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निष्कर्षत: जैन धर्म बौध धर्म की ही भाति शक्तिशाली प्रादुर्भाव लेकर आगे बढ़ा, पर १२वीं १वीं शताब्दी तक इस धर्म को तत्कालीन अन्य धर्मो के प्रवर्तकों से एवं जैन धर्म के कठिन साध्य नियमों से इस धर्म को गहरे धक्के लगे।
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आदिकालीन हिन्दी जैन कृति में जैन धर्म के विविध दार्शनिक सिद्धान्त और उनका परिचय:
मयावधि जैन कवियों द्वारा प्रयुक्त जिवनी कृतियां मिली है, उन सबमें इस धर्म के प्रमुख वार्शनिक विद्यान्तों की अभिव्यंजना सर्व देखी जा सकती है। वि सच तो यह है कि इन कृतियों में अधिक समाज के सामने धार्मिक बिटकॉम प्रस्तुत करती है। धर्म का सम्बन्ध सदाचार और सेवा से है तथा बिना समाज के सेवा का मस्त्वि नहीं । अतः शांति और सदाचार से इन कृतियों में कवियों ने मम दिव और मन दोधन को बनाया है। इन कृतियों में जैन धर्म के प्रमुख ोिं को देता जा सकता है।
(१) संसार
यार नश्वर है, जिम और न ही बार है, दीर्घकर संसार की नश्वरता का बीच देते है। अतः संसार को नश्वर सनम प्रत्येक व्यक्ति को मात्र वाचना में पर होना चाहिए। वह वर्गों और मार दिय के द्वारा ही मनुष्य संसार के निकिता है। जैनियों ने धार की नरवरता का उपदेश दिया। अतः पहले संहार की फिर लामा को उपपना वापरतेश्वर बाकी राड, चैनवाला राव, नरनारी मोच या स्कूलिका में संवार की
नश्वरता पर बहुत कुछ किया गया है।
(3) HEL
न्य पाच
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कवियों में भी है। प्रमुख तत्व जीव, जीव, निर्जरा, आदि है। इनमें आठ तत्वों को
जीव वाचवा है तो
काव्यकारों ने इन
मो की प्राप्ति उसे स्वतः हो जाती है। का हाथों में बाट दिया है। वीवों में मुष्य और प