________________
१४३
यह तात्पर्य निरंतर कथात्मक क्रम अथवा (CycLIC ) स्थिति से है।
·
अथवा अन्य कोई, परंपरा का सम्बन्ध कृति की कथात्मकता से सदैव रहता है। बिना किसी निश्चित परंपरा और क्रम के कोई भी रचना कथा का सम्यक विकास नहीं कर सकती। कथा के इस विषय में वर्ष की अनेक सूत्रों का अनेक घटनाओं का तथा अनेक कु का परिवईच करते हैं। अतः कथा तत्व के साथ इन निरन्तर परिवर्तित होने वाली कथा परम्पराओं (CYCLES ) से गहरा संबंध होता है। कथा तत्वों मैं विभिन्न परम्पराओं (CycLEs ) का यह क्रम हमें प्राकृत के कथा काव्यों से प्रारम्भ ठोकर पुरानी हिन्दी की अनेक रचनाओं में उपलब्ध हो जाता है। इस प्रकार ये परंपरा (CycLES ) कथात्मकता से गहरा सकती है।
यह भी बहुत सम्भव है कि किसी परिवर्तन विशेष के कारण ही इन परंपरा का fare हो जाता होगा अथवा वर्णन क्रम में वैविध्य प्रस्तुत करने के लिए ही विविध रूपों में इनमें कथा को बोला जाता होगा। अथवा यह घटनाओं में वैविध्य तथा मौलिकता प्रस्तुत करने के कारण बन जाती होगी।
भाविकालीन हिन्दी जैन साहित्य की इन रचनाओं का सिंहावलोकन करने पर हमें अनेकों कथाकृतियाँ मिल जाती है। जैन कवियों में अधिकतर वि मी काव्य लिये है उनमें अधिकार या काव्य है। इस काव्यों को या तो किसी drive या महम अथवा वका का क्या किसी धीरोदया नायक की कवियों ने अपना विषय बनाया है। वस्तुतः जिसमे काव्य उपलब्ध हुए है
का
उनमें कुछ ही काव्य ऐसे कहे जा सकते हैं कि जिनमें मतिमता अथवा मौलिकता हो । यो सामान्यतः अधिकार वनाओं का बस्तु निवय, विवेचन होता है। वन का यह क्रम भी किसी प्राचीन
are
sire
परंपरा को लेकर है पर इस परंपराओं के
अधिक योग नहीं
मलयानिमिति तथा विविधता से पूर्ण कथात्मक रानी में इन परंपरा (CycLES ) के विशेष पिके दर्शन होते हैं।
बन बाती है इसके सम्बन्ध में बहुत वृढ़ता से तो नहीं कहा जासकता वरन्तु
चाहे काव्य हो अथवा वरित प्रधान रचना
+