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बहि निहाले तय नियम संजमवर संजय सोल्गुण मंडिय पुणिवर बार समरे वि परिसने अक्सपे पुस्वभव कुमर बर समरए नियम विस्त संसार मुहकरइ उवर्म माय पिय पयामि बरत जम्पए
मन पवि मा म भाव वापर (४५) और पुत्र के द्वारा दीक्षा प्राय करने का विचार पूर्वभव जान लेने पर अत्यन्त
हो जाता है।लोगों और सांसारिक सुखों की नश्वरता का सुंदर वर्षन कवि प्रस्तुत करता है। मोग विपरीर स्त्री और यौवन चंचल है लावश्य स्वयं भी वपाल है वह जीव का साथ नहीं देखावा तो अकेला ही जाता है। विक्य मुखों का परिणाम मनोहर नहीं होता। ऐसे पथिक का पंथ धर्म को मोड़कर और कोईसबल नहीं बनता। वर्णन शैली सरस और शब्द चयन कोमल है:
भोग भोगविय विस सरिस मा अपना मरहमद तिरिय गइ वेवमा कारना गोड बस र बमि जीव वि दुबाद बहह मह ममियम इकराड अपळ काश्न जीनी बरो शुधन म्यनुसार पृद्धि परे बीय एक बाइ बारे पत्यादि का पिन शाह मान्दरी वियप परिमाणमा मनहरी केटि विडिय निकली
व विविध विष की ture) भी पुष के बीच प्रान करने पर होने वाली विक्षिा का चित्र जींचती है। पार महासकर मार्ग भूप प्यास सहना, शुक्माल देह, केशलोचन और माम बिहार के मारप है। और यहीं के उत्तर प्रत्युत्तर अली नरकों का