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लिखी गई हो प्राप्त नहीं होती। मुसलमानों के निरन्तर आक्रमण से ध्वस्त मध्यदेश में हस्तलेखों की सुरक्षा का कोई प्रयत्न नहीं हुआ। महादेव की अपभ्रंश भाषा सारे भारत की पाका बनी, किन्तु मध्यदेश में क्या लिखा गया इसका कुछ भी पता नहीं चलता।
(१) डा० सिंह के इन 'वचारों में पर्याप्त असंगति है। वास्तव में ST० लिंक शौरसेनी अपभ्रंश का सबसे ज्यादा नैकटु ब्रज भाषा का ही समझते हैं। यो नागर तथा रसैनी अपभ्रंश से हिन्दी, गुजराती, राजस्थानी व्रज पंजाबी, आदि की उत्पत्ति की बात पर भी उन्होंने विचार किया होता तो उन्हें मदेश में मिलने वाली सूर पूर्व जैन अजैन सैकड़ों कृति पलब्ध होती । परन्तु इस दृष्टिकोण में CTO सिंह संकुचित रह गए हैं। अतः आदिकालीन लौकिक और धार्मिक दोनों प्रकार की रचनाओं STO सिंह स्वयं वंचित रह गए हैं।
(२) इसके अतिरिक्त ऐसा भी लगता है कि उन्होंने मध्यदेश की सीमाओं मैं माचीन राजस्थानी के जनपद का स्थान नहीं दिया है जो एक बहुत विशाल हिन्दी भाषी प्रदेश है। राजस्थानी को मध्यदेश से बाहर निकालना हिन्दी कीनींद को हिलाना होगा | अतः डा० सिंह यदि राजस्थान के प्राचीन भंडारों की शोध करते अथवा जूनी गुजराती की आदिकालीन सं० १००० से १५०० तक की कृतियों का परीक्षण करते तो उन्हें अभाग्यवश इस तरह की वीर इस काल की कोई प्रामामिक कृति जो मध्यदेव में लिखी गई हो, प्राप्त नहींहोती- ऐसा नहीं लिखना पड़ता। क्योंकि गुजरात और राजस्थान के अनेक राजकीय (अन) और जैन पंडारों में हजारों की संख्या में सूर पूर्व का साहित्य मिल सकता था। यह बात दूसरी है कि वह जब भाषा का न हो परन्तु ret की सोच होने पर सम्भव है कि उन्हें माया की इन कृतियों से भी प्राचीन मौर कोई कृति मिल सकती और उनसे मध्यदेश के स्थित भंडारों के Sarfe की प्राचीनता का अनुमान हो सकता।
१- दूर पूर्व ब्रज भाषा और उसका साहित्य: ० ४१, डा० शिवप्रसाद सिंह, हिन्दी प्रचार पुस्तकालय, बारावती- १९५८।