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परन्तु कालान्तर में गाधा नाम से स्वतंत्र रचनाएं भी मिल जाती है इनके अध्यन में यह कहा जासकता है कि माथा पस्थ द विष ही बन गया है। बस्तुमा इस दृष्टि से माथा ऊंन्द की परम्परा पर विचार करना आवश्यक हो जाता है।
माया द चिर प्राचीन है रिनवेद में गाथा पद मा पर माने के लिए प्रत होता था। रिमोद में माथा और गाधिन'द मिल जाते है। गावित उस गाने वाले के लिए प्रयुक्त होता था। वैदिक संस्कृय के पश्चात प्रा में हार की माथा सप्तशती जैसी सुप्रसिद्ध रचनाएं मिल जाती है। बौद्ध साहित्य में भी को रममा ग्लोबध हो उसे गाथा कहा गया है।इसके पश्चात अपक्ष में माता शब्द या के लिए प्रयुक्त मिलता है। यह गाहा संस्कृत गाथा का ही स्वस है। गामा शब्द का प्रयुक्त भयो को देखने पर मह कहा जा art किया अब भनेक ज्यों में प्रमुखमा मिला। बौदों की बेरी माथाएं, ग्राहमण अन्यो मैं मी माझ्या अंगों के बीच में प्रयुक्त पय त्या लोकी को गाथा का यावा । वस्तुतः वैदिक संस्कृत के पाबाद गाथा प्राकृत का प्रमुख छन्द बन गया था वैविक काल में पी के पदबद्ध रखनार यो यम के समय गान सुनाई जाती थी, गाथा कसानीसार प्राचीनकाल रविवाकिसानों और पौराषिक पाण्यानों को माया बाबा भाव
" गाया और गाभा नारासी ग पिको।
र रामानोकायिका म्यन मले पर उसने माया अब सिप मो मान्य प्रायो। मुशार माणा को लोक गायिका या पान या मा होगी तमामा बा | माथा में बोवा, गौरमा की प्रान दोनों का होना बाकी होता है। पाथR ध में माओकों का महत्व नहीं
लाल मिानों के अनेक मा बल होते है उदारमा
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मायामोहरा बा इन्द्रागिय पविनोद