कह सकते है जैनियों ने ऐतिहासिक मध्य की भी रचना की अनुवाद ग्रन्थ भी लिये गए। इतना कुछ होते भी इस काल में पेक्षा र म भी लिया गया जिसमें कला का एक निवार स्पष्ट पtिofee होता है। यही नहीं, इस काल में लिखे गए इस कलात्मक गडब ने हिन्दी साहित्य में गम में एक चारा विशेष या की विशेष में एक नया अध्याय भी जोड़ा है। मन के इन परियों ने उसके विषयों को भी बवाल डाला। जैन व वर मी, टीका, मादि शैलियों दोनों धारा में वयनिका, दवानेव वाला व मोच टबुबा, मुत्क्क, अनुप्रास, में कलात्मक, ऐतिहासिक, वैज्ञानिक साहित्य लिब गया। इस काल में जो विभिन्न प्रकार की कृति मिलती है में इस प्रकार हैं: • Page #939 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८१२ बड़ावासक बाला व बोध - सं० १४बस्सप्रभरि २- व्याकरण बहुम्यवाहा व गोष पेन्तुंग मूरि - हधित बालाब बोष मग मरि बल्व विवरण बाला व बोध सापुरत्नसूरि +ल्याण मंदिर बालाबीच Mones- मुनिमुंदरसूरि शिष्य • उपदेशमाला बाला व बोध मोमसुंदर मूरि --पष्टिशतक बालाब बोध १४४ सोनमुन्दर कति ८- योमबतक बालावबोध . भक्तामर स्तोत्र बालाक्योध सं० १. ro- अवतत्व नालाबोध सं० १४०१ १०० पर्यन्त आराधना गालावबोध .१० बढ़ावश्यक बालावबोध - विचारमन्च बाहावबोध • क्षेत्र सपास बाला. सं० १९ १५. शीलोपदेश माला बाला. • विचारायबालाको - ग्राम बालाबोध * मावि • पायक दावार anावार बनेसर दि ..पीय माविलाय to me भाभिरि इन रचनायों में अधिकतर रचना वातावबोध संजक मन ग्रन्थों में गालावदोष एक ही ही होगा बीइसे दूसरे इदो में बालायबोध भाषा टीकात्मक पातिमा वा वास्तव में ग पार्मिक गइव अधिकार प्राकृत भाषा में तिला या न साधारण सर्व मुलभ बनाने के लिए जैन विड्वानो,लोक -रि-पाक का साहित्यकार २९.१८पर हिन्दी बामियकी प्राचीनवा महब रचनाएं-शीर्षक लेख। Page #940 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ १३ सेवक जैन कवियों और उनके अनुयाभियों ने उसे सर्व सुलभ, जनमाका में बोधगम्य क्या सरल अनुवादों, टीकाओं, तथा विस्तृत टिप्पडियों के रूप में प्रस्तुत किया। साथ ही उन्होंने एक महत्वपूर्ण कार्य वह की किया कि शास्त्रीयता के बंधनों में कसे प्रथों के आधार पर स्वयं भी मौलिक ग्रन्थ रचे। अधिकतर में अनुवाद और टीकाएं प्रमुखतः दो रूपों में मिलती है: १- टन्ना एवं २- बालवबोध टना:: यह भी टीकात्मक पद्धति है। इस रूप में जैन टीकाएं इस समय की बहुत ही कम प्राप्त है इस प्रकार की बैठी में बिस्तार नहीं होता। इस बैली का विल्य बहुत ही संधिप्त होता है। बालबोध से इसका आकार अत्यन्त सूक्ष्म होता है। इस शैली में पहले मूल शब्द लिखा रहता है, और फिर उसका अर्थ दाएं बायें था उसके या तो नीचे या ऊपर अथवा उसके बार में क्रोड में, अथवा मूल शब्द का ही दे दिया जाता है। टब्बा संज्ञक रचनाएं उक्त काल में लगभग नहीं ही मिलती है। कालान्तर में इस संज्ञा की कई रचनाएं उपलब्ध होती हैं। T बालवबोधः अविकालीन हिन्दी जैन साहित्य के गदय के विकासकाल या अभ्युदय काल में बालावबोधक संज्ञक बैली डी प्रमुखतया उपलब्ध होती है। मालावबोध से arrer वर सहज बोधगम्य अनुवाद से है। यह शैली जैन कवियों ने पति व्यक्तियो के लिए नहीं अपनाकर बहुत ही कम पढ़े लिखे असावर अव अधातु धावकों के भ्रमणाने के लिए बाल ग्रन्थ की व्याख्या इस टीमें बहुत ही संसार के साथ होती -इस बैली की मुख्य संवेदना है ताकि कठिन से कठिन मैचान्तिक ज्ञान भी सवय हो सके व कम वाधारण उससे काम उहा सके जव: मूलसूत्रों व Tea को स्पष्ट करने में कथा का प्रयोग कियागया है। वस्तुत: इस प्रकार की की को हम कथा प्रधान रैली भी कह सकते है। कथानों में भी अनेक प्रकार की क्या है १- मौलिक कथा १- परम्पराम कथाएं ३- लोक कथाएं Page #941 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८१४ ४- उपदेशात्मक कथाएं ५- धार्मिक कथाएं ६- विविध विषयक कार वस्तुतः इन सब कगाओं के माध्यम से धर्मोपदेश धर्मप्रचार ही स्पष्ट होता है। प्रत्येक कशा धर्म के अंग उपायों पर प्रकाश डालती है जिन धार्मिक ग्रन्धों में इस शैली में भागम,आचारंग, सूत्र कुवाग, अंग, उपाग, मूलसूत्र, स्तोत्रमन्ध, ज्यास्या प्राप्ति साधुप्रतिक्रमण, दशवकालिक, बड़ावश्यक, पिंड विशुदिध, उत्तराध्या के साथ साथ स्तवनौ त म चरित्रग्रन्थों के गध दार्शनिक ग्रन्थों पर भी विस्तृत म में मिलती है। इसके अतिरिक्त मी विविध विक्य स्मों में हमें सारण, क्षेत्र, समास, शीलोपदेश माला, भव प्रवचना,व्याख्यान, विधि विधान, उपवेक्ष माला, शोमिम स्तुति, गोग गस्त्र, संग्रहणी, गौतमपन्छा, अन्डन मंडन, धार्मिक स्थाओं के रूप में तथा सिद्धान्त अन्धों के सम में उपलब्ध होती है। बालावबोध में अन्त में भरत वाक्य की प्राति जैन धर्म के किसी तत्व विशेष की सूचना होती है सामान्यतः प्रारम्भ में इस प्रकार की मात दिखाई नहीं देती पर अन्त में इस का समाहार विधी विशेष धर्म सूत्र, या दर्शन सिद्धान्त मा किसी उपदेष प्रधान तय में होगा। वस्तुतः इस शैली का पहले तथा कालाम्बर दोनोकालों में सून प्रचार हुआ। पहली पापा टीकात्मक पत्याशियों में सबसे उE या प्रधान है। उक्त सूची में विका आधार पर न सिमी का वर्गीकरण निम्ना किस कम किया जाता: • চাকমূলক শাস্তি *माया मइयवाहित्य पर सम्बन्धी साहित्य -हा कि पल शाहित्य म काम्ब का रक्षावक एवं प्रेरक मद्य साहित्य ..क्य (विविध क्विक) Page #942 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८१५ 'व्याकरण और स्थात्मक गद्य सहित्य के साथ साथधार्मिक साहित्य के रूप में मिलने वाली अनेक जैन मद्य रचनाय उपलब्ध होती है। यी प्रमुख रूप में यदि देखा जाय तो प्रारम्भिक और अभ्युदयकाल दोनों कालों में मिलनेवाली रचनाओं में अधिकतर रचनाएं धार्मिक गद्य की ही है परन्तु फिर भी गय के क्षेत्र में जैनाचार्यों द्वारा लिंबी सरल ग क ात्मक साहित्य निबन्धमूलक गद्यात्मक साहित्य, तरा भाषानुवाद टिप्पणियां टीकाओं, पाक्ष्यों और बालाव बोध व्याकरण आदि केरूप में विशाल संख्यपलब्ध होती है। इस धारा का विस्तार में परिचय आगे के पृष्ठों में दिया जायगाइसके अतिरिक्त ऐतिहासिक जैन गद्य साहित्य, गव काव्य का प्रेरक साहित्य तथा अन्य विविध free य साहित्यमी जैन गय परम्परा के विकास हेतु महत्वपूर्ण है। जिनका विस्तार में विश्लेषण इस प्रकार है: (१) व्याकरण मूलक साहित्य : क गद्य साहित्य के अभ्युदय काल में व्याकरणमूलक गढ्य रचनाएँ उपलब्ध होती है। व्याकरण भ्रजची प्रन्थों की परम्परा गय के प्रारम्भ काल सं० १३०० से ही मिलनेलगती है। व्याकरण पर लिखी गई इन कृतियों की परम्परा का श्रीग की ० १३३६की रा-बारा से होता है। बाल शिक्षा राजस्थानी का एक महत्वपूर्ण व्याकरणग्रन्थ है। जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है इस ग्रन्थ में बालकों को व्याकरण की शिक्षा दी गई है। शक ने बहुत ही सुगम शैली का प्रयोग किया है। व्याकरण सम्बन्धी विवा देने में श्रीसंग्रामसिंह बड़े सरक रहे है। पाया में राजस्थानी का अधिक है और प्रकारमूलक प्रवृत्ति भी अधिकांशतः दिखाई पड़ती है। लेखक ने इस रचना में विषय के संधिन्द्र विवेचन के साथ साथ सरल व्याख्या भी की है। शादी कीइस रचना का महत्व इस दृष्टि से और भी बढ़ बाया है कि यह व्यायमूलक प्रवृत्तियों पर लिखित रचनाओं के उद्भव की १- प्राचीन मराठी पुनिजनविजय जी परिविष्ट पृ० २०५१ Page #943 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योतक है। रचनाकार संग्रामसिंह श्रीमालकुल के जैन थे। तथा संस्कृत के प्रकान्ड पंडित थे। अस्तु संस्कृत के व्याकरण को जन भाका में बहुत ही सरल बनाने के लिए ही लेखक नेयह रचना लिखी है। कृति की व्याख्या पूर्णतया तुलनात्मक ढंग से की मई है। पहले संस्कृत शब्द दिए गए है तथा पश्चात् तत्कालीन भाषा के अदम्म। जन भाषा वा तत्कालीन राजस्थानी के शब्दों के इस तुलनात्मक विवेचन से यह नाह होता है कि लेखक व्य यह रहा होगाकि इनकी स्त में अभिव्यक्ति किस प्रकार संभव हो सकती है, इनमें कौन से स्प व्यवहारिक है और कौन से अव्यवहारिक भाषा के प्राचीन स कौन से है तथा प्रचलित रूप क्या है आदि प्रवृत्तियों को इस कृति से समझा जा सकता है। संग्राम सिंह की बालविा की केली अनुवाद प्रधान है।रचना की समाप्ति संस्कृत के कई भब्दों संस्कृत की क्रियाओं विशेषणों विशेष्यों व अन्य अनेक शब्दों के रूप तत्कालीन भाषा स्मों के साथ। संग्रडीर है। रचना संस्कृत की व्याकरण की एक सरल व्याख्या है।वास्तव में या कृषि विद्यार्थियों के लिए किसी गई है अत: व्याख्या में बहुत अधिक सरलता और सरसता विद्यमान है बुहल उदाहरण बटव्य है:(१) लिंग पक्लिंग, स्त्रीलिंग, नपुसंकलिंगु मल लिग, भली स्त्रिीलिंग भल नपुंसकर्षित (स्यादिमा) () सि एक वरनु और द्विवचन बस बावचन (संशा प्रक्रनमा) (Byaaर केता , सपान मेवा ", सवर्ष ... स्व ५, दी ५. मानीया स्थारा १, बार, व्यंजन, बर्ष ५, कपटप, प्रयोग त कारण बिग्रिी को ज्या संस्कृत की विभिन्न विभक्तियां दिया मो. काही आदिमाया माँ का बिखत विवेचन निम्नास्ति उदाहरणों इवारा सटा - --- - ----...... Page #944 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८१७ कारक प्रक्रममा। अथ प्रत्येक विपकिन प्राप्ति महा-काई, लिया, दियई, इत्यादी वर्वमानाकीगई, दीनई- कीमई इत्यादी कोक्लो कर्म गि वर्तमानाया भात्यनेपथनाकरिख, ले, देवे, इत्यादी एकारात बचने मम्मी कीजा दीका लीबउ, इत्यादी कर्मयात्मनेपदं । म की, मलीनदी इत्यादी कर्ममि मा शब्दयोमे कई करत, जई लेत, नई देश, इत्यादी क्रिया तिपतिः करि सिई, लेस (सि) ई०, देसिई इत्यादी नहीं करई नही लियाई नही दियई इत्यादी भविष्यान्ति मधतात्यय प्राप्ति माह+ करता, लेखन, दे, इत्यादी रिमाने महानो। कीजवळ, लोमन, बीवन, इत्यादी कामक। करीउ, यावी बना। मी बाई की मा करिका, लेबर का इस्मादी कवि सम्मानीयौ प्रिया प्राधिकार) रा, बालि कादिद, रावळ, करावी,करा दिया मलावी. संवा प्रावमाथि ! )। समाशसस्थानी शड्दों के माध्यम से वार्षिक ब्यापारकली पक्ट होती है वस्तुतः बाल विा का महत्व व्याकरण अन्धों पर तो सर्व प्रथम कृति होने के कारण और भी बढ़ जाती है।इस रसा Page #945 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से स्पष्ट है कि इसमें बोल चाल की भाका का साधारण स्वरूप है। पहले ही लेखक ने जिन उब्दों का प्रयोग किया है उनका विभिन्न विभिन्न कालों का स्वरूप देखा जा सकता है:वर्तमान - दिवइ, करह, दीजड, कीजह, लीजइ आदि विधिडिंग - करिरी देने, ले।। लोट - करि लइ, बइ, झीज, आदि पूतकाल . कीघर लीधर भविष्यकाल - करिसि, देसि, करिसिह, देसिइ, नीजिसिइ विजिसिइ आवि कृदन्त माधारण-करिका, देव ज्य च वर्तमान - करकर, देता, की , दीजकल, पूर्व वन्त - दीपा की, पकिय कुन्त - बारनाइस अनेक शब्दों तश क्रिया मों का अध्ययन इन उदाहरणों से कियाजा सकता है:- कीही जीडा तीही (कहा जहा, तहीशिवड़ा (हमपी) सहि गमा (सब घरक) सीमाइ (मोशियालो) घाट (घटोपलो (पिल्ला) बाप (पिता) टस बर) महकम) बलवती (बाचाल)। इसी प्रकार किसानों के कार बहला अनेक उदाहरण विप मा सक्ने मा- विs, ड, प्राणा, वापरा, पीड, बापा, भाषा, सोपडा, निरसह, मनाना, पेला, मास, मका, पास भर, का, विवा, धारा, पाइमोलमा, लोहा नायड, टा, बाल हाय, बाबा, मलाह, सह भाकि इस प्रकार वर्तमान हिन्दी शब्दों कत्वमा प्रयोग इस नाम सिाईमा सम्वों सट है कि अपांव की विशिष्ट कापियामा इनमें मिल परिकषित नहीं होता। बालीमापाभ्यालय लियी छ बहुत ही महत्वपूर्ण कृतियां माय mem | जिनमें प्रमुख हैसामोर क्लिक कुलमंडनकृत - ०१४५. श्री सोमप्रभसूरि .. Page #946 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३- उक्त संग्रह श्रीतिलक इन तीन रचनाओं में प्रथम दो बहुत ही महत्वपूर्ण है शेष तीसरी रमा साधारण सी है साथ ही उसके लेखक के विषय में भी कुछ सामग्री तथा सूचना उपलब्ध नहीं होती। यो रकना भी बहुत मौलिक नहीं है व्याकरण सम्बन्धी जितनी उक्तियों का इसमें संग्रह है सब प्रथम दो ग्रन्थों के आधार पर ही है तथा पर्याप्प में मिला जुलता भी है। मौक्तिक संजक इन रचनाओं का शिल्प कारण पता ही है। रक्षा भी व्याकरम के कपों पर ही प्रकाश डालती है।इमनी भाषा मी राजस्थानी प्रधानहै। शब्द छोटे और व्याख्या विस्तृत तथा सरल है। अगधाववोध बीक्विक इस कृति के लेखक श्री कुलमंडन मूरि है। सूरि जी की यह बहुत ही महत्वपूर्ण कृति है जो प्रकाशित भी हो चुकी है। औक्तिक सजक रचनाएं यो सामान्य अर्थ में व्याकरणमूलक ही होती है और प्रस्तुत इति में भी राजस्थानी के द्वारा संस्कृत व्याकरण को सरल करने के लिएविस्तार में ज्याख्या की गई है। कुछ उदाहरण भापा जैली की सरलता लेखमा की सरसता मामाकरण गत कठिनाई को सरलता सथा वैज्ञानिकता से समझाने भादि बातों को जदयंगम करने को पर्याप्त होगी। इन उदाहरणों से गद्य के तत्कालीम सयों को समझा बापा ने अति * विपत्तियों पर विचार किया है तथा साथ साधन्त मेद, विमेव गादि पर भी विस्तृत प्रकाश डाला है।कृति अनुवाद रुप में :" कीड, लीना, दीपा, पडीह, गुणी, इत्यादि मोलिवइ यति मा करी तिमाहि बस्नु कता ज्यापीय कर्म । विही विढीया कटारा, करह इसी लिया रप करइ छ । RESTINE प्रथम किस करइ, क्ट कीजात कम। जि विदीया चित्रावट करोति।पर्व क्षेत्र : काष्ठं दहनि माममाति। - चीन बराती गइय धर्म पृ० १७२-७४ Page #947 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० शास्त्र पठति () चेन्नई कारपि रिया कती का , बनइ बहराई दान दीड कोप कीया विडा सम्प्रदानि चतुर्थी विवेकिक मोक्षनई कारपि पर। सपइ इसी निया इत्यादि।-- धम्म सुनाई कारणि हुश। दिया । कस्ता पूर्ववत् । किसानई कारणि शर्मा , मुखमई। विहा चतुर्थी।-- साधु पोछनई कारणि बघु करा। (7 विही देशि कालि जेहना विवादः इत्यादि कारमइ बोलिवावे कस्ताना अथवा सम्पनर आधा हुइ वे अधिकाप विहां सप्तमी। व प्राभिवादानिया की पूर्ववता किली वनड, मामि।विता पारि सप्तमी। हिमानों का विश्लेषण भी दिर है. (७ मेधि बरिसवा मोर नाचई। मावई इसी निया काम माय मोराले नाचई के बल्ती विहा प्रथम किस ईतइ नारई मेपि रिहा भाव समि सम्वमि। कारकों का विवेचन भी मुम्क है। करक, मान सम्बन्ध, कल्ली, कम्य करण, सम्प्रदान, अपाबान, अधिक. सका । कीवीवीपी या कीया कर। या देवानी बाल के महापरी गई कार सम्प्रदान ब हानापाव विकार, मेडक मब हड, के बादल प्रकार सामान कहा , ह माकि वह पाचला , मेहमी, ह व सी इत्या सम्बन्। माग, बलि, कि पाकिवारि इत्या अधिकरए। प्राय It weet इलिलिबिस्य । स्थानी मझा का विकास: डा. शिवस्वरूप भी पू. ५८६४प्रकाशित शोध राजस्थान विश्वविद्यालय Page #948 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०१ दूसरी रचना ौक्तिक है। इस रचना को पी० दलाल ने ५वीं शताब्दी की निश्चित की है। इसके रचयिता श्री सोमप्रमसूरि सोमप्रम विद्वान जैनाचार्य तथा ये तपागचहीय थे। रचना छोटी सी है तथा व्याकरण पर लिखी गई है। व्यापम ग्रन्थों में तृतीय त्या अन्तिम ग्रन्थ उक्ति संग्रह है। इसके रचयिता तिलक है तथा तिलक के विषय में तत्कालीन सहायक ग्रन्थों में भी विशेष उपलब्ध नहीं होता रक्त दोनों रचनाओं के उदाहरण कम: इस प्रकार है:(१) करावई लिखावह गधा लभाउ ३, लैपयति , संपादयति, उतारउ । उत्तारयति, हलकीगड, तीग कीजड़ यथा देवदात्त मा, इ, अइ, पुइ अइ य सेहि आवश्यक पठिउ, 3 सवेहि राजि जापीइ क्या करता लेन्ट दंडळ इत्यादि स्था गरि अशु जागिउ बेतु व्याकरण पत। (0 वदत्ति पयि पापिर पाबइ, उपाध्याय मइ पढाबा, देवदा पहीबा --- देवदत्त कर --- पापियउ साप मारइ। ध्यारण मूलक इन तीनों रचनाओं से संस्कृत व्यानरक सरलतापूर्वक समाई जा सकती है। रचयिवानों ने इसी लिए हमें राजस्थानी भाषा मा सरल हिन्दी Tला हैधास्थात्मक पति सरल है।वाक्य मोटे और किाय प्रतिपाल पूर्व मना है। (२) या प्रधान महम साहित्य महर साहित्य की हारी और प्रमुख शारा या प्रधान हिन्दी जैन या गावाचा मालक या एखी मिलती है जिनमें तत्कालीन मारे अन्दर बामिाओं की इन पतियों में मदद्यात्मक मा जिति यात्वा कामी मन में पर्याप्त समावेश या मावि हो चुकी है। गड्य साहित्य ने उसळ शिवानी बाहित्यपरिषद की भी रिपोर्ट पृ. 14-14 वारा डी. वसाळा Page #949 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में जैन कथा साहित्य का बसाधारण हाथ है। सहस्त्रों जैन बातों और स्थाओं का साहित्य अभी तक जैन मंडारों में अप्रकाशित पड़ी है वही इन क्याओं के विषयों का प्रश्न है। क्या अनेक प्रकार की मिल जाती है .. लोक माल्यानक, ३. धार्षिक - गारिक, ४- ऐतिहासिक ५. उपदेशमूलक - चरित प्रधान, नीविजन्य, ८-मनोवैज्ञानिक सामाजिक तथा विविध विषयक वस्तुतः इन सभी स्थानों में विस्य की मुख्य वेदना धर्म प्रचार या वरित निनाम और ज्ञान प्राप्ति ही है।क्यात्मक पद्धति से इन रचनाकारों में श्रोताओं के मनोविज्ञान का स्पर्शक्यिा है।इन शाओं द्वारा बर्मित मनोविज्ञान भी उल्लेखनीय है। जैनदर्शन, मागार कर्म, तथा भक्ति व जैन धर्म के विभिन्न अंगों असे कठिन व दुरूह विषयों पर प्रकार डालने और सनको सरलकन पाषा में समझाने के लिए जैन लेखकों ने एक स्थात्मक शैली अपनाई है और दूसरे वर्णन में मदद को की ठीक समझा है। अत:ये धाएं अत्यन्त सरस, मधुर, स्वाभाविक, सरल, भावप्रधान, उपदेश, नीति तया चारित्रिका गरिमा औरदानिक सिद्घान्नों औरउपासन पद्धतियों को स्पष्ट करती है। इन स्थाओं में महत्वपूर्ण कथाएं प्रमुख जैन विद्वान् पल प्रभूपरि 1 से ही उपाय होती है। इनमें प्रमुख समसे सम्यकरव, वाखत, सोलह कारण, पायक अविचार उपवेबमूलक, स्वधर्म या गोम शास्त्र सम्बन्धी नमस्कार बाला व बोध, ज्या प्रकी वादि अनेक विषयों पर लिखी क्या उपलब्ध होती है। इन महब क्याभों के रविवानों में प्रमुख रमाकार :श्री प्रभरि ( ), श्री बोमन्बरमूरि (0 ४५-. श्री माथिमदरी १८ श्री मांगमि (faote tha) मावि है। मिनिमविषयों या बारा जन भाषा में तिवी गई इस मन्य मानों नारों पर विवी मई भनेक कहानियां है। विषयानुसार इन बयानों के सागरण की भाषा तथा इनके प्रवाह का अध्यायन कसे के लिनी दिलवा रो to समय ना हो सम्बन्धी-रचयिता श्री आचार्य नन प्रसूरि . Page #950 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९०३ १४११ यथा प्रथमव्रत ऊपर- चन्द्रसूर राजा पुत्र कथा प्रथम अहिंसा व्रत पर लिखी एक कथा के गम का उदाहरण देखिए: (+) जय एक जाति पुरु। नामि राज सूर चंद्र नामई करी बि व्येष्ठा महाणि करी राजेन्द्र ज्येष्ठ युवराजा कीघा । वृटिस करी । ह afra मात्रा की गति नहीं। के अपमान व वैद्रि देवली (२) वासंती नामि नगरी कीर्ति पालु मामि राजा, मी * मानि पुत्र पुत्र ही कडा वति सिंह नापि श्रेष्ठ परम श्रावकु चिनि सभा मा कीर्ति पाहू राजा सिंह जिम पक्ति तु areas | भनेर ब्रेकिट मुख कमल अमर जिम जीयछ त वत्तई । तेल प्रस्तावि प्रतीकार आजी राजेन्द्ररहई वीनवइ- महाराज तुम्हरहई देखणहरु एक पुरुष दिव्याकार राजा तिमी मेल्हिो 2 १-० ० ० ० + वहीं पर । सम्यकत्व तथा धावकों के बाचार पर भी अनेक कथार्थ उपलब्ध होती जिनकी भाषा अत्यन्त सरल व प्रवाहपूर्ण हैं। इन कथाओं को प्रारम्भ करने की एक ही है परन्तु फिर भी प्रत्येक कथा अपने में पूर्ण तथा प्रभावशालिनी छोटे मैने तथा भावपूर्ण है जिनमें एक सौकर्म सर्वत्र विद्यमान है बैठी # में कहीं भी विचिकता नहीं है।पकाचा व्रत ऊपर लिही मंत्रीस्वर क्या का एक उद्धरण देखिए: प्रभात बनाइ देही करोड बनि पोर बेल्लिपो पारी की दिवस कृत्य विधिक करिया लान । मानुषाविह नई परिवली बनाई निधन हुयी । नेइ दिनि स्वाविया चोक देदिना धरती व वस्तु चोरी व तेह वस्तु मा ए क्यूकि मुक्ताफलनउ डाक है करी। विनिहिं जि नदि किना श्रेष्ठि इवावि । री करी कार रहई आठ चोर धरण Page #951 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवाज दरगामी की इस वीडवा। इन कथानों में न माषा काव्य की सरसबा सर्व विद्यमान हैविविध विषयों पर लिसी बत्कालीन अनेक प्रकीक क्याएं स बात का प्रमाण है। एक इढ़िया पर लिखी क बत्कालीन प्रकीर्णक क्या का एक उदाहरण देखिएः ए प्राषि एकिति बरिखवाकरी इक्सिन होकरि एक ईवी। सन इसह नाभि का वीकिरा पाए वापिविका कारपि ग्राम होक या मा चारला अनेक दिनि संध्याममइयान वन इतर बाछले पावर एस पुधि इसिर, पूछी प्रावी विद्या ईजि महाविक वेग समहु ईल देर बालि। जिम का विधि या विष बाई मही पीठि पति। स्मा ग्यरष में बोकार दीकित बाल बादि पद हेड राजस्थानी को भाव भी बोले बाते है। उपदेश प्रधान धार्मिक क्याओं में अनेक भी बिमूलक क्या मिली है जिसकी मुख्य संवेदना कैवल ज्ञान या नश्वर संसार से विरक्ति ग्रहण करना ही है समावती क्या- का एक उदाहरण गद्य की प्रजिलवा को पूर्वमी पूर्णतया स्पष्ट करता है: धारा दूकडमो साथ जाबो दी चंदन बालानु हाथ पर कीया। नंदनवाला नामी का मा लादि। माटीई कहिल-मार बार पीनवाला बन देखा। मानवीई कति किस देश का मामला बीबई काल इसी प्रकार मान्य परिवारा मुनि ओक बार केन न पर प्रकाश डाली है। क्या मालकीचा गुस्स पावर बर बर्मन है। सर मालीश बाप पिया महादिक नर बंश कहीदानशील - - - - -पान आम गुजराती गव संदर्भ argan.. - वडी० ५८-५९ - Page #952 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८५ मी रात्रि भोजनादिकन निवेवरूप र आचार के विवाने करी के समान परीक्षा हुई। कुलिई करी, जाचारिई करी जे सरीका कई (२) प्रसिदु च देशाचार- जे उत्तम मनुष्य मीहि प्रसिद्ध देवन माचार starrer for atक व्यवहार जेन समाचरई ते धर्म योग्य नहीं, ज arees से धर्म योग्य । (३) राजादिः राजा मैमीश्वर पुरोहित बैठी प्रमुख मोटान अववाद विशेष न बोलई से बोलती इहलोक इ लक्ष्मीनी दानि जीवितव्य विनाशादिक • दोष उपजई तेह भी कहिन दोषन बोलई से धर्म योग्य । इस प्रकार हिन्दी मय साहित्य के अनेक उदाहरण इन आदिकालीन कृतियों दुवारा प्रस्तुत किए जा सकते है। यद्यपि इनमें से अधिक कथाएं अपने पूर्ववर्ती विद्वानों के संस्कृत और प्राकृत ग्रन्थों सेअनूदित है परन्तु तो भी इनके उदाहरणों से तत्कालीन माया के गद्य क्रम और विकास का इतिहास स्पष्ट हो जाता है। (३) धर्म सम्बन्धी गम साहित्य धार्मिक रचनाओं के रूप में धर्म हिन्दी जैन रक्ताओं के मूल में दवा का कर सर्वविदयमान है। हित्य सम्पन्न है afare प में धार्मिक वस्तु प्रधान मय रचनाएं उपलब्ध होती है। जैन को ये इतर रचित कालीन चारली व साहित्य में भी इसी प्रकार के उत बाकी पर लिख रहे थे और कुछ जैन बावली पर बारमी मग ईली में उपलदार बीवी-री वचनका सबसे विका रमा का वजादी का उत्तराध है । प्रथ्वी चन्द्र होते है। **- प्राचीन बरामद ० १८०११९। Page #953 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरित्र (जैन रचना) पीसी शैली की है। क्या साहित्य निबन्ध साहित्य, टीका, माभ्य और अनुवाद के रूप में अम्गदय काठ का बितना गद्य साहित्य पिलता है उसमें प्रमुखता बालावबोध शैली की है। अभ्युदय काल में जितने प्रमुख गद्य लेखक हुए उनमें से लगभग सभी ने इसी भाषा टीकात्मक बालबोध बैली में अपनी रचनाएं की वाचार्य प्रमूरि, सीमान्दारि, मुनिसुंदरसूरि, रलवर, 'जिनसुन्दर, मदर (रबरमन्छ) शिवसुन्धर जिनसूउ (वभागछ) साधुरत्न, राजवन्लम (धर्मधीय गच्छ) तथा डेमसमामि आदि अनेक प्रमुख बिड्वान है जिन्होंने विविध स्पों में गम के क्षेत्रका सम्पन्न किया है।आदिकालीन हिन्दी बैन बाहुभय के इस गद्य साहित्य को सम्पन्न करने वाले तत्कालीन जैन लेखकों प्रमुख रूम से ५ महारथी उल्लेखनीय है :-आचार्य समप्रभमूरि, १- श्री सोम गुन्दरमपि, ३- श्रीमसन्दर, ४-श्री पाश्वत ५- मामि क्यासुन्दरसूरि। इन पांचोंमहारथियों के कारण विकासकाल को आदिकालीन गड्य साहित्य का स्वर्णकाल कहा जा सकता है। पहावश्यक बालवबोध: सम्बका की इस रमा कमी भावार्य बनभरि । कृति भी अप्रकाशित केली माटाची के ग्रह से लेक में इस पौड़ कृति तिमिप्रति उपलबध हुई।' प्रति गहब को देखकर बाबा जी की मिवता का परिचय लिया है। जिस पर यापि धार्मिक है पर हिन्दी साहित्य की प्राचीन मइम रबमानों में बम्ब काल मा स्वर्णकार की इस मावश्यक बाताबोध कृषि को भयो प्रीद कति सा वा मा " १-सामिारमार- प्राचीनतमझ रखना । मावालाना लेखक का हिन्दी साहित्य की परि (हस्तलिखित प्रशि-अपय जैन Page #954 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८७ आचार्य सूरि का व्यक्तिगत जीवन, जन्म आदि स्पष्ट नहीं होतामात्र सहायक प्रथों से ही कुछ परिचय मिल पाता है। वरतर ग में इनकी सं० ११८ में दीक्षा व साहित्य साधना प्रारम्भ हुई । अपने ग्रन्थ में इन्होने अपनी शिवा दीक्षा तथा साना पर प्रकाश डाला है।मम पुरन्धर महारथी थे तथा संस्कृत प्राकृत और लोक पाषा या कालीन बोलियों में स्वा करने में उनकी इक्वि अभूतपूर्व थी। प्रन्थ का शिल्प मालावरोष जैली भाशा टीकात्मक पड्पति है जिस पर पूर्व पृष्ठों में प्रकाश डाला जा चुका है प्रस्तुत कृति जैन धर्म के आवश्यक कमों पर लिखी गई है जिसकी मुख्य संवेदना,धर्मोपदेश, बीस वा धर्म प्रचार की वृति का रचना कात स्वयं लेखक के उब्दों में स्पष्ट होता है। रचना ठी उपदेशात्मक अब छोटे और गम्भीर विवेचन कसे में सक्षम है। बारा की कृति उनके भीर अध्ययन, मनन और अनुशीलन का परिचय देती है। यात्मक शैली उदारमों, । अथान्तरन्यानों और दृष्टान्तों से पुष्ट किए हुए गद्य को प्रस्तुत करती है। वहा कृषि की भाषा का प्रश्न है, ऐसी गल मय कवि धरी नहीं है। स्व प्रा और उसके साथ कर पापा बाहर सन्निका पाप पर असाधारण अधिकार नामद भानमा माल्य रति उसमें एक मत पूर्व मार डाला गसि स्वाम चिन्दी साहित्य में मझ्य की तत्कालीन समयमा को सिन करावाचार्य वी का काव्यात्मक प्रवाह मन की रक्षा को और भी निधार दे मालाध ली रखा गया यह पीजी की मिति, समया की वार्षिक मनोवृत्तियों बाकतानाजवजावतानाबमालयाजनान पहारमीकानेर सुरक्षत +साबाबालाकोष-धिका-९० ... वर्ष दीपोत्सब विवो शनिबारे कोलमिटनेमावस्यकात्विषा बालावबोध काषिी सक्क सेतोपका Page #955 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व चरित्र को सबल करने के तत्व तथा रचयिता के भावों को सरल भाषा में प्रस्तुत करने की असाधारण क्षमता है। कृति की भाषा हुछ नहीं, पकदम सरल है। क्लिष्टता से यह कृति कोसों दूर हैं। गम के कुछ उदाहरण देखिए: १० बसंतपुर नाम नमक। जिनदार मानि श्रावकुते महेसरदत्स नामि मित्र । विपदास बागार मानिनी विदयालय बलि नंदी स्वरि दुवीषि arred चैत्य वादिया गयठ अनामी कि काही किंवा नाहीदेव पावती (प्राकृत) भानु किं करिष्यति (संस्कृत) कियों कfres frसर जा विसर - इत्यादि आति स महेसरदत्ति भणित मित्र तावर देखि अपूर्व सुगन्ध गंधाइ । तिमि नंदीश्वर यात्रा वृतान्तु कविउ तिर महेसरवत्तु ममइ मूरहई पुषि nara गामिनी विद्या आणि अति निर्बंधि कथइ हूं जिन दाखि महेसरवत्त र विद्या दीधी। बिनवर इसी परिभावना मावा । तदा तिथि नगरी केवली , बा राजादि लोके बादी -भगव किं। लोक कह-भगवत अभिन sing a केवली कही विनय पारा वित्तु न भाराि उक्त उद्धरणों द्वारा कृति की लोकप्रियता का अनुमान का ही लगाया वास्ता है।राजस्थानी के कंकाल में इस कृति के सरल प्रयोग और मयू बाड़मेर मा तथा सरस की देवर व्यारा हैमहावश्यक वातावनी में वैनियों में निलेवन किया है। देवक, (सम भावग्रहण) - गुरुवंदन, ३ वीर्थकरों की स्तुति) ४- प्रतिक्रमण (पापों का २० 等物 १०८ ४ 等地 ग्रन्थ वितीय प्रकरण २०१३-१४। कृषि को कमि ने रूपरंग वार्षिक अंगों कर्मों का Page #956 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०९ प्रायश्चित व त्याग) ५० कायोत्सर्ग (कष्ट पाना ) ६- प्रत्यास्थान व्रत नियम आहार आदि का ध्यान । उक्त कृति के reet साहित्य क्षेत्र में आचार्य सोमसुन्दरसूरि ने प्रवेश किया। गद्य को दिशा आचार्य वाप्रम ने दी और सोमसुन्दर के बालावबोध के क्षेत्र में लगभग ८ प्रसिद्ध कृतियों का योगदान किया है:(०) उपदेशमाला बालायबोच सं० १४४५ (२) efष्ट शतक मानवीय सं० २४९६ (३) tearer बालावबोध (४) Heater स्तोत्र जालावबोध (५) (६) (0) (८) इन ग्रन्थों में कुछ उद्धरणों पर विचार किया जा सकता है। क्योंकि इन कृतियों की शैली किल्प और वस्तु में लगभग पाप्त समानता है। इन कृतियों में छोटी छोटी कथाएं है मात्रा अधिकार कृतियों की प्राचीन राजस्थानी या नीमडी है। इनमें उपदेशों का सुरत और संस्कृत के दुआ काव्यों को सरलतम बनाने के लिए तथा जन साधारण के लिए लप करने के लिए ही इन कृतियों की रचना हुई है। योग पास न्द्र का अन्ध है उसी पर कईवालावीच तथा स्याएं रखी गई है। taareeTorantध पर्व आराधना बालावबोध spheres बालावबोध विचारग्रन्थ बालावबोध | इसके कि सत्य का प्रश्न है वह अधिक नहीं है फिर भी इतियों में माया कड़ियों स्पष्ट परिलक्ति होती है रकाव मैं सभी का विश्लेषण करना वडा संभव नहीं है। एक दो रचनाओं का परिचय तथा गम के उपर सवार कर सकते है। माठा बालावनोथ में आचरण की पवित्रवत पर प्रकार डालने जाली छोटी बड़ी प्राकृत स्थानों का ग्रन्थ है। रचना का उद्देश्य धार्मिक उपदेश है। Page #957 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० प्राकृत गाथाओं का विश्लेषण करने के लिए ही इसमें रचनाकार ने उनकी व्याख्या प्रस्तुत की है। योगशस्त्र बालावबोध श्री हेवन्द्रसूरि का लिखा संस्कृत ग्रन्थ है। श्री सोमप्रसूरि ने उसी पर वह बालावबोच लिया है। रचना के नाम से ही स्पष्ट है कि लेखक ने उसमें योग सम्बन्धी तत्वों का विश्लेषण किया होगा । योग की स्थिति, योगी पुत्र व योग के गुण वर्णैन, पंच महाव्रत, आदि के साथ श्रावक के वर्णन, मन का बुद्विधकरण और जान क्या अतिवार और श्रावक गुम, सम्यकरण का विश्लेक्स, इन्द्रियों का उसका स्वरूप, पावनाओं का वर्णन तथा १ के अनुव्रतों का परिचय मिलता है। इन धार्मिक उपाख्यानों की भाषा सरल है। art are की reतासे धर्मगत उपदेशों की सारी दुहता मिट जाती है। इन कथाओं मैं भाषा के विकास के सोपान है। दोनों कृतियों में साहित्यिक तव साधारण है यहां तक कि पड़ावश्यक बालबोध की भाति ये रचनाएं प्रौढ़ नहीं है परन्तु फिर भी मडुव erfor के विकास क्रम में उल्लेखनीय है। दोनों के दूध के कतिषय उद्धरण देखिए: पर्वतक अर्थ राज्य लेणहारमणी एक नंदरानी बेटी ने करी विकल्या जानी नईपणावियो न्युन्त बिना उपचार करतो मारियो । अनt चक पर्वतक राजा भिम कीयो । नई गति वाणस्य स्क्री पालि पुरि गावी नंदराम काही राज्य ली सिम अनेराई आयामी काम परिया पूर्ति निजहुई कई arre वामन दचित्र राज्य बौय भी संगतियो (उप०या०) इसी तरह का वक उदाहरण और वैशि: Y पाटि धनवान कर रही महासती गई इति श्री बार कार की ११० दै भी बेटी इसी प्रकार करई आई भवि मी पाकिटं इस एक बार श्री बर नीम नगर या उचारिया धन सार्थवाह अनेक सुवर्णरत्नमी कोडि या श्री बगर स्वामी कह बाकि वाहिनी बेटी मनी दीक्षा लेव रावी लगाइ पनि लाच Page #958 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाि एक बार लोके विनवि-स्वामी को एक चोर नगर लइ छ, पुण चोर जागीर नहीं। राजई कहिले थोड़ा बिहाडा मांहि चोर प्रगट करि तुम्ह असामाथि म करिसउ पछई राजा ईतकार लेडी हां कि । तलार कहs पई अनेक उपाय कीधा पुण ते चोर धरार नहीं ।-- प राग आपण पई रानिई नीला पडलउं पहिर नगर बाहर के बोर स्थान के फिरते, चार जोवर एकई स्थान कि जब पूरा लिई में डिक चौरई दी जगाति हिउ तीन किमी भीकारी | मंडिक चोरि कहि मावि क यूँ साधिई जिप तुहई लक्ष्मीवंत करतं । (योब्बा०) बहावर यवनाला वबोध ५ ६ १११ (सं० १५०१) का उदाहरण भी तुलनात्मक इष्टि से यहा प्रस्तुत किया जा रहा है: • वासंति नगरी कीर्तिपाल राज्य मीम बैटउ । राजानइ मित्र सिंह वेष्टि । एक बार इस एक आवी राजा हई बीनवर स्वामी नामपुरि नगरि नागचंद्र राजा तव गुनमाला कन्या । ते तावरी पुत्र हुई। देव बाई प्रसादकर पुत्र मोक्का राजा सिंघ श्रेष्टि नइ कहि।जार कुमरन विवाह महोत्सव करि बाट टि कहई नागपुर ही सो बो इन रहा। जाट राजा कुपित ह ज नहि जार्ज का ईटे पाली पो भय सहस we eray | जो जन उमर जावा नीन खंड हि ममी नहीं तोप की की कई कुन्दर सूरि का नाम उल्लेखनीय है।इनका राजस्थानी में इनकी अनेक टीकार्य की रचना मिलते है विरतर मच्छ के क रचना काल से० १४८७ से १५३० तक है। पध होती है।वाला बोध रचनाओं में प्रकार है: १य में सुरक्षित के समय जैन प्रथायबीकानेर में सुरक्षित | Page #959 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ ० शीलोपदेशमाला बालावबोध । (२) पुम्पमाला बालावबोध।' (३) डावश्यक बालाबबोध। (४) अजय स्तवन बालावबोध।' कर्पूर प्रकरण बालावबौध।' (१) योग शस्न कालावबीया पंच निधी बालावबोध। (e) अजितशाति बालावबोध । (९) भावा निवारण बालालोध कल्प प्रकरण बालावबोध " बोग प्रकाश बालावबोध। (१) बट शतक बालायबोध। (1) वामरालंकार बालावबोध तथा (४) विदग्ध पुस मैडल बालावबोध । इन ग्रन्थों के अतिरिक्त मेस सुपरसूरि की कुछ अन्य रचनाएं भी उपलब्ध है। राजस्थानी गड्य लिखने में मेमन्दर की सभी रचनाएं पर्याप्त महत्वपूर्ण है। उस रचना विविध विषयों पर लिपी गई है पर अधिक समाजात पार्मिक हैलो भी हो,यह स्पष्ट है कि हिन्दी बैन बारव नीवादिवालीम - वही संग्रहालय डार पाटन कामकारकर इन्स्टीट्यूटना। *पुराना संघ बार पाटन! .:- पौडीबी हार सयपुर था इनिसियामर संग्रह, कोटामा बरषात हार ललमेर,भामा भन्डार पावनगर, विवेकविषयगर उदयपुर वादि। कमियों को नापी बरसी पापडा ने दीइनमें से पाली रना कामामवनावरीच्या- शिबाहिरबमादरपाकीताना और इबरी मार -मार कार,पीगनेर में सुरक्षित है। Page #960 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११३ बाबावबोध संबक हिन्दी गडब रमना विशाल संख्या में उपलब्ध है। इन ऋषियों में तथा प्रसिद्ध लेखकों के अतिरिक्त गद्य साहित्य को विकसित करने वाली अनेक रस्मा और भी मिलती है। जयशेखर सूरि(Pre-t) इस काम के प्रमुख गइय लेखक थे जिन्होंने १९ ग्रन्थों का प्रजन क्यिा। अयोसर सूरि अपने समय के प्रसिदध कवि तथा भाचार्य रहे है। निमकी जैन अजैम वियों पर उपलध काव्यों का परिचय हम बहने अध्यायों में गा चुके हैं। निमुक्न दीपक प्रबन्ध स व्यवसायों के इस निर्माता में गय मन्थों में भी अपना स्थान बताया है। इनका प्रमुख अन्ध श्रावक ब्रावविवार है। इसके अतिरिक्त इस काल के गद्यकारों में सपा के श्री भारत्न मुरि का भवत्य विवरण बालावबोध (to .४५) महसगाणि (० १५.) का पड़ावश्यक बालाबोध आदि अन्य प्रमुख है। इन लेखकों की रचनाओं में प्रौद मड्य के वान होने है। अनेक कलियां ऐसी भी उपलध होती है जिनके की मासी . रनाओं में प्रमुख है- श्रावक व्रतादि अतिचार( ६) तथा कालिकाचार्य क्या (सं० ०४८५) इनमें कालिकाचार्य कथा बड़ी महत्वपूर्ण है। गद्य की शैली में मारना काम का सा रस घोलती प्रासादिक शैली में माधुर्य का उन्मेष इम्टी नाहटाजी के भंडार में यह रकमा पुरक्षित हैन का साल कामय क्या प्रभावपूर्ण और बनुप्रासाला योजना स्टम्यबाल और दाम्पों की बाकी माती है शादार इस परंपरा लीक: - - - - -नाहित्य का चिािमाधी मोहनलाल देखाई-टि...more मपुर कवियो- माय -श्री देसाई। -मौकीनी बंडार बबई पुरविनाटाबी की सूचनानुसार) -मबारद मंडार बीकानेर वा मानवालम्बीकानेर। जारी रात विविनियर Page #961 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ १० जिस चंचल व मु बाकार जिसस चंचल मन मउ व्यापार । जिस संचल बीजन मुत्कार । जिम दो डिल्प चारित्र जिस कंबल ठाकुर अधिकार। जिस पीपल पान तिसी चंचल राज्य लक्ष्मी जाण तुम सरीक्षा विवेकी प्राणी इसीया संसार स्मीया कुआ मीडि काइ पढ़ई डुमते काइ रडवड श्रावक बृहतिवार की पावा का एक उद्धरण अलयू होगा: use sores विनय वेवावधि देव पूजा सामाजिक पोषहि दान वील तप भावनादि की धर्मकृत्य मन वचन काय वण क बल छतव atter समासन दीया नहीं। बादणाना भावत विषई साचविया नहीं | ator पाक्क्पिर्ण की। वीयाचार अनेक जुको अतिचार' । इस प्रकार धार्मिक मय साहित्य में बालावबोध टीका साहित्य और अतिचार शक रचनाएँ मिलती है जिनका लक्ष्य धार्मिक होते हुए भी उनमें साहित्यऔर मावा विषयक सौदर्य पर्याप्त मात्रा में विद्यमान है। (४) ऐतिहासिक मात् गम की इस धारा में इतिहास से सीधा सम्बन्ध रने वाली tere sege होती है। इन ऐतिहासिक रचनाओं में कुछ महापुत्रों जैनवाय और मम, गच्छ तथा पट्टों का विवरण मिलता है ऐतिहासिक साहित्य का प्रतिनिधित्व करने वाली इस प्रकार की रचना अद्यावधि सिर्फ एक ही उपलब्ध हुई है परन्तु अजमेर, नागौर, बैलर, दिल्ली, मेरठ मुजफरनगर, अम्बाला छावनी बादि धामों के द्वारों की बोध होने पर यह बहुत सम्भव है कि इस बीग के बाकी कई मय की रचनाएं उपलब्ध हौं । १- बीकानेर में। Page #962 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११५ उपलब्ध कृति गुर्वावली है।रमा बीकानेर में सुरक्षित है।रचनाकार श्री जिनगईध और रचनाकाल ०१४४० के बाद। जिनवधनने इसमें पाग के जैनाचार्यों की पट्ट नामावली महावीर स्वामी से सोमसुन्दर सूरि दी है। इसमें विशेषता यह है कि इन पट्टधर आचहयों का कवि ने गय काव्य की भाति प्रवाहपूर्ण भाषा में वर्णन किया है। पूरा वर्णन अन्तवानुमार से युक्त है। पट्टधर आचार्टी की सभ्य नामावली प्रस्तुत करने में उनका धार्मिक तथा सामाजिक इतिहास प्रस्तुत करने में यह रचना पर्याप्त सहायता करसकती है।मात्रा में विकास, गद्य ली नोन्नति, शब्द चकन का सौष्ठव, लेखक की स्मास प्रधान बेली भाषा का प्रवाह गतिशीलता क्रियापदों की सरलता और सुकातमा रचना का पहत्व और अधिक बढ़ा देता है। एक उदाहरण एतर्थ पर्याप्त है: जिम नरेन्द्र माहि राम, जिम मक्त माहि काम 'जिम स्त्री माहि रंभा, जिम वादित माल मा जिम सती माहि सीता, जिम स्मृति माहि गीता जिम साहसीक मा तिक्रमादित्य, जिम ग्रहण माहिं आदित्य বিন বলে মাতি মিণি, ত্ৰিম গামল মতি নুঙ্কালজি जिम पर्वत माहि मेक भूपर, बिन मनेन्द्र माहि पराब free जिम रस पी एल, नि मार मारलु माविममुख जिन सामतिका हिमाल म राती इस प्रकार गइन साहित्यका प्रतिनिधित्व करने वाली मह अकेली रममा ५वी सहावी की भी इसका पक्षमा प्रोडना परवं सरल है रका atm की बा.नवों की मान्यता प्रसा पूर्ण तथा हमपण मी दारण भाषा गत सौर्य के लिए इष्टव्य है: - प्रधान बीकानेर श्री अमरचन्द भाटा के पास डीडा Page #963 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारिय लक्ष्मी के दाल हार, निरूपम ज्ञान भंडार सकल सूर हिरोमापि, श्री तपोगन्छ नमरे मणि क्वादित मतगंज सीह, निर्मक किया वंश पहिलीह चारद बिदा मागर गंभी रिम वर्जित सागर अज्ञान विभिर निराकरण, मर साय दावानलवारि पूर निज देश ना विवो धि नानेक देशबम निजाम लक्ष्मी प्रणीत सज्जन । मवाय विवार बसाळीस वज्तुि माहार श्री शन गार, प्रम प्रधानावतार वस्तुतः इसी प्रकार की गइम रचनाएं गद्य साहित्य के विकासम्म में नया मोड़ देने में समान है। - (५) गद्य काम्ब का उद्धावक एवं प्रेरक गद्य साहित्य: मम्युदयकाल में गइम काम्य की उझावक रचनाएं मिलती है यि काव्यात्मक दृष्टि सेबम्वृदय काल आदिकालीन हिन्दी गद्य का स्वर्णकाल कहा जा सकता है। अब तक प्राप्त रचनाओं में तुक प्रधान गद्यात्मक खाएं तो कई मिलती है जिनका विवेचन पहले किया जा चुका है परन्तु उनका काव्य की दृष्टि से महत्व साधारण ही कहा पाबमायो वैविध्याम बाब या संभ्या भी मेक है। म काव्य का ग्लावक एवं प्रेरक गायिका की इष्टि और भी अधिक महत्वपूर्ण है। मध्यम काल के पूर्व भी महब काम की मात मुक्मा प्रस्तुत करने बाला महल बन रचनागों मिला है जिन पर इसी अभ्याब में आगे प्रकाश बाला मामाघरम्य जैग रमानों का का रक्षाब और विकास प्रणा करने वाले कि मावा परिक्षित है। महा माय लेना भी आवश्यक प्रवीच होता है। गजकेसरी प्रकार से है। जिनमें इश्य काव्य में माटक और म्यागमनात्मक मारक क्या मिल रचनाएं आती है पड्म में जितने मन्य ले गरन अधिकार का प्रधान होते हैपड्यात्मक विभाग के Page #964 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११७ अन्तर्गत प्रबन्ध और मुक्तक होते है और प्रबन्ध के महाकाव्य, मेड काव्य त्या बंधू काव्य भेद किए जा सक्ते है तथा पुक्त के स्तोत्रस्तवन एवं सुभाषित होते है पढ़य काव्य की ही माहि गड्य काव्य पीकाव्य प्रधान होता है पर उसको छन्द के बंधन में बाधना अनिवार्य नहीं है। द को छोड़कर वे सब काव्य के गुण उसमें दो जासकते हैं। बापन ने गैहय के वृस्तगन्धि, उत्कलिका प्रायः और पूर्णक तीन प्रकार तथा साहित्य दर्पणकार विश्वनाथ में अक्तक गङ्ग्य और कहकर चार मेव किय है। जिममें पाद मा यद के अर्थ जिस सन्द में मिलते है उसे वृतगन्धि, लम्बे लम्बे समाज प्रधान गद्य को उत्कटिका प्राया और होटे छोटे समस्त पद को पूर्णक और समस्त पदों के अभाव बाले गढ्य को पुस्तक नाम दिए गए हैं। गड्य काव्य के क्या और आख्यायिका दो भेद किए गए है जैसे कादम्बरी को कथा और इर्ष बरित को भास्थायिका के नाम से अभिहित किया गया है बम्बू काय मित्र काव्य का एक भेद है। बम्पू काव्य के साथ साथ मित्र काय के विन्ध और करम्भ ये दो भेद और भी होते हैं। वर्णनात्मक मित्रकाव्य को चम्पू काव्य, गद्य पद्यात्मक राज्स्तुति को विन्द और अनेक भाषा प्रधान मिश बाध को करम्यक कहते है। प्रश्न है कि पहय और गद्दय में से पद्म को प्रधानता क्यों मिहीकारणों की व्यवस्था करते हुए कहा जा सा है कि एक तो पाय याद करने या कारण करने में रहता होती पहन लोकप्रिय बना है अब उसका मन साधारण में महत्व व्या प्रचार बड़वा है इसकी उपयोगिता अधिक रहती होगी और सम्भवतः यही कारण है कि हमारे प्राचीन बध्यतावों और विद्वानों इवारा जिन जिन यों का उदाहरणार्थ- कोष,ममित, वैषक ग्यानिक मामि-अमन हमारे नवी ीि पहल प्रधान तथा काम प्रधान होने से मधुर मोका पानी पाते हैं। मही कारण है किमारा अपि angner पिक है। धीरे धीरे गाय का भी विकास मा प्रकाशन -शील पना: मार्च १९५७ २.३। Page #965 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ यंत्रों और मुद्रक प्रेस ने गदूम के विकास में अभूतपूर्व योग दिया। वस्तुतः यह कहा जासकता है कि षय का विकास में जितना योग लोक भाषाओं ने दिया उतना गम के विकास में नहीं दिया और यही कारण है कि प्रादेशिक भाषाओं में पढ्य की तुलना में गय नहीं के बराबर की मिलता है। हिन्दी भाषा में भी मैथिली के गहय ग्रन्थ से प्राचीन कोई गद्य रचना अभी तक नहीं उपलब्ध होती ही राजस्थानी और जूमी गुजराती में इस प्रकार का गह्र्व साहित्य प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हुआ है अतः हिन्दी के गद्य साहित्य की श्रीवृद्धि इन्हीं प्रवेशों का मय साहित्य करता है। अज, अवधी, भोजपुरी, कन्नौजी आदि प्रादेशिक भाषाओं में भी म अवश्य ही लिखा गया होगा। ऐसा अनुमान किया जा सकता है परन्तु संभवतः वह आक्रमण कारियों द्वारा, सुरक्षा ठीक प्रकारसे होने की व्यवस्था के आबके कारण तथा प्राकृतिक व्यापातों द्वारा नष्ट हो गया होगा । अद्यावधि इन प्रदेशों से मन की वर्णरत्नाकर की भांति कोई भी प्रति नहीं मिली है परन् वर्ष रत्नाकर के गदूम की सम्पन्नता के आधार पर यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि अन्य प्रादेशिक मात्राओं में मय की ऐसी सम्पन्न कृतियां अवश्य हुई होंगी जो आज अनुपलब्ध है। कई विभाषाओं में तो सम्यकृशोध का अभाव की इसका कारण हुवा है। जो भी हो, यह स्पष्ट है कि आदिकाल की महब साहित्य परम्परा पर प्राचीन है।मय और मकान में भी कम के स होने के पश्चात् डी मदन काव्य का मन सम्भव है यदय काव्य रस पेवल होता है। यह राय का पोपेड विष्टि उदय पर दों से रहित मद्य रचना तम काव्य के नाम से अमित है साधारण मम को इसमें सम्मिलित नहीं होते की जिससे पढ़ने और सुनने में यह का आद या र विहीन का है। किमया अक्षः मम काव्य में का भानन्द अनुभूत कराने की शक्ति होती # उसमें योधनायक होता है और सरसता एक रस विद्यमान रहती है। * देवर राजस्थानी गहन काव्य परम्बराः शीर्षक श्री आरबन्द नाष्टा काले। Page #966 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११९ अतः वहीं इसी गद्य काव्य की परम्परा के इतिहास पर संक्षेप में विचार किया जा रहा है। जिस तरह मदय का विकास के साथ ही साथ हुआ प्रतीत होता है ठीक वैसे ही गम काव्य का विकास मी पवृक्ष काव्य के साथ ही साथ हुआ रहा होगा । काव्य की प्राचीनता भी मन की प्राचीनता की भांति ही पुरान कहा नगी विदो कहीं कहीं जो वर वाणी मिलती है वाक्य मैंने व्यात्मक और रख पेशल पदक की अनुभूति कराने वाले मिलते है। वेदों के पश्चातु महाभारत में पी राम काव्य को विकास मिला ऐसा प्रतीत होता है। महाभारत के पश्चात् जैन आगमों में मदय काव्य के व्यवस्थित उदाहरण मिलने लगते है। इसके पश्चातु नाटकों को लिया जा सकता है। नाटकों के मदय ने भी काव्य के उत्कर्ष में पूरी बाकी है मा कालिदास भवभूति आदि के नाटकों के सुम्दरों में इन्दर गहन काव्य के दर्शन होते हैं। संस्कृत ग्रथों में कड़ी का दशकुमार परिय जो ईसा की ही बताब्दी के मासपास में रचा गया है, गड्य काव्य की उत्कृष्ट रचना है। सुबंधु की वासवदत्ता को भी नहीं भुलाया जासकता । इस रचना का प्रत्येक शब्द ही सत्य तथा लिब का बेजोड़ निर्वाह है। वासवदत्ता के पश्चाङ्ग गम काव्य के महान पिता बानभट्ट है जिनके प्रसिद प्रन्थ बाबरी मोर है। कादम्बरी सुन्दर सरस और उत्कृष्ट रचना है जिसमें बाम का सारा कवि उपर जाया है। लम्बे लम्बे काकारिक वाक्यों में बीई मधुर वर्धन की सूचना कवि मे मम काव्य अपेताओं ने प्रेरणा की थी। और बाद के प्रन्थ की ही मोतिर म काव्यात्मक रचना धनपाल की विलक्जरी नही जायगी। चकचैव कादबरी की ही काव्य का उत्कृष्ट ग्रन्थ है और विश्व के किसी भी कीमा में रही या सकने वाली अनूठी कृति है। श्री आर बनेकी इस मकूब काव्य की अनूठी रचना के विषय Page #967 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२० में लिखे श्री मुनिजिमविनय जी के विचारों को उद्धृत किया है। गहय काव्य के क्षेत्र में गद्य काव्य की परम्परा को आगे बढ़ाने में वास्तव में धनपाल की तिलक मंजरी मे असाधारण योग दिया है। मुनिजी का भव धनपाल के इस प्रन्थ में सम्बन्ध में पर्याप्त महत्व का है- समस्त संस्कृत साहित्य के अनन्त ग्रन्थ संग्रह में बाप की कादम्बरी के सिवाय इस क्या की तुलना में बड़ा हो सके, ऐसा कोई दूसरा ग्रन्थ नहीं है । बाम पुरोगामी है।उसकी कादम्बरी की प्रेरणा से ही विलक मंजरी रची गई है पर यह निस्संदेह कहा जा सकता है कि धनुपाल की प्रतिभा बाण से चढती हुई न हो तो उतरती हुई भी नहीं है। अतः पुरोगामी ज्येष्ठ बन्धु होने पर भी गुण धर्म की अपेक्षा दोनों गद्य महाकवि समान आसन पर बैठाने के योग्य है | घनवाल का जीवन भी बाद के ही समान गौरवशाली रहा है। इस कथन में तनिक भी प्रतियोक्ति नहीं है। तिलक मंजरी का अनुमगन गय काव्य के क्षेत्र में दिगम्बर जैन कवि वादीपसिंह के प्रथम चिन्ता ने किया। इस रचना के पश्चात् लगभग ४०० वर्षों तक श्रृंखलाबद्ध गद्य काव्य लिखे जाने की धारा सूख सी गई। मुक्तकों के रूप में गद्य काव्य के यत्र तत्र उद्धरण मिलते अवश्य है पर मे परम्बरा निर्वाह के लिए भी कहे जायेंगे। १५वीं बाबूद २ वामन मटका बैग पूषात दरित मम काव्य जन्य ग्रन्थ मिलया है। पदम विन्यास, मार्ग सरस बलकार योजना किंवा बाप के श्यमाने गर है। भाषा सरल और मधुर है कवि ने विवेचन प्रयुक्त लिया किया है। संस्कृत के पश्चrag काव्य की प्राकृत भाषा में कीं कहीं मोजना की विनता मिलती है। देखने को मिली है। इनमें कोंके में भी काव्य का था आनन्द मिलता अपभ्रंश में गइम का स्वख्म पूर्वी है जिसे मध्य काव्य के पूर्वी वर जा सकता है। १- कल्पना: मार्च १९५२१०१ मार्च १९५३ ५०,२११ ३- वही । ४- वही लेव, वही० प्र०१ · Page #968 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२९ तो मिलता ही है। इन प्राचीन ग्रन्थों में गइय जिन जिन रूपों में जैन जैसा भी सुरक्षित मिलता है उनके उद्धरण गद्य रचनाओं के इसी अध्याय में परम्परा के रूप में दिए गए हैं। इन ग्रन्थों में सबसे प्रमुख ग्रन्थ कुवलयमाला के कथानक, प्रबन्धचिन्तामणि के भाषा कथानक तथा उक्ति व्यक्ति प्रकरण में उद्धृत ग है। अपभ्रंश पूर्ण गद्य काव्य की अलग से कोई रचना अभी तक उपलब्ध नहीं होती पर भंडारों की शोध होने पर इस प्रकार की गद्दय काव्यात्मक कई कृतियों के मिलने की आशा है क्योंकि यह कहा एकदम बहुत कठिन होगा कि प जैसी भाषा के पास जिसने उत्कृष्ट महा काव्य साहित्य को दिए है, गद्दय काव्य का अभाव है। अपभ्रंश के उत्तर काल में गद्य काव्य की रचनाएं मिलने लगती है। प्राचीन राजस्थानी तथा जूनी गुजराती में गद्यकाव्य के सुन्दर नमूने उपलब्ध हुए है। वीं शताब्दी का बम्बई के प्रिन्स आफ वेल्स संग्रहालय में स्थित एक शिला लेख में राउल के नशिल वर्णन में कवि ने उत् मौलिक स्थित उपमानों से युक्त सुन्दर गद्यकाव्य लिखा है । अयावधि आदि कालीन हिन्दी गद्य काव्य मूलक रचनाओं में सबसे अधिक प्राचीन वही रचना है जिसका रचना काल मा लेब काल १०वीं तादी का है। इस जिला पर उतर लौकिक काव्यों के भाग में प्रकाश डाला गया है। यह रचना गद्यकाव्य की परम्परा का प्रारम्भिकरने बाली सबसे प्राचीन कृति है। साथ उसी अध्याय में मैथिली की रचना व रत्नाकर पर भी प्रकाश डाला गया है। इन अलैन रचनाओं द्वारा बहुत सम्भव है गय काव्य की परम्पराकै उदभव और विकास को धमकाने में सहायता मिलेगी। हिन्दी की प्रादेशिक नावाजों, ठीक प्रवति परम्पराओं और मौखिक या अलिसि रचनाएं अभी छिपी पड़ी होगी जो सम्भवतः ति मालवी की, अवधी, ब्रज मगही, बोलियों में भी सम्भवतः गम काव्य त्व में इस प्रकार की अनेक धीरे धीरे प्रकार में मीही की और भी रचनाएं प्राप्त हो। पर इस समय तक हिन्दी की इन प्रादेशिक प्राचीन राजस्थानी या मी गुजराती की कृतियों में पर्याप्त Page #969 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ हस्तलिक्षित प्रतिगों केरुय में भी इस समय उपलब्ध है। गों हिन्दी भाषा में गदग काय की परम्परा प्राचीन नहीं प्रतीत होती है। हिन्दी में वैसे गद्य की रचना ही विद्वानों ने १७वीं शताब्दी के मैं मानी है। गोरदनाथ की बुहा रवनाओं का गद्य में होना मिलता है तथा उसका काल ३वीं से .५वीं शताब्दी तक बताया गया है पर गोरखनाथ की कृतियों की हस्तलिखित य ८वीं शती के पहले के उपलब्ध नहीं है।मत: यह स्थिति असं दिगध नहीं कही जा सकती। अतः शोष की प्राप्त सामग्री के आधार पर अल्लम सम्प्रदाय के ब्रजभाका प्राधों को ही हिन्दी का प्राचीन गड्य ग्रन्थ माना जाता रहा है परन्तु इस ब्यूब का परिहार भी इस अध्याय में पूर्व वर्णित आदिकालीन हिन्दी जैन गद्य की प्राचीन रचनाओं के द्वारा हो जाता है।ये रचनाएं ४ी जबादी से ही मिलने लगीत यो यदि बम्बई के उस शिला लेस की काम्या -त्मक गड्ब को इसका मूल उदभव कहा जाय तो हिन्दी में मइब की परम्परा ०पी शताब्दी से ही मानी जा सकती है। हिन्दी साहित्यमें 10वीं वादी में लिखी इदीम आत (सं० १९३३) गड्य काव्य की रचना उल्लेखनीय है जो बीकानेर की अनूभ स्कृत लाइझेरी मैसुरक्षित है। म हिन्दी की प्रादेशिक बिमाको प्राचीन राजस्थानी मी शुवरावी की हिन्दी जैन रचनाओं में भय काय के कान में महत्वपूर्ण योग दिया हैतानी प्रति से उपलब्ध . 0 का बालशिवा अन्य है। इसका स संस्कृत में है जिसकी रेस में प्रस्थानी मा में टीका की इस रवना पर म शामिल के प्रारम्भिक काल में इसी अन्याय के पूर्व पृष्ठों में विचार किए जा चुका है। राजस्थानी मईय का जिन्य दो सप में उपलबूत होता है: - - नाबाबददाय पोर-देखिए कनिमल बुवारा विरचित रघुनाथ उपक गीदारो। रिपना-चार्य, ५-pe am Page #970 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२३ इन दोनों के दो दो भेद हो गए है: १- पुश बंध २० गदबंध बदनिका के मेद है।- पदबन्ध २. गइन बंध इसको रेखा चित्रदुवारा स्पष्ट क्यिा जा सकता है। - दवावत वर निका मददध पदबंध गइदबंध वनिकाव दवावत के 'शिल्प पर आलोचकों ने पर्याप्त प्रकाव डाला है। दवावन कोई छन्द नहीं है जिसमें मात्रामों वर्षों तथा गमों का विचारो। यह अमानुप्रास समय बात रयानुप्रास म्यानमार और किसी प्रकार माझा या यमक लिया हुमा मय का प्रकार त, माया, फारसी गई और दी भाषा में प्रोककवियों और अपारी बारा प्रयोग में मामा मा मिलता हैवानिक लालीका प्रेम सागर बावि अन्धों में आया मई के बहार बानीवन बावि बा कारसी के अन्यों में देखा जाता है वह बायो प्रकार की होली पर्वच पिक अनुप्रसा मिलाया गावर ली गयब मिले सामहीं मिली है। (a )ीबोयामबर जिसका भाव कारबोवनको चौत बोचन की धाब पोखराकार घोडाबोम के फिराब सिरितारिखबाट . बाबा बने, चोर कोषो के पाट ।। अशा हाधियों का रामाधी पवनाती के टो। Page #971 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ २४ इसी प्रकार राजस्थानी के गढ्य काव्य के रचना प्रकार क्चनिका के वेदों का अध्ययन किया जा सकता है। इनरचनाओं के शिल्प के संस्कृत और राजस्थानी के गढ़य काव्यों का अन्तर स्पष्ट हो जाता है। राजस्थानी के इस गद्य काव्य में तक को बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान प्रदान किया गया है। वचनिका हिन्दी में विवेचनात्मक टीका को कहते हैं जब कि राजस्थानी में यह गया काव्य का स्वस्य काम्त प्रकार की रचना के लिए जाता है।राजस्थानी भाषा में गय काव्यात्मक शैली में किसी aarta और वचनका संकक रचनाएं क्या- (१) जिनलाम सूरि दवावेत (२) नरसिंहदास दास गोडरी दवावैत (३) अचलदास बीवी की वचनिका (४) रतनमहेश दासोत्तरी बनिा आदि थोड़ी ही मिलती है। राजस्थानी अत देह के दिग्गज विध्याचल के बुजाब, रंगरंग चित्रे मुंडा ठंडके बनाय • मूल की वसूल वीर बंटू के उनके बादलों की जनमन मेरे मेरे मोरो की कीम काल कदयू के लेगर मारी क्रमक की इंस, जवाहर के जेवर दीपमाला की का। १- वचनिका के दो प्रकार है दीव मेद बचन कारा, एक पद बंध दूझी गद गंध, state एक तो बारखा पूरी बारता में मोहरा मद गंध वचन का है एक यो माढ मात्रा दो पद मावारी पद वै। सूपद गंध राजनी। दोन गद दूरी मदद बीस टीकाकार श्री महद्वान कन्द्र सारे मे इसके विशेष विवरण में लिखा है कि दे for की ही वेद मालूम होती है। इतना सा मेद मालूम होता है कि कार विस्तृत होती है और हमें बोडेमा में जुड़ते चले जाते है। कोंके का दिन सभा में बीताजी गाडी राड़ी बन पाई, इम यूँ बीवी ने बीता बाई ।। वनका यह प रेवर विवास बने बर भरपूर दाइ किमी पे उप विनय पंचवटी प्रीय रहता रीठ उठोन मार्ग अवान पान, बाहर भी दिन हरी सीव दूसरे को ठीक कहा गया है:- रघुनाथ रूपक मंकुस तथा चना-वार्च १९५१ में श्री नाष्टा जी का लेव । इस टीवी बानी, सुरनरमाया ने लोहानी जिनकी परसाई, बीरा अमरारी कीधी नवरी निका:सम्पादक डा० एल०पी० टेस्पीटोरी: प्रकाशकरात रविवाटिक सोसाइटी मेवायन प्रथालय में रचना की प्रकाडित Page #972 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२५ काव्य को कहीं कहीं वाती या वार्तिक नाम से अभिहित भी किया गया है। कई रचनाएं देवी देवताओं के गुण वर्णन मध स्लोका नाम से भी मिलती है। are के रूप में fवर वंशोत्परिक काव्य प्रकाशित है। केवर प्रकाश ग्रन्थ में को यी कहा गया है। ger बस्तु राजधानी के इनगहय काव्यों की परम्परावावैत और वचनका के रूप में २०वीं शताब्दी तक पाई जाती है। जिसमें प्रमुख ग्रन्थ १६ इादी का जैसलमेर से प्राप्त पुस्कलानुप्रास तथा १७वीं शताब्दी की अनूध संस्कृत लाइब्रेरी से प्राप्त कुददीन बाबा हरी बारवा १८वीं शताब्दी की नर सिंहदास गौड की दवावेत तथा सं० १७७२ की जिनहरि दवावे १८वीं शतानी अर्थात् ६०१७८८ का रक्नुवीर माणकृत राजरूपक (प्रकाशित) १९ शहाबुदी के प्रारम्भ में वाचक • fararta विरचित जिनकारि दवावेत तथा २०वीं बाबू का (२० १९२६ का) कविया गोपाल द्वारा विरचित शिखर वंशोत्पत्ति ऐतिहासिक गद्य काव्या जिसका दूसरा नाम यीढ़ी वार्तिक है इस प्रकार राजस्थानी की गदय काव्य परम्परा अवावधि सुरक्षित है। हिन्दी में भी २०वीं बताब्दी में रामकृष्ण दाद की erant न काव्य की उत्कृष्ट रचना कही वा सकती है ठी इसीलिए उक् विवेचन में मय काव्य की इन राजस्थानी शैलियों का परिचय दिया गया है। दिन में गब काव्य की सर्वप्रथम प्रस्तुत करना गहब काव्य के किल्प पाया, होता है। में ही भाविका का हिन्दी जैन मन काव्य लिया गया है। बादि काल के हिन्दी जैन कुष्ट रक्ना का यही अध्ययन वर्णनादि भी इष्टियों T 1 पृथ्वी भरत :: पारा में बम काव्य के स्वरूप को पुष्ट करने वाली रचनाओं में प्रथ्वीचन्द टना है। जब रचना का दूसरा नाम लेखक ने वाविलास भी दिया है Page #973 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ मवि रचनाकार का कौशल, काव्य प्रतिमा व्या वर्षन चमत्कार को देखा जाय तो पृथ्वीकन्द परित लेखक का विदध वागी विलास ही लगता है कमि ने पूरी रचना में एक सुन्दर प्रेम कथा का वर्णन किया है।इस कृति का वृत्त प्रेमाख्यान मूलक है। कवि ने प्रणय कथा को माध्यम बनाकर अपनी बहमनी प्रतिभा का मुन्दर परिचय दिया है। क्यानक के सम वीराज और रत्नर्मजरी है। पृथ्वीचन्द्र चरित आख्यान के लेखक भाचार्य श्री माणिक्यान्दर र है।.५वीं शताब्दी के प्रसिध महाकवि देवर भरि के येमाई माणिक्य अन्दर चिलम के थे तथा इनके गुरु का नाम संभवतः मेहं था। मानिकी मन्दर मे मूल में कवि हृदय पाया था। मुरिजी का जीवनवृत्त अभी तक प्रसाद ही रहा है। कृति में कहीं भी माषिक्य सुन्दर मरि ने अपने लिए कुछ नहीं कहा है . रचनाकार ने समय, स्थान, और कम का कोई शासब्य उपलब्ध नहीं बावडामक ग्रन्थों में काम होता है कि माणिक्य र पूरि ने गुण वा चरित मलबा घरी क्या संविधाग ब्रत बहुप: क्या पृथ्वीन्द्र परित आदि कई अन्धों की रचना की थी। माटोय रचना वीचन्द्र परिस पर्याप्त बड़ी रचना है जिसमें लेखक का काव्यात्मक वाविलास है। रमा त वाले प्रकाशित की गाझी, प्राधि गुजराती विवान की बीबी.बाल इसका सम्मान किया था प्रय गाथा को कवि ने मिस्सा पटवावों का कर लिया है। क्याम विस्तार न होकर रखना में वर्ष का विस्तार ही अधिक है। प्रत्येक वर्ष में परिवाना की कि निसरी । रबनायासार: तीच माराम पापपुर नरेश अयोध्या के राया बोमदेव और उनकी कन्या रानी रत्वानेवारी भनुपम सौम्बनी थी। एक बार देवद्वानों प्रागनमा और स्वप्न में बह रत्नमंजरी को देखना पीचन्द्र से प्राप्त करने की बाला विबा हो मार रत्नमंजरी का स्वयंवर आयोजित साक्षवीचन्द्र को इसकी Page #974 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२७ सूचना मिलते ही पक विशाल सेना साथ में लेकर रत्नमंजरी को वरप करने की कामना से वहा पहुंचता है। उसका प्रेम रत्नमंजरी को भी पिघला देता है। पृथ्वीन्द्र की कीति, रक्ति से परिचय होकर वह मी उसे प्राप्त करना चाहती है परन्तु बीच में अनेक व्यवधान उठ खड़े होते है। बेताल अपनी मावा कैला देवा है और रत्नमंजरी को गाकर गाता है। पर बीचन्द्र के प्रति उसका प्रेम इन होता है।शर पृथ्वीचन्द्र पी देवी की आराधना करता है और देवी प्रसन्न होकर उसे रत्नमंजरी को प्राप्त कराने में पूरी सहायता करती है में दोनों को एक दूसरे की प्राप्ति होकर पाणिग्रहण का आनन्द प्राप्त होता है। क्या इसनी ही है परन्तु कवि ने इस छोटी सी प्रणब गाथा को विविध वनों से संबोवा है। वर्णन के इस स्थूल म में उलक कर लेखक ने कहीं कहीं रचना काई नौरव शिथिल या कर दिया है।कही कहीं नाम परिमनन में शकर कृति की क्या वस्तु गुस्ताने घी लगती है और क्या का सारा डावा की लड़ाने लगया है। कहींकहीं लेखक के वर्णन बड़े ही माधुक्तापूर्ण और परम बन पड़े है। पूरी रपमा को कवि ने पंच उन्लाओं में विभक्त किया है और प्रत्येक ग्लास विविध मांगों द्वारा बारा गया है। अब वन अनुप्रामा । रचना का शुभ समान होने, मायालक होने का किया मादायक होने में है।सी की मारमा पर मरमन का जन्मेष करती है। वर्षों की मालवा सकी काव्यात्मक्खा में पूर्व सा प्राप्त की है। उपमानों और उत्प्रेक्षाओं की ऐसी बर माला या गिलमा म वि था के माध्यम से वर्णन परमार दिखाया। लामा भारती के बाशिकलास की माना इवारा किया मालामार : कविधा मन: उसके मबार पर कवि मामकारबानिल्चम पारी-प्राभाकाoy.९॥ Page #975 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ की विजय स्पष्ट दिखाई पड़ता है। वर्मन का सामर्थी देखिए: पुण्य की महत्ता का कितना उत्कृष्ट चित्र बींचा है: पुण्य लगइ पृथ्वी पीठि प्रसिद्ध पुण्यलम बन वाहित सिद्धि, पुण्य लगइ निर्मल बुदिच पुण्यलगह पर रिविदिय, पुण्य लगइ शरीरनीरोग पुण्य लगइ अगुरभाग पुण्यलग स्टंग परिवार तथा संयोग, पुथुम लगइ पठाणीय तरंग पुण्यलाइ मय नवारंग, पुण्यलाइ चरिगज घटा, चालता दीवs चंदन छटा. पुण्य लमs निरुपम रूप, अलक्ष्य स्वरूप पुण्य लाइ बसिया प्रधान बाबास, रंगमणीलास, पूजई मन चीरंबी आस, पुण्यलगह मानंददायिनी मूर्ति त स्फूर्ति पुण्य लगइ मला आहार, बद्धुत श्रृंगार पुण्य लगइ सर्वत्र बहुमान, घर्ष Teej aatas rates के ज्ञानी रचनाकार ने अनेक वर्मनों द्वारा अपने बहुमुखी होने का परिचय दिया है। राज्य, राजा, कडनीति, सवीप, भोजन, लगून, वर्षा, वसंत, विवि सात क्षेत्र युद्ध स्वयंवर, बत्तीस हजार देव, नगर सभा, प्रजा, नायिका, नायक, स्वप्न. संयोग वय, रितु प्रकृति संग्राम, आनन्द, हाथी घोड़ा, उत्सव तथा श्रृंगार आदि के विविध काव्यात्मक और परिमवनात्मक अनुप्रासीत वर्णन पृथ्वीचन्द्र चरित की बहुत बड़ी विशेषता है।खना के वर्नन शिल्प में aft मैथिली के वर्नरत्नाकर के पद साम्य रखी ही नीचे इष्टि से कुछ वर्ष दिर बाये है उनके आधार पर प्रस्तुत मध्य काव्य के काव्य सरगामी और पतित्व का सम्बन्धमान बनाया जा सकेगा। देव का वर्ष देखि बियाणीव विहीन मामी रवि जागर ढोकला बने विर देवि ग्राम मयंक मनिराम पकी नगर, स्वर्ग, धान्य, न भीमाइ सामान्य नदी बहई, लोक कई निर्वहई निवेश, प्रदेश तीन देखि पठानपुर पाटन ब Page #976 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२९ राजा एवं राजसमा वर्णन राजसभा किसी हाजीणि राजसी कुंक्म जति ष्टा दीधी कह विविध searली चतुष्क पूरिया एई, कर्पूर राना समातिया छई कृष्णा गरज बाधित परिमल महमडई कई मोठी उणी सिरि लबलहई बई फूल पर परिया छ, कठि प्रमाण पाय पीठ संयुक्त पुरुष प्रमाण सुवर्णमय सिंहासन राजा बइठा ठि राजा दीव छ, मस्तक श्रवेतातपत्र छई, पासई ant बागर पवित्र वाजई विक्रि वादित्र, मस्वगि युगट. कानि कुण्डल द हाराहार, महाउदार धनदा अवतार, रुपतनु भन्डार, चम इन्द्र जिस सोलकला सम्पूर्ण चन्द्र किस कडीया । जिस पृथ्वी ठोकत reates or vedioन्द्र नरेन्द्र । वमकी धारावाहिता शब्दों का प्रवाद तथा अभिव्यक्ति की चित्रातृमकता स्पष्ट परिलक्षित होती है। इसी की तुलना में नाम परिगमन शैली में लिखा तत्कालीन वर्ग रत्नाकर ग्रन्थ का दे वर्णन देखा जा सकता है: फै कस्तु देवानागल, तोंगल, सापसिलि वाति तिवर रिया तुलुक स्टा tato चांगल पावल धानुक घोवार धुनिक्षा परिकार होंय डोवटा वाणि पगार हाडि ढादि वह चहार बार गोष्ठि गन्ति गोर--} वस्तुतः इन ग्रथों की वेली या वर्णन परम्परागों में पवीत साम्य परिचित होता है। प्रकृति वर्मन में भी दोनों ही रचनाकरों ने नाम परिवना बैठी का अधिक आश्रय लिया है।कवि ने वर्ष काल का प्रारम्भ ही राजकुमारी रत्नमंजरी के जीवन की दि किया: हिम है कुमारि बडी मौनि मरि, पहिरी परिकार क्रीड़ा कर नव नवी परिवार मावि आबाद farafts aftera, काल, नाम जीविका मधुर ध्वनि मे गाजर दुधिवि पति भवता यक्का वाज व दिवि बीजी परमी पुल विपरीत आकाश, न्द्र पूर्व परिवार सुमीवकुमार चटर्जी द्वारा सम्पादिक-पृ० १ प्रथम कल्लोल | Page #977 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० राति अंधारी लवई तिमिरी, उत्तरन उनयण, हाया गयण, दिति चोर, नाई मोर पर बरस काराधर, पामीरणा प्रवाह बलहलह वाहि ऊपरि वेला वल-- पर्वत का नीकरम विछूटई, मरिया सरोवर फूटइ । १ वर्षे रत्नाकर का वर्ष वर्णन देखिए: मेकम, area मेचकता, विद्युल्लताक तरंग, कदम्ब सौरभ विश्वरक संचार, दर्दरक कोलाहल, धाराक संपात, आदित्य तु छता, पृथ्वी सौहित्य, कर्तृचमक संभार, भौबधीक उपाय, नदीक समृधि विरहीक उत्कण्ठा, auto erraftar, vfeos, इःसंचार काम्य वीथ वैदैविक विलम्ब, कन्दम्पर्क प्रेमाधिक, युवती सौहृद एवम् सर्व्वगुण सम्पूर्ण वर्ष दे। 3 वर्णन के इस क्रम में कथा का प्रवाह भी आगे बढ़ता रहता है। कथा की धारावाहिकता देखिए: विसि रत्नमंजरी कुँअरि राजा रहई वीनती करावी विदा कुक्षिग जोडवा मावी हि सम परिवार सभी अनेक प्रकारि कस्तूरिका रिका, लीलावती पद्मावती चंद्रावती-- अनेक सभी यतईवी सहति विहा बावी पिवारet प्रणाम मीपजावी उत्संग बइठी दिव्य रूप देवी Tears मनि चिंता मठी । यह योग्य कवण वर, विनर, किं विद्याचर इसी बीच गरेश्वर बरोबर मी दृष्टि दोषी इसी वाली साथी हुई बहुमान देकर राजा स्वयंवर भी टिक परिपातिक नाम कालिय दिवस राजा के नवीन पनि बैरा पनि राजा चन्द्र विक माकिन इसी माता कही बाइक म वीडिष्ट देवता सानिध्य कर, सर्व विश्न हर -आयुक०पू० 100 वडा २ वर्षरत्नाकर: सुमी विकुमार चटर्जी संपादित १९ ३- प्रा०का०० पृ० १०१ ४- वही, पृ० १०३ वीकार Page #978 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३१ जिवारs पृथ्वीचंद्र राजा तमइ कंठि वरमाला पडी, तेतलइ धूम केतु राजा हुई रीस चडी, रोसें हुड विकराल, धूमकेतु देवता नउ मेत्र स्मरनइ उछा लिई करवाल । १ पांचों उल्लासों के वर्णन उल्लास प्रधान है। प्रकृति का परिगणनात्मक स्वरुप वर्णन :. जेह अटवी माहि माल वाल ईवाल, मालूर खर्जूर, अर्जुन चंदन चंपक बकुल । fafeion सहकार कीचनार जांबू जंबीर वानीर कमवीर कीर केलि कंदम निंब नारिंग मातीवर ग्राम डाडिमी देवदास कुल किलि नाम कुन्नागवल्ली यूथिका मालती माधवी जपा मरुवक दमनक पारदि केतकी मुचकुंद कुंद मंदार मह सेवमी राजगिरि) प्रकृति वर्णन के इस स्थूल स्वरूप में रचनाकार का काव्यात्मक वसन्त वर्णन दृष्टव्य है जहां उसे पूरी प्रकृति हंसती बिलती दिखाई पड़ती है। में प्रकृति का सारा वातावरण ही राम की इन्द्र धनुही कल्पनाओं में इम जाता है रक्षाकार के काव्य कील का निवार देखिए: तिमि कि वसंत, दूर बीतवणड अंत, दक्षिण दिवि त्रीव वाढ वाई विहस वनराई ।-- महरिया सहकार, बंधक उदार, वेल बकुल अमर कुल संकुल, क्लक कीकिक बना।प्रवर प्रियेषु पाल, निर्मल वह विकसित म राता पहात मंत्रीवास, कुंद महमाई, नाम नाम श्रेषिदिति वासी कुसुम रेमि, लोकखने हावि वीमावर मावळ मारं सार मुक्ताफळ बणादार, सवग सुन्दर नगरम पोन पुरंदर परिगीय गवाई दान दिवार विचित्र वाकिक वाजड, रगति मा रंग arat पकि वाद टापत्य इंटई, डीडोई डॉवई, कीलवा ३ बादि जति सीई, कि जो भई जीवत होगा। रचनाकार नेवर्नन में काकारिता की गावा ही विरोधी है। अत्यानुप्रास) arr कीवार का विविध उदाहरणों में रचना की सुन्दरता में पर्याप् योग दिया है। एक होगा १- प्रा ११ का १- वही पृ० १०४ ३- वही० प्र०१०१। Page #979 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ · रंगमते जे के जंवत इस्वी संभल बनते वर्णवी जे वंत, नदी ते जे नीरवंत, कटक ते जे वीरवंत, सरोवर ते जे कमलवंत, मेघ से सावंत, महात्मा ते जे बभावंत, प्रसाद जवंत वाटते जे सूथवंत, डाटते जे वस्तुत, घाट ते जे सुवत, भाटते जे वचनवंत मठ से जे मुनिर्वत, गढ़ते जे अभंग वंत देव ते जे अरागवंत, गुरु से जे क्रियावंत वचन हे जे सत्यवंत, विषय ते जे विनययंत मनुष्य से जे धर्मवंत, जातिवंत, प्रधान बुधवंत करते जयवंत, रायते जे न्यायवंद, व्यवहारीय ते जे भयावंत, धर्माते जे व्यावंत । इस प्रवाह वचनिका बैली का as निर्वाह उत्तर उद्धरण में परिलक्षित होता है। पृथ्वीचन्द्र दरित की पैली समास बहुला है। ऐसा प्रतीत होता है मानो रचनाकार के हृदय में अब्यस ठूस कर भरे हों । शब्दों के निर्कर को बस वर्णन प्रवाह के लिए अवसर मात्र चाहिए। समास प्रधान अभिव्यक्ति का एक उदाहरण देखिए:बीर किस ते वृषभ, निर्गुत धारा घरचवल, विकसित का समुज्जवल, विशाल कुमुद, बन्दकिरण राणी परिविशद सूक्ष्म सुकुमाल रोमराज विराजमान, स्निग्ध कांति देदीप्यमान, अमंगश्यामलांग सुन्दर समस्त अंगोपांग विद्युदुवत- पंक्ति शोभित, प्रमुख प्रदेश, वावरण संनिवेश ।-कम सिंह पार, मनावर क्वोत्कफ कुमाव ब्रा, बाइलामि भारत बिया बिमिक प्रथाविस्टीन वटा रक्तोष्ठ, डीप वाला विवि शरीरमेय, प्रवर पीवर प्रकोष्ट, कमल . कार वयन, पराक्रम पत्रि प्रत्येक गर्भ में भी कवि की उपदेशात अनुभव ज्ञान तथा विवेक की हाथ लगी हुई है।मंजरी का मंडप में विमान होना कवि की अनुभूति में निविश उदाहरणों का नवमेव करता है। वर्णन की प्रासादिकता उल्लेली है: रत्नमेव पावा मिली दीदिवालामा जिम लवण ही न रमवती, म्यानहीन हरस्वती बरडित वन, जडित भोजन, सीड रहित पक्वान गावरान, रवि कवि, उरहित पवि, विवेद रहित गए वेद रहित १- प्राचीन काव्य० १०९ १० वहीं, पू० ११९४ Page #980 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३३ म स्वर्ग रहित परावनलंका रहित रावन वास्त्ररहित पायक, न्यायरडत नायक, फलरहित वृg तयोरहित मिव वेग रहित रंगम, प्रेमरवि संगम-वस्त्र रहित श्रृंगार, सुवर्ण रहित अलंकार -- चरण रहित बाल, राज्य रहिव भूपाल, स्तंभ रहित प्रासाद, दान रहित मान, पुष्ठि रक्षित कृपाण । जिम पानी रहित सरोवर, विम रत्नमंजरी पाव है न शोम लोक सम यतिकार, सभा, हुई निष्प्रभा । १ इस तरह रचनाकार ने शस्त्र वस्त्र, राजनीत, बुध, श्रृंगार, वीर, सौन्दर्य, रत्न स्वन आदि के विविध वर्णन किए है। वर्णनों की अधिकता तथा अनावश्यक विस्तार से कहीं कहींपाठक का मन उचटने तथा उबने लगता है पर की सूरिजी ने परपरागत शैली का पूरा निर्वाह किया है। कवि का बहुविहोना उसकी प्रतर प्रतिमा का परिचायक है।नाकार के जालान का एक उदाहरण देखिए: जिम कलिकाल प्रवृत्तमानि कारावी ज्ञाति गोलीयई । किसी से ज्ञाति श्री श्रीमाली उसवाल, बाचेरवाल, डी, पुष्पलाल, डीबाबा मेल भाष सुराना, छत्रवाल, दोहिल, सोनी, बडवट, हडेलवाल, पोरुआर, गूजर, मोढ, नागर, जालहटा, डाइवा, कपोल, जांबू वाउडा, बाब, दखरा, करडीया, नामब्रडा, मेवाडा पटेहरा, धरा, नरसिंह, उरा झारल, पंचपर्यय, सिट, कोड, रोकी, अमरवाड़, जिवामी, नीम पाठवा उक्त नगटू, किया श्रीमय बनी कि टाकी लेटा, किरा-पदमावती भाषा में हराना र पाका पत्ती वाढ हरतारा काय सम्बद्धा विरामात गावेना वाला बाकेपनि मामी क megesafe अन्य अनेक वर्मन के साथ करता है मम काव्य की इसी वचनिका रैली पर लिखी गई इसी बात की एक रचना अब बाबीची री वचनिका मीना के लिए इस बमकालीन रचना के एक दो काव्य के उद्धरण नीचे दिए का रहे है: मेरा, जाति १- प्राचीन वैर काव्य संग्रह ० ११६ २- वही ० १२५३- देखिए प्रस्तुत ग्रन्थ क्या कायर हौकिक ममव । Page #981 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ पनि पनि पलि पर लि हरती की गज घटा, ती ऊपरि सत सात वह धनक घर साठा उसात सात ओलिपाइक की बइठी, सात ओलिपाक की उठी। बेटा उडन द परफरी डबकी ठाई ठाई ठररी इसी एक स्थाष्ट इडि का दिति यही दिन वातिक निनादि घर आकासि बढ़डड़ी। इसा एक से यातसाह रा कटक बंध अचले सवर ऊपर टूटा, वाटका वड ईवन छूटा, वह का वामी टूटा परत सिरि पैथ लागा, इटे पट मामा सूर सुकै नहीं देइ जागा । इस प्रकार अलदास बीवीरी ववनिका में सर्वत्र क का निर्वाह नहीं मिलता प यवनिका बैली की राजस्थानी भाषा में जैनेत्तर यही सबसे प्राचीन रचना है। इस प्रकार इन वनाओं के तुलनात्मक अध्ययन से स्पष्ट होता है कि इनके वस्तु वर्णन, विल्ब, थाली में पाया है।वरना में मैथिली व ख़ुदा है। कता कर्म और क्रिया भी मैथिली के है ठीक इसी प्रकार पृथ्वीचन्द्र चरित के कती, क्रिया कर्म आदि प्राचीन राजस्थानी के है। वर्णन पद्धतियों तीनों रचनाओं की समान है। १. समाप्त किया है। रचनाकार में बीच बीच में चन्द संस्कृत के है मदः कवि का कान्स है।कवि ने विविध पृथ्वी बन्द्र चरित को लेक ने वर्णन की इन्हीं पद्धतियों में ५ उत्लावों में लोक भी दिए है। इसकृति में अनेक स्पष्ट होता है।पूरी रखना बायो वायों के सपनों छोटे से या कलापूर्ण है। कवि की बहुलता देती है परन्तु फिर भी रक्षा मान् को कायात्मक प्रवाह में बाल क्या को वर्ष विति म की परम्परा का सम्यक विकास करती है में लेने पृथ्विका में और दोस्तोक भी दे कि है साकार का मान्य व काव्य प्रयोजनष्ट किया है थीमाथि हरिया वर्ष इदि मद्र परित पवित्र पुरुषाने निर्मित या दिवाकरी या विभन्दा प्राचीन काव्य संग्रह ० १३०१ Page #982 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९३५ कहना न होगा अभ्युदयकाल की गद्य काव्यात्मक लाभों में पृथ्वीचन्द्र चरित अथवा वाला अपूतपूर्व योग देती है। धोकाधिकार' मद्य काव्य की परम्परा में १५वीं इसाब्दी में पृथ्वीचन्द चरित के पश्चात एक महत्वपूर्ण रचना शोकाधिकार मिली है। यह रचना भी पृथ्वीद्र चरित की भांति प्रासबबध पैली में रची गई है। रचना की प्रति पुनि जिनविजय जी को उपलब्ध हुई। प्रति में रचना संवत् नहीं उपलब्ध होता प्रति की लिखावट, पड़ी मात्राएं अके मयले उ का प्रयोग आदि तथ्यों से मान किया जा सकता है कि यह १५ शताब्दी के उत्तराय के अन्तिम दशक में लिखी गई होगी।लाकार का नाम भी अशात 1 रचना क्या प्रधान है। वस्तु मयावधि उपलब्ध रचनाओं में एकदम मौलिक वथा सुन्दर है। रचना प्रकाशित रूप में प्राप्त है। इक ही जैन श्वेताम्बर कान्फ्रेंस के प्रमुख पत्र जैन शुग में डा० ह०चु० भायाणी ने इसे प्रकाशित किया है।रचना की क्या वस्तु के आधार पर इसका नामकरण भी डा० भायानी में शोकाधिकार किया है जो पर्याप्त संगत है।" होकाधिकार का क्या प्रसंग बहुत ही करून तथा संत है में क्या सार इस प्रकार है: महावीर ने गर्म में माला को मार है परेशान देकर महीने अपना बार हल्का कर लिया और कर्म में भंग स्कूरम और स्कुरण गाता को कष्टप्रद होगा वही जानकर वे विकु सूक्ष्म बन गए। मां ने कंद करदी अंग वाकी ने मेरा गर्म नष्ट कर दिया है। वह जान कर अन्य चौकविला हो गई। सारे काकाद में डोक की कर व्यान हो गई वारी स्थिति बिक्न हो गई महावीर के को पहुंचाने वाले इस कार्य नेमी को अत्यधिक कष्ट दे दयावीर में से अपनी उंगली कड़काई। स्पन्दन से मां का शोक दूर होकर नाच हो गया। विष में रचनाकी यही कथा है। कल्पसूत्र, सुबोध टीम दथों में यह वर्णन विस्तार से मिलता है। ३, १९५८०९-१ Page #983 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ रचना का प्रारम्भ ही लेखक ने मां निकला के कावपूर्ण उद्गारों से किया है |शोकाधिकार की भाषा प्राचीन राजस्थानी या बूनी गुजराती है। वर्मन प्रात बैली में है जिसका दूसरा नाम वयनिका है।काव्य गम काव्य की दृष्टि से starfare का बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान है। रचना आइयोपान्त कान्त है तथा कुल ५१ राय काव्यात्मक कड़ियों में समाप्त होती है।कृति में करुण रस की धारा लेखक ने प्रारम्भ में ही बहाई है: अहो था किस प्रकालि उत्पात, सिह किसिंड वज्रपात अहो सीमाहरs गर्मि पनि बिल, इसि किसि विडा जिविश्वप्रलय गर्म के हल्के हो जाने से मां का विलाप कास्य दन में परिवर्तित हो जाता है। मां को उसके वस्त्र आभूषण तथा द्वारा अंगार ही काटने को दौड़ता है वह आभूषण वस्त्र और श्रृंगार सबको कोसने लगती है। वर्णन की अनुप्रावधता, प्रवाद आलंकारिकता तथा काव्यात्मकता ट्रष्टवह है: fta Frees reaकि ये माछई मउड पउ प्रत्यक्ष पाउड ए डार, साक्षात संहार गावकरी वर्ग जे वलय ते इस तना दीसई निलयास अपूर्व पट्ट डुकूल 3 देता था। भइ सर्वागी श्रृंगार से देता संपूर्ण अंगार fafer उदाहरण द्वारा काँव मे भी मिला के मम पवाडा को ट किया है गय की काव्यात्पया उसे और अधिक महितीत मीर बन बना देती है: पाह कारण देविई पालिड एक संतालु। यह fafe की क्य सरोवर पाठी, arti ft वाली माली नि टाठी किवि प्रवाही जीव कोडि माल वी इ बाली विलि, मगाई चंद सोकिई बार गहि निवा बिहार पानीमहल डीबजार । किसिद्धं पई कमायूँ बादिलाई देवि में इन बा - yrs als, 194CHT 9-2 २- वहीं, प्र०१० कड़ी ४-८ १६-१९॥ Page #984 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३७ जे ईसा बहुला, से थया क्या गीत गान करता गंधर्म, तेह तपा गया गर्व --- जे हूवा पंडित ते थिया दूस मंडित ने राम रहई अवस्य कृत्य, ते न दीस कर्तकी नृत्य | बेता चावरिया, ते थया वाढरिया । जे लोकाई करावs जुहार, सेवानिचला प्रतिहार जैसे निरंतर जीम वावरी, ते मौन की रहिया टावनी जे करता नगर भी करमवार ते बहती रहिया कार में लेखक ने की गर्म स्कुरण का पुनः ज्ञान होने पर दो पक्तियों में वर्णन कर रचना area की है: वाजिवाल (IT) मालिक तभी मृदंग राजभवन माह संपूर्ण आनन्द इस प्रकार व शादी में महब काव्य जन्म उक्त रचनाएँ उपल भाषा की दृष्टि से पर्याप्त महत्वपूर्ण है और गद्य में नये सोपान प्रस्तुत करती म्यूजियम है ।१०वीं शताब्दी के बम्बई के प्रिंस आफ वेल्स के शिलालेख के हृदय की भाषा मी पर्याप्त गद्य काव्यात्मक है। अतः गदय काव्य काउद्गम १०वीं पद्माब्दी से ही माना जाता है शादी के पश्चात् तो इस धारा में अनेक प्रौढ़ राजस्थानी भाषा में कृतियां उपलब्ध होने पती है। मतः ऊपर हमने बाकी artfeerein age eveावों की काव्य चुकवनिका की में प्रादेशिक भागों में रत्नाकर की भी हो काव्य की उद्भावक एवं प्रेरक प्रवृत्तियों पर प्रकाश डाला है अद्यावधि ग चीन माने ही उपलब्ध होती है। विविध होने पर बहुत संभव है कि वर्ष अन्य की प्रेरक और अनूठी रचनाएं उपलब्ध हों। खान के भंडार हर बंद पड़े है।अतः शोध की वर्तमान स्व- वडी, पक्ति ११-२७ ३- वही पंक्ति ३२-३४ । ४- देखिए प्रस्तुत ग्रंथ अध्याय ५ का जैनेवर (लौकिक) ३- नही मय पाग । Page #985 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ स्थिति में प्राप्त उक्त महब काव्य तक रचमानों का ही विषय प्रस्तुत किया गया है। 10 विध विषयक मय पाहिल्या मादिकाल के हिन्दी जैन साहित्य में गव काव्य मूलक रचनागों अतिरिक्त इतर विषय की रचनाएं भी उपलब्ध होती है। यषि इन रचनाओं की भाषा इसनी अधिक सक्षत और प्रवाहपूर्ण नहीं है फिर भीतुलनात्मक दृष्टि देवियन करने पर मड्य साहित्य का बकालीन वैविध्य स्पष्ट हो जाता है।विषय की इष्टिम रनामों में पर्याप्त वैभिन्य है कोई बात बैली में है, तो कोई वनिका जैली में। का चारण की तो कुछ जैन शैली की चिली में जिस प्रकार अन्तरपरिलक्षित होता है ठीक वैसे ही इसके व विवाद भी ः रचनाएं गणित की मिलती है तो कुर ग्यो विकास है, कुछ शास्त्र की है तो कुहार मीडिया रानी की।इस प्रकार विविध वस्तु विषयक अनेक रमा उपाय होगा भागोर, मेरठ, बडीत,सहारमपुर, दिल्ली, मकरन्गर,आदि स्थानों के जैम भंडारों की सम्यक् रोध होने पर भाश की जाती है कि इनसे नेवर विषयों पर लिपी बत्कालीन नेक गड्य रचना उपलब्ध हों। वातावली सी कई इस काल में मिलने वाली पति की रमानों की पाक मही परिव सा पानामसलिम पुरान बाट म नाम (मियरमेन्ट) कधी मन मी नियों की वर्षक पति शानिया मिनी माना हो कमि है, परन इस मन को शाnिse का का विषय एक मिita ta a r" N EET मा भिटी है, उनमें प्रमुख निम्नास्ति •nte wोध काव्यगीगावरावाहिति प्रति विभाग) रबी मंडार। Page #986 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२९ विसार की मूलरचना संस्कृत में हुई। रचनाकार राजकीर्ति मिश्र है जिन्होंने ०१४४९ में जाडिलपुर (पाटण) में इसकी रचना की। फिर राजस्थानी में इस पर टीका की गई। टीकाकार श्री श्रीधर है। प्रस्तुत रचना का विषय गणित के कुछ सिद्धान्तों के आधारपर कुछ सिक्कों का परिचय दिया गया है। साथ गूर्जर प्रदेश के बोलों और नामों के उपकरणों तथा उपादानों का भी महत्वपूर्ण विश्लेषण है उदाहरण वैविष: किया ज परमेश्वर का विक्फ मंगल पार्वती हृदय रमनु विश्वनाथु । far विश्वनीय जाकि उसु नमस्कार करी | बालबोधनार्थ are मनीति अज्ञान वीर भवबोध जाणिका अर्थ, अलीय बक्ष वृद्ध श्रीधराचा गणि प्रक्टीवृद्ध इसी प्रकार एक उदाहरण गणित च विविका मालवबोध का देखा जा सकता वह रचना सं० १४७५ की है। मूल प्रति बीकानेर वनाकार ने इसके संस्कृत रूप की टीका प्रस्तुत की है साथ ही साथ बीच बीच में संस्कृत के श्लोक भी दे दिए है। इसमें दिनमास वर्षों, पर्वों आदि को जानने के आ art उनको निकालने के लिए विविध प्रकार की गणितविज्ञान की पद्धतियोंका after far गा : मकर संक्राति थकी पस्न वा दिन पत्र की विमा कवई। मण्ड पमरस- इमीवर माँहि पाटील बाठ भीम बीजद दिन मान खभइ । मारक इष्टि से देखने पर इन रचनावों की माया मैं भी retofee होता हैविविध विषयों के दानेवाली झरनाम मैं एक प्रसिध रचना बैनी लायबोध मिली है। महरचना अनेक नामों और पदार्थों का कोष में विविध नामों द्रयों और पद्मार्थी का बृहत् परिचम . १०. यथा बीकानेर (स्वलिति विभाग) Page #987 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिया गया है। बेली बाहावबोध की एक उदाहरण देखिए-: आतुर कुमार माहीं विन्द्र केसा एक बबरेन्द्र बीबू बलेन्द्र नाम कुमार मारी विद्रा परत बीच पूतानंद मुवर्षकुमार नाही नि इन्द्र मेहा बेशु देव १ बाती विद्युत भार नाहीं विन्द्रका हरिक १ हरियार बस्नुसः इन विविध विषयको गड्य रमानों के हिन्दी वैन मड्न साहित्य के विकास कम के सोपान निधारित किए जा सकते है इन रचनामों में पहल की ही माति वैविध्य मिलबार प्रकार उक्त विवेचन में आधिकालीन हिन्दी जैन साहित्य की उपलब्ध महब रचनामों के विकास काल की लगभग सभी धाराओं का आलोचनात्मक परिचय दिया गया बानायक विवेचन करने का भी नाशिक प्रयास किया गया कि न गलत परम्परा का ही इतिहास है। १- अमनचालय बीकानेर समिति विना - Page #988 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय भाग Page #989 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कच्छ माविकालीन हिन्दी बैन शामित्य की क्या - परम्परा (Cyces ) और क्या-करियां (मोटिन)। - Page #990 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४२ आदिकालीन हिन्दी जैन साहित्य की क्या परंपराएं और कथा कड़ियां आदिकाल के हिन्दी जैन साहित्य की इन नवीन उपलचियों का मूल्यांकन करने पर यह सरलता से ज्ञात हो जाता है कि वे कृतियाँ अनेक प्रकार से रची जाती रही है और इनके मूल में कई तत्वों का योग है। रचनाओं के सृजन के इस क्रम में ध्यान से अनुशीलन करने पर एक निश्चित परंपरा के दर्शन होते है। तत्कालीन स्थितियों में, लेबन पद्धति ने जैन साधुओं के अव्याहत अध्ययन और उपदेशों ने वथा जनता की धर्म प्राण कवि ने मिलकर ही इन रचनाओं के सूजन में परंपरा बनकर योग दिया होगा । माठ विज्ञान में जिस प्रकार एक ही प्रति की विभिन्न विभिन्न वाताएं प्रवासाएं विभिन्न स्थानों तथा केन्द्रों में मिल जाती है ठीक उसी प्रकार जैन रचनाओं के निर्माण में परंपरा को पुष्ट करने वाली अनेक परिवाहियां है। अध्ययन, उपदेश, लेखन, अजैन ग्रन्थों का परिशीलन, लेखन कला जैन श्रमण संस्कृति, भंडारों की व्यवस्था और स्थापना आदि कारणों से जैन कवियों मे लेखन परंपरा को प्राभान्वित किया। इस परंपरा क्रम में इतना जोर पकड़ा कि kwd उपलध कृतियों में इक्का वैविध्य पूर्ण बागवार विवाई पड़ने लगा। यो परंपरा का प्रारम्भ से लेकर मागे तक निरंतर बढ़ने mrat feat jeer faशेष से लिया जाता है परन्तु यही परम्परा बद से प्रतियों पर प्रकार डाला जा रहा है उसका मूल परंपरा खुद से थोड़ा इटकर राम की कथात्मक स्थिति कम इस व्यात्मकता में मी एका सवै विमान रहती है। 200 हिन्दी काव्यों में अनेक तथा कृतियां मिलती है, जिनमें विकास और वन माहै। परन्तु इन रचनाओं में से भी स्यात्व के विकास के लिए ही तिथी गई की और क्या पूर्वी की धारा किसी निश्चित परंपरा जन्मा (CYCLIC ORDER ) की तिबलती रहती है। गतः परंपरा से कृति स का है। का निखर Page #991 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४३ यह तात्पर्य निरंतर कथात्मक क्रम अथवा (CycLIC ) स्थिति से है। · अथवा अन्य कोई, परंपरा का सम्बन्ध कृति की कथात्मकता से सदैव रहता है। बिना किसी निश्चित परंपरा और क्रम के कोई भी रचना कथा का सम्यक विकास नहीं कर सकती। कथा के इस विषय में वर्ष की अनेक सूत्रों का अनेक घटनाओं का तथा अनेक कु का परिवईच करते हैं। अतः कथा तत्व के साथ इन निरन्तर परिवर्तित होने वाली कथा परम्पराओं (CYCLES ) से गहरा संबंध होता है। कथा तत्वों मैं विभिन्न परम्पराओं (CycLEs ) का यह क्रम हमें प्राकृत के कथा काव्यों से प्रारम्भ ठोकर पुरानी हिन्दी की अनेक रचनाओं में उपलब्ध हो जाता है। इस प्रकार ये परंपरा (CycLES ) कथात्मकता से गहरा सकती है। यह भी बहुत सम्भव है कि किसी परिवर्तन विशेष के कारण ही इन परंपरा का fare हो जाता होगा अथवा वर्णन क्रम में वैविध्य प्रस्तुत करने के लिए ही विविध रूपों में इनमें कथा को बोला जाता होगा। अथवा यह घटनाओं में वैविध्य तथा मौलिकता प्रस्तुत करने के कारण बन जाती होगी। भाविकालीन हिन्दी जैन साहित्य की इन रचनाओं का सिंहावलोकन करने पर हमें अनेकों कथाकृतियाँ मिल जाती है। जैन कवियों में अधिकतर वि मी काव्य लिये है उनमें अधिकार या काव्य है। इस काव्यों को या तो किसी drive या महम अथवा वका का क्या किसी धीरोदया नायक की कवियों ने अपना विषय बनाया है। वस्तुतः जिसमे काव्य उपलब्ध हुए है का उनमें कुछ ही काव्य ऐसे कहे जा सकते हैं कि जिनमें मतिमता अथवा मौलिकता हो । यो सामान्यतः अधिकार वनाओं का बस्तु निवय, विवेचन होता है। वन का यह क्रम भी किसी प्राचीन are sire परंपरा को लेकर है पर इस परंपराओं के अधिक योग नहीं मलयानिमिति तथा विविधता से पूर्ण कथात्मक रानी में इन परंपरा (CycLES ) के विशेष पिके दर्शन होते हैं। बन बाती है इसके सम्बन्ध में बहुत वृढ़ता से तो नहीं कहा जासकता वरन्तु चाहे काव्य हो अथवा वरित प्रधान रचना + Page #992 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह कहा जा सकता है कि कृतियों में वैविध्य कवडल, पीलिकता और जीवट का समावेश करने के कारण ही ये परंपराए (cycus ) बन जाती रहती होगी। अथवा यह भी कह सकते है कि वर्षन बेली रचना प्रकार तथा छंद आदि की दृष्टि के भी कविगण जान बार बा को दूसरे बैंगसे रममा चाहते होग। अत: रचना श्रम तथा बर्षन पहतियों में मौलिता प्रस्तुत करने के विकार की इस यात्मक परंपराओं (eyenes ) का बिगुवन करावा । यह भी सम्भव है कि वैविजय के कारण इनकीकात्मकता कचिकर प्रतीत होती हो। मस्तु एक ही विषय पर जब अनेक रचना रखी जाती है, अथवा एकही था को जब विभिन्न विभिन्न रूपों में डाला जाता है वर्षमान, बस्तु संयोजन और क्या शिल्प में विविध परंपराओं (eyenes ) का जन्म हो जाता है। माडिकाल की इन हिन्दी जैन कृत्रियों में अनेक बनाएं सीनिमें क्या एक, माक्क वही है, क्या वस्तु के विभिन्न तत्व भी बही है परन्तु रमकी बर्मन परंपरा (Cycles ) वैविध्य से परिपूर्ण है अतः ऐसी स्थिति या में एक नियमितवा, परिवर्तन विविधता तथा मौलिकता का होमा भाववत की विषय पर या अनेक प्रकार के विभिन्न काव्य माया वा बन्य पारित न्याय मावि विनाओं की बाविया र मीना बना देखी स्थिति में क्या परंपरा (Acts )मवावी सम्टि इन कमियों की बाप (Cycles ) मध्यन करना पिकर या मावस्यक मानियों की मगाम पर अनेक नामों बाही नकार matte यह होता है कि उनमें नागरी मारना का परन्तु इसके भून में जिन आवशाली लोग पानी इन क्षियों की विभिन्न क्या पा (Acus | परंपरा (Yes की विका पर मनमो दिी जाने वाली रचनाओं और उनके निर्माण योग देती है। Page #993 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४५ वर्षन शिप की इस प्रवृत्ति से फलत: अनेक क्यामक परंपराएं बन जाती होगी। इन cycles या क्या परंपराओं के बनने के अनेक कारण हो सकते है उनमें से कुछ निम्नाकित है: प्रत्येक कवि अपने भिन्न भिन्न दृष्टिकोण से किसी वस्तु को देखता है। प्रत्येक व्यक्ति का भिन्न भिन्न अध्ययन और दृष्टिकोष होने से एक ही वस्तु विभिन्न पस्तिकी मिन्न भिन्न प्रकार की प्रतिक्रिया करती है : प्रत्येक काव्य के नायक के जीवन को विभिन्न सम रंग देकर विभिन्न आकृति में गलना प्रत्येक कवि मा लेखक की अपनी विशेषता होती है। रचना में इस दृष्टिकोण को कवि की अपनी मौलिकता कहा जा सकता है।तः प्रत्येक कवि की इस मासिक प्रतिक्रिया में वैविध्य और वैपिन्न होना स्वाभाविक है। अतः प्रत्येक काव्य के मन में कवि के व्यक्तित्व का (Personality an Liltraine ) का पर्याय महत्व है। प्रत्येक व्यक्तित्व घटनाओं की परंपराओं के निर्माण स्था उनमें वैविध्य प्रस्तुत करने के लिए भी उत्तरदायी है। मौलिकता भी घटना परंपराओं के निर्माण में योग देती है कवि अथवा से किसी पूर्व प्रबलित किसी परिनामक, अथवा किसी अन्यथा को लेकर उसमें था भन्न परिवर्तन का विधवा या ge करता है। इस राचिनून अक प्रवीन पटनावों की परंपरा गगन पौकिवा दिवस परंपरा की परंपरावों (cycles , को मिती रम्तीमा बोया का स्वल या था awar gas की विधि क्या श्री पटनायो, परिणों या प्रय गायों लिया बि प्रकार का वर्णन म प्रचा रारियन इस मुविध परंपरा मे EिR (eyelc order) घटनाओं के विकास राना स्थान बनाता समीर इस प्रकार अनेक Trurwanा परंपरायो बान परंपरायों की कड़िया लगती है। Page #994 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ वातावरण और जनसमाज भी कथा परंपरा क्रम में सहायक होता है। कभी कभी एक ही व्यक्ति पर बनी कथा परंपरायें अनुन तिबद्धता के कारण अपना रूप बदलती रहती है तथा जितनी उस पर नवीन रचनाएं लिखी जाती है उनमें कि अन्तर के साथ मूल कथा अवश्य उसी प्राचीन परंपराओं (cycles > पर आधारित होती है। कई बार ये कथायें और परंपरा में विभिन्न प्रक्षेपों arr विभिन्न यों में परिवर्तित हुई मिलती है। यद्यपि इन परंपराओं में यह परिवर्तन समसामयिक होता था और मूल कथा उन्हीं कथा सूत्रों पर आधारित होती थी । जो भी हो, इन कथा परंपराओं (cycles ) में निर्माण किस तरह होता रहता है, इनमें परिवर्तन कैसे होते हैं, क्याक्रम किन घटनाओं एवं सूत्रों में उलझा रहता है तथा विभिन्न काल में नवीन नवीन रूपों में वे कथाएं किस प्रकार भाती रहती है, आदि सभी बातों के सम्बन्ध में बहुत निश्चय पूर्वक कुछ नहीं कहा जा सकता। ही संभाब्य स्थिति पर विचार करने के लिए ही क्या परंपराओं (cyels ) के सम्बन्ध में होने वाले संबंधों को स्पष्ट करने के लिए उक्त कारणों पर प्रकाश डाला गया है। उपलध प्रमुख कथाएं और घटनाएं: काल के इस ग्राहित्य में अयावधि उपलबुध जितने काव्य है अथवा क्या कृतियां है वे दो प्रकार की है उनकी १- वरि प्रधान, और - पटना प्रधान में बाट सक 1 eft प्रधान दिल्ली रमाएं हैं उनमें सबसे अधिक रचनाएं जिन महा पर किसी गई है उनमें से प्रधान तथा प्रमुददीन है: १- नेमिनाथ स्वामी १ किम Page #995 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११७ इतनी तीनों महापुरुषों को नायक बनाकर लिये गए काव्यों की परंपरा प्राकृत से ही चली जा रही है। जिन पर अन्यत्र प्रकाश डाला गया है। पत्र में भी थोड़े बहुत परिवर्तन के साथ वे स्वीकार कर ली गई है। पुरानी हिन्दी में आकर इनका अनुशीलन करने पर ऐसा प्रतीत होता है कि इन कृतियों की कुछ परंपरा (eyetes ) बन गई है, जिनपर वे रचनाएं आधारित है और वन की इन विविधताओं ने इस कथा परंपरा क्रम को कहीं भी विधि नहीं होने दिया है। इन उक्त तीन नायकों को लक्ष्य कर जैन कवियों ने श्रृंगार, करण और निर्वेद प्रधान अनेक रास का प्रबन्ध चरित आदि अनेक काव्य रचे हैं। इस कथन का तात्पर्य यह नहीं है कि इनसे इतर विषयों पर जैन कवियों ने उस समय कुछ लिखा ही नहीं और क्या परंपराएं (eyels ) बनी ही नहीं। ऐसे अनेक जैन काव्य मिल जाते हैं जिनके चरितनायक विभिन्न है जैसे प्रद्युम्न गरिव, वाल्मिवराय, जिनदत्त बज्थइ, परतैश्वर बाहुबली रास, पंक पान्डव चरित राख, विड्या विलास पवाड़ी जादि । परन्तु बौसतन नेमिनाथ, जंबू स्वामी और स्थूलिप पर लिखी रचनाएं असंख्य है। नेमिनाथ जंबूस्वामी तथा स्थमिह तीनों का जीवन प्रारम्भ में श्रृंगार का साथी रहा है। गाः इन पर लिये काव्यों की परंपरा नही दीवानी है। घटना प्रधान रंजनाओं में अन्य कई रमाएं बाती है। जिनमें र होता तो है पर जिनके वस्तु संयोजन में घटनाओं का विशेष वमत्कार होता है। farera wee, प्रसन्न परित, सत्यपुजी, चैनवाला राम, सुभद्रासी, बटर, गाय जादि अनेक ऐसे काम है।इन रक्तावों में क्या की परंपरा (eyeles } क्रम संमभग वही है परन्तु फिर भी कवि ने कि विषय परिवर्तन करके इनमें मोड़ा का वर प्रस्तुत कर दिया है। अतः सारी रचना के पारंपरिक व जय (eyeles मैं भी थोड़ा अन्तर वा गया है। इस कावायक है परन्तु इसे सरलता से बना जा सकता है। कृतिय स्थान ही वर्णन वा विविध उपदेश और धार्मिकता " " या विषयों पर भी रखी गई है कई आध्यात्मिक काव्य भी है कई Page #996 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारहमासे भी है। उदाहरणार्थ रेवंतगिरिराम, समरारास, आणंदो, तथा गीतस्तोत्र और स्वबन आदि। इन रचनाओं में भी वर्णन की कई परंपराए (cycles ) है जो इनमें अद्यावधि प्राण फूंकती रहती है। क्या की इन लेखन परंपराओं ( cycles , की स्थितियों को समझाने के लिए हमें उक्त रचनाओं में से कुछ का अनुशीलन करना पड़ेगा। इन परंपराओं की सबो महत्वपूर्ण बात यही है कि क्या कारण है कि एक ही व्यक्ति पर थाम (cyclic order ) में अनेक काव्य लिने गए, जिनके नाम, वस्तुसंयोजन आदि एक दम भिन्न रक्ो गए है, परन्तु जिनका क्या क्रम वही पुरासन है। उदाहरणार्थ नेमिनाथ चतुष्पदिक, नैमिनाथ फाग नेमिनाथ राब, नैमिरास, नैभिवरित,स्थतिमा रास, स्थलिभद्र फाग स्थलिपनवरित बन्द स्वामी काग, स्वामी का रार, चंबूस्वामी अरित था बम्बस्वामी को विवाहलो। एक ही जीवन चरित को नाक बनाकर विभिन्न नामों से उसी क्या का नामकरम कवि ने अलग अलग क्यों किना है, साथ ही जब इन ऋतियों में कथा परम्परा समान है जब कवियों ने इनका नामकरण विभिन्न विभिन्न क्यों रखा। प्रान बाबा की सगा। पर मारा पाने पर र स्पष्ट हो गये है। वरना कवियों ने इस माश्यों को साबल्य रस्सा उसने वर्मन क्रम में परंपरायों का बापम बाकर कोई काम नहीं सका है। वर्षन परंपरानो tereles ) का सर विभिन्न मापावाली कुछ निम्ना किस कवियों की तुलना सम्भव स्वस्ट हो - और का: रास और जु क रममा उपाय होती है। एक ही परित मायक पर कारमा राज मान मिली है या उसी वरित मा पर लिखी रमाए । महानि रचनाओं में क्या सूत्र को बही होता। प mtarन विभिन्न नामों से लिखी जाने वाली सोनाकरिम व्यक्ति या उसका अपना मनोवांछित परिवर्तन Page #997 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी होता है। उदाहरपा नेमिनाथ रास (सं. १९९०) का उपलब्ध होता है। और पइम जिनपइम तथा मनुधर तीनों कवियों के नेमिनाथ पर लिखे हुए भेमिनाथ का मिलते है। यही नहीं, रास और काय के अतिरिक्त उसी परित नायक पर लिखी अन्य कई रचनाएं यथा बम्पदिका, प्रबन्ध चरित, आदि भी मिल जावे है। इन रचनाओं में मूल क्या मैं चरित नाक होता है लेकिन कवि इनके नामकरण में रचना के शिल्प के आधार पर आशिक अन्तर करदेते है। इस आशिक मन्दर को समझना सम्भव नहीं, तो कठिन अवश्यक है। उदाहरणार्थ राम और पाए में जो क्या परंपराए है उनमें इस आवित अन्तर को समझना होगा। राम गेय म्यक होता है जबकि काय मनो विनोद प्रधान उल्लास गान यदि कवि को नेमिनाथ के चरित को गेय सक के रूप में प्रस्तुत करना इबा, तो उस रचना का नामकरण रास कर दिया। यदि उसे नेमिनाथ का गीत उस्लाम प्रधान मान करना माहो मामकरण का कर दिया साथ ही रास में रास सन्द की प्रधानता होती है और भाग में काय छन्द की। एक कवि चरित नायक का चरित प्रस्तुत कर सकता है दूसरा मधुमास का उन्लास प्रधान मादक गीत होता है। पक की कथा में विस्तार होता १ फागु माल काव्य होने से विचार और वर्णनाला मी मिया होते है। उसकी सबा अनेक पटमाइनों मारा कि रबी और गाने पटनागों का विस्तार, ताल बाधिक मारोह अवरोह नहीं रहने । सामान्यतः एक ही पति को लेकर विभिन्न नामों लिखी गई इन रचनाओं की यादी बार होता है। उदाहरणार्थ पंचवाब परित राड (भिरि . ४०) और बाबा ( १५.. मसाज कवि ) रचनामों की घटना पडवों के चरित की अनेक स्थानों को छोडकर भागब पि मे कोमल बनाकर प्रस्तुत किया है। र बाल विस्तारपूर्वमा पर्वदूसरे में विस्त । दोनों में भी विभिन्न है। बाग काम में विस्तृत रचनामों में अधिक लगने के कालीम दिया उस भाव मेब रचनामों का पूजन किया हो। पायी Page #998 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९५० क्यों कि एक ही शलाका पुरुष को अनेक कवि अपने काव्य का विषय बनाते थे। अतः विषय में मौलिकता प्रस्तुत कर जन समाज का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने के लिए ही कवि ने विस्तव घटनाओं का जवन न कर पेटी घटना और विभिन्न नाम को एतदर्थ चुना हो। इस तरह वर्णन के इसी क्रम में अनेक क्या परंपराएं धीरे धीरे बनती गई होगी। गे परंपराएं ( cycles ) केवल कथा के रूप में ही नहीं मिलती, वर्णनाम और कला प भी होती है। वर्षन के इस अव्याहत म (arche order ) कथा के दरबों का दर्शन, रूद, विल्प, तथा सा की रैली में भी मिल जाता है। कई रचनाएं विषय प्रधान परंपराभों। (orales बनाने और परिवर्तित होने में योग देती है। कई खनाएं दो के क्षेत्र में विभिन्न under प्रस्तुत करती है जो कई बों तथा अली क्षेत्र में । क्था के क्षेत्र में घटनागों के कौतूहल मी इन स्थानों की परंपरागों का निर्माण करते है और यही कारण है कि एक ही नायक को आधार मान कर अनेक प्रकार की विविध रचनाएं मिल जाती है, जो क्या परंपराओं, वर्णन परंपराओं तथा अन्य कलात्मक परंपराओं में विभिन्न सोपान स्थापित करती रहती है। निस्संदेह भाविकालीन हिन्दी जैन साहित्य की न परंपराओं (yde . मध्ययन महत्वपूर्ण प्रबन्ध और बारित राज और गायु अतिरिका विभिन्न चरित नायकों पर लिपी ई अनेक समार-प्रबन्ध, पति और बहुम्यायिका ग मा क मिलती है। मेरमार मी या परंपरको कारण ही वैविध्य प्रस्तुत करती दारणा पररवर बाकी सब और परवर पाहुबली प्रबन्ध, मेमिनावरास, मेमिनाथ गति, पिनाय विवाको स्थानिय बढपड, पेरतेश्वर बाइबली भोर और परमपर गाली परित, और स्थमिद फागु- स्वामी रित, मंन्यापी विवाहो. मेमिनाथ ागु और नैमिावर बरित काशु मंथ, अभिमान और मेमिनाथ बारहमासा- आदि अनेक रचमानों को लिया जासकता है। Page #999 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५१ इन रचनाओं के विल्प पर विचार करने पर वह स्पष्टता से कहा जा सकता है कि इनके नाम में जो कवियों ने वैविध्य प्रस्तुत किया है उसके मूल में अवश्य ही कोई दृष्टि विशेष होगी। वास्तव में गम्भीरता से अनुशीलन करने पर यह कहा आ सकता है कि इन रचनाओं के वर्णन के मूल में निश्चित परंपराएं (cycle ) बनी हुई है जिनका उद्भव प्राकृत से ही चला आता है। ही यह देखा गया है कि कहीं कहीं कवि ने वर्णनक्रम परंपराओं में नवीनता प्रस्तुत कर नई दवाओं की सृष्टि की है। यों तो प्रत्येक रचना के मूल में कथा और चरित हो रहता ही है और यदि उसमें सुसंबदध बला मूलक विचारधारा हुई, तो वह एक प्रबंध भी हो जाती है परन्तु एक ही चरित को लेकर जब उस पर विभिन्न रचनाएं लिखी जाती है तब उनमें कई परंपराओं का आधार होता है, कई नई परम्पराओं का सृजन होता है तथा कई अन्य मासिक अन्तर भी होते है उदाहरणार्थ महा उक्त रचनाओं के सामान्य अन्तर का स्पष्टीकरण किया जा सकता है। वर्णन के इन कप में भी एक निश्चित संक्रांति के दर्शन होते हैं। कई स्थानों पर तो वर्णन मैं मी विभिन्न पुराउन दृष्टियों को छोड़कर नई परंपराओंों को अपनाया गया है यह भी सम्भव है कि एक ही चरित नायक पर लिखी हुईदो रचनाओं का अलग नाम कर सामान्य जनता के लिए वरदान स्वस्य समते होगे। उस नय एक ही प्रकार की रचनाओं से अगवाधा को भी होती होगी। पहले उसमें बिस्वार चरित, कथा, त्या यात्व मादि सभी बीजों में नये वर्णनक्रम और परंपराओं की भायोजना मिल जाती है। एक ही व्यक्ति पर किसी हुई विभिन्न रचनावों में विभिन्न परंपरा मे के बनने के लिए उक्त कृतियों पर में विचार किया जासकता है प्रबन्ध और efta काव्य में विस्तार भय समान होता है, दोनो काव्य ब्रेड काव्य है उपर उठकर नहा काव्य की सीमाओं का स्वई करते है परन्तु इनकी पटना और क्या परंपराओं में असर भी होता है। कवि का अभीष्ट होता है उदाहरवाई नेमिनाथ का और नैमिश्वर चरित चरित नायक मानकर गंध, नैनिनाथ विवाहलो आदि रचनाएं नैमिनाथ को Page #1000 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मी विभिन्न नामों में प्रस्तुत की गई है।इसी तरह जंबूस्वामी और स्थलिभर सम्बन्धी विभिन्न नाम सनक रचनाओं पर भी विचार किया जा सकता है।इन परिवर्तनों के मूल व वन परंपराएं और क्यानन्य मौलिकता तथा नबीमता अवश्य होती है। ये कवि परंपरा का निवास पी प्रम के साथ कसे है। उदाहरणार्थ जंबू स्वामी रास गेय रूपक है, तो चंद्र स्वामी कागु गैब ममासमीन, तथा स्थानी विवाहको एक विवाह सम्बन्धी क्या काम है। बदपि इस रक्षा कोई विशिष्टवैपिन्य परिलक्षित नहीं होता, तथापि विवाह कि भूलक वर्षों तथा परितमूलक परंपरामों का यथा सम्भव निवाड कवि ने प्रबलित परंपराओं के कारण ही किया है। विवाह के छोटे मोटे काव्य है, इनमें कवि दवाा प्रतिपादित घटना बाल्य नहीं होता, बरिख माभ्यान इनमें पूरा न होकर बत्कालीन प्रचालित हडियो प्रथा परम्परागों के आधार पर किया गया विवाह का संक्षिप्त वर्णन है।इसमें पारित और प्रबन्ध काव्यों का विस्तार नहीं होगा। साथ ही प्रत्येक कवि अपनी लेखन परंपरा को सात रना चाहता है. उस परंपरा का सम्यक निबाह उसका कर्तव्य है। मन:इन लेखन परंपराओं की सीमा धामा भी बह विभिन्न नामों से गव्य पूजन कर जनता में लोक प्रियता उत्पन्न करता मोन करने के मूल मामी बाब सही होगी कि किस प्रगर समय रखना नारा माताकोबार परिस दोनों परिचय कराया जाना और यही कालकि स्वामी का रास, मंदस्वामी का का खामियाको क लर की गरी रमाओं परंपरा मान बिबादित करता है। वामगार परिमानों का प्रश्न है इन नामों र पटवारा महीपति और प्रम दोनों ही एक ही पूलावोगाव था, काव्य, या पाषा जैली परंपरा प न्न घटनाओं में अन्डर मिल पाता है। माणीकरभीम रमाओं मवीन परंपरा निर्मित दी । यो प्रबन्ध मूलक परित क्या लिखने की परम्परा को प्रायो M Page #1001 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिलने लगती है परन्तु रचनाओं में मौलिक घटनाएं प्रस्तुत कर उन नई परंपरायों इवारा पुष्ट करना वन परंपरा में नया अध्यय जोड़ना है। मस्तु प्रय और परित काम क्या राम और फाय प्रथा विवाइलो भादि काव्यों में क्या सूत्र अन्यपरंपराए हो मिलती है परन्तु घटनामों की विविधता, ताड मूलक वर्णन म तथा मौलिक सूजन के लिए कहीं छद परिवर्तन कर देखा है तो कहीं ठी गव परंपरानों की ओर बासर है। ताकि उनमें वर्णन कम में एक पिया पिटापन म रहकर मौलिकता ना जागा यह परंपरा वर्णन प्रथा क्या की प्राचीन और पिसी पिटी परंपरायों में एक आदोलन प्रस्तुत करती है।परन्तु इतना सब कुछ होते हुए भी बह वर्षन कम में प्राचीन परंपराओं का पूर्णतः निवाह भी करती है। अर्थात् कवि एक ही व्यक्ति पर तिसी अनेक रचनाओं के कारण बनी 'विभिन्न परंपरागों की उपेक्षा न कर उनका यथावत पालन करता है। प्रबन्ध गीर परित काव्यों की प्राति की दलित और मैमिाथ पर बनेकों रचनाएं अलग अलग नामों लिभी मिल जाती है। कई नेमिनाथ के बारहमासे मिल जाते है और कई चरपई। इनके रमा क्रम में प्राचीन परंपराओं का बो अनुगमन ही परन्तु फिर भी नवीन नामकरण करने में बह कहा जा सा किवि प्राचीन परंपरा के होने पर भी बया व कहियों को होड़ कर नई परंपरागों और मागाडी की स्थापना, बासा मिनाथ मारामारी राजुल के विस कायमूनिका पकमारिक काव्य बारामारों या परंपरागों की, विरा वर्ष की मानों की मा बन्य घटनाओं की गम्भात्या न्यायाकि गिनाव सम्पकिा बाबा - रमा होमीर गारमा काव्य है। उसमें कोमल भावनाएं १, बिरा बन्य पटलावों का बाग या भाव वंशिल्पजन्य घरम्बरमा नमकी कविसापी घोड़े में अधिक सारपूर्ण करने की प्राखामा परिचित होता है। मही कारण है कि विभिन्न मानों की बारिश पर जिनवाने वाली कृतियों की परंपरा मिली है। मारे परंपरा की ममय समय पर बनी रखनी है। इसमें कवि संक्षिप्त बया मोमियान में डालकर मना के उत्साह विस्मय किस लिस देता है परन्तु Page #1002 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९९४ वास्तव में ये परंपराएं ही इनके मूल में होती है और यही कारण है कि एक की व्यक्ति पर अनेक नाम से यदि रमाएं लिखी जाय तो क्या परंपरागों में लेकर वर्णन, शिल्प, मंद पर्व मालिक्या सम्बन्धी अनेक परंपरायों का अजन हो जाता है या काव्य के लिए इन क्या परंपरागों का बड़ा महत्व होता है। परवर्तीगाल में भी इन क्या परंपराओं का विकास सर्वत्र परिलक्षित होगा है। मध्य युगीन कवियों में उदाहरणार्थ जायसी, गुल्मी, मादि में न बैन साकारी की लामा इस प्रकार की अनेक जैन वर्णन परंपरागों का प्रभाव पड़ा है। जायसी की प्रेमास्थानकवा और क्यातत्व, तुलसी की प्रबन्धात्मकता, सूर का गीति काय आदि सभी मूल में बैन कवियों की इन क्या परम्पराओं वर्णन परंपराओं तथा शिप लीजन्य परंपराओं ने पळ भूमि के रूप में पर्याप्त सहायता की होगी। घटनाम, कुतूहल वस्तु बोजन, रस परिपाक सन्द और दिल्य जन्म अनेक प्रभाव दीवात्य के आधुनिक काल तक में भी देना है। इन परंपरागों का यह तारतम्य प्राकत से लेकर आज तक अव्याहत रूपमें मिलता है। 4. काय कड़िया काम कड़ियों का इस विर प्रारीम । संस्ख यों में र भाष, बापट्ट और क्या कहियों का वर्णन मिल पाना या परंपरागों की बाविस्था भी गय कागार प्रवाईन करती है। तुल्लाइष्टि गावास और उसके पूर्व विवादिकवि काव्य काव्य कहियों ने योगा पाय हो सका कि मही मिलता है। प्रा में इनका प्रबार जीरे धीरे का और अपच साहिल्यो इनकी परंपरा व पुष्ट कायमा कड़ियों का वर्णन है। अपाच कालने की पर ीि नावों कीमों को पुष्ट किया है। उत्तर अपार ना सहियों को अवस काल की कहि परंपरामों में तासि किया। म कदियों के निर्माण में ऐतिहासिक काव्यों ने बड़ा म Page #1003 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग दिया है। आदिकाल के ऐतिहासिक कथाकाव्यों की चर्चा करते हुए डा. हजारी प्रसाद दिववेदी ने इन क्यानक ड़ियों पर सर्व प्रथम प्रकाश डाला है। इन क्यानक कड़ियों की परंपरा और उदेश्य के विषय में बतलाते हुए वे कहते हैभारतीय कवि इतिहास प्रसिद्ध पात्र को भी निगरी कथानकों की बाई तक है जाना चाहता है। इस कार्य के लिए वह कुछ ऐसी क्यानक कड़ियों का प्रयोग करता है यो क्यानक को अभिलषित ढंग से मोड़ देने के लिए दीर्घ काल में भारत की जिनधरी क्यानों स्वीकृत होते हुए आए है और कुल से विश्वासों का भाव लेवा है जो इस देश के पुराणों में और लोक कथाओं में दीर्घ काल मेले आहे है। इन स्थानक कड़ियों से काव्य में सरसता आती है और घटना प्रवाह में तोच मा जाती है। मध्यकाल में ये क्यानक इडिया बहुत लोकप्रिय हो गई थी और हमारे मातोशकाल में भी इनका प्रभाव बहुत व्यापक रहा। बस्तु आदिकाल में जैन स्त्रोत में उपलब्ध इन रचनाओं में अनेक प्रकार की क्या कड़िया उपलब्ध होती है इनका विभाजन गावित ज्यों में किया जा सकता है: बागा +- मावियप हिना ४. गत्पनिक कड़िया बाबा कडिया का प्रारम्भ में ही देखी जासकती। माजी पर होने वाले ( ल. परस्वती वंदना अथवा जिनवंदन ( विक, कवि की gा और मात्वनिवेदन Page #1004 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (a) प्रारम्भ में माधु पुरुषों और काव्य रस पाठकों तथा भोवानों की प्रशंसा (४) कर्मिदा, तथा अनिष्टकारी तत्वों का बहिष्कार (4) कवि की पदों के अन्त में उसके नामकी छाम मिलनाकाव्य सम्बन्धी न कड़ियों का साहित्यिक अभिप्राय काव्य को सरस बनाना है। घटनाओं में चमत्कार और कौडल वर्मन काव्य के कलात्मक पक्ष को मजबूत बनाता है। यही अभिप्राय इन काव्यात्मक कड़ियों में कर भागे बलकर भला किन जाता है तथा ये अभिप्राय (mation ) परंपरित मड़ि का कम धारण कर लेते है। प्रत्येक देश के अपने अपने कवि अभिप्राय होते है। दिववेदी जी का चन है कि ऐतिहासिक चरित को काब्य का माध्यम बनाने पर कवि को अनेक संपावनाएं करनी पड़ती है और ये संभावनाएं अनेक अभिप्रायों ( mster के काल बनती है बधा मेकअभिप्राय भी इनके कारण बनवे गा और इन्हीं मागे चलकर कथा कडिया प्रबलित हो जाती है। डा० दिववेदी में इस तथ्य गे स्वीकार किया है कि- ऐतिहासिक चरित का लेक्षक समावनाओं पर अधिक बल देता है। संभावनाओं पर बल देने का परिणाम यह हुआ है कि हमारे देश के साहित्य में यामक को गति और भाब देने के लिय से अभिप्राय दीर्घकाल से ज्यादा होने वा रोको बार बोड़ी दूर सारीर को मार मसार थामक हि बाब है। इस अभियागमेकर्ष यि गए।' पर ही उनके विका का सम्बन्ध नहीं है। बस्तुबा बढी कड़ियों के साहित्य बीना और परिणावकारी विक करना नाम । मोनि - - terr. वारी प्रभाव हिमवेदी। वा-.१.२० इबारा श्री - - Page #1005 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९३७ १ और erses का मिलना सामान्यतः प्रत्येक देश के कथा और काव्य रूढ़ियों में सम्भव है। साथ ही हमारी कहानियों का अध्ययन करने के महत्व पर भी प्रकाश डाला गया है। रे के लिए इन कथा परंपराओं की मावि काव्य कड़ियां भी काव्य में अतिनूतन, मौलिक तथा नए बाचावरण का दृष्टि कर काव्य के कथा सत्य को प्राणवान बनाती है। प्रत्येक काव्य मैवति कड़ियों में बडी के देशकाल का पूर्ण ध्यान रखा जाना चाहिए अन्यथा उनमें एक स्वाभाविकता नहीं जा सकती। विस्मयकारी मौलिक घटनाओं का सृजन, नवे वातावरण का निर्माण, विविध रूढ़ियों द्वारा कथा में उत्साह का प्रणयन तथा इन छोटी छोटी घटनाओं द्वारा काव्य की मुख्य संवेदना को बल मिल्नामादि सब बातें इन काव्य और कथा कड़ियों का प्रमुख लक्ष्य होता है। areकालीन जैन कृतियों में काव्य कड़ियों का अध्याय प्रारम्भ करने वाली पृष्त भूमि में प्राप्त सर्व प्रथम रचना- कथा सरित्सागर- है। साथ ही साथ चैन कथा को पंचतंत्र पार्वनाथ चरित, समारा दिल्यकडी, और देते है। जी के प्रसिदध विवान मारिय कुमारचरित मी ट्री ने सर्वप्रथम इन विषयों में उप क्या कहिय है। उनके अनेक तेल भी निक्क चुके है। पेपर में भी उनके बाद इन रूढ़ियों M1)The Motif is the smallest recognisable element that goes to omplete story. Sisiple-Dietenery of World Literature been fostered by recognition of teve complement ANA INGER. Its importance for compara.. tient material of a particular type is The Importance of the Type is to show the Le fum inte conventional elusters of oriental society Volume 36 page 52-54. In this regard are of prize technical h atuly of fiction more important than aver justified these may be when taken Bee Life & Stories of the Jain Saviors Page #1006 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर पर्याप्त कार्य किया है। इस प्रकार जैन काव्यों में उपलब्ध जिन काव्य रुड़ियों में से कुछ पर ऊपर विचार किया गया है उनका उत्तर अथमेश अथवा पुरानी हिन्दी के काव्यों में सफल कम से निर्वाह किया गया है। प्रारंभिक रुड़ियों के अतिरिक्त कई काव्यात्मक रुढ़ियां व्यविधान सम्बन्धी भी मिलती है जिनपर विचार किया जायगा। उक्त रूढ़ियों में कुछ का कथानक कड़ियों के परीक्षण किया जा सकता है: १ 8336 १ प्रत्येक जैन काव्य प्रारम्भ में जिनवंदना, अथवा सरस्वती वंदना से प्रारम्भ होता है- उदाहरणार्थ- भरतेश्वर बाहुबली रास- वडगिरि राम, मैजिनाथ फाइ जिवत कापड आदि प्रन्थों में जिनवंदना अथवा सरस्वती ना मिल जाती है। इनमें पदमावती देवी अथवा चोरी केली अथवा afterदेवी का नमन भी मिल जाता है। अनेक प्रकध और बरित काव्यों में कवि ने स्वयं अपना परिचय दिया है इन कवियों में त्रिभुवनदीपक प्रबन्ध के रचयिता शालिम सूरि, पदा के निर्माता, विनयकर, प्रयुम्नचरित के fafter are विपके श्रीवादिकवियों ने अपने ग्रन्थों के अपने नाम की छाप प्रारंभ में सज्जन सा स्वयं की oyer तथा तक जिंदा आदि करके पुरातन काव्य कवियोंका निर्वाह किया है। २- क्या कड़ियां प्रत्येक काव्य कृति में प्रयुक्त कथा में अनेक प्रकार की क्या रुढ़ियां तो कल्पित होती है और कई अनुश्रुतिमध तथा कड़ियों में मिलने वाली अनेक रुढ़िया है जिका w of story Volum I. page 30 by PEXERR Page #1007 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९५९ - - - जिमका भयम आदिकालीन म रामो दुवारा किया जा सकता है: - पविधान सम्बन्धी १. विविध वर्णम सम्बन्धी • सामाजिक परंपराही सम्बन्धी ४- मति प्राकृतिक सत्यों से युक्त 1. विधान सम्बन्धी करिया सविधान सम्बन्धी कड़ियों के पीछे कोई विस्तृत इतिहास नहीं है काव्य का प्रारम्भ करने पर जिस प्रकार माय:काल वर्जन , उमा वर्णम, रितु वर्णन, अधवा मध्या वर्णन, मदी, मद, उद्यान, उपवम मादि वर्णन भी इन्हीं 4 विधान सम्बन्धीकड़ियों के मन्तर्गत बायेंगे। प्रकृति वर्णन में नाम परिगणनात्मक वर्णन पति सी का प्रवीका ही पड़ों का फूलों का या अन्य वनस्पतियों का वर्ष की इसी के अन्तर्गत लिए बाय। युल वर्णन की गणना,बराच वर्षन में भोजन आदि व्यंजनों के मम मादिमी बीडिवो मिली है। मड़ियों का सम्यक् निया मिला। राम, . परिस, वन पीस, प्र मादि कोई भी काम्य लीजिय, समी प्रावन,नवी मय वर्षम, प्राकृतिक छटा वादिमिक पायगे । काय पहियाविर प्रमों मिली प्रकार त्रिभुवनदीपक प्रचारमा राम बाबर इरि काम, वा मेमिमा उपर विपिनमा । या विधान भी मिला माविका में मिल पाया है। बिनाकर किया रे फागु की बात का उदाहरणों का स्वयं भी मधुमास का नहोस गान होता है। Page #1008 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० प्रकृति में नाम गणनात्मक प्रवृत्ति प्रद्युम्न चरित और जिनदत्त चरपद में मिल जाती है। प्रद्युम्न चरित में भी कवि सधा ने अनेक पेड़ों को गिनाया है। साथ ही शस्त्रों की गणना परतेश्वर बाहुबली रस में मिल जाती है। जिनदत्व चप, प्रदुम्न वरित विद्याविलास पवाड़ों आदि रचनाओं में बरात वन तथा भोजन की विविध वस्तुकों का वर्णन मिल जाता है। १ इनके अतिरिक्त भी पकात्मक रूढ़ि विधान में पूरा ग्रन्थ त्रिभुवनदीपक प्रबन्ध पर्याप्त मौलिकता प्रस्तुत करता है। कवि ने उसके सारे पात्र की मौलिक र है। ज्ञान, मन, तन, माया, आदि सब प्रतीक कहि रूपक है। साथ ही वरात वर्णन में भागतिक कयों द्वारा नमक उतारने आदि की क्रियाएं और कड़ियाँ जैन कवियों की कृतियों में उनकी अपनी है। नेमिनाथ काय, नारीनिराम का जादि रचनाओं में ये कड़ियां देवी जा सकती है। (ब) विविध वर्णन सम्बन्धी रुद्रियाः १ a . विविध वर्मनों की एक लम्बी परंपरा जैन काव्यों में मिल जाती है। हाथी वर्णन, घोड़ों का वर्णन, बरात का वर्णन, जैवनार वर्णम, नगर वर्णन, विविजयवर्धन, स्वारों का वर्णन, क वर्गम विद्याओं का वर्णन नामवर्णन ' बाद वर्षों की कड़ियां इस काव्यों में मिठ बाती है। वे विविध काव्य के कथानक में वैविश्य तथा मौलिकता का समावेद करते हैं। इनमें पहले feat are aur दन अथवा अथवा विचार विवेक का प्रतिपादन अवश्य रहता होगा। परन्तु कालान्तर में धीरे धीरे में गर्मन कड़ियों में परिवर्तित हो गए है। भरतेश्वर बाहुबली राय में इध वर्णन, सवारों नमरों घोड़ों एवं हाथियों आदि १० स्त्रि के कयाय ६७ और र ८ नंद गांधी द्वारा सम्पादित - देवि प्रस्थ के मध्याय ६ २० विमानकी रास-श्री -काति), मानेर भंडार, जयपुर 1) मानेर भंडार, बयपुर | Page #1009 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के वर्णन, प्रद्युम्न चरित में सोलह विद्यानों के वर्णम जिमदत्त चउप में विद्याधरों की रानियों के प्रदेशों के नामों पर रखे गए माम वर्णन काव्य में धात्मकता को विशेष प्रति प्रदान करते है। (मामाजिक परंपराओं समधी यां सामाजिक परंपरागों में अनेक कड़ियां मिल जाती है। साहित्य समाज का विसाज्य : समाज की प्रत्यक डायल की रखा साहित्य में होती है। सामाजिक संगठन, विवाह परंपरा, वर्ष व्यवस्था, रीतिरिवाज, राणा प्रमा, व्यापार बत्कालीम स्थिति गुमा वर्णन, वैश्या वर्णन, नक्षशिख वर्णन बहु-विवाह आदि लगभग सभी सामाजिक साड़ियों का बैन कवियों में वर्णन किया है। अतः ये कड़िया समाज के यथार्थ में दूनी रहती दी। बहुविवार प्रथा प्रद्युम्न पारित मा भिमदत्त उपाय मावि वर्णन बम्बई के प्रिंस माफ वेल्स के राउल सम्बन्धी शिलालेख में, पंचपीन्डव परित राज, बसन्न काण. स्थलिमा फागु तथा विद्याविलास पवाड़ो, और रंग सागर निकाय, में परहित बलिदान की भावना जैव बीकों से सम्बन्धित लगभग सभी काव्यों मथा. परमेश्वर माळी राम विका, मेभिनाय काय, आदिनाथ परित, नारी विय, वैया ना भादि वर्गम का मामा, माती बहुम्माविका, प्रसन्न बारित तथा निवास उपाय, पलारी नाम,पुर्वान मील प्रबन्ध, बालबालारा, परस्ती बारा को कण्ट मा, वारिक वैभव का मजाकिया राब और वनमाला राम निम्न बेबी की ती पर हो र शिवा करना पंच पायवरित राज, इन्ट गाना भाबि कपि, या पार सम्बन्धी सहग निवस करा बसत्यपुरीब गया, मिल पाती।सरह भनेकर नामों में बत्कालीन ममारिवाय परंपरा और हवाम मावि सम्बन्धी दिया इन कमियों (a) सिरनामों बाली क्या सीमा: कमेकातिक घटनाओं का वर्णन भी जैन कवियों की वर्णन परंपरा Page #1010 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६२ रही है। इन अति प्राकृतिक घटनाओं में जिन मूर्तियों का प्रभाव, विदयाधरों और यक्ष का प्रभाव, विद्याओं का प्रभाव, बलवती शक्तियों द्वारा आत्मा रक्षा, विभिन्न वस्त्रों का प्रयोग तथा उनका अलौकिक प्रभाव सरस्वती, इसी और विभिन्न देवियों का प्रकट होकर वरदान देना, स्त्री के सतीत्व के प्रभाग से जहाज का डूबना, विभिन्न रूप मनाना चक्र रत्न का प्रकट होना और कैवल्य प्राप्ति से पूर्वभव बतलाना, प्रेमा व्यस्त कला, मगर उजाड़ना, पुरुष का होता बना देना, मरे हुए तथा मूर्तियों को पुनः जिन्दा कर देना आदि अनेक कथा कढ़ियां इन जैन कृतियों में उपलब्ध होती है। इनमें अति प्राकृतिक घटनाओं और तत्वों का समावेश मिलता है। उदाहरणार्थ कुछ अलीकिक घटनाओं से युक्त कथा रुढ़ियां देखिए..... सत्यपुरीय महावीर उत्साह में बारी बहन सेना का स्वमित होना, जवामी चरित में अभय चोर का तालोद्घाटन, अवस्थापन और वर्तम गयसुकुमाल राम में सिर पर भंगारे जलाने से वहीं मात्म वहिदान हो जाना, fasarees और वर्षों की शक्ति और विदुवाओं के प्रभाव से प्रद्युम्न चरित में बसम्म को पत्थर के भी बना देना, बिदुवाजी वारा सबको मूर्ति कर हराना, fafe शस्त्र का महौकिक प्रभान, तथा अन्न का महत्व होना, विभिन्न म परिवर्तन करना, बिनदत्त बरई में सागर में नारी के बील मे जहाज का डूबना, भरतेश्वर बाहुबली रात में बरतन का प्रकट होना, जिनदत्त परबई मैं का प्रकट होकर कवि को बरदान देना. विड्याविलास पवाड़ों में eraकुमारी का मध्य व्यक्ति प्रेम होना, राजकुमारियों का जिनवत्स पर होना, मम द्वारा को िकार्यों का अज्ञात क्तियों की हैम का विविकास पनाहों में विलास का वैश्या द्वारा दिया जाना अनेक घटनाओं का वर्णन है। झीयमों का वर्णन इष्ट व्यक्तियों का पर पीस वर्णन, Page #1011 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६३ आकाशवाणी करके पानी की सूचना दे देना आदि सभी रूढ़ियों का समावे किया जा सकता है।" वस्तुतः अनेक रचनाओं में ये अलौकिक घटनाएँ मिलती है। मतः यह कहा जा सकता है कि कड़ियां तत्कालीन कथाकारों तथा काव्यकारों मैं बहुत ही अधिक प्रचलित तथा लोकप्रिय रही होगी। वस्तुतः ये अलौकिक पेटनार्थ और अलौकिक तत्व इन आलोच्य काव्यों के नायकों से घनिष्टता रक्षते होंगे। अथवा नायक ही अपनी क्षमता से इन पर शासन करता रहा होगा। युद्ध मैं विविध विद्याओं का प्रभाव दिज्ञाने करने के बाद मनुष्यों को पुनः जीवित करना, असंख्य व्यक्तियों को धराशायी करके भी मरने नहीं देना, आदि अनेक मौलिक रुड़िया जैन कवियों की अपनी है। साथ ही इन रूढ़ियों में मंत्र मल का जादू भी देखने को मिलता है। मंत्र पाठव-चरित में मुनि का कुपित होना, प्रद्युम् और जिमत्व, विद्याविलास, जंबूस्वामी तथा असंभव कार्यों का सम्पादन विदूया वह और मंत्र द्वारा मागीरोध कर देना, तथा स्वयं का रूप परिवर्तन कर जादू से उसके पति का रूप धारण करके सकी स्त्री को चमत्कृत करमा प्रद्युम्नुदुवारा इतक व्यक्ति को जीवित कर देना, और जिनवत्थ बडवई मैं जिन का समुद्र वैतरण करना तथा विमान मर होकर चम्पापुरी पहुंचमा, देवी के प्रभाव से विद्याविलास पवाड़ों में विवाचर का वही fara में प्रयोग होना आदि सभी पढ़ियाँ नि पाती है जिनका सम्बन्ध १ कि पटना से स्पष्ट होता है। इन कड़ियों के वर्नग से काव्यों के स्थानों की रक्षा में अपूर्ववदिध हुई है तथा रस और हास्य का समिश्रण रचना के वर्ष क्रम का प्रवाह पूर्ण लाता है। १- विश्वार के कि देवि प्रस्तुत प्रय के भाग २ के अध्याय १,७ -- विरचित तथा हिन्दी "परदेश्वर मावी रासा पक गया ल बैंक में ११ (ग) र ८। वर्ष १९ 3 ४,०९०-१०० में लेखक का प्रण वरिय पर लेख । Page #1012 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (1) अधतिबध सादियां अनुव तिबदुध साड़ियों की परंपरा मौलिक होती है ये क्यानक कड़िया लोक आख्यानों और शुचियों से समन्वित होती। इनमें पूर्व जन्म वर्णम, बन वर्णन, आकार वाणी, मंत्र वैर इवारा युध, देवी का प्रसन्न होकर बरदान वैना, तपस्या से संतान प्राप्ति, पविभ्य सूचक प्रतीकात्मक रास्यपूर्ण स्थान, म परिवर्तन, स्वपन में प्रिय वन, पर स्त्रीजरम, मायक की उदारता, बारहमासों के कारण विरा वेदना का प्रकाशन, राह भटक कर दूसरे मार्ग में निकलना और वही अन्दारियों का उस पर न हो जाना आदि सब लोक मास्यामक कड़ियों का वर्णन मिल पाता है। इन सड़ियों की परंपरा लोक आख्यानों में पूर्ण रही है। पूर्व जन्म वर्णन बाषा मी रचनाओं में मिल जाना पूर्व भव और पूर्व मन्त्र की यह वर्णन परंपरा क्या सत्यागरायाको मिल जाती है।ौ उपलव्ध रचनाओं में बंदनवाला राम, जबस्वामी चरित, अबूस्वामी सत्क्यस्तु, प्रद्युम्न धरित, अंबिकादेवी पूर्वमय वर्षन वलहरा,नेमिनाथ बहुम्माविका, और पान्हव दरित रास में पूर्वजन्म वर्णन, भरतेश्वर बागवली राम, प्रदान गरिख स्था मिला विकास भवान अपवन वर्णन मिलता है। मान भारतीय काव्यों की प्रमुख परंपरा सी है। इसन बालों वारा अनुम्ब के हुए निधि विधान वा विवार मिली इविवाद पर भी बलो था इनके पीछे किसी निश्चिात्य मी नहीं होते अपितु नो मनोविज्ञान मानिया बान, हिमादिता कही जाम हो श्री अषित नहीं। मन को ।। ग बनानों पदारमा भरतेवर बागली कोली, मियार कर्म वापि मिल जाते है, विभागका बिर बर बर व वधूक प्रकारे, देवी, नामावादको यिा। इसी बरा वर्णन प्रम परित न मान बर्षन परंपरा बड़ी प्राणिय पपरान का प्रकार के होते है और जैन कवियों में इसका इलकर निवार Page #1013 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६५ किया है। जिनदत्त बउपर में कवि रल्ड को सरस्वती का प्रसन्न होकर वरदान देना, भरतेश्वर बाहुबली रास में चरत्न के लिए भविष्य या आकाशवाणी होना, महावीर, जंवामी विनाथ, स्थूलभद्र आदि सभी महापुरुषों के जन्म के पूर्व उनकी माताओं को अद्भुत स्वप्न जिनमें अनेक पशु जैसे हाथी, शेर, देवता तथा कमल आदि अनेक कई बीचे उनके मुंह में प्रविष्ट होती हुई लिखी गई है। अतः जन्म के पूर्व आये इन स्वप्नों का रूढ़ि वर्णन अत्यन्त महत्वपूर्ण है। तपस्या से संतान प्राप्ति जिनवत्त वरपर में, मेमिनाथ चतुष्पदिका बारहमासा में राजुल का बारहमासा के रूप में देव राक की नायिका की भांति विप्रलंभ निवेदन, नायक विद्या विलास और जिनदत्त का भटक जाना और विभिन्न इन्दरियों का उन पर मुगु होना, नायक प्रद्युम्न पर उसकी कृत्रिम पाया कनकमाला का मुग्ध हो उसे अंचल से चिपकाना आदि प्रद्युम्न चरित में अनेक कड़ियों का फल निर्वाह मिलता है। इस प्रकार में कड़ियाँ लोक श्रुति के माधार पर मौतिक परंपरा के दुवारा प्रचलित होने वाली है अतः लोक परंपराजों ने इन कथा रुड़ियों को जीवित कर रक्क्षा है। आदिकालीन हिन्दी जैन काव्यों में ये रुढ़ियां विस्तार से हुई है। (४) काल्पनिक इंडिया tree arena का क्या काव्य में प्रयोग भी पकील्ड में परम आवश्यक बतलाया है। यों में अनेक ग्रन्थ ऐसे उपर होते है जिनमें afe मारा रचित मौलिक घटनाओं का प्रयन मिल जाता है। अतः कवि की इस कथादियों को भी प्राणित करने में सक्षम है। कल्पना के माध्यम है ही कवि या स्वाकर इन पहियों का सूक्ष्म करता है। भारतीय साहित्य ऐसे कवि के काल्पनिक अभिप्राय बहुत अधिक मिलते हैं। इस काल्पनिक रुढ़ियों में अनेक महत्वपूर्ण दिया हो सकती है वैसे कोई जीवटपूर्ण कार्य करके किसी की मकरन वर में किसी कुवरी को भयानक मह से बनाना किसी perer नगर की जाने पर देवको हराना, सेनाओं को निर्वक कर देना, श्रवण इवारा आकर्षण, सिंहलद्वीप का विषनारियों की Page #1014 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंगति इवारा प्रमोभव, कामदेव का संपूर्ण विश्व पर कपित हो माझमण करना, प्रिय प्राप्ति के लिए जिन बंदन, नायिका का अवतार होना आदि कवि कथित कई क्यानक जैन रचनाओं में मिल जाते है। उदाहरणार्थ भरतावर बाहुबली रास में कवि द्वारा दोनों भाइयों में जल नैन मावि अधों की उभावना, प्रशन्न चरित में प्रधम्म का सब सेना को मिल कर मूर्षित कर देना, रायल का मेमिनाथ पुग श्रवण कर माकर्षित होना जिनदत्त उपई व्यापारियों के लिए सिंहल इवीप भारी सौन्दर्य और आकर्षण का केन्द्र होना, तथा उसमें हीरे मोती और पवाराओं का विम्य होना, कठपुतली का चित्र दिखाकर जिनदत्य उपई में नारियों इबारा जिनदत्त को कामकता की ओर जाना, गाड़ियों इबारा व्यापार करना. जहाज इनारा माल लेकर विदेश यात्रा कसा, कौटते समय मार्ग में भारी ब्याप होना, विड्याधर अमारी नगर में उसके पेट में से निकलकर लोगों को पाने वाले भयंकर विवधर को मारकर राजकुमारी से विवाह करना, रास्ते में जिनवान्त पर समुद्र में भारी संकट पड़ना और शिनबत्त की भाति विश्वाविलास पबाड़ी में विझ्या विकास पर भारी भाष भामा, मिक्स बी काम इनारा कृषित होकर सम्पूर्ण विषय पर माल्मम करना बापि अनेक काबनिक या कलियां मिली है।नया साड़ियों का प्रवन कर कवियों ने अपनी मौतिक पल्पना का परिचय दिया है। शामिपूरि बारा विरचित 'विराटपर्व और बालिनारि विरवित वमान्य पति रारों कि पटना जैन कवियों की पालिस मर्जमा है। विमो विभिन्न कोकमय बाडिया की बा सकती है। क्यानक को बापू गेना या समासी है। स किनीमाविकालीम हिन्दी और कायम नीमा नि कि कलियों शिन है। इन विविध Page #1015 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६७ (R) माध्यात्मक सम्बन्धी कड़ियाँ (क) मनोवेगों सम्बन्धी कड़िया (8) नियति के आधार पर चलने वाली इड़ियां () मानव शरीर सम्बन्धी दिया- उल्लेखनीय है। इन गाड़ियों में आध्यातिक सभी कड़ियों का सम्बन्ध ईश्वर पर विश्वाच तथा पुनर्णय से है। ऐसी रकाओं में भादो प्रथा गायतकम रचनाओं को लिया जा सकता है। भगोगों से बात्पर्य मनोविज्ञान की पुष्टि करने वाली रचमानों से है। इनमें स्वप्न सन्धी कड़िया अधिक आती है। जैन काव्यों में स्वप्नों से सम्बन्धित इन कड़ियों का बड़ा महत्व है। इन पर उपर के षष्ठी विचार किया जा चुका है। उदारवाट स्वप्न चंद्र, माथा, वह गायी प्रविष्ट होता था की मी का या स्वाभाविक मनोविज्ञान था कि उसको पुत्र प्राप्ति होगी। नियति के आधार पर चलने वाली पी अनेक कारढ़िया मिल जाती है। इनमें भावाविना पर अधिक बल दिया जाना है। भारतीय लेकी नही, माटो बानिक भी पान का पात्य स्वीकार करो। न रखनाओं में निवासिवाय बम्पीलिया बिमाविलास पवाडौ पाई जाती है। पूर्व विमाविलास का प्रस्ट पाराव हो गया है। मीन विद्या विमानी की मामामुन्यानो बाबा है। इसी प्रकार जित सपा और न ही प्रबंध और बिराट मियों को देख सोम सापाबाबी पर जम्माची दया भी मिल पाती।इम सदियों स्त्री की पोला , परिवन न होने पर या वारा खान raterm e पर है। इनमें से अधियों में पुत्र न होने पर नाश पिari की बिना में रख हो जाना बतलाया गया Page #1016 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है जो बहुधा अनेक कनियों ने वर्णन किया है। शेष कड़िया उपलाय मालोच्च जैन रबमानों में नहीं मिलती है। इस प्रकार भादिकाल के हिन्दी जैन कायों में उक्त विविध साड़ियों का वर्णन मिल पाता है। बालेसको के क्या और काव्य रुड़ियों को कविसमय भी का है। जो भी हो,इन वर्षन कड़ियाँ काव्य की प्राचीन परंपराओं का सम्यक निय तथा क्या में प्रवेग प्रवाद और लालित्यमा जाता है। ___ आदिकालीन काव्यों की इन धादियों का सीधा सम्बन्ध बर्षक कृत्रियों तथा संस्कृत रचनाओं में है। स्थानक सदियों का उपयोग संस्कृत काव्यों मना नहीं मिला जिवना अपज काव्यों में मिलता है। उदाहरणार्थ पयकुमार परिस, कर बारित, असार बरिल, सन्देश रासक आदि अनेक रकमाएं मिलती है जिनसे बहुत सम्भब है कि परवर्ती रसनानों ने अभिप्राय ग्रहण किया होगा। हिन्दी के बैन काम्यों वीराज रासो, बसी का पहनावा और कान्ये प्रकाश डाउली, बीसलदेवराम तथा बसन्त बिलास फागु भावि कितनी ही Haut सम्बन्धी रचनाएं है मिपर पयोद प्रकाश यहा संभव नहीं। इनरबमानों के मूल में भी ड़ियों का उपयोग कराने वाली बहुत बड़ी प्रेरक शक्तियां में जैन कान्य है। ____क्या कहा था Hot और TET सम्बन्ध में अनेक प्रन्य उपाय होई है जिनमें बलूमफील्ड, पिके पेवा, डा. निकी, जान सभा कोनी बादि विद्वानों द्वारा लिखी पाच सामनी सब होती है। हिन्दी साहित्य में में सर्व प्रथम विचार करने वालों वारी प्रसाद जो भी हो, या कडिमो इबारा मान्यों की परंपरा का ऐतिहाकि वा, कोक या कम, जामाविक रीति रिवाज, माविका किया अलौकिक विविध स्पोती का परिवामिकालीन हिन्दी जैन कामों में हमा समायों मारा Hai कि सास्कृतिक तथा साहित्यिक ब या परंपरागों (ecent व्या क्या कहियों का अब तक Page #1017 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६९ सम्यकू अध्ययन नहीं हो जाय तब तक इन रचनाओं का निरपेक्ष दृष्टिकोण से मूल्यांकन कर सकमा असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य है । अतः इन आदिकालीन हिन्दी जैन काव्यों की कथा परंपराओं (cycles तथा कथा रूढ़ियों Holts and types का अनुशीलन अत्यावश्यक है। > Page #1018 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय tt आदिकालीन हिन्दी जैन साहित्य में प्रयुक्त द SSSSSS3355888888 18 18555555555555555 Page #1019 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० आदिकालीन हिन्दी चैन साहित्य में प्रयुक्त छेद आदिकालीन हिन्दी जैन रचनाओं में अनेक प्रकार के छेद भी पाए जाते है जिनमें अधिकतर मानिक और वर्णिक ही है। अधिक व प्राकृत एवं जपतंय साहित्य ज्यों के त्यों वर्जित हुए है परन्तु फिर भी कई ऐसे है जो मौतिक तथा जैन कवियों की अपनी नुतन देन है। इन नवीन छंदों की परम्परा और उनके परिचय करने से पूर्व इन रचनाओं में प्रयुक्त प्रमुख मात्रिक और वार्षिक छंदों को जान लेना आवश्यक है। वर्णिक छंदों में वर्षों की गणना होती है ये छंद अक्षरों की गिनती इमारा और मात्रिक मात्राओं की गणना द्वारा जाने जाते हैं। वैदिक दों से लेकर प्राकृत छंदों तक वर्ग और मात्रा गणना की यह परंपरा noured वही जा रही है। वर्ष वृत्तों का संस्कृत में पर्याप्त प्रयोग हुजा है। संस्कृत की इसपरम्परा को हमारे मालोक्य काल के कवियों ने खूब निवाडा है साथ ही मात्र वृत्त में यत्ति और ठाठ का सम्यक निर्वाह करके इनरचनाओं वारा संगीत में भी योग दिया है।मात्रिक वृत्त वार्षिक वृत्तों की अपेक्षा अधिक मुक्त तथा संगीत प्रधान होते है। संगीत प्रधान छंदों में ढाल का मूल्य नहीं मुलाया जासकता। भाविद बाल प्रधान है और वामामा मा होटी है। किसी भी छेद की वाल का निर्धारण क्यों द्वारा हो सकना कठिन है। वस्तुतः वाल प्रधान इन दों को ववृत्त भी कहा जासकता है। प्राकृत और के छंदों पर विचार करते हुए प्रो० स्व०डी० वेलणकर मे बाल और वर्ष इव I find it rather difficult to define Tale', but I may make an attempt and define it as the regulation with the help of time-element of the recurring rest in a metrical line by means of a stress. This rest regulating stress is Indieated by means of vocal accentuation, but in addition to it ales by the stroke of the Pala or a similar movement of any other part of the body or by the strokes of the timekeeping musical instrument like the hand drum or a pair of cymbals. The waste which is produced by this rest regulating stress is the male which under lies all the "Tala Vrttaa" and is the chief source of delight in them, देखिए भारत कौनदी, पृ० १०६ प्रो० एच०डी० मेलमकर एम० ए०डी० लिट०, का " मीटर पर Page #1020 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७१ पर विस्तृत प्रकाश डाला है। यही ताल वृत्त आगे कई विभिन्न गणों में favra हो जाते है और तब इन प्रत्येक अवरों की मात्राएं समय के माधार पर निर्धारित कर दी जाती है। इस प्रकार ताल में निर्मित विभिन्न ताल गर्यो में विभिन्न विभिन्न मात्राओं का नियमन होता है। यह नियमन मामा गणना से स्पष्ट होता है। इस तरह इन दों में मात्राण और वालगण में दो प्रकार के गम होते है। वास्तव में प्राकृत और अपभ्रंश के छंद का शिल्प संस्कृत वर्ष इत्वों से प्रकृत्या भिन्न होता है क्योंकि इन दो प्रकार के वृत्तों में जो पी संगीत होताहै वह छंद की दृष्टि से भिन्न होता है। यह संगीत बाल वृद्धों में अधिक हरित इमा है। ताल वृत्त विभिन्न ताल और मात्राओं पर आधारित होते हैं। प्रत्येक वागण मात्रागण के शिल्प से भिन्न होता है। प्रत्येकताल का प्रारम्भ प्रारम्भिक द से अंतिम शब्द तक होता है जब तक वा वाल प्रारंभ नहीं हो जाता। ये बाल, वृत्त कई प्रकार के होते हैं जिनमें ४,५,६,७ और सामान्यतः ८ मात्राओं का क्रम होता है। मामाद परिमाण अथवा ( measurement ) के लिए प्रयुक्त होती है तथा इन छंदों में यह समय निर्धारण भी करती है। इन मात्रिक और वालों में संगीत का समावेश होता है वा यों कहें कि वेद संगीत के उपयुक्त है।' इस पर विस्तृत प्रकाश इसीलिए डाला वृत्तों जा रहा है क्योंकि उत्तर अप की इन कामों में ये ना ही चिक प्रयुक्त हुए है तथा उनका संगीत की दृष्टि से भी पिल्य विशेष है। अनेक रा के आधार पर कवियों ने ब्दों को बचा है। विभिन्न रागों के विभिन्न रौ । १- देखिए भारत कौमुदी पृ० १०६०-प्रो० एच०डी०वेलकर का अपनेक मीटरख नामक लेख The word "Matra is derived from the root to measure and means a mit of measuring, here of measuring time. There are many diffirent Talas, but the chief among them, so far as the tal vrattas are concerned, are those in which the rest se regularly stressed after the lapse of 4 or 5 or 6 or Matrue or their multiples. But even among these the Commonest La the Tale of 8 Matras which may or may not be divisible into two parts of 4 matras each. H.D.Velankar. is Page #1021 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ की निम्पत्ति होती है तथा उसमें ये शाल वृत्त अधिक बोग के है। वस्तुतः यह कहा या पमा है कि संगीत के अधिक उपयुक्त होने के कारण ही इन वृत्तों में काव्य रचना अधिक हुई और ये मात्रिक वृत्त लोक प्रबलित मी खूब हुए। जैन सामों को दो मा मा कर साहित्य मिमीय तथा धर्म प्रचार कसा था म ये मानामों वाले छ ही जन साधारण की बस्तु बने। H INov Time aloment and streas ) पर ही इन बाल इत्तों का संगीत निर्मर था। बाल गीत के समय के मूह में ये बालत्व की थे। इस तथ्य की पुष्टि प्रो. वेलणकर में भी की है। अपज था अपप्रवितर काल में वाहनों पुष्ट बाल संगीत जन सभा में बहुत अधिक प्रगति था इन संवों इबारा रसोद्रेक भी हो सकता था। मत: गेय और निश्वित बालगण एवं मानागयों में बंध होने से जनता ने सास संगीत की जल्दी अपना लिया। इन बातों में गाव का मय समय पर मना यति कहलाता है। यह बातों में मामानों इबारा निर्मित होती है जिसमें समय त्य (rine-slemant ) का पूर्व प्यान रखा गता है। रेवा अनेक बालगनों में बंट गाते हैं। प्रत्येक शब्द की अपनी मात्रा होती है और प्रत्येक मागा इवारा बाल विधारित होते समय का उपयोग इन भाषाओं में चोर याबामाधार पर बीच मेष्टि सामानों के बारा पनाम होने के कारण ही इस हतों को मापाड मा क्या। The origin of the Tala aangita and the Tala vratte which are allanted to1t10100Rssertiy popular. They both being to thenned, Theathsomreenot datisht in thta Telu Bengatathe.streatneetmntattonst the regularly remur in rest and this is done with the belp of time element, Thereasingemetricatungamataturally have comatomatin thentihaarit, this is known as ata. 1 Samarit metrol, la Sangkrit and Prak at netres which aret able u n teeursatirregular interwala, thomch thennattaraadhred by the practice of the posta Otheenatest versartar the lapeeotadefinite horottimomentscalled theatras. वही . Page #1022 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मात्रावृत्तों के अतिरिक्त अपभ्रंश कवियों ने भी कहीं कहीं वर्म वृत्त और अक्षर गम प्रयुक्त किए है। पुष्पदन्त का जहर चरित इसका उदाहरण है। परन्तु उसके इन वृत्तों का समाकार भी बाल में हो जाता है। ये वृत्त ६ मात्राओं के बाल में गाए जा सकते है तथा उनमें प्रत्येक पक्ति में २ ताल गण है। परन्तु इन छंदों से इतर भी प्राकृत और अपभ्रंश में ऐसे छंद भी है जो न तालवृत्त डी कहे जाते है और न वर्णवत् ही ऐसे हन्दों में संस्कृत की भांति लघुगुरु और विभिन्न Tea Tश होता है।' १७३ अपग्रेड में इन छन्दों के विल्प का विश्लेषण करने वाले ग्रन्थ हेमचन्द का दोनुशासन, प्राकृत पैलम विरंडा का वृत्वजाति समुच्चय, स्वयंभू का स्वयंपूर्णदस नदीया का गाथालवण तथा रत्नवेसर का कवि वर्पण और छंद कोन। इन्हीं ग्रन्थों में उत्तर अपश में प्रयुक्त छंदों की परम्परा पूर्णतया सुरक्षित मिल जाती है। अतः पद के उम्बों की इसी वास्त्रीय परम्परा (सिक्क हेडीशन) का निर्वाह पुरानी हिन्दी में मिलता है। मात्रिक और वार्षिक दोनों प्रकार के छन्दों में अनेक छन्द तो इन कृतियों में अपभ्रंथ की तरह ही मिलते है परन्तु फिर भी अनेक छन्द ऐसे है जो अप से भिन्न है। जाः स्वतंत्र रूप से उनका परिशीलन आवश्यक है। अपके इन दों का अध्ययन अनेक विद्वानों में बिल्वार में प्रस्तुत किया है। परन्तु अभी उत्तर जयनंद के ोिं पर कम प्रकाश डाला गया है जो नहीं के बराबर है। वस्तुतः संस्कृत और वैदिक उम्दों की संगीत परम्परा १- भारत कौमुदी, १० केनरा दी यूनिर्सिटी बम्बई में हद सम्बन्धी प्रकाशित 1611 भूमिका नाम ० ४८ से ७५ डा० हरियस नीला (क) बाबाची क्रयादि। (ब) पछि ०७२ भूमिका माम डा० मायाणी द्वारा सम्पादित (a) बदामी और उनका काव्यः डा० विपिन बिहारी त्रिवेदी ० २१५ () हाय का वादिकाल: डा० हजारी प्रसाद दिववेदी पंचम व्यास्था १०-११३। Page #1023 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९७४ को इनतियों ने तालस्तों के रूप में ताल संगीत सुरक्षित रखता है।' इन पुरानी हिन्दी की कृतियों में प्रयुक्त ठाल और मात्रावृत्यों में वाल संगीत सुरक्षित रहा है जिसमें समय तत्व के आधार की पूरी पूरी रखा हुई है। साथ ही उपकरण सम्बन्धी महत्वपूर्ण बातों का सा समय है Time ) के आधार पर बिठाया गया है। वास्तव में इन छंदों को देश की प्रचलित लोक परम्पराओं ने पुष्ट किया है लोक गीतिकार पारयों ने भी गा पा कर इन अयमेव तथा पुरानी हिन्दी के वाल तथा मात्रिक वृत्तों को सुरक्षित रक्ता है। पाट और वालों ने इन दो को गाने तथा मनोविनोद के लिए लिखा था अतः ये समस्त संगीत प्रधान रहे थे। चारणों के पश्चात् अपमंड की इसी कड़ी में जैन साधुओं ने आगे बढ़ाया। जैन साधूसंस्कृत और प्राकृत के ग्रंथों में तो लिडते ही वे साथ में माजिक वृत्त वालय और बाल गीत में भी लिये थे। इसके अतिरिक्त जैन सम ने माना बंध के साथ कई मित्र बंधों का प्रयोग भी किया अनेक द इन्होंने गाने के लिए ही लिये अप का चपई, अहिल्ल तथा परकटिका छेदों को पचदर्थ उड़त किया जा सकता है। प्रो० वेलणकर ने तो कई ऐसे अपयों का उल्लेख मी किया है जिंक प्रयोग नृत्य में किया जाता हो। ऐसे छंदों में बहुत अधिक प्रयुक्त होने वाले या छेद का प्रयोग किया जा सकता है। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि इन नामों में अनेक बंद प्रयुक् हुए है इनमें नये और पुराने मालिक और बार्षिक छेद है तो भी अनेक P It is thus that neither the Prakrit metricians nor the Prakrit bards sould have formulated the theory of the Matra. And yet the matra has clearly a reference to the Tala Bangita 1.e. musie in which time is kept as opposed to the awar sangits of the Vedas where no time is kept. Popular music is the Tala sangite and popular metres are the Tala metres. Journal of the Etverity of Babey page 52 APEHRANSA METRES II - By Prof. H.b. Velankar. देवियो १९३३-३५ पाम १० १२-३४ । - स्व०डी० देवकर, बम्बई यूनिवर्सिटी जर्नल न् Page #1024 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७५ देशी ढाते हैं तो देवी व पी तथा साथ ही कई मिश्रबंधों के प्रयोग भी इष्टव्य है। देशीकों के रूप में आदिकाल की इन रचनाओं का अपूर्व योगदान है। इन रचनाओं में प्रदिवपदी, विष्म दिवपदी,समबम्पदी, अषसमचतुष्पदी. विषमचतुष्पदी,पंचपदी, षटपदी, अष्टपदी, विर्भगी, त्रिभंगी, चतुर्दगी, पंचगी आदि अनेक प्रकार के मिल जाते है।अड्यावधि इमारे आलोच्य काल में जितनी रचनाओं का विशेषण किया गया है, उनमें प्रयुक्त प्रमुख हड इसप्रकार : ५- नौपाया -ौरठा ८-उस्लाला ११. रड्डा १४-हरिगीतिका १५- पेपटिका -आदोल १- या त्रिभंगी .. पाबा ११- नीति - जाति ४-भाबट्ट १५ परि २६- मरहट्ठ २८- धवल ९- सरस्वती धवल ३० सारसी ३२-कुंडलिया - लोक -द्विवपदी -उपवाटि -इन्द्रवत्रा ११. उमेहमा विलयिा ४१- रथोद्धता - स्वता - aaor -पाईंडविडीव ४५- मालिनी - नाराब - माशा ४४- भावी . बाबान ५.- बारी ५१. धनाराब ५७ मिषदी की का वर्गी कस प्रकार कर पको Page #1025 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ (रागों तथा विविध ढालों में संयुक्छ) १- मात्रिकाः १. दोहा ४. चौपाया २- चौपाई ६. उल्लास - सोरठा ५- रोला - एव्यय 1- कुंडलियां १-- रासक १४- म्लवम १८- इर्मित १५- हरिगीतिका 1. पाटिका १९.आदोल २०- अडेवा 11- काक्ट २३- पादाकुल १७- परि ३१- बायो २८-मरहट्छ ३०-माधा - अडिल्ला - द्विवपदी १. विषयी - उपेन्द्रकमा ४-विलंबित 1- नाति ५- रथोता १- मालिनी १०-नाराब - सारसी इन त्यो प्रणिय बो र विस्तार विवानों ने मार डाला are पर मिला नहीं दिया मासा है। कुछ जुने हुए पापियकी परिव दिया जाना था जैन कविगों में देशीबों गोलियों से हमारा उन्नीसदों का परी और परिकम प्रभागावकिा गा रहा है। Page #1026 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७७ इन देशी हदों में अधिकांश द, वाल, बत और संगीत पर आधारित है। अतः प्रमुख इतियों में इन देवी के की क्या स्थिति रही है इनकी विकास परम्परा क्या है आदि का अध्ययन अपेक्षित है।आदिकालीन इन रचनाओं में जिवती मौलिकता इन मिश्रबन्धों की मिलती है उतनी अन्यरंदों की नहीं मिलती । देशी छेदों की परम्परा का अनुशीलन भी इस प्रसंग में आवश्यक प्रतीत होता है। राजस्थान में लोक साहित्य ने इन देवी छंदों को जीवित रखा है। जितनी मी मीतात्मक डालें, जो ये कवि गाते थे, छन्द प्रधान है ।ये ढाले अभूतपू सरता से भोतप्रोत कम वालवत्त एवं मात्रारत से अनुस्यूंत है। जैन कवि जन कवि थे। नगर नगर में ग्राम ग्राम में उनका विहार होने के कारण उन्होंने जितना और जो कुछ लिया वह सब जन भाषा में लिखा है। जन मावा में लोक संगीत का प्रवाह होता है। संगीत से जन साधारण को प्रभावित मी शीघ्र किया जा सकता है अतः उन्होंने कई रागों को इन दों का माध्यम बना है। कई छंद से उन्होंने नई रागों को इब-से निर्मित की ओर कई रागों से उन्होंने नये द बनाये। संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश में शास्त्री शिल्प के आधार पर द रचना होती थी इन अविर काल के कवियों को शास्त्रीयता का यह संद बंधन नहीं था। उन्होंने इसलिए संयुक्त व्रत्य (strophia netems) अथवा free a foa, जैसा वादा सासंद में तोड़ मरोड़ किया। उनका अपना यह परिवर्तन लगभग अनेक छंदों में स्पष्ट परिलवित होता है। कंदों में किए गए इस परिवर्तन के शास्त्रीय विल्प की या कही तक हुई, वह तो निश्चित कम से नहीं कहा जा सकता परन्तु सत्य तो यह था कि इसके स्त्रीय ve ft afe fee ही नहीं थी। वो कुछ भी लिखना चाहते थे जन भावा बरत और पिवी की मिठास लिए हुए इसके अतिरिक्त मिला दम साधारण की समय व कवि की वस्तु भी बन गए थे, क्योंकि उनमें atra का मरा रखा था. इन कवियों ने जन भाषा में घुलकर काव्य रचना की। इसका प्रभाग जागे चलकर यह हुआ कि कविगण पूरी पूरी रमाएं ही Page #1027 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ उन्हीदों के नाम पर करने लगे। अनेक कृतियों का तो नामकरण ही इन दो के आधार पर किया गया है। यों की ढालें आज भी राजE Tन में अनेक रूप से गाई जाती है। पल शब्द का अर्थ ही संगीत की विभिन्न वर्षों से लिया जाता है। यह राजस्थान का संगीत की विभिन्न रामों और उनके सिल्प से लिया जा सकता है। अतः विभिन्न खेदों में कवियों ने विपिम्म रागों में ये लोक प्रचलित बातें प्रस्तुत की है। ये दालें यही विभिन्न प्रकार से गाई जाती है। अंगीत तत्व का सम्मिश्रण होने से ये देशी बन्द लोक प्रचलित हो गप है - सबजनाय है। मंदों की इन देशी बालों का स्वरूप राजस्थान के विभिन्न रासों और फागों मैदेखा जा सकता है। गुजरात में प्रचलित गरबा गीत रूपक है। राजस्थानमें प्रचलित इफ के गीतों में भी ये डालें अपना समत्कार दिखाती है। वस्तुतः इन देशी दो की पक लोकमचालित परम्परा रही है यि ढाडे मुक्त होती है या इनमें किसी शास्त्रीय शिल्प का बंधन नहीं होता। परन्तु फिर भी इसका अपना निबंधन विवेक है जिसके आधार पर अनेक वर्षी मे ये लोक गीतों की प्राति प्रापवान और जन प्रचलित है। देशी दो की परम्परा हमें संस्कृत से ही मिलने लगती है। इन देशी बंधों का उद्गम रहा है, यह सही नही बढाना वो कठिन है परन्तु संस्कृत में इमका मल कालिदास के विनोदी में मिला है। इन बी बों उहगम केलिए राम को नहीं लाया जा सकता। वास्तव की घरात अनुस्यूत था। भरत ने नाटयशास्त्र में एक के अनेक प्रकार दिए है। कालिदास में विक्रमोशी में कई प्रकारके मागास दिए है। किमोशी में गर्मित अथव के बों में अनेक माना मिल बानि हालका गा सकता है इनमें वोडा, बौपाई और प्ल बों का प्रयोग मा है। बो उदाहरण देखिए: र एकोपि भावत्यो अबिरल पारा चारविधा मुकाबलो मी पुढविपक्को मह पिन बिपि Page #1028 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९७९ हउपई पुलिपि अल्बाहि गमवक ललि अपहाराणामि तस्वक इरविणिज्जि अस सहकान्ति विट्ठ पिच पई संभुड कधी मेर देशीबों के रूप में खूब प्रचलित हुए। हेमचन्द्र के दानुशासन में भी ये व मिलते है। हेमचन्द्र के पश्चात् जयदेव ने गीत गोविन्द में इन दो का खुलकर प्रयोग किला है। उनका गीत गोविन्द देवी हदों में लिखी रचना है हिमचन्द्र में दोहा और प्लवंग का प्रयोग नहीं किया। जयदेव मे सबैया और चौपाई का मिति स्वरूप प्रस्तुत किया ना हरिगीतिका और धूलणा के विविध प्रयोग किए। उनके गीत गोविंद में मूलपा छंद । मात्राओं तथा (२०, १७, ७ ) भात्राओं का भी भूनपा उपलब्ध होता है। साथ ही उसने हरिगीतिका की ही भाति चौपाई मी प्रस्तुत की है। उनके विभिन्न प्रबन्धों में इन देशी छंदों का मानन्द लिया जा सकता है। उदाहरणार्थ भूया को ही लीजिए- उसमें २४, २० और १७ मात्राओं के मिल जाते है। संवैगा की ही मावि उन्होंने चौपाई को भी विविध रूपों में प्रस्तुत किया है। ला बथा सवैवा की ही मातिचीबाई के कुछ प्रसिद्ध उधरव देखिए: बासि यदि किंविपि बन्द गरि कौवी जति बरतिमिर गाडि स्फुरदयर बीच अब बन चन्द्रमा रोचवलोकन क्योरम प्रिय बाशीत, मुंबनवि भान भनिदानम् । रसद में मामानों का ना है। मामानों का मानसिपः मंजुर वसलकति सदन, विकसरी परिक्ष बने प्रविन राणे भाव स्पीकि.. Page #1029 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० पौया की ही पाति चौपाई का एक उद्धरण उल्खनीय है:. ललित सवंग लता परिशीलन कोमल मलय समीरे मधुकर निकर करवितकोक्ति कृति का कुटीरे विहरति हरिरिह सरस वसन्त नृत्यति अवविजनेन मससि विरहि जनस्य दुरते । रवि सुख पारे गतमा भिसारे पदन मनोहर वैश्म न कुछ नितम्बिनि गमन विलम्बन अनुसर बहत्येम पीर समीरे यमुनातीरे वसस्ति ने वन माठी गोपी पीन पयोधर मर्दन चंचल कर युग शाली-२ इन पदों के अतिरिक्त पुरी हिन्दी में प्रयुक्त कई ईद जयदेव ने प्रक किए है,जो सब देशी गलों के । १२वीं वाही विभिन्न रागों में प्रयुक्त इन देशी छंदों का समानादि-कालीन जैन जैन दोनों कवियों पर अवश्य ही पड़ा होगा। संस्कृत में ये देशी व नहीं उपलब्ध होते जयदेव ने तो रागों में अष्टपतियां तक की अष्टपादिया संस्कृत में नहीं मिलती है। जयदेव के इन दो की प्रिय रामों के माम मी विभिन्न प्रदेशों के माप पर ही उदाहरवा- मोडकी,री, मालवगौड़, कीट, बर्मत, देशी बराडी, मैग्बी आदि। अबदेव इन वो का प्रभाव परवडी काल की रखनाओं पर खूब पड़ा है। इन आदि कालीम रचनाओं में देशी बों का खूब प्रयोग बयदेव की मीसिमिठास और देशी रागों चमत्कार के कारण ही दियागया होगा। देशी छंदों का यह प्रयोग भा गुजराती गरबी, परवो पी याप्त म मिल पाता है। हमारे मातोय काल की रसनामों को कईदा की रक्षा देशी बालों के आर पर ही मेने पीपीपी मोनिय नियमी रायों गाने के लिए ये व उपलब्ध - Page #1030 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८१ थे अयं स रागेर गावत गीर गोविंदा- सून इसी बात की पुष्टि करता है। अत: देशी छंदों का यह क्रम जयदेव से प्रारम्भ होकर पुरानी हिन्दी प्राचीन राजस्थानी तथा भूमी, गुजगडी की रचनाओं में खूब मुखरित हुआ है। राजस्थानी में देशी डाले, तथा गुजरात की प्रसिद्ध गरबिया इस लय साल समन्वित छंदों के आधुनिक प्रतिनिधि स्वाम है। इन स्वमानों में प्रयुक्त कुछ प्रसिद्ध प्रकार के संवों में वैविध्य बहुत है।एक सबसे बड़ी विशेषता इन देशी दो इनकी गेयता है। गेयता के लिए कवियों ने ब के पी -एकार- और उकार का डूब प्रयोग किया है। अपर का देश रामक इन। दो का सुन्दर अन्य है तथा आदिकालिन इन कृडियों में परवींकाल में लिया गया औन अन्ध प्रवीराज रासो मी इन बाल इत्तों की भसार मिलती है। इन दों में उक्त वर्गीकरण के अनुसार लगभग सभी प्रकार के छंदों का परिषद विभिन्न अन्यों में विस्तार से मिल जाता है। इनमें समाविषदी मीषिया बारी एवं भूतणा, विन हिवदी गाथा, समन पदी में नाराब पादाकुलक, पकटिका चतुष्पदी, रासक अडिलल, सरस्वती, प्लवंग, रास,रोला, 'द्विवपदी,परस्टा , त्रिभंगी और इर्मिल,अधसम तुम्बबी में राम, दोहक, डणिका, सारसिका, विषम चतुष्पदी पिका, पंचपदी मामा, वादी, मष्टपदी या दिवमी मशः उपमावि, मा, पवन, दिवसीय प्रति है, जिनका शामिक वर्गीकरको मेलवकर में प्रस्तुत किया।' इस प्रकार स रकानों की पात्रिक, मिनबंध या बालास तथा वार्षिक और बेटी व प्रथम ना विपरिक्य प्रत्येक वादी की रचना के प्रागार पर ही विना साकार कुछ विशिष्ट कृतियों में प्रक्सी पिना बयान हो सकेगा। कृतियों यी वा तो परिवाth. - - अपयर गाली गाव मावान गाधी .॥ Page #1031 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८२ (4) भरतेश्वर बाइबली राम- (2वीं शताब्दी) मिबंध रचना का प्रारम्भ किया गया है। तथा (6 ) (e ) मा ाओं की तीन पदों की १५ कड़ियों में मिश्रबंध है। कवि ने इस छद को रासईद कहा है। कवि ने अपने द स्पष्ट कहा :रास या रासक आंदईडिव पाणिस रासह विहि मम हर मन आबंबहि पाविति भवीण मामलयो । डा. भायागी ने संवर रासक की भूमिका रास द में दोहा, अडिल्ल,पत्ता, दुल्हन, माया रडा, बोमा, हडणिया, भद्घाडिया आदि सब को सम्मिलित किया है, पर विराम राम के लक्षण असो नहीं मिलते। डा. हजारी प्रसाद द्विवमेवी रासदको १५ मा Tों का कहते है। संदेवरासक का एक रासक च देखिए: के नि पहिय पिको विशु पिक उत्करिवरिय খসর কেলি বাকি খতিয় दामपहर पनि चल रमण मरि हुडवि शिक्षित समावति किस रख पारि परतावर माहुबली राम का रामब देखिए गुण पहर भंगार सालिमानि मामीटर कीय प बीपि वरिष भरत नरेवर राइदिई इस दिवपदी मिलती है। बिकने अपने बुल्स आदि समय दो प्रकार के Tों का किया है। विपदी और दूसरे में विवारीत्या : n umeram १-परश्वर कामठी रासाबीबाट वामगोपी.स - - - ४. परावर बाकी Page #1032 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८३ बहुत सम्भव है कि यह दिवपदी वाला ही राम हो । पृथ्वीराज राठौ में रासा के विभिन्न रूप मिलते है। जिनमें २१, २३, २४, २६ आदि महत्राएं मिल जाती है साथ ही यति का भी कोई निश्चित रूप नहीं। संदेश रासक में इस द को आयामका माहाका भी कहा गया है। प्रो० वेलणकर ने इसमें १७ (६+४+४+३) गण योजना दी है यह भी रासा में ठीक नहीं लगती । जर्मन विद्वान याकोबी ने रासा को नागर अपभ्रंश का प्रधान न्ट बताया है। जो भी हो, इस सम्बन्ध में स्थिति बहुत स्पष्ट नहीं है। यों यह छेद कड़वक आदि विभिन्न रूपों में बहुत ही प्रचलित रहा 8 (२) वहुत- यह ध्द बहुत ही प्रसिद्ध है जो प तेश्वर बाहुबली रास में ( १६-१७, (०७,७८, ९५, १३७, १३८) के अतिरिक्त और पी अनैकरचनाओं यथा प्रधुम्नचरिव, जिनदत्त चउर, (३७, ४५, ११, १०, १५३, २४०, ४०३)' जिनेश्वर सूरि, terest, कच्छूलीराम, मंच पान्डववरित राहु (१८३८, ११४, १४१ १५५) गौतमराव (1) This is the principal Metre employed in building up the frame of Sandesh Rasak. (11) The 'Rasa' metre used in the body of (1) This is the priff}.FLUF.BLUT'Ê·JÜLTUJ ́V ५०५३ frame of Sandesh Rasak. (11) The metre used in the body of - दिन दीपक *दान #TOT (3) #gtar: कडवक संदेश रासक: डा० मायामी भूमिका भाग ०५३ ३- देखिए वक्त्तकहा : सम्पादक याकोबी १०७१-७२। ४- मरतेश्वर बाडुली रामः श्री भगवान थी। - जिनदत्त पर बैन बोध संस्थान जयपुर में संग्रहीत (समका विय) ॐ सुर्जर राजाकी ०१-२ * " दुवारा श्री जयशेवरसूरि सम्पादक श्री लाल का अनयद भगवान गांधी जै० आ०प्र० Page #1033 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( कड़ी ७,२७,४४,५०), त्रिभुवनदीपक प्रबन्ध (४, ८,४७, १०४, १५१, २२६, २७, २०७१ १ विद्याविलासवाड़ी (१४९) आदि अनेक कृतियों में प्रयुक्त हुआ है। इसके अन्य नाम वक्त या वधु भी मिलता है। यह संयुक्त वृत्त है तथा रोला और उल्लाला के संयोग से बना है इसके प्रत्येक पद में २४ मात्राएं होती है। यह द अपभ्रंश में भी खूब प्रयुक्त हुआ है। इसको संदेश रासक में काव्य या वय (वस्तुम) भी कहा गया है । एक उदाहरण देखिए: ४ राउ पराप सुनिषि दूत मरह बैठ भूमि सरह राउ अम्ह सहोदर सवा कोडि कुमारिहिं सहीय सुरकुमर देहि अवर नर पंत्रिमहाचर मंडलिय र परिवार कहि न सकुशल विचार सामग्रह ग्राम इस छेद में पांच चरण होता है और नीचे के दो चरणों की मात्रा तो दाहे की और १५ मात्राएँ वितीय एवं ही २४ होती है। प्रथम चरण के अन्त में तृतीय चरण में १३ १५ २८ मात्राएं तथा चतुर्थ और पंचम चरण में २२ म होती है। कुल मात्राओं की संख्या ११९ होती है। प्रथम चरण की सात मात्राओं की प्रायः वावृत्ति कर दी जाती है। श्री नरोत्तमदास लागी इसका दूसरा नाम रढडा भी बतलाते है। डा० मावाणी में इसकी गण गणना इसप्रकार दी है: २ गण १० ₹ 3 * गय # * वस्तुतः छेद प्राचीन राजस्थानी साहित्य में विवेक्तः जैन साहित्य में दून प्रयुक्त हुआ है। (३) मोटक या टटक यह भी परों का संद होता है मरतेश्वर बाइकी रास (१४४-१५२) १ त्रिभुवन दीपक श्री जयेशेवर सर १-४६ २- सर्जरी ८८-१०० ३- वेदवायी और उनका काव्य डा०विपिन बिहारी त्रिवेदी ०२५२-२५५ * देशका मागामी ०५८ ५- देवि राजस्थान भारती बैंक भाग ४ परिशिष्ट १ पृ० ५५ तथा हिन्दी अनुशीलन वर्ष ११३०३८ (६) संदेश रासक भूमिका मा सम्पादक डा० मायाणी पृ०५८। का चार मैदाचित ही, तजि बैर प्रमोद भरे हितही (कु०प्र०३०) Page #1034 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८५ मैं चवल टक के रूप में खूब प्रयुक्त हुआ है। वह भी मित्र ताल वृत्त है। यह अवण रहित ४ गर्मी वाला छंद है। यह छंद मानिक न होकर वर्णित है। इसमें आलोचकों ने ४ ही चरन बदाम है अन्त में दो लघु और एक गुरू एक पक्ति में कुल २ वर्ष होते है परन्तु भरतेश्वर बाहु बली रास में धवल के साथ मिश्र करने से इसमें चरण हो गए है जिसमें एक चरम में कुंडलिया की भांति उसी वितीय चरण की पुनरावृत्ति होती है यथा वर वर सवर वीर, आवास धीर, मंडलीय मिलिया जान इव हीं मंगल गान मी मंगल गान गाजियम गिरि गुट गुम गुम धम धमीय चामल सतीय न सक्छ सेकुलगिरि कमकमद्द इस घसीय धावई धारण बलि धीर वीर विडंडए समरन मंडली न मंडप-1 इसमें अन्तिम चारबरन ध्वल या सरस्वती दिया है। धवल या सरस्वती वल पर आगे विचार किया गया है। (४) सरस्वती धवल इस छेद को धवल भी कहते है। धवल और मंगल दोष के छेदों में प्रयुक्त है। यह य भरतेश्वर बाकी १२ १४४-१५१ त्रिव दीपक प्रबन्ध (७२-७६, ३०-३६, १८-३६१) सुंदर देवी बीमाई सहि वल के है। कवि ने दोनों को इसमें मिला दान का मलखेडे (निजाम) निर्मच कुटी इस है वि डी, मन डोटको विविडी रखविता: श्री ० ८- - सम्पादक जना जैम प्रकारेट जैन संस्थान १- भारतीय विमा बनिन वर्ष ५५० १४ पद १४५ - The following two peculiarities of the APBERNSA metres deserve to be noted. The first of them is the appendage of the terms Dheval and Mangala to the names of these metres, when a particular metre is employed to praise or favourably describe a hero (Dhavala) in the popular language 1.0. Apbhramsa it gets the appendage Dhaval to it. The on utanha metre when thus employed will be called Utasha dhaval, a doba will be Doha dhawal and so on. When on the other hand, the same metres are employed in describing some auspicious occasion, they will get the appendage of the name Mangal attached to them at the end Jhusve may have Utsah Mangal - Doha Masal, and po and so on. Journal of the Bombay UniAlert th Tonnary. 60. Page #1035 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मित्रबंध के मिलता है। अवलाद में चार चरण होते है। यह बाल वृत्त मात्रिक है।धवल की प्रत्येक पक्ति चौपाई और दोहे का समचरण है। इस प्रकार यह चार चरणों की योजना है। एक उदाहरण देखिए रोही राउत बाद पालि बिजार बिना बाली बक्क पहबर पूठितिमि वालि बोलए बलवीय भइसजेरवा रे रे रहि हि कुपीउ राउ, बित्व जामि हिन्धु मारिए विगण कोड न अबा अपाय वय जोगिम जीणा जीव (५) दो चौपाई सोरठा. बालात समभग सभी कृतियों में मिलते है। दोहा और चौपाई शक तो रबनाएं तक मिलती है यथा- मातृका दोहा, नारसरी, दोडा, नेमिनाथ चतुष्पदिका, विडंगति कापड, मातृका कापड, जिनदत्त कापड। मोरता मी बाधा प्रडका हुमा परमेश्वर बाहुबली राम के मा साथ तीनों प्रत्येक रचना में मिलता है। इन पर विस्तृत प्रकाश नहीं डाला गया है। ये किसी अन्यों के साथ मिलकर जब मित्रमेव बन जाते है तब इनका मूल्याकम मावश्यक हो जाता है।मत: यत्र तत्र बडा इनका विभिन्न नियों में मिले प्रयोग ना होगा बड़ा इन पर स्थान प्रकाश डाला भावगा। या व परवेयर बाहुबली के सबूब मस्त बा कमि में बौपाई और बरगल का मिथ यिा। परतेस्वर बाहुबली में यह बात 1- परोरवर बाकी श्रीमती पर Doba la amalarly = purely Apbhxanda Metre, but la a Tal Tratta, as I have shown abom and has been employed since very old days DOTramanarratsopoetry.. बाम भारतकामी-अपोल पीट१८. बारा करबबाहिदीसाहित्यका विकास Page #1036 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८७ हुना है। ठवणि पद ८०-८४ तक की बार कड़ी, ठवणि ८ पद (१०५-१०)में, यह एंव प्रयुक्त जमा है। समरारा भी वी भाषा में परमाकुल के १५ १६ मात्राओं के चरम फिर ॥ पात्राओं का इकाइ बरण, कमली रास प्रथा इद्विधराम (-४) में भी परणाकुल छड प्रयुक्त मा है। यह गेयता प्रधान है तथा आदिकालीन हिन्दी जैन कवियों की मौलिक विशेषता है। तीन कतियों के उद्धरण देसिप1- भरतेवर बाहुबली TE- (1) बूदी वि उबगार मयरो, धनक्षम कंचनरवनि पबरो अवर पवर किरि अमरपुरो (२) २. समरारा- (1) हरपिठ हरपार बीति पडता ए मधुमोलविकरे पमा दीवह नारि संघह, प जोवण उतावलीए । माउला बहिन बगिह बगुला प बागि प्रियगृहीए (२) - कम्ली : (1) अनलकुंड संथम परमार, शनिवार बाबू गिरिवर बाई पारो' इनकार इस रचना को कवि में बौपाई से मिनबंध करके प्रयुक्त किया है। शब्द इसकी परखा और देवता का प्रतीक है। भरतावर गाठी विनि स्वामियों की च और उनकी कुछ विस्तार इस प्रकार .. (1) वर्ष में आविषय बन्न --का प्रयोग हो TV विकार का प्रयोग होण-1) ( पि... बाई बरणा का farm ( 1) M) पिपरपावापाई (1) पगल टकमावि बैशी छब है। (Vaantरस्वती ( ५) - -माण पूरी . Tag.an Page #1037 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ ( रोठा यह च घिर मबलित है। इसको काव्य भी कहते है। इसके प्रत्येक चरम में १४ मात्रा तथा पर यति होती है। याच परवेयर बाइबली रास में व्वणि. (10), वणि १६१९.१४), रेवंतगिरि रामदीन कामक क्रममा रोला, 'पदेशमाला कामय छप्पय संडवे त्रिराज .५४, ente) पथहराम में, समरारा बीसरी भाषा में स्कूलिभद्रमा (रोला ), पबमान्डम चरितरा वपि -) गौतम राम (पाशा ! ही 1-4), में प्रयुक्त हमा है। इसके बम पो ( ४ अथवा rat aar) और विषम पो में अथवा + + माना होती है विसिएः तपय गुरु बामि कोस वेसासरि पत्न वित्तालि बळमावि र सविगा निमres पुण्यबेर संभारि समर समरंगवि पित्र, बिमसामषि जयवंत मुद्ध समरंगवि जित्र (उपदेश माला कहाणय छप्पय ) (ब) देवीपरवा ( क), स्वपि कार बा मोका देसी स(१५-२) बपि mrt+ कापरणा - या व्यपि किन पब में पकार मा दोहा बाम प्रचलित है। ये वाला है। बोनों नाव में पारा प्रयोग किया है। - वैन बनायो काकी कोनियाब रेवगिरि राकी (11) me भसतवती, गान्टिक गरीब, • 1-01 Page #1038 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पक्तियों में, पिनेश्वर मूरि वीवाडला मवस्तु एव के साथ भूलवा, समरारा (पापा ८ मैं भूलगा की कड़ियों का एक पद (1) जिमोदय मूरि विवाहल में (बड़ी २०- , -९ तथा ४-५४ तक ७ मात्रानों का भूलवा ) प्रयुक्त पूजा । यह छंद जैन कृतियों मत मौलिक वाला है। इसके प्रत्येक चरण में 10 मात्राए होती है तथा १७, , पर यति होती है। यह सम भाषिक वृत्त है। अपर में यह ब नहीं प्रयुक्त हुमा है। एक उदाहरण देखिए चला चला पहियोणि चडियर मादिषिण पत्री हिजोडाए महाधि कादमि दूर दक्षतरि धमिलिया अधि भनि ना१ ॥ भाभिक मोतिष चरक सूर पूरा रतन मह बेइ सोवन जवारा अशोक वन अनुभाष पल्लव दलिहि रितुपतेरचियले तोरणमाला देवकन्या मिलिय भवले मंगल दिया किनर गायहि जगत गुरी लाम मारत पुरगुरो बाप पनी का सिध मूरि गुरो । ' (२) अवर बर पारि पुन्यार पारे मूल नक्षाविसह सारी शुषई सुर नाई नर चरण चडामणि जाम पुत्र नरबय कुमारो । वस्तुतः निश्वर रिवीवमहलों में मूलगा का वस्तु छद के साथ सर्व प्रथम ही प्रयोग मिलता है। यह पीलिया है। (ब) असलेनी - जी हा मह बना विविध देसी बालों में लिपी म नमें विभिन्न विभिन्न मेय बात उबारना से पनी विपकी कमी बोपाबा की, ८वीं कड़ी में सवैया, भी कही मा। ५.४मो निम्टि मेला प्रधान RTE का दोडा, १ से १५ (t मा mithstinी रोला और ११५ कड़ी - पूरगलीमी मा u Meet न बाद ही बगरकन्द पंवरलाल नाटा पु.॥ KARजिनीरि पल पीवर) Page #1039 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में संवैया की दो पक्क्यिा -११८ रोला तथा १९ में प्लवंग इंद प्रयुक्त हुआ है। यह सब सप्तक्षेत्री रासु क डी ) त्रिभुवन दीपक प्रबन्ध में प्रयुक्त गुजा है जैन कवियों इबारा प्रयुक्त या देशी तथा विविध वालों में गाया जाता है। प्लाट का प्रयोग कालिदास के विक्रमोशी के पर्व बैंक के अपभ्रंश के शो में प्रयुक्तहमा है। अतः कवि ने सप्त क्षेत्रीरा में इस नीतिक द का पुरानी हिन्दी में सर्वप्रथम प्रयोग । उदाहरण देखिए: जो सदि रवि ममाणिहि गइ महिमंडलि वा वर राज पविय जिन सासिपि निम्मल ग्रह मात्र सारिका व्यापई मयमंतु श्रीसं बना मिण सायन (सप्तवेत्रिय रा- पद १०५) (ग) पेयड या कीराव इस कृषि में रोता, बोहा, बौपई और चौपाया प्रबलित है। इसमें प्रयुक्त सबैया देशी डालों के है। रचनाकार ने कार वाला दोहा प्रयुक्त किया है दिशी दा की परम्परा में यह कृति का योग देवी है।इस रचना में से अग्नि कीबो मिलता पर की थी पति उल्लेखनीय है, जिसमें कवि रखना राई में हमें जीन बार बावन मारना प्रका ४ देशी व दृष्टय लिो प्रथम बोका विजन बत्यन्त महत्वपूर्ण है। मैव बत्व इनकी प्रधान विशेषता है। बारों दो के उबारम वा दिए जा रहे है:(a)- भाव मणीय मत परिबीय टोडर पति मोक्ताबए पलको पाल पालीवारिरि पानी बन्छ कारए बाबीन पिता शिहि किम कामो बाबा मावटी लीव पीवापर - - - बीमर रिधिमा बसीव बरोबर पाले पति बई वधामनी रीउर हरिवीउए हरिशीन मषि निहाले पिकड रास पु.२४-३.1 Page #1040 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १११ बडउ संथातिपति लोक बदामच बेलडीया संघ पडत तहि चलयर अखंड पीभागप आगे की दो देशी डालों में २७ मात्राओं के सवैया का देशी रूप है। जयदेव के गीत गोविन्द में प्रयुक्त लोक प्रचलित इन देवी छंदों की परंपरा का निर्वाह सर्वप्रथम पेथड राख के रचनाकार मंडलिक ने इस कृति में किया है। ये देशी द गीत गोविन्द की ही पाठिमीठे है। दूसरा बंध तालवृत्त देजिए । सवैया की यह देवी अपूर्व संगीत से ओतप्रोत है: (ज) सवैया की देशी डाल राजलकंस, हि नाचिएप सहिडी प ललागीय गिरनारे refer कलियामका सामलडर संसारे । । वहि नाचिन प अंग परवलि सुमदम, प जल पहरीय धोती प्रवी १ इन्द्र महोत्सव बीयरंगी तर्हि वयठति बहु पर्वत as ना आये इसी सवैया की देवी की भांति दोहरों की देवी भी इष्टुव्य है। इससे प्रचलित देवी द अत्यन्त सरस है। कवि हरियाला सूडारे मनीता सूहा रे- आदि मधुर शब्दों द्वारा रक्षा का महत्व और अधिक बढ़ जाता है देखिए (ब) दोहों की देवी डा अविवि मा मोरह पूरी जबलोईन जगन्नाथ ire पूजन जुहारीय वलीका पे कम कीयाथ लीमा गई मिनारि state बंद बंदीय देवी ही बाम far tari for मन रवि मंडलिक ममइ ईस विडि ना # कि पीवान मेरि हरि हरीबाला दूहारे दूर है संत मनीला हारे। १- प्रा०यू० का ० १८-१९ - नही ग्रन्थ (००००१८-१९ । Page #1041 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसमें वह नाचिन पदों की पुनरावृत्ति इसकी गेयता का प्रमाण है वस्तुतः और विभिन्न देशी छंदों के विकास में पेथहरास का इन प्राचीन देवी महत्व विस्मरणीय रहेगा। ११२ # पेड़ राम की ही भांति कब्यूलीराज में दो महत्वपूर्ण देशी ढालें है जिनमें पक दोहे की तथा दूसरी कोई दिवपदी है। ये विपदियां सन्तवेत्रीय राज (कडी १-१८) उमरा भाषा में १४ दिवपदी पच पान्डव चरित राष्ट्र में coast at में एक मिश्रध । दिवपदी और एक चौपाई) आदि काव्यों में प्रयुक्त हुई है। इनमें शब्दों का बार बार आवर्तन इनकी प्रमुख विशेषता है। एक उदाहरण मत्वर्थ भाल होगा: (स) दिवपदी डाल सेवर हि रहिने वे गुरु विधि बंडो विess बाबत परवलिये, पीप लंबी लंबी बंडु पथंडो व रिता मिल्किरि होइ गर क वाइट की मंडवडे विकी र वीर विक arefree frigeीन उर ठरंतु मी भाची रहिमतीय डोडर डीम्ड पर बाची शुरू की वहतु की बी मराठी गरिबी, परि नया नदी के प्रो० बेलकर ने इसकी ममता यति और संगीतात्मकता के १० ०० Page #1042 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 333 सम्बन्ध में पर्याप्त विश्लेषण किया है।' यह दिवपदी प्राकृत के गाया या गावा छंद का ही एक देवीय उपमेद है। अपच के विरहीक को लेकर मग मी कवियों ने इन प्रयोग किया था। इसका नाम डुबइ भी मिलता है। डा० ४०० भावानी ने इसकी गम स्कीम को वह रासक की भूमिकामेइस प्रकार स्पष्ट किया 1: (tu ~ ~ + u 8 +8 +8 +~~~-~ दुबई तथा दिवपदी छेद के पदों के विषय में भी विद्वानों में (" नहीं है। इसका स्वरूप विश्लेवन प्रो० वेलणकर ने ठीक प्रकार से किया है। जिसमें इसका वतुष्पदी स्य भी मिलता है।' मस्तान में देवी ढालों में विपदी की यह काल पर्याप्त सरस है 1. There can be no doubt that the Yati that is mentioned in the case of the Dvipadia is of a musical nature. It cannot be a mere narrative pause, which is always a short one and is intre dused in the middle of a line for the convenience of the narration to allow some breathing time Journal of the University of Bogbay page 48 APEHRANS METERES By Prof. Valenkar. 2. A few words on the name 'Duvai' Alsdorf finds it strange that in the face of the name 'Duval (Dwipaddi) defines it as a metre of four Pada In his eom, Vanshidhar discusses for a different reason whether 'Davai is a two lined metre or it is Sour Imod संदेश शासक; भूमिका, पृ. ६० - ६१ 3(1), Even from very old days, there exists a difference of opi nion as to whether the Gatha should be considered as a Dvipadi or a catuspadi. There are however a few points which help to decide in favour of its being considered a Dripadi. The chief among them is the last quarter of the metre. Had the Gatha been conceived as a catuspadi of the Ardharsama type, the last quarter would have been always equal to the second, as the third is equal to the first. Nor can it be regarded as a Visan Gatuspadi as the first and the third quarters are aimilar. It is therefore evident that the Gatha was con ceived as a prinadi of the Visam like the Sikha and the Mala," Page #1043 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ तथा इसकी मेयवा व ताल ही इसे लोकप्रिय बनाने में सहायक हुई होगी। यह च भी जैन कवियों में अति प्रचलित रहा है। वह रास में मवैया की देशी बाहों में कुछ मात्रामों को घटा बबाकर निभंगी का प्रयोग मिलता है। त्रिमंगी मालिक और बर्षिक दोनों को मिलता है। प्रस्तुत कृति पेथहराम में इसका मात्रिक सही मिलता है। मात्रिक वृत्त या नात्त विभंगी (+ c+ ८) १ मात्रा मिलती है। यह अद्यावधि प्राप्त रानी हिन्दी की कृतियों में केवल बहराम ही मिलता है। कालान्तर में चंदबरदायी ने वीराज राणे में इसका प्रयोग किया था। त्रिभंगी छेद के उदाहरण देखिए। चम्भिव निमा लोबमलिक संवत्पर ममा भवीषण मानवीय परियतित पबीया लालाई धणकमल बलचि लीया रमि राम उर्व नवरस नवरंग मबीबपरे अपि सापानी पी जोशी निरंतर परेहि घरे।' देवालय गाठीव मावि विशातीय दितीय वाली रंमि फिरती इरिस भरे महिनावाला मला ना मोठा डा रवि रमई । (11) One more curious thing about the name Dripadi is that trak very old times. It is applied to matures which admittedly contain more than two 108 in them. Thna VJ8 II 1.) do fines # Dyipadi se a atrophe made with four Vastulon 8 ot413nesomhand+GItnot the Bhadrka type coming at the end of auch one of the four Vastukas. This 18 yar visual, though this in the meaning of the Text even Romaratheethem atater. पही पृ.५६-५० १ चरवाई और उमा काव्य - *. Kaha inी ५.२६ २ प्रा. गुग १० सं० श्री मान पृ. २५ जीशिर १० ३ वही १.२५ Page #1044 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११५ इस प्रकार यह त्रियंगी ताल का महत्व स्पष्ट करता है। गेयता इस छंद का प्रधान गुण है। देशी ढालों में ढल जाने से ही यह छेद जन प्रचलित हो गया। समरा रास: (११)_त्रिपदी इस रास में दोहा, चरमाकुल त्या फूलमा बंद मिलते है। एक विशेष तथा मौलिक देवी द"त्रिपदी" मिलता है। यह सिर्फ इसी रास में प्रयुक्त हुबा है रासकार ने सम्भवतः तीन पदों को मिलाकर इस मौलिक देशी छंद की दृष्टि की है। अतः इसद का विल्प बात है। त्रिवेदी समारास की ११वीं भाषा में ही प्रयुक्त हुआ है। त्रिपदी का यह छंद पूर्व वर्णित काव्यों में नहीं मिलता । समरारा में कवि ने ६ कड़ियों में इसका प्रयोग किया है: कि इन पुरि जो प नगली सफलकरउ रिकरि आरपार निवमा नेत्रि करेषु बेडी बेडीय जोडि बलि ए की बंधिवारी ॥३॥ देवाला माहि बळ ए संपति सहित कहर लाइ जग प्रवह ए बाइ विमान जिम ante are as नवरंग प राव काडार ॥४॥ (बमराराट्र भाषा १वीं) छंदों को देखने पर इसको तीन तीन पद इबारा वह कहा जा सकता है कि कवि ने इसका त्रिपदी नामकरण संभवतः इसीलिए किया होगा। यह भी सम्भव है कि वे वथा प्रचार के लिए कवि ने इसे अन्य प्रचलित यों से लोकप्रिय बन अथवा काव्य में बंद वैविष्य प्रस्तुत करने की इष्टि से इसका प्रयोग किया हो । पंच वाडव बरित रा इसका का परिचय इस प्रकार : त्यों का प्रयोग किया गया है। व्यणि क्रम से छदों में १६+६+१३ )का चरणाकुल, फिर १- मरा राइ माया व देवि प्रा०० का० संग्रह। Page #1045 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२) वस्तु, वनि २ में मिश्रबंध में (विपदी चौपाई) व्वणि (१-५) में देशी सोरठा तथा दोहा, चौपाई, रोला वस्तु व्वणि ६ में विषम चरण चौपाई तथा सोरठ्ठा (अ) सोरठा (ब) सोरा ११६ 1 समचरण में दोहा तथा अन्त में गेयता के लिए पकार का प्रथम देवी सवैया की ४ कड़िया फिर दोहा के समचरण में ४ चरण तथा १ हरिगीतिका । इसमें देशी ढाल (३२८-३२५, ३४२, १४९, ३५६-३६३ में (१५ + १३) मात्राएं मिलती है। यह बाल सरस्वती चवल नाम से है तथा भरतेश्वर बाहुबली रास में पद १४४, ४६, ४८, ५० और ५२ में तथा जयवेवर के त्रिभुवन दीपक प्रबंध में सरस्वती कल के नाम से मिलती है। उब ि७ मैं (१३+११) का देशी खोरठा मिलवाई। जिसमें प की आवृत्ति है। सोरठा की यह देवी रेवंतगिरि राहु में भी प्रयुक्त की गई है।" इससे १२८८ से पूर्व मी स्पष्ट होता है कि देशी छंदों कीयहदेशी विक्रम २० प्रसिद्ध थी। यही सोरठा की देशी डाल मरारा प्रयुक्त होती है। (१३७७) में भी वाडव चरित राम की ७वीं व्वपि में यह छंद प्रयुक्त हुआ है। यह छेद दौड़ा का बिल्कुल उल्टा है तथा (११ + १३) मात्राओं का होता है। प्राकृत मिंगल में बोटुका बाग जं दोहा विवरीय जिम पत्र जमक reate nars कि इसके लक्ष्य दिए है। बसोरठा से साम्य रखता है। एक उदाहरण देखिए मह मूरति णि अविष्य की तू मोटी मुकानि तुम्ह सम तुम्हार डई बराड़ ह (११) (te पाडव चरित रा इस राय की पि ९ में प्रत्येक १६ मात्राओं की बौपाई है तथा १० से १५ क रोहा चौपाई और मस्तु का संयोग है। १- समरार डी - माया स्व देखिए प्रा०यू० का संग्रह । पी० १८.०३५४ प्राचिन ३० २८१-८०१ Page #1046 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (10- हरिगीतिका यह छंद पंच पान्डब चरित रामु व्यभि ५ के १८-४१, ३५१, तथा १५५ में प्रयुक्त हुना है।प्राकृत पिंगल में इस मात्रावृत्त के लवण दिए हुए है।' उसके अनुसार इसके प्रत्येक पब में २८ मात्राएं तथा इसका ( N++++++4+दो मात्रा) २८ मात्राओं का मात्र विज्ञान है मह ईद केवल पंच पान्डव चरित रास और सोपजर की रमा बरतरगच्छ पट्टावली में ही मिलता है- उदाहरण तुरक पायक सायक सरियां मुड चर्म हि फोडई सरा मज मानिई रथ स्व रब ना पनी तुरम सि पुरये रथ मांडणी इस प्रकार इसमें ११ १२ पर यति तथा अन्य (5) नमन आवश्यक है इसकी गति प्रत्येक चरण की नीं, वी, १९वीं या सी मात्रामों को लघु रखने से ठीक रहती है। या पात्राओं का दवथा प्रयुक्त देशी वों में मौलिक है।यह व विध देशी वा उपलबन्दीतियों में मेलवनमावि विरशिकी किनोदय हरि विवाद- नाम का मिलता है। इस गव्य में कड़ी) मा (४-१८) पाबाइकमा (-४) मा में लिपी गई है।पा के बर बस्तु (८ ,११,११,१८,, प्रवक्ता हुवा है। बाबा सबो पल्टी बार इसी दिने प्रल हुमा या समकालीन मकैन समामी की उपलब्ध नहीं होता। ग्वार देखि पाहवाइ बहीणि गाडि धारक कम वर परिणय कार १- दैशिषः प्राज -m बाबाओरिन्टकीरीज सी०१८ यही माटा-पु. १० Page #1047 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ इम मतिय ललिय सुंदरी गायई महर बार मीम हरिपरि (२४) (ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह) तरल तुरंगनि चडिया लाट्नु मागम वंतिय दान दिवड च कोल्हूय गणवरित समरिमर जिम सरस करि कालिन कुमर । (२६) (पे०जे० का० सं०) इस प्रकार इस छेद में चार चरण होते हैं तथा यह गेयता इसका प्रधान लवण है। इस छंद के सम्बन्ध में अधिक जानकारी उपलब्ध नहीं होती। (१५) का रास की मति फागु काव्य इतना प्रचलित हुआ कि का नाम से स्वतंत्र काव्य फागु छेद में प्रणीत किए जाने हो का छेद जंबू स्वामी फागु में, रंग सागर नैमि का (बैंड १ कड़ी ७-१४, २७-२१ २७-३०, खंड २ कड़ी ६-९, १५-१९,१५०२६, २८-३० व ३६-३७) में रोड बड़ी ६-० १३, १६-१७ २४०३९ वा २४ कड़ियों में प्रयुक्त हुआ है। रश्दी से लेकर व मादी तक का वैकमनेक कृतियां प्राप्त हुई है। वस्तुतः काय एक प्रकार का छंद विशेष ही हो गया है। कवि ने इसमें दोडा साथ मात्रा बंध करके मित्र प्रयोग के इको फाइछेद बनाया है। इस प्रकार की साक्यतरसूरि भी मिलती है। उदाहरण देखिए fare पानी का रंग कारण बाली पत बारका वाला ढोरमय नवरंग चंदा फाली मा डेढई मारि अपर उप टाईगर तिरे मोलि कनक क्याट कम गार्षिक मय होस् उपरि उपरि अविचल चाट (वायर नेमिका) Page #1048 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९९ इस प्रकार अनुप्रास शैली मैफागु छेद प्रयुक्त हुआ है। फागु छंदों में लिखी जाने वाली अनेक काम संज्ञक कृतियां जंदूस्वामी फागु, नेमिनाथ फागु, रावणि पार्श्वनाथ फाट, परतेश्वर चक्रवर्ती फागु, नारीनिरास फागु, वसंतफागु स्थूलभद्र फागु आदि अनेक है।' वस्तुतः गेय तालवृत्त के रूप में यह देवी बंध खूब प्रयुक्त हुआ है। वर्णिक वृत्त र्मिक वृत्तों का प्रतिनिधित्व करने वाली रचनाएं त्रिभुवन दीपक, प्रबंध, रंगसागरनेमिका तथा विराट पर्व है। इनमें विराट पर्व (चालिसूरि द्वारा विरचित सं० १४७८) में खूब वर्मिक वृत्तों का प्रयोग हुआ है। त्रिभुवन दीपक प्रबंध art रंगसागर नेमिफागु में १ या २ ही वर्षिक वृत्त प्रयुक्त हुए | सम्पूर्ण काम fareed afle geतों का प्रयोग मिलता है। जिनमें कवि ने मिश्र वर्मिक कृत का भी प्रयोग किया है। ये वर्मिक वृत्त इस प्रकार प्रत्येक भाग प्रयुक्त हुए है: 發 ५५ भाग २ स्वागता भाग १ रथोधता भाग १ उपनादि भाग १ इन्द्रका भाग १ भा aafeet माग १ इवविलंबित माग १ माहिनी नाम र free a भाग २ १ भाग २ ३ भाग १ १ भाग २० पाम १ १८ भाग २ २ भाग २ ३ भाग १ १०१ १- प्राचीन काडा० पोमोठा वाडेवरा * 1 ३४ २ १९ ८२ ** १८३ वाद रिट वीज, बी० १८ ० ३५०६४ तथा ८-१ Page #1049 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मित्र वर्षिक छेदों में भी कवि का मौलिक प्रयासम्टव्य है। इन मिश्र छंदों का विश्लेषक इस प्रकार यिा जा सकता है:प्रथम रोषक्तियों अन्तिम दो पंक्तियों मेंप्रथम भाग..पद ४८ रथोधता इन्द्रबत्रा . रथोड्या स्वामवा ot रथोता स्वामना द्वितीय भाग १४ रथोड्या स्वागना २० रथोड्या स्वागता म रथोद्धा स्वागता १८ स्वागता रथोद्धमा ६६ मोदषया स्वामवा सिवितावित स्वायना इस कति में सबसे प्रमुख दि स्वागता है। इन वर्षिक छंदों के अतिरिक्त जिनदत्त चउपद में नाराज और बईध माराम स्था उपेन्द्र बना और अशुचिताविनंती में ( . सब इनिविलंबित सथा रंगसाभर नैमिका में अटप, विक्रीडित (बड़ी ) आदि प्रयुक्त है। शास्त्रीय दृष्टि से इन दो का पाल किमिझायों में किया है। अब यही इन दो पर विजन को विस्तार देना नवित है। निशिष्टि प्रामा डिम्धी नि बिराटी केली कृषि, वो सबका प्रतिनियि ती मी मनोमाने उच्चारण करने गौरशियन र मेने कारण किबो कठिनाई उपस्थित १. बही - 1 Page #1050 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हो जाती है। रचनाओं का इस दृष्टि मेधाविक महत्व है। मात्रिक वर्ष और बाल का असर इस कृति द्वारा स्पष्ट होता है। बार्षिक कुत्तों का बंध गणों से होता है तथा उसमें मात्राओं की गिनीजी नहीं होकर अवरों की गिनती की जाती है। वस्तुतः जैन रमानों में सबसे अधिक महत्वपूर्ण योग इन बर्षिक स्तों का न होकर माणिक इत्तों अथवा बालवृत्तों का 1 देशी रागों के आधार पर इन वाल्मृत्वों की बोडमोड़ करके लिखने वाले आविकालीन जैन कवियों का देवी गली रोंगों तथा तालवृत्तों में ही अधिक योगदान है। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि उन्होनि मात्रिक बबई का प्रयोग ही नहीं किया। विराट पर्व इसत्य की पूर्ण पुष्टि करता है। मासिक वृत्तों का प्रतिनिधि जैन काव्यविराट पर्व है। कुछ विभिन्न विभिन्न रचनाओं में प्रयुक्त वर्षों के उदाहरण देखिए( लिपि बदन चंद महारस से वाडि अमीम पहनी रसना बडि पवन वनगंधहरावा मनि वारि बाद बबइ दिसि बात The lastpotatisthat the stanzas.netobaernetheast Syllabtotomotetre. In thissensertheat Prosodio metrical form is a reeted by the difference in the length and shortness of the rowelpromanslation treatheritten tomand the distance that came into being between the sun and the written staan. Even Xatre structure eame to be contaminated a hai. which came to be based on heard son,tormed and did not poss the taotnems in writing. This oftest la found aven in saromanshumaayllabiometresentirely. Thieis due to . great gap that came into being between the actually amonMadhosogrameertbed. The traawaription was always.34161012metandinionly.pragatiavalue. The poem was meant for inging and that was the dominating Idea. The importance of VRAT PARTA" as a long poem in syllabic Patran and sarents ..0.8. CXVIII - page 11-12. Page #1051 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १००१ टलवलइ जिम निर्जलि माछिको बलबला बलि मि बली कली माह कालावर बाला विरहि विश्वल बाबर वाग्लन (जीयो०एस० २९, १ इसके लाव है. वर्ष १२, प्र. प्र(t. २ ०र०) (७) मालिनी निरुपम मावाठी अपनी विनमाली बाबिकुल गुगबल्ली का पुषाल भल्ली करपा पररापी मानवी भईन वापी म मिारी तोड़ मेधारी इसके तान-(मनम,बसवय मालिनी भोगि होका:) (पाति पधकारी मिति म वासी रही बाह उत्सम नारि नासी किना न बाकि कल व बाजड अलवा र वाडि बाथ ) (१९) वर्मत जिला बबराट रत्तर परबई कमलाबास मोगाने शाहि कर भीर मारह पाच पाय गिरमे भाव ॥ Air-( स लका त... अगोन) (10) पोशा -स्यामा - वर्ण १४ (6. भ.ज. गु.) बार विराति बापडी पीईपीसीकहा बावाहिक मेटा Page #1052 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसके लक्षणहै. वर्ष ११.प्र. (र०न. रल.गु.) (माराच भाषा rasनिंदा पुरकर बागइन काइ बोला वी सावल धीर यह नितु बाइ करिकर बध काल सम्म लाग्यो दान मागि वीर पवारिवि दीनी मातीवि इमल कर बाग ४) इसके साप है। वर्ष प्र. () ( बर्दध नाराब ईसा मनी बा बइमी का पलाय मोडी आगर देखा पैरवत कतगत नाह माया पर भारी सर कहा कसा करायर ठी रोवालि मान्नु पादेड मराट' इन वोतिरिक्व इन्द्रबत्रा, उपेन्द्र बना शाईफिीडित, मौक्तिकदाम, अनुष्टुप लोक, सरस्वती थबल आदि वनवृत्त प्रयुक्त हुए हैं। प्रमुख संदों के उदाहरण दे दिए गए है। -रामोंटीमा उनका विकास करने वाली पात्वपूर्ण दिया मात्रिक और बालों में अनेक व ऐकि इन जैन कवियों ने अपनाया या अनेक देशी बों को रायों के आधार पर रखा गया है। देखी दों के विकास का यह प्रयास द्वारा परम मा मा पाइन बों में मेवा होने से विकिमा समावेश होखा संगीत प्रत्यकी परिपुष्टि होने के कारण इस away का मीट की मोषदाम या गीत की रोध में विष पीनी मिलोसमीकमीठों की लियों में अनेकरामों - - - -am- TE- वित्त चउबई जैन शेष संस्थान, जयपुर में संग्रहीत प्रति। Page #1053 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में देशी द लिखे गए है ताकि जन समाज संगीत तत्व के आधार पर रचनाओं में प्रस्तुत किए साहित्य दर्शन और आध्यात्मज्ञान में प्रवृत्त हो सके। इन जैन कवियों ने यो को अनेक रामों में पुष्ट क्यिा है अक्षा देशी संवों के विकास में महत्वपूर्ण योग देने वाली कृतियां नम: त्रिभुबमदीपक प्रबन्ध, रंगसागर नेमिफागु, सरवर गच्छ पट्टावली तथा विद्याविलास पवाडी है। मात्रामेल और अपर मेलों के प्रकार, उनकी परंपरा, बहिवा, गणव्यवस्था, लघु गुरु विवेक आवृत्त संधि, प्रारमेल वृत्त, मात्रामेल जाति छदों : तथा देशी ईदों पर विस्तृत प्रकार श्री रामनारायण विश्वनाथ पाठक ने अपने एंद विषयक वृहत अन्च किया है। सप्रन्ध लेखक ने गेंदों का वैज्ञानिक विश्लेषण किया है। मानावृत्त और माल बों की परंपरा और उनके विदयमान संगीत का एंवों में उपयोग, को के विष उनकी मात्रा तथा गणों की व्यवस्था का वैज्ञानिक विश्लेषण किया है। उदाहरणार्थ वा और स्वर का ब न लेखक पदों में देखिए “मा रीते बाल तत्व संगीत मा प्रवेश पामी संगीत ना स्वरों ने कालमा मा बिकरे कोई पराग मा मवाना गीतमा संगीना स्वरो होय टाईज नही, मानो हरेक स्वर अमुक मामाधी प्रयोगायलो दोष हे मानो हरेक स्थर सभाबा वी प्रयोगको अने रामनी प्राकृति भारी स्वर बने र स्वरनी का नाम पदी निवड लेखक माविकालीन मार लल्लों की गय योजना भी अपने ही ढेम गे। पित .- Nag. r माव रामनारायण पाका M ETी बिना रामनाराम पाठक,.mu Page #1054 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१) बीचक कंद की अवर योजनाਰਨ ਤਾਰਨ ਸਨ १००५ (२) वोटक्छंद की अवर योजनाmohr Bohr moht aahr (३) माराय है की अक्षर योजना गर लग लगा कर लगेर उमेर लगेर र (४) फूलवा छेद की अवर योजना १- वही, पृ० ११२३ के नही, पू० ११३ ४- देवि-प्राचीन मराठी इन विया का ६० बी० ३०* वहीं ०४ ८ नहीं ० -१ १- वही, - ਨਾਲ ਨ ਲ ਨ ਸੇਨਨ ਅਨ ਰਸ ਗਤ * इसी प्रकार इन छेदों का भी पाठक ने वैज्ञानिक विश्लेषण किया है। छंदों के एक दूसरे मालोचनात्मक ग्रन्थ में श्री पाठक ने मात्रा बंदों का स्वरूप : मंत्र के para बन्धों में प्रयुक्त यों का विश्लेम, देशी छेदों का स्वरूप, उनकी परम्परा ८, बीमाई, रोला, सबैमा तथा अन्य छेदों की परम्परा और विष प्रस्तुत किया है। इस आलेचनात्मक ग्रन्थ ने देवी दों के इतिहास में अपूर्व योग दिया है। अक्षर संख्या देवीदों का स्वरूप स्पष्ट करते हुए श्री पाठक ने अनेक महत्वपूर्ण बाय पर प्रकाश डाला है। देवी ढाल गरमी पदकभादि की सामान्य सी में १३-१००/ PPR ३१ १- वही पृ० ११३ ४- वही, पृ० ११३ श्री राकारका विश्वनाथ पाठकः प्रकाशक दावा १९४८। Page #1055 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १००६ देशी छेदों का स्वरूप स्पष्ट किया है। देवी मंदों के साथ संगीत का अटूट संबंध है। संगीत रत्नाकर मैं भी देवी की परिपामा स्पष्ट की है।' रूंदों के इन देवी समन्वित है- "अही प्रन्धाकार स्वरूपों में संगीत बाल और राम का विधान संगीना मार्ग अने देवी बेवा मे प्रकारो कहे मार्ग ने नहीं गान्धर्व पण कहल देवे रामने आये आधारे तेते देशमा स्ढ भयेला गीतो नी गढ़ियों के गस्तो । राग तरंगिनी मार्ग संगीनोटले देशीओ ए देना विषय नथी- 1 राजस्थान में आज भी ये देशी व विविध रूपों में प्रचलित है। १ देवी वेदों का स्वरूप समझने में अनेक प्रकार की रागों का विधान भी किया गया है। इन रागों में गीत लय ताल आदि काआयोजन किया गया है। यह देशी छेदों का डीप्रभाव है कि आधुनिक काल में गीतों को जन्म मिला है। अतः देशी शब्द इस प्रकार है निश्चित रागों में छा जाना छन्दवाचक शब्द है।' इन देवियों में निश्चित रागों का विधान है। जैन कवियों ने दोड़ा, सवैया, १- (अ) दे दे जाना यहमादयरंजकम मार्ग व वाय नदेवीत्यभिधीयते -संगीत रत्नाकर पु० ६-७ (ब) मत्त वामुमेय कारेण रचितवाचित देवी रागादि प्रोक्तमान रंजनम् (वढी प्रथम नाम चतुर्थ प्रबंध ०७१ बघा २० देखि प्राचीन गुजराती संद: श्री रामनारायण विश्वनाथ पाठक १० २००१ ३- देवी शब्द का रोते अमुक तरेड मी नवादा अमुक छंद नो वाचक है विल यो वदनी तेम व मात्र संगीनोद पर नथी । एक बीबी रोते पण देवीबो स्वस्य विदुष धाय है। कड़ना बहुत प्रबंधों जोता जगावे के घणावरी कढ़वाना प्रारंभ मी अन राम में नाम को होय है तिमा केदारो गोटी रामरमा बाउरी, धात्री, देशा मल्हारस बोरे विष्ट संगीत मा के रागी हो art a safe कही गयो म विष्ट संगीत भी नहि जाणीवा जेवा सामरी देवी मामी व आमा विष्ट संगीतना रामो छवी पण बंधा आपण गुजराती कविता मी की अमुक नियत डावध स्वरावली की दो रचना है। विष्ट संगीतमा म एकगीत एकना जनोपयों गावो हो हो पण तैमा फेर पड़े।एक ज राम मने वाला माता ज्ञान पल्ट्रा वगैर मी मवैया ने अनेक प्रकारनी स्वरावली लावानी हक्क है।पट व नानी नयी स्वी लावामा जी मी कुलता सूची बने सर्जकता रहेली होय आपना प्रथीना कढवा आवी री मानवी बाळा दान पल्टा में स्थान मधी न कहिए तो वाले वो अमुक कार की रुढि पचतिर ज मजाकी के एमव्यति मे बरी राग साथै अनुसंधान के जो पई माई के था गीतों मी जे अनवस्था जोवा, क्यान र देवी ने पदराम सावे अनुसंधान पण महि होय, कदाच एमी राम पारसना मे जावश्यक मीच स्वरोपण नहीं रह्या # बोलावी हो । । वही ग्रन्थ पू० २०३ । हवा तेना आवेला Page #1056 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउपाइ सब की देशी डाले बनाली थीं, जिनकी सूचना विविध ढालों मिलती है। जैन रामों में हों और चरपई की देवी का प्रयोग हुभा है। इन देशी चों की मात्रा व मों का स्वर्गीय भूव में महत्वपूर्ण विश्लेषण किया है।' इस प्रकार इन देशी दो के विम्य का सभ्य अध्ययन किया जा सकता है। वस्तुतः इन अंगीत प्रधान बाल तथा पानिक गुत्तों की विधि रागों और बालों का परिचय इस प्रकार है: "विन दीपक प्रबंध: इस रचना में अनेक मालिकों का प्रणयन हुआ हैराणों के आधार पर देशी दो का प्रयोग इस रचना की सबसे की विशेषता है। इसमें बालवृत्तों में परि चरपाकुल, मरहट्ट, इलि क्या गीतिक प्रयुक्त हुए है। इन दों के अतिरिक्त सरस्वती पउल कावट महार और कोल या व्यवदों को प्रयोग लिया वस्तु बच रना में सर्वत्र परिलक्षित होता है। वस्तु छद को रवि ने राग पहारी तथा उपइ था पद हैदों को मित्रबंध करके प्रयुक्त किया है। रसागर में शिव बस (४,५,४०, ter, ५१, १७, २०, ४१५), वि यार.. ... ...m. १५-11, 4-10, 11 Ra.. . ana-m01-04 -11), यि १ , ५५ , १०५, Am, m-te mom, st-t4, ९८-१०२, १४४-, m, ११-०८, ate m. am-106१८६-१९, ४.t-10). शिव सरस्वती (m-mRe-m, -10) आदि अनेक बों का प्रयोग समाँ म कवि ने विभिन्न देशी यो यारी (11) मारी(m) mक, पुपरी -40 गादि रामों को प्रयुक्त किया है। उदाहरणार्थ एक मामारी राम का बल प्रयोग देखिए। - बी. Page #1057 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिन राणीमुनि राधी हि यइ बालमि लं बिहू अन सामिणी सोमवयानि गुगरयषि रिद्धिय बाइदिधाई नि दुष्टवैवि पुनहि किधिय उड अधिक सह मी करि बम्हणी पसार गवि संपूरिय मोरडी बलि देकार (त्रिदी०प्र०पद .) बलारा गरी ते मगह ए कीसी बीन हो जावर सवि मिलीप ते उले गया सो प्रवचन नगरीय मन रतीय पुरंग पावलि अरि बरिया प के धरिया ने सि रहमा भालसि देय अपरिपच्या अब माईकाईम मि कीजा रापर ते सविनडया किरि किरि मा फार प्यार पुरका रीस-रेलिहि लिया मढमढ मंदिर वावि वाडी बेगि पाडी चल्लिया ( बिप्रबंध पु.) इन रागों के अतिरिक्त कवि ने देवी दालों का प्रयोग भी किया है। इन बालों में माणिक प्रथा पाठिी बाह (१८-) का प्रयोग मायामिक का एक उदाहरण वैदिक मायक्ट्रक डिमाबगर बरंग पर करियाईदिय तुरंग कवि कप महारथ वैमि बैग सामान पायक वन (4) या पाfesी डा . और बाद बबन वापि, बाबमा मामि पहपी समीर लिलाम गरीर (1) Page #1058 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १००९ (२३) फाट्ट कवि ने काबर छंद का मौलिक प्रयोग किया है। यह तालवृत्त य है। रचनाकार ने इसका प्रयोग (३५४-२५८) कड़ियों में किया है पाटू साडी कापड़ा अनs नवरंग घाट प जन् मामिति एमनित उचाट टीजर जड पोसs हुई पोकळं दैवह हाथि तर ही गढ दे करी, लागा भरडा साथ (२५४-२५५) कावट छंद अन्य कवियों में उपलब्ध नहीं होता । (२४) दुपद फावट के अतिरिक्त एक प्रसिद्ध बंद हृषद या ध्रुपद मिलता है ध्रुपद राम प्रसिद्ध है। कवि ने इसी राम के नाम से अनेक कड़ियों में प्रयुक्त छेद को वि हृपद के नाम सेप्रयुक्त किया है। त्रिभुवन दीपक प्रबन्ध में यह पद (९-४६, ४८-५४ ५६-३१, १०६-१२८ २३४-२३९, २४८-२५३, ३१८-३२८, ३३९-३५७, ४०४१४१४ तथा ३१८ से ४३२) कड़ियों में प्रयुक्त किया है । रचना में सबसे प्रमुख छंद यही है। यों बचाई, दोडा, धम्मय, तथा वस्तु छंद का भी बहुत प्रयोग किया है। इस कृति में प्रयुक्त इम छंदों में कवि ने और सरस्वती क के अन्तर्गत देवी चौपाई का प्रयोग किया है। हिव काव्य के अन्तर्गत उपजाति द मिलता है। पचर में उपेन्द्र का और इजा सम्मिलित है। लाकार श्री जयदेवररि ने संस्कृत के प्रकांड विद्वान होने से भर मेल वर्षिक इत्तों का गामातों के साथ सकल प्रयोग किया है। इस प्रकार राम और बालों के आधार पर कवि ने देशी छेदों के साथ साथ aff geal का भी व निर्वाह किया है। त्रिभुवन दीपक प्रबंध द वैविध क्या रामों और डालों में विविधय प्रस्तुत क्या है। :- रेमसागर नै विकाश-: (वा) इस रक्षा को कवि ने बीन डों में लिहा है।तीनों में का विलयम इस प्रकार है: Page #1059 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०१० खेड १० रासक स्थिति- (३-४, १६-१७, २१-२४, ३२-३३ ) आंदोल- (५-६, १८-१९, २५-२६, ३४-३५ ) काय (७-१४ २०-२१, २७-३०, ३६) पालविक्रीडित (1) $8-1 (TE#- (3-1, 27-13, 37-13, 13-33), árato, urgsfest fau, फागु, तथा अगा छंदों का प्रयोग है। - मैं भी लगभग यहीं छन्द है। इस भाका कवि ने नूतनन्द प्रयुक्त किया है। जिसको कवि ने सवैया की देवी ढाल हवारा पुष्ट किया है। (२५) गोल जैन कृतियों में रंगसागर निकाय में एक महत्वपूर्ण चंद दो प्रयुक्त हुआ है। दो की स्थिति इस कृति में मौलिक है। एक उद्धरण दृष्टव्य है कोइति विरवयणी, मदिरामनवमी माटकि मरठी प, वनिवनि बहरी प पैमाण पतंग का काल मुंग चंपक दीप कूप, वनचर दीव क जाने किरि मधुकर सेमिम तेह सिरि बीपी (रंगसागरनेमिका) (1) TET छंद में कवि ने नया संद माता मयुक्त किया है तथा इसी में सवैया का है विधा निबंध किया है। एक उद्धरण देखिए बावनी वसूली रे उपरि चकमवेरो रे मानिक मोदी की रे मोवन पाटे सुंदर रे उपरिहरनिधापि गाडी पनि आढो रे वा गनिमय बोर्डर मोती धाव रे । इसमें सवैया की ही डाल इस छेद की पहली कड़ी में प्रयुक्त किया है। Page #1060 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुप्रासान चरण को भी कवि ने निवास है। (10) अढाइया अटेवा के ऊपर कवि ने Aft+) मात्रा का प्रयोग किया है। बैगा अति नूनन मौलिक ईद है। एक उदाहरण जिसमें पुरानी देशी का प्रयोग है देखिए: बन बंड मंडन अबंड बढो बली मलयानील पीडित जलउक्ली रक्ली चतुर दुबारित। विलसतई सवि अलेवनारि विम काजल भाति न धन देह बलि रिसीहरि नारित इस प्रकार रंगसागर मेमिका एक महत्वपूर्ण एंव कृति है। दूसरे शब्द साथ में नई पस्ति का एक चरण अनुप्रया बुक्स बना है। वोनों विषम चरण है अब कवि का पूरा मौलिक है।इस रचना में अक्षर बस गळविक्रीडित है तथा पथ साथ में संस्कृत के अंगों का भी प्रयोग है जिसमें संस्कृत के ही है। विद्याबिलास पवाडी: देखी बोका विभिन्न रामों सारा प्रचार व प्रयास कर पीसोका अपयन प्रस्तुत करने वाली विद्या विकास पवाको एक उत्कृष्ट हिन्दी जैन बना है। मिल्दा बिमाविलास पवाको ने देखी था रामों के विकास में एक नया अध्याय मोड़ा परिचयाक्ति th(a) विविध सी - योगा गोपाई और दो का देवी स्वम मिलता है। सवैया देसी गबह व पवाका मा बागका प्रबन्ध में इस सवैया का देशी कि tea मास देशी स्वरूप को पवाड़ा का है। विभिन्न रामो र म रमादेवी था लोक प्रचलित हैदों का विवि कार - मी- सवैया की देसी डाक मात्रा (+ ) Page #1061 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२-२७ दोडा मात्रा ( १३+११ ) २८ वस्तु 39-30 ३८-९५ ९६-११३ बस्तु, दोहा तथा चौपाई। दोहा और चौपाई मालवी गृह तथा पवाडु के विभिन्न प (१३) मात्रा अन्त में रमन और ए का प्रयोग। प का प्रयोग ही इसे देवी राम देश में गाये जाने के लिए परिवर्तित कर देता है। राग दूहों की देशी, के का प्रयोग विषमपदीत १२३-१४१ राम रामगिरि की चरपद, वस्तु। १४-१५४ सवैया कीदेवी राम भीम पलासी १५६-११२ हिव बधाननाम डाल राग देवा सवैया की देवी १६३-१८३ राग बसंत में सवैया की देवी। १८४-१८९ राम बसंत (काल) देशी ढालों में अपूर्व वैविध्य । १९०-२३९ चप प्रत्येक पद में १५ मात्रायें। एक मात्रा कम । दोहा- राम मालवी बस्तु राम सुंठ में गाये जाने वाला एक गीत परन्तु वह (१३ । ११) मात्रा के दूहे का ही रहता है। वि विवानर डाल। यह डाक प्रथम पाद की आवृति १४ १४ मात्राओं के संयोग और हर १४ मात्रा में अन्द्र में के प्रयोग से निर्मित होती है। ११४-११२ २०६-२८० 367-290 १०१२ १९८-२३३ ३४-३८४ राग देवान की मैया की देशी प्रयुक्त है।जयदेव के गीत गोविन्द मैं इस प्रकार की मिल जाती है। या १४+१३) मात्राओं का राग भीमपलासी में गया बाने वाला पवाड़ा। वस्तु, हिव बधामणानर ढाल, राम देवान, इस पद के (३+१३) मात्राओं के सार है भी गाया जाता है। Page #1062 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८५-४४० पबाइ, राम बसंत में मात्रा Om tv गाये जाने के लिए राम बसंड में माये जाने वाला पद, डाल बीवाल की है क्या जिसमें मात्राओं का कम (x + ४) है। यद्यपि देशी संवों में रागों का विधान सबवेव से ही मिलता है परन्तु पुरानी हिन्दी की कृतियों में इसकी परम्परा बीच में कमजोर हो गई थी।इथर इन प्राचीन राजस्थानी अथवा सूनी गुजराती में इन देशी दो का कवियों में खूब प्रयोग म्या तथा इनकी परंपरा अव्याहत बनी रही। रामों का प्रयोग करके कवि ने इनकी दो का प्रयोम पूर्ण शास्त्रीयकर दिया है। निस्संदेड इन कृतियों 4 और मीत बोनौका माल समन्यव है। गैब और सरस होने मेरे देवियाँ सूब म प्रचलित रहीं। वस्तुतः विड्या क्लिास पवाडो का मात्रा विधान 'बत्त महत्व का है उसका विद्वानों ने विश्लेषण किया है। यह रचना आदिकालीन रचनाओं के देशी यों के विकास की प्रतिनिधि रचना जिसमें लोक संगी। और शास्त्रीय संगीत का अच्छा समन्वय हुआ है। संगीत गस्न की दृष्टि से भी इन रागों का योगदान स्पष्ट है। विद्याकिास अवार्डों में प्रयुक्त लोक संगीत से पूर्ण देशी रागों और दो के कुछ उदाहरण पर्याप्त होमे: 1. The detailed analysis of the matrical forms used in this poen 10 of great importance 10 pointing how at the basis there wer! *Matrat metres which became losse as the musical consideration began to enter Its for. The syllables of one *Matra or two Matrast 814 mot main regidly go and where lanthened out or shortened recording to the musical or singing roquira. mante, Bron the Pada' has originally at the basis the well Inow Yatra' metro forms. The m281cal syllables are added and then the poetie normations were composed by taking Dhal! and Deals thout any consideration of Matrat metre basis. 1 these matters concerning the changes of matrical forms through APARAIBA, a. to . Akhayan de poons and Path' aroorat smportance-5-0..ScxVIII page1. Page #1063 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०११ हिवउपह मालवी गह ७) कागड़ दिपिदिगि सिरि बन्लरी मप पाउनेउरी दोदो दिनी विविल रसात घुमर्ष पूर्वण पर धमकार रिमिकिमि रिमिकिमि किमिम कुसाल, कररि कररि करिषट पटताल परर मरर सिरि रिसाद पायडीर आलवी उनाव (१.५) (२) रामपy निषि भरि सोहम सुन्दरी रे जोई बालम बाट नींद म बाबा मयमले रे बिना सरल उचाट मुनि सानी लक्षविलास, बलि वाम विद्या विकास ममा विम पड़ीय मास, प्रधु परिलमन की बार इम वि प्रिय विक बोलावली मीही समापी बडी रे चैन नेवी काल दावामा जिप दीवारे कमल नित्या करवा सुणि मन मुगाबहरे माने विश बरपति बीसवार मोहन प्रिय मि बाप कति णि ७) राम रामगिरि इस बिलवंती ज्या व पनि बोर मिल अपूर बोमा मह पढ पोलिणार किन काफी महता बार मिनीवास पालि का बकाल नयर बार ई गई न लागी पार ||१४|| र नामपि मोडी पनि बधावी म सजन बढ़ावीउ ५ बरकम मिडावीर प (1) Page #1064 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५) (६) १०१५ भीम पलासी गयवर गुड़िया रथ बारबरिया सुडे लीया सनाढ माही माई बाई काटकवाes रुचि प्रवाह । ११४९ । । विद्या० मारि महरि कहती इक उठई कंपाविर करवाल रोसि बडिया राउत कई जिमजेता विकराल | ११५० || विद्या० हिव बधामणान डालराग देवा ।। कोणी नगरी ती वरनारी है रंग घरे वि उलट जावई मापनि मनि मोतीय थाल मरेवि उनी पुरि सोडिला सार ।।१५६|| aft मलिया प लोक अपार वियाविलास बधावीइ च माहीन िजस अवतार जिनि बगि नाम रहाविर में सुरजes के जय जय जयकार पीडित ||१५||कणी ॥ इसी प्रकार अनेक रागें और भी है उदाहरणार्थ पवाड (सवैया की देवी, कपड air दोहा होता कादेवी प्रयुक्त हुई है। इस प्रकार विमाविलास पवाडी देवीदों का रामों से समन्वय प्रस्तुत करने वाली सबसे महत्वपूर्ण कुटि है। : सरसरन्छ कटावली : १५वीं बाद में छेदों के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण अंतिम कृति सोमकुंजर कृत ग्रन्थ सररमच्छ पट्टावली है। रचना में इरपक पद के ऊपर इरिमीतिका औरों के विकास में बरगच्छ पट्टावली का भी महत्वपूर्ण योग है।रामों को माध्यम बनाकर कवि में विविध देवी छेदों का अनुक्रम किया है: प्रथम की धवल राम धन धन दिन शाल, पातक नाका, त्रिभुवन सुरबरं गगहर वसमत व बार गंगाजल निरम ममिले महगड | ॥१॥ Page #1065 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवयर स्वामी गुरु अनुक्रमि चिट दिसे चंद्रकुल पउपट जाणिए ए চণ্ড ব্যথায় গরি সাত রং গচ্চ শাসি।' रवना के पदों का ऐच प्रथा राग विश्लेषण इस प्रकार है:कही ११ राग देशका . चौपाई, राग देशाय की छाया। - राम राजवलम, अवैवा की देखी। ६-२३ सोरता का एक पद, शव पद साथ तथा राग यात्री २४-२५ राग न्यासी पाली अव का महत्वपूर्ण प्रयोग वामिया मिरिवाहि मन जैन मैकमहीधरो मणि माहि गियर बेभसुरमणि जेम प्रगति विनयरी प्रिम देव दानव माहि गरुक गयए अमरेसरो तिम मर्यल पE मा गम्भउ राजगच्छ सुखरतरो।' पद बाले पोका योग हन्टब्धयाहिए या प्रयोग किया गया है।गीस और के समय करकार का प्रयोग इन्टव्य है। गापिया विहित विरोगविर बसुन र पाटि सिंगार पुीि पिंड विवादिकरो इमिगी रोमिव भी जिनमरि पुरो माहेली बातम मे को इन पदों की बात मधुर बमा थि : पाळी मार देवरि पुरानर श्री जिलबलपूरे मासी पण प्रापबमविष बन भमति उगति पूरे - mamm षिणालित न गम्बरा बगरकन्द नाइटा. पृ. ४॥ Page #1066 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माडली एबीहतपे जाइहि दोहा दुरिय दालिद दुइ सयल दूरे माहेली ए बीड तबइ मंदिर विकसद संपति सय वरसु भरि पूरो।।' उक्त रवनावों में प्रयुक्त मात्रिक और वर्षिक वृत्तों में कुछ प्रमुख ॐदी का विश्लेषण किया गया है। जैन रचनाओं में ही नहीं बत्कालीन आदिकालीन अजैन रचनागों में बीजलदेव रायो, श्रीधर व्यास रचित रवमल छंद, असाइत विरचित ईसाउली, भीम विरवित सवयवत्स बरित था बसत मिलास का (शाब कवि कुड) मनासकृत कान्हड़ के प्रबंध, या बदल पश्वी राज राहो, जैव जैन अजैन अनेक ग्रन्थों में प्रयुक्त बों के साथ तुलना करने पर यह स्पष्ट होता है कि इन संदों में से कुछ मेवदेशी दो को छोड़कर व लगभग सभी छंदों की परंपरा चारकी ली की जैन तथा अन्य क्रीन कृतियों में मिल जाती है। इनमें मावा और बस्तु सबसे प्रमुख बाबा (बायी) और वस्तु की परंपरा प्रा बार का पुरविन कही। कषियों के बों से इन उक्त बजैन कृतियोंकी बुल्ला करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि येकनि गा गा कर विविध रागों नारा विकिन देशी मित्र बंधों का प्रयोग करते थे। देवी बंधी की पुष्टि इन कवियों की प्रमुख विशेषता है। इसके अतिरिक्त भी बरी, चामर आदि अनेक देवी मेध किक मारे। बोच माने पर और कौकि IPS IT नामयावधि उपलब्ध रमानों को प्रमुख बब उनमें का परिचय दिया गया १-बही . (1) The Matra Tratta waleh la next la importance to the Gatha both in point of antiquity and popularity is the Matre which I have fully described at Apaburansa metre I para 28. This notre is of course . petrely prakrit and Apbhransa metre and wae vidently used for struy religions, didactic or lyric poetry Doha is a similarly & purely Apburanaa metre but it i.. tal Vrutta se I have shown above and bes been employed since very old days both for lyric and narrativo poetry. of the remaining Prakrit and Ap. metres whieh I have des eribed in my hartioles, a vast majority are Matra vrattas, while comparatively & tew are Tala Vrattas. (Pाबासी) और बाा चिर प्रचलित होने से इनका विस्तार Page #1067 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०१८ आदिकालीन हिन्दी जैन रचनाओं में प्रयुक्त विविध शास्त्रीय व देशी मित्रच बाल वृत्त या मात्रावृत्त और वर्ष का अध्ययन शोध का विषय मात्रिक और देशी ताल वृत्तों के मूल में गायक चारणों का भी महत्वपूर्ण बोग रहा होगा। क्योंकि वे भी विभिन्न रागों में देशी छेदों को गामा कर रक्ता किया करते थे। अतः इसका प्रचार वारणी वेली के जैन अजैन काव्यों द्वारा खूब हुआ। मामा और वाल वृत्तों में यद्यपि पर्याप्त समानता है परन्तु फिर भी कि अन्तर है। इस सूक्ष्म अन्तर का गण, यति, तथा अन्य शास्त्रीय तत्वों का विश्लेषण करने के लिए इन रचनाओं के विविध छंदों से बड़ी सहायता मिलती है। असम और एक बहुत महत्वपूर्ण बात इन छंदों के विषय में है इनका परवर्ती कालों पर प्रभाव में प्रभाव दो रूपों में मिलते हैं: १- काव्य पद्धति में तथा २- पद्धति में १- काव्य पद्धतियों में दोडा पड़पति, दोहा- चौपाई पद्धति, छप्पय-पद्धति तथा पद और गीति पद्धतियां है। २- पति - वर्षिक और मात्रिक दोनों प्रकार के आ जाते है।इन दोनों पद्धतियों का प्रभाव परवर्ती हिन्दी काल afrate, रीतिकाल तथा यहाँ तक कि आधुनिक काल तक देखा जा सकता है। इन पद्धतियों और छंदों के प्रयोग के लिए परंपरा के उद्गम का श्रेय अपश 1. A person with a trained ear can easily distinguish between a fals Tratta and a Matra Vratta merely by singing them. The nature of the particular Tala can also be similarly know. I have said above that the matra Vrattas owe their origin and dovlopment of the 11terate bards, but this need not be too strietly understood, the more cultu. ed and less gifted among the popular bards too may have substantially helped in this direction. Page #1068 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०१९ को तथा उसके उत्तर काल को है। गाथा, दोहा, बस्तु, चौपाई आदि से निर्मित जिन विविध काव्य wir का परवर्तीकाल की काव्यपद्धतियों पर प्रभाव पड़ा है उनमेंदोडा पद्धति सबसे है। मध्यकालीन कवियों में कबीर, तुलसी, जायसी, केशय, बिहारी, मविराम, घनानंद, रहीम आदि कवियों ने इसका प्रयोग किया है। दोडा sters का प्रयोग तुलसी और जामसी ने गीत तथा पद षषति का विद्यापति • मिला। निराला और प्रसाद की तुलसी मीरा तथा सूर ने सपय पद्धति का प्रयोग बंद, भूषण आदि ने वीर काव्यों में तथा पादाकुलक, हरिमीत, भुजग प्रयात ताटंक, छप्पय, रोला, दोहा, सोरठा आदि छेदों का प्रयोग संत और मक्त कवियों में मिल जाता है। कविताओं के अन्त में कवि का नाम लिखने की प्रणाली भी इसी काव्य का प्रभाव। देवी छंदों में ए का प्रयोग का प्रयोग परिवर्ती रास तथा का काव्यों में मिलता है। मैय काव्यों में उत्तर अपभ्रंश के छंदों के ये लक्षण सर्वत्र परिक्षित हो जाते हैं। इस तरह अपभ्रंशके से छंद परवर्ती हिन्दी साहित्य रचना मैं प्रयुक्त छंद - चौपाई, सवैया, धमाक्षरी, कुन्डलियां बादि-प्रबन्ध काव्यों के लिए निश्चित कर लिए गए तथा दोहा मुक्तक और प्रबंध दोनों के लिए प्रयुक्त हुआ | दोहा से प्रमीत मुक्तक को after पर यह प्रभाव देखा जा सकता है बीमों का इनसे प्रभावित है उत्तर की लोकगीति क्या पद परंपरा मीरा के गीर्यो में उनामित है। दोहा कोड के गीतों की परम्परा, महाप्रान कवीर, गोरख, सूरदास, तुलसी, वडू मानक नादि के पदों में सुरक्षित है। के ग्रन्थ स्वयं की रामायण की रैली का इलसी के रामायय पर पूर्व प्रभाव है। सारे दूर साहित्य में अपभ्रंथ के यदों का है। कोष की छाया दीनदयाल की कुण्डलियों में ज्यों की त्यों देवी जा सकती है। हिन्दी के परवर्ती काव्यों- हमर रातो और है। इसी प्रकार की मौत पचति महादेवी, प्रसाद, वंद तथा निराका आधुनिक लगभग भी कवियों में मिलती है। वेदों की देवी लोक परंपराएं प्राकृत अपभ्रंश की गाथा छंद जान चरित में देखा जा सकता Page #1069 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आधुनिक काल के कवियों में उत्तर अपक्ष से ज्यों की त्यों प्रहल की है। इस प्रकार पुरानी हिन्दी की इन आदिकालीन इतियों का परवर्ती हिन्दी साहित्य के तीनों कालौं- भक्तिकाल रीतिकाल तथा आधुनिक काल की काव्य पद्धतियों तथा दो में पुरे पूरे मों में देखा जा सकता है। निष्कर्षतः वे बड़े महत्व के इन कृतियों का छंद विस्यक अध्ययन स्वतंत्र शोध की अपेक्षा रखता है। Page #1070 --------------------------------------------------------------------------  Page #1071 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२१ - - - - - - - उपहार भाविकालीन हिन्दी जैन साहित्य के परिशीलन से जो तथ्य हमारे सामने प्रमुख म के भाई निम्नलिखिi. जैन कलियों के अध्ययन की अपेक्षा: इस निबन्ध के प्रथम अध्याय में यह प्रकट हुना होगा कि आदिकालीन हिन्दी साहित्य में जैन कृतियों का बाहुल्य होये हुए भी हिन्दी विद्वानों और साहित्य के इतिहासकारों द्वारा उसकी कितनी उपेक्षा हुई है। इस दिशा में जो कुछ कार्य पुबा है वह गुजराती और 3 राजस्थानी विद्वानों द्वारा ही किया गया है। आवश्यकता इस बात की है कि हिन्दी के विद्वान और इतिहासकार माविकालीम हिन्दी जैन साहित्य का परिशीलन करें और आदिकालीन हिन्दी साहित्य विकास में बैन कृतियों का जो योग है, उसका यथेष्ट स नियण करें। प्रस्तुत प्रबन्ध इसी उद्देश्य से समस्त प्राण प्रकाशित और अप्रकाशित सामग्री को लेते हुए लिया गया है। इम और समान की इस नि बरे गम्यायामामा होगा किन धर्म को पर्याप्त राम्या प्राप्त था। साथ ही देश की बत्कालीन सामाजिक राम्नतिक बास्कृतिक और आर्थिक स्थिति बहुल अच्छी नहीं होने पर भी जैन कवि नगर नबर प्रान ग्राम मधूमकर उपदेश को रो और काव्य रचना करते है क्या रावस्थान और गुजराब के डारी रखमा किस प्रकार सुरक्षित रह सकीं। सह विधान मि मिचीवरे अध्याय में यह स्पष्ट हो गया होगा कि कवियों और कर्मन के श विधानों के प्रचार के लिए सरस न्यायों और कामालक कड़ियों का नाणार लिया है इस तरह भाविकालीन हिन्दी मालियन के मूड सिधान्तों का वर्णन करते हुए भी सरस काव्य कोटि Page #1072 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२२ (४) जयमंत्र का जैन साहित्यः प्रस्तुत निर्बंध के अपत्र जैन साहित्य विषयक चतुर्थ अध्याय से ज्ञात होगा कि पुरानी हिन्दी की साहित्यतथा भाषाविषयक पृष्ठ भूमि को समझने के लिए अपत्र की जैन रचनाओं का भी अध्ययन आवश्यक है। जैन के साहित्य के अध्ययन से हमें भाविकालीन हिन्दी जैन साहित्य तथा तर लौकिक के साहित्य के सम्यक अध्ययन में प्रचुर सहायता मिलती है। (५) आदिकालीन हिन्दी नेवर (लौकिक) साहित्य: आदिकालीन तर हिन्दी साहित्य से जिसका एक संक्षिप्त अध्ययन प्रस्तुत निबंध के पाचवे अध्याय में किया गया है। इससे जैन रचनाओं की भाषा, मान, कला तथा वस्तु विन्यास की सहज तुलना की जा सकती है। इस विना अध्ययन से यह भी ज्ञात हुआ होगा कि ईसाउली, कान्दे प्रबंध, भवन् विलास फा, ढोला मारूत दोहा, रणमल छन्द, स्वयवत्स वरित आदि अनेक कृतियों ऐसी हैं, जो काव्य की दृष्टि से अत्यन्त उत्कृष्ट है और जिनका यथेष्टअध्ययन हिन्दी के विद्वानों द्वारा अभी तक नहीं किया गया है और न जिन्हें हिन्दी साहित्य के इतिहास में उचित स्थान मिला है। (s) काव्य पर्वपरा आदिकालीन हिन्दी जैन साहित्य के अध्ययन से, जो कि इस प्रबन्ध के अध्याय ६, ७, ८ तथा ९ में प्रस्तुत किया गया है। वह मती मावि ज्ञान हुआ डोगा कि यह साहित्य काव्यों के कहा जा सकता है कि काव्य का इति साहित्य में अन्य है, वरन किसी भी आधुनिक भारतीय भाषा के आदि के ग्राम में नहीं मिलता है। का है। सामान्य में रखकर ही में अत्यन्त समृद्ध है। बल्कि य ज्ञाना वैविध्य न केवल हिन्दी के हिन्दी में-काव्य का विस्तृत अध्ययन बिल्कुल नहीं हो काव्य स्मों का परिचय विदुवानों ने काव्य भेद को इष्टि है। अतः प्रायः प्रबन्ध काव्य, सडकाव्य, मुक्तक आदि ही काव्य Page #1073 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्यों के मेद समय गए है। परन्तु आदिकालीन जैन रमाओं में काव्य रूपों की विशिष्ट परंपराए मिलती है। ये काव्य मद प्रधान प्रधान और विषय प्रधान दोनों ही प्रकार के है। इनमें एक ही काव्य म को सम्पन्न बनाने वाली कृतियां बहुत अच्छी संख्या में उपलब्ध हो जाती है। वास्तव में इन्ही जैन कृतियों के काव्य मों का प्रभाव हिन्दी साहित्य के परवर्तीकाल की काल की काव्य कृत्रियों और काव्यधाराओं पर अबेष्ट परिमाप में पड़ा है। इनमें प्रमुख काव्य प राम, काज, पपई, चर्चरी, प्रबन्ध, चरित, पवाड़ा, 'विवाहला, संधि, कक्क मातृका, तलहरा, बावनी समाय, गीत,स्तवन , कुलक, कलाबादि मिल जाते हैं। जिनका अध्ययन और भी विस्तार के साथ किया जासकता है। () या परंपराएं और क्या कृतियाँ: माविकालीम हिन्दी जैन साहित्य का इस दृष्टि में अध्ययन करने पर जो कि प्रत निबन्ध के अध्याय में किया गया है, ज्ञान होता है कि यह साहित्य इन दोनों विक्यों । अत्यन्त सम्पन्न है और इन विषयों में हिन्दी साहित्य की किसी भी धारा आदिकालीन हिन्दी साहित्य की यह धारा टक्कर ले सकती है। to-माविकालीन हिन्दी साहित्य में प्रय प्रस्तुत निबंध के अध्ययन का मा होगा कि आदिकालीन जैन हिन्दी कृतियों के दो का विशेष शिव है। इस प्रतियों के मात्रा और वाला दो प्रकार के वार्षिक का प्रयोग इन हिन्दी बैन कवियों में बहुत कम किया मग है। बालों और बाकि इत्तों में मीड और देशी दातों के माधार पर कुछ पौकियों का निर्माण किया है। विभिन्न मामा मातों की कुछ परियो मार से एक बनाने लिए इस साहित्य के जनबादी कवियों ने उनमें विकिन रामौकामावर नवेदों की इन्टि भी की है और माहिती सन्द मीमी अपना महत्वपूर्ण स्थान रखडे है। इन स्वनाओं प्रा और बम के परंपारितों के निवानि साथ बालिक देवी का प्रणयन शि है। Page #1074 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२४ प्रस्तुत बचना के बाद इस प्रबन्ध में तीन महत्व पूर्ण परिशिष्ट रहे गए हैं। प्रथम परिशिष्ट में जादिकालीन हिन्दी जैन साहित्य की प्रतियों में प्रयुक्त कुछ अवर और अंकों के चित्र दिए गए हैं। इन अक्षरों से जैनियों की तत्कालीन प्रतियों की feeree का सामान्य ज्ञान प्राप्त हो सकेगा। साथ ही कुछ महत्वपूर्ण प्रतियों के fer परिचय सहित दे दिए गए है जिनसे प्रतियों की प्राचीनता को समझ जा सकती है और जैम प्रतियों में प्रयुक्त अक्षरों, अंकों और विशेष चिन्हों को देशा जा सकता है। ये प्रतियां विभिन्न भंडारों की है। दूसरा परिशिष्ट जैन और जैनेसर गद्य तथा पद्म की इस्ततिक्षित प्रतियों की सूची का हैजिससे यह स्पष्ट होगा कि ये कृतिका काव्य रूपों में कितना अधिक वैविध्य लिए हैं क्या संख्या में कितनी विशाल है। तीसरा परिशिष्ट संदर्भ ग्रन्थों की सूची तथा विभिन्न जैन भंडारों की नामावली का है जिनसे अजैन एवं जैन साहित्य पर आगे कार्य हो सकने में सहायता मिलेगी। इस तरह पूरा प्रबन्ध तीन भागों में विभक्त कर दिया गया है। प्रथम बाग में प्रथम पान अध्याय है। द्वितीय भाग में काव्य रूपों के विस्तृत विश्लेषण वाले ६, ७, ८ और १ अध्याय है। अन्तिम अथवा तृतीय भाग में अन्याय १०, ११ तथा १२ है। जिनमें कथा परंपराओं और प्रयुक्त छंदों का मौलिक विवेचन निषित है। इन विभिन्न अध्यायों के बध्याय द्वारा शोध की अनेक विज्ञानों की ओर संकेत किया जा सकता है। (९) शोध की नई विधार्थ उपर्युक्त अध्ययन के आधार पर संबंधित अनेक कई दिशाओंों की ओर इंगि किया जा सकता है। पुरानी हिन्दी का उदभव और विकास वादिकालीन हिन्दी tent की ET, हिन्दी के अधिकाल के रास, का प्रवन्ध, परित काव्य, मुरुक्क काव्य, शृंगारिक सडकाव्य तथा इन रचनाओं का वैज्ञानिक रूप में सम्पादन शोध के नवीन है, जिन पर कार्य किया जाना परम आवश्यक है। साथ ही बा के साथ साथ कालीन हिन्दी जैन सावि पर भी शोध का कार्य डोना वेवित है। Page #1075 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२५ प्रस्तुत अध्ययन की सीमाओं के अन्तर्गत भी फलतः यह आसानी से देखा जा सकता हैकि आदिकालीन हिन्दी जैन साहित्य का योग हिन्दी साहित्य के इतिहास में असाधारण है। यह और भी पूर्व और व्यवस्थित अध्ययन की अपेक्षा करता है और किसी भी दृष्टि से ऐसा नहीं है कि इसकी उपेक्षा की जा सके। वस्तुतः यह हिन्दी के ज्वलंत भूत का एक अत्यन्त उपयोगी अंश है, जो जैम महात्माओं, श्रेष्ठियों और उदार व्यक्तियों के प्रयास से सुरक्षित रह सका है और यह उस भाशा की एक उज्जवल किरण है जो हिन्दी सेवियों को भादिकालीन हिन्दी साहित्य के जैतिर अंशों की बोज और परिशीलन के लिए साहस प्रदान करती है। (१०) हिन्दी साहित्य को इन कृतियों की देन प्रस्तुत अध्ययन से कम स निदुर्ग पर महुंचते हैं कि आदि कालीम हिन्दी जैन कृतियों में हिन्दी साहित्य के प्रत्येक काल की काव्यधारजनों को प्रभावित किया है। प्रेमाख्यानक काव्य, भक्ति काव्य निर्गुण काव्य तथा साहित्य की विविध काव्य धारानों और काव्य रूपों को इन रचनाओंों ने प्रभावित किया है। साथ ही कला पथ के विविध तत्वों द, अलंकार, प्रकृति किम, रस आदि इष्टियों से पी इन कृतियों की हिन्दी साहित्य को विशेष देन है। वस्तुतः areerata on pfतयों में विशेष काव्य यों में हुआ है वह अपने में पर्याप्त वैविध्य और जीव तत्वों का समावेद लिए हुए है। साथ ही इनरचनाओं में देवी भाषाओं की मिठास पोटी है। निक्कतः क्या काव्य और क्या मढ़य पर्व विविध काव्य आदि सभी में इन कृतियों ने हिन्दी साहित्य का भंडार मरा है। वास्तव में हिन्दी साहित्यको श्रीवृदिध करने में इन रचनाओं का अपना नूठा योग है। इस प्रकार इन रचनाओं को ब्लुशीलन से आविकाल की जैन कृतियों की after का शुमान लगाया जा सकता है। अद्यावधि अजमेर, मामोर, बिल्ली, मेरठ, बहस, सहारनपुर, अम्बाला त्या लवंड मध्यप्रदेश, पर्व भारत के ही नामी प्रदेशों के भंडारों की चम्यक् शोध होने पर हिन्दी जैन रचनाओं की सम्पन्नता में और श्रीवृद्धि हो सकेगी बभी राजस्थान Page #1076 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केही अनेक जैन अम पंडार बंद पडे उनके चलने पर एवं उनकी कमियों की शोष होने पर आदिकाल सम्बन्धी अनेक नवे तथ्य और ज्ञातव्य और स्पष्ट हो / -- --:.. ::- --