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कहीं वन ही नहीं होते।
संस्कृत के पश्चात प्राकृत पाली में अर्थात जैन और बौद्ध रचनाओं में हमें गद्य की प्रगति पुनः मिलने लगती है। प्राकृत अपक्ष की रचनाएं वो हिन्दी साहित्य के प्राचीनतम गय रमनाओं की जन्मदात्री कही जा सकती है।वीच स्म में इन रचनाओं में गद्य के प्राचीनतम उदाहरष हमें उपलब्ध होते है। सत्य का प्रारीनतम स्वस्म हमारे सामने प्रस्तुत करने में इन प्रान्तीय भाषाओं और बोल बाल की देशी मावाओं का बात हाथ है।देशी भाषाओं पर अपश का प्रभाव सर्वत्र परिलक्षित होता है यहां तक कि उत्तर की भारत की वर्तमान सभी प्रान्तीय पामाओं का विकास अपज से ही हुवा है।प्राकृत और संस्कृत में तो गय के सैक्शी हजारो पन्ध हैं, पर अपभ्रंश की प्रधानता के समय पत्य का आकर्षण इमा अधिक बढ़ गया था कि अपांच में पड़झबद्त तो विविध प्रकार की को छोटी बड़ी रचनाएं मिलती हैं, परन्तु गद्य में लिा गया कोईभी बत्कालीन गय प्रन्ध स्वतंत्र में उपलब्ध नहीं होता। अपक्ष के नवीं ताइव में रविव कुवलयमाला अन्ध में हमें गद्य के होटेलोटे वाक्य देखने को मिलते है।प्रसिद्ध विइबान श्री लालबंद भगवान गाधी ने अपने ग्रन्थ अपमंक काव्यामी में खलबमाला के कतिपय उद्धरम प्रस्तुत किए है। न हिन्दी गद्य साहित्य की परम्परा उइपब के बीज इसी रनमा से हमें मिलने को है।कुवलयनाला ग्र प डा. हमारी प्रसाद दिवोदी ने भी हिन्दी साहित्य के नाम किय है। वे लिखते है किनवीं बतादी की साला या प्रसंग है जिनमें की तत्काल प्रबलित भाषा के अन्दर जाने काम प्राकृत के इस प्रविध ग्रन्थ प्रवास की वही अपांच का योग मिलता है उस समय के बोलनात की पाक पर रे होट मझारक मामलों में उस पर अच्छा प्रकार पड़ता है।इन
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देखि शेष पत्रिका बीमाटा शिक्षित प्राचीन राजधानी मा साहित्य
हिन्दी साहित्य का आविकास-बापाशी