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वे हागों की उंगलियों से सिर से लेकर पैर तक और पैर से सिर तक पूजा के सामान का प्रयोग करती हुई करती है शेष स्त्रियों वायों पर नृत्य करती तथा गाती रहती है। इस क्रिया को चाचर करना कहते है। इसके मूल मेंक्या बात है यह तो निश्चित कहीं कहा जा सकता क्योंकि पूछने पर वे बतलाती है कि यह एक रुदि है पुरातन नियम है अत: आस मींच कर इसे पूरा करना ही पड़ता है ऐसा उनका दृष्टिकोण है । परन्तु इसके मूल में वर वधू के उल्लास पूर्ण सुखी जीवन और भविष्य की शुभकामना करने के लिए ही यह सब कुछ किया जाता होगा।
जो भी हो, चर्वरी या वाचर के साजस्थान में जो अद्यावधि जो भी प देखने को मिलते है उन पर प्रकाश डाल का प्रयास किया गया है। बहुत संभव है कि लोक प्रथा या रिवाज होने से इस चरी ने अब तक सबसे अधिक लोकप्रियता पाई हो । चर्जरी के शिल्प पर विस्तार में और भी विवानों ने हमारे सामने विचार रखे है जिनसे वर्वरी के शिल्प को सपने में सहायता होती है। वस्तुतः इस सम्बन्ध में आज तक चर्चरी का जो भी सत्य है उसको स्पष्ट किया गया है। यह भी बहुत संभव है कि बोध होने पर इसके शिल्प प्रेर और भी नये ज्ञातव्य प्राप्त हो ।
चर्नरी सेशक रचनाओं की सरक्षता, काव्यात्मकता, उल्लास और भाव का अध्ययन आदिकालीन हिन्दी जैन साहित्य में उपलब्ध कुछ प्रसिद्ध रचनाओं के साहित्यिक मूल्याकन पर हो सकेगा। यहां एक दो प्रमुख रचनाओं का आलोचनात्मक विश्लेषण दिया जा रहा है:
वरी
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चर्चरीक रचनाओं में एक कवि सोलन रचित एक कृति उपलब्ध होती है। रचना बहुत पहले ही प्रकाशित हो चुकी है। यह चम्बरी मेय है और इसका रचनाकाल
व ताइदी का उत्तराय है। रचनाकार का नाम आरम्भ में ही मिल जाता है:
१० विशेष विस्तार के लिए देखिए जैन सत्यप्रकाश वर्ष १२ अंक ६ में प्रकाशित श्री हीरा लाल कापड़िया का चर्चरी शीर्षक लेख |
२- जैन गुर्जर कवियो भाग १ पृ० १२-१३ और प्राचीन गुर्जर काव्य संग्रह पृ०७१-७४ |