________________
६४०
नागलो कि वसपाहर काली, मानवी घटिसि तू निहमाली तिर्य लोक कोइ देव न दीसई ताहर जनम जैणि कहीसइ
अहह रूप असंभव भूवलइ, कवण कामिनि एह सभी तुलह डिव हाठि मुझ मन्मध पारिवा, एड जिऊण अंग ऊगारिवा वदन चैव महारस लैइ छाडिउ, अभिय पहतपी रसना जडिळ पवन चंदन गंध हरावतउ, वदनि वासि वसइ दिसि वासन नयण ला मृगनी उपमा किसी, हईइ हारिउ बेडि गई वसी चरण चारिहि हंस हरावती, वच नि जीपइ जीती भारती
निरूपम कुलवाली पनी चित्रसाली, अबिकुल गुणवल्ली काम भूपाल मल्ली कइ हुइ सुरराणी मानवी मईन जाणी,
अहव हुइ जि नारी को इतु हुइ गंधारी वस्तुतः कवि ने द्रौपदी का रूप वर्मन उत्कृष्ट उपमानो से किया है। चन्द महारस लेकर बनाया हुआ मंड, अमृत मयी रसमा, बसों दिशाओं उसके अंगों की सुरभि तथा सौन्दर्यममी नायिका के यौवन व रूप का चित्रण कवि मे अपन्हुति अलंकार द्वारा किया है।
कीचक में अपने प्रेम में द्रौपदी को कैसाना चाहा, द्रौपदी जैसी महासती का प्रभाव यद्यपि विराट की पत्नी, कीचक की बहिन को लग गया पर कीचक ने उसे उलझाने के उपाय किए। कवि ने सुभावितों और इम्ति निति प्रधान उक्तियों द्वारा द्रौपदी की स्थिति का चित्रात्मक वर्णन किया है:
पगंधकारी मिति सदासी, रही बछ उत्तम नारि बासी किमान पापिल का वैब बागइ मनवापतु अंध उगाडिदाइ ग्वाला ज्यालखी कहि न पइड, जल नी धारहि कुम बहसइ