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प्रशस्त किया है।
(आ)- चारण कालः
आचार्य शुक्ल ने जिसे वीरगाथा काल कहा है ठीक उसी काल को ७० रामकुमार वर्मा ने चारण काल की संज्ञा दी है। ० ७५० से ० १००० तक के काल को डा वा ने संधिकाल कहा है तथा आगे के काल को चारण काल । उनके मतानुसार इस काल के साहित्य की रचना अधिकतर चारणों द्वारा हुई, यद्यपि वर्मा जी ने अपने ग्रंथ की रचना शुक्ल जी के इतिहास के ठीक १० वर्ष बाद की थी और इस १० वर्ष के काल में पर्याप्त मई शोध हो चुकी थी और यह बहुत स्पष्ट है कि वर्मा जी ने अनेक नए तथ्यों और नई उपलब्धियों का समाहार अपने प्रबन्ध में किया भी है। उन्होंने हिन्दी और अपभ्रंश साहित्यों का अलग अलग विश्लेषण किया। डा० वर्मा ने के जैन कवियों की रचना को भी साहित्य में स्थान दिया। अतः जहां तक संधिकाल का प्रश्न है उनकी दृष्टि अप के कवियों का मूल्यांकन करने में अधिक प्रशस्त रही है। इस दृष्टि से डा० राम कुमार वर्मा पहले विद्वान है, जिन्होंने अपच के कवियों को सम्मान दिया।
परन्तु जहा तक उनके चारण काल (सं० १०००-१३५०) काप्रश्न है इसके प्रतिपावन में कुछ गतियां मिलती है, वे इस प्रकार है:
उन्होंने चारण काल की सीमा ४० १००० से १३५० तक मानी है, परन्तु इस काल के समाने वाली अनेक रचनाओं का समय उन्होंने इस प्रकार दिया है। एंड या पुरुय माविमायकाल (सं० ७०)
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भुवा (सं० १००० १
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(४)
मोहनलाल विज-इस प्रकार मोहनलाल का ना चाहिए- मत: tere or at
समय केक के बाद ही १८वीं शताब्दी है।
बीसलदेव रासो: भरपति नान्ह--जो हो, १०७१ इतिहास के अधिक समीप है। यदि रातों की एक प्रति हमें यही सं० देती है और इतिहास देव के समय को भी लगभग यही मानता है तो हमें
देव की रचना २०७३ मानने में कोई जाति नहीं होनी चाहिए
१- हिन्दी साहित्य का मालोचनात्मक इतिहास: डा० राम कुमार वर्मा- ३० १४४
२० नही ५० १४५ ३. वही पू० ४- वही ० १४७