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________________ ७९७ और यदि बरसते हो तो अपनाया गरम गरकर लरको मत। इन्हीं भावों को कवि ने बापाड़ के महीने से ही प्रारम्भ किया है। बारहमासा फाग की मावि कीडनीय और मेव होते हुए भी विरह की मम्मीरगरिमा से मोमोत है। भाषा की सरलता प्रासादिकता और काव्य की परसवा दृष्टव्य है: पुरि बामा नयु मोरी नयो ना माई गपिस पापीउला परिका 0 मामे विविध मासों में काव्य की सरममा दुम्टव्य है।निप्रसंभ मार अपने चरम पर पर जाना है।वनराब फूल गई। पर राम सभ। पाटा परिमल से सारे कानम और बाबावन और पित हो गए शिव के सिर पर से उबर बहने वाली मंगा भी बाह का मन नहीं करती उसको और भी अधिक बढ़ा देती है। रचना के उत्तराईध में कवि ने बिरामी परम स्थिति को बबाग : चिन्न बाकदह, सबिली राइ पास परिमल बाकती,पूरब की गाइ कहीड ईयर बीरगंग वाइ सिरि बास पाने की सूचना देवा चार मिनाथ को नहीं मेयवा रस लिए कोई नहीं मिकी मनमानी की बीनमा देटि:बार भाजपा कोष बमाबारीमी- हार काव्य को बीर शिवा मावास्यु ब बारहमासा एक परस ग ति बिपूर्व वा योगा।
SR No.010028
Book TitleAadikal ka Hindi Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarishankar Sharma
PublisherHarishankar Sharma
Publication Year
Total Pages1076
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size84 MB
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