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प्रकार का चरित काव्य है जिसमें कथा व गीत संगीत को महत्व दिया जाता है। ये काव्य वीर, सामाजिक अंगारिक से प्रेमादि किसी भी प्रकार के आख्यानक
से सम्बन्धित हो सकते है।राजस्थान में कई स्थान पर पवाड़े पड) गाने वाले काव्य के नाक आदि का एक विस्तृत चित्रपट मी साथ में लेकर उनके विविध लिया कलापों का प्रदर्शन करते हुए गाते है। अतः प्रेणात्मक बीर गाथाओं के साथ साथ लोक आख्यानक व सामाजिक क्था वस्तु भी पवाड़ो में सवाभाविक रूप में मिल जाती है। वास्तव में ये काव्य वीरों की प्रशस्तियां, विवानों का मामध्य वर्णन, गुण कौशल आदि का काव्यात्मक वर्णन करते है। मराठी ज्ञानेश्वरी में पवाड़ा काव्यों का सम्बन्ध सामईयवान व्यक्ति के साथ जोड़ा गया है। १५वीं बताइव में विरचित त्रिभुवन दीपक • प्रबन्ध में भी पवाडा बब्ब तीन बार मिल जाता है। नागदमण मे पवाडो पनगासिरं जड़पति कीनो जाग में कृष्ण के नाग इमन की क्था को ही पवाड़ा का रूप दिया गया है।
इस प्रकार परवर्ती काल मे पवाड़ा एक शैली विशेष और काव्य रुप विशेष ही हो गए। काव्य की शैली के अनुसार उसमें प्रधानतया च पाई बंद होता है और बीच बीच में पर्याप्त संख्या में दोहे तथा अन्य छव होउसमें विभिन्न रागों में गाये जाने वाले अनेक पद हों क्या जिसमें सर्ग विभाजन या विभाष सूचक बाद मेंवे काव्य रचना जैली की दृष्टि पवाड़ा कहे वा बने है। बानस से अमन में तो छंद का नाम ही पवा मिलता है।'
की परम्परा स्वम्प उदभव तथा शिल्प आदि पर विचार
करने पर यह कहा जा सकता है कि हिन्दी साहित्यमसबसे अधिक प्राचीन पवाडा
संज्ञक रचना १५वीं बतादी की विमा विकास पवाडी ही है। आविकालीन कृतियों
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१- त्रिभुवन दीपक प्रध-कालयद माधी. (क) पुत्र पवाड़ा सम्मकी बादिया मरना (4) भाषण कहर केला कि आगति
पवाडा (8) यह पहिचहाड वाचडिय प्रवाई पर। - पुर्वर रासायी-माना