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"आज तक की सामग्री के बहारे रासो को प्रामाणिक ग्रन्थ कहना इतिहास और साहित्य के बाद की उपेक्षा करना है।
डा० हजारी प्रसाद द्विवेदी बन्द को हिन्दी का आदि कवि मानने की जपेक्षा उत्तरकालीन अप का कवि कहना अधिक युक्ति संगत समझते है। यदि हम और सूक्ष्म दृष्टि से इसके अन्तराल में प्रविष्ठ हों तो हम देखेंगे कि राखों की मूल प्रवृति भी वीरता मूलक न होकर श्रृंगार मूलक है। ही प्रेम और वीरता का सफल
इसमें है पर श्रंगार भावना के क्रोड़ में वीर भावना पोषित होती है अर्थात्
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वीरता नहीं है।
वीर भावना गाँव है। युद्ध में भी
परन्तु इतना होने पर भी अब पृथ्वीराज राम्रो प्रामाणिक सिद्ध हो चुका है। राम्रो को प्रमाणिक मानने वाले विद्वान मुनिजिन विजय जी, श्री अगरबन्द नाहटा, STO वर वर्मा, डा० हजारी प्रसाद द्विवेदी और डा० माता प्रसाद गुप्त है। श्री दशरथ वर्मा और निजिनविजय जी उसे मूलतः विरचित मानते है। STe दसके कुछ मेशों का अय में स्वामी कर चुके है। इसके अतिरिक्त पुरातन प्रबन्ध संग्रह में उपलब्ध राम्रो के चार छन्द में इसे मूलतः अपभ्रंव में रचित सिद्द करते हैं। श्री अगरचन्द माष्टा और डा० माया प्रसाद गुप्त ने अपने राम्रो सम्बन्धी लेखों से पृथ्वीराज राम्रों की उसकी स्थिति को पर्याप्त का दिया है तथा अब उसकी प्रामाtिear अधिकही जाती है। पर इस प्रामाणिकता की अधिक सार्थकता की भी होगी, जब इसका अधिक में विरचित माना जाय । अन्यथा उसका वर्तमान रूप तो सोवनी बढादी से पूर्व का नहीं कहा। जो भी हो, ST० माता प्रसाद ने राहों के माठ का वैज्ञानिक सम्पादन कर दिया है और विses वर्ग के इसका मूल पाठ जाने पर रासों की प्राथामिकता पर म्य रूप से विवाद किया जा सकेगा। इसी प्रकार अमीर इसरो की पहेलिया भी मूल रूप में उपलब्ध नहीं होती |
ae aerefer बीरगाथा काल की सभी रचनाएं या तो परवर्ती में रचित सिद्ध हो गई है अथवा मूलतः जयमंत्र में रचित मानी जाती है। इस प्रकार
१- डा० रामकुमार गर्ग का इतिहास |