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________________ १०९ श्वेताम्बर भंडारों में मिली है। आपनीय संघ भागमों को भी मानता था और उनके आगमो की वावमा श्वेताम्बर सम्प्रदाय की उपलब्ध वल्लमी वाचना से भिन्न थी। उस पर उनकी स्वतंत्र टीकार्य भी होंगी जैसी की अपराजित की द बैकलिक पर एक टीका थी जो अब प्राय है। वस्तुतः वाचनीयों के प्राप्साहि के आधार पर हमें श्री नाथूरामजी प्रेमी के इन निकयों का ही सहारा लेना पड़ता है " जिस सम्प्रदाय के अस्तित्व का १५वीं शताब्दी तक पता लगता है और जिसमें शाक्टायन और स्वयंभू ठ प्रतिभाशाली विद्वान हुए है उसका साहित् सर्वथा की नष्ट हो गया हो इस बात पर सहसा विश्वास नहीं होता यह अवश्य होगा और प्राचीन प्रथ पंजारों में ज्ञात अज्ञात रूप में पड़ा होगा। विक्रम की १वीं १वीं शताब्दी तक कन्नड़ी साहित्य में जैन विद्वानों ने एक से एक बढ़कर सैकड़ों ग्रन्थ है, कोई कारण नहीं है कि जब उस समय तक मापनीय संघ के विद्वानों की परम्परा चली आ रही थी, तब उन्होंने भी कड़ी साहित्य को दस मी ग्रन्थ पेट न किय हो । कड़ी में जो ग्रन्थ उपध है, पता से जांच की है कि उनके कानों में किसने आपनीय थे? यापनीय संघ के साथ जैन धर्म के तुलनात्मक अध्ययन करने बालों की बड़ी सहायता मिलेगी। गिम्बर श्वेताम्बर पहनेदों के मूल का पता लगाने के लिए यह दोनों के बीच का बीर दोनों को परस्पर बोड़ने वाला है और धर्म का प्रारम्भिक इतिहास एक तरह से पूर्व ही इसके प्रकाश में माये दिला उक्त हो जाता हैकिस्तार इनके होने और यह कही भी है। मेर दानों के अनेक प्रकार के वर्ग प्रयोक्ता से बीटे जैनियों में मन्दिर मार्गी, बापू, रवी वजन हे वाचन वादादिवर्ष है, इसी तरह दिगम्बरों में भी इन नयाँ वर्षकी बन्दिति में पारी वाचा प्रस्तुत हुई है तथा आज प्राचीन काल कीरा की पाव में उत्तरोत्तर कमी जा रही है। १ र ७३ ।
SR No.010028
Book TitleAadikal ka Hindi Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarishankar Sharma
PublisherHarishankar Sharma
Publication Year
Total Pages1076
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size84 MB
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