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हथकोदव के चावर बाइयहिगीत गाइयइ सुठि नीके वानिए वसति। कइसे बानिए आपञ्चचा।'
पूर्वी पापा के इस गयउदरण से हिन्दी का बहुत साभ्य स्पष्ट होता है। श्री नाहटा की लिखते है कि-" हिन्दी भाषा का विकास पूर्वी भाक से हुआ जान पड़ता है। परन्तु खड़ी बोली के बहुत निकटयह उद्धरण होने पर भी इस समभ का नाहित्य इस पापा का हमें उपलब्ध नहीं होता व ब्रज भाषा में भी गद्य रचनाओं के उद्धरण बहुत बाद के मिलते हैं अतः रवनाओं की अनुपलब्धि और शोध के अभाज में पूर्वी भाषा का उद्धरण अत्यन्त महत्वपूर्ण होने पर भी इस परंपरा को विकसित करने में अधिक योग नहीं देता । सम्भवतः इस दिशा में शेध होने पर आदिकालीन गइय की प्राचीनतम प्रतियां गद्य और पदय के रूप में उपलवृध हो सके।
श्री अगरचन्द नाहटा हिन्दी के पूर्व प्रान्तीय सबसे प्राचीन गद्य का उदाहरण मी जैन लेखक द्वारा लिखा ही मानते हैं। वे लिखते है कि हिन्दी के पूर्व प्रान्तीय रुप का उदाहरण जैनाचार्य जिनप्रमसूरि के लिखित चार नायिका के संवाद मिलता है वही अब तक सबसे प्राचीन हिन्दी गद्म का उदाहरण समभिर।" परन्त नाहटा श्री की इस अक्तिका पीहार १०वी शताब्दी के एक प्रजेनतर शिलालखस होजाता? (कवि-प्रस्तुत ग्रंथका अध्याय-५)
जिन प्रमारि की उपयक्त रबमा के अतिरिक्त हिन्दी के आदिकालकी रनामों का विभाजन दो कालों के अन्तर्गत किया जा सकता है:
- प्रारम्भिक काल (००० - १४०)
(a) प्रारम्भिक रचना (ब) परवी रचनाएं
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.- राजस्थानी - नागरी प्रारिणी पत्रिका : ४ अ १० २० -- गुजराती गहन संश: मुनि विनाविजय जी। ४- राजस्थानी अंक (राजस्थानी रिसर्च सोसाइटी कलकला)