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की विशेष मुद्रा का परिचादेते हुए श्री मनोहर शर्मा लिखते हैं कि डफ के गीव कुरुष समाज के गीत है। इन दिनों के सम्बन्ध में स्त्रियों के गीत अलग है और पुरुषों के अलग। यह वसंतोत्सव का समय है। इस समय नृत्य गीत एवं बाहुब की एक धारा सी बह चलती है। हफ पुरुष ही बजाते है और वे ही इसकी आवाज के साथ नाचते है और गाते हैं। एक हाथ में डफ (चंग) और चिमटी (लकड़ी का एक छोटा सा टुकड़ा) रखते हैं और दूसरे हाथ से डक बजाया जाता है। हाथ की बोट से नर की आवाज पैदा होती है और चिमटी सेमादा की बाबाब निकलती है। साथ में छिमछमए (भंजीरे) भी बजाए जाते हैं। डक बजाने वाले अपने पैरों में मोटे
बाधते है। उफ के साथ जो नाव होता है वह भी अपनी अलग विशेषता रखता है। उफ के साथ कुक्कर, बैठकर, और यहां तक कि लेट कर भी नाव होता है। इन डफ गीतों के विषय भी अनेक होते हैं। इनके गीतों का धमाल अथवा होरी कहा जाता । इस तरह होली के आगमन तक ये गीत अपने चरम पर पहुँच जाते है। राजस्थान के देहातों में इन गीतों का सुन्दर रूप मिलता है। डफ के इम गीतों में उल्लास की अन्विति रहती है तथा सामाजिक जीवन एवं प्रादेशिक वातावरण के भी सुम्दर चित्रण मिलते है। इन गीतों की लय व धुनें अलग अलग होती है उसे ढाल कहते है। यह बातें कई प्रकार से गाई जाती है इन गीतों के tarfsfree, धार्मक, सामजिक, सांस्कृतिक आदि अनेक होते हैं। कुछ गीतों को प्रमुख रागों के अतर्गत भी रखा जा सकता है। श्री मनोहर वर्मा ने अपने लेख में श्री मह, वि पान्डव धन- विजोग, भरवन का विरह, कान का माव प्रमरगीत, माहेरा, बराय, हीररांगा हवी, कूंजा, स्वच्म, चरसा, मे आदि पर प्रकाश डाला है। प्रश्नोत्तर रूप में
हम गीयों के
मी मी चलते है।
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इ प्रकार का कायों से इनका पर्याप्त साम्य है परन्तु गायक, नर्तक
भी है। परन्तु जहां वसन्त मास, मेयात्मकता
या पात्रों की दृष्टि से थोड़ा
वही, पृ० २४-४४ वही, पृ० ४-४४