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स्टेन्थल इसे जनवादी कहते है विश्प पी चारणों द्वारा प्रणीतागिम गाथा को एक व्यक्ति की सम्पत्ति नहीं मानते समूह की उपज मानते है।रलेगल का इष्टिकोण सबसे अलग है वह गाथा की उत्पत्ति में व्यक्ति विशेष को उत्तरदायी ठहराता है। चाइन्ड गाथा के सर्व प्रथम निमान में व्यक्तिवाद को तो स्वीकार करता है परन्तु उसमें किसी व्यक्तित्व विशेष (परटीकुलर परसने लिटी) का अस्तित्व नहीं मानता।
इसमें सत्य क्या है यह तो नहीं कहा जा सकता परन्तु आलोचकों ने गाधा कीउत्पत्ति में लगभग सभी सिद्धान्तों का सहयोग बताया है। जैन साहित्य की प्राचीन प्रतियों में प्रयुक्त गाथा शब्द भी आख्यान तथा छन्द के ही सूचक है। १५वीं शताब्दी में उपलब्ध होने वाली अनेक रचनाओं में वो गाथा छन्द के लिए ही प्रयुक्त हुई है। गाथा शब्द के शिल्प और इस चिरप्राचीन आधार पर यह कहा जा सकता है कि गाथाओं में जिस मास्यान का संकेत है, वही परवीं काल में क्या परित काव्यों के मूल में रहा होगा।गाथा ने परवर्ती हिन्दी साहित्य को भी पर्याप्त स्म में प्रभावित किया है।मुक्तक साहित्य और गाथा सप्तरती की भावि हिन्दी में लिखे गए सवसईबन्ध इसके उदाहरण को ना सको है। अत: लोक साहित्य तथा शिष्ट साहित्य दोनों में माथा बब्व इसना अधिक प्रचलित था कि इस नाम से स्वत्र ग्रन्थ ही उपलब्ध होते है। लोक गाशा बडी बनप्रिय होती इनकी परंपरा भी अनुश्च विवध दी। साथ ही इसमें मेला, क्यालय, अलंकरम रक्षितता, पदों की पुनरावृत्ति मूलक टेक पद, स्थानीय रंगों में बराबोर, नीतिमूलकवा, उपदेश तथा प्रवाहपूर्ण ने काव्यों की माथाएं होती है जिनका रविता संवैव ही बात राता था। राजस्थानी या बराबी काव्यों मा वातानों में इस बरा के का अमित मामक या प्रेमाम्मान गा माल का प्रबन्ध, महेन्द्र-भूमल, मणिमा, साविारमादि सिमा यो उत्कृष्ट गाथाएं कहीं जा सकती
- दे वी साहित्यकोड ..४८ प्रकाशमान मंडल काशी, प्रधान सम्मान डा. धीरेन्द्र वर्मा।