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सकता है। वस्तुद जैन कवियों का प्रिय गंध रहा है।भाषा को देखते हुए रचना की प्राचीनता निधीत है। अपभ्रंश के पदों की अधिकता रचना को प्राचीन भाषाकृति कहलाने में सक्षम सिद्ध करती है। पूरी रचना में विविध बष्टान्तों मन्तर्कथानों, उत्तर प्रत्युत्तर शैली, क्यावत्व और प्रभव चोर मादि सभी की क्यायों आदि ने कृति को वर्जन की ठोस बातों को भी सरलता से प्रस्तुत कर जन लम बनाने में पर्याप्त योग दिया है।
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कवि है या
१वीं शताब्दी के उत्तराध में कवि ऐल्डू रचित एक छोटी ही रचना क्षेत्रपाल द्विपदिका उपलब्ध होती है। रचना का पाया में विपदियों में किसी हुई मिलती है। विपदी संज्ञक रचनाओं में यह अकेली रचना है। क्षेत्रपाल दिवपदिका कुछ ८ छंदों में समाप्त हुई है। विदियों में लिबी होने सेठी बहुत सम्भव कि कवि ने इसका नाम वा विपदिका र दिया हो। दिवपदी बंद विशेष भी हो सकता है क्योंकि कई हडियों मेंदों में पदों के नीचे विपी है। रा छन्द की कड़ियों को दे यह भी कहा जा है कि दो दो कड़ियों को एक साथ लिखने के कारण भी कवि में इसका नामकरण दिवयविका कर इस सम्बन्ध में अनुमान पर ही आधारित रहना पड़ता है। रचना
के
दिया हो।
जैन ग्रन्थान में सुरि
होता है वो ग्राम सेमावर होता है तथा यह
थानों के पैर को भी पाल कहते है राजस्थान में भाज
भाई कही है कि यदि कोई कार्य करने के लिग्राम छोड़कर बाहर
एक
क्षेत्र में पूजा जाता है।
भीम
: asure faufenा :