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में इन कृतियों का महत्व स्पष्ट हो जाता है।साथ ही कृतियों की संख्या और विश्य व काव्य स्मो का वैविध्य इनमें बहुत अधिक है।
चरित मूलक काव्यों का कोई विशिष्ट शिल्प नहीं है। शिल्प के इन लाक्षणिक तत्वों का अध्ययन करने पर हमें इन काव्यों की वर्णन पद्धति अर्थ गौरव क्था लाघव और काव्य के सौन्दर्य आदि पर विचार करने पर लगभग वही बातें मिलती है जिनका हमने अन्य संड काव्यों और प्रबन्ध काव्यों में प्रचार किया है। इन काव्यों में एक बात विशिष्ट रूप में देखी जा सकती है। कि कवि नायक के उत्कर्ष अपकर्ष का पूर्ण ध्यान रख उसके उदात्त गुणों को चरम पर पहुंचाता है। यही इन काव्यों की मुख्य संवेदना भी है। अपात्र साहित्य की भाति इन चरित ग्रन्थों में चरित महापुराण पक स्थात्मक, मध पर्वबादि अन्ध भी आ जाते है। तीर्थकरों में नैमिनाप आदिनाथ, बार चक्रवर्ती, नौ बलदेव वासुदेव और प्रतिवासुदेव आदि चरितों के साथ साथ कवियों ने त्रिकठिक इलाका पुरुषों को भी रक्सा है। कालान्तर में शिल्प व विषय में परिवर्तन होने के कारण काव्य का नायक धीरोदात्त गुणों से सम्पन्न नायक भी बनने लगा और इस प्रकार इन चरित काव्यमों के क्या नायक महान पुक बौर्य प्रधान राजा आदि भी होने लगे। वृत्त तोड़े मरोड़े जाने लगे। इतिहास के सिद्धान्तों को भी ये जैन कवि अपने ही सिद्धान्तों के अनुसार निर्मित करने लगे। ऐसा करने से कहीं कहीं अमेवर ऐतिहासिक इतिवृत्त की उपेक्षा मी हो गई है। रामक्या, पंच पान्डव चरित, और महाभारत तथा कृम्म क्या में इस प्रकार के अनेक स्थल देखे जा सकते है।
चरित मूलक ग्रंथों को सफल काव्य बनाने के लिप और जनता के समीप लाने के लिए इन कवियों ने क्या को ही माध्यम जुना। सरल भाषा और क्या प्रवाह काव्य को लोकप्रिय व्या सरन बनाने में योग देते थे अतः यदि इन काव्यों में घुमर्जन्म के कर्म-विषाक के कठिन से कठिन सिद्धान्त भी हो तो उनको सदाचार की दृष्टि से महत्व देकर मा साधारण ग्रहण करने को तत्पर रहते थे। डा. विन्टरनिस मे म चरित कायों के इस प्रकार के उद्देश्य का वर्णन किया है। इन जैन कवियों में शास्त्रीय पालों के अतिरिक्त जन भाषा और देशी भाषा में साधारण, असाक्षर