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को मन कर डाला। मूर्तिकला के इस क्रमिक विकास पर रानी के ये विचार उल्लेखनीय है सातवीं सदी तक पूर्व अर्जित मान बना रहा। आठवीं नवीं सदी मैं कुछ ग्रास जरूर होने लगा। लेकिन पूरी तौर से १०वीं शताब्दी में दिखाई पड़ता है बासतौर से यह बात चित्र और मूर्तिकला के बारे में बहुत देखी जाती है। दसवीं शताब्दी और उसके बाद की मूर्तियों बिल्कुल ही बदसूरत और भाव पून्य है। वैसे तो तीर्थकर की मूर्तियों को बनाने में कलाकार अगर बी टालते वीस पड़ते थे। मानव हठी, are serदी की कुछ बुद्ध मूर्तियां नहीं सुन्दर है। मगर आठवीं तादी के बाद तो बुद्ध और तीर्थकरों की मूर्तियां निरी पाषाण ही रह गई है। ही बोधि सत्वों कीर द्वारा की इर्तियां नवीं दसवीं शताब्दी में उतनी बुरी नहीं दीव पड़ती। बल्कि कोई कोई तो बहुत ही सुन्दर है। बासकर के कुर्किहार की आठवीं नवीं सदी की कितनी ही पीतल की मूर्तियां बहुत सुन्दर है। दसवीं गुबारवीं शताब्दी के कुछ चित्रपट free में मौजूद है। रुदाब बीर स्थिति के बौद्ध मठों में कुछ विचित्र मी बहुत अच्छे हैं लेकिन १०वीं ११ वीं शताब्दी के जो चित्र और बौद्ध वरल पोथियों पर मिले हैं वे जरूर मदे हैं।-- देलवाड़ा के जैन मन्दिरों में संगमर्मर पर ये कमल मन बहुत सुन्दर है। यद्यपि उनमें अलंकरण की मात्रा जरूरत से ज्यादा बी पड़ती है जिससे कानीन्दर्य की उसमें कमी है। तो भी संगमर्मर को मोम का भक्षण की तरह बनी किन्निबोध काट कर काकार ने जो की farar है यह खासनीय है। लेकिन उसी पत्थर में जोडियमी है उनकी नहीं होता कि उससे दुम्बर पर
हाथ इतनी ही मूर्तियां
सदी के बाद वह दिन और मूर्ति का का दिवाला
भी बना सकते है।
ही निक्क गाया है।
के बाद की
जैन मन्दिरों में
बीन के बाद भी किता मिलती है जैसलमेर बीकानेर तथा पाटण
१- हिन्दी काव्य पा