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ऐसा प्रतीत होता है कि फागु शब्दालंकार वाची अनुप्रासात्मक रचना है। संस्कृत मैं जिस प्रकार यमक बदूध अनुप्रासमय काव्य होते है वैसी रचना को भाषा मैं फागबंध कहा जा सकता है।
उक्त परिभाषा कहा तक ठीक है, यह तो नहीं कहा जा सकता। पर saना अवश्य है कि इस प्रकार की परिमाया को ही फागु काव्य के लिए खू कर देने से अनेक आदिकालीन फागु रचनाएं, जिनको रचनाकारों और प्रतितिधिकारों मे फागु लिखा तथा कहा है, काय की सीमा में नहीं आ सकेगी और इमको अनेक सरस मण एवं प्रसाद गुण सम्पन्न साहित्यिक कृतियों के हाथ धोना पड़ेगा। श्री डा० शाह ने संभवत: परिभाषा में नवीनता अवश्य रखदी है पर विषय की दृष्टि से यह बहुत संगत नहीं कही जा सकती। क्योंकि इसमें उनका दृष्टिकोण एकांगी है जो फागु के बहुत महत्वपूर्ण अंश को छोड़ देता है। संभवतः श्री डा० शाह के कथन के मूल में यह बात हो कि श्रृंगार जर्मन जैन कवियों की प्रवृत्ति के प्रतिकूल है । अतः अfिiree: उनके कागु यमकबंध अनुप्रासमय ही होते हैं और विषय निर्वेदात, वसन्तवर्णन हीन एवं शीतरस पूर्व पर वास्तव में ऐसी बात नहीं है। जिम जिन जैन कवियों ने भी मेमिनाथ और स्थूतिमद्र को अपने काव्य का रिमाक माना है वे श्रृंगार और वसन्त नादि का चित्रण नहीं छोड़ सके है क्योंकि इन पुरुयों का संच डी पहले श्रृंगार से रहा है और फिर मग मात्र का का मात्र कहना इस साहित्यिक कृतियों की ओर से बहुत कम नहीं कहा जा सकता है। यह सही है कि का are are du org रचनाएं मिली है निगार आदि का वर्षम नहीं है औरकेवल परन्तु विषय प्रवृत्ति और संस्था दोनों ही दृष्टियों से
बैच रथनाओं को ही
बंद कर लेना होगा, जो
काव्यों के मध्ययुग 請 ***
र का है काव्यों के पूर्व और परवर्ती काल की अनेक परस कृतियों के आधार पर ही कार के वित्त्वा परिमाया भय दृष्टिकोण का निर्णय होना चाहिए। अतः
किसी व्यापक परिभाषा की पर्याप्त अपेक्षा है ताकि उसने दोनों प्रकार की इवियों
१० जैन प्रकाश वर्ष १५५६० १६५ परस्य अने भादरी निराश कामना की।