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हर की हुई तथा ज्ञान प्रक्यु भक्षित उपेक्षित प्रजापरिधि विपास्म विणासितां वेल्ब ती सक्ति सार संमान की धियइ, अनेरइ ज्ञाना बारित, कोई अनि मुल्मबाट पनि बचनि काइ, पदिवस माति
तेह माहि मिशनि दुक्कई ।' उक्त उद्धरण में अपज का उकारात्मक प्रवृत्ति स्पष्ट है। उधरण में सत्सम शब्द अधिक है पढने (पढ़ा) व (देखा था करता, पढ़ता, शुभता आदि वर्तमान वृदन्त आज भी राजस्थानी प्रयुक्त है। शहदों के नये रुप भी उल्लेखनीय उदाहरणार्थ -सातमइ, लागठ, पानि, आगला, आजिल, कीथी, केरणा, सापुट, मोही पीचर प्रावि। मात्रि मद सानुनासिक है, जो आज भी प्रै तृतीया के एक्वचन में सानुनासिक है। इकार प्रवृत्ति प्राचीन है ए के स में प्रयुक्त अन्य नये है।
इसी प्रकार १३६८ में विरचित अतिचार का उद्धरण उल्लेखनीय है। व्यंजनकूट, अपर कूट काना मात्र आग, मोठ देव बंबा, पडिस्कमाइ सन्मान करता पढता गुणता हुओ, इ, अर्थकूट बाय कूट ज्ञानोपकर मि पाटी पोधी ग्वाभि सापडा सापढी पति आवासना पालागर पड़ना शुषता प्रबेशु म बराई की मामा के मिछामि जय इसमें वो कार
रिस के कालदों जैसे * स्वाध्यामागे और भूलोकवान राजस्थानी + माल्दिी स्वरूपहो मग । प्राचीन राजस्थानी के अनेक शब्द पाडोगि कोषह, मागि, मालीपी, forबा, राजिमीको उबल, मन मोक्लावित
इटम की लावाणिक प्रgtee अगुवन काल में जाते जाने सवम पिस मारमा प्रबीच होगा।
"प्राचीन राय
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