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८५ ग्राहमम, पत्रिय, वैश्य, और द्रों परस्पर ऊँच नीच की भावनाएं बढ़ गई। वैश्यवर्ग अधिक पम्पन्न होने लगा। परस्पर मेव भाव का प्रभाव उत्तरोत्तर बढ़ने लगा। सशक्त तथा सम्पन्न निर्गलों को बनाने लगे परन्तु इतना होने पर भी लोग श्रुति सम्मत मार्ग पर चलने थे। चारों को अपने अपने कर्म मेटे हुए थे परन्तु फिर भी माइमन वत्रिय - वैश्य नादि अपने निश्चित मों में अन्य कमों में भी भाग लेते थे। यही कारण है कि राजपूतों में अनेक महापंडित तथा विद्वान । धर्मो के अनुहार भी गौडध, जैन, इस्लाम, आदि अनेक वातिया बीं। भावी खाकी वी साडी के इस में गाडियों मेक मेव उपदों पर स्वर्गीय इतिहासकार शोभा जी ने प्रकाश डामा प्राणों में अनेक गोत्र हो गए थे। दीक्षित, रावत, पाठक, नगर, उपाध्याय, गोपा, दिववेदी, बडुबेदी, त्रिवेदी, दापीर, गुर्जर, गौड़, पारस्वत आदि अनेक गोत्रों का उल्लेख मिला है। उनमें बान, पान विवाह, आदि परसर को नियम मपए है। त्रियों की कई वर्ग हो गए बापत था पूर्व बों का विस्तार है। वैरों पर पान, व्यापार, दाम, बम का पेश था पर कई वैश्यों का राजमंत्री, बेनापति, मादि बनने के भी उल्लेा है। पुरानी गिदी की बनावों में उदारमा स्थतिमा का किम के पिता अक्टार जैन होने पर भी बनी । परनानाति व्यवस्था में पारस्परिक भेद भावना इस्लाम
टार सिगे और यही कारण बिराच कारकीर
मानितीन राग्यों को पासमाना स सम्बत काम
नगरपालिकराबलिया, गुण, रा. गलिी था मिला
र बोरासीवानी का मान समाप बत्मय पूर्ण करावाम रहमान, उपन, प्राबाद था रामोशियों की मानी राजीनामाका वार्षिक कर दी
माल व्यवस्था भी इसके पी। नीच माल्योर, या
पाका गावावरम बवाडीम रागानों पारा