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इस प्रकार दोनों ही स्थितियों में हमें उन्हें वीरगाथा काल की रचनाएं कहने में पूर्ण सन्देह होता है। ऐसा लगता है कि आचार्य रामचन्द्र शुक्ल को इस स्थिति का थोड़ा सा अनुमान हो गया था क्योंकि उन्होंने जानी विवशता निम्नांकित शब्दों में प्रकट की है।" इसी सद्विग्य सामग्री को लेकर जो थोड़ा बहुत विचार हो सकता है उसी पर डी सन्तोष करना पड़ता है।
डा० हजारी प्रसाद द्विवेदी ने मी वीरगाथा नाम का विरोध करते हुए लिखा है "यह स्पष्ट है कि जिन ग्रन्थों के आधार पर इस काल का नाम वीरगाथा काल रखा गया है उनमें से कुछ नोटिस मात्र से बहुत अधिक महत्वपूर्ण नहीं और कुछ या तो पीछे की रचनाएं है या पहले की रचनाओं के विकृत रूप है। इन पुस्तकों को नवीन मान लिया गया है।"
शुक्ल जी की एक दूसरी बड़ी प्रीति यह है कि वे अपभ्रंश और हिन्दी की एक ही समझते हैं। उनके अनुसार अपसंद सा प्राकृताभारा हिन्दी के पड़यों का सबसे पुराना क्य तात्रिक और योगमार्गी बौद्धों की साम्प्रदायिक रचनाओं के भीतर विक्रम की सातवीं शताब्दी के अन्तिम चरण में मिलता है किन्तु मुंज और भोज के समय (सं० २०५० के लगभग) से तो ऐसी अवनं या पुरानी हिन्दी का पूरा प्रचार बुध साहित्य या काव्य रचनावों में भी पाया जाता है। अतः शुक्ल जी के अनुसार हिन्दी साहित्य का आदिकाल सं० २०५० से लेकर से० १३०५ तक अर्थात् महाराजा भोज के समय से लेकर हम्मीरदेव के समय के कुछ पीछे तक माना जासकता है।
शुक्ल जी की स्वयं वीर पुम्पयन्स जैसे जैन कवियों की साहित्यिक रचनाओं का पता नहीं था और यदि रहा भी होगा तो इन्हें साहित्यिक नहीं मानते थे। अन्यथा मे हिन्दी साहित्य का प्रारम्भ सातवीं शताब्दी से ही स्वीकार कर लेते पर उनके विवेषण में एक दूसरी यह मिलती है कि वे इस एक अध्याय में अप और हिन्दी को एक मानते है और बागे दो अध्यायों में अपभ्रंथ और देश पाका की रचनाओं का परिचय अम अलग पत्र काल और वीरगाथा काल शीर्षक के अन्तर्गत
हिन्दी वाल्व का इतिहास
राम चन्द्र क्