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यह कहा जा सकता है कि कृतियों में वैविध्य कवडल, पीलिकता और जीवट का समावेश करने के कारण ही ये परंपराए (cycus ) बन जाती रहती होगी। अथवा यह भी कह सकते है कि वर्षन बेली रचना प्रकार तथा छंद आदि की दृष्टि के भी कविगण जान बार बा को दूसरे बैंगसे रममा चाहते होग। अत: रचना श्रम तथा बर्षन पहतियों में मौलिता प्रस्तुत करने के विकार की इस यात्मक परंपराओं (eyenes ) का बिगुवन करावा । यह भी सम्भव है कि वैविजय के कारण इनकीकात्मकता कचिकर प्रतीत होती हो। मस्तु एक ही विषय पर जब अनेक रचना रखी जाती है, अथवा एकही था को जब विभिन्न विभिन्न रूपों में डाला जाता है वर्षमान, बस्तु संयोजन और क्या शिल्प में विविध परंपराओं (eyenes ) का जन्म हो जाता है।
माडिकाल की इन हिन्दी जैन कृत्रियों में अनेक बनाएं सीनिमें क्या एक, माक्क वही है, क्या वस्तु के विभिन्न तत्व भी बही है परन्तु रमकी बर्मन परंपरा (Cycles ) वैविध्य से परिपूर्ण है अतः ऐसी स्थिति
या में एक नियमितवा, परिवर्तन विविधता तथा मौलिकता का होमा भाववत की विषय पर या अनेक प्रकार के विभिन्न काव्य माया वा बन्य पारित न्याय मावि विनाओं की बाविया र मीना बना देखी स्थिति में क्या परंपरा (Acts )मवावी सम्टि इन कमियों की बाप (Cycles ) मध्यन करना पिकर या मावस्यक
मानियों की मगाम पर अनेक नामों बाही नकार matte
यह होता है कि उनमें नागरी
मारना का परन्तु इसके भून में जिन आवशाली लोग
पानी इन क्षियों की विभिन्न क्या पा (Acus | परंपरा (Yes की विका पर मनमो दिी जाने वाली रचनाओं और उनके निर्माण योग देती है।