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या गुजराती भाषा की विशेषता है। साथ ही कवि ने उत्तर अपभ्रंश की उकार बहुला एवं वित्व प्रधान प्रवृत्ति को भी निभाया है:- मोहक, दीos, चालइ, बोलाइ, मानिs, स्वावर, तेहावर लोनई, आवई वरिसिई, हरिसई परिसीलिए, लीला, मुण्ड, वाचई, संबइ, लहकई, टडकई, मंमिई रंगिई, गाय नावइ तथा संदर नरवs are मंद वरी मरी जागिर लागउ, गडगति, महमति, रड, जी, वाला आदि अनेक शब्द है जो नये राजस्थान प्रयोगों की विशेषता सिद्ध
सरि
करते हैं।
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कवि की शैली की समास बहुलता के कुछ उदाहरण देखिए:
(१) त्रिभुवन- गगन विभासन दिनयर
(२) नमिय- निरंजन भव-पय-मंजन
(३) कविजन- मानस-सरवर हंसीय आदि।
रे और वे का प्रयोग गुजराती स्वतंत्र भाषा की प्रारम्भिक भूमिका पर प्रकाश डालते है। सत्सम शब्दों की तो भरमार है ही ।
छंदों के सम्बन्ध में कवि ने स्वयं ही पदों के ऊपर किस लिए दिए है। संस्कृत लोक काव्यम शीर्षक के अन्तर्गत भा जाते है। कवि ने चरणों के छेद को राम्र कहा है। साथ की गदै भी मिलता है जो राव हैद का उत्तराईय लगता है क्योंकि रास छेद की प्रक्ति के चिरका में जाकर प्रथम पंक्ति के प्रथम
चरण में ही आवर्तन होता है
ध्यास मावि देवी शारद, वार कर तिरे
गया
बार
किड निम्त
संस्कृत लोकों में एक स्थान पर जाना भी मिलता है। नये छेदों में कवि ने के प्रयोग किए है। कामुकंद अंतर बनवा दूहों का डी एक स्वच्म है। क्योंकि बार बार भइ काव्यों में प्रयुक्त होने से इस हंद का नाम
काम
ही फा हो गया है।
१५ादी में यहद बहुधा अधिकार काव्य है। रंग सागर काम बादि में जिस पर हम जाने विचार करेगें, ने भी