________________
५६६
जयशेखरसूरि ने परमहंस, चेतना, माया, मोह, प्रवृत्ति, निवृत्ति, सुमति, संयम, श्री, अरिहंत, काम, राग, द्वेष, आदि सभी प्रतीकों का सुन्दर निर्वाह किया है। कवि का यह औचित्य और पात्र-संगति उल्लेखनीय है।
लौकिक रूप में क्या तत्व का परीक्षण करने पर भी यह बहुत स्पष्ट हो जाता है कि कवि ने कथा सत्य के माध्यम से ही इतनी आध्यात्मिक सरस कथा बनाई है। कथा तत्व के इस विकास को हम आगे के पृष्ठ पर रेखा चित्र दुवारा स्पष्ट कर रहे है।
रेखा चित्र द्वारा कथा का क्रमिक विकास देखा जा सकता है कि किस प्रकार नायक अधिकार रेखा से दूर होता गया और कितने प्रयासों के पश्चात् उसे पुनः त्रिभुवन पुर का राज्य प्राप्त हुआ । रूपक के रूप में भी यह स्पष्ट किया जा सकता है कि किस प्रकार परमहंस दुष्प्रवृत्तियों से प्रेरित होकर कष्टपाता है और जब तक संयमश्री विवेक और चेतना की सहायता नहीं पा लेता उसका त्रिभुवन राज्य विनाश की ओर अग्रसर हो जाता है। उक्त रेखा चित्र द्वारा स्थिति बहुत स्पष्ट हो जाती है।
प्रारम्भ में कवि ने मंगलाचरण में परमेश्वर व सरस्वती की वंदना की है। काव्य स्तवन से ही प्रारम्भ आसंगीत में डूबकर कवि ने राग धन्यासी में यह मंगल लिया है:
पहिल पर नमी अलि अविचल विवि समर समरसि भीलवी इंसानि सरसत्ति मानस पर जो निर्मल, करड कुतुहल स वा सरहति रंगि कहर, जोगी जावई ईस पानी पानि सामिनी मन सरसति पारि इमी, मीठे मन वारि
दीव
१. त्रिभुवन दीपक प्रबन्धः श्री गांधी पृ० १ पद १-२-३।