________________
1
३६२
संगीत तत्व, लोक साहित्य के एक रस मधुरता, उल्लास और नृत्यएवं बोध का सम्बन्ध है, राजस्थानी डफ के गीत फागु काव्यों का पूर्णतया प्रतिनिधित्व करते हैं। सामन्यतः फागों की यही प्रवृत्तियां हैं पर क्योंकि जैन कवियों द्वारा ही अधिकशत: इन फागु काव्य की रचना हुई है। अतः इसके शिल्प में एक विचित्रता है। कईफाग श्रृंगार शून्य है। इनमें रितुओं की वासन्तिक सुषमा का वर्णन भी नहीं होता | ये शान्त र प्रधान होते है। पर जहा तक स्थूलियन और नेमिनाथ दोनों चरिनायकों से सम्बन्धित फागु है, उनमें मधुर श्रृंगार सर्वत्र परिलक्षित होता है।
फायु की इन्हीं विशेषताओं को दृष्टि में रखते हुए श्री अगरचन्द नाहटा ने लिखा है कि वसंत रितु का प्रधान उत्सव फाल्गुन महिने में होता है। उस समय नर नारी मिलकर एक दूसरे पर अबीर आदि डालते हैं और जल की पिचकारियों से क्रीड़ा करते अथाय फागु खेलते हैं। जिनमें वसंत रितु के उल्लास का कुछ बर्गम हो या जो वसंत रितु में गाई जाती हो ऐसी रचनाओं को फागु संज्ञा दी गई है। "
फागु काव्यों की एक और शैली शबुदार्तकार वाची अनुप्रसात्मक शैली है। श्री नाइटाजी ने भी इस शैली को फागुबंधी कहा है। ऐसी रचनाओं में ब्दालंकार के साथ यमकच अनुप्रास पाया जाता है। परन्तु आदिकालीन सब फार्गों को इस इष्टि से देखने से कई रचनाएं इस का बंधी बैली में नहीं आ पाती। संगवादः यह वर्मन की एक क्लिष्ट साहित्यिक बैठी है और इससे इसकी शास्त्रीयता स्वाभाविक रसमयी कानु रचनाओं में बाधा पहुचाती है। इस यमक अनुमान बद्धकी में किसे गए कुछ का अवश्य मिलते है। काव काव्यों के पूर्ववर्ती और उत्तरवर्ती काल में इस प्रकार की रचनाएं नहीं मिलती। डी मध्ययम में इस प्रकार के काव्य यमकशास मिलते है। उमाकरणार्थ बेवरत्न सूरि काम, जीरापल्ली पार्श्वनाग फागु
आदि।
डा० अम्बालाल प्रेमानन्द बा ने इधर फागु काव्य की नई ही परिभाषा है। उनके सुधार का नगी है मद हैं औरन काव्य (प्रकार) का नाम ।
नागरी प्रवारम पत्रिका वर्ग ५८ बैंक ४ सं० २०११ प्राचीन मावा काव्यों की विविध स्वार्थ-त्री मगर माइटा का