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आराधना और अतिचार
ये दोनों गय रचनाएं पर्याप्त समनार्थक है अतिवसर सं० १३४० में लिखी ताड़पत्रीय रचना है। समानार्थक ही नहीं, इनके वर्य विषय और शैली शिल्प में मी पर्याप्त साम्य है। अन्तर सिर्फ इतना ही है आराधना में उपासना की विधियों पर प्रधान रूप में विचार किया गया होता है और अतिचार में आराध्य व आराधना के सैद्धान्तिक तत्वों का। दोनों धार्मिक कृतियों है तथा ऐसी कृतियों का मन्तव्य स्पष्टतया धर्म प्रचार की कहा जायगा।
इस विक प्रकार आराधना में साधना और आराधना की विविध क्रियाओं व उपकरणों आदि की विधियां स्पष्ट की गई होती है तथा धर्म की यह एक ऐसी स्थिति विशेष होती है जिसमें जवारों की श्रेष्ठता स्पष्ट की जाती है और ares को अतिचारों से एक दम दूर रहने का एक महत्वपूर्ण सुकाव होता है। पापों के १८ स्थानों, एवं हम रहस्यों का प्रकटीकरण, दुष्कार्यो पर पहचाताप त्या कार्यों आदि का विवेचन आदि आराधना में होता है। अतिवारों में ज्ञान दर्शन तप चारित्र्य और वीर्थ- इन पाव आचारों और बारह व्रत के दोनों की आलोचना की जाती है।श्री मास्टर जी लिखते है कि आज मी पाक्षिक agro draरिक प्रक्रिमण के समय यह अतिचार लोक पापा ने बोला जाता है जब कि प्रतिक्रमण के सूत्र अधिक है।"
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जहां तक अतिचार क दोनों कृतियों में वर्मित गदूम की भावा का प्रश्न है वह आराधना के समान ही है अविवार का एक उदाहरण देखिए:
कालवेला पढ विनय हीन बहुमानही उपधान ही गुरुमिव
- हामी चरण पाटी पोथी कमली साप
पाला
काग पढाइने मन्छ अंतरा
अनेरा पहई पढ. -
साडी भाडा
१- माराधना प्रा० ० का० २०८६
- नगर वर्ष
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