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चौपाई छेद है। अपभ्रंश के इस छंद को कवि ने राजस्थानी सफलता से संभाला है। डा० हजारी प्रसाद द्विववेदी ने तो आज से बहुत पूर्व ही चौबाई का सम्बन्ध अपभ्रंश के अडिल्ला छेद से स्पष्ट किया था। अतः यह यथार्थ है कि चौपई का सम्बन्ध उक्त छंद से है। इस छन्द के एक चरण में १५ मात्राएं होती है और तक के अन्त में क्रमशः लघु (51) जाते हैं। यह चउपई व चौधई परस्पर पर्याप्त समानता रखते है। नेमिनाथ चतुब्धदिका की इसी चउपड़ को हिन्दी मैजायसी तुलसी आदि ने अपनाया है। ज्ञात होता है कि यह छन्द पहले चौपई रहा हो और इसके गेम स्वरूप ने ही इसे चौपई से चौपाई कर दिया हो। अनुमानतः इसके लघु के गुरु हो जाने अधिक गाया जाना ही कारण हो सकता है। जो भी हो, चौपई छंद स्पष्ट है। चतुरूपदिका चौपई का शुद्ध रूप है और यह मात्रिक न्द है।
डा० भायाणी ने इसके छंद बंच में गणों की कल्पना इस प्रकार की है- वे लिखते हैं- संद का नाम शीर्षक से जाना हुआ चौपई है। उसकी १४ मात्राओं की हरेक पक्ति में सामान्यतः ४+४+४, बर कदाचित ६ ६ इस प्रमाण से होप्रस्तुत कृति के संदों की स्थिति स्पष्ट है। एक उदाहरण देखिए
सही पण सामिणि मन भूरि इज्जन तथा न वंशित पूरि गयनेमि, तर विठ काइ, गइ भनेश वरुड सगाई ॥३॥ अलंकारों की योजना भी प्राकृतिक है। उपमा, उपक, स्वाभावोक्ति के अत्यन्त उदाहरण मिलते है कहीं कहीं विरोधाना भी वर्णित है। दृष्टान्त और उदाहरणों का नियोजन मी अत्यन्त उपयुक्त है कुछ उदाहरण देते जा
रम्याच
सकते है:
उपमा
१- विष्णु व रक्तव
२० नहिं नेमि सम वर र
३
सिरिक जीवय-मर
१- हिन्दी की भूमिका- डा० हजारी प्रसाद हिक्वेदी |