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श्री स्थूलभद्र फागु
फाग वसन्त रितु में खेले जाते है, गाए जाते है और उल्लासपूर्ण जीवन की आरहादक अभिव्यक्ति के प्रतीक काव्य है। कई फाग रूपक काव्य भी कहे जाते है। अनेक विद्वानों ने फागु संशक काव्यों की अनेक प्रकार से परिभाषाएं की है जिन पर पूर्व पृष्ठों में प्रकाश डाला जा चुका है। मधु महोत्सव सम्बन्धी ऐसे ही
रूपक फाग ? हमारे आदिकालीन हिन्दी जैन साहित्य में बहुत बड़ी संख्या मैं मिलते है। जैन फागों के शिल्प और जैनैतर फागों के शिल्प में बहुत अन्तर है उनमें सेवक काम शान्त रस के छलकते स्त्रोत है परन्तु अनेक ऐसे फागु भी है जिनका वर्णय-विध्य श्रंगार ही रहा है। श्री जम्बू स्वामी, श्री स्थूलीभद्र आदि पुरुषों पर र जितने फागु मिलेंगे, वे सब श्रृंगारिक रचनाएं ही होंगी। ऐसी स्थिति में इन चरित नायकों पर लिखी ये समस्त रचनाएं अपवाद ही कही जाएंगी। सामान्यतः फागु का तात्पर्य रास के मसूण रूप से है। इसका काल मधु महोत्सव या वसन्त रितु होता है और इस काव्य रूप में गेय-तत्व नृत्य, संगीत, रुपक आदि सभी उपादान समन्वित रहते हैं। श्री के०व्यास ने जैनेजर फागों और जैन कार्गो पर बहुत ही बिस्तार के प्रकाश डाला है। उन्होंने भी जैन फार्मो को वन प्रधान या श्रृंगार रहित रचनाये ही कहा है परन्तु मै उनकी परियाका में नहीं जाने वाले अपवाद है।
द्रि और नाथ के