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संस्कृत के श्लोकों पर भी तो पाषा का असर दिखाई पड़ता है और हस्तलिखित प्रतियों में के पद अपर भाषा में वर मिलते है। वस्तुतः ये विषय, भाषा और फागु रचना शिल्प की दृष्टि से इस कृति का वैशिष्टय देखा जा सकता है।
__ कवि का प्रकृति वर्णन, आलंकारिक शैली, संक्षिप्त में सारपूर्ण लिखने की साधना सभी उत्कृष्ट है। पाषा की तत्समता और बदों का विशुद्ध रूप स्पष्ट परिलक्षित होना है। निरास राजुल को अंग का सारा सौन्दर्य सारी बना और श्रृंगार काटने वाला बना । अंग प्रत्या के लिए उसमें कोई भी उत्साह नहीं। उसका सौन्दर्य-मूरित होकर निवेद के चरणों में पड़ा है। इसी तरह संपूर्ण राम कवि ने नारी की अपने सौन्दर्य व उसके उपादानों का तिरस्कार तथा नैराश्य पूर्ण उद्गारों की अभिव्यक्ति की है इस दृष्टि से पूरा काव्य विरह प्रधान गारिक काव्य है।
राजुल की अपने भूगार को कोसने की उक्तियां देखिए:तेह तर्ण कीअलि अलि पयकमलाहिं, परिहरिट हि अकाय रे कायरे बर वनिता बेगि गम नहीं आज मुंआ जमुना जल पूर, कालिन माग निराम रामह बस अविर मकर वि एकति राबड़ी राही रंग,
निरामय दीपक ई नि पीक सिंदूर श्री सिरि मुंधर उधरै नब निर्मक,
उन्न परिपडी बरे लबरे मनी रेकर राज को झाडियों इवारा बनेकार का लिाक और राजुल का अपने जीवन, बोन्बा मी मा मे निरर्थक सिध करना कवि ने सुन्दर इष्टान्तों तो और बाहरला पुष्ट किया है।
-प्राचीन भानु
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साडेसरा पू. ८-१९॥