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________________ 386 थूलिपद पभणेइ वेस अहदेषु न कीजह लोहि हि धडिया हियउ मम्म वह वयणि न भीजइ / लौहघट हृदय की काता सिद्ध करने में कितना सार्थक शब्द है। परी कोश के हृदय पर लोहिपडिया हिया का प्रभाव उसी प्रकार नहीं पड़ा जैसे उस पर मुनि के धर्म ग्ब्द का नहीं पड़ा। उसने फिर अपनी काम भावना को मुनि के सम्मुख रखा, अपनी विच्छित्ति और वाक्चातुर्य से उसने उन्हें जाना चाहा, भोग का लालच दिया पर मुनि तो संघमश्री को अपना चुके थे, उसी के साथ वे रमन करते थे। अतः कोश को उन्होंने हाः है कोग) ने संयमश्री से वरण कर लिया, संयमत्री के मोहक हाथों मेरा मन बिक गया। अब मैं भोग भी उसके ही साथ करता हूँ। नारी को अविश्वास हो गया। जैसे उसको संयमत्री लौकिक स्त्री मात्र जान पड़ी। नारियों के मनोविज्ञान को सार्थक करती हुई वह बोली:- पुरुषों का नवीन स्त्रियों के प्रेम में फंस जाना स्वाभाविक है। तभी तो आपने मुझे क्याग कर संयमत्री को अपना लिया। भाव यह है कि इसमें आपकी क्या विशेषता है. सिद्धि और मुक्ति भो तो स्त्रियां ही है वर्णन कितना अनूठा है। काव्य में अभिनय का क्रम और बीब्रतर होता जाता है: यह वितिय उवरिया अपराग घरीजा एरी पावस का ति पापीगड है माथ। सुहाना वर्गगल है। सब को छोड़ मेरे साथ मानन्य भोगो पर स्कूलिभद्र का तत्काल प्रत्युत्तर उ शिथिल बनादेवा है, क्योंकि उनके हाथ तो चिन्तामणि आ गई थी. अब उसे छोड़ कर पत्थर कौन इन करेगा। संगमश्री की ग्रीन हाथ की परीर बष्टिवाती लौकिक स्त्री से तुलना क्या मुणिवा जपा मेस शिविध रवनी परिवा म तीन र सिरीहिमोम रमेवा - वही वही छ।
SR No.010028
Book TitleAadikal ka Hindi Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarishankar Sharma
PublisherHarishankar Sharma
Publication Year
Total Pages1076
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size84 MB
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