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*देते है। साथ ही अपवंश की निश्चित सीमाएं क्या है इसका निधारण भी उन्होंने नहीं किया किन्छ ० ८. से १४० तक की रचनाओं का इसमें परिचय देते है। इसका अर्थ या हुआ कि अपज काल और वीरगाथा काल दोनों साथ साथ एक ही समय में चलते है। वस्तुतः इन असंगतियों का कोई भी समाधान नहीं मिलता।
इधर पुक्ल जी ने इस काल की बहुत सी सामग्री को धर्म-निरुपण वाली माम्प्रदायिक सामग्री कहकर हटा दिया पर्व उनकी प्रवृत्ति पर ध्यान ही नहीं दिया है। गिद्ध और नाथ साहित्य की अपेक्षा ही निर्गुष कवियों के प्रति उनकी एकागी धारमानों का कारण बनी। जिस कबीर को उन्होंने निर्गुण परम्परा का प्रवर्तक कवि माना है, वह वस्तुतः उस परंपरा का बीच का कवि है रहस्यवाद के विकास की मूल भावना में सिद्ध नाथों की बाणियों में मिलती है। जैन कवियों की विशाल पाहित्यिक सामग्री उत्तम प्रबंध कायों, पदयात्मा कथानों,सन्धियों आदि को स्वयंभू, धनपाल, पुष्पवात जैसे महाकवियों की रनामों को धार्मिक बनाकर उन्होंने साहित्यिक क्षेत्र के पृथक कर किया है।
इस तरह यदि जैन साहित्य व इतर साहित्य को तत्कालीन पात्रदायिकता का साहित्य का कर मिक्स कर दिया गया है, तो फिर पूर के पुष्टिमार्ग पर बलसी मानब का स्थान भी दिएप हो गावगा। अत: यह कहा जा सकता है कि बीरगाथा का नाम मत उपयुक्त नहीं है। वास्तव में क्रूजी उस समय इस वा नहीं की मार कर सकते, उन्हें सामग्री की प्राण नीधी। विशेष रूप से रामस्थान लगपन भी मार दबा सही नापार मा ल जी के लिए अन्य नहीं था। हिन्दी म गर की भूमिका में उन्होंने विश कि उनके सy frदी मानिकीमा बाबी बों की विश बराविधी- वस्तुतः प्रवृत्तियों बाग्री मापार र बन्दोंने इसका एक बधि डावा हा कर दिया. जो स्वय मीक (mil shit) है। स्वयं भागार्य शुक्ल ने उनसे पूर्व प्रकाशित प्राप्त हों में वित्त मा है परन्तु जो भी गे, यह निमाणिक बी पी सहिम उसमें बाल प्रापधाराका चार म दिया। उन्हल्दी नदार की मिका (
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