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________________ ३५८ (घ) खेलने के अतिरिक्त नृत्य का भी आयोजन इसमें होता है। अतः खेलना और नाचना दोनों क्रियाएं फागु में होती है। बेला नाचई' से तात्पर्य क्रीडा करने और नृत्य करने का है। 1 (3०) यह उन्माद पूर्ण उल्लसित महोत्सव का प्रतीक है जिसमें उन्मत्त होने या प्रमाद पूर्ण हो जाने से अभिनेताओं को शरीर की भी सुध बुध नहीं रखती थी । उदाहरणार्थ सिरि धूलिम फागु मैं कवि ने लिखा है कि * मामकूफर माथिविम सिमसिम नाचते ।। (च) का काव्य के लिए मासविशेष का आयोजन है और फाल्गुन या चैत्र मैं वसन्तोत्सव पर ही यह बेला जाता है। (छ) वसन्तोत्सव या कंदर्प पूजा इसका प्रधान विषय है। बहुधा कई फाग मैं चैत्र या वसव का उल्लेख मिलता है। चैत्रमासि' से यह बात और भी स्पष्ट हो जाती है। (ज) जो रंगिहि शब्द कुछ फागों में मिलता है उससे तात्पर्य सम्भवतः मानव की आल्हादकारी मानसिक रंगीनियों से है अर्थात अत्यन्त उत्साह में डूबकर जो कार्य किया जाय औरउसमें उत्साह का वास्त्र उत्स प्रवाहित रहे । (4) इसमें क्रीड़ा करने वाले स्त्री पुरूष दोनों होते है। (a) अनंग पूजा और इन सब बातों से यह कहा जाता है कि कायु में एक प्रकार की जमिनम नियोजमा रहती है, और यह होता है। नैव काव्य क्यों को मीडिकाब्य और africa काव्यों को मीडिय कहा जाता है। अब इस टि से रास और का की फिल्मूत विशेषताएं मम समान ही ही दिखाई पड़ती है। संभवतः यह रास से और छोटा होता होना और इसका बिल्व राम से अधिक क्लात्मक एवं १- वही अन्य पृ० ४ २- प्राचीन ३- नही थ सब भी इसमें निहित रहते है। श्री डा० वाटेवरा पू० ४ पद ८।
SR No.010028
Book TitleAadikal ka Hindi Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarishankar Sharma
PublisherHarishankar Sharma
Publication Year
Total Pages1076
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size84 MB
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