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अतः यह तो स्पष्ट है कि चरी का प्रचल्न लोक गीतों के विशिष्ट प्रकार के रूप 4वीं सताब्दी में ही हो गया होगा क्योंकि जिनदत्त सूरि ने बञ्चरी का प्रयोग किया है। गस्त्रीय दृष्टि से इसन्द के लक्षणों का वर्णन मिलता है जो विविध मामों में प्रचलित रहा होगा पस्तु फिर मी वरी को हम कोई निश्चित छन्द विशेष नहीं कह सकते। ही लोक प्रचलित रूपों में आगरा और उसके आस पास यह लोक गान ब गाता रहा हो ऐसा प्रतीत होता है। वो कोई भी सहदय इस बात का मी अमान लगा सकता है कि यह गीत कबीर के बीजक में मार्चर बना बैठा है साथ ही जायसी में भी कागुन और होली के संग में चाचरि या चाचर का उल्लेख मिलता है। कालिदास और हर्ष के माटकों में इस गीत का शिल्प अधिक स्पष्ट तो नहीं है परन्तु उनमें चर्वरी का वर्णन अवश्य मिलता है। अतः इतने प्रसिद्ध गीत मे यह निधार से कहा जा सका है कि चरी लोक प्रिय यता प्रधान मान रहा होगा जो चाचर से भिन्न, किसी सामूहिक उत्सव या क्रीडा या खेल नहीं होकर सरल सम्मोहन पूर्ण बसन्त में नाव नाच कर उल्लास के द्वारा प्रकट की हुई मायक गीत शैली विशेष है। यह भी सम्भव है कि लोक साहित्य की सरल तथा मोहक लोकप्रिय गीत ली या गान ली होने के कारण ही जैन कवि श्री जिनवत्वरि ने इसको अपने ग्रन्थों में अपनाया हो। एक विशिष्ट बात यह भी है कि जनरुचि का हार बनने और लोक प्रिय होने के कारण इस वरी गीत की ध्वन्यात्मकया ने सबका मनाथ कर दिया हो और यह सब वा गीत प्रत्येक मनुष्य
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दूसरी बाबर के बुधव इस प्रकार हैचार जन के नेहरा मन बीरा हो जामसोम वापसमा मन बीरा हो अननोका गवंडी मन बौराहो मान किरिम बाकी साज समापन बौराहो बिना का देवरा मन बराहो हिगिलकी ईट सामनबीराहो काढाकीस्विनी मनबौराहो शिव रच्यो जगदी मापन बौरा हो