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टीकाएं और टिप्पणिया मात्र है। परन्तु इन से भाषा का प्रत्कालीन स्वय सुरक्षित अवश्य है। वीं शताब्दी की काव्यकृतियों की भाति इन गड्य कृतियों के भी हम सत्कालीन मास के स्वम की जानकारी अधिक कर सकते है। कारण यह है कि यदि पदय में दो मामा के प्राचीन स्वख्यों की रखा जान मकर भी की जा सकती है परन्तु गम के द्वारा सल्कालीन पत्रों आदि के द्वारा क्या नि प्रचलित विचारों के द्वारा इन साधारण गद्य रचनानों गड्व के स्वरूप अधिक सुरक्षित मिलेंगे। अपर जो उदाहरण आराधना में से दिए गए हैं, उनसे स्पष्ट है कि लेखक ने समासान्त पदों का प्रयोग किया है तथा साथ ही अनुप्रामात्मिक या प्रासानुप्रास जैली का भी प्रयोग है। अत: इनसे यहनुमान लगाया जा सकता है कि लेखक ने प्रौढ गय लिखने का प्रयत्न किया है। इनमें संस्कृत के तत्सम शब्दों का आधिक्य है। तत्कालीन जन पाका के कुछ उदाहरणों का उदभव संस्कृत के आधार पर देखा जा सकता है या संका -किया- मिया-मिला। मै, तम्मे हिम० इष्कृत, दुक्कई । सं० येन जिणि। ये व्य पुरानी प्राकृत या अपक्ष के हैं। इसके पश्चात् प्रथमा और दिपतीया में प्रयुक्त उ प्रत्यय तथा डिया पदों मेंकृदन्त रूपों के छ तपाइ प्रत्यय प्रयुक्त किए गए है।
अनेक को मदों में प्रयोग भी मिला है यथा- अमि, पाठ, बार, ईह, वड, निड, पनर, महार, ममि करावधि, इन्डि, माई, मादि नी का पा सकता है कि पापा के काति कालीन स जिनका यह विकसित प्राचीन राजस्थानी स्वस्य है। उक्त उधाण पतबर्ष देखा जा सया है। सरवना के यह शान होता है कि उस समय प्रौढ मत लिखने का भवी प्रचलन रहा होगा।
बड्यपि आराधना टिप्पणी की माथि एक कोटी भी बना है परन्तु फिर पी गय को अपने बाले बीजों को रखने का श्रेय इसी को रहेमा। उपासना प्रधान रखना होने पर भी धार्मिक प्रचार के उदेश्य से लिखी हुई होने पर भी बावरण की पवित्रा में पूर्ण निळा सिद्ध करने वाली कृति है।
ऋषि का लेखक माराधना की प्रति गुजरात प्रदेश में ही मिली जो वास्तव में प्राचीन राजस्थानी का ही प्रदेश पा। हिन्दी साहित्य में