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________________ २३२ के वर्णन मिलते हैं, साथ ही श्रेष्ठि श्रावक व दानवीर पुरुषों के ऊपर यथा वस्तु पाल, तेजपाल, पेधड़, समरसिंह तथा तीर्थों आदि के नामोभी अनेक कथा प्रधान Te रखे गए जिनका विश्लेषण आगे के पृष्ठों में किया जायगा । वस्तुतः कवि इस कथा सत्य को विविध छंदों में बाधकर अर्थात् मासाबंधन रूप देकर जनता के समकक्ष रहने लगे। अपभ्रंशेतर इन रासों में छंदोपस विविधता के साथ साथ रामानंध के कारण मास या रासा* आगे चलकर एक छंद ही हो गया । पतदर्थ यह कहा जा सकता है कि क्योंकि हर एक रास में गए तत्व व रसमय तत्वों की प्रधानता रहती थी और इस गेय तत्व ने जब अनवरत वृद्धि पाई तो यह समस्त रास ग्रंथ एक रास छंद के लिए ही रुद्र हो गए हो। कालान्तर में यह रासा छेद इतना प्रचलित हुआ कितत्कालीन लोक काव्य में ही इसका समावेश हो गया। वस्तुतः १२वीं शताब्दी से १५वीं शाब्दी तक में मिलने वाले इस विशाल जैन रास साहित्य के शिल्प उसकी मुख्य प्रवृत्तियों, विशेषताओं और उसके विकास की कड़ियों का अध्ययन विभिन्न दृष्टियों से किया जा सकताहै: १- संगीत व नृत्य कला की दृष्टि से २. छंदों की दृष्टि से । ३- निक्य की दृष्टि से ४- साहित्यिक क्यों की दृष्टि ५० धर्म की दृष्टि है। संगीत और रा (१) संगीत व नृत्य कला की दृष्टि से काम ar तक संगीत का प्रश्न है तक संगीत राजय विवेचन में हमने यह की है। अनेक का एक प्रधान तत्व था। संस्कृत काल और प में संगीत तत्व ही प्रवान हो गया था । इसके प्रधान परियों और गीतियाँ गाई है, बादमी के कवियों ने जो संगीत की उत्कृष्टता से रात का प्रचार करने व हारने हुई थी। एक बावश्यक बात यह भी है "दास को रासा छेद बनाने के भी संभवतः
SR No.010028
Book TitleAadikal ka Hindi Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarishankar Sharma
PublisherHarishankar Sharma
Publication Year
Total Pages1076
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size84 MB
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