________________ 385 कन्नजयल जसु लहलहत किर मयाहिंडोला बैचल चपल तरंगचंग जसु नयण कचोला सोहइ जासु पोलपालि जपु गालिम सूरा कोमल विमल मुठ जासु वाजई संबतूरा लवणिम रस भर कूवडिय जा नाहिए रेहद मयन राय किर विजयसंभ उसु अरु सोबइ गयु नह पल्लब कामदेव अंकुछ जिम राइ रिमझिपि रिमझिमि ए यायकम लि चाप रिय सुवाजइ नबजोवन विलसत बेह नवनेह महिल्ली परिमल लहरिहि मयमवंत रइके लि पहिल्ली महरविंब परवाल खंड बरषावन्नी नयम बलूगीय हाव भाव बहुगुण संपुन्नी' रचना में अभिनयात्मक प्रवाह है और उत्तर प्रत्युत्तर जैली भी परिलक्षित होती है। स्थलिपद्र के पास कोशा अनेक श्रृंगारिक चेष्टाओं एवं हाव भाव दिसाती है। लेकिन शनि का पसीजना तो दर रहा, कोई प्रभाव ही उन पर परिलक्षित नहीं होता। काम उनके सरीर का स्पर्व ही नहीं कर पाया। कोश का मार मालिम हो जाता है, हाव भाव लि हो जाते है। रीसरे साहब को एकत्रित कर अपनी हार को सियासी प्रेम मि को कामे कमी है प्रियन) इन 'किने निफर हो।।९ वर्ष साथ रहकर इस बरस बर्द बन कर के जेड़ नाना क्या उपयुक्त है। पक गुम के मे को लोहने का क्या काल बार बारित पर ह किसी कारमसि एका मिस कर कि जिस लिलागे ) बन करो। मेरा हवय तो अब लौह पट हो गया। अब इसमें भारी बानी की बावा नहीं जा सकती।जिनेन्द्रिय में दुर्बलता सी। "बी.