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चर्चरी
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काव्य
द प्रधान रचनाओं का अध्ययन प्रस्तुत करते समय वर्वी संज्ञक रचनाओं की नहीं मुलाया जा सकता। चर्चरी शब्द इतना अधिक प्रयुक्त हुआ है कि प्राचीन काल से लेकर अमाधि इसके विभिन्न अर्थ तथा रूप देखने को मिल जाते है। वर्ची नाम से अभिहित की गई रचनाओं का साहित्यिक मूल्यांकन करते समय वर्वरी शब्द के विभिन्न अर्थ, उसके उद्भव और विकास पर प्रकाश डालना भी आवश्यक प्रतीत होता है। सच तो यह है कि पर्याप्त प्राचीन काल से वर्चरी शब्द इतना प्रसिद्ध और लोकप्रिय हुआ कि विभिन्न कालों में इसके विभिन्न अर्थ होने लगे और इस प्रकार अकेली बरी जद कई अर्थों का योतक बना रहा। वस्तुतः यह चर्चरी शब्द ही इतना अधिक सरस प्रतीत होता है कि इस पर चिंतन करते समय मस्तिष्क में इसके अनेक अर्थ स्पष्ट होते है। यह शब्द ऐतिहासिक होने के साथ साथ सास्कृतिक और अनुभूति प्रधान साहित्यिक शब्द है और इसीलिए इसका सम्यक विश्लेषण चर्चरी शब्द की परम्परा के विशेष प्रकाश में किया जा सकता है।
संस्कृत, प्राकृत अपज और हिन्दी के कोन ग्रन्थों में भी बर्बरी शब्द के विभिन्न अर्थ मिलते है कुछ में एक साम्य मिलता है तो कुछ में पर्याप्त भवाम्य स्थिति इस शब्द के लिए मतैक्य वाली नहीं है।वास्तव में इस शब्द की परम्परा का इसके विकास के लिए विश्लेषण मावश्यक प्रतीत होता है। इस सम्बन्ध क्योंकि
चच्चरी, चर्चरी, चर्चरिका बाजार, वायरिका जादि शब्द एक ही साथ प्रयुक्त हुए
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मिलते हैं अतः चच्चरी शक का सम्यक् परिवीन कला और अधिक आवश्यक है। विभिन्न प्रमाणों के आधार पर वर्चरिका शब्द का विश्लेकन आगे किया जायगा । चर्जरी का जो प्राचीनतम उल्लेख है, उसी से बर्चरी का उद्दभव स्पष्ट हो सकता है का प्राचीन प्राचीनतम उल्लेख हरिभद्रसूरि की प्राकृत कार्डवरी नामक समराइब्ब कहा (स्मरादित्यकथा) में मिलता है।उसमें सर्वरी विषयक चार उल्लेख उपलब्ध हुए है उसमें उनका अर्थ यह स्पष्ट होता है कि गायकों की टोली