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वस्तुतः ये सामान्य बाते प्रबन्ध कायों में होती है। पस्तु रचनाओं का नाम ही प्रबन्ध हो गया। जिस तरह का बंध कृतियां हमें उपलब्ध होती है उसी प्रकार प्रबन्ध संशक रचनाएं भी। इन स्वनाओं में उक्त प्रबन्धमूलक प्रवृत्तियां का मिाह कहाँ तक है यह ठीक ठीक नहीं कहा जा सकता पर इतना अवश्य है कि प्रबन्ध शैली में रचे हुए कुछ रा और फागु काव्यों में गथा- भरतेश्वरबाहुबली रास, संवधान्डब वरित राम, नेमिनाथ गए समरारा, जिन पर इम पहले विचार कर चुके है, इस प्रकार की माल्लियां पूर्णतया देखने को मिलती है।
इस प्रकार परवर्ती कायों में प्रबन्ध किन्हीं विशेष सीमाओं में नहीं बंधा हुआ दीख पड़ता है। प्रबन्ध अब्द किसी भी पट्य रचना या विशिष्ट प्रकार की पत रा के लिए प्रयुक्त हो सकता है। स्वयं मानीत या स्तवन भी अपने में प्रबन्ध होता है।वास्तव में रखनाओं को सुलनात्मक दृष्टि से देखने पर ऐसा लगता है कि इनके लिए कोईलबाणिक तत्वविशेष नहीं मिलते। साधारणतः ऐसी रचनाओं में कुछ इस प्रकार के जीवन्त तत्यों का समावेश अपने आप हो जाता है।
प्रबन्ध शैली पर लिी गई, रचना में अपेक्षाकृत एक विस्तार भी होता है। उसमें कवि को अपना काव्य कौशल प्रस्तुत करने और अपनी अनुभूतियों की वधार्थ अभियना करने का प्रा पूरा अवसर रहता है। वैविध्य की दृष्टि से भी इस प्रबन्धों का महत्व है।दी के स इस सानों का विस मिलता है। भाष ही काब्य माँ तथा लियों के ममें भी इन प्रबन्ध श्यों की सार्थकता स्पष्ट होती है। कुए मन्थों में ऐतिहासिकता, दान वर्णन ग वर्णन चरित वर्णन माविका विवेचन मिलवाया बबली या अन्य मों में प्रबन्ध सक्षक रचनाओं का भाव दिखाई पडा है।
इस प्रकार के शिल्प लिएकवि किसी निश्चित संदेश आदर्य तथा अन्य जीव सातव्यमा पल्ट को जुनता है प्रबन्ध की सबसे बड़ी विशेषता यही है कि वह सब प्रकार से अपने में पूर्ण हो तथा किसी निश्चित उद्देश्य से मानव मबाण का संदेशदे सके।