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उक्त उद्धरण से स्पष्ट होता है कि लेखक ने चर्चरी शब्द का जिस रूप में प्रयोग किया है वह निम्न श्रेणी वर्ग द्वारा गाये जाने वाले गीत के लिए या संगीत के किसी घटिया किस्म के प्रकार विशेष के लिए प्रयुक्त हुआ प्रतीत होता है, परन्तु इसी ग्रन्थ में यही शब्द विभिन्न अर्थों के रूप में भी प्रयुक्त किया गया है उदारहणार्थ :
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सओ सत्येव चिट्ठमानस्थ आगज
समओ वियम्भ
मलय मारो फुल्लिवाई काममुजपई उच्छलियो परड्यासी पयत्ताजा
नयरि बच्चरी ओ
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ड
संस्कृतः ततः तत्रैव विष्टत आगतो वसन्त समयः विमितो मलय
भारत: फुल्लितानि काननोमानानि उच्छलितः पर वास: प्रवृत्ता नगर चर्चय:
(फिर वही रहते वसन्त समय जमा मलयपवन विस्तार को प्राप्त हुआ, कानन अरण्यक उद्यान तथा बाग प्रफुल्ल हुए कोयल की आवाज उछली और नगर की वर्चरियों प्रवृत्ती)"
इस उद्धरण में वर्चरी शब्द गायक टोलियों या उत्सव मंडलियों के लिए प्रयुक्त हुआ है। इसी प्रकार शेष दो उद्धरण देखे जा सकते है:
३-४
अन्नवार्य समाज वसन्त समजो |---- हुइ सुर सुबन्त चञ्चरी तूर महुर निमुधोसो ।
संस्कृत
कन्या व समागतो व समय::--- वृद्धि व मान वर्वरी सूर्य मधुर निर्धाst. 1
( इसके बाद बहुत समय आ पहुंचा।-- कैसा? अनेक विशेषणों में से एक विशेषण प्राप्त करता जिसमें वर्वरी और पूर्व वाम को सुनाकर मधुर निर्दोष श्रुतिसुख देने वाला । ऐसा )
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१- समाइच्य कहा : प्रो० हर्मनकोबी संपादित पृ० ३६८।
वहीं, पु० ६२६ ।