________________
५४६
का लोक प्रिय गीत या छद बने यही बात इसके मूल में रही हो और इसका शिल्प अनेक बार सफलता से प्रयुक्त होने के कारण ही इसे विभिन्न प्रकार से विषय बनाया गया हो।
इस प्रकार उक्त चर्च संज्ञक प्रमाण, शब्द क्यों तथा अन्य बातों के आधार पर चर्चरी का शिल्प पर्याप्त स्पष्ट हो जाता है। चर्चरी की यह परंपरा संस्कृत प्राकृत और अपभ्रंश से अवश्य रूप से चली जा रही है। जिसके प्रमुख स्थलों का विवेचन ऊपर किया जा चुका है।
वस्तुतः अद्यावधि प्राचीन प्राप्त साहित्य में वर्चरी सम्बन्धी जितने उल्लेख तथा प्रमाण उपलब्ध होते हैं उनका परिचय यहीं दिया गया है। चर्चरी का इस समय राजस्थान में जो स्वरूपहै वह आज में मली माति देखने को मिल जाता है। चर्वरी गान यहां उल्लास प्रधान लोक गीत के रूप में आज भी माना जाता है। इसका सही वार्थ स्वस्थ फाल्गुन के दिनों में गाये जाने वाले रंग के गीतों में देखा जा सकता है । सँग गीत जिस तरह आदि काल के साहित्यिक काव्य रूप फागु का प्रतिनिधित्व करते है ठीक इसी प्रकार उसमें चर्वरी का रूप भी देखा जा सकता है। चंग के गीत फागुन में ही गाये जाते हैं मधुमास के उल्लास प्रधान वातावरण को मुखरित करने वाले ये लोक मान व रूपों में रात्रि राशि संगीत की मधुर ध्वनियों पैकूट पड़ता है ये बर्बरी गीत चंग वाय पर गाये जाते हैं जो वर्षद की होना कही जा सकती है । प्राचीन काल की भाँति बर्बरी गान की इन टोलियों में मध्यमवर्ग तथा निम्न वर्ग की ही टोली रहती है जो नाच नाच कर अपने दवे अथच अबोले उल्लास को वामी प्रदान करती है। अतः जंग के इन गावों में इस समय वर्वरि का सम्यकू तथा क्रमिक विकास देखा जा सकता है।
जहां तक चीवर शद का प्रश्न है वह कहा जासकता है कि इस समय इस में थोड़ा कर परिचित होता है। चाचर इन दिनों राजस्थान के नृत्य प्रधान, वाय प्रधान, उल्लासमय अभिव्यक्ति को तो कहते ही है पर विवाह
के
मैं नृत्य करती करती गान गाती विविध वाद्यों सहित नारियां
पर बर है। यह एक प्रकार का उल्लास प्रधान टोना या क्रिया विशेष होती है जिसे