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संग्रह भी दिया है।
विवेचन :- फिर भी कृति में कई पुरानी हिन्दी की रचनाओं को मंत्र की कहकर उनका विश्लेषण कियागया है। जिस पर प्रस्तुतप्रबन्ध में आगे विचार किया गया है। फिर भी डा० नामवर सिंह की यह कृति एक स्वतंत्र विचार धारा को पुष्ट करने वाली महत्वपूर्ण रचना है जिसमें अपत्र भाषा और साहित्य को सपने में विशेष estaar मिलती है।
(१८) सूर पूर्व ब्रज भाषा और उसका साहित्य
आदिकाल के सम्बन्ध में अभी शाल ही में यह शोध प्रबन्ध डा० शिवप्रताद सिंह ने प्रकाशित किया है। यह कृति हिन्दी प्रचार पुस्तकालय वाराणसी से अक्टूबर, १९५८ में प्रकाशित हुई है। डा० हजारीप्रसाद द्विवेदी के निर्देशन में हुए इस शोध कार्यने भाविका के जैनेतर ग्रन्थों का मूल्यांकन प्रस्तुत किया है। पूरा प्रबन्ध १९ अध्यायों में विभक्त है। सूर पूर्व ब्रजभाषा में उपलब्ध साहित्य के भाषा वैज्ञानिक तथा साहित्यिक दोनों पक्षों पर लेखक ने पर्याप्त शानिक रूप में विचार किया है तथा संक्रांतिकालीन ब्रज भाषा, अ भाषा का रिक्थ ब्रजभाषा का उद्गम, ब्रजभाषा का निर्माण- भौतिक परिनिष्ठित तक तथा हिन्दीवर प्रान्तों के कवियों आदि का परिचय प्रयास शोधपूर्ण एवं वैज्ञानिक है। निस्संदेह डा० शिव प्रसाद सिंह का यह कार्य पूर्ण मनोयोग से सम्पन्न हुआ है।
विवेचनः परन्तु फिर भी रक्षा में कुछ प्रश्न अभी विचार विमर्ष की अपेक्षा रखते है। वास्तव में लेवक पर वीरसैनी अप इतनी अधिक छा गई है कि उसे इत्कालीन देवी भाषाओं से उसके सम्बन्ध का और उसमें प्राप्त तत्कालीन साहित्य का बहुत कम स्मरण रहा है। डा० सिंह अपने में है कि - "हम गुलेरी जी की तरह बाद की अप की पुरानी हिन्दी में भी कहें तो भी इतना तो मानना ही पड़ेगा कि पुरानी हिन्दी या व भाषा के स्वरूप में सहायक भाविक तत्वों के अन्वेषण के लिए सही बाद की ही महत्वपूर्ण है। इस बाद की अपने में भी सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण कृतियों में होती है जोनी के निजी क्षेत्र में किसी गई हो। अभयवह इस तरह की और इस काल की कोईप्रामाधिक कृति से देश में