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श्रृंगारिक घटनाओं से सम्बन्धित होने एवं प्रेमाख्यानक वृत्त होने के कारण ही इन रचनाओं की प्रवृत्तियां अंगारिक है। स्थूलिभद्र फागु ऐसी ही रचना है। स्थूलिभद्र स्वयं एक श्रृंगारिक नायक रहे है और क्यों कि उनकी प्रारंभिक पत्तियां श्रृंगारिक है, अत: इस काव्य को श्रृंगारिक काव्य ही कहा जाना चाहिए। प्रस्तुत काष्य के अधिकांश अवतरण श्रुमारिक है। रूप-वर्मन पर्व नसविस वन में एकअपूर्व श्रृंगारिकता, प्रेमाख्यानकता एवं चमत्कारिकता है ।अवः स्थूलिभद्र काय को गारिक रचना कहा जासकता है।
सर्व प्रथम यह रका प्राचीन गुर्जर काव्य में प्रकाशित हुई थी। और अब इसका पाइ डा. भोगीलाल साडेसरा ने सम्पादित कर दिया है। उनके सम्पादन से पूर्व उनका यह पाठ प्राध्य विद्या मन्दिर की पत्रिका में भी छप सका था। डा. साडेसरा मे प्रस्तुत कृति के पाठ का आधार बलात का पाठ एवं पाटण मंडार से प्राप्त प्रति के पाठ को रहा है। स्वर्गीय श्री मोहनलाल देसाई ने भी अने प्रस्थ जैन गुर्जर कवियों में कृति का नाम एवं आदि अन्त दिया है।
कृति के रमाकार श्री जिनपद्म सूरि है। जिनपद्ममूरि का परिचय ऐतिहासिक जैन काव्य-संग्रह मंत्री नाटा जी ने विस्तार से दिया है। पूरि जी स्वेताम्बर सम्प्रदाय के घरबारमा । को संवा १. आराय-पद पिता और • १४0 तक इनका मासान मा सम्पन: इस कार की रका संवा रे .... के बीच पीकहीं शेषी। पाटन में इन्हीं पुरि जी को (वास पासवति सरस्वती) का बिल्य खिा ।'
प्रतिमा का एक गारिक बन्ड काव्य है, जिसी स्था नास का पूरा चरितमी मिला उसके जीवन सम्बन्धी पूर्व कार्यो और म-व्यापारों का
Marat..श्री.
बीधार.९ . प्राचीन
की नीलाल साडेसरा.प्राचीन गुर्जर अन्धमाल...."
- शिव रेविहासिक जैन का ५. वही ग्रन्थ, बही
महकी अमर वरतात माटा- प्राका-डामाडेसरा,..